Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, Social Issues, tagged अडवाणी, अभिप्राय, कोंगी, कोलमीस्ट, जूठ बोलनेवालोंके समर्थक, जैसे थे वादी, टमाटर, टूकडे टूकडे गेंग, देश द्रोही, देशविरोधी नारे, नरेन्द्र मोदी, नुकशानकी आपूर्ति, फुलगोभी, बीजेपी, महानुभाव, मूर्धन्य, राहुल घांडी on April 12, 2019|
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कोंगी का नया दाव -३
“हमने कभी हमसे विरुद्ध अभिप्राय रखनेवालोंको देश द्रोही नहीं समज़े” अडवाणी उवाच.
अडवाणीके इस कथनको एन्टी-मोदी-गेंग उछालेगी.
“हमसे विरुद्ध अभिप्राय” इस कथनका कोई मूल्य नहीं है, जब तक आप इस कथनके संदर्भको गुप्त रखें. सिर्फ इस कथन पर चर्चा चलाना एक बेवकुफी है, जब आप इसका संदर्भ नहीं देतें.

मुज़े टमाटर पसंद है और आपको फुलगोभी. मेरे अभिप्रायसे टमाटर खाना अच्छा है. आपके अभिप्रायसे फुलगोभी अच्छी है. इसका समाधान हो सकता है. आरोग्यशास्त्रीको और कृषिवैज्ञानिकको बुलाओ और सुनिश्चित करो कि एक सुनिश्चित विस्तारकी भूमिमें सुनिश्चित धनसे और सुनिश्चित पानीकी उपलब्धतामें जो उत्पादन हुआ उसका आरोग्यको कितना लाभ-हानि है. यदि वैज्ञानिक ढंगसे देखा जाय तो इसका आकलन हो सकता है. मान लो कि फुलगोभीने मैदान मार लिया.
कोई कहेगा, आपने तो वैज्ञानिक ढंगसे तुलना की. लेकिन आपने दो परिबलों पर ध्यान नहीं दिया. एक परिबल है टमाटरसे मिलनेवाला आनंद और दुसरा परिबल है आरोग्यप्रदतामें जो कमी रही उसकी आपूर्ति करनेकी मेरी क्षमता. यदि मैं आपूर्ति करनेमें सक्षम हूँ तो?
अब आप यह सोचिये कि टमाटर पर पसंदगीका अभिप्राय रखने वाला कहे कि फुलगोभी वाला देशद्रोही है. तो आपको क्या कहेना है?
वास्तवमें अभिप्रायका संबंध तर्क से है. और दो विभिन्न अभिप्राय वालोंमे एक सत्यसे नजदिक होता है और दुसरा दूर. जो दूर है वह भी शायद तीसरे अभिप्राय वाली व्यक्तिकी सापेक्षतासे सत्यसे समीप है.
तो समस्या क्या है?
उपरोक्त उदाहरणमें, मान लो कि, प्रथम व्यक्ति सत्यसे समीप है, दूसरा व्यक्ति सत्यसे प्रथम व्यक्तिकी सापेक्षतासे थोडा दूर है. लेकिन दुसरा व्यक्ति कहेता है कि यह जो दूरी है उसकी आपूर्तिके लिये मैं सक्षम हूँ. अब यदि तुलना करें तो तो दूसरा व्यक्ति भी सत्यसे उतना ही समीप हो गया. और उसके पास रहा “आनंद” भी.
य.टमाटर+क्ष१.खर्च+य१.आरोग्य+झ.आनंद+आपूर्तिकी क्षमता = र.फुलगोभी+क्ष१.खर्च+य२.आरोग्य+झ.आनंद जहाँ आनंद समान है बनाता है जब य१.आरोग्य +आपूर्तिकी क्षमता= य२.आरोग्य होता है.
जब आपूर्तिकी क्षमता होती है तो दोनों सत्य है. या तो कहो कि दोनों श्रेय है.
लेकिन विद्वान लोग गफला कहाँ करते है?
आपूर्तिकी क्षमताको और आनंदकी अवगणनाको समज़नेमें गफला करते है.
कई कोंगी-गेंगोंके प्रेमीयोंने जे.एन.यु. के नारोंसे देशको क्या हानि होती है (हानि = ऋणात्मक आनंद) उसकी अवगणना की है. और उस क्षतिकी आपूर्तिकी क्षमताकी अवगणना की है. क्यों कि उनकी समज़से यह कोई अवयव है ही नहीं. उनकी प्रज्ञाकी सीमासे बाहर है.
जब दो भीन्न अभिप्रायोंका संदर्भ दिया तो पता चल गया कि इसको देश द्रोहसे कोई संबंध नहीं. और ऐसे कथनको यदि कोई अपने मनमाने और अकथित संदर्भमें ले ले तो यह सिर्फ सियासती कथन बन जाता है.
जे.एन.यु. के कुछ “तथा कथित विद्यार्थीयों”के नारोंसे देशका हित होता है क्या?
“मुज़से अलग मान्यता रखनेवालोंको मैंने देश द्रोही नही समज़ा” अडवाणीका यह कथन अन्योक्ति है, या अनावश्यक है या मीथ्या है.
कुछ लोग जे.एन.यु. कल्चरकी दुहाई क्यों देते हैं?
राहुल घांडी और केजरीवाल खुद उनके पास गये थे और उन्होंने जे.एन.यु.की टूकडे टूकडे गेंगको सहयोग देके बोला था कि, आप आगे बढो, हम आप लोगोंके साथ है. विद्वानोंने इस गेंगके नारोंको बिना दुहराये इसके उपर तात्विक चर्चा की कि नारोंसे देशके टूकडे नहीं होते. नारे लगाना अभिव्यक्तिके स्वातंत्र्यके अंतर्गत आता है.
यदि अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताकी ही बात करें तो, तो बीजेपी या अन्य लोग भी अपनी अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताके कारण इसकी टीका कर सकते हैं. यदि आप समज़ते है कि ऐसे प्रतिभाव देने वाले असहिष्णु है तो, संविधानके अनुसार आप दोनों एक दुसरेके उपर कार्यवाही करनेके लिये मूक्त है.
क्या टूकडे टूकडे गेंग वालोंने और उनके समर्थकोंने इस असहिष्णुता पर केस दर्ज़ किया? नारोंके विरोधीयोंके विरुद्ध नारे लगानेवालों पर भी आप केस दर्ज करो न.
जिनको उपरोक्त गेंगके नारे, देशद्रोही लगे वे तो न्यायालयमें गये. गेंगवाले भी अपनेसे विरुद्ध अभिप्राय रखनेवालोंके विरुद्ध न्यायालयमें जा सकते है. न्यायालयने तो, देशविरोधी नारे लगानेवाली गेंगके नेताओं पर प्रारंभिक फटकार लगाई.
जब देशके टूकडे टूकडे करनेके नारे वालोंको विपक्षोंका और समाचार माध्यमोंका खूलकर समर्थन मिला तो ऐसे नारे वाली घटनाएं अनेक जगह बनीं.
फिर भी एक चर्चा चल पडी कि अपने अभिप्रायसे भीन्न अधिकार रखनेवालोंको देश द्रोही समज़ना चाहिये या नहीं. बस हमारे आडवाणीने और मोदी विरोधियोंने यही शब्द पकड लिये. जनताको परोक्ष तरिकेसे गलत संदेश मिला.
सेनाने सर्जीकल स्ट्राईक किया, सेनाने एर स्ट्राईक किया और उन्होंने ही उसकी घोषणा की. पाकिस्तानने तो अपनी आदतके अनुसार नकार दिया. कुछ विदेशी अखबारोंने अपने व्यापारिक हितोंकी रक्षाके लिये इनको अपने तरिकोंसे नकारा. लेकिन हमारी कोंगी-गेंगोंने भी नकारा.
यह क्या देशके हितमें है?
क्या इससे जो अबुध जनताके मानसको यानी कि देशको, जो नुकशान होता है उसकी आपूर्ति हो सकती है?
इसके पहेले विमुद्रीकरण वाले कदमके विरुद्ध भी यही लोग लगातार टीका करते रहे. “ फर्जी करन्सी नोटें राष्ट्रीयकृत बेंकोंके ए.टी.एम.मेंसे निकले, इस हद तक फर्जी करन्सी नोटोंकी व्यापकता हो” ऐसी स्थितिमें फर्जी करन्सी नोटोंको रोकनेका एक ही तरिका था और वह तरिका, विमुद्रीकरण ही था. और इसके पूर्व मोदीने पर्याप्त कदम भी उठाये थे. विमुद्रीकरण पर गरीबोंके नाम पर काले धनवालोंने अभूत पूर्व शोर मचाया था. लेकिन कोई माईका लाल, ऐसा मूर्धन्य, महानुभाव, प्रकान्ड अर्थशास्त्री निकला नहीं जो विकल्प बता सकें. विमुद्रीकरणकी टीका करनेवाले सबके सब बडे नामके अंतर्गत छोटे व्यक्ति निकले.
“चौकीदार चोर है” राहुल के सामने बीजेपीका “मैं भी चौकीदार हूँ”
यह भी समाचार पत्रोमें चला. मूर्धन्य कटारिया (कोलमीस्ट्स) लोग “चौकीदार” शब्दार्थकी, व्युत्पत्तिकी, समानार्थी शब्दोंकी, उन शब्दोंके अर्थकी, चर्चा करनेमें अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करने लगे. प्रीतीश नंदी उसमें एक है. यह एक मीथ्या चर्चा है हम उसका विवरण नहीं करेंगे.
राहुलका अमेठीसे केरलके वायनाड जाना.
समाचार माध्यम इस मुद्देको भी उछाल रहे है. इसकी तुलना कोंगी-गेंगोंके सहायक लोग, २०१४में मोदीने दो बेठकोंके उपर चूनाव लडा था, उसके साथ कर रहे है.
वास्तवमें इसमें तो राहुल घांडी, अपने कोमवादी मानसको ही प्रदर्शित कर रहे है. जिस बैठक पर राहुल और उसके पूर्वज लगातार चूनाव लडते आये हैं और जितते आये हैं, उस बैठक पर भरोसा न होना या न रखना, और चूंकि, वायनाडमें मुस्लिम और ख्रीस्ती समुदाय बहुमतमें है और चूं कि आपने (कोंगी वंशवादी फरजंदोंने) उनको आपका मतबेंक बनाया है, इसलिये आप (राहुल घांडी)ने वायनाड चूना, उसका मतलब क्या हो सकता है? कोंगी लोगोंको और उनको अनुमोदन करनेवालोंको या तो उनकी अघटित तुलना करनेवालोंको कमसे कम सत्यका आदर करना चाहिये. कोमवादीयोंको सहयोग देना नहीं चाहिये.
सत्य और श्रेय का आदर ही जनतंत्रकी परिभाषा है.
मोदीकी कार्यशैली पारदर्शी है. मोदीने अपने पदका गैरकानूनी लाभ नहीं लिया, मोदीने अपने संबंधीयोंको भी लाभ लेने नहीं दिया है, मोदीका मंत्री मंडल साफ सुथरा है, मोदीने संपत्तिसे जूडे नियमोंमें पर्याप्त सुधार किया है, मोदीने अक्षम लोगोंकी पर्याप्त सहायता की है, मोदीने अक्षम लोगोंको सक्षम बनानेके लिये पर्याप्त कदम उठाये है, मोदीने विकासके लिये अधिकतर काम किया है.
इसके कारण मोदीके सामने कोई टीक सकता, और कोई उसके काबिल नहीं है, तो भी कुछ मूर्धन्य लोग मोदी/बीजेपीके विरुद्ध क्यों पडे है?
मोदीने पत्रकारोंकी सुविधाएं खतम कर दी. कुछ मूर्धन्योंको महत्व देना बंद कर दिया. इससे इन मूर्धन्य कोलमीस्टोंके अहंकार को आघात हुआ है. सत्य यही है. जो सुविधाओंके गुलाम है, उनका असली चहेरा सामने आ गया. ये लोग स्वकेन्द्री थे और अपने व्यवसायको “देशके हितमें कामकरनेवाला दिखाते थे” ये लोग एक मुखौटा पहनके घुमते थे. यह बात अब सामने आ गयी. लेकिन इन महानुभावोंको इस बातका पता नहीं है !
ये लोग समज़ते है कि वे शब्दोंकी जालमें किसीभी घटनाको और किसी भी मुद्देको, अपने शब्द-वाक्य-चातुर्यसे मोदीके विरुद्ध प्रस्तूत कर सकते है.
समाचार पत्रोंके मालिकोंका “चातूर्य” देखो. चातूर्य शब्द वैसे तो हास्यास्पद है, लेकिन कुछ उदाहरण देख लो.
अमित शाहने गांधीनगरसे चूनावमें प्रत्याषीके रुपमें आवेदन दिया.
इसके उपर दो पन्नेका मसाला दिया. निशान दो व्यक्ति है. एक है अडवाणी. दुसरे है राजनाथ सिंघ. अभी इसके उपर टीप्पणीयोंकी वर्षा हो रही है. और अधिक होती रहेगी.
अडवाणीको बिना पूछे उनकी संसदीय क्षेत्रके उपर अमित शाहको टीकट दी. “यह अडवाणीका अपमान हुआ.”
हमारे राहुलबाबाने बोला कि “मोदीने जूते मारके अडवाणीको नीचे उतारा. क्या यह हिन्दु धर्म है?”-राहुल.
तो हमारे “डी.बी. (दिव्य भास्कर गुजराती प्रकाशन)भाईने सबसे विशाल अक्षरोमें प्रथम पृष्ठ पर, यह कथन छापा. और फिर स्वयं (डी.बी.भाई) तो तटस्थ है, वह दिखानेके लिये, छोटे अक्षरोंमें लिखा कि “मोदीको मर्यादा सिखानेके चक्करमें खुद मर्यादा भूले”.
डी.बी. भाईको “मोदीने अडवाणीको जूते मारके नीची उतारा … क्या यह हिन्दु धर्म है? “ कथन अधिक प्रभावशाली बनानेका था. इस लिये इस कथनको अतिविशाल अक्षरोंमें छापा. राहुल तो केवल मर्यादा भूले. राहुलका “अपनी मर्यादा भूलना” महत्वका नहीं है. “जूता मारना” वास्तविक नहीं है. लेकिन राहुलने कहा है, और वैसे भी “जूता मारना” एक रोमांचक प्रक्रिया है न. इस कल्पनाका सहारा वाचकगण लें, तो ठीक रहेगा. यदि डी.बी.भाईने इससे उल्टा किया होता तो?
डी.बी. भाई यदि सबसे विशाल अक्षरोंमें छापते कि “मोदीको मर्यादा की दूहाई देनेवाले राहुल खुद मर्यादा भूले” और जो शाब्दिक असत्य है उसको छापते तो …? तो पूरा प्रकाशन राहुलके विरुद्ध जाता. जो राहुल के विरुद्ध है उसका विवरण अधिक देना पडता. मजेकी बात यही है कि डी.बी.भाई ने राहुलकी मर्यादा लुप्तताका कोई विवरण नहीं दिया. राहुलका “अडवाणीका टीकट और हिन्दु धर्मको जोडना” उसकी मानसिकता प्रकट करता है कि वह हर बातमें धर्मको लाना चाहता है. डी.बी. भाईने इस बातका भी विवरण नहीं किया.
अडवाणीको टीकट न देना कोई मुद्दा ही नहीं है. जो व्यक्ति ९२ वर्ष होते हुए भी अपनी अनिच्छा प्रकट करने के बदले मौन धारण करता है. फिर पक्षका एक वरिष्ठ होद्देदार उसके पास जा कर उसकी अनुमति लेता है कि उनको टीकट नहीं चाहिये. फिर भी, बातका बतंगड बनानेकी क्या आवश्यकता?
यही पत्राकार, मूर्धन्य, कोलमीस्ट लोग जब १९६८में इन्दिरा गांधीने कहा “मेरे पिताजीको तो बहूत कुछ करना था लेकिन ये बुढ्ढे लोग मेरे पिताजीको करने नहीं देते थे”. तब इन्ही लोंगोंने उछल उछल कर इन्दिराका समर्थन किया था. किसी भी माईके लालने इन्दिराको एक प्रश्न तक नहीं किया कि, “कौनसे काम आपके पिताजी करना चाहते थे जो इन बुढ्ढे लोगोंने नहीं करने दिया”.
यशवंत राव चवाणने खुल कर कहा था कि हम युवानोंके लिये सबकुछ करेंगे लेकिन बुढोंके लिये कुछ नहीं करेंगे. और इन्ही लोगोंने तालिया बजायी थीं. आज यही लोग बुढ्ढे हो गये या चल बसे, और भी “गरीबी रही”.
जिन समाचार पत्रोंको बातका बतंगड बनाना है और उसमें भी बीजेपीके विरुद्ध तो खासम खास ही, उनको कौन रोक सकता है?
पत्रकारित्व पहेलेसे ही अपना एजन्डा रखते आया है. ये लोग महात्मा गांधीकी बाते करेंगे लेकिन महात्मा गांधीका “सीधा समाचार”देनेके व्यवहारसे दूर ही रहेंगे. महात्मा गांधीकी ऐसी तैसी.
देश दो हिस्सेमें विभाजित हो गया है;
एक तरफ है विकास. जिसका रीपोर्ट कार्ड “ओन-लाईन” पर भी उपलब्ध है,
सबका साथ सबका विकास,
सुशासन, सुविधा और पारदर्शिता,
दुसरी तरफ है
वंशवादी, स्वकेन्द्री, भ्रष्टताके आरोपवाले नेतागण जिनके उपर न्यायालयमें केस चल रहे हैं और वे जमानत पर है, जूठ बोलनेवाले, “वदतः व्याघात्” वाले (अपनके खुदके कथनो पर विरोधाभाषी हो), जातिवाद, कोमवाद, क्षेत्रवाद आदि देशको विभाजित करने वाले पक्ष और उनके समर्थक, “जैसे थे परिस्थिति” को चाहने वाले. ये लोग देशके नुकशानकी आपूर्ति करनेमें बिलकुल असमर्थ है. इनका नारा है “मोदी हटाओ” और देशको सुरक्षा देनेवाले कानूनोंको हटाओ.

इसमें क्या निहित है इसकी चर्चा कोई समाचार पत्र या टीवी चेनल नहीं करेगा क्यों कि वैसे भी यही लोग स्वस्थ चर्चामें मानते ही नहीं है.
स्वयं लूटो और अपनवालोंको भी लूटने दो. जन तंत्रकी ऐसी तैसी… समाचार माध्यम भी यह सिद्ध करनेमें व्यस्त है कि बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिलनेवाला नहीं है और एक मजबुर सरकार बनने वाली है. यदि वह कोंगी-गेंगवाली सरकार बनती है, तो वेल एन्ड गुड. और यदि वह बीजेपीकी गठजोड वाली सरकार हो तो हमें तो उनकी बुराई करनेका मौका ही मौका है.
शिरीष मोहनलाल दवे
https://www.treenetram.wordpress.com
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Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, tagged अडवाणी, आपातकाल, इन्दिरा गांधी, चरणसिंग, जयप्रकाश नारायण, नरेन्द्र मोदी, नहेरुवीयन कोंग्रेस, पराजय, प्रधान मंत्री, मोरारजी देसाई, रुह, विसंवाद, २५ जुन on June 24, 2015|
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२५ जुन नहेरुवीयन कोंग्रेस बनी भारतका एक कलंक
अहो आश्चर्यम्

२५ जुन भारतके लिये एक लज्जास्पद दिन है. यह प्रजातंत्रकी मृत्यु का दिन था. और उसकी हत्यारी थीं नहेरुवीयन कोंग्रेसकी उनके द्वारा एक मात्र मान्य नेत्री इन्दिरा गांधी.
वैसे तो १९७० के चूनावमें इन्दिराके पक्षको प्रचंड बहुमत मिला था.
पाकिस्तानकी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण और भारतके जवानोंकी वीरता और व्युहरचानाके कारण भारतको भव्य विजय प्राप्त हुई थी. इस विजयका श्रेय भी इन्दिराने लिया था. समाचार माध्यमोंने भी यही बात चलायी.
इसके उपरांत इन्दिराने संविधानमें कई संशोधन करके अपनी सत्ता बढाई. उसने ऐसे भी प्रयत्न किये कि मानव अधिकारों को भी क्षति पहोंचानेकी संसदको सत्ता मिले. किन्तु इसमें वह विफल रही. क्यों कि सर्वोच्च न्यायालयने इस प्रस्तावको नकार दिया और कहा कि मानव अधिकार और प्राकृतिक अधिकार को नष्ट नहीं किया जा सकता. क्यों कि यह तो प्रजासत्ताककी नींव है.
वैसे तो इन्दिरा गांधी अपने पक्षमें सर्वेसर्वा थी और अधिकतर राज्योंमें भी उसके खुदके नियुक्त मुख्य मंत्री थे. तो भी इन्दिरा गांधी देशकी आर्थिक स्थितिमें कोई सुधार करनेमें असफल रहीं.
कोंग्रेसके विभाजनके बाद सीन्डीकेटके नेतागण तो उसके सामने स्पर्धाके लिये रहे नहीं. किन्तु पक्षमें भी वह कोई सर उठाके चले और कोई भी अच्छे कामका श्रेय खुदके नाम पर ले ले वह इन्दिराको पसंद नहीं था. उसने हमेशा स्वयंकी सत्ताको कोई ललकारने वाला न रहे उसीमें व्यस्त रहीं. वीपी सिंघ, बहुगुणा, ललितनारायण मिश्र आदि उनमें मुख्य थे. प्रथम दो थे इनको निकाल दिया. तीसरेकी मृत्यु हो गई. और दो बचे. वे थे यशवंत राव चौहाण और जगजिवन राम.
सर्व क्षेत्रीय विफलताके कारण १९७३से जन आंदोलन का प्रारंभ हुआ. १९७४ उसके प्रचंड बहुमतवाली गुजरातकी विधानसभाका विसर्जन करना पडा. १९७५में इन्दिराका खुदका चूनाव रद हो गया, उतना ही नहीं किन्तु वह स्वयं ६ सालके लिये अयोग्य घोषित की गयी. गुजरातकी विधानसभा चूनावमें उसका पक्ष सत्तासे विमुख हो गया. स्वयं को बचाने के लिये और सत्ता पर चालु रहेने के लिये वह साम्यवादीयं की तरह कुछ भी कर सकती थी. इन्दिराने आंतरिक आपातकाल घोषित किया. आपतकालमें क्या हुआ वह हमने देख लिया. इस विषय पर इसी वेबसाईट पर कई और लेख है. आप कृपया उनको पढें.
शासन किसीको भी पकड सकता था और कारावासमें भेज सकता था. सिर्फ शासनके अधिकृत अफसरको न्यायधीशके सामने कहेनाका था कि यह समाज और शासनके लिये खतरा है.
एक न्यायाधीशने एक आरोपीको जब उसके सामने प्रस्तूत किया तो पुलिस अफसरसे पूछा की इसको क्यूं पकडा है? पूलिस प्रोसीक्युटरने बताया कि वह देश विरोधी कार्य कर रहा है.
न्यायधीशने पूछा कि वह क्या कर रहा है?
आरोपीने बोला, मैंने तो कुछ भी किया नहीं है.
न्यायधीशने प्रोसीक्युटरसे पूछा कि किस आधार पर शासनने उसको पकडा है.
प्रोसीक्युटरने बोला कि आपातकालमें कारण और आधार बतानेकी आवश्यकता नहीं.
न्यायधीशने बोला कि आप चाहे आरोपी को न बाताओ, लेकिन मुझे तो बताओ. चलो मेरी केबिनमें और मुझे बताओ.
प्रोसीक्युटरने बोला कि आपको बताना भी आपातकालमें आवश्यक नहीं है.
न्यायधीश ने बोला कि आरोपके आधारका अस्तित्व होना तो आवश्यक है ही. यदि आप न्यायालयको भी नहीं कहोगे तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि आप किसीको भी कुछ भी करोगे.
शासनने बताया कि आपातकालमें शासन चूं कि संविधानके अधिकार स्थगित हुए है, शासन चाहे तो मनुष्यका प्राण भी ले सकता है.
न्यायधीशने कहा कि, संविधान के अधिकार स्थगित हुए है. संविधानके अधिकार नष्ट नही हुए है. इस लिये आरोपके आधारका अस्तित्व होना अनिवार्य है. और न्यायालयके प्रत्यक्ष तो प्रस्तूत करना ही पडेगा.
भारतके न्यायतंत्रकी निडरतासे इन्दिरा को बेहद नफरत थी. सर्वोच्च न्यायालयके मुख्य नायाधीश जब निवृत्त हुए तब उसने उच्चताके क्रममें चौथे क्रमवाले न्यायधीश, जो इन्दिराको सपर्पित थे उनको मुख्य न्यायाधीश बनाया. इससे वरिष्ठ क्रमके तीनों न्यायाधीशोंने त्यागपत्र दे दिया. अब सर्वोच्च न्यायालय इन्दिराके समर्पित हो गया. किन्तु इन्दिराको लगा कि पूरा न्यायतंत्र उसको समर्पित नहीं हो सकता किन्तु सर्वोच्च न्यायालय समर्पित हो गया है तो इससे भी लाभ तो होगा ही. संसदकी अवधि कभी की समाप्त हो गयी थी और जो समय चल रहा था वह विस्तारित अवधिका था. विदेशोंमें इन्दिरा अपकीर्तित हो गयी थी. चूनाव करना आवश्यक हो गया था. उसके विश्वस्त गुप्ततंत्रने उसको बता दिया था कि आपतकालके विरुद्ध कोई कुत्ता भी नहीं भोंका है, तो इन्दिराने चूनावकी घोषणा कर दी.
किन्तु भारतीय संस्कृतिमें लोकतंत्रका मूल सहस्त्रों वर्ष पूराना है. और उस बीसवीं सदीके सत्तरके दशकके समय माहात्मा गांधीवादीके समयके कई नेता जीवित थे. आरएसएस के सेवकोंने भी पूरा समय दिया. आरएसएसका व्यापक संगठन है. वह यदि सुग्रथित, सुनिश्चित और लयबद्ध रीतिसे बिना भेदभावसे एक ध्येय पर कार्य करें तो वह क्या कर सकता है यह बात उसने भारतमें १९७७में सिद्ध कर दिया.
इन्दिरा गांधी स्वयं ५५००० मतोंसे हारी. एक सरमुखत्यार, आपतकाल चालु रखके और समाचार माध्यमोंको एक मात्र स्वयंको ही समर्पित रखके चूनाव घोषित करें, तो भी, केवल उसका पक्ष ही नहीं स्वयं भी पराजित हो जाय, ऐसा विश्वमें कहीं हुआ नहीं है. केवल भारतमें ही हुआ और केवल भारतमें ही ऐसा हो सकता है.
मोरारजी देसाईको प्रधानमंत्री पदके लिये क्यों चूना गया?
१९७०के चूनावमें इन्दिरा प्रवाहमें पूरे देशमें कोंग्रेस (संस्था) हार गयी. अन्य दलोंका भी यही हाल हुआ था. केवल गुजरातमें मोरारजी देसाई वाली कोंग्रेसको अधिक बैठकें मिली. जयप्रकाश नारायणके आंदोलनमें और गुजरातके नवनिर्माण आंदोलनमें मोरारजी देसाईकी बडी भूमिका रही थी. वैसे भी वे वरिष्ठ थे और प्रशासनमें दक्ष थे. १९७७के चूनावमें भी कोंग्रेस (संगठान)की श्रेष्ठ भूमिका रही.
मोरारजी देसाई जनता पार्टीके नेता हुए. और प्रधान मंत्री बने.
किन्तु अपनेको महात्मा गांधीके सच्चे अनुयायी मानने वाले चौधरी चरण सिंहकी तबियत गुदगुदाई और उन्होने शासनकी अंतर्गत ही सियासत चालु कर दी. एक स्थिति ऐसी आयी कि मोरारजी देसाईने उनको पदभ्रष्ट भी कर दिया. और कहा कि तुम अपना चूनाव चिन्ह भी लेलो और जनता पार्टीसे अलग हो जाओ. उस समय चरण सींग के पास केवल ४० सदस्य थे. वे यदि चले भी जाते तो और कम सदस्य उनके साथ जाते. किन्तु अटल बिहारी बाजपाइ ने मोरारजी देसाईको मना लिया और आश्वासन दिलाया कि अब चरण सिंघ पुनरावृत्ति नहीं करेंगे.
लेकिन युपीकी और बिहारकी सियासत ही भीन्न है या वह कुछ भी हो चरणसींगने अपने गुटके सदस्यों और इन्दिरा, यशवंतराव चवाणके पक्षकी सहायता लेके मोरारजी देसाई की सरकारको गिरायी. चरण सिंहने इन्दिरा और चवाणसे आश्वासन लिया था कि वे संसदमें उनको प्रधानमंत्री बननेमें सहयोग देंगे. किंतु जब संसदमें बहुमत सिद्ध करने का समय आया तो इन्दिराने उनके विरुद्ध मतदान किया. इन्दिराने कहा मैंने तो केवल जनता पक्षकी सरकारके पतनके लिये ही आपको सहयोग दिया था. आपको प्रधानमंत्री तो बनने दिया, किन्तु यह आवश्यक नहीं कि हम आपको लगातार सहयोग देते रहें. इस प्रकार संसदमें प्रधानमंत्रीकी बैठक पर चौधरी चरण सिंह केवल ४५ सेकंड के लिये ही बैठ पाये. यह वही चरण सिंग थे जो इन्दिरा गांधीको प्रथम क्रमके दुश्मन मानते थे. उन्होंने इन्दिरा गांधीको, बिना कोइ पूर्व योजना बनाये गिरफ्तार भी किया था, किन्तु न्यायालयके सामने प्रस्तूत करने के समय सुयोग्य आधार न होने के कारण न्याधीशने इन्दिराको मुक्त कर दिया था. यह सब अधिगत होने पर भी चरणसिंगने इन्दिरा गांधीका सहयोग लिया और जनता द्वारा सुस्थापित शासनका पतन करवाया. प्रयोजन केवल स्वयंको येनकेन प्रकारेण प्रधान मंत्री बननेका था.
यह मोरारजी देसाईने अपने १८ मासके शासन दरम्यान अर्थतंत्रमें पर्याप्त सुधार ला दिया था. संविधानमें भी पर्याप्त संशोधन कर दिया था ताकि, कोई स्वकेन्द्री और आपखुद व्यक्ति गणतंत्रको हानि न कर सके.
चरण सिंह हंगामी प्रधानमंत्री बने रहे. इन्दिराने नीलम संजिव रेड्डीको मनवाकर संसद्का विसर्जन करवा दिया. चरणसिंगके कारण पुरा जनता पक्ष अपकीर्तित हो गया. १९८०का चूनाव जनता पक्ष हार गया. इन्दिरा पुनः सत्ता पर आ गई.
वह पुनः आपातकाल ला न सकी. किन्तु सर्वोदय संस्थाओंको चून चून कर कष्ट दिया. सर्वोदयवाले भी अपनी संस्थाकी रक्षाके लिये इंदिराको समर्पित हो गये. आरएसएसवाले भी निवृत हो गये.
राम मनोहर लोहिया, राज गोपलाचारी, मसाणी, दांडेकर, मधु दंडवते, मधु लिमये और जयप्रकाश नारायण नारयण के अभावमें २००४ से २००८ तकके नहेरुवीयन कोंग्रेसके कुकर्मोंका उत्तर मागने वाला और ऊंचे स्वरमें बोलने वाला कोई बचा नहीं था.
लालकृष्ण अडवाणीकी रामरथ लेके देशमें कोमवाद फैलानेके लिये दोषित मानके कडी आलोचना की जाती थी, और रामजन्म भूमि पर स्थित बाबरी मस्जिदका ढांचा गिराने के लिये उनको कारावासमें भेजनेका कहा जाता था, वही समाचार माध्यम आज उनकी कथित लोकशाही संकट के विधानोंपर प्रशंसा के पुष्पोंकी वर्षा कर रहे हैं. जब जब अडवाणीने नरेन्द्र मोदीके विरुद्ध विसंवादी उच्चारण किया है तब तब समाचार माध्यमोंने और मोदीसे जलने वालोंने अडावाणी पर पुष्पोंकी वर्षा की है.
अडवाणी को अवश्य पेटमें दर्द है. किन्तु अडवाणीको समझना आवश्यक है कि १९९९–२००४ वे स्वयं गृह मंत्री थे. यदि वे दक्ष होते तो वे अपने कार्य द्वारा दक्षता और मस्तिष्क द्वारा व्युहरचना के आधार पर पुनःविजय प्राप्त कर सकते थे. मान लिजीये एक बार विफल हो गये. तो भी २००९ में तो अडवाणीके पास अति सानुकुल परिस्थिति थी. नहेरुवीयन कोंग्रेसके कौभाण्ड, आपखुदी और शिथिल शासन चरमसीमा पर था. इतना ही नहीं आपतकालकी नहेरुवीयन कोंग्रेसकी मानसिकता ही एक वज्रास्त्र है. किन्तु बीजेपीके अन्य नेताओं को छोड दो तो भी, अडवाणीको स्वयंको इस शस्त्रका उपयोग करना नहीं आता है. नहेरुवीयन कोंग्रेस, जिसके लिये आज भी इन्दिरा और नहेरु उतने ही पूज्य है जितने पूर्वकालमें थे. और इसीकारण “नहेरुवीयन आपातकाल” बीजेपीके नेताओंके लिये एक वज्रास्त्र है यदि उसका उपयोग करना चाहे तो.
२०१४ के चूनावके पूर्व यदि अडवाणी प्रधानमंत्री पदके लिये प्रस्तूत किये जाते तो बीजेपीकी पराजय निश्चत थी. संघने बीजेपी पर मोदीके लिये दबाव नहीं डाला था. किन्तु आम जनताका क्या मत है वह संघ और बीजेपीनेता अधिगत कर पाये इसी कारणसे बीजेपी ने मोदी का नाम प्रस्तूत किया या करना पडा.
क्या मोदीकी तरह अडवाणी परियोजनाएं सोच सकते है? नहीं.
क्या मोदीकी तरह अडवाणी नवतर संकल्प कर सकते है?
क्या मोदीकी तरह अडवाणी व्यूहरचानाएं कर सकते है? नहीं.
क्या मोदीकी तरह अडवाणी प्रवचन कर सकते है? नहीं.
क्या नरेन्द्र मोदीकी तरह १८ कलाक, अडवाणी काम कर सकते है? नहीं.
यदि ऐसा होता तो अडवाणी २००४ और २००९ में बीजेपीको चूनाव में विजय दिला सकते थे.
अडवाणी को अपातकाल कैसा था वह योग्य प्रमाणमें अवगत है, अधिगत और अनुभूत भी है.

उन्होने ऐसे सियासतसे भरपुर और स्वयंके पक्षके उच्चस्थ और लोकप्रिय नेताको हानि पहोंचे ऐसा उच्चारण प्रथमवार नहीं किया है. अडवाणीने ऐसा अनेक बार किया है.
नरेन्द्र मोदीको चूनाव प्रचारके लिये मुख्य प्रचारक घोषित किया गया तब भी अडवाणीने ऐसे विसंवादी उच्चारण किया था. आदवाणीने शिवराज चौहाण और सुष्मा स्वराजको भी उकसाया था. किन्तु इन दोनोंको भूतलकी परिस्थिति ज्ञात थी.
उस समय भी समाचार माध्यमोंने इस वार्ता को उछाली थी.
तत् पश्चात जब नरेन्द्र मोदीका नाम प्रधानमंत्रीके पदके अभ्यर्थी के लिये अनुमोदित किया तब भी अडवाणीने इसमें विसंवादी उच्चारण करके अपनी मनोवृत्तिका प्रदर्शन किया था. उन्होंने पक्षके लिये अतिप्रतिकुल स्थिति उत्पन्न की थी.
इस समय जब नरेन्द्र मोदीने वैश्विक संबंधोंमें दूरगामी और देशके लिये सानुकुल परिवर्तन के लिये अनेक कदम उठाये हैं और सर्वत्र नरेन्द्र मोदी और उसकी सरकारको कीर्ति मिल रही है उस समय यह अडवाणीने असंबद्ध और अनुचित विसंवादी “आपतकाल की शक्यता है और लोकतंत्र असुरक्षित है” ऐसे उच्चारण किये.
हो सकता है कि अडवाणीके पेटमें पीडा हो. किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह इस प्रकार अपनी विद्वत्ता प्रदर्शित करनेकी चेष्टा करें.
समाचार माध्यम और नरेन्द्र मोदीके विरुद्ध गुट नरेन्द्र मोदीको धराशायी करने के लिये उत्सुक है उसको तो यही चाहिये कि बीजेपीमें कोई चरणसिंग पैदा हो.
अडवाणीको तो, नरेन्द्र मोदीके विरोधीयोंको मोदीकी निराधार भर्त्सनाके लिये, अवसर देना था वह दे दिया. नरेन्द्र मोदीके विरोधीयोंने अपना काम कर दिया. नरेन्द्र मोदीको जो आघात पहोंचाना था वह पहुंचा दिया. इतना सबकुछ कर देनेके बाद अडवाणीने कहा कि स्वयंने तो कोंग्रेसको अनुसंधानमें रख कर उचारण किया था.
अरे भैया अडवाणी, यदि आपातकाल प्रसिद्ध कुकर्म कुत्सित कोंग्रेसके संदर्भमें उच्चारण किया था तो उसका नाम क्यों नहीं लिया?
राम लीला मैदानमें मध्य रात्रिको रामदेवके साथ जो हुआ, टीम अन्ना हजारेके साथ नहेरुवीयन कोंग्रेसने जो व्यवहार किया, उनके बारे में जो कहा गया कि वे सरसे पांव तक भ्रष्ट है. किरण बेदीके उपर जो आक्षेप हुए, नहेरुवीयन कोंग्रेसने उस समयके उसके विरोधीयोंके साथ जो वर्तन और गाली प्रदान किया, उस समय हे अडवाणी, आपने क्या किया? यदि उस समय “आपातकाल की शक्यता है और लोकतंत्र असुरक्षित है” कहा होता तो अडवाणीजी आप कुछ विश्वसनीय बनते.
जनता हैरान है कि आप इस उम्रमें और वह भी अद्यतन वर्तमान समयमें तात्विक सबूतके अभावमें निश्चयात्मक साध्य सिद्ध हो गया मानके क्यों चलते है? जब आपसे पूछा गया तो आपने कोंग्रेसका संदर्भ बताया. स्पष्टीकरण ऐसा करते है. वास्तवमें यह आपका स्पष्टीकरण है ही नहीं. आपको आपकी सीमा ज्ञात होनी आवश्यक है.
लोग यही मानेंगेकी चरणसिंगकी रुह आपमें घुसी है. चरणसिंहने जो किया इससे नहेरुवीयन कोंग्रेसको दूर करनेमें जनताको ३५ वर्ष लग गये. आप नरेन्द्र मोदीके विकासके यज्ञमें हड्डीयां क्यों डालते है? एकबात ध्यानसे समझ लो, अब आप प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. यदि राष्ट्र पति बनना है तो जीव्हा पर और स्वयंकी मंशापर अंकुश रक्खो
शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः आपातकाल, २५ जुन, नहेरुवीयन कोंग्रेस, इन्दिरा गांधी, मोरारजी देसाई, जयप्रकाश नारायण, चरणसिंग, रुह, पराजय, विसंवाद, अडवाणी, नरेन्द्र मोदी, प्रधान मंत्री
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