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“वीर सावरकर”का कोंगीने “सावरकर” कर दिया यह है उसका पागलपन.

“वीर सावरकर”का कोंगीने “सावरकर” कर दिया यह है उसका पागलपन.

Savarakar

जब हम “कोंगी” बोलते है तो जिनका अभी तक कोंगीके प्रति भ्रम निरसन नहीं हुआ है और अभी भी उसको स्वातंत्र्यके युद्धमें योगदान देनेवाली कोंग्रेस  ही समज़ते, उनके द्वारा प्रचलित “कोंग्रेस” समज़ना है. जो लोग सत्यकी अवहेलना नही कर सकते और लोकतंत्रकी आत्माके अनुसार शब्दकी परिभाषामे मानते है उनके लिये यह कोंग्रेस पक्ष,  “इन्दिरा नहेरु कोंग्रेस” [कोंग्रेस (आई) = कोंगी = (आई.एन.सी.)] पक्ष है.

कोंगीकी अंत्येष्ठी क्रिया सुनिश्चित है.

“पक्ष” हमेशा एक विचार होता है. पक्षके विचारके अनुरुप उसका व्यवहार होता है. यदि कोई पक्षके विचार और आचार में द्यावा-भूमिका  अंतर बन जाता है तब, मूल पक्षकी मृत्यु होती है. कोंग्रेसकी मृत्यु १९५०में हो गयी थी. इसकी चर्चा हमने की है इसलिये हम उसका पूनरावर्तन नहीं करेंगे.

पक्ष कैसा भी हो, जनतंत्रमें जय पराजय तो होती ही रहेती है. किन्तु यदि पक्षके उच्च नेतागण भी आत्ममंथन न करे, तो उसकी अंन्त्येष्ठी सुनिश्चित है.

परिवर्तनशीलता आवकार्य है.

परिवर्तनशीलता अनिवार्य है और आवकार्य भी है. किन्तु यह परिवर्तनशीलता सिद्धांतोमें नहीं, किन्तु आचारकी प्रणालीयोंमें यानी कि, जो ध्येय प्राप्त करना है वह शिघ्रातिशिघ्र कैसे प्राप्त किया जाय? उसके लिये जो उपकरण है उनको कैसे लागु किया जाय? इनकी दिशा, श्रेयके प्रति होनी चाहिये. परिवर्तनशीलता सिद्धांतोसे विरुद्धकी दिशामें नहीं होनी चाहिये.

कोंगीका नैतिक अधःपतनः

नहेरुकालः

नीतिमत्ता वैसे तो सापेक्ष होती है. नहेरुका नाम पक्षके प्रमुखके पद पर किसी भी  प्रांतीय समितिने प्रस्तूत नहीं किया था. किन्तु नहेरु यदि प्रमुखपद न मिले तो वे कोंग्रेसका विभाजन तक करनेके लिये तयार हो गये थे. ऐसा महात्मा गांधीका मानना था. इस कारणसे महात्मा गांधीने सरदार पटेलसे स्वतंत्रता मिलने तक,  कोंग्रेस तूटे नहीं इसका वचन ले लिया था क्योंकि पाकिस्तान बने तो बने किन्तु शेष भारत अखंड रहे वह अत्यंत आवश्यकता.

जनतंत्रमें जनसमूह द्वारा स्थापित पक्ष सर्वोपरि होता है क्यों कि वह एक विचारको प्रस्तूत करता है. जनतंत्रकी केन्द्रीय और विभागीय समितियाँ  पक्षके सदस्योंकी ईच्छाको प्रतिबिंबित करती है. जब नहेरुको ज्ञात हुआ कि किसीने उनके नामका प्रस्ताव नहीं रक्खा है तो उनका नैतिक धर्म था कि वे अपना नाम वापस करें. किन्तु नहेरुने ऐसा नहीं किया. वे अन्यमनस्क चहेरा बनाके गांधीजीके कमरेसे निकल गये.

यह नहेरुका नैतिकताका प्रथम स्खलन या जनतंत्रके मूल्य पर प्रहार  था. तत्‌ पश्चात तो हमे अनेक उदाहरण देखने को मिले. जो नहेरु हमेशा जनतंत्रकी दुहाई दिया करते थे उन्होंने अपने मित्र शेख अब्दुल्लाको खुश रखने के लिये अलोकतांत्रिक प्रणालीसे अनुच्छेद ३७० और ३५ए को संविधानमें सामेल किया था और इससे जो जम्मु-कश्मिर, वैसे तो भारत जैसे जनतांत्रिक राष्ट्रका हिस्सा था, किन्तु वह स्वयं  अजनतांत्रिक बन गया.

आगे देखो. १९५४में जब पाकिस्तानके राष्ट्रपति  इस्कंदर मिर्ज़ाने, भारत और पाकिस्तानका फेडरल युनीयन बनानेका प्रस्ताव रक्खा तो नहेरुने उस प्रस्तावको बिना चर्चा किये, तूच्छता पूर्वक नकार दिया. उन्होंने कहा कि, भारत तो एक जनतांत्रिक देश है. एक जनतांत्रिक देशका, एक सरमुखत्यारीवाले देशके साथ युनीयन नहीं बन सकता. और उसी नहेरुने अनुच्छेद ३७० और अनुच्छेद ३५ए जैसा प्रावधान संविधानमें असंविधानिक तरिकेसे घुसाए दिये थे.

जन तंत्र चलानेमें क्षति होना संभव है. लेकिन यदि कोई आपको सचेत करे और फिर भी उसको आप न माने तो उस क्षतिको क्षति नहीं माना जाता, किन्तु उसको अपराध माना जाता है.

नहेरुने तीबट पर चीनका प्रभूत्त्व माना वह एक अपराध था. वैसे तो नहेरुका यह आचार और अपराध विवादास्पद नहीं है क्योंकि उसके लिखित प्रमाण है.

चीनकी सेना भारतीय सीमामें अतिक्रमण किया करें और संसदमें नहेरु उसको नकारते रहे यह भी एक अपराध था. इतना ही नहीं सीमाकी सुरक्षाको सातत्यतासे अवहेलना करे, वह भी एक अपराध है. नहेरुके ऐसे तो कई अपराध है.

इन्दिरा कालः

इन्दिरा गांधीने तो प्रत्येक क्षेत्रमें अपराध ही अपराध किये है. इन अपराधों पर तो महाभारतसे भी बडी पुस्तकें लिखी जा सकती है. १९७१में भारतीयसेनाने जो अभूतपूर्व  विजय पायी थी उसको इन्दिराने सिमला करार के अंतर्गत घोर पराजयमें परिवर्तित कर दिया था. वह एक घोर अपराध था. इतना ही नहीं लेकिन जो पी.ओ.के. की भूमि, सेनाने  प्राप्त की थी उसको भी   पाकिस्तानको वापस कर दी थी, यह भारतीय संविधानके विरुद्ध था. इन्दिरा गांधीने १९७१में जब तक पाकिस्तानने भारतकी हवाई-पट्टीयों पर आक्रमण नहीं किया तब तक आक्रमणका कोई आदेश नहीं दिया था. भारतीय सेनाके पास, पाकिस्तानके उपर प्रत्याघाती आक्रमण करनेके अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं था. यह बात कई स्वयंप्रमाणित विद्वान लोग समज़ नहीं पाते है.

राजिव युगः

राजिव गांधीका पीएम-पदको स्विकारना ही उसका नैतिक अधःपतन था. उसकी अनैतिकताका एक और प्रमाण उसके शासनकालमें सिद्ध हो गया. बोफोर्स घोटालेमें स्वीस-शासन शिघ्रकार्यवाही न करें ऐसी चीठ्ठी लेके सुरक्षा मंत्रीको स्वीट्झर्लेन्ड भेजा था. यही उसकी अनीतिमत्ताको सिद्ध करती है.

सोनिया-राहुल युगः

इसके उपर चर्चाकी कोई आवश्यकता ही नहीं है. ये लोग अपने साथीयोंके साथ जमानत पर है. जिस पक्षके शिर्ष नेतागण ही जमानत पर हो उसका क्या कहेना?

कोंगीका पागलपनः

पागलपन के लक्षण क्या है?

प्रथम हमे समज़ना आवश्यक है कि पागलपन क्या है.

पागलपन को संस्कृतमें उन्माद कहेते है. उन्मादका अर्थ है अप्राकृतिक आचरण.

अप्राकृतिक आचारण. यानी कि छोटी बातको बडी समज़ना और गुस्सा करना, असंदर्भतासे ही शोर मचाना, कपडोंका खयाल न करना, अपनेको ही हानि करना, गुस्सेमें ही रहेना, हर बात पे गुस्सा करना …. ये सब उन्मादके लक्षण है.

कोंगी भी ऐसे ही उम्नादमें मस्त है.

अनुच्छेद ३७० और ३५ए को रद करने की मोदी सरकारकी क्रिया पर भी कोंगीयोंका प्रतिभाव कुछ पागल जैसा ही रहा है.    

यदि कश्मिरमें अशांति हो जाती तो भी कोंगीनेतागण अपना उन्माद दिखाते. कश्मिरमें अशांति नहीं है तो भी वे कश्मिरीयत और जनतंत्र पर कुठराघात है ऐसा बोलते रहेते है. अरे भाई १९४४से कश्मिरमें आये हिन्दुओंको मताधिकार न देना, उनको उनकी जातिके आधार पर पहेचानना और उसीके आधार पर उनकी योग्यताको नकारके उनसे व्यवसायसे वंचित रखना और वह भी तीन तीन पीढी तक ऐसा करना यह कौनसी मानवता है? कोंगी और उसके सहयोगी दल इस बिन्दुपर चूप ही रहेते है.

खूनकी नदियाँ बहेगी

जो नेता लोग कश्मिरमें अनुच्छेद ३७० और ३५ए को हटाने पर खूनकी नदियाँ बहानेकी बातें करते थे और पाकिस्तानसे मिलजानेकी धमकी देते थे, उनको तो सरकार हाउस एरेस्ट करेगी ही. ये कोंगी और उसके सांस्कृतिक सहयोगी लोग जनतंत्रकी बात करने के काबिल ही नहीं है. यही लोग थे जो कश्मिरके हिन्दुओंकी कत्लेआममें परोक्ष और प्रत्यक्ष रुपसे शरिक थे. उनको तो मोदीने कारावास नहीं भेजा, इस बात पर कोंगीयोंको और उनके सहयोगीयोंको मोदीका  शुक्रिया अदा करना चाहिये.

सरदार पटेल वैसे तो नहेरुसे अधिक कदावर नेता थे. उनका स्वातंत्र्यकी लडाईमें और देशको अखंडित बनानेमें अधिक योगदान था. नहेरुने सरदार पटेलके योगदानको महत्त्व दिया नहीं. नहेरुवंशके शासनकालमें नहेरुवीयन फरजंदोंके नाम पर हजारों भूमि-चिन्ह (लेन्डमार्क), योजनाएं, पुरस्कार, संरचनाएं बनाए गयें. लेकिन सरदार पटेल के नाम पर क्या है वह ढूंढने पर भी मिलता नहीं है.

अब मोदी सराकार सरदार पटेलको उनके योगदानका अधिमूल्यन कर रही है तो कोंगी लोग मोदीकी कटू आलोचना कर रहे है. कोंगीयोंको शर्मसे डूब मरना चाहिये.

महात्मा गांधी तो नहेरुके लिये एक मत बटोरनेका उपकरण था. कोंगीयोंके लिये जब मत बटोरनेका परिबल और गांधीवादका परिबल आमने सामने सामने आये तब उन्होंने मत बटोरनेवाले परिबलको ही आलिंगन दिया है. शराब बंदी, जनतंत्रकी सुरक्षा, नीतिमत्ता, राष्ट्रीय अस्मिताकी सुरक्षा, गौवधबंदी … आदिको नकारने वाली या उनको अप्रभावी करनेवाली कोंगी ही रही है.

कोंगी की अपेक्षा नरेन्द्र मोदी की सरकार, गांधी विचार को अमली बनानेमें अधिक कष्ट कर रही है. कोंगीको यह पसंद नहीं.

कोंगी कहेता है

गरीबोंके बेंक खाते खोलनेसे गरीबी नष्ट नहीं होनेवाली है,

संडास बनानेसे लोगोंके पेट नहीं भरता,

स्वच्छता लाने से मूल्यवृद्धि का दर कम नहीं होता,

हेलमेट पहननेसे भी अकस्मात तो होते ही है,

कोंगी सरकारके लिये तो खूलेमें संडास जाना समस्या ही नहीं थी,

कोंगी सरकारके लिये तो एक के बदले दूसरेके हाथमें सरकारी मदद पहूंच जाय वह समस्या ही नहीं थी,

कोंगी सरकारके लिये तो अस्वच्छता समस्या ही नहीं थी,

कोंगीके सरकारके लिये तो कश्मिरी हिन्दुओंका कत्लेआम, हिन्दु औरतों पर अत्याचार, हिन्दुओंका लाखोंकी संख्यामें बेघर होना, कश्मिरी हिन्दुओंको मताधिकार एवं मानव अधिकारसे से वंचित होना समस्या ही नहीं थी, दशकों से भी अधिक कश्मिरी हिन्दु निराश्रित रहे, ये कोंगी और उनके सहयोगी सरकारोंके लिये समस्या ही नहीं थी, अमरनाथ यात्रीयोंपर आतंकी हमला हो जाय यह कोंगी और उसकी सहयोगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी, उनके हिसाबसे उनके शासनकालमें  तो कश्मिरमें शांति और खुशहाली थी,

आतंक वादमें हजारो लोग मरे, वह कोंगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी,

करोडों बंग्लादेशी और पाकिस्तानी आतंकवादीयोंकी घुसपैठ, कोंगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी,

कोंगी और उनके सहयोगीयोंके लिये भारतमें विभाजनवादी शक्तियां बलवत्तर बनें यही एजन्डा है. बीजेपीको कोमवादी कैसे घोषित करें, इस पर कोंगी अपना सर फोड रही है?

मध्य प्रदेशकी कोंगी सरकारने वीर सावरकरके नाममेंसे वीर हटा दिया.

वीर सावरकर आर एस एस वादी था. इस लिये वह गांधीजीकी हत्याके लिये जीम्मेवार था. वैसे तो वीर सावरकर उस आरोपसे बरी हो गये थे. और गोडसे तो आरएसएसका सदस्य भी नहीं था. न तो आर.एस.एस. का गांधीजीको मारनेका कोई एजन्डा था, न तो हिन्दुमहासभाका ऐसा कोई एजन्डा था. अंग्रेज सरकारने उसको कालापानीकी सज़ा दी थी. वीर सावरकरने कभी माफी नहीं मांगी. सावरकरने तो एक आवेदन पत्र दिया था कि वह माफी मांग सकता है यदि अंग्रेज सरकार अन्य स्वातंत्र्य सैनानीयोंको छोड दें और केवल अपने को ही कैदमें रक्खे. कालापानीकी सजा एक बेसुमार पीडादायक मौतके समान थी. कोंगीयोंको ऐसी मौत मिलना आवश्यक है.

वीर सावरकर महात्मा गांधीका हत्यारा है क्यों कि उसका आर.एस.एस.से संबंध था. या तो हिन्दुमहासभासे संबंध था. यदि यही कारण है तो कोंगी आतंकवादी है, क्यों कि गुजरातके दंगोंका मास्टर माईन्ड कोंग्रेससे संलग्न था. कोंगी नीतिमताहीन है क्यों कि उसके कई नेता जमानत पर है, कोगीके तो प्रत्येक नेता कहीं न कहीं दुराचारमे लिप्त है. क्या कोंगीको कालापानीकी सज़ा नहीं देना चाहिये. चाहे केस कभी भी चला लो.

आज अंग्रेजोंका न्यायालय भारत सरकारसे पूछता है कि यदि युके, ९००० करोड रुपयेका गफला करनेवाला माल्याका प्रत्यार्पण करें तो उसको कारावासमें कैसी सुविधाएं होगी? कोंगीयोंने दंभ की शिक्षा अंग्रेजोंसे ली है.

दो कौडीके राजिव गांधी और तीन कौडीकी इन्दिरा नहेरु-गांधीको, बे-जिज़क भारत रत्न देनेवाली कोंगीको वीर सावरकरको भारत रत्नका पुरष्कार मिले उसका विरोध है. यह भी एक विधिकी वक्रता है कि हमारे एक वार्धक्यसे पीडित मूर्धन्य का कोंगीको अनुमोदन है. यह एक दुर्भाग्य है.

वीर सावरकर एक श्रेष्ठ स्वातंत्र्य सेनानी थे. उनका त्याग और उनकी पीडा अकल्पनीय है. सावरकरकी महानताकी उपेक्षा सीयासती कारणोंके फर्जी आधार पर नहीं की जा सकती.

कोंगीके कई नेतागण पर न्यायालयमें मामला दर्ज है. उनको कठोरसे कठोर यानी कि, कालापानीकी १५ सालकी सज़ा करो फिर उनको पता चलेगा कि वे स्वयं कितने डरपोक है.

कोंगी लोग कितने निम्न कोटीके है कि वे सावरकरका त्याग और पीडा समज़ना ही नहीं चाहते. ऐसी उनकी मानसिकता दंडनीय बननी चाहिये है.  

हमारे उक्त मूर्धन्यने उसमें जातिवादी (वर्णवादी तथा कथित समीकरणोंका सियासती आधार लिया है)

“महाराष्ट्रमें सभी ब्राह्मण गांधीजी विरोधी थे और सभी मराठा (क्षत्रीय) कोंग्रेसी थे. पेश्वा ब्राह्मण थे और पेश्वाओंने मराठाओंसे शासन ले लिया था इसलिये मराठा, ब्राह्मणोंके विरोधी थे. अतः मराठी ब्राह्मण गांधीके भी विरोधी थे. विनोबा भावे और गोखले अपवाद थे. १९६०के बाद कोई भी ब्राह्मण महाराष्ट्रमें मुख्य मंत्री नहीं बन सका. साध्यम्‌ ईति सिद्धम्‌” मूर्धन्य उवाच

यदि यह सत्य है तो १९४७-१९६०के दशकमें ब्राह्मण मुख्य मंत्री कैसे बन पाये. वास्तवमें घाव तो उस समय ताज़ा था?

१८५७के संग्राममें हिन्दु और मुस्लिम दोनों सहयोग सहकारसे संमिलित हो कर बिना कटूता रखके अंग्रेजोंके सामने लड सकते थे. उसी प्रकार ब्राह्मण क्षत्रीयोंके बीच भी कडवाहट तो रह नहीं सकती. औरंगझेब के अनेक अत्याचार होते हुए भी शिवाजीकी सेनामें मुस्लिम सेनानी हो सकते थे तो मराठा और ब्राह्मणमें संघर्ष इतना जलद तो हो नहीं सकता.

“लेकिन हम वीर सावरकरको नीचा दिखाना चाह्ते है इसलिये हम इस ब्राह्मण क्षत्रीयके भेदको उजागर करना चाहते है”

स्वातंत्र्य सेनानीयोंके रास्ते भीन्न हो सकते थे. लेकिन कोंग्रेस और हिंसावादी सेनानीयोंमें एक अलिखित सहमति थी कि एक दुसरेके मार्गमें अवरोध उत्पन्न नहीं करना और कटूता नहीं रखना. यह बात उस समयके नेताओंको सुविदित थी. गांधीजी, भगतसिंघ, सावरकर, सुभाष, हेगडेवार, स्यामाप्रसाद मुखर्जी … आदि सबको अन्योन्य अत्यंत आदर था. अरे भाई हमारे अहमदाबादके महान गांधीवादी कृष्णवदन जोषी स्वयं भूगर्भवादी थे. हिंसा-अहिंसाके बीचमें कोई सुक्ष्म विभाजन रेखा नहीं थी. सारी जनता अपना योगदान देनेको उत्सुक थी.

हाँ जी, साम्यवादीयोंका कोई ठीकाना नहीं था. ये साम्यवादी लोग रुसके समर्थक रहे और अंग्रेजके विरोधी रहे. जैसे ही हीटलरने रुस पर हमला किया तो वे अंग्रेज  सरकारके समर्थक बन गये. यही तो साम्यवादीयोंकी पहेचान है. और यही पहेचान कोंगीयोंकी भी है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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पाकिस्तानके बुद्धिजीवीयोंको चाहिये एक नरेन्द्र मोदी … और …. – २

पाकिस्तानके बुद्धिजीवीयोंको चाहिये एक नरेन्द्र मोदी … और …. – २

दो चूहे मारके बील्ली शेरसे लडने चली

हमारे बुद्धिजीवी नरेन्द्र मोदीको हटाना चाहते है. कैसी है विधिकी वक्रता?

हमारे पूराने कोलमीस्ट जो मोदी फोबीया और बीजेपी फोबीयासे पीडित थे उनका मोदी विरुद्ध लिखना जारी है. लेकिन जैसे हमने पूर्व प्रकरणमें देखाकी  हमारे मीडीया मालिकोंको उनकी संख्या कम पडती है. और आपको तो मालुम ही है कि ये नेतागण जिनमेंसे कई स्वयंको मूर्धन्य मानते है उनमेंसे कई अपनी विद्वत्ता दिखानेको उत्सुक है और कोंगी तो इसमें विशेषज्ञ है कि मीडीयामें कैसे पैसे वितरित किया जाय? आखिर हमने पैसे ईकठ्ठे किये है किसलिये?

हमने यह भी देखा कि यदि वर्नाक्युलर भाषाके (स्थानिक भाषाके) विद्वानोंके लेख कम पडे तो एक भाषाके लेख दुसरी भाषामें भाषांतरित करके भी प्रकाशित किया जा सकता है.

तो ऐसे विद्वान कौन है?

शेखर गुप्ताजी तो है ही. दिलिप सरदेसाई है, चेतान भगत है जो लोग कोंगी भक्तोंकी श्रेणीमें आते हैं. इन्होंने नरेन्द्र मोदीको बदनाम करने की भरपुर कोशिस की थी. जैसे कि सरदेसाईजीने २००२में गुजरात के दंगेके बारेमें कहा था कि “ … पूरा गुजरात दंगोंमें जल रहा है …”.

फिर क्या हुआ? जब नतीजे आये तो पता चला कि कुछ विस्तारमें बीजेपीको अच्छा फायदा हुआ, तो सरदेसाईने कहा कि दंगावाले विस्तारोंमें  मोदीको  फायदा हुआ है. नरेन्द्र मोदीने एक साक्षात्कारमें कहा कि पहेले ये लोग कह रहे थे कि “पूरा गुजरात दंगोसे जल रहा था” तो अब क्यों कह रहे है कि “दंगे वाले हिस्सोंमें ही हमे अधिक बैठके मिलीं?” मतलब कि “मोदी-फोबिया-पीडित” बुद्धिजीवी महानुभाव लोगोंको यह याद नहीं रहेता कि उन्होंने पहेले कौनसा जूठ बोला था. ऐसा एक स्वयं प्रमाणित बुद्धिजीवी और कोंगी हाईकमान्ड द्वारा प्रताडना रुप अपना मंत्री पद खोने वाला है शशि थरुर.

शशि थरुरः

हाँ जी, इस शशि थरुरने कोंगीके महामहिम, अविद्यमान नहेरुकी अर्थ नीति के विरुद्ध, बोला था. शशि थरुरको मंत्री पदसे च्यूत होना पडा था. लेकिन कोंगीयोंमे तो प्रताडनका असर कम समयके लिये रहेता है या रहेता ही नहीं है. क्यों कि;

संस्कृतमें एक श्लोक है;

सारमेयस्य च अश्वस्य, रासभस्य विशेषतः।

मुहूर्तात्‌ परतो नास्ति, प्रहार जनिता व्यथा ॥

(कुत्तेमें और घोडेमें, और खास कर के गधेमें, मार खानेसे हुई पीडा, एक मुहूर्तसे ज्यादा समय नहीं रहेती) कोंगीमें तो ऐसी घटनाके बेसुमार उदाहरण मिलते है. भारतके यह शशि थरुर भी नहेरुवंशकी सेवामें अटल रहे हैं. वैसे तो कई लोग जिनमे स्वयंको महात्मा गांधी वादी प्रमाणित करने वाले भी है. ये लोग भी इन्दिरा गांधी द्वारा प्रताडित है, ये लोग भी प्रताडनाकी व्यथा कभीकी ही भूल गये है और वे मोदी-फोबियासे पीडित है.

ये लोग समज़ते है कि;

“अब तो हमारे मूर्धन्यत्वके अस्तित्व का प्रश्न है. और हमने जो बाल्यकालमें संघको अछूत बनाया था (लेकिन जयप्रकाश नारायणको साथ देनेके लिये हम उनके गले मिले थे वह बात अलग है). जब जयप्रकाश नारायण नहीं रहे तो, और जब ढेबरभाई, कृष्णवदन जोषी जैसे नेतागण १९८०/१९८४में कोंगीमें मिल जाते है तो हम कमसे कम कोंगीके सहायक तो रह ही सकते है न? नवनिर्माण आंदोलन द्वारा विख्यात नेतागण स्वयं, कोंगीको शोभायमान कर रहे है तो हमें कमसे कम कोंगीकी सहायता तो करना ही चाहिये न?

“कोंगीयोंने यदि “घर घर अफज़ल” पैदा करने का और भारतके टूकडे टूकडे करनेका, भारतका सर्वनाश, आदि करनेका स्वप्न दिखाने वालोंका समर्थन किया है तो इससे क्या कोंगी अस्पृष्य बन जायेगी?

“महात्मा गांधीने क्या कहा था? महात्मा गांधीने तो कहा था तूम दुश्मनसे भी प्यार करो (लव धाय एनीमी). महात्मा गांधी तो अस्पृष्यताके विरुद्ध थे. तो हमे अफज़ल प्रेमी गेंग, भारतके टूकडे टूकडे करनेवाली गेंगोंको, जातिवादके आधार पर और धर्म के आधार पर जनताको विभाजित करनेवाली गेंगोंको अस्पृष्य क्यूँ समज़ना? हम असहिष्णु थोडे है? हमें जो कोंगीसे धनलाभ होता है वह क्या कम है? हमें ये सब भूल जाके क्या कृतघ्न बनना है?

सर्वोच्च न्यायालयका आदेशः

सीबीआई, राजिवकुमार (कलकत्ताके पूलिस आयुक्त जो गुमशुदा घोषित हुए थे) के घर गई. फिर शिघ्र ही ममता राजिवकुमारके घर पहूँची साथमे पूलिसकी एक गेंग भी पहूँची. मानो कि (आतंकवादी स्वरुप) सी.बी.आई. राजिवकुमारका एन्काउन्टर करने वाली है.

बादमे  ममताने जो धरना वाली नौटंकी किया, तो सीबीआईको सर्वोच्च न्यायालयमें जाना पडा. क्यूँ कि सीबीआई तो, सर्वोच्च न्यायालयके आदेश के अनुसार, राजिव कुमारसे पूछताछ करने गयी थी.

हमने प्रकरण–१ में, एक सोच और प्रश्न रक्खा था कि क्या सर्वोच्च न्यायालय अनिर्वचनीय है?

“अनिर्वचनीय मणझे काय?”

“अनिर्वचनीय” का अर्थ क्या होता है?

शंकराचार्यने ब्रह्माण्डको अनिर्वचनीय कहा है. इसका तात्पर्य यह है कि आप कितनी ही खोज करो, लेकिन वास्तवमें विश्व कैसा है उसका संपूर्ण ज्ञान आपको नहीं हो सकता.

मराठी लोग, गुजरातीके बारेमें यह सोचते है कि कोई घटना घटनेके पश्चात्‌ “गुजराती” क्या करेगा उसका पूर्वानुमान लगाया नहीं जा सकता. गुजराती अनिर्वचनीय है.

उसी प्रकार जैसे कि कोई “पागल”के कभी क्या कर बैठेगा, यानी की पागलके प्रतिभावका अनुमान नहीं लगाया जा सकता, (अनिवार्य रुपसे तो नहीं किन्तु) उसी प्रकार सर्वोच्च अदालत क्या करेगी उसके बारेमें भी पूर्वानुमान लगाया नहीं जा सकता.

जिसका पूर्वानुमान न लगाया जा सकता हो, उसको अनिर्वचनीय माना जाता है.   

सर्वोच्च न्यायालयने कहाः

(१) पूलिस आयुक्तको, सीबीआईके समक्ष, उसकी पूछताछमें संपूर्ण सहयोग देना पडेगा,

(२) यदि आयुक्तने दस्तावेजी साक्ष्य (डॉक्युमेन्टरी एवीडन्स) से छेडखानी की होगी या /और उनको नष्ट किया होगा तो हम उसको गंभीरतासे लेंगे. और ऐसे करनेवालोंको उनकी नानी याद करवायेंगे.

(३) (यदि आयुक्तको सीबीआईसे डर लगता है तो और यदि सीबीआई को ममतासे डर लगता है तो)आयुक्तकी पूछताछ शिलोंगमें हो.

ममता तो धरना पर बैठी थी. उसने इस आदेशको सून कर धरना समाप्त कर दिया.

ममताने तो अपने पूर्वालेखके (स्क्रीप्टके) अनुसार, इस आदेशकी घटनाको अनुष्ठानके साथ अपनी विजय के स्वरुपमें घोषित किया. जुलुस निकाला … पुष्प वर्षा करवायी … फुलहार पहेनवाये … पटाखे फोडे … नृत्य करवाये … मानो कि अश्वमेघके अपराजित अश्वका पुनरागमन हुआ.

ये सब कोंगीयोंका संस्कार है. और कोंगीयोंके सहवाससे उनके सांस्कृतिक सहयोगी भी उनके संस्कार आत्मसात्‌ करने लगे हैं. ये ममता और ममताके लोग भी गधोंके साथ रहेनेसे वे लात मारना ही नहीं भोंकना भी सीख गये है.

लालु यादवको जब कारावासकी सज़ा हुई तो उन्होंने भी एक जुलुस निकाला था जैसे कि वे युद्ध भूमिमें जा रहे है. यहाँ पर भी ममताने वैसा ही किया मानो वह केस जित गयी हो और सामनेवाले अपराधी घोषित कर दिया और उसको सज़ा भी मिल गयी हो.

इसके पीछे कौनसी मानसिकता होती है?

यह एक सियासती क्रिडा और चाल है कि अपराधी अपने प्रदर्शन की प्रसिद्धिसे, वास्तविक सत्यको ढक देनेकी कोशिस करता है.

इसका प्रयोजन आमजनता और अबूध जनतामें भ्रम (कन्फ्युज़न) पैदा करना है, ताकि जो अपराधी है उसके अपराधसे जनताका ध्यान हट जाय. वे दिखाना चाहते है कि, अपराधी अब भी लोकप्रिय है और उसके विरुद्ध जो कुछ भी है वे सब जूठ है. यानी कि, शारदा चीट-फंडकी जांचमें, जो महानिदेशक, पूलिस आयुक्त, संसदस्य, विधानसभा सदस्य, मंत्रीयोंकी मिलीभगत का खुलासा हुआ है वह सब जूठ है… सीबीआई संविधानके विरुद्ध कार्यवाही कर रही है. सत्रह लाख लोगोंके, ३५०० करोड रुपये ये लोग जो खा गये है वह सब गलत है.

वैसे तो ये सत्रह लाख लोगोंकी सत्रह लाख कहानीयां होगी.

यदि मीडीया, मानवता लक्षी होता, तो सत्रह लाख लोंगोंमें से कमसे कम सत्रह करुण कहानीयां उपलब्ध करवा सकता था. किन्तु जो मीडीया, कश्मिरके पांच लाख लोगोंकी पांच लाख शारीरिक और जैविक करुणांतिकाओंके प्रति असंवेदनशील बन सकता है, उतना ही नहीं, कश्मिरी हिन्दुओंके नरसंहारके विषयमें उनके (मीडीयाके) कानोंमें जू तक नहीं रेंगती, वह भला इन  बातोंमें क्या अन्वेषण करें? इन बातोंका अवमूल्यांकन तो सामान्यीकरण करके ही होना चाहिये. जैसे कि, “दुनियामें कौन व्यक्ति है जो कभी ठगविद्यासे ठगाया नहीं गया?”

मीडीयामें आप उपरोक्त ठगाईसे पीडितोंकी एक भी बात नहीं देख पाओगे. क्यों कि मीडीयाके लिये तो ममता, केन्द्र सरकार और सी.बी.आई. ही गर्म गर्म मुद्दा है. और इसमें अब चूनावी आयामोंका प्रक्षेपण और उनका बुरा प्रभाव बीजेपी पर कैसे पड सकता है वही उनको दिखाना है. मीडीया कहेता है हमें बस वही दिखाना है जो कोंगी चाहती है. यही हमारा एजन्डा है. ऐसे एजन्डेके कारण हम एक ऋणात्मक वातावरण (माहोल) बनानेकी अधिकतम प्रयत्न करेंगे. फिर माहोल के कारण गत चूनावमें क्या असर पडा था उसका फरेबी विवरण करके मोदीके विरुद्ध माहोल बनायेंगे. हम कृतघ्न और बेईमान थोडे हैं?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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