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हिन्दु और लघुमतीयोंको एक दुसरेसे क्या अपेक्षा है और अपेक्षा क्या होनी चाहिये? – १

प्रथम तो हमें यह समझना चाहिये कि हिन्दु और मुस्लिम कौन है?

ALL THE MUGALS WERE NOT COMMUNAL

यदि हम १८५७ के स्वातंत्र्य संग्रामकी मानसिकतामें अवलोकन करे तो हिन्दु और मुस्लिम दोनों हिन्दुस्तानी है. जब भी कोई एक जन समुदाय एक स्थानसे दुसरे स्थान पर जाता है तो वह समुदाय वहांके रहेनेवालोंसे हिलमिल जानेकी कोशिस करता है. यदि जानेवाला समुदाय शासकके रुपमें जाता है तो वह अपनी आदतें मूलनिवासीयों पर लादें ये हमेशा अवश्यक नहीं है. इस बातके उपर हम चर्चा नहीं करेंगे. लेकिन संक्षिप्तमें इतना तो कह सकते है कि तथा कथित संघर्षके बाद भी इ.स. १७०० या उसके पहेले ही हिन्दु और मुस्लिम एक दुसरेसे मिल गये थे. इसका श्रेष्ठ उदाहरण यह है कि, बहादुरशाह जफर के नेतृत्वमें हिन्दु और मुसलमानोंने अंग्रेज सरकारसे विप्लव किया था. और यह भी तय था कि सभी राजा, बहादुर शाह जफरके सार्वभौमत्वके अंतर्गत राज करेंगे.

अब यह बहादुर शाह जफर कौन था?

यह बहादुर शाह जफर मुगलवंशका बादशाह था. उसके राज्य की सीमा लालकिले की दिवारें थीं. और उतनी ही उसके सार्वभौमत्वकी सीमा थी. यह होते हुए भी सभी हिन्दु और मुस्लिम राजाओंने बहादुरशाह जफर का सार्वभौमत्व स्विकार करके मुगल साम्राज्यकी पुनर्स्थापनाका निर्णय किया था. इससे यह तो सिद्ध होता है कि हिन्दुओंकी और मुस्लिमों की मानसिकता एक दुसरेके सामने विरोधकी नहीं थी.

शिवाजीको अधिकृतमान न मिला तो उन्होने दरबारका त्याग किया

आजकी तारिखमें हिन्दुओंके हिसाबसे माना जाता है कि मुस्लिम बादशाहोंने हिन्दु प्रजा पर अति भारी यातनाएं दी है और जिन हिन्दुओंने इस्लामको स्विकारा नहीं उनका अति मात्रामें वध किया था. इस बातमें कुछ अंश तक सच्चाई होगी लेकिन सच्चाई उतनी नहीं कि दोनो मिल न पायें. अगर ऐसा होता तो औरंगझेबके सैन्यमें हिन्दु सैनिक और सरदार न होते और शिवाजीके सैन्यमें मुस्लिम सैनिक और सरदार न होते. शिवाजी मुगल स्टाईल की पगडी न पहेनते, और औरंगझेब शिवाजीके पोते शाहुको उसकी जागीर वापस नहीं करता. मुस्लिम राजाओंने अगर अत्याचार किया है तो विशेषतः शासक होने के नाते किया हो ऐसा भी हो सकता है. जो अत्याचारी शासक होता है उसको या तो उसके अधिकारीयोंको तो अपना उल्लु सिधा करनेके लिये बहाना चाहिये.

अब एक बात याद करो. २०वीं सदीमें समाचार और प्रचार माध्यम ठीक ठीक विकसित हुए है. सत्य और असत्य दोनोंका प्रसारण हो सकता है. लेकिन असत्य बात ज्यादा समयके लिये स्थायी नहीं रहेगी. सत्य तो सामने आयेगा ही. तो भी विश्वसनीय बननेमें असत्यको काफि महेनत करनी पडती है. वैसा ही सत्यके बारेमें है.

इन्दिरा गांधीके उच्चारणोंको याद करो.
१९७५में इन्दिरा गांधीने अपनी कुर्सी बचानेके लिये प्रचूर मात्रामें गुन्हाहित काम किये और करवाये. समाचार प्रसार माध्यम भी डरके मारे कुछ भी बोलते नहीं थे. लेकिन जब इन्दिरा गांधीके शासनका पतन हुआ और शाह आयोग ने जब अपना जांचका काम शुरु किया तो अधिकारीयोंने बोला कि उन्होने जो कुछ भी किया वह उपरकी आज्ञाके अनुसार किया. इन्दिराने खुल्ले आम कहा कि उसने ऐसी कोई आज्ञा दी नहीं थी. उसने तो संविधानके अंतर्गत ही आचार करनेका बोला था. अब ये दोनों अर्ध सत्य हैं. इन्दिरा गांधी और अधिकारीयोंने एक दुसरेसे अलग अलग और कभी साथमें भी अपना उल्लु सीधा करने की कोशिस की थी, और उस हिसाबसे काम किया था.

अपना उल्लु सीधा करो

मुगल साम्राट का समय लोकशाहीका और संविधान वाला समय तो था नहीं. ज्यादातर अधिकारी अपना उल्लु सीधा करनेकी सोचते है. मुगलके समयमें समाचार प्रसारके माध्यम इतने त्वरित तो थे नहीं. अफवाहें और बढा चढा कर भी और दबाके भी फैलाई जा सकती है. सुबेदार अपना धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और अंगत स्वार्थ के लिये अपना उल्लु सिधा करते रहे होगे इस बातको नकारा नहीं जा सकता.

औरंगझेब एक नेक बादशाह था वह साम्राटकी संपत्तिको जनता की संपत्ति समजता था. और वह खुद टोपीयां और टोकरीयां बनाके बेचता था और उस पैसे से अपना गुजारा करता था. उसका पूर्वज शाहजहां एक उडाउ शासक था. औरंगझेबको अपने सुबेदारोंकी और अधिकारीयोंकी उडाऊगीरी पसंद न हो यह बात संभव है. सुबेदार और अधिकारी गण भी औरंगझेबसे खुश न हो यह भी संभव है. इस लिये औरंगझेबके नामसे घोषित अत्याचारमें औरंगझेब खुदका कितना हिस्सा था यह संशोधनका विषय है. मान लिजिये औरंगझेब धर्मान्ध था. लेकिन सभी मुघल या मुस्लिम राजा धर्मान्ध नहीं थे. शेरशाह, अकबर और दारा पूर्ण रुपसे सर्वधर्म समभाव रखते थे. अन्य एक बात भी है, कि धर्मभीरु राजा अकेला औरंगझेब ही था यह बात भी सही नहीं है. कई खलिफे हुए जो सादगीमें, सुजनतामें और मानवतामें मानते थे. कमसे कम औरंगझेबके नामके आधार पर हम आजकी तारिखमें इस्लामके विरुद्ध मानसिकता रक्खें वह योग्य नहीं है. शिवाजी के भाग जाने के बाद औरंगझेब धर्मान्ध हो गया. इ.स. १६६६ से १६९० तकके समयमें औरंगझेबने कई सारे प्रमुख मंदिर तोडे थे. खास करके काशी विश्वनाथका मंदिर, सोमनाथ मंदिर और केशव मंदिर उसने तुडवाया थे. दक्षिण भारतके मंदिर जो मजबुत पत्थरके थे और बंद थे वे औरंगझेबके सेनापति तोड नहीं पाये थे. उसके यह एक जघन्य अपराध था. ऐसा पाया गया है कि उसके एक सलाहकारने उसको ऐसी सलाह दी थी कि नास्तिकोंको मुसलमान करना ही चाहिये. दो रुपया प्रति माह से लेकर एक साथ १००० रुपया प्रलोभन इस्लाम कबुल करने पर दिया जाता था. लेकिन जो औरंगझेबके खिलाफ गये थे उनका कत्ल किया जाता था. इस वजहसे उसके साम्राज्यका पतन हुआ था. क्यों कि सेक्युलर मुस्लिम और हिन्दु उसके सामने पड गये थे. औरंगझेबने कुछ मंदिर बनवाये भी थे और हिन्दुओंके (परधर्मीयोंके) उपर हुए अन्यायोंवाली समस्याओंका समाधान न्याय पूर्वक किया था. कोई जगह नहीं भी किया होगा. लेकिन हिन्दुओंके प्रमुख मंदिरोंको तुडवानेके बाद उसके अच्छे काम भूलाये गये. मुस्लिम और हिन्दु दोनों राजाओंने मिलकर उसका साम्राज्यको तहस नहस कर दिया. सबसे ज्यादा महत्व पूर्ण यह बात है कि उस समयके सभी राजाएं मुगल साम्राज्यके प्रति आदर रखते थे. और ऐसा होने के कारण ही औरंगझेबके बाद मुगल साम्राटके सार्वभौमत्वको माननेके लिये तैयार हुए थे. हिन्दु और मुस्लिम दोनों हिन्दुस्तानी थे. अगर हम सेक्युलर है और संविधान भी धर्म और जातिके आधार पर भेद नहीं रखनेका आग्रह रखता है, तो क्यूं हम सब आजकी तारिखमें हिन्दुस्तानी नहीं बन सकते? यह प्रश्न हम सबको अपने आप से पूछना चाहिये.
चलो हम इसमें क्या समस्यायें है वह देखें.

प्रवर्तमान कोमवादी मानसिकता सबसे बडी समस्या है.

कोमवाद धर्मके कारण है ऐसा हम मानते है. अगर यह बात सही है तो हिन्दु, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, शिख, इसाई, यहुदियोंके बीचमें समान रुपसे टकराव होता. कमसे कम हिन्दु, मुस्लिम और इसाईयोंके बीच तो टकराव होता ही. किन्तु बीलकुल ऐसा नहीं है. पाकिस्तानमें शियां और सुन्नी के बिचमें टकराव है. शियां और सुन्नीमें टकराव कब होता है या तो कब हो सकता है? अगर शियां और सुन्नी भेदभाव की नीति अपनावे तो ऐसा हो सकता है.

कोई भेदभाव की नीति क्यों अपनायेगा?

अगर अवसर कम है और अवसरका लाभ उठाने वाले ज्यादा है तो मनुष्य खुदको जो व्यक्ति ज्यादा पसंद है उसको लाभ देनेका प्रायः सोचता है.

अवसर क्या होता है?

अवसर होता है उपयुक्त व्यक्तियोंके सामने सहाय, संवर्धन, व्यवसाय, संपत्ति, ज्ञान, सुविधा, धन, वेतन देना दिलानेका प्रमाण (जत्था) होता है. अगर अवसर ज्यादा है तो भेदभाव की समस्या उत्पन्न होती नहीं है. लेकिन अगर अवसर कम है, और उपयुक्त यक्ति ज्यादा है तो, देनेवाला या दिलानेवाला जो मनुष्य है, कोई न कोई आधार बनाकर भेदभाव के लिये प्रवृत्त होता है.
इस समस्याका समाधान है अवसर बढाना.

अवसर कैसे बढाये जा सकते है?

प्राकृतिक स्रोतोंका, ज्ञानके स्रोतोंका और उपभोग्य वस्तुओंका उत्पादन करने वाले स्रोतोंमें विकास करनेसे अवसर बढाये जा सकते है. अगर यह होता है तो भेदभावकी कम और नगण्य शक्यता रहती है.

अवसर रातोंरात पैदा नहीं किये जा सकते है यह एक सत्य है.

अवसर और व्यक्तिओंका असंतुलन दूर करनेके लिये अनियतकाल भी नहीं लगता, यह भी एक सत्य है.

जैसे हमारे देशमें एक ही वंशके शासकोंने ६० साल केन्द्रमें राज किया और नीति-नियम भी उन्होने ही बनाये थे, तो भी शासक की खुदकी तरफसे भेदभावकी नीति चालु रही. अगर नीति नियम सही है, उसका अमल सही है और मानवीय दृष्टि भी रक्खी गई है तो आरक्षण और विशेष अधिकार की १० सालसे ज्यादा समय के लिये आवश्यकता रहेती ही नहीं है.

जो देश गरीब है और जहां अवसर कम है, वहां हमेशा दो या ज्यादा युथों में टकराव रहेता है. युएस में और विकसित देशोंमें युथोंके बीच टकराव कम रहेता है. भारत, पाकिस्तान, बार्मा, श्री लंका, बांग्लादेश, तिबेट, चीन आदि देशोंमें युथोंके बीच टकराव ज्यादा रहेता है. सामाजिक सुरक्षाके प्रति शासकका रवैया भी इसमें काम करता है. यानी की, अगर एक युथ या व्यक्ति के उपर दुसरेकी अपेक्षा भेदभाव पूर्ण रवैया शासक ही बडी निष्ठुरतासे अपनाता है तो जो पीडित है उसको अपना मनोभाव प्रगट करनेका हक्क ही नहीं होता है तो कुछ कम ऐतिहासिक समयके अंतर्गत प्रत्यक्ष शांति दिखाई देती है लेकिन प्रच्छन्न अशांति है. कभी भी योग्य समय आने पर वहां विस्फोट होता है.

अगर शिक्षा-ज्ञान सही है, अवसरकी कमी नहीं तो युथोंकी भीन्नता वैविध्यपूर्ण सुंदरतामें बदल जाती है. और सब उसका आनंद लेते है.

भारतमें अवसर की कमी क्यों है?

भारतमें अवसर की कमीका कारण क्षतियुक्त शिक्षण और अ-शिक्षण के कारण उत्पन्न हुई मानसिकता है. और ईसने उत्पादन और वितरणके तरिके ऐसे लागु किया कि अवसर, व्यक्ति और संवाद असंतुलित हो जाय.

शिक्षणने क्या मानसिकता बनाई?

मेकोलेने एक ऐसी शिक्षण प्रणाली स्थापितकी जिसका सांस्कृतिक अभ्यासक्रम पूर्वनियोजित रुपसे भ्रष्ट था. मेक्स मुलरने अपने अंतिम समयमें स्विकार कर लिया था कि, भारतके लोगोंको कुछ भी शिखानेकी आवश्यक नहीं. उनकी ज्ञान प्रणाली श्रेष्ठ है और वह उनकी खुदकी है. उनकी संस्कृति हमसे कहीं ज्यादा विकसित है और वे कहीं बाहरके प्रदेशसे आये नहीं थे.

लेकिन मेकोलेको लगा कि अगर इन लोगों पर राज करना है तो इनकी मानसिकता भ्रष्ट करनी पडेगी. इस लिये ऐसे पूर्व सिद्धांत बनाओ कि इन लोगोंको लगे कि उनकी कक्षा हमसे निम्न कोटिकी है और हम उच्च कोटी के है. और ऐसा करनेमें ऐसे कुतर्क भी लगाओ की वे लोग खो जाय. उनको पहेले तो उनके खुदके सांस्कृतिक वैचारिक और तार्किक धरोहरसे अलग कर दो. फिर हमारी दी हुई शिक्षा वालोंको ज्यादा अवसर प्रदान करो और उनको सुविधाएं भी ज्यादा दो.

अंग्रेजोंने भारतको दो बातें सिखाई.

भारतमें कई जातियां है. आर्य, द्रविड, आदिवासी. आदिवासी यहां के मूल निवासी है. द्रविड कई हजारों साल पहेले आये. उन्होने देश पर कबजा कर लिया. और एक विकसित संस्कृति की स्थापना की. उसके बाद एक भ्रमण शील, आर्य नामकी जाति आयी. वह पूर्व युरोप या पश्चिम एशियासे निकली. एक शाखा ग्रीसमें गई. एक शाखा इरानमें गयी. उसमेंसे एक प्रशाखा इरानमें थोडा रुक कर भारत गई. उन्होने द्रविड संस्कृतिका ध्वंष किया. उनके नगरोंको तोड दिया. उनको दास बनाया. बादमें यह आर्य जाति भारतमें स्थिर हुई. और दोनों कुछ हद तक मिल गये. ग्रीक राजाएं भारत पर आक्रमण करते रहे. कुछ संस्कृतिका आदान प्रदान भी हुआ. बादमें शक हुण, गुज्जर, पहलव आये. वे मिलगये. अंतमें मुसलमान आये.

मुस्लिम जाति सबसे अलग थी

यह मुस्लिम जाति सबसे अलग थी. आचार विचार और रहन सहनमें भी भीन्न थी. यह भारतके लोगोंसे हर तरहसे भीन्न थी इसलिये वे अलग ही रही. ईन्होने कई अत्याचार किये.

फिर इन अंग्रेजोंने आदिवासीयोंको कहा कि अब हम आये हैं. आप इन लोगोंसे अलग है. आपका इस देश पर ज्यादा अधिकार है. हम भी आर्य है. लेकिन हम भारतीय आर्योंसे अलग है. हम सुसंस्कृत है. हम आपको गुलाम नहीं बनायेंगे. आप हमारा धर्म स्विकार करो. हम आपका उद्धार करेंगे.

दक्षिण भरतीयोंसे कहा. यह आर्य तो आपके परापूर्वके आदि दुश्मन है. उन्होने आपके धर्म को आपकी संस्कृतिको, आपकी कला को आपके नगरोंको ध्वस्त किया है. आप तो उच्चा संस्कृतिकी धरोहर वाले है. आपका सबकुछ अलग है. भाषा और लिपि भी अलग है. आप हमारी शिक्षा ग्रहण करो. और इन आर्योंकी हरबात न मानो. ये लोग तो धुमक्कड, असंस्कृत, तोडफोड करनेवाले और आतंकी थे.

मुसलमानोंसे यह कहा गया कि आप तो विश्व विजयी थे. आपने तो भारत पर १२०० साल शासन किया है. ये भारतके लोग तो गंवार थे. इनके पास तो कहेनेके लिये भी कुछ भी नहीं था. ये लोग तो अग्निसे डर कर अग्निकी पूजा करते है. सूर्य जो आगका गोला है उसकी पूजा करते है. हवा, पानी, नदी जैसे बेजान तत्वोकी पूजा करते है. शिश्न की और अ योनी की पूजा करते हैं. ये लोग पशुओंकी और गंदी चीजोंकी भी पूजा करते है. इनके भगवान भी देखो कितने विचीत्र है? वे अंदर अंदर लडते भी हैं और गंदी आदतों वाले भी है. उनके मंदिरोंके शिल्प देखो उसमें कितनी बिभत्सता है.

इनके पास क्या था? कुछ भी नहीं. आपने भारतमें, ताज महाल, लालकिल्ला, फत्तेहपुर सिक्री, कुतुबमिनार, मकबरा, और क्या क्या कुछ आपने नहीं बनाया!! भारतकी जो भी शोभा है वह आपकी बदैलत तो है. आपने ही तो व्यापारमें भारतका नाम रोशन किया है. लेकिन जब कालके प्रवाहमें आपका शासन चला गया तो इन लोगोंने अपने बहुमतके कारण आपका शोषण किया और आपको गरीब बना दिया. आपके हक्ककी और आपकी सुरक्षा करना हमारा धर्म है.

इस प्रकारका वैचारिक विसंवाद अंग्रेज शासकोंने १८५७के बाद घनिष्ठता पूर्वक चलाया. एक बौधिक रुपसे गुलामी वाला वर्ग उत्पन्न हुआ जो अपने पैर नीचेकी धरतीकी गरिमासे अनभिज्ञ था. और वह कुछ अलग सूननेके लिये तैयार नहीं था.

इस बौधिक वर्गके दो नेताओंके बीच सत्ताके लिये आरपार का युद्ध हुआ. एक था नहेरु और दुसरा था जिन्ना.

जब देशकी जनता गरीब होती है वह किसीभी बात पर झगडा करने के लिये तैयार हो जाती है. और जिनका उद्देश्य सिर्फ सत्ता और पैसा है वह हमेशा दुसरोंकी अज्ञानताका लाभ लेकर देशको और मानव जातको चाहे कितना ही नुकशान क्युं न होजाय, दुसरोंको गुमराह करके मत बटोरके अपना उल्लु सीधा करती है.

लेकिन वास्तवमें ये हिन्दु और मुस्लिम कौन है और कैसे है? और क्यों बेवकुफ बनते रहते है?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे (smdave1940@yahoo.com)
टेग्झः लघुमती, हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई, औरंगझेब, बहादुरशाह, सार्वभौमत्व, १८५७, शिवाजी, शासक, यातना, अत्याचार, वध, सरदार, सुबेदार, अधिकारी, मेक्स मुलर, मेकोले, आर्य, द्रविड, इस्लाम, जाति, प्रजा, सत्य, असत्य, इन्दिरा, अफवाह, सत्ता, शाह आयोग, कोमवाद, शियां सुन्नी, भेदभाव, अवसर, स्रोत, असंतुलन, मानसिकता, न्याय, शिक्षण, विकास

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What is expected by the people of India from Narendra Modi

नरेन्द्र मोदी जब प्रधान मंत्री बन जाय, तब भारतीय जनता उनसे क्या अपेक्षा रखती है?

चूनाव आयोग सुधारः (रीफोर्म्स)

कार्यक्षेत्र और भौगोलिक विस्तार

चूनाव आयोग, भूमि और आवास सहयोग विभाग, जनगणना आयोग, स्थावर संपत्ति पंजीकरण (रजीष्ट्रार ओफ को ओपरेटीव सोसाईटीझ, लेन्ड रेकोर्ड), इन सभी कार्यक्षेत्रोंको चूनाव आयोगमें संमिलित किया जायेगा.

इसका नाम रहेगा चूनाव और स्थावर संपत्ति सहयोग आयोग

कृषि सहकारी संस्थाएं और गृह निर्माण सहकारी संस्थाएं, हालमें तो सहयोग संस्था पंजीकर्ता (रजीस्ट्रार ओफ को ओपरेटीव्झ सोसाईटीझ) के कार्य क्षेत्रमें है. न्यायालयके उपर भी जो भार रहेता है इसमें इसके संलग्न किस्से ही ज्यादातर होते है.

चूनाव इन सहयोगी संस्थाओमें भी होते है. सहयोगी संस्था कृषि, और सहयोगी संस्था गृह निर्माणअनुरक्षणमें, कपट (फ्रॉड), अनीति, और अनियमितता ज्यादा ही रहती है. इन कपट, अनीति और अनियमितताका निर्मूलन करनेके लिये ये सहयोगी संस्थाओंका, उसके सदस्योंका पंजीकरण (रजीष्ट्रेशन ऑफ मेम्बरशीप), विकास और अनुरक्षण (मेन्टेनन्स), समिति (कमीटी) के सदस्योंका चूनाव, और सदस्यताका हस्तांतरण (ट्रन्सफर ऑफ मेम्बरशीप) आदि, चूनाव आयोग के कार्यक्षेत्रमें लाना आवश्यक है.

चूनावमें विस्तार की जनगणना और व्यक्तिकी अनन्यता (आईडेन्टीटी), नागरिकता (सीटीझनशीप), आदि अनिवार्य है. इस लिये जनगणना आयोग भी इसमें संमिलित (मर्ज्ड) होना चाहिये.

चूनाव और जन सहयोग के निम्न लिखित स्तर रहेंगे

राष्ट्रीयस्तर (राष्ट्र) (सर्वोच्च आयुक्त)

राज्य स्तर (राज्य विस्तार) (उच्च आयुक्त)

संसद सदस्य स्तर, (संसद बैठक विस्तार) (जिला आयुक्त)

विधान सदस्य, (स्टेट एसेम्ब्ली बैठक विस्तार) (उपायुक्त)

खंडीय स्तर (वॉर्ड) (सहायक आयुक्त)

बुथ या बुथ समूह (विस्तार से १० बुथ विस्तार या ५००० के आसपास मतदाता) (बुथ अधिकारी)

यह एक उच्च से निम्नस्तर तक बिलकुल स्वतंत्र आयोग रहेगा. इसके कार्यालय, जनसभाखंड और कर्मचारीगण स्थायी होगे.

.   हेतुः चूनाव प्रचारमें सुधार, चूनाव खर्च पर पाबंदीः जब तक चूनावी प्रचारमें सुधार नहीं होगा और चूनाव में पैसेका महत्त्व दूर नहीं होगा तब तक नीतिमत्ता वाले और सेवाभावी लोग चूनाव जित पायेंगे नहीं. इसलिये हरेक अभ्यर्थीका (केन्डीडेटका) चूनाव प्रचार खर्च शासन उठायेगा.

. चूनाव आयोग कार्यक्षेत्र सुधारः ५००० मतदाताओंके भौगोलिक विस्तारके आधार पर एक बुथ या बुथ समूह या एक ग्राम्य विस्तार या नगरका एक विभाग में एक राजपत्रित अधिकारी (gazetted officer)  होगा.

इस राजपत्रित अधिकारीके पदका नाम बुथ अधिकारी  रहेगाः

बुथ अधिकारीका अपने भौगोलिक विस्तारमे निम्न लिखित कर्तव्य और उत्तरदायित्व

पंजीकरणः

अपने विस्तारकी स्थावर (जमीन और मकान आदि) मिल्कतोंका पंजीकरण यह अधिकारी करेगा.

जनगणनाः

निवासीयोंकी नोंध यह अधिकारी करेगा. इस के कारण जनगणना का पंजीकरण अपने आप होता रहेगा. ,

सहकारी संस्था पंजीकरण और संचालनः

सहकारी गृह निर्माण और अनुरक्षण संगठन कृषि सहकारी संगठन के कारोबार पर अनुश्रवण (मोनीटरींग) और उसका पंजीकरण और नियमन का काम यह अधिकारी करेगा. हरेक सहकारी संस्थाका प्रमूख यह अधिकारी होगा.

यह अधिकारी उपरोक्त संगठनोंके पंजीकरण और संचालन की कार्यवाही करेगा. तद उपरांत यह अधिकारी, उपरोक्त सहकारी संगठनोके सदस्योंका पंजीकरण, सदस्यता का हस्तांतरण, संशोधन, संस्थाका अनुरक्षणसदस्यसभा सामान्य सभा बुलाना और उसका संचालन और कार्यवाहीका अभिलेखन (रेकोर्ड) रखनेका काम करेगा.

ज्यादातर अनियमितता, अनीति और कपट स्थावर संपत्ति और सहकारी संगठन द्वारा ही होते है. ये सब कपट और अनीति बंद हो जायेगी. क्यों कि किसीभी कपट, अनीति और अनियमितता का उत्तरदायित्व (रीस्पोन्सीबीलीटी) इस अधिकारी पर रहेगा.

चूनाव प्रचार निरीक्षण और सभा संचालनः

जनप्रतिनिधित्व के अभ्यर्थीयोंका चूनाव प्रचार सभाओंका संचालन यह अधिकारी करेगा.

यह अधिकारी अपने द्वारा अपने विस्तारमें स्थित, प्रबोधित (सजेस्टेड), सूचित या सुझाये गये स्थान या सभाखंड में आवेदित (एप्लाईड फोर), जनसभाका संचालन करेगा और वक्तव्योंका और प्रचार साहित्यका रेकोर्ड रखेगा.

यह अधिकारी प्रश्नोत्तरी और समान मंचपर (कोमन प्लेटफोर्म) विभिन्न जनप्रतिनिधित्व के अभ्यर्थीयोंकी या उनके द्वारा सूचित व्यक्तियोंकी चर्चासभाओंका संचालन करेगा.

यह अधिकारी सरकार द्वारा संचालित दूरदर्शन पर, और समान मंच पर, सामूहिक और व्यक्तिगत व्याख्यान कार्यक्रम पक्षके अभ्यर्थी और अपक्षीय अभ्यर्थीयों के साथ चर्चा करके कर्यक्रम की अनुसूचना (शीड्युल ओफ प्रोग्राम) जारी करेगा. यह अनुसूचना सरकार वेब साईट पर पर जारी करेगी. प्रचार की यह अनुसूचना सभाखंड और बुथ कार्यालयमें प्रदर्शित रक्खी जायेगी.

हर अभ्यर्थीके चूनाव क्षेत्रकी एक वेब साईट बनाई जायेगी और जन सूची, मतदाता सूची, सदस्यता, हस्तांतरण, समय समय के अभ्यार्थी, अभ्यार्थी परिचय, चूनाव घोषणा, चूनाव और अनुसुचित प्रचार, प्रचार अभियान माहिति, चूनाव परिणाम, ईत्यादि माहिति वेब साईट पर उपलब्ध रहेगी.

. विधेयकमें पारदर्शिता और जनस्विकृति

भारतीय संविधान अनुसार, राजकीय पक्ष और जनता के बीचमें सीधा संबंध नहीं है. निर्वाचित व्यक्ति को जनप्रतिनिधि कहा जाता है. वैसे तो राजकीय पक्षको कई रियायतें मिलती है. इस लिये उनका उत्तरदायित्व बनता है. लेकिन वास्तवमें ऐसा दिखाई देता नहीं है.

जनप्रतिनिधिके लिये कोई व्यक्ति आवेदन (प्रार्थनापत्र) दें उसके पहले उसकी लोकप्रियता सिद्ध करने लिये एक प्रारंभिक सर्वेक्षण जरुरी है. पक्ष वाले तो अपना व्यक्ति खुद तय करेंगे और इसमें जरुरत पडने पर क्षेत्रीय अधिकारीकी मदद ले सकते है.

जो व्यक्ति अपक्ष है वह कितना लोकप्रिय है यह सुनिश्चित करने के लिये क्षेत्रीय अधिकारी बुथ अधिकारीयोंकी मददसे एक प्राथमिक सर्वेक्षण करवायेगा. और उनमें जो सर्व प्रथम पांच निर्वाचित बनेंगे वे ही अंतीम चूनावमें भाग ले सकते हैं.

. पक्षीय या अपक्षीय अभ्यार्थीका नीतिघोषणा (ईलेक्सन मेनीफेस्टो) पत्रः

जो विषय घोषणा पत्रमें संमिलित नहीं है उस विषय पर कोई जनप्रतिनिधि विधेयक (बील) ला सकता नहीं है. क्यों कि यह जनताके सामने पारदर्शिता नहीं है.

विधेयक का प्रारुप (ड्राफ्ट ओफ थे बील)

जो भी व्यक्ति या पक्ष या पक्षकी व्यक्ति जो जनप्रतिनिधित्व के लिये अभ्यार्थी है, वह अगर चूना गया तो अपने आगामी कार्यकालमें क्या क्या विधेयक लानेवाला है उसका प्रारुप क्षेत्रीय अधिकारी के पास उसको प्रस्तूत करना पडेगा. कोई भी अभ्यार्थीने या अगर उसके पक्षने ऐसा विधेयक का प्रारुप प्रस्तुत (सबमीट) करवाया नहीं है, तो ऐसा विधेयक वह सभामें (संसद, विधानसभा, परिषद, या कोई भी विधेयक पारित करनेका वाली अधिकृत सभा) प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है.

हालमें व्यवस्था ऐसी है कि जनप्रतिनिधि का पक्ष विधेयकका प्रारुप शासन ग्रहण करनेके पश्चात अपने कार्यकाल दरम्यान बनाती है और परिषद में प्रस्तुत करके पारित (पास) करवाती है. वास्तवमें जनताके साथ यह एक बेईमानी है. जनताकी आवाज इसमें प्रतिबिंबित होती नहीं है. इतना ही नहीं इस प्रक्रीयामें पारदर्शिता नहीं है.

आपात स्थितिमें विधेयक

अगर आपात स्थितिमें कोई विधेयक की जरुरत पडी तो, राष्ट्रीय चूनाव आयूक्त ऐसे विधेयकके प्रारुपको जनताके सामने प्रसिद्ध करेगा औरहां”, “नाऔरतटस्थ” (यस, नो, कान्ट से) में जनमत लेगा.

अति आपात स्थितिमें विधेयक

अगर अति आपातकालकी स्थिति है तो राष्ट्रपति इसके उपर अपना अभिप्राय देगा और अध्यादेश (ओर्डीनन्स) जारी करेगा. इसको मासमें जनताके सामने रखना पडेगा. अगर जनताने ५०+ प्रतिशतसे नामंजुर किया तो शासक पक्षको सत्ता त्याग करना पडेगा. अगर ऐसा नहीं है तो सरकार चालु रहेगी.

सरघस, बडे विज्ञापन पट्ट, और दिवारों पर लिखने पर पाबंदीः

पक्षका अभ्यार्थी और अपक्ष अभ्यार्थी सिर्फ अपना चूनाव घोषणापत्र (जिसमें विधेयक का प्रारुप संलग्न होगा), अपना अंगत और व्यावसायिक सेवा विवरण (प्रोफाईल), अपनी कार्यशैली (गवर्नन्स स्टाईल) अपने विचार सिद्धांत (स्कुल ऑफ थोट्स एन्ड प्रीन्सीपल्स),  और वक्तव्य (प्रवचन) का विवरण दे सकता है. इसका मुद्रण (प्रीन्टींग) खर्च चूनाव आयोग उठायेगा. सभा खर्च भी चूनाव आयोग उठायेगा.

गैर सरकारी दूरदर्शन चेनलों पर चूनाव प्रचारका खर्च अभ्यार्थी के खाते में जायेगा. जितना खर्च सरकार अपने सरकारी दूरदर्शन चेनलों पर करेगी उतना खर्च जनतप्रतिनिधित्वका आभ्यार्थी कर पायेगा.

अगर अभ्यर्थी चाहे तो अपने चूनाव प्रचारकी दृष्यश्राव्य (वीडीयो) कृति (क्लीप) सरकारी दूरदर्शन चेनल को प्रस्तूत कर सकता है. चूनाव आयोग, पक्ष के चूनाव पत्र पर सूचित प्रक्रिया में संमिलित कर देगा. जनता उसको अपनी अनुकुलतामें देख लेगी.

कृषि और आवास सह्योग विभाग

ठीक उसी प्रकार कृषि और आवास सह्योग आयोगको चूनाव आयोगमें संमिलित करके संशोधन करना है.   

कृषि और आवास सह्योगी संस्था के विषयमें भी, निविदा (पब्लिक नोटीस), संस्थाका कार्य क्षेत्र, संस्था परिचय, सदस्यताकी पात्रताका मापदंडसंस्था पंजीकरण, सदस्य सूची, सदस्यकी माहिति, विकास और अनुरक्षण की समिति के सदस्यों की के चूनाव प्रक्रीया अनुसूचना और पूरी प्रक्रीया, विकास और अनुरक्षण लेखा (एकाउन्ट) और लेखा परीक्षा (ऑडीट) विवरण, समिति सभा, सामान्य सभा, सभा घोषणा प्रक्रीया (एकोर्डीग टु स्टेच्युटरी प्रोवीझन्स फोर कोलींग फोर मीटींग), वक्तव्य नोंध, आदि सभी व्यवहार बुथ अधिकारी करेगा और सभी प्रक्रिया वेब साईट पर उपलब्ध रहेगी.

प्रकिर्णः

बुथ अधिकारी, व्यक्तिकी अनन्यताका प्रमाणपत्रः

इस क्षेत्रके निवासीकी छबी, कद, जन्म तीथी, आदि और गोपित प्रक्रीयासे रखा हुआ अंगुलीयां छाप, नेत्र छाप, हस्ताक्षर छाप आदि अनन्यताका पंजीकरण क्रमसंख्यावाला अनन्यताका प्रमाणपत्र कार्ड बनायेगा और देगा.

दस्तावेजों का नोटराईझेशन और पंजीकरण

बुथ अधिकारी, स्थानिक दस्तावेजोंका नोटराईझेशन और पंजीकरण करेगा,

बुथ अधिकारी, स्थानिक स्थावर संपत्तिका, सर्वेक्षण, मानचित्र, हस्तांतरण, बंधक विलेख, आदि निष्पादित और पंजीकरण करेगा.  

बुथ अधिकारी, स्थानिक व्यक्तिओंकी प्रतिज्ञा पत्र, और जिम्मेवारी पत्र, आदि दस्तावेज निष्पादित करेगा और पंजीकरण करेगा.

स्थान और कार्योंका पंजीकरण 

उत्पादनबिक्रीवहनसूचनाशिक्षणव्यापारीसेवाअभिकरण आदि संस्था, व्यक्ति, व्यक्ति समूह को अपना कार्यस्थल, स्थानांतरण, हस्तांतरण और कर्मचारीके विवरण का एक सूचित आवेदन पत्र प्रस्तूत करना पडेगा और उसका पंजीकरण करवाना पडेगा. बुथ अधिकारी एक आधारभूत वेब साईट रखेगी और एक मानचित्र के अंतर्गत सभी विवरण जनता देख पायेगी. बुथ अधिकारी इस वेब साईटको अद्यतन रखेगा. जो संस्था व्यक्ति और व्यक्ति समूह, जन लोक के साथ व्यवहार है, उनके बारेमें जनता के प्रति पारदर्शिता होनी चाहिये.   

यह एक रुपरेखा है और इसको नियमबद्ध भाषामें रखकर भारतीय संविधानमें सामेल करना है.

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः चूनाव आयोग, संशोधन, सुधार, जन, मतदार, सर्वेक्षण, जनप्रतिनिधि, पंजीकरण, अनन्यता, प्रमाणपत्र, जनगणना, क्षेत्र, विधेयक, अभ्यर्थी, आवेदक, आवेदन, राजपत्रित, अधिकारी, बुथ, खंड, जिला, तहेसील, उच्च, सर्वोच्च, ग्राम, नगर, स्थावर,  संपत्ति, सदस्य, सदस्यता, हस्तांतरण, कृषि, मानचित्र, खर्च, लेखा, विवरण, बंधक विलेख, परीक्षा,

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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-9

खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग)

रामको कौन समझ पाया?

एक मात्र महात्मा गांधी है जो रामको सही अर्थोमें समझ पाये.

प्रणालीयोंको बदलना है? तो आदर्श प्रणाली क्या है वह सर्व प्रथम निश्चित करो.

आपको अगर ऐसा लगा कि आप आदर्श प्रणालीको समझ सके हो तो पहेले उसको मनमें बुद्धिद्वारा आत्मसात करो, और वैसी ही मानसिकता बनावो. फिर उसके अनुसार विचार करो और फिर आचार करो. इसके बाद ही आप उसका प्रचार कर सकते हो.

लेकिन यह बात आपको याद रखने की है कि, प्रचार करने के समय आपके पास कोई सत्ता होनी नहीं चाहिये. सत्ता इसलिये नहीं होनी चाहिये कि आप जिस बातका प्रचार करना चाहते है उसमें शक्ति प्रदर्शन होना वर्ज्य है. सत्ता, शक्ति और लालच ये सब एक आवरण है, और यह आवरण सत्यको ढक देता है. (हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌.).

गांधीजीको जब लगा कि वे अब सामाजिक क्रांति लाना चाहते है तो उन्होने कोंग्रेसके पदोंसे ही नहीं लेकिन कोंग्रेसके प्राथमिक सभ्यपदसे भी त्यागपत्र दे दिया. इसकी वजह यह थी कि उनकी कोई भी बातोंका किसीके उपर उनके पदके कारण प्रभाव न पडे और जिनको शंका है वे संवादके द्वारा अपना समाधान कर सके.

कुछ लोग कहेंगे कि उनके उपवास, और कानूनभंग भी तो एक प्रकारका दबाव था! लेकिन उनका कानून भंग पारदर्शी और संवादशील और सजाके लिये आत्मसमर्पणवाला था. उसमें कोई हिंसात्मक सत्ता और शक्ति संमिलित नहीं थी. उसमें कोई कडवाहट भी नहीं थी. सामने वाले को सिर्फ यह ही कहेनेका था कि, उसके हदयमें भी मानवता है और “रुल ऑफ लॉ” के प्रति आदर है.

महात्मा गांधीने रामको ही क्यों आदर्श के लिये चूना?

भारत, प्राचीन समयमें जगत्‌गुरु था. गुरुकी शक्ति शस्त्र शक्ति नहीं है. गुरुको शस्त्र विद्या आती है लेकिन वह केवल शासकोंको सीखानेके लिये थी. गुरुका धर्म था विद्या और ज्ञानका प्रचार, ताकि जनता अपने सामाजिक धर्मका आचरण कर सके.

शासकका धर्म था आदर्श प्रणाली के अनुसार “रुल ऑफ लॉ” चलाना. शासकका काम और धर्म, यह कतई नहीं था कि वह सामाजीक क्रांति करें और प्रणालीयोंमें परिवर्तन या बदलाव लावें. यह काम ऋषियोंका था. राजाके उपर दबाव लानेका काम, ऋषियोंकी सलाह के अनुसार जनता का था.

वायु पुराणमें एक कथा है.

ब्राह्मणोंको मांस भक्षण करना चाहिये या नहीं? ऋषिगण मनुके पास गये. मनुने कहा ऋषि लोग यज्ञमें आहुत की हुई चीजें खाते है. इस लिये अगर मांस यज्ञमें आहुत किया हुआ द्रव्य बनता है तो वह आहुतद्रव्य खा सकते है. तबसे उन ब्राह्मणोंने यज्ञमें आहुत मांस खाना चालु किया. फिर जब ईश्वरने (शिवने) यह सूना तो उसने मनु और ब्राह्मणोंको डांटा. मनुसे कहाकि मनु, तुम तो राजा हो. राजाका ऐसा प्रणाली स्थापनेका और अर्थघटन करनेका अधिकार नहीं है. उसी प्रकार, ऋषियोंको भी ईश्वरने डांटा कि, उन्होने अनधिकृत व्यक्तिसे सलाह क्यों ली? तो मनु और ये ऋषिलोग पाप भूगतते रहेंगें. उस समयसे कुछ ब्राह्मण लोग मांस खाते रहे.

आचार्य मतलब है कि, आचार और विचारों पर शासन करें. मतलब कि, जिनके पास विद्या और ज्ञान है, उनके पास जो शासन रहेगा वह कहलायेगा अनुशासन. समस्याओंका समाधान ये लोग करेंगे. आचार्योंके शासन को अनुशासन कहा जायेगा. और शासकका काम है, सिर्फ “नियमों”का पालन करना और करवानेका. ऐसा होनेसे जनतंत्र कायम रहेगा.

अब देखो नहेरुवीयन कोंग्रेसने जो भी नियम बनायें वे सब अपने वॉट बेंक के लिये मतलबकी अपना शासन कायम रहे उसके लिये बनाया. वास्तवमें नियम बनानेका मुसद्दा जनताकी समस्याओंके समाधान के लिये ऋषियोंकी तरफसे मतलब कि,  ज्ञानी लोगोंकी तरफसे बनना चाहिये. जैसे कि लोकपालका मुसद्दा अन्ना हजारे की टीमने “जनलोकपाल” के बील के नामसे बनवाया था. उसके खिलाफ नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासकोंने एक मायावी-लोकपाल बील बनाया जिससे कुछ भी निष्पन्न होनेवाला नहीं था.

शासक पक्षः

नहेरुवीयन कोंग्रेस एक शासक पक्ष है. वह प्रजाका प्रतिनिधित्व करती है. लेकिन उसने चूनाव अभियानमें अपना लोकपाल बीलका मुसद्दा जनताके सामने रखकर चूनाव जीता नहीं था. उतना ही नहीं वह खुद एक बहुमत वाला और सत्ताहीन पक्ष नहीं था. उसके पास सत्ता थी और वह एक पक्षोंके समूह के कारण सत्तामें आया था. अगर उसके पास सत्ता है तो भी वह कोई नियम बनानेका अधिकार नहीं रख सकता.

शासक पक्षके पास कानून बनानेकी सत्ता नहीः

उसका मतलब यह हुआ कि जनताके प्रतिनिधिके पास नये नियम और पूराने नियमोंमें परिवर्तन करनेकी सत्ता नहीं हो सकती.

जो लोग समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मानसाशास्त्रमें निपूण है वे लोग ही हेतुपूर्ण मुसद्दा बनायेंगे और न्यायविद्वानोंसे मुसद्देका आखरी स्वरुप, नियम की भाषामें बद्ध करेंगे. फिर उसकी जनता और लोक प्रतिनिधियों के बीचमें और प्रसार माध्यमोंमें एक मंच पर चर्चा होगी, और उसमें फिरसे जो लोग समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मानसाशास्त्रमें निपूण है वे लोग हेतुपूर्ण मुसद्दा बनायेंगे और न्यायविद्वानोंसे फिरसे मुसद्देका आखरी स्वरुप नियमकी भाषामें बद्ध करेंगे और फिर उसके उपर मतदान होगा. यह मतदान संसदमें नहीं परंतु चूनाव आयोग करवायेगा. संसदसदस्योंके पास शासन प्रक्रीया पर नीगरानी रखनेकी सत्ता है. जो बात जनताके सामने पारदर्शितरुपमें रख्खी गई नहीं है, उसको मंजुर करने की सत्ता उनके पास नहीं है.

महात्मा गांधीने कोंग्रेसका विलय करनेको क्यों कहा?

महात्मा गांधी चाहते थे कि जो लोग अपनेको समाज सेवक मानते है और समाजमें क्रांति लाना चाहते है, वे अगर सत्तामें रहेंगे तो क्रांतिके बारे में सोचनेके स्थान पर वे खुद सत्तामें बने रहे उसके बारेमें ही सोचते रहेंगे. अगर उनको क्रांति करनी है तो सत्ताके बाहर रह कर जनजागृतिका काम करना पडेगा. और अगर जनता इन महानुभावोंसे विचार विमर्श करके शासक पक्षों पर दबाव बनायेगी कि, ऐसा क्रांतिकारी मुसद्दा तैयार करो और चूनाव आयोगसे मत गणना करवाओ.

महात्मा गांधीको मालुम था

महात्मा गांधीको मालुम था कि कोंग्रेसमें अनगिनत लोग सत्ताकांक्षी और भ्रष्ट है. और जनताको यह बातका पता चल ही जायेगा. “लोग इन कोंग्रेसीयोंको चून चून कर मारेंगे”. और उनकी यह बात १९७३में सच्ची साबित हुई.

गुजरातके नवनिर्माण आंदोलनमें गुजरातकी जनताने कोंग्रेसीयोंको चूनचून कर मारा और उनका विधानसभाकी सदस्यतासे इस्तिफा लिया. विधानसभाका विसर्जन करवाया. बादमें जयप्रकाश नारायणके नेतृत्वमें पूरे देशमें कोंग्रेस हटावोका आंदोलन फैल गया. जिस नहेरुवीयन कोंग्रेसने “हम गरीबी हटायेंगे… हम इसबातके लिये कृत संकल्प है” ऐसे वादे देकर, निरपेक्ष बहुमतसे १९७०में सत्ता हांसिल की थी, वह चाहती तो देशमें अदभूत क्रांति कर सकती थी. तो भी, नहेरुवीयन फरजंद ईन्दीरा गांधीको सिर्फ सत्ता और संपत्ति ही पसंद था. वह देशके हितके हरेक क्षेत्रमें संपूर्ण विफल रही और जैसा महात्मा गांधीने भविष्य उच्चारा था वैसा ही ईन्दीरा गांधीने किया. उसने अपने हरेक जाने अनजाने विरोधीयोंको जेलके हवाले किया और समाचार पत्रोंका गला घोंट दिया. उसने आपतकाल घोषित किया और मानवीय अधिकारोंका भी हनन किया. उसके कायदाविदने कहा कि, आपतकालमें शासक, आम आदमीका प्राण तक ले सकता है तो वह भी शासकका अधिकार है.

रामराज्यकी गहराई समझना नहेरुवीयन संस्कारके बसकी बात नहीं

और देखो यह ईन्दीरा गांधी जिसने हाजारोंसाल पूराना भारतीय जनतंत्रीय मानस जो महात्मा गांधीने जागृत किया था उसका ध्वंस किया. और वह ईन्दीरा गांधी आज भी यह नहेरुवीयन कोंग्रेसमें एक पूजनीया मानी जाती है. ऐसी मानसिकता वाला पक्ष रामचंद्रजीके जनतंत्र की गहराई कैसे समझ सकता है?

राम मंदिरका होना चाहिये या नहीं?

रामकी महानताको समझनेसे भारतीय जनताने रामको भगवान बना दिया. भगवान का मतलब है तेजस्वी. आकाशमें सबसे तेजस्वी सूर्य है. सूर्यसे पृथ्वी स्थापित है. सूर्यसे पृथ्वी की जिंदगी है. सूर्य भगवान वास्तवमें जीवन मात्रका आधार है. जब भी कोई अतिमहान व्यक्ति पृथ्वी पर पैदा होता है तो वह सूर्य भगवान की देन माना जाता है. सूर्यका एक नाम विष्णु है. इसलिये अतिमहान व्यक्ति जिसने समाजको उन्नत बनाया उसको विष्णुका अवतार माना जाता है. ऐसी प्रणाली सिर्फ भारतमें ही है ऐसा नहीं है. यह प्रणाली जापानसे ले कर मीस्र और मेक्सीको तक है या थी.

लेकिन नहेरुवीयन कोंग्रेसको महात्मा गांधीका नाम लेके और महात्मा गांधीकी कोंग्रेसकी धरोहर पर गर्व लेके वोट बटोरना अच्छा लगता है, लेकिन महात्मा गांधीके रामराज्यकी बात तो दूर रही, लेकिन रामको भारत माता का ऐतिहासिक सपूत मानने से भी वह इन्कार करती है. यह नहेरुवीयन कोंग्रेसको भारतीय संस्कृतिकी परंपरा पर जरा भी विश्वास नहीं है. उसके लिये सब जूठ है. राम भी जूठ है क्योंकि वह धार्मिक व्यक्ति है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसने रामको केवल धार्मिक व्यक्ति बनाके भारतीय जनतांत्रिक परंपराकी धज्जीयां उडा देनेकी भरपूर कोशिस की. नहेरुवीयन कोंग्रेसने रामका ऐतिहासिक अस्तित्व न्यायालयके सामने शपथ पूर्वक नकार दिया.

पूजन किनका होता है

अस्तित्व वाले तत्वोंका ही पूजन होता है. या तो वे प्राकृतिक शक्तियां होती है या तो वे देहधारी होते है. जिनका अस्तित्व सिर्फ साहित्यिक हो उनकी कभी पूजा और मंदिर बनाये जाते नहीं है. विश्वमें ऐसी प्रणाली नहीं है. लेकिन मनुष्यको और प्राकृतिक तत्वोंको पूजनेकी प्रणाली प्रचलित है, क्यों कि उनका अस्तित्व होता है.

महामानवके बारेमें एकसे ज्यादा लोग कथाएं लिखते है. महात्मागांधीके बारेमें हजारों लेखकोंने पुस्तकें लिखी होगी और लिखते रहेंगे. लेकिन “जया और जयंत”की या “भद्रंभद्र” की जीवनीके बारेमें लोग लिखेंगे नहीं क्यों कि वे सब काल्पनिक पात्र है.

भद्रंभद्रने माधवबागमें जो भाषण दिया उसकी चर्चा नहीं होगी, लेकिन विवेकानंदने विश्व धर्मपरिषदमें क्या भाषण दिया उसकी चर्चा होगी. विवेकानंदकी जन्म जयंति लोग मनायेंगे लेकिन भद्रंभद्रकी जन्म जयंति लोगे मनायेंगे नहीं.

राम धर्मके संलग्न हो य न हो, इससे रामके ऐतिहासिक सत्य पर कोई भी प्रभाव पडना नहीं चाहिये.

मान लिजीये चाणक्यको हमने भगवान मान लिया.

चाणक्यके नामसे एक धर्म फैला दिया. काल चक्रमें उसका जन्म स्थल ध्वस्त हो गया. नहेरुवीयनोंने भी एक धर्म बना लिया और एक जगह जो चाणक्यका जन्म स्थल था उसके उपर एक चर्च बना दिया. जनताने उसका उपयोग उनको करने नहीं दिया. तो अब क्या किया जाय? जे. एल. नहेरुका महत्व ज्यादा है या चाणक्य का? चाणक्य नहेरुसे २४०० मील सीनीयर है. चाणक्यका ही पहेला अधिकार बनेगा.

हिन्दु प्रणाली के अनुसार मृतदेहको अग्निदेवको अर्पण किया जाता है. वह मनुष्यका अंतिम यज्ञ है जिसमें ईश्वरका दिया हुआ देह ईश्वरको वापस दिया जाता है. यह विसर्जनका यज्ञ स्मशान भूमिमें होता है. इसलिये भारतीयोंमें कब्र नहीं होती. लेकिन महामानवों की याद के रुपमें उनकी जन्मभूमि या कर्म भूमि होती है. या तो वह उसकी जन्मभूमि होती है या तो उनसे स्थापित मंदिर होते हैं. ईश्वर का प्रार्थनास्थल यानी की मंदिर एक जगहसे दुसरी जगह स्थापित किया जा सकता है. लेकिन जन्म भूमि बदल नहीं सकती.

एक बात लघुमतीयोंको समझनी चाहिये कि, ईसाई और मुस्लिम धर्ममें शासकोंमें यह प्रणाली रही है कि जहां वे गये वहां उन्होने वहांका स्थानिक धर्म नष्ट करने की कोशिस की, और स्थानिक प्रजाके धर्मस्थानोंको नष्ट करके उनके उपर ही अपने धर्मस्थान बनाये है. यह सीलसीला २०वीं सदीके आरंभ तक चालु था. जिनको इसमें शक है वे मेक्सीको और दक्षिण अमेरिकाके स्थानिक लोगोंको पूछ सकते हैं.

जनतंत्रमें राम मंदिर किस तरहसे बन सकता है?

श्रेष्ठ उपाय आपसी सहमती है, और दूसरा उपाय न्यायालय है.

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शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः राम वचन, प्रतिज्ञा, नहेरुवीयन, नहेरु, ईन्दीरा, महात्मा गांधी, राम राज्य, राजा राम, अर्थघटन, नियम, परिवर्तन, प्रणाली, शासक, अधिकार, रुल ऑफ लॉ, निगरानी, सत्ता, ऋषि, ईश्वर, मनु, अधिकारी, जनतंत्र, हिन्दु, धर्म 

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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-8

खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग)

सीता धरतीमें समा गई. एक पाठ ऐसा है कि वाल्मिकी खुद, सीताकी शुद्धता शपथसे कहे और वशिष्ठ उसको प्रमाण माने . लेकिन राम का मानना है कि, ऐसी कोई प्रणाली नहीं है. प्रणाली सिर्फ अग्नि परीक्षाकी ही है. सीताको पहेलेकी तरह अग्निपरीक्षा देनी चाहिये.

सीताने पहेलेकी तरह अग्नि परीक्षा क्युं न दी? सीताको लगा कि, ऐसी बार बार परीक्षा देना उसका अपमान है. इस लिये योग्य यह ही है कि वह अपना जीवन समाप्त करें.

इस बातका जनताके उपर अत्यंत प्रभाव पडता है. और जनता के हृदयमें राम के साथ साथ सीताका स्थान भी उतनाही महत्व पूर्ण बन जाता है.

राम और नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेता गण

राम की सत्य और प्रणालीयोंके उपरकी निष्ठा इतनी कठोर थी, कि अगर उसको हमारे नहेरुसे लेकर आजके नहेरुवीयन कोंग्रेसके वंशज अगर रामके प्रण और सिद्धांकोके बारेमें सोचने की और तर्क द्वारा समझने की कोशिस करें, तो उनके लिये आत्महत्याके सिवा और कोई मार्ग बचता नहीं है.

राजाज्ञा और राजाज्ञाके शब्दोंका अर्थघटन

रामने तो अजेय हो गये थे. राज्य का कारोबार भी स्थापित और आदर्श परंपरा अनुसार हो रहा था.

एक ऋषि आते है. वे रामके साथ अकेलेमें और संपूर्णतः गुप्त बातचीत करना चाहते है. वह यह भी चाहते है कि जबतक बातचीत समाप्त न हो तब तक किसीको भी संवादखंडके अंदर आने न दिया जाय. राम, लक्ष्मणको बुलाते है. और संवादखंड के द्वारके आगे लक्ष्मणको चौकसी रखने को कहते है. और यह भी कहते है कि यह एक राजाज्ञा है. जिसका अनादर देहांत दंड होता है.

राम और ऋषि संवाद खंडके अंदर जाते है. लक्ष्मण द्वारपाल बन जाता है. संवादखंडके अंदर राम और ऋषि है और बातचीत चल रही है.

कुछ समयके बाद दुर्वासा ऋषि आते है. वे लक्ष्मणको कहेते है कि रामको जल्दसे जल्द बुलाओ. लक्ष्मण उनको बताते है कि राम तो गुप्त मंत्रणा कर रहे है, और किसीको भी जानेकी अनुमति नहीं है. दुर्वासा आग्रह जारी रखते है और शीघ्राति शीघ्र ही नहीं लेकिन तत्काल मिलनेकी हठ पर अड जाते है. और लक्ष्मणके मना करने पर वे गुस्सा हो जाते है. और पूरे अयोध्याको भष्म कर देनेकी धमकी देते है. तब लक्ष्मण संवाद खंड का द्वार खोलता है. ठीक उसी समय राम और ऋषिकी बातचीत खत्म हो जाती है और दोनों उठकर खडे हो जाते है.

“संवादका अंत” की परिभाषा क्या?

संवाद का प्रारंभ तो राम और ऋषि खंडके अंदर गये और द्वार बंद किया तबसे हो जाता है.

लेकिन संवादका अंत कब हुआ?

जब राम और ऋषिने बोलना बंद किया तबसे?

जब राम और ऋषि आसन परसे उठे तबसे?

जब राम और ऋषि द्वारके पास आये तबसे?

जब राम और ऋषि द्वार के बाहर आये तब?

रामके हिसाबसे जब तक राम और ऋषि द्वारके बाहर न आवे तब तक संवादका अंत मानना नहीं चाहिये.

जब राम और ऋषिने बोलना बंद किया तबसे संवादका अंत मानना नहीं चाहिये. क्यों कि यह तो दो मुद्दोंके बीचका विराम हो सकता है. यह भी हो सकता है वे दोनोंको कोई नया मुद्दा या कोई नयी  बात याद आ जावें?

जब राम और ऋषि आसन परसे उठे तबसे भी संवादका अंत न मानना चाहिये, क्योंकि  वे नयी बात याद आने से फिरसे बैठ भी सकते है. 

जब राम और ऋषि द्वारके पास आये तबसे भी संवादका अंत न मानना चहिये, क्यों कि वे बीना द्वार खोले वापस अपने स्थान पर जा सकते है.

चौकीदारके लिये ही नहीं परंतु राम, ऋषि और सबके लिये भी, जब वे दोनों (राम और ऋषि),  द्वार खोलके बाहर आते है तब ही संवाद का अंत मान सकता है. क्यों कि संवादकी गुप्तता तभी खतम हुई होती है.

तो अब प्रणाली के हिसाबसे राजाज्ञाका अनादर करने के कारण, लक्ष्मणको देहांत दंड देना चाहिये.

लक्ष्मण, जो रामके साथ रहा और दशरथकी आज्ञा न होने पर भी रामके साथ वनवासमें आया और खुदने अनेक दुःख और अपमान झेले. उसका त्याग अनुपम था. इस लक्ष्मणने अयोध्याकी रक्षाके लिये राजाज्ञाका शाब्दिक उल्लंघन किया जो वास्तवमें उल्लंघन था भी नहीं. जो ऋषि रामके साथ संवाद कर रहे थे उनको भी यह लगता नहीं था कि लक्ष्मणने राजाज्ञाका उल्लंघन किया है. लेकिन क्षुरस्य धारा पर चलने वाले रामको और लक्ष्मणको लगा की राजाज्ञाका उल्लंघन हुआ है.

रामने वशिष्ठसे पूछा. उनके अर्थघटनके अनुसार भी राजाज्ञाका उल्लंघन हुआ था. लेकिन देहांत  दंड के बारेमें एक ऐसी भी अर्थघटनकी प्रणाली थी कि अगर देहांत दंड जिस व्यक्ति के उपर लागु करना है वह अगर एक महाजन है तो उसको “स्वदेश त्याग” की सजा दे जा सकती है. रामने लक्ष्मणको वह सजा सूनायी.

लक्ष्मण अयोध्यासे बाहर निकल जाते है और सरयु नदीमें आत्म हत्या कर लेते है.

तो यह थी राम, लक्ष्मण और सीताकी मानसिकता.

इस मानसिकताको भारतकी जनताने मान्य रख्खी. अर्वाचीन समयको छोड कर किसीने रामको कमअक्ल और एक निस्फल पति या कर्तव्य हीन पति, ऐसा बता कर उनकी निंदा नहीं की. सीता और लक्ष्मण की भी निंदा नहीं की.

लेकिन अर्वाचीन युगमें और खास करके नहेरुवीयन युगमें कई मूर्धन्योंने रामकी निंदा की है. रामके त्यागका, रामके उत्कृष्ठ अर्थघटनोंका, रामकी कर्तव्य निष्ठाका, रामकी प्रणालीयोंके प्रति आदरका वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया है.

RAMA PROVIDED RULE OF LAW

शिरीष मोहनलाल दवे 

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