Posted in Social Issues, tagged अनियतकालका आपत्काल, अहिंसासे कोषो दूर, आंबेडकर सियासती नहीं, इन्दिरा अपने पिताके पास ही, इन्दिरा नमक हराम, इन्दिराके वर्तनका अवलोकन, कोंगीयोंके सर्वोच्च नेताओंकी मानसिकता, कोंग्रेसका विभाजन, गांधीका आदेश सत्तासे विमुख होना, जनतंत्र पर आघात, जय प्रकाश नारायण की मृत्यु सुनिश्चित, जयप्रकाश नारायण बिमार थे, जवाहर मेरा उत्तरदायित्त्व, जवाहर मेरी भाषा बोलेगा, जवाहरकी मूर्गीयां, तारकुन्डे और जेपी गोयल, दोनों फेल, नहेरु दंभी होनेके साथ साथ एकाधिकारवादी, नहेरुके भक्तो द्वारा सरदार पटेलकी भर्त्सना, नहेरुके मनको समज़ना, नहेरुके समाजवादको नहीं समज़ना, नीतिमत्ताकी ऐसी तैसी, प्रथम सत्याग्रही विनोबा भावे, बादामके अतिरिक्त, ब्रान्डीके अतिरिक्त, महात्मा गांधी की भाषा, महात्मा गांधी कोंगी शास्नमें होती, मोतिलालकी ईच्छा, मोरारजी देसाई प्रतिद्वंदी, यह सियासत है, विनोबा भावे पट्टशिष्य, विनोबा भावेको महात्मा गांधीने नहीं कहा, विरोधीयोंको कारावास, सत्ताका त्याग, सीन्डीकेतके सदस्य, २५ जुन १९७५ से पहेले इन्दिरा सरकारके विरुद्ध बोला तो कारावास on June 25, 2020|
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कोंगीके सर्वोच्च नेताओंकी एकाधिपत्यवाली मानसिकता
२५ जुन १९७५ दिवस भारतके जनतंत्रका एक आघात
नहेरुकी पुत्री इन्दिराने भारत पर आपत्काल लगाया और ६६००० लोगोंको बिना उनका अपराध, उनको कारावास अनियतकालके लिये रख दिया. इसके अतिरिक्त २००००० गिरफ्तार किये गये थे “मिसा”के अंतर्गत. इनमें इन्दिराके कुकर्मोंका विरोध करने वाले सभी लोग थे चाहे वे समाजवादी हो, महात्मा गांधीवादी हो, निडर वर्तमानपत्र के संचालक हो … कोई भी हो, यदि २५ जुन १९७५से पहेले किसीने भी इन्दिरा सरकारके विरुद्ध बोला हो तो उसको कारावासमें जाना ही था. ये थी इन्दिराकी नीति. भारतीय संविधानकी प्रत्यक्ष हत्या थी.

कार्टूनीष्टका सुक्रिया
महात्मा गांधीकी मौत नहेरु या इन्दिरा के शासन में हो सकती थी?
महात्मा गांधीकी ईच्छा तो १२५ वर्ष जीनेकी थी. यदि महात्मा गांधीकी हत्या नहीं हुई होती तो वे भी २५ जुन १९७५के दिनसे कारावासमें होते. उतना ही नहीं, उनकी मौत भी कारावासमें होना सुनिश्चित था. जैसे श्यामाप्रसाद मुखर्जीकी मौत हुई थी वैसी ही मौत, महात्मा गांधीकी होती, यदि नहेरु उनकी मौत न करते तो.
आप कहोगे ऐसा कैसे हो सकता है?
आप ऐसा भी कहोगे कि यह तो असंभव था. क्यों कि इन्दिराके पिता जवाहरलाल नहेरुको प्रधान मंत्री तो गांधीजीने ही तो बनाया था. नहेरुका नाम तो किसी भी प्रांतीय कोंग्रेस समितिने सूचित नहीं किया था. फिर भी १९४६में महात्मा गांधीने नहेरुको कोंग्रेसका प्रमुख पद दे दिया था. और इस कारणसे ही उनका प्रधान मंत्री बनना सुनिश्चित कर दिया था.
क्या इन्दिरा गांधी नमकहराम थीं?
अरे भैया, यह तो सियासत है. क्या नहेरुसे (इन्दिरासे अतिरिक्त) नीतिमत्ताकी ऐसी तैसी करके अधिक सियासत करने वाले ने जन्म लिया है भारतमें?
हम केवल जो लोग अपनेको जनतंत्रवादी कहेते है उनकी ही बात करते हैं. १९४६में सरदार पटेलको छोडके यदि प्रधान मंत्री पदके लिये योग्य व्यक्ति था तो वे आंबेडकर थे. आंबेडकर सियासती नहीं थे. नहेरु सियासतमें प्रविण थे. नहेरुने आंबेडकरको पराजित कर दिया. यदि महात्मा गांधी विद्यमान होते तो नहेरु ऐसा नहीं कर सकते क्यों कि महात्मा गांधी नहेरुसे कहीं अधिक चालाक थे.
नहेरु, महात्मा गांधीकी भाषा समज़ना नहीं चाहते थे
हरेक व्यक्तिकी अपनी स्टाईल होती है. महात्मा गांधीको ज्ञात था कि नहेरु दंभी होने के साथ साथ एकाधिकारवादी है. नहेरुने अपना समाजवादी युथ, पक्षके अंदर ही बना दिया था, ता कि यदि कोंग्रेसका विभाजन हो जाय तो नहेरु अपने समाजवादी जुथ (पक्ष)के नेता होने के कारण, आम चूनावमें अपनी शक्ति दिखा सकें. १९२९मे मोतिलालकी ईच्छासे जवाहरलाल नहेरु, कोंग्रेसके प्रमुख बन पाये थे.
१९४६में कोंग्रेसका विभाजन न हो वह अत्यंत आवश्यक था. इसीलिये गांधीजीने सरदार पटेलसे कोंग्रेसको न तूटने देनेका वचन लेके नहेरुको कोंग्रेसके प्रमुख बनाये. इस परिस्थितिका वर्णन इसी ब्लोग साईट पर अन्यत्र विद्यमान है इसलिये इसका विगतसे वर्णन हम नहीं करेंगे. किन्तु यह तथ्य अवश्य याद रखना है कि, नहेरु अपने युवा भक्तों द्वारा सरदार पटेलकी भर्त्सना करवा रहे थे. गांधीजीको ज्ञात था कि कोंग्रेसके संगठनमें नहेरु सशक्त नहीं थे. और सरदार पटेल संगठनमे सशक्त थे और शासन करनेमें भी सरदार पटेल सशक्त थे. इसलिये स्वतंत्रता मिलनेके पश्चात्, जब चूनाव होगा तो सरदार पटेल ही कोंग्रेसके नेता बनने वाले थे.
इसके अतिरिक्त, स्वतंत्रता मिलनेके बाद, गांधीजीने कोंग्रेसका विलय करनेका सूचित किया था, ताकि सरदार पटेल जो देशी राज्योंके भारतमें विलय करनेकी क्रियामें अत्यंत निपूणता दिखा रहे थे, वे पूर्वसे कहीं अधिक सशक्त बनके उभर रहे थे.
इसके अतिरिक्त महात्मा गांधीने क्या कहा था उसको याद करो.
महात्मा गांधीने कहा था;
“अब जवाहर मेरा उत्तरदियित्व निभायेगा.”
महात्मा गांधीका उत्तरदायित्व क्या था?
महात्मा गांधीने पदका और सत्ताका त्याग किया था. वे १९३३से कोंग्रेसके सामान्य सदस्य भी नहीं थे. इसका मतलब स्पष्ट है कि जवाहरलाल नहेरुको सत्तात्याग करके सामाजिक कार्योंमें सक्रिय होना था. गांधीजीने यह भी कहा था कि अब जवाहर मेरी भाषा बोलेगा.
मेरा उत्तराधिकारी जवाहर है, और जवाहर मेरी भाषा बोलेगा … इन दोनोंको भीन्न भीन्न रखके या तो एक साथ रखके अर्थ निकाला जाय तो हर हालतमें गांधीजीका आदेश यही था कि जवाहरको सत्तासे विमुख बनना है.
क्या जवाहरलाल नहेरु गांधीजीके करीबी थे?
नहीं … वे गांधीजीके करीबी नहीं थे. उन दोनोंमें कई मतभेद थे. गांधीजीने कहा था कि मैं जवाहरको (मतलब की उसके मनको) समज़ सकता हूँ किन्तु उसके समाजवादको नहीं समज़ सकता.
गांधीजीने भारतीय संस्कृतिके अनुरुप एक “सर्वोदय” नामका पुस्तक लिखा है. इसकी चर्चा हम नहीं करेंगे. किन्तु उनका जवाहरलाल नहेरुको यह कहेना कि तुम मेरा काम करो. यह ही पुरा संदेश था, जवाहरलाल नहेरुके लिये और भारतकी जनताके लिये भी. किन्तु नहेरुने इस संदेशको दबा दिया.
आप एक और बात पर विचार करें
महात्मा गांधीका पट्ट शिष्य कौन था?
महात्मा गांधीका पट्ट शिष्य था प्रथम सत्याग्रही विनोबा भावे. महात्मा गांधीने ऐसा क्यों नहीं कहा कि “मेरा उत्तरदायित्व विनोबा भावे निभायेगा और विनोबा भावे मेरी भाषा बोलेगा?”
“चूप कर” … “शाणपण रक्ख” … “पढने बैठ जा” … “सच बोल” … ऐसा किसको कहा जा सकता है?
जो चूप ही है उसको कोई बोलेगा कि “चूप कर”?
जो शाणा है उसको कोई बोलेगा कि “शाणा बन”?
जो पढने बैठा ही है उसको कोई बोलेगा कि “पढने बैठ”?
जो सच ही बोलता है उसको कोई कहेगा कि “सच बोल”?
विनोबा भावेको महात्मा गांधीने कुछ भी कहा नहीं कि तुम मेरी भाषा बोलो … तुम मेरा काम करो …
महात्मा गांधीने विनाबोको ऐसा क्यों नहीं कहा? क्यों कि विनोबा भावे तो गांधीजीका काम करते ही थे. विनोबा भावे को कुछ कहेने कि आवश्यकता ही नथी.
जवाहरको ऐसा कहेना पडा कि तुम मेरा उत्तरदायित्व निभाओ और मेरा काम करो. क्यों कि जवाहरलाल गांधीजीके सिद्धांतोको नहीं मानते थे. इसलिये गांधीजीने अपनी भाषामें आदेश दिया कि जवाहरको क्या करना है.
इस पार्श्व भूमिमें हम देख सकते है कि नहेरु कैसे गांधीजीके सिद्धांसे विमुख थे. गांधीजीके आदेशकी जवाहरलाल नहेरुने अवज्ञा की.
वैसे भी नहेरु व्यसनोंके आदि थे, मांसाहारी थे. मदिरा भी पीते थे. चीरुट पीते थी. जवाहरलालकी मूर्गीयोंको बदामके अतिरिक्त कुछ खिलाया नहीं जाता था. और उनकी मूर्गीयोंको हमेशा ब्रांडीके अतिरिक्त कुछ पिलाया नहीं जाता था. अहिंसासे नहेरु कोसों दूर थे. उनका एक भी लक्षण महात्मा गांधीके सिद्धांतोके अनुरुप नहीं था.
ऐसे जवाहरलाल नहेरुकी पुत्री, इन्दिरा हमेशा अपने पिताके पास ही रहेती थीं (अपने पतिके पास नहीं). और वह अपने पिताका आदर करती थी. वह अपने पिताके पूर्णरुपसे परिचित थीं.
और हमने देखा कि इन्दिरा गांधीने २५ जून को क्या किया?
जनतंत्र की हत्या कि
जवाहरलाल नहेरुके जो गुण इन्दिराको घरमें ही पिताजीके साथ चर्चाके समय दिखाई देते थे वे गुण इन्दिरामें अवतरित हुए थे. जवाहारके लिये तो अपने पदको चूनौति देने वाला १९६२ तक कोई नहीं था. जब मोरारजी देसाई नहेरुका प्रतिद्वंदी बना तो नहेरुने सीन्डीकेट बनायी और सीन्डीकेटका सहारा लेके अपने प्रतिद्वंदी मोरारजी देसाईको पराजित कर दिया.
मान लिजीये कि गांधीजीकी हत्या न होती तो क्या होता?
यदि गांधीजी विद्यमान होते तो वे नहेरुके विरुद्ध होते. और यदि नहेरु सत्तामें होते तो गांधीजीको कारावासमें भेज देते.
आप पूछोगे ऐसा कैसे हो सकता है.
यह जाननेके लिये आप उसकी बेटी इन्दिराके वर्तनका अवलोकन करो.
उसकी बेटी, जो पर्याप्त रुपसे अग्रताक्रममें कनिष्ठ थी, न तो उसको कोई बडे मंत्रीपदका अनुभव था, न तो उसमें प्रबंधन और प्रशासनिक अनुभव था, फिर भी उसको प्रधान मंत्री बनाया गया.
किनकी सहायतासे इन्दिराको प्रधान मंत्री बनाया गया?
उसी सीन्डीकेटके सदस्यों द्वारा, जिसकी रचना नहेरुने अपने विरोधीयोंको निरस्र करनेके लिये की थी. हाँ जी, ये सीन्डीकेटके सदस्य थे अतुल्य घोष, मोहनलाल सुखडीया, एस के पाटील, कमलापति त्रीपाठी, कामराज , ललितनारायण मीश्र …
और इन्दिराने ही इन सीन्डीकेटके सदस्योंको छीन्न भीन्न कर दिया.
जय प्रकाश नारायण तो गांधीवादी थे. उनको भी कारावासमे भेजा. जयप्रकाश नारायण जो नहेरुको भी खरी खरी सूना देते थे उन्होंने इन्दिरा गांधीको खारी खरी सूनाई.
जयप्रकाश नारायणको कारावासमें स्लो पोईज़न !
जय प्रकाश नारायण तो बिमार भी थे. उनके लिये तो खानेमें संतुलित और सुनिश्चित आहार ही देना चाहिये था.
लेकिन न तो कारावास भेजनेके समय इन्दिराने उनके स्वास्थ्य की जाँच करवाई, न तो उनका रीपोर्ट दिखवाया, न तो उनके लिये सुनिश्चित संयमित आहार की व्यवस्था करवायी, न तो जयप्रकाश नारायणके लिये जिन खाद्यपदार्थोंका निषेध था उसकी ओर ध्यान दिया, न तो जयप्रकाशनारायणके स्वास्थ्यके उपर अवलोकन करने के लिये कोई व्यवस्था की.
जयप्रकाश नारायण के लिये भोजनमें नमक का निषेध था, लेकिन उनके आहारमें नमक रक्खा गया. उनके स्वास्थ्यकी स्थिति क्या है उसके उपर अनुश्रवणकी (मोनीटरींगकी) कोई व्यवस्था इन्दिराने नही की. इन्दिराने स्वयं ही कोई पूछताछ करनेकी सद्वृत्ति न दिखाई.
इसके कारण जयप्रकाश नारायणके दोनों गुर्दे फेल हो गये. वे मरणासन्न हो गये. इसके पूर्व जयप्रकाश नारायणने गत ओक्टोबर मासमें इस मतलबका कहा भी था भी की थी कि उनकी चिकित्सा ठीक तरहसे नहीं हो रही थी. उनके करीबी तारकुन्डे और जेपी गोयल दोनोंको लगा था कि जयप्रकाश नारयणको स्लो-पोईज़न दिया जा रहा है. चिक्तित्सालयका कोई भी चिकित्सक तारकुन्डेजी और जेपी गोयलसे बात करनेको तयार नहीं था.
जय प्रकाश नारायण की मृत्यु सुनिश्चित लगती थी.
एक कोंगी नेतासे रहा नहीं गया. वह विनोबा भावे के पास गया और उनको एक चीठ्ठी दी जिसमें विनोबासे आग्रह किया था कि विनोबा भावे, इन्दिरा गांधीको एक चीठ्ठी लिखें कि वह “जयप्रकाश नारायणको कारावाससे मुक्ति दें”.
विनोबा भावे ने “जयप्रकाश नारायणको कारावाससे मुक्ति दें” उन शब्दोंके नीचे रेखा खींचीं. और उस पत्रको इन्दिराको भेज दिया.
तो फिर क्या हुआ?
इन्दिरा गांधीने उस कोंग्रेसीको बरखास्त कर दिया. और जय प्रकाश नारायणको कारावाससे मुक्त किया. उस समय जयप्रकाश नारायण मरणासन्नसे बेभान अवस्थामें थे. कहते है कि एक कागजके उपर उनका अंगूठा (हस्ताक्षर) ले लिया. शक्य है कि इन्दिरा गांधी समय आने पर उस पत्रको जयप्रकाश नारायणका पेरोलके लिये लिखा प्रार्थना पत्र घोषित कर सकें.
जब ऐसा लगने लगा कि जयप्रकाश नारायण अब किसी भी समय पर देवलोक जा सकते है तब इन्दिरा गांधीके समाचार माध्यमोंने समाचार की शिर्ष रेखाएं चमकाई कि एक बिमारग्रस्त महापुरुषके योग्य अंत्येष्ठी का पूरा आयोजन सरकारने किया है.
यदि नहेरुने नहीं तो इन्दिराने १९७५-७६में १०८ वर्षके महात्मा गांधीको भी जयप्रकाश नारायण की तरह चीर निद्रामें पहूँचानेका प्रयत्न किया होता. इस तथ्य पर प्रश्न चिन्ह नहीं लग सकता.
नीतिमत्ताकी अवज्ञा और एकाधिकार किसको कह सकते हैं?
यदि आप अपने संबंधीयोंको बिना योग्यता देखें अग्रता क्रमकी अवहेलना करके उच्च स्थान पर बैठा देते है … ,
यदि आप आपके संबंधीयोंको और चहितोंको आर्थिक लाभ करवा देतें है … ,
यदि आप अपने स्वार्थके कारण निर्णय लेनेमें प्रमाद करते हैं या अनिर्णायक अवस्थामें रहेते है … ,
यदि आप अपने स्वार्थके कारण दुसरोंको जिन्होंने आपका या देशका भी कुछ बिगाडा नहीं है, उनको उनके हक्क और लाभसे वंचित रखते है … ,
यदि आप अपने स्वार्थके कारण अन्योंको कष्ट पहोंचाते है … ,
यदि आप आपने ही बनाये हुए नियमोंका, स्वयं और अपने चहितों द्वारा पालन नहीं करवाते है … ,
यदि आप अपने दिये हुए वचनोंका पालन नहीं करते है … ,
यदि आप अपने स्वार्थके कारण अन्योंको सुरक्षा नहीं देते है … ,
तो आप एकाधिकारवादी (ऑटोक्रेट = सरमुखत्यार) है,
कश्मिर समस्याको प्रलंबित रखनेवाला,
सहस्रों कश्मिरी हिंदुओंके नागरिक और प्राकृतिक हक्कोंसे हमेशाके लिये वंचित रखनेवाला,
शेख अब्दुल्लाको जम्मु-कश्मिर का प्रधान-मंत्री बनानेवाला,
लियाकत अली- नहेरु संधी पर हिन्दुओंकी सुरक्षा पर निगरानी न रखनेवाला,
चीनको केकवॉक वीक्टरी देनेवाला और भारतकी ९१००० चोरसमील भूमि गंवानेवाला,
संसदके समक्ष ली हुई प्रतिज्ञाको भूल जानेवाला,
धर्म तेजा के उपर अमीनजर रखनेवाला,
अग्रताक्रममें न होनेवाली अपनी पुत्रीको प्रधानमंत्री बनानेका आयोजन करनेवाला कौन था? नहेरु ही तो था.
और जिस सीन्डीकेटने उनको प्रधान मंत्री बनाया उनको हरानेवाली,
स्वयंके लिये नियम बदलनेवाली,
अपने चहितोंको नियमभंग करने पर कोई कार्यवाही न करने वाली,
न्यायालयके आदेशसे विपरित काम करनेवाली,
आपात्काल घोषित करके अन्योंको अपार कष्ट देनेवाली,
और अपने स्वार्थके लिये निम्नस्तरकी कार्यवाही करनेवाली कौन थी?
इन्दिरा गांधी ही तो थीं.
इन्दिरा गांधी अनीतिमत्तासे प्लावित थीं.
सियास्तमें सातत्यसे जूठ बोलनेका प्रारंभ वैसे तो नहेरुने किया था ताकि आम जनताको वे भ्रम में रख सके.
जो लोग आज अपनी उम्रके ७५वर्षके पार कर गये है, उनमेंसे कई लोगोंको १९५०के दशकमें यह पता नहीं था कि कश्मिरमें १९४४ सालसे रह रहे दलित हिन्दु लोग अपने नागरिक हक्कोंसे वंचित रक्खे गये है … भारतकी जनताको यह ज्ञात नहीं था कि स्त्रीयोंको जम्मु-कश्मिर राज्यमें उनके नागरिक अधिकारमें कटौति है … भारतकी जनताको यह ज्ञात नही था कि जम्मु-कश्मिरका अलग संविधान है … भारतकी जनताको यह ज्ञात नहीं था कि नहेरु-लियाकत अली करारके उपर नहेरु और उनके फरजंदोंने कोई कारवाई न करके पाकिस्तान स्थित हिन्दुओको असुरक्षित रक्खा है …
नहेरुने पाकिस्तान सरकारको हिन्दुओंका धर्मपरिवर्तन करनेकी और यातनाएं देने की पुरी अनुमति दे दी थी. यदि आप एक करार करते है और उस करारके प्रावधानों के आचरण पर निगरानी ही न रखते है तो उसका अर्थ यह ही होता है कि दुसरा पक्ष चाहे वह कर सकता है. समाचार माध्यम के उपर सरकारका अंकुश था.
यदि भारतमें जनतंत्रको जीवित रखनेका श्रेय किसीको जाता है तो वह भारतकी संस्कृति, भारतकी आम जनता और सर्वोदय नेता जय प्रकाश नारायणके गुटको जाता है. इनमें आर.एस.एस. और कुछ मूर्धन्य लोग भी संमिलित है इस तथ्यको नकारा नहीं जा सकता. १९४९के पश्चात् कोंगीयोंका संस्कार ही नहीं रहा है कि वे जनतंत्रकी रक्षा करें.
शिरीष मोहनलाल दवे
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Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, Social Issues, tagged अनुच्छेद ३७० और ३५ए, अप्राकृतिक आचरण, अभूतपूर्व विजयको घोर पराजयमें परिवर्तन, आचार व्यवहार, आत्ममंथन, आर एस एस, इन्दिरा नहेरु कोंग्रेस यानी आई.एन.सी., उन्माद, औरंगझेब, कटू आलोचना, कश्मिर पाकिस्तानसे मिल जायेगा, कालापानीकी सज़ा, कृष्णवदन जोषी, कोंगी, कोंगीकी अन्त्येष्ठी क्रिया, कोंग्रेस, कोंग्रेसका विभाजन, क्षति बन जाती है अपराध, खूनकी नदियां बहेगी, गांधीजी, चीनकी सेनाका सीमापर अतिक्रमण, जनतंत्रके मूल्यपर प्रहार, तिबट पर चीनका प्रभूत्त्व, नहेरु, नीतिमत्ता, नैतिक अधःपतन, नैतिकताका प्रथ्म स्खलन, पक्ष एक विचार, पगला, परिवर्तनशील, पागलपन, पेश्वा ब्राह्मण, प्रणालीयाँ, प्रत्याघाती आक्रमण, प्रमुखपद, प्रांतीय समिति, भगतसिंघ, भारत और पाकिस्तानका फेडरल युनीयन, भूगर्भवादी, भूमि-चिन्ह, भ्रम निरसन, मराठा क्षत्रीय, मूर्धन्य, योजना पुरस्कार, राजिव युग, लोकतंत्रकी आत्मा, वीर सावरकर, संरचना, संविधानके विरुद्ध, सरदार पटेलके योगदानका अधिमूल्यन, सावरकर, सुभाष, सोनिया-राहुअल युग, स्यामाप्रसाद मुखर्जी, स्वयं प्रमाणित, स्वातंत्र्य युद्ध में योगदान, हिन्दुमहासभा, हेगडेवार, १८५७ on October 23, 2019|
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“वीर सावरकर”का कोंगीने “सावरकर” कर दिया यह है उसका पागलपन.

जब हम “कोंगी” बोलते है तो जिनका अभी तक कोंगीके प्रति भ्रम निरसन नहीं हुआ है और अभी भी उसको स्वातंत्र्यके युद्धमें योगदान देनेवाली कोंग्रेस ही समज़ते, उनके द्वारा प्रचलित “कोंग्रेस” समज़ना है. जो लोग सत्यकी अवहेलना नही कर सकते और लोकतंत्रकी आत्माके अनुसार शब्दकी परिभाषामे मानते है उनके लिये यह कोंग्रेस पक्ष, “इन्दिरा नहेरु कोंग्रेस” [कोंग्रेस (आई) = कोंगी = (आई.एन.सी.)] पक्ष है.
कोंगीकी अंत्येष्ठी क्रिया सुनिश्चित है.
“पक्ष” हमेशा एक विचार होता है. पक्षके विचारके अनुरुप उसका व्यवहार होता है. यदि कोई पक्षके विचार और आचार में द्यावा-भूमिका अंतर बन जाता है तब, मूल पक्षकी मृत्यु होती है. कोंग्रेसकी मृत्यु १९५०में हो गयी थी. इसकी चर्चा हमने की है इसलिये हम उसका पूनरावर्तन नहीं करेंगे.
पक्ष कैसा भी हो, जनतंत्रमें जय पराजय तो होती ही रहेती है. किन्तु यदि पक्षके उच्च नेतागण भी आत्ममंथन न करे, तो उसकी अंन्त्येष्ठी सुनिश्चित है.
परिवर्तनशीलता आवकार्य है.
परिवर्तनशीलता अनिवार्य है और आवकार्य भी है. किन्तु यह परिवर्तनशीलता सिद्धांतोमें नहीं, किन्तु आचारकी प्रणालीयोंमें यानी कि, जो ध्येय प्राप्त करना है वह शिघ्रातिशिघ्र कैसे प्राप्त किया जाय? उसके लिये जो उपकरण है उनको कैसे लागु किया जाय? इनकी दिशा, श्रेयके प्रति होनी चाहिये. परिवर्तनशीलता सिद्धांतोसे विरुद्धकी दिशामें नहीं होनी चाहिये.
कोंगीका नैतिक अधःपतनः
नहेरुकालः
नीतिमत्ता वैसे तो सापेक्ष होती है. नहेरुका नाम पक्षके प्रमुखके पद पर किसी भी प्रांतीय समितिने प्रस्तूत नहीं किया था. किन्तु नहेरु यदि प्रमुखपद न मिले तो वे कोंग्रेसका विभाजन तक करनेके लिये तयार हो गये थे. ऐसा महात्मा गांधीका मानना था. इस कारणसे महात्मा गांधीने सरदार पटेलसे स्वतंत्रता मिलने तक, कोंग्रेस तूटे नहीं इसका वचन ले लिया था क्योंकि पाकिस्तान बने तो बने किन्तु शेष भारत अखंड रहे वह अत्यंत आवश्यकता.
जनतंत्रमें जनसमूह द्वारा स्थापित पक्ष सर्वोपरि होता है क्यों कि वह एक विचारको प्रस्तूत करता है. जनतंत्रकी केन्द्रीय और विभागीय समितियाँ पक्षके सदस्योंकी ईच्छाको प्रतिबिंबित करती है. जब नहेरुको ज्ञात हुआ कि किसीने उनके नामका प्रस्ताव नहीं रक्खा है तो उनका नैतिक धर्म था कि वे अपना नाम वापस करें. किन्तु नहेरुने ऐसा नहीं किया. वे अन्यमनस्क चहेरा बनाके गांधीजीके कमरेसे निकल गये.
यह नहेरुका नैतिकताका प्रथम स्खलन या जनतंत्रके मूल्य पर प्रहार था. तत् पश्चात तो हमे अनेक उदाहरण देखने को मिले. जो नहेरु हमेशा जनतंत्रकी दुहाई दिया करते थे उन्होंने अपने मित्र शेख अब्दुल्लाको खुश रखने के लिये अलोकतांत्रिक प्रणालीसे अनुच्छेद ३७० और ३५ए को संविधानमें सामेल किया था और इससे जो जम्मु-कश्मिर, वैसे तो भारत जैसे जनतांत्रिक राष्ट्रका हिस्सा था, किन्तु वह स्वयं अजनतांत्रिक बन गया.
आगे देखो. १९५४में जब पाकिस्तानके राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ाने, भारत और पाकिस्तानका फेडरल युनीयन बनानेका प्रस्ताव रक्खा तो नहेरुने उस प्रस्तावको बिना चर्चा किये, तूच्छता पूर्वक नकार दिया. उन्होंने कहा कि, भारत तो एक जनतांत्रिक देश है. एक जनतांत्रिक देशका, एक सरमुखत्यारीवाले देशके साथ युनीयन नहीं बन सकता. और उसी नहेरुने अनुच्छेद ३७० और अनुच्छेद ३५ए जैसा प्रावधान संविधानमें असंविधानिक तरिकेसे घुसाए दिये थे.
जन तंत्र चलानेमें क्षति होना संभव है. लेकिन यदि कोई आपको सचेत करे और फिर भी उसको आप न माने तो उस क्षतिको क्षति नहीं माना जाता, किन्तु उसको अपराध माना जाता है.
नहेरुने तीबट पर चीनका प्रभूत्त्व माना वह एक अपराध था. वैसे तो नहेरुका यह आचार और अपराध विवादास्पद नहीं है क्योंकि उसके लिखित प्रमाण है.
चीनकी सेना भारतीय सीमामें अतिक्रमण किया करें और संसदमें नहेरु उसको नकारते रहे यह भी एक अपराध था. इतना ही नहीं सीमाकी सुरक्षाको सातत्यतासे अवहेलना करे, वह भी एक अपराध है. नहेरुके ऐसे तो कई अपराध है.
इन्दिरा कालः
इन्दिरा गांधीने तो प्रत्येक क्षेत्रमें अपराध ही अपराध किये है. इन अपराधों पर तो महाभारतसे भी बडी पुस्तकें लिखी जा सकती है. १९७१में भारतीयसेनाने जो अभूतपूर्व विजय पायी थी उसको इन्दिराने सिमला करार के अंतर्गत घोर पराजयमें परिवर्तित कर दिया था. वह एक घोर अपराध था. इतना ही नहीं लेकिन जो पी.ओ.के. की भूमि, सेनाने प्राप्त की थी उसको भी पाकिस्तानको वापस कर दी थी, यह भारतीय संविधानके विरुद्ध था. इन्दिरा गांधीने १९७१में जब तक पाकिस्तानने भारतकी हवाई-पट्टीयों पर आक्रमण नहीं किया तब तक आक्रमणका कोई आदेश नहीं दिया था. भारतीय सेनाके पास, पाकिस्तानके उपर प्रत्याघाती आक्रमण करनेके अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं था. यह बात कई स्वयंप्रमाणित विद्वान लोग समज़ नहीं पाते है.
राजिव युगः
राजिव गांधीका पीएम-पदको स्विकारना ही उसका नैतिक अधःपतन था. उसकी अनैतिकताका एक और प्रमाण उसके शासनकालमें सिद्ध हो गया. बोफोर्स घोटालेमें स्वीस-शासन शिघ्रकार्यवाही न करें ऐसी चीठ्ठी लेके सुरक्षा मंत्रीको स्वीट्झर्लेन्ड भेजा था. यही उसकी अनीतिमत्ताको सिद्ध करती है.
सोनिया-राहुल युगः
इसके उपर चर्चाकी कोई आवश्यकता ही नहीं है. ये लोग अपने साथीयोंके साथ जमानत पर है. जिस पक्षके शिर्ष नेतागण ही जमानत पर हो उसका क्या कहेना?
कोंगीका पागलपनः
पागलपन के लक्षण क्या है?
प्रथम हमे समज़ना आवश्यक है कि पागलपन क्या है.
पागलपन को संस्कृतमें उन्माद कहेते है. उन्मादका अर्थ है अप्राकृतिक आचरण.
अप्राकृतिक आचारण. यानी कि छोटी बातको बडी समज़ना और गुस्सा करना, असंदर्भतासे ही शोर मचाना, कपडोंका खयाल न करना, अपनेको ही हानि करना, गुस्सेमें ही रहेना, हर बात पे गुस्सा करना …. ये सब उन्मादके लक्षण है.
कोंगी भी ऐसे ही उम्नादमें मस्त है.
अनुच्छेद ३७० और ३५ए को रद करने की मोदी सरकारकी क्रिया पर भी कोंगीयोंका प्रतिभाव कुछ पागल जैसा ही रहा है.
यदि कश्मिरमें अशांति हो जाती तो भी कोंगीनेतागण अपना उन्माद दिखाते. कश्मिरमें अशांति नहीं है तो भी वे कश्मिरीयत और जनतंत्र पर कुठराघात है ऐसा बोलते रहेते है. अरे भाई १९४४से कश्मिरमें आये हिन्दुओंको मताधिकार न देना, उनको उनकी जातिके आधार पर पहेचानना और उसीके आधार पर उनकी योग्यताको नकारके उनसे व्यवसायसे वंचित रखना और वह भी तीन तीन पीढी तक ऐसा करना यह कौनसी मानवता है? कोंगी और उसके सहयोगी दल इस बिन्दुपर चूप ही रहेते है.
खूनकी नदियाँ बहेगी
जो नेता लोग कश्मिरमें अनुच्छेद ३७० और ३५ए को हटाने पर खूनकी नदियाँ बहानेकी बातें करते थे और पाकिस्तानसे मिलजानेकी धमकी देते थे, उनको तो सरकार हाउस एरेस्ट करेगी ही. ये कोंगी और उसके सांस्कृतिक सहयोगी लोग जनतंत्रकी बात करने के काबिल ही नहीं है. यही लोग थे जो कश्मिरके हिन्दुओंकी कत्लेआममें परोक्ष और प्रत्यक्ष रुपसे शरिक थे. उनको तो मोदीने कारावास नहीं भेजा, इस बात पर कोंगीयोंको और उनके सहयोगीयोंको मोदीका शुक्रिया अदा करना चाहिये.
सरदार पटेल वैसे तो नहेरुसे अधिक कदावर नेता थे. उनका स्वातंत्र्यकी लडाईमें और देशको अखंडित बनानेमें अधिक योगदान था. नहेरुने सरदार पटेलके योगदानको महत्त्व दिया नहीं. नहेरुवंशके शासनकालमें नहेरुवीयन फरजंदोंके नाम पर हजारों भूमि-चिन्ह (लेन्डमार्क), योजनाएं, पुरस्कार, संरचनाएं बनाए गयें. लेकिन सरदार पटेल के नाम पर क्या है वह ढूंढने पर भी मिलता नहीं है.
अब मोदी सराकार सरदार पटेलको उनके योगदानका अधिमूल्यन कर रही है तो कोंगी लोग मोदीकी कटू आलोचना कर रहे है. कोंगीयोंको शर्मसे डूब मरना चाहिये.
महात्मा गांधी तो नहेरुके लिये एक मत बटोरनेका उपकरण था. कोंगीयोंके लिये जब मत बटोरनेका परिबल और गांधीवादका परिबल आमने सामने सामने आये तब उन्होंने मत बटोरनेवाले परिबलको ही आलिंगन दिया है. शराब बंदी, जनतंत्रकी सुरक्षा, नीतिमत्ता, राष्ट्रीय अस्मिताकी सुरक्षा, गौवधबंदी … आदिको नकारने वाली या उनको अप्रभावी करनेवाली कोंगी ही रही है.
कोंगी की अपेक्षा नरेन्द्र मोदी की सरकार, गांधी विचार को अमली बनानेमें अधिक कष्ट कर रही है. कोंगीको यह पसंद नहीं.
कोंगी कहेता है
गरीबोंके बेंक खाते खोलनेसे गरीबी नष्ट नहीं होनेवाली है,
संडास बनानेसे लोगोंके पेट नहीं भरता,
स्वच्छता लाने से मूल्यवृद्धि का दर कम नहीं होता,
हेलमेट पहननेसे भी अकस्मात तो होते ही है,
कोंगी सरकारके लिये तो खूलेमें संडास जाना समस्या ही नहीं थी,
कोंगी सरकारके लिये तो एक के बदले दूसरेके हाथमें सरकारी मदद पहूंच जाय वह समस्या ही नहीं थी,
कोंगी सरकारके लिये तो अस्वच्छता समस्या ही नहीं थी,
कोंगीके सरकारके लिये तो कश्मिरी हिन्दुओंका कत्लेआम, हिन्दु औरतों पर अत्याचार, हिन्दुओंका लाखोंकी संख्यामें बेघर होना, कश्मिरी हिन्दुओंको मताधिकार एवं मानव अधिकारसे से वंचित होना समस्या ही नहीं थी, दशकों से भी अधिक कश्मिरी हिन्दु निराश्रित रहे, ये कोंगी और उनके सहयोगी सरकारोंके लिये समस्या ही नहीं थी, अमरनाथ यात्रीयोंपर आतंकी हमला हो जाय यह कोंगी और उसकी सहयोगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी, उनके हिसाबसे उनके शासनकालमें तो कश्मिरमें शांति और खुशहाली थी,
आतंक वादमें हजारो लोग मरे, वह कोंगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी,
करोडों बंग्लादेशी और पाकिस्तानी आतंकवादीयोंकी घुसपैठ, कोंगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी,
कोंगी और उनके सहयोगीयोंके लिये भारतमें विभाजनवादी शक्तियां बलवत्तर बनें यही एजन्डा है. बीजेपीको कोमवादी कैसे घोषित करें, इस पर कोंगी अपना सर फोड रही है?
मध्य प्रदेशकी कोंगी सरकारने वीर सावरकरके नाममेंसे वीर हटा दिया.
वीर सावरकर आर एस एस वादी था. इस लिये वह गांधीजीकी हत्याके लिये जीम्मेवार था. वैसे तो वीर सावरकर उस आरोपसे बरी हो गये थे. और गोडसे तो आरएसएसका सदस्य भी नहीं था. न तो आर.एस.एस. का गांधीजीको मारनेका कोई एजन्डा था, न तो हिन्दुमहासभाका ऐसा कोई एजन्डा था. अंग्रेज सरकारने उसको कालापानीकी सज़ा दी थी. वीर सावरकरने कभी माफी नहीं मांगी. सावरकरने तो एक आवेदन पत्र दिया था कि वह माफी मांग सकता है यदि अंग्रेज सरकार अन्य स्वातंत्र्य सैनानीयोंको छोड दें और केवल अपने को ही कैदमें रक्खे. कालापानीकी सजा एक बेसुमार पीडादायक मौतके समान थी. कोंगीयोंको ऐसी मौत मिलना आवश्यक है.
वीर सावरकर महात्मा गांधीका हत्यारा है क्यों कि उसका आर.एस.एस.से संबंध था. या तो हिन्दुमहासभासे संबंध था. यदि यही कारण है तो कोंगी आतंकवादी है, क्यों कि गुजरातके दंगोंका मास्टर माईन्ड कोंग्रेससे संलग्न था. कोंगी नीतिमताहीन है क्यों कि उसके कई नेता जमानत पर है, कोगीके तो प्रत्येक नेता कहीं न कहीं दुराचारमे लिप्त है. क्या कोंगीको कालापानीकी सज़ा नहीं देना चाहिये. चाहे केस कभी भी चला लो.
आज अंग्रेजोंका न्यायालय भारत सरकारसे पूछता है कि यदि युके, ९००० करोड रुपयेका गफला करनेवाला माल्याका प्रत्यार्पण करें तो उसको कारावासमें कैसी सुविधाएं होगी? कोंगीयोंने दंभ की शिक्षा अंग्रेजोंसे ली है.
दो कौडीके राजिव गांधी और तीन कौडीकी इन्दिरा नहेरु-गांधीको, बे-जिज़क भारत रत्न देनेवाली कोंगीको वीर सावरकरको भारत रत्नका पुरष्कार मिले उसका विरोध है. यह भी एक विधिकी वक्रता है कि हमारे एक वार्धक्यसे पीडित मूर्धन्य का कोंगीको अनुमोदन है. यह एक दुर्भाग्य है.
वीर सावरकर एक श्रेष्ठ स्वातंत्र्य सेनानी थे. उनका त्याग और उनकी पीडा अकल्पनीय है. सावरकरकी महानताकी उपेक्षा सीयासती कारणोंके फर्जी आधार पर नहीं की जा सकती.
कोंगीके कई नेतागण पर न्यायालयमें मामला दर्ज है. उनको कठोरसे कठोर यानी कि, कालापानीकी १५ सालकी सज़ा करो फिर उनको पता चलेगा कि वे स्वयं कितने डरपोक है.
कोंगी लोग कितने निम्न कोटीके है कि वे सावरकरका त्याग और पीडा समज़ना ही नहीं चाहते. ऐसी उनकी मानसिकता दंडनीय बननी चाहिये है.
हमारे उक्त मूर्धन्यने उसमें जातिवादी (वर्णवादी तथा कथित समीकरणोंका सियासती आधार लिया है)
“महाराष्ट्रमें सभी ब्राह्मण गांधीजी विरोधी थे और सभी मराठा (क्षत्रीय) कोंग्रेसी थे. पेश्वा ब्राह्मण थे और पेश्वाओंने मराठाओंसे शासन ले लिया था इसलिये मराठा, ब्राह्मणोंके विरोधी थे. अतः मराठी ब्राह्मण गांधीके भी विरोधी थे. विनोबा भावे और गोखले अपवाद थे. १९६०के बाद कोई भी ब्राह्मण महाराष्ट्रमें मुख्य मंत्री नहीं बन सका. साध्यम् ईति सिद्धम्” मूर्धन्य उवाच
यदि यह सत्य है तो १९४७-१९६०के दशकमें ब्राह्मण मुख्य मंत्री कैसे बन पाये. वास्तवमें घाव तो उस समय ताज़ा था?
१८५७के संग्राममें हिन्दु और मुस्लिम दोनों सहयोग सहकारसे संमिलित हो कर बिना कटूता रखके अंग्रेजोंके सामने लड सकते थे. उसी प्रकार ब्राह्मण क्षत्रीयोंके बीच भी कडवाहट तो रह नहीं सकती. औरंगझेब के अनेक अत्याचार होते हुए भी शिवाजीकी सेनामें मुस्लिम सेनानी हो सकते थे तो मराठा और ब्राह्मणमें संघर्ष इतना जलद तो हो नहीं सकता.
“लेकिन हम वीर सावरकरको नीचा दिखाना चाह्ते है इसलिये हम इस ब्राह्मण क्षत्रीयके भेदको उजागर करना चाहते है”
स्वातंत्र्य सेनानीयोंके रास्ते भीन्न हो सकते थे. लेकिन कोंग्रेस और हिंसावादी सेनानीयोंमें एक अलिखित सहमति थी कि एक दुसरेके मार्गमें अवरोध उत्पन्न नहीं करना और कटूता नहीं रखना. यह बात उस समयके नेताओंको सुविदित थी. गांधीजी, भगतसिंघ, सावरकर, सुभाष, हेगडेवार, स्यामाप्रसाद मुखर्जी … आदि सबको अन्योन्य अत्यंत आदर था. अरे भाई हमारे अहमदाबादके महान गांधीवादी कृष्णवदन जोषी स्वयं भूगर्भवादी थे. हिंसा-अहिंसाके बीचमें कोई सुक्ष्म विभाजन रेखा नहीं थी. सारी जनता अपना योगदान देनेको उत्सुक थी.
हाँ जी, साम्यवादीयोंका कोई ठीकाना नहीं था. ये साम्यवादी लोग रुसके समर्थक रहे और अंग्रेजके विरोधी रहे. जैसे ही हीटलरने रुस पर हमला किया तो वे अंग्रेज सरकारके समर्थक बन गये. यही तो साम्यवादीयोंकी पहेचान है. और यही पहेचान कोंगीयोंकी भी है.
शिरीष मोहनलाल दवे
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