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रामदास आठवलेको पदच्यूत करो

रामदास आठवलेको पदच्यूत करो

रामदास आठवले कौन है?

क्या वह बीजेपीका प्रवक्ता है?

रामदास आठवले बीजेपीका प्रवक्ता नहीं है, लेकिन उससे भी अधिक है.

रामदास आठवले, मोदी के मंत्रीमंडलका एक मंत्री है.

जनतंत्रमें कोई भी मंत्रीका कथन, सरकारका कथन माना जाता है. मंत्रीका  व्यक्तिगत मन्तव्य हो ही नहीं नही सकता.

“यह मेरा व्यक्तिगत मन्तव्य है”

“यह मेरा व्यक्तिगत मन्तव्य है” ऐसे कथनकी प्रणालीका प्रारंभ कोंगीयोंने किया है.

वास्तवमें यदि कोई सामान्य सदस्य, आठवले जैसा बोले और साथ साथमें यह भी बोले कि यह मेरा व्यक्तिगत कथन है, तो भी वह अयोग्य है. क्यों कि उसको चाहिये कि, वह, अपना  व्यक्तिगत अभिप्राय अपने पक्षकी आम सभामें प्रगट करें. ऐसा करना ही उसका  हक्क बनता है. या तो अपने सदस्य-मित्रमंडलमें अप्रगट रुपसे प्रगट  करनेका हक्क है. पक्षके कोई ही सदस्यको, और खास करके आठवले जैसे मंत्रीमंडलके सदस्यको खुले आम बोलना जनतंत्रके अनुरुप नहीं है.

रामदास आठवलेने क्या कहा?

रामदास आठवलेने कहा कि यदि एस.सेनाको अपने  गठबंधनके साथीयोंसे मेल मिलाप नहीं है तो वह पुनः बीजेपीके गठबंधनमें आ सकता है. शरद पवारके पक्षको भी बीजेपीके गठबंधनमें आनेका आमंत्रण है.

रामदास आठवलेको ऐसी स्वतंत्रता किसने दी?

रामदास आठवले जैसे बीजेपी के सदस्यको मंत्रीपद देना ही नरेन्द्र मोदीकी क्षति है. इस क्षतिको सुधारना ही पडेगा. रामदास आठवले जैसे सदस्य के कारण ही बीजेपीको नुकशान होता है.

यदि नरेन्द्र मोदी और उसकी सरकार समज़ती है कि “सियासतमें सबकुछ चलता है” तो यह सही नहीं है. एनसीपी और एस.सेनासे गठबंधन करना बीजेपीके लिये आत्म हत्या सिद्ध होगा.

क्यों आत्म हत्या सिद्ध होगा?

महाराष्ट्र के चूनावके परिणाम घोषित होनेके बाद  एनसीपीके विधानसभाके नेताने ही बीजेपीका  विश्वासघात किया है. इस घटना को बीजेपीको भूलना नहीं चाहिये.

इसके अतिरिक्त एन.सी.पी.का आतंरिक व्यवहार और संस्कार ऐसा ही रहा है जो गद्दारीसे कम नही है. एन.सी.पी.को दाउद गेंगका दायाँ हाथ माना जाता है. यह खुला गर्भित सत्य है.

बांद्रके रेल्वे स्टेशनके पासकी मस्जिदकी घटना

एन.सी.पी. महाराष्ट्रने बांदरा रेल्वे स्टेशन (पश्चिम) के पास मस्जिदके सामने हिन्दीभाषीयोंको जानबुज़ कर इकठ्ठा किया था. एनसीपी द्वारा ऐसा करना केन्द्र सरकारके आदेशका अनादर था. इस घटनाका परिणाम महाराष्ट्र आज भी सहन कर रहा है. कोरोना महामारीसे सबसे अधिक संक्रमित महाराष्ट्र है. यदि ऐसा नहीं होता तो भी एनसीपीका व्यवहार, केन्द्रसरकारके आदेशके विरुद्ध था. एन.सी.पी.का  ध्येय “पैसा बनाना”, “केन्द्रकी कार्यवाहीको विफल बनाना” और देशमें अस्थिरता पैदा करना था. यह स्वयंसिद्ध है.

पालघर में हिन्दु संतोकी खुले आम हत्या.

पालघर मे दो हिन्दुसंतोकी और उसके वाहन चालककी हत्या की घटना देख लो. महाराष्ट्रकी सशस्त्र पूलिसोंके सामने हिन्दुविरोधी कोमवादीयोंने इन हिन्दुओंको मार मार के हत्या की. उस समय एन.सी.पी.का एक जनप्रतिनिधि भी मौजुद था. किसीने भी उन हिन्दुओंकी जानबुज़कर सहाय नहीं की. उनका परोक्ष ध्येय था हिन्दु संतोंको सबक सिखाना.

महाराष्ट्रकी सरकारने, अफवाह के नाम पर इस घटनाको कमजोर (डाईल्युट)  बना दिया. एन.सी.पी. के जनप्रतिनिधिके उपर भी कोई कार्यवाही नहीं की. महाराष्ट्र की सरकार स्वयं ही कोमवादी है यह बात इससे भी सिद्ध होती है. उतना ही नहीं जब कुछ लोगोंने राज्य सरकारकी कार्यवाही पर प्रश्न किये तो मुख्य मंत्रीने धमकी देना शुरु किया. एन.सी.पी. के शिर्ष नेता स्वयं ऐसी कार्यवाही पर मौन रहे. यह बात भी उनके कोमवादी मानसिकताका द्योतक है.

एन.सी.पी. को, बीजेपी के साथ गठबंधनका आमंत्रण देना एक गदारी ही है. रामदास आठवलेको मंत्रीमंडसे पदच्यूत कर दो.

एस.सेना का पूर्णरुपसे कोंगीकरण हो गया है.

कंगना रणौतके साथ दुर्व्यवहार

कोंगीके हर कुलक्षण, एस.सेनाके नेताओंमें विद्यमान है.  वे “जैसे थे वादी है, वे भ्रष्ट है, वे कोमवादी है, वे प्रतिशोध वादी है, वे एकाधिकारवादी है, वे  पूर्वग्रहसे भरपूर है, वे वंशवादी है, वे अफवाहें फैलाते है, वे जूठ बोलते है, वे गुन्डागर्दीकेआदी है, वे  असहिष्णु है…  ऐसा एक कुलक्षण बताओ जो कोंगीमें हो और एस.सेना के नेताओंमें न हो. बांद्रा की घटना, पालघरकीघटना, कंगना रणोतके साथका उनका व्यवहार, कंगना रणोतके घरको तोडनेकी घटना…  इन सबमें एन.सी.पीका व्यवहार और एस.सेनाका व्यवहार उनकी मानसिकताको पूर्णरुपसे प्रगट कर देता है.

इन सब घटना और व्यवहारके कारण कोंगी , एन.सी.पी. और एस.सेना दफन होनेवाली है.

कोंगी, एन.सी.पी. और एस. सेना इनको अपनी मौत मरने दो.

बीजेपी केन्द्रीय सरकार इन तीनोंके नेताओंको कभी भी गिरफ्तार करके कारावासमें पहोंचा सकती है.

इन बातोंको भूल कर यदि रामदास आठवले, इनके साथ गठबंधनमें आनेका न्योता देता है तो वह आठवले एक गद्दार से कम नहीं है.

रामदास आठवले को पदसे और सदस्यतासे च्यूत करो. नही  तो बीजेपीको बडा नुकशान होनेवाला है.

नरेन्द्र मोदीजी, अमित शाहजी और रजनाथ सिंहजी हमारी आपसे चेतावनी है. दुश्मनों पर लॉ एन्ड ओर्डरका डंडा चलाओ.

 

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

एकेनापि कुवृक्षेण दह्यमानेन वन्हिना,

दह्यते तद्‌ वनं सर्वं, कुपुत्रेण कुलं यथा

एक खराब वृक्षमें स्थित अग्नि, सारे वनको जला कर नष्ट कर देता है,

ऐसे ही एक कुपुत्र (यहाँ पर समज लो एक पक्षका मानसिकतासे भ्रष्ट  नेता रामदास आठवले) बीजेपीको नष्ट कर देगा. कोंगी, एन.सी.पी. और एस.सेना को अपने मौत पर मरने दो. उनका मरना सुनिश्चित है.

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गोब्बेल्स अन्यत्र ही नहीं भारतमें भी जिवित है.

WE SPREAD RUMOR

रामायण में ऐसा उल्लेख है कि रावणने राम के मृत्युकी अफवाह फैलायी थी. किन्तु सभी रामकाथाओंमें ऐसा उलेख नहीं है. रावणने अफवाह फैलायी थी ऐसी भी एक अफवाह मानी जाती है. सर्वप्रथम विश्वसनीयन अफवाहका उल्लेख महाभारतके युद्धके समय मिलता है, जब भीमसेन एक अफवाह फैलाता है किअश्वस्थामा मर गया”. यह बात अश्वस्थामाके पिता द्रोणके पास जाती है. किन्तु द्रोणके मंतव्यके अनुसार, भीमसेन विश्वसनीय नहीं है. द्रोण इस घटनाकी सत्यताके विषय पर सत्यवादी युधिष्ठिरसे प्रूच्छा करते है. युधिष्ठिर उच्चरते हैनरः वा कुंजरः वा (नरो वा कुंजरो वा)”. लेकिन नरः शब्द उंचे स्वरमें बोलते है और कुंजरः (हाथी) धीरेसे बोलते है जो द्रोणके लिये श्रव्य सीमा से बाहर था. तो इस प्रकार पांण्डव पक्ष, अफवाह फैलाके द्रोण जैसे महारथी को मार देता है.

अर्वाचिन युगमें गोब्बेल्स नाम अफवाहें फैलानेवालोंमे अति प्रख्यात है. ऐसा कहा जाता है कि, उसने अफवाहें फैलाके शत्रुसेनाके सेनापतियोंको असमंजसमें डाल दिया था.

अफवाह की परिभाषा क्या है?

अफवाहको संस्कृतभाषामें जनश्रुति कहेते है. जनश्रुति का अर्थ है एक ऐसी घटना जिसके घटनेकी सत्यताका कोई प्रमाण नहीं होता है. इसके अतिरिक्त इस घटनाको सत्यके रुपमें पुरष्कृत किया जाता है या तो उसका अनुमोदन किया जाता है. और इस अनुमोदनमें भी किया गया तर्क शुद्ध नहीं होता है. एक अफवाहकी सत्यताको सिद्ध करने के लिये दुसरी अफवाह फैलायी जाती है. और ऐसी अफवाहोंकी कभी एक लंबी शृंखला बनायी जाती है कभी उसकी माला भी बनायी जाती है.

अफवाह उत्पन्न करो और प्रसार करो

कई बार अफवाह फैलाने वाला दोषित नहीं होता है. वह मंदबुद्धि अवश्य होता है. जिन्होंने अफवाहका जनन किया है वे लोग, ऐसे मंदबुद्धि लोगोंका एक प्रसारण उपकरण (टुल्स), के रुपमें उपयोग करते है. ऐसा भी होता है कि ऐसे प्रसारमाध्यमव्यक्ति अपने स्वार्थके कारण या अहंकारके कारण अफवाह को सत्य मान लेता है और प्रसारके लिये सहायभूत हो जाता है.

अफवाहें फैलानेमें पाश्चात्य संस्कृतियां का कोई उत्तर नहीं.

वास्तवमें तो स्वर्ग, नर्क, सेतान, देवदूत, क्रोधित होनेवाला ईश्वर, प्रसन्न होनेवाला ईश्वर, कुछ लोगोंकोये तो अपनवाले हैऔर दुसरोंकोंपरायेकहेने वाला ईश्वर, यही धर्म श्रेष्ठ है, इसी धर्मका पालन करनेसे ईश्वरकी प्राप्ति हो सकती है, इस धर्मको स्विकारोगे तो तुम्हारा पाप यह देवदूत ले लेगा, ये सभी कथाएं और मान्यताएं भी अफवाह ही तो है.

कामदेव, विष्णु भगवानका पुत्र था. “कामका यदि प्रतिकात्मक अर्थ करें तो नरमादामें परस्पर समागमकी वृत्ति को काम कहा जाता है.

भारतीय संस्कृतिमें तत्वज्ञानको प्रतिकात्मक करके, काव्य के रुपमें उसको लोकभोग्य बनानेकी एक प्रणाली है.  इस तरहसे जन समुदायको तत्वज्ञान अवगत करानेकी परंपरा बनायी है.

काम भी एक देव है. देवसे प्रयोजित है शक्ति या बल.

कामातुर जिवकी कामेच्छा कब मर जाती है?

जब कामातुर व्यक्तिको अग्निकी ज्वालाका स्पर्ष हो जाता है, तब उसकी कामेच्छा मर जाती है. लेकिन काम मरता नहीं है. इस प्राकृतिक घटनाको प्रतिकात्मक रुपमें इस प्रकार अवतरण किया कि रुद्रने (अग्निने) कामको भष्म कर दिया. किन्तु देव तो कभी मर नहीं ता. अब क्या किया जाय? तो तत्पश्चात्इश्वरने उसको सजिवोंमे स्थापित कर दिया. बोध है कि कामदेव सजिवमें विद्यमान है.

जनश्रुतियानीकी अफवाह भी जनसमुदायोंमे जिवित है. हांजी, प्रमाण कितना है वह चर्चा का विषय है.

इतिहासमें जनश्रुति (अफवाहें रुमर);

पाश्चात्य इतिहासकारोंने भारतके पूरे पौराणिक साहित्यको अफवाह घोषित कर दिया. पुराणोमें देवोंकी और ईश्वरकी जो प्रतिकात्मक या मनोरंजनकी कथायें थी उनकी प्रतिकात्मकताको इन पाश्चात्य इतिहासकारोंने समझा नही या तो समझनेकी उनकी ईच्छा नहीं थी क्योंकि उनका ध्येय अन्य था. उनको उनकी ध्येयसूची (एजन्डा)के अनुसार, कुछ अन्य ही सिद्ध करनेका था. उस ध्येय सूचि के अनुसार उन्होंने इन सब प्रतिकात्मक ईश्वरीय कथाओंको मिथ्या घोषित कर दिया. और  उनको आधार बनाके भारतमें भारतवासीयोंके लिखे इस इतिहासको अफवाह घोषित कर दिया.

भारत पर आर्योंका आक्रमणः

पराजित देशकी जनताको सांस्कृतिक पराजय देना उनकी ध्येयसूची थी. अत्र तत्र से कुछ प्रकिर्ण वार्ताएं उद्धृत करके उसमें कालगणना. भाषाकी प्रणाली, जन सामान्यकी तत्कालिन प्रणालीयां, प्रक्षेपनकी शक्यताआदि को उपेक्षित कर दिया.   

आर्य, अनार्य, वनवासी, आदि जातियोंमें भारतकी जनताको विभाजित करके भारतीय संस्कृतिको भारतीय लोगोंके लिये गौरवहीन कर दिया. ऐसी तो कई बातें हैं जो हम जानते ही है.

ऐसा करना उनके लिये नाविन्य नहीं था. ऐसी ही अफवाहें फैलाके उन्होने अमेरिकाकी माया संस्कृतिको और इजिप्तकी महान संस्कृतिको नष्ट कर दिया था. पश्चिम एशियाकी संस्कृतियां भी अपवाद नहीं रही है.

आप कहोगे कि इन सब बातोंका आज क्या संदर्भ है?

संदर्भ अवश्य है. भारतीय संस्कृतिकी प्रत्येक प्रणालीयोंमें इसका संदर्भ है और उसका प्रास्तूत्य भी है.

अफवाहें फैलाके दुश्मनोंमें विभाजन करना, दुश्मनोंकी सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट करना, दुश्मनोंकी प्रणालीयोंको निम्नस्तरीय सिद्ध करना और उसका आनंद लेना ये सब उनके संस्कार है. आज भी आपको यह दृष्टिगोचर होता है.

भारतमें इन अफवाहोंके कारण क्या हुआ?

भारतकी जनतामें विभाजन हुआ. उत्तर, दक्षिण, पूर्वोत्तर, हिन्दु, मुस्लिम, ख्रीस्ती, भाषा, आर्य, अनार्य, ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शुद्र, वनवासी, पर्वतवासी, अंग्रेजीके ज्ञाता, अंग्रेजीके अज्ञाता  आदि आदिइनमें सबसे भयंकर भेद धर्म, जाति और ज्ञाति.

मुस्लिमोंमें यह अफवाह फैलायी कि वे तो भारतके शासक थे. उन्होने भारतके उपर ०० साल शासन किया है. उन्होंने ही भारतीयोंको सुसंस्कृत किया है. भारतकी अफलातुन इमारतें आपने ही तो बनायी. भारतके पास तो कुछ नहीं था. भारत तो हमेशा दुश्मनों से २५०० सालोंसे हारता ही आया है. सिकंदरसे लेके बाबर तक भारत हारते ही आया है.

ख्रीस्ती और मुसलमानोंने भारतके निम्न वर्णको यह बताया कि आपके उपर उच्च वर्णके लोगोंने अमानवीय अत्याचार किया है. दक्षिण भारतकी ब्राह्मण जनताको भी ऐसा ही बताया गया. इन कोई भी बातोंमे सत्यका अभाव था.

सबल लोग, निर्बल लोगोंका शोषण करे ऐसी प्रणाली पूरे विश्वमें चली है और आज भी चलती है. केवल सबल और निर्बलके नाम बदल जाते है. भारतमें शोषण, अन्य देशोंके प्रमाणसे अति अल्प था. जो ज्ञातियां थी वे व्यवसाय के आधार पर थी. और पूरा भारतीय समाज सहयोगसे चलता था.

धार्मिक अफवाहेः

धर्मकी परिभाषा जो पाश्च्यात देशोंने बानायी है, वह भारतके सनातन धर्म को लागु नहीं पड सकती. किन्तु यह समझनेकी पाश्चात्य देशोंकी वृत्ति नहीं है या तो उनकी समझसे बाहर है.

भारतके अंग्रेजीज्ञाताओंकी मानसिकता पराधिन है. इतिहास, धरोहर, प्रणालीयां, तत्वज्ञान, वैश्विक भावना, आदिको एक सुत्रमें गुंथन करके भारतीय विद्वानोंने भारतकी संस्कृतिमें सामाजिक लयता स्थापित की है. लयता और सहयोग शाश्वत रहे इस कारण उन्होंने स्थितिस्थापकता भी रक्खी है.

किन्तु तथ्योंको समझना और आत्मसात्करना पाश्चात्य विद्वानोंके मस्तिष्कसे बाहर की बात है. इस लिये उन्होंने ऐसी अफवाहें फैलायी कि, हिन्दु देवदेवीयां तो बिभत्स है. उनके उपासना मंत्र और पुस्तकें भी बिभत्स है. वे लोग जननेन्द्रीयकी पूजा करते है. उनके देव लडते भी रहेते है और मूर्ख भी होते है. भला, देव कभी ऐसे हो सकते हैं? पाश्चात्य भाषी इस प्रकार हिन्दु धर्मकी निंदा करके खुश होते हैं.

वेदोंमे और कुछ मान्य उपनिषदोंमे नीहित तत्वज्ञानका अर्क जो गीतामें है उनको आत्मसात तो क्या किन्तु समझनेकी इन लोगोंमें क्षमता नहीं है.

शास्त्र क्या है? इतिहास क्या है? समाज क्या है? कार्य क्या है? इश्वर क्या है? आत्मा क्या है? शरीर सुरक्षा क्या है? आदि में प्रमाणभूत क्या है, इन बातोंको समझनेकी भी इन विद्वानोंमे क्षमता नहीं है. तो ये लोग इनके तथ्योंको आत्मसात्तो करेंगे ही कैसे?  

राजकीय अफवाहेः

दुसरों पर अधिकार जमाना यह पाश्चात्य संस्कृतिकी देन है.

भारतमें गुरु परंपरा रही है. गुरु उपदेश और सूचना देता है. हरेक राजाके गुरु होते थे. राजाका काम सिर्फ गुरुनिर्देशित और सामाजिक मान्यता प्राप्त प्रणालियोंके आधार पर शासन करना था. भारतका जनतंत्र एक निरपेक्ष जनतंत्र था. गणतंत्र राज्य थे. राजाशाही भी थी. तद्यपि जनताकी बात सूनाई देती थी. यह बात केवल महात्मा गांधी ही आत्मसात कर सके थे.

भारतकी यथा कथित जनतंत्रको अधिगत करनेकी नहेरुमें क्षमता नहीं थी. नहेरुको भारतीय संस्कृति और संस्कारसे कोई लेना देना नहीं था. उन्होंनें तो कहा भी था किमैं (केवल) जन्मसे (ही) हिन्दु हूं. मैं कर्मसे मुस्लिम हूं और धर्मसे ख्रीस्ती हूं. नहेरुको महात्मा गांधी ढोंगी लगते थे. किन्तु यह मान्यता  उन्होंने गांधीजीके मरनेके सात वर्षके पश्चात्‍, केनेडाके एक राजद्वारी व्यक्तिके सामने प्रदर्शित की थी.

नहेरुकी अपनी प्राथमिकता थी, हिन्दुओंकी निंदा. नहेरुने हिन्दुओंकी निंदा करनेकी बात, आचारमें तभी लाया, जब वे एक विजयी प्रधान मंत्री बन गये.

हिन्दु महासभा को नष्ट करनेमें नहेरुका भारी योगदान था.

वंदे मातरम्और राष्ट्रध्वजमें चरखाका चिन्ह को हटानेमें उनका भारी योगदान था. गौ रक्षा और संस्कृतभाषाकी अवहेलना करना, मद्य निषेध करना, समाजको अहिंसाकी दिशामें ले जाना, अंग्रेजीको अनियत कालके लिये राष्ट्रभाषा स्थापित करके रखना, समाजवादी (साम्यवादी) समाज रचना आदि सब आचारोंमे नहेरुका सिक्का चला. उन्होंने तथा कथित समाजवाद, हिन्दी चीनी भाई भाई, स्व कथित और स्व परिभाषित धर्म निरपेक्षताकी अफवाहें फैलायी. इन सभी अफवाहोंको अंग्रेजी ज्ञाताजुथोंने स्वकीय स्वार्थके कारण अनुमोदन भी किया.

जनतंत्र पर जो प्रहार नहेरु नहीं कर पाये, वे सब प्रहार इन्दिरा गांधीने किया.

इन्दिरा गांधी, अफवाहें फैलानेमें प्रथम क्रम पर आज भी है.

इन्दिरा गांधीने जितनी अफवाहें फेलायी थी उसका रेकॉर्ड कोई तोड नहीं सकता. क्यों कि अब भारतमें आपात्काल घोषित करना संविधानके प्रावधानोंके अनुसार असंभव है.

सुनो, ऑल इन्डिया रेडियो क्या बोलता था?

एक वयोवृद्ध नेता, सेनाको और कर्मचारीयोंको विद्रोहके लिये उद्युत कर रहा है. (संदर्भः जय प्रकाश नारायणने कहा था कि सभी सरकारी कर्मचारी संविधानके नियमोंसे बद्ध है. इसलिये उनको हमेशा उन नियमोंके अनुसार कार्य करना है. यदि उनका उच्च अधिकारी या मंत्री नियमहीन आज्ञा दें तो उनको वह आदेश लेखित रुपमें मांगना आवश्यक है.) किन्तु उपरोक्त समाचार  ‘एक वयोवृद्ध नेता, सेनाको और कर्मचारीयोंको विद्रोहके लिये उद्युत कर रहा हैसातत्य पूर्वक चलता रहा.

उसी प्रकारआपातकाल अनुशासन हैका अफवाहयुक्त अर्थघटन यह किया गया कि, “आपातकाल एक आवश्यक और निर्दोष कदम है और विनोबा भावे इस कदमसे सहमत है.”

विनोबा भावेने खुदने इस अयोग्य कदमके विषय पर स्पष्टता की थी, “यदि वास्तवमें देशके उपर कठोर आपत्ति है तो यह, एक शासककी समस्या नहीं है, यह तो पुरे देशवासीयोंकी समस्या है. इस लिये देशको कैसे चलाया जाय इस बात पर सिर्फ (सत्ताहीन) आचार्योंकी सूचना अनुसार शासन होना चाहिये. क्योंकि आचार्योंका शासन ही अनुशासन है. “आचार्योंका अनुशासन होता है. सत्ताधारीयोंका शासन होता है.”

विनोबा भावे का स्पष्टीकरण दबा दिया गया. सत्यको दबा देना भी तो अफवाहका हिस्सा है.

एक वयोवृद्ध नेता (मोरारजी देसाई) के लिये प्रतिदिन २० कीलोग्राम फल का खर्च होता है.” यह भी एक अफवाह इन्दिरा गांधीने फैलायी थी. मोरारजी देसाईने कहा कि यदि मैं प्रतिदिन २० कीलोग्राम फल खाउं तो मैं मर ही जाउं.

ऐसी तो सहस्रों अफवायें फैलायी जाती थी. अफवाहोंके अतिरिक्त कुछ चलता ही नहीं था.

समाचार माध्यमों द्वारा प्रसारित अफवाहें

आज दंभी धर्मनिरपेक्षताके पुरस्कर्ताओंने समाचार पत्रों और विजाणुंमाध्यमों द्वारा अफवाहें फैलानेका ठेका नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंके पक्षमें ले लिया है.

मोदीफोबीयासे पीडित नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके साथीयोंके द्वारा कथित उच्चारणोंसे नरेन्द्र मोदी कौनसा जानवर है या वह कौनसा दैत्य है, या वह कौनसा आततायी है, इन बातों को छोड दो. यह तो गाली प्रदान है. ऐसे संस्कारवालोंने (नहेरुवीयनोंने) इन लोगोंका नाम बडा किया है.

किन्तु भूमि अधिग्रहण विधेयक, आतंकवाद विरोधी विधेयक, उद्योग नीति, परिकल्पनाएं, विशेष विनिधान परिक्षेत्र (स्पेश्यल इन्वेस्टमेंट झोन), आदि विकास निर्धारित योजनाओं के विषय पर अनेक अफवाहें ये लोग फैलाते हैं. इसके विषय पर एक पुस्तक लिखा जा सकता है.

उदाहरण के तौर पर, भूमिअधिग्रहणमें वनकी भूमि नहीं है तो भी वनवासीयोंको अपने अधिकार से वंचित किया है, ऐसी अफवाह फैलायी जाती है. कृषकोंको अपनी भूमिसे वंचित करनेका यह एक सडयंत्र है. यह भी एक अफवाह है. क्यों कि उसको चार गुना प्रतिकर मिलता है जिससे वह पहेलेसे भी ज्यादा भूमि कहींसे भी क्रय कर सकते है.

आतंकवाद विरुद्ध हिन्दु और भारत समाज सुरक्षाः

कश्मिरके हिन्दुओंने तो कुछ भी नहीं किया था.

तो भी, १९८९९० में कश्मिरी हिन्दुओंको खुल्ले आम, अखबारोंमें, दिवारों पर, मस्जिदके लाउड स्पीकरों द्वारा धमकियां दी गयी कि, “इस्लाम कबुल करो या तो कश्मिर छोड दो. यदि ऐसा नहीं करना है तो मौतके लिये तयार रहो.” फिर ३००० से भी अधिक हिन्दुओंकी कत्ल कर दी. और उनके उपर हर प्रकारका आतंक फैलाया. लाख हिन्दुओंको अपना घर छोडना पडा. उनको अपने प्रदेशके बाहर, तंबूओंमे आश्रय लेना पडा. उनका जिवन तहस नहस हो गया है.

ऐसे आतंकके विरुद्ध दंभी धर्मनिरपेक्ष जमात मौन रही, नहेरुवीयन कोंग्रेसनेतागण मौन रहा, कश्मिरी नेतागण मौन रहा, समाचार माध्यम मौन रहा, मानव अधिकार सुरक्षा संस्थाएं मौन रहीं, समाचार पत्र मौन रहें, दूरदर्शन चेनलें मौन रहीं, सर्वोदयवादी मौन रहेंये केवल मौन ही नहीं निरपेक्ष रीतिसे निष्क्रीय भी रहे. जिनको मानवोंके अधिकारकी सुरक्षाके लिये करप्रणाली द्वारा दिये जननिधिमेंसे वेतन मिलता है वे भी मौन और निष्क्रीय रहे. यह तो ठंडे कलेजेसे चलता नरसंहार ही था और यह एक सातत्यपूर्वक चलता आतंक ही है जब तक इन आतंकवादग्रस्त हिन्दुओंको सम्मानपूर्वक पुनर्वासित नहीं किया जाता.  

एक नहेरुवीयन कोंग्रेस पदस्थ नेताने आयोजन पूर्वक २००२ में गोधरा रेल्वे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेसका डीब्बा जलाकर ५९ स्त्री, पुरुष बच्चोंको जिन्दा जला दिया. ऐसा शर्मनाक आतंक, गुजरातमें प्रथम हुआ.

गुजरात भारतका एक भाग है. वह कोई संतोंका मुल्क नहीं है, तो वह भारत में, संतोंका एक टापु बन सकता है. यदि कोई ऐसी अपेक्षा रक्खे तो वह मूर्ख ही है.

५९ हिन्दुओंको जिन्दा जलाया तो हिन्दुओंकी प्रतिक्रिया हुई. दंगे भडक उठे. तीन दिन दंगे चले. शासनने दिनमें नियंत्रण पा लिया. जो निर्वासित हो गये थे उनका पुनर्वसन भी कर दिया. इनमें हिन्दु भी थे और मुसलमान भी थे. मुसलमान अधिक थे. से मासमें, स्थिति पूर्ववत्कर दी गयी.

तो भी गुजरातके शासन और शासककी भरपुर निंदा कर दी गयी और वह आज भी चालु है.

मुस्लिमोंने जो सहन किया उसके उपर जांच आयोग बैठे,

विशेष जांच आयोग बैठे,

सेंकडोंको जेलमें बंद किया,

न्यायालयोंमें केस चले.

सजाएं दी गयी.

इसके अतिरिक्त इसके उपर पुस्तकें लिखी गयीं,

पुस्तकोंके विमोचन समारंभ हुए,

घटनाके विषय को ले के हिन्दुओंके विरुद्ध चलचित्र बने,

अनेक चलचित्रोंमें इन दंगोंका हिन्दुओंके विरुद्ध और शासनके विरुद्ध प्रसार हुआ. इसके वार्षिक दिन मनाये जाने लगें.

२००२ के दंगोमें क्या हुआ था?

२००० से कम हुई मौत/हत्या जिनमें पुलीस गोलीबारीसे हुई मौत भी निहित है.

इसमें हिन्दु अधिक थे. ११४००० लोगोंको तंबुमें जाना पडा जिनमें / से ज्यादा हिन्दु भी थे

से महीनेमें सब लोगोंका पुनर्वसन कर दिया गया.

 

इनके सामने तुलना करो कश्मिरका हत्याकांड १९८९९०

हिन्दुओंने कुछ भी नहीं किया था.

३०००+ मौत हुई केवल हिन्दुओंकी.

५०००००७००००० निर्वासित हुए. सिर्फ हिन्दुओंको निर्वासित किया गया था.

शून्य पोलीस गोलीबारी

शून्य मुस्लिम मौत

शून्य पुलीस या अन्य रीपोर्ट

शून्य न्यायालय केस

शून्य गिरफ्तारी

शून्य दंड विधान

शून्य सरकारी नियंत्रण

शून्य पुस्तक

शून्य चलचित्र

शून्य दूरदर्शन प्रदर्शन

शून्य उल्लेख अन्यत्र माध्यम

शून्य सरकारी कार्यवायी

शून्य मानवाधिकारी संस्थाओंकी कार्यवाही

यदि हिन्दुओंका यही हाल है और फिर भी उनके बारेमें कहा जाता है कि, मुस्लिम आतंकवादकी तुलनामें हिन्दु आतंकवाद से देशको अधिक भय है ऐसा जब नहेरुवीयन कोंग्रेसका अग्रतम नेता एक विदेशीको कहेता है तो इसको अफवाह नहीं कहोगे तो क्या कहोगे?

अघटित को घटित बताना, संदर्भहीन घटनाको अधिक प्रभावशाली दिखाना, असत्य अर्थघटन करना, प्रमाणभान नहीं रखना, संदर्भयुक्त घटनाओंको गोपित रखना, निष्क्रीय रहना, अपना कर्तव्य नहीं निभानाये सब बातें अफवाहोंके समकक्ष है. इनके विरुद्ध दंडका प्रावधान होना आवश्यक है.

और कौन अफवाहें फैलाते हैं?

लोगोंमें भी भीन्न भीन्न फोबिया होता है.

मोदी और बीजेपी या आएसएस फोबीया केवल दंभी धर्मनिरपेक्ष पंडितोमें होता है ऐसा नहीं है, यह फोबीया सामान्य मुस्लिमोंमें और पाश्चात्य संस्कृति से अभिभूत व्यक्तिओमें भी होता है. ऐसा ही फोबीया महात्मा गांधी के लिये भी कुछ लोगोंका होता है. कुछ लोगोंको मुस्लिम फोबिया होता है. कुछ लोगोंको क्रिश्चीयन लोगोंसे फोबीया होता है. कुछ लोगोंको श्वेत लोगोंकी संस्कृतिसे या  श्वेत लोगोंसे फोबिया होता है. वे भी अपनी आत्मतूष्टिके लिये अफवाहें फैलाते है.  ये सब लोग केवल तारतम्य वाले कथनों द्वारा अपना अभिप्राय व्यक्त करके उसके उपर स्थिर रहते हैं.

शिरीष मोहनलाल दवे

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हिन्दु और लघुमतीयोंको एक दुसरेसे क्या अपेक्षा है और अपेक्षा क्या होनी चाहिये? – १

प्रथम तो हमें यह समझना चाहिये कि हिन्दु और मुस्लिम कौन है?

ALL THE MUGALS WERE NOT COMMUNAL

यदि हम १८५७ के स्वातंत्र्य संग्रामकी मानसिकतामें अवलोकन करे तो हिन्दु और मुस्लिम दोनों हिन्दुस्तानी है. जब भी कोई एक जन समुदाय एक स्थानसे दुसरे स्थान पर जाता है तो वह समुदाय वहांके रहेनेवालोंसे हिलमिल जानेकी कोशिस करता है. यदि जानेवाला समुदाय शासकके रुपमें जाता है तो वह अपनी आदतें मूलनिवासीयों पर लादें ये हमेशा अवश्यक नहीं है. इस बातके उपर हम चर्चा नहीं करेंगे. लेकिन संक्षिप्तमें इतना तो कह सकते है कि तथा कथित संघर्षके बाद भी इ.स. १७०० या उसके पहेले ही हिन्दु और मुस्लिम एक दुसरेसे मिल गये थे. इसका श्रेष्ठ उदाहरण यह है कि, बहादुरशाह जफर के नेतृत्वमें हिन्दु और मुसलमानोंने अंग्रेज सरकारसे विप्लव किया था. और यह भी तय था कि सभी राजा, बहादुर शाह जफरके सार्वभौमत्वके अंतर्गत राज करेंगे.

अब यह बहादुर शाह जफर कौन था?

यह बहादुर शाह जफर मुगलवंशका बादशाह था. उसके राज्य की सीमा लालकिले की दिवारें थीं. और उतनी ही उसके सार्वभौमत्वकी सीमा थी. यह होते हुए भी सभी हिन्दु और मुस्लिम राजाओंने बहादुरशाह जफर का सार्वभौमत्व स्विकार करके मुगल साम्राज्यकी पुनर्स्थापनाका निर्णय किया था. इससे यह तो सिद्ध होता है कि हिन्दुओंकी और मुस्लिमों की मानसिकता एक दुसरेके सामने विरोधकी नहीं थी.

शिवाजीको अधिकृतमान न मिला तो उन्होने दरबारका त्याग किया

आजकी तारिखमें हिन्दुओंके हिसाबसे माना जाता है कि मुस्लिम बादशाहोंने हिन्दु प्रजा पर अति भारी यातनाएं दी है और जिन हिन्दुओंने इस्लामको स्विकारा नहीं उनका अति मात्रामें वध किया था. इस बातमें कुछ अंश तक सच्चाई होगी लेकिन सच्चाई उतनी नहीं कि दोनो मिल न पायें. अगर ऐसा होता तो औरंगझेबके सैन्यमें हिन्दु सैनिक और सरदार न होते और शिवाजीके सैन्यमें मुस्लिम सैनिक और सरदार न होते. शिवाजी मुगल स्टाईल की पगडी न पहेनते, और औरंगझेब शिवाजीके पोते शाहुको उसकी जागीर वापस नहीं करता. मुस्लिम राजाओंने अगर अत्याचार किया है तो विशेषतः शासक होने के नाते किया हो ऐसा भी हो सकता है. जो अत्याचारी शासक होता है उसको या तो उसके अधिकारीयोंको तो अपना उल्लु सिधा करनेके लिये बहाना चाहिये.

अब एक बात याद करो. २०वीं सदीमें समाचार और प्रचार माध्यम ठीक ठीक विकसित हुए है. सत्य और असत्य दोनोंका प्रसारण हो सकता है. लेकिन असत्य बात ज्यादा समयके लिये स्थायी नहीं रहेगी. सत्य तो सामने आयेगा ही. तो भी विश्वसनीय बननेमें असत्यको काफि महेनत करनी पडती है. वैसा ही सत्यके बारेमें है.

इन्दिरा गांधीके उच्चारणोंको याद करो.
१९७५में इन्दिरा गांधीने अपनी कुर्सी बचानेके लिये प्रचूर मात्रामें गुन्हाहित काम किये और करवाये. समाचार प्रसार माध्यम भी डरके मारे कुछ भी बोलते नहीं थे. लेकिन जब इन्दिरा गांधीके शासनका पतन हुआ और शाह आयोग ने जब अपना जांचका काम शुरु किया तो अधिकारीयोंने बोला कि उन्होने जो कुछ भी किया वह उपरकी आज्ञाके अनुसार किया. इन्दिराने खुल्ले आम कहा कि उसने ऐसी कोई आज्ञा दी नहीं थी. उसने तो संविधानके अंतर्गत ही आचार करनेका बोला था. अब ये दोनों अर्ध सत्य हैं. इन्दिरा गांधी और अधिकारीयोंने एक दुसरेसे अलग अलग और कभी साथमें भी अपना उल्लु सीधा करने की कोशिस की थी, और उस हिसाबसे काम किया था.

अपना उल्लु सीधा करो

मुगल साम्राट का समय लोकशाहीका और संविधान वाला समय तो था नहीं. ज्यादातर अधिकारी अपना उल्लु सीधा करनेकी सोचते है. मुगलके समयमें समाचार प्रसारके माध्यम इतने त्वरित तो थे नहीं. अफवाहें और बढा चढा कर भी और दबाके भी फैलाई जा सकती है. सुबेदार अपना धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और अंगत स्वार्थ के लिये अपना उल्लु सिधा करते रहे होगे इस बातको नकारा नहीं जा सकता.

औरंगझेब एक नेक बादशाह था वह साम्राटकी संपत्तिको जनता की संपत्ति समजता था. और वह खुद टोपीयां और टोकरीयां बनाके बेचता था और उस पैसे से अपना गुजारा करता था. उसका पूर्वज शाहजहां एक उडाउ शासक था. औरंगझेबको अपने सुबेदारोंकी और अधिकारीयोंकी उडाऊगीरी पसंद न हो यह बात संभव है. सुबेदार और अधिकारी गण भी औरंगझेबसे खुश न हो यह भी संभव है. इस लिये औरंगझेबके नामसे घोषित अत्याचारमें औरंगझेब खुदका कितना हिस्सा था यह संशोधनका विषय है. मान लिजिये औरंगझेब धर्मान्ध था. लेकिन सभी मुघल या मुस्लिम राजा धर्मान्ध नहीं थे. शेरशाह, अकबर और दारा पूर्ण रुपसे सर्वधर्म समभाव रखते थे. अन्य एक बात भी है, कि धर्मभीरु राजा अकेला औरंगझेब ही था यह बात भी सही नहीं है. कई खलिफे हुए जो सादगीमें, सुजनतामें और मानवतामें मानते थे. कमसे कम औरंगझेबके नामके आधार पर हम आजकी तारिखमें इस्लामके विरुद्ध मानसिकता रक्खें वह योग्य नहीं है. शिवाजी के भाग जाने के बाद औरंगझेब धर्मान्ध हो गया. इ.स. १६६६ से १६९० तकके समयमें औरंगझेबने कई सारे प्रमुख मंदिर तोडे थे. खास करके काशी विश्वनाथका मंदिर, सोमनाथ मंदिर और केशव मंदिर उसने तुडवाया थे. दक्षिण भारतके मंदिर जो मजबुत पत्थरके थे और बंद थे वे औरंगझेबके सेनापति तोड नहीं पाये थे. उसके यह एक जघन्य अपराध था. ऐसा पाया गया है कि उसके एक सलाहकारने उसको ऐसी सलाह दी थी कि नास्तिकोंको मुसलमान करना ही चाहिये. दो रुपया प्रति माह से लेकर एक साथ १००० रुपया प्रलोभन इस्लाम कबुल करने पर दिया जाता था. लेकिन जो औरंगझेबके खिलाफ गये थे उनका कत्ल किया जाता था. इस वजहसे उसके साम्राज्यका पतन हुआ था. क्यों कि सेक्युलर मुस्लिम और हिन्दु उसके सामने पड गये थे. औरंगझेबने कुछ मंदिर बनवाये भी थे और हिन्दुओंके (परधर्मीयोंके) उपर हुए अन्यायोंवाली समस्याओंका समाधान न्याय पूर्वक किया था. कोई जगह नहीं भी किया होगा. लेकिन हिन्दुओंके प्रमुख मंदिरोंको तुडवानेके बाद उसके अच्छे काम भूलाये गये. मुस्लिम और हिन्दु दोनों राजाओंने मिलकर उसका साम्राज्यको तहस नहस कर दिया. सबसे ज्यादा महत्व पूर्ण यह बात है कि उस समयके सभी राजाएं मुगल साम्राज्यके प्रति आदर रखते थे. और ऐसा होने के कारण ही औरंगझेबके बाद मुगल साम्राटके सार्वभौमत्वको माननेके लिये तैयार हुए थे. हिन्दु और मुस्लिम दोनों हिन्दुस्तानी थे. अगर हम सेक्युलर है और संविधान भी धर्म और जातिके आधार पर भेद नहीं रखनेका आग्रह रखता है, तो क्यूं हम सब आजकी तारिखमें हिन्दुस्तानी नहीं बन सकते? यह प्रश्न हम सबको अपने आप से पूछना चाहिये.
चलो हम इसमें क्या समस्यायें है वह देखें.

प्रवर्तमान कोमवादी मानसिकता सबसे बडी समस्या है.

कोमवाद धर्मके कारण है ऐसा हम मानते है. अगर यह बात सही है तो हिन्दु, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, शिख, इसाई, यहुदियोंके बीचमें समान रुपसे टकराव होता. कमसे कम हिन्दु, मुस्लिम और इसाईयोंके बीच तो टकराव होता ही. किन्तु बीलकुल ऐसा नहीं है. पाकिस्तानमें शियां और सुन्नी के बिचमें टकराव है. शियां और सुन्नीमें टकराव कब होता है या तो कब हो सकता है? अगर शियां और सुन्नी भेदभाव की नीति अपनावे तो ऐसा हो सकता है.

कोई भेदभाव की नीति क्यों अपनायेगा?

अगर अवसर कम है और अवसरका लाभ उठाने वाले ज्यादा है तो मनुष्य खुदको जो व्यक्ति ज्यादा पसंद है उसको लाभ देनेका प्रायः सोचता है.

अवसर क्या होता है?

अवसर होता है उपयुक्त व्यक्तियोंके सामने सहाय, संवर्धन, व्यवसाय, संपत्ति, ज्ञान, सुविधा, धन, वेतन देना दिलानेका प्रमाण (जत्था) होता है. अगर अवसर ज्यादा है तो भेदभाव की समस्या उत्पन्न होती नहीं है. लेकिन अगर अवसर कम है, और उपयुक्त यक्ति ज्यादा है तो, देनेवाला या दिलानेवाला जो मनुष्य है, कोई न कोई आधार बनाकर भेदभाव के लिये प्रवृत्त होता है.
इस समस्याका समाधान है अवसर बढाना.

अवसर कैसे बढाये जा सकते है?

प्राकृतिक स्रोतोंका, ज्ञानके स्रोतोंका और उपभोग्य वस्तुओंका उत्पादन करने वाले स्रोतोंमें विकास करनेसे अवसर बढाये जा सकते है. अगर यह होता है तो भेदभावकी कम और नगण्य शक्यता रहती है.

अवसर रातोंरात पैदा नहीं किये जा सकते है यह एक सत्य है.

अवसर और व्यक्तिओंका असंतुलन दूर करनेके लिये अनियतकाल भी नहीं लगता, यह भी एक सत्य है.

जैसे हमारे देशमें एक ही वंशके शासकोंने ६० साल केन्द्रमें राज किया और नीति-नियम भी उन्होने ही बनाये थे, तो भी शासक की खुदकी तरफसे भेदभावकी नीति चालु रही. अगर नीति नियम सही है, उसका अमल सही है और मानवीय दृष्टि भी रक्खी गई है तो आरक्षण और विशेष अधिकार की १० सालसे ज्यादा समय के लिये आवश्यकता रहेती ही नहीं है.

जो देश गरीब है और जहां अवसर कम है, वहां हमेशा दो या ज्यादा युथों में टकराव रहेता है. युएस में और विकसित देशोंमें युथोंके बीच टकराव कम रहेता है. भारत, पाकिस्तान, बार्मा, श्री लंका, बांग्लादेश, तिबेट, चीन आदि देशोंमें युथोंके बीच टकराव ज्यादा रहेता है. सामाजिक सुरक्षाके प्रति शासकका रवैया भी इसमें काम करता है. यानी की, अगर एक युथ या व्यक्ति के उपर दुसरेकी अपेक्षा भेदभाव पूर्ण रवैया शासक ही बडी निष्ठुरतासे अपनाता है तो जो पीडित है उसको अपना मनोभाव प्रगट करनेका हक्क ही नहीं होता है तो कुछ कम ऐतिहासिक समयके अंतर्गत प्रत्यक्ष शांति दिखाई देती है लेकिन प्रच्छन्न अशांति है. कभी भी योग्य समय आने पर वहां विस्फोट होता है.

अगर शिक्षा-ज्ञान सही है, अवसरकी कमी नहीं तो युथोंकी भीन्नता वैविध्यपूर्ण सुंदरतामें बदल जाती है. और सब उसका आनंद लेते है.

भारतमें अवसर की कमी क्यों है?

भारतमें अवसर की कमीका कारण क्षतियुक्त शिक्षण और अ-शिक्षण के कारण उत्पन्न हुई मानसिकता है. और ईसने उत्पादन और वितरणके तरिके ऐसे लागु किया कि अवसर, व्यक्ति और संवाद असंतुलित हो जाय.

शिक्षणने क्या मानसिकता बनाई?

मेकोलेने एक ऐसी शिक्षण प्रणाली स्थापितकी जिसका सांस्कृतिक अभ्यासक्रम पूर्वनियोजित रुपसे भ्रष्ट था. मेक्स मुलरने अपने अंतिम समयमें स्विकार कर लिया था कि, भारतके लोगोंको कुछ भी शिखानेकी आवश्यक नहीं. उनकी ज्ञान प्रणाली श्रेष्ठ है और वह उनकी खुदकी है. उनकी संस्कृति हमसे कहीं ज्यादा विकसित है और वे कहीं बाहरके प्रदेशसे आये नहीं थे.

लेकिन मेकोलेको लगा कि अगर इन लोगों पर राज करना है तो इनकी मानसिकता भ्रष्ट करनी पडेगी. इस लिये ऐसे पूर्व सिद्धांत बनाओ कि इन लोगोंको लगे कि उनकी कक्षा हमसे निम्न कोटिकी है और हम उच्च कोटी के है. और ऐसा करनेमें ऐसे कुतर्क भी लगाओ की वे लोग खो जाय. उनको पहेले तो उनके खुदके सांस्कृतिक वैचारिक और तार्किक धरोहरसे अलग कर दो. फिर हमारी दी हुई शिक्षा वालोंको ज्यादा अवसर प्रदान करो और उनको सुविधाएं भी ज्यादा दो.

अंग्रेजोंने भारतको दो बातें सिखाई.

भारतमें कई जातियां है. आर्य, द्रविड, आदिवासी. आदिवासी यहां के मूल निवासी है. द्रविड कई हजारों साल पहेले आये. उन्होने देश पर कबजा कर लिया. और एक विकसित संस्कृति की स्थापना की. उसके बाद एक भ्रमण शील, आर्य नामकी जाति आयी. वह पूर्व युरोप या पश्चिम एशियासे निकली. एक शाखा ग्रीसमें गई. एक शाखा इरानमें गयी. उसमेंसे एक प्रशाखा इरानमें थोडा रुक कर भारत गई. उन्होने द्रविड संस्कृतिका ध्वंष किया. उनके नगरोंको तोड दिया. उनको दास बनाया. बादमें यह आर्य जाति भारतमें स्थिर हुई. और दोनों कुछ हद तक मिल गये. ग्रीक राजाएं भारत पर आक्रमण करते रहे. कुछ संस्कृतिका आदान प्रदान भी हुआ. बादमें शक हुण, गुज्जर, पहलव आये. वे मिलगये. अंतमें मुसलमान आये.

मुस्लिम जाति सबसे अलग थी

यह मुस्लिम जाति सबसे अलग थी. आचार विचार और रहन सहनमें भी भीन्न थी. यह भारतके लोगोंसे हर तरहसे भीन्न थी इसलिये वे अलग ही रही. ईन्होने कई अत्याचार किये.

फिर इन अंग्रेजोंने आदिवासीयोंको कहा कि अब हम आये हैं. आप इन लोगोंसे अलग है. आपका इस देश पर ज्यादा अधिकार है. हम भी आर्य है. लेकिन हम भारतीय आर्योंसे अलग है. हम सुसंस्कृत है. हम आपको गुलाम नहीं बनायेंगे. आप हमारा धर्म स्विकार करो. हम आपका उद्धार करेंगे.

दक्षिण भरतीयोंसे कहा. यह आर्य तो आपके परापूर्वके आदि दुश्मन है. उन्होने आपके धर्म को आपकी संस्कृतिको, आपकी कला को आपके नगरोंको ध्वस्त किया है. आप तो उच्चा संस्कृतिकी धरोहर वाले है. आपका सबकुछ अलग है. भाषा और लिपि भी अलग है. आप हमारी शिक्षा ग्रहण करो. और इन आर्योंकी हरबात न मानो. ये लोग तो धुमक्कड, असंस्कृत, तोडफोड करनेवाले और आतंकी थे.

मुसलमानोंसे यह कहा गया कि आप तो विश्व विजयी थे. आपने तो भारत पर १२०० साल शासन किया है. ये भारतके लोग तो गंवार थे. इनके पास तो कहेनेके लिये भी कुछ भी नहीं था. ये लोग तो अग्निसे डर कर अग्निकी पूजा करते है. सूर्य जो आगका गोला है उसकी पूजा करते है. हवा, पानी, नदी जैसे बेजान तत्वोकी पूजा करते है. शिश्न की और अ योनी की पूजा करते हैं. ये लोग पशुओंकी और गंदी चीजोंकी भी पूजा करते है. इनके भगवान भी देखो कितने विचीत्र है? वे अंदर अंदर लडते भी हैं और गंदी आदतों वाले भी है. उनके मंदिरोंके शिल्प देखो उसमें कितनी बिभत्सता है.

इनके पास क्या था? कुछ भी नहीं. आपने भारतमें, ताज महाल, लालकिल्ला, फत्तेहपुर सिक्री, कुतुबमिनार, मकबरा, और क्या क्या कुछ आपने नहीं बनाया!! भारतकी जो भी शोभा है वह आपकी बदैलत तो है. आपने ही तो व्यापारमें भारतका नाम रोशन किया है. लेकिन जब कालके प्रवाहमें आपका शासन चला गया तो इन लोगोंने अपने बहुमतके कारण आपका शोषण किया और आपको गरीब बना दिया. आपके हक्ककी और आपकी सुरक्षा करना हमारा धर्म है.

इस प्रकारका वैचारिक विसंवाद अंग्रेज शासकोंने १८५७के बाद घनिष्ठता पूर्वक चलाया. एक बौधिक रुपसे गुलामी वाला वर्ग उत्पन्न हुआ जो अपने पैर नीचेकी धरतीकी गरिमासे अनभिज्ञ था. और वह कुछ अलग सूननेके लिये तैयार नहीं था.

इस बौधिक वर्गके दो नेताओंके बीच सत्ताके लिये आरपार का युद्ध हुआ. एक था नहेरु और दुसरा था जिन्ना.

जब देशकी जनता गरीब होती है वह किसीभी बात पर झगडा करने के लिये तैयार हो जाती है. और जिनका उद्देश्य सिर्फ सत्ता और पैसा है वह हमेशा दुसरोंकी अज्ञानताका लाभ लेकर देशको और मानव जातको चाहे कितना ही नुकशान क्युं न होजाय, दुसरोंको गुमराह करके मत बटोरके अपना उल्लु सीधा करती है.

लेकिन वास्तवमें ये हिन्दु और मुस्लिम कौन है और कैसे है? और क्यों बेवकुफ बनते रहते है?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे (smdave1940@yahoo.com)
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