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Posts Tagged ‘कोंग्रेस’

कोरोना कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक सहयोगी

वैसे तो इस ब्लोग साईट पर इस विषय पर चर्चा हो गई है कि क्या हर युगमें वालीया लूटेरा, वाल्मिकी ऋषि बन सकता है?

वालीया लूटेरा

वालीया लुटेरा वैसे तो वाल्मिकी ऋषी बन सकता है, किन्तु ऐसी घटनाकी शक्यता के लिये भी किंचित पूर्वावस्थाकी भी पूर्वावस्था पर, अवलंबित है. हमारे रामायणके रचयिता वाल्मिकी ऋषिकी वार्तासे तो हम सर्व भारतीय अवगत है कि ये वाल्मिकी ऋषि अपनी पूर्वावस्थामें लूटेरा थे. फिर एक घटना घटी और उनको पश्चाताप हुआ. उन्होंने सुदीर्घ एकान्तवास में मनन किया और वे वाल्मिकी ऋषि बन गये.

प्रवर्तमान कोंगी (कोंग्रेस)

इस आधार पर कई सुज्ञ लोग मानते है कि भारतकी वर्तमान कोंग्रेस जिनको हम कोंग (आई), अर्थात्‌ कोंगी, अथवा इन्दिरा नहेरुगाँधी कोंग्रेस (आई,एन.सी.) अथवा इन्डीयन नहेरुवीयन कोंग्रेस के नामसे जानते है, यह कोंग्रेस पक्ष क्या , भारतीय जनता पक्ष (बीजेपी) का  एक विकल्प बन सकता है. कुछ सुज्ञ महाशय का विश्वास अभी भी तूटा नहीं है.

जिस कोंग्रेसने भारतके स्वातंत्र्य संग्रामकी आधारशीला रक्खी थी औस उसके उपर एक प्रचंड महालय बनाया था उसको हम “वाल्मिकी ऋषि” कहेंगे. इस वाल्मिकी ऋषिके पिता अंग्रेज थे.

“वसुधैव कुटूंबम्‌” विचारधाराको माननेवाले भारतवासीयोंको, इससे कोई विरोध नहीं है.

अयं निजः अयं परः इति वेत्ति, गणनां लघुचेतसां, उदारचरितानां तु वसुधैव कुटूंबकम्‌.

अर्थात्‌

यह हमारा है, यह अन्य है, अर्थात्‌ यह हमारा नहीं है, ऐसी मनोवृत्ति रखनेवाला व्यक्ति संकुचित मानस वाला है. जो उदारमानस वाला है, उसके लिये तो समग्र पृथ्वि के लोग अपने ही कुटूंबके है.

इस भारतीय मानसिकताको महात्मा गांधीने समग्र विश्वके समक्ष सिद्ध कर दिया था. भारतमें ऐसे विशाल मन वाले महात्मा गांधी अकेले नहीं थे. कई लोग हुए थे.

हाँ जी, उस समय कोंग्रेस वाल्मिकी ऋषिके समान थी.

फिर क्या हुआ?

१९२८में मोतिलालजीने कहा कि मेरे बेटे जवाहरलालको कोंग्रेसका प्रेसीडेन्ट बनाओ. उस समय मोतिलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रेसीडेन्ट थे. उनका अनुगामी उनका सुपुत्र बना.

महात्मा गांधीने सोचा कि ज्ञानीको एक संकेत ही पर्याप्त होना चाहिये. १९३२में गांधीजीने कोंग्रेसके प्राथमिक सदस्यता मात्रसे त्यागपत्र दे दिया. महात्मा गांधी कोंग्रेसके शिर्षनेताओंको यह संदेश देना चाहते थे कि हमारे पदके कारण हमारे विचारोंका प्रभाव सदस्यों पर एवं जनता पर पडना नहीं चाहिये. हमारे विचारसे यदि वे संतुष्ट है तभी ही उनको उस विचारको अपनाना चाहिये.

१९३६में भी जवाहरलाल  प्रेसीडेन्ट बने. और १९३७में भी वे कोंग्रेसके प्रेसीडेन्ट बने.

महात्मा गांधीको लगा कि,  कोंग्रेस वाल्मिकी ऋषिमेंसे वालिया लूटेरेमें परिवर्तित होनेकी संभावना अब अधिक हो गयी है.  महात्मा गांधीने संकेत दिया कि जनतंत्रकी परिभाषा क्या है और जनतंत्र कैसा होता है. उन्होंने ब्रीटन, फ्रान्स, जर्मनीके जनतंत्र प्रणालीको संपूर्णतः नकार दिया था. गांधीजीने कहा कि हमे हमारी संस्कृतिके अनुरुप हमारी जनताके अनुकुल शासन प्रणाली स्थापित करना होगा. हमारी शास्न प्रणाली का आधार संपूर्णतः नैतिक होना चाहिये. (हरिजन दिनांक २-१-१९३७). भारतकी शासन प्रणाली कैसी होनी चाहिये. महात्मा गांधीने एक उत्कृष्ट उदाहरण दिया था. वह था “राम राज्य”. “राम राज्य”में राजाका कर्तव्य  सामाजिक क्रांतिको पुरस्कृत करना नहीं था. सामाजिक क्रांति करना या उसमें सुधार लाना यह काम तो ऋषियोंका था. ऋषियोंके पास नैतिक शासन धुरा थी.

पढिये “कहाँ खो  गये हाडमांसके बने राम”.

किन्तु गांधीजीके इस विचारका कोई प्रभाव नहेरु और उनके प्रशंसक युथ पर पडा नहीं. वे तो तत्कालिन पाश्चात्य देशोंमे चल रहे, “समाजवाद”की विचारधारामें रममाण थे.

सत्तामें जब त्यागकी भावनाका अभाव होता है तब वह सत्ता, जनहितसे विमुख ही हो जाती है. १९४७ आते आते कोंग्रेसके नेताओमें सत्ता लालसाका आविर्भाव हो चूका था. शासन करना कोई अनिष्ट नहीं है. किन्तु सत्ता पानेके लिये अघटित हथकंडे अपनाना अनिष्ट है.

“सत्ता पाना” और “सत्तासे हठाना” इन दोनोंमें समान नियम ही लागु पडते है. वह है साधन शुद्धिका नियम.

साधन शुद्धिका अभाव सर्वथा अनिष्ट को ही आगे बढाता है. कई सारे लोग इस सत्यको समज़ नहीं सकते है वह विधिकी वक्रता है.

चाहे बीज १९२९/३०में पडे हो, और अंकुरित १९३५-३६में हो गया हो, कोंग्रेसका  वाल्मिकी ऋषि से वालीया-लूटेरा बननेका प्रारंभ १९४६से प्रदर्शित हो गया था. १९५०मे तो वालीया लुटेरा एक विशाल वटवृक्ष बन गया.

वर्तमानमें तो आप देख रहे ही है कि वालीया लुटेरारुप अनेक वटवृक्ष विकसित हो गये है. वे इतने एकदुसरेमें हिलमिल गये है कि उनका मुख्य मूल कहां है इस बातका किसीको पता ही नहीं चलता है. अतः क्यूँ कि, नहेरुकी औलादें वर्तमान कोंग्रेस नामके पक्षमें विद्यमान है उस कोंग्रेसको ही मूल कोंग्रीसकी धरोहर मानी जाय. ऐसी मान्यता रखके मूल कोंग्रेसका थप्पा हालकी कोंगी पर मार दिया जाता है. इससे सिर्फ सिद्ध यही होता है कि ये महानुभाव जनतंत्रमें भी वंशवादको मान्यता दे दे सहे हैं. क्या यह भी विधिकी वक्रता नहीं है? छोडो इन बातको.

क्या निम्न लिखित शक्य है?

गुलाम –> वाल्मिकी ऋषि –>वालीया-लुटेरा –>वाल्मिकी ऋषि (?)

यह संशोधनका विषय है कि हमारे कुछ सुज्ञ महानुभाव लोग आश लगाके बैढे कि यह वालीया लुटेरा फिरसे वाल्मिकी ऋषि बनेगा. जिन व्यक्तियोंने एक ब्रीटीश स्थापित संस्थाको “गुलाम”मेंसे  वाल्मिकी ऋषि बनाया था, वे सबके सब १९५०के पहेले ही चल बसे. जो गुणवान बच भी गये थे उनको तो कोंग्रेससे बाहर कर दिया. तत्‌ पश्चात्‌  तो वालीया-लुटेरे गेंगमें तो चोर, उचक्के, डाकू, असत्यभाषी, ठग, आततायी, देशद्रोही … ही बचे है? इस पक्षको सुधरनेकी एक धुंधलीसी किरण तक दिखायी नहीं देती है.

कोरोना कालः

यह एक महामारीवाली आपत्ति है. भारतवासीयोंका यह सौभाग्य है कि केन्द्रमें और अधिकतर राज्योमें  बीजेपी का शासन है. भारतवासीयोंका कमभाग्य भी है कि चार महानगरोंमें बीजेपीका शासन नहीं है. खास करके दिल्ली, मुंबई (महाराष्ट्र), कलकत्ता और चेन्नाई.

दिल्लीका केज्रीवालः

कई विदेश, कोरोनाके संक्रमणसे आहत थे और उन देशोंमें हमारे नागरिक फंसे हुए थे. उनको वापस लाना था. केन्द्र सरकारने उन नागरिकोंको भारत लानेकी व्यवस्था की. और पुर्वोपायकी प्रक्रियाके आधार पर उनको संगरोधनमें (क्वारन्टाईन) कुछ समय के लिये रक्खा.

जब केन्द्रको पता चला कि तबलीघीजमातका महा अधिवेशन दिल्लीमें हो गया है और उस अधिवेशनके सहस्रों लोग विदेशी थे और उनमेंसे कई कोरोना ग्रस्त होनेकी शक्यता थी. उनमेंसे कई इधर उधर हो गये थे. ऐसी स्थिति में केन्द्र सरकारके लिये लॉकडाऊन घोषित करना अनिवार्य हो गया था. २३ मार्च को केन्द्र सरकारने २४ मार्चसे तीन सप्ताहका लॉकडाउन घोषित कर दिया. प्रधान मंत्रीने सभी श्रमजिवीयोंको कहा कि आप जहां हो, वहीं पर ही रहो.

लुट्येन गेंगके दिल्लीके हिरो थे केज्रीवाल. उन्होंने २४ मार्च की रातको ही श्रमजिवीयोंकों उदघोषित करके बताया कि आप लोगोंके लिये आपके राज्यमें परत जानेके लिये  बसें तयार है.

केज्रीवालने न तो कोई राज्य सरकारोंसे चर्चा की, न तो केन्द्र सरकारसे चर्चा की, न तो लेबर कमीश्नरसे कोई पूर्वानुमानके लिये चर्चा की कि, श्रमजीवीयोंकी क्या संख्या हो सकती है! बस ऐसे ही आधी रातको घोषणा कर दी  कुछ बसें रख दी है. आप लोग इन बसोंसे चले जाओ. केज्रीवालका यह आचार, प्रधान मंत्रीकी सूचनासे बिलकुल विपरित ही था और प्रधान मंत्रीकी सूचनाका निरपेक्ष उलंघन था. केज्रीवालको मुख्यमंत्री पदसे  निलंबित करके गिरफ्तार किया जा सकता है, कारावासमें भेजा सकता है और न्यायिक कार्यवाही हो सकती है. किन्तु प्रधान मंत्रीकी प्राथमिकता लोगोंके प्राण बचाना था.

वास्तवमें दो सप्ताहका समय देनेका प्रयोजन यही था कि सभी राज्य आगे क्या करना है उसका आयोजन कैसे करना है, यदि किसीको अपने राज्यमें जाना है तो उसके लिये योजना करना या और भी कोई प्रस्ताव है तो हर राज्य दे सकें.

ये सब बातें प्रधान मंत्रीने राज्योंके मुख्य मंत्रीयों पर छोडा था और प्रधान मंत्री हर सप्ताह मुख्य मंत्रीयोंके साथ ऑन-लाईन चर्चा कर रहे थे. यदि कोई मुख्य मंत्रीको कोई मार्गदर्शन चाहिये तो वह प्रधान मंत्रीसे सूचना भी ले सकता था.

श्रमजिवीयोंकी संख्याका पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है?

(१) घरेलु कामके श्रम जीवीः ये तो स्थानिक लोग ही होते है. वे अपने घरमें या अपनी झोंपडपट्टीमें रहेते है. उनको कहीं जाना होता नहीं है. ये लोग डोमेस्टीक सर्वन्ट कहे जाते है.

(२)  कुशल और अकुशल श्रमजीवीः ये श्रम जीवीमें जो कुशल है वे तो अपने कुटूंब के साथ ही रहेते है. जो अकुशल है उनमेंसे कुछ लोगोंको अपने राज्यमें जाना हो सकता है. ये दोनों प्रकारके श्रमजीवी अधिकतर मार्गके काम, संरचनाके काम, मूलभूत भूमिगत संरचनाके काम करते है. ये काम वे उनके छोटे बडे कोन्ट्राक्टरोंके साथ जूडे हुए होते है. कोन्ट्राक्टर ही उनको भूगतान करता है.

इन श्रमजीवीयोंके कोंन्ट्राक्टरोंको हरेक कामका श्रम-आयुक्तसे अनुज्ञा पत्र लेना पडता है, और इसके लिये हर श्रमजीवीका आधारकर्ड, प्रवर्तमान पता, कायमी पता  और बीमा सुरक्षा कवच, कार्यका स्थल … आदि अनेक विवरण, आलेख, लिखित प्रमाण, देना पडता है. राज्य सरकार चाहे तो एक ही दिन में श्रमजीवीयोंका वर्गीकरण और गन्तव्य स्थानकी योजना बना सकती है. श्रम आयुक्त के पास सभी विवरण होता है. श्रम आयुक्त कोंट्राक्टरोंको सूचना दे सकता है कि श्रमजीवी अधीर न बने.

(३) तीसरे प्रकारके श्रमजीवी ऐसे होते है कि वे छोटे कामके कोंट्रक्टरोंके साथ काम करते है. इन कोंट्राक्टरोंको कामके लिये श्रमआयुक्तसे अनुज्ञापत्र लेनेकी आवश्यकता नहीं होती है. लेकिन हर कोंट्राक्टरको सरकारमें पंजीकरण करवाना पडता है. सरकार इन कोंट्राक्टरोंसे उनके श्रमजीवीयोंका आवश्यक विवरण ले सकता है.

ये सबकुछ ऑन-लाईन हो सकता है और अधिकसे अधिक एक ही सप्ताहमें कहाँ कहाँ कितने श्रमजीवीयोंको किन राज्योंमें कहाँ जाना है उसका डेटाबेज़ बन सकता है.

एक राज्य दुसरे राज्यसे ऑन-लाईन डेटाबेज़का आदानप्रदान करके अधिकसे अधिक उपरोक्त ७ दिन को मिलाके भी, केवल दश दिनमें प्रत्येक श्रमजीवीको उसके गन्तव्यस्थान पर कैसे पहोंचाना उसका आयोजन रेल्वे और राज्यके परिवहन विभाग कर सकते है. इस डीजीटल युगमें यह सब शक्य तो है ही किन्तु सरल भी है.

तो यह सब क्यूँ नहीं हुआ?

राज्यके मुख्यमंत्रीयोंमें और उनके सचिवोंमे आयोजन प्रज्ञाना अभाव है. मुख्य मंत्री और संलग्न सचिव हमेशा कोम्युनीकेशन-गेप रखना चाहते है ताकि वे आयोजनकी अपनी सुविचारित (जानबुज़ कर) रक्खी हुई त्रुटीयोंमें अपना बचाव  कर सकें.

अधिकतर उत्तरदायित्व तो सरकारी सचिवोंका ही है. वे हमेशा नियमावली क्लीष्ट बनानेमें चतूर होते है. और मंत्री तो सामान्यतः  अपने क्षेत्रके अपने जनप्रभावके आधार पर सामान्यतः मंत्री बना हुआ होता है.

सरकारी अधिकारीयोमें अधिकतम अधिकारी सक्षम नहीं होते है. अधिकतर तो चापलुसी और वरिष्ठ अधिकारीयोंके बंदोबस्त (वरिष्ठ अधिकारीयोंके नीजी काम) करनेके कारण उनके प्रिय पात्र रहेते है. सरकारी अधिकारीयों पर काम चलाना अति कठिन है. अधिकसे अधिक उनका स्थानांतरण (तबादला) किया जा सकता है. लेकिन जब कमसे कम ९९ प्रतिशत अधिकारी अक्षम होते है तो विकल्प यही बचता है कि चाहे वे अक्षम हो, उनकी प्रशंसा करते रहो और काम लेते रहो. सरकारी अधिकारीयोंको सुधारना लोहेके चने चबानेके समकक्ष कठिन है. प्रणाली को बदलनेमें १५ वर्ष तो लग ही जायेंगे.

कोंगी ने  केवल मुस्लिम मुल्लाओंको और मुस्लिम नेताओंको ही बिगाडके नहीं रक्खा है. उसने कर्मचारी-अधिकारीयोंको भी बिगाडके रक्खा है. कोंगीयोंका और उनके सांस्कृतिक साथीयोंका  एक अतिविस्तृत और शक्तिमान जालतंत्र है. जिनमें देश और देशके बाहरके सभी देशद्रोही और असामाजिक तत्त्व संमिलित है.

ईश्वरका आभार मानो कि हमारे पास नरेन्द्र मोदी जैसा कुशलनेता, अथाक प्रयत्नशील प्रधानमंत्री है. उनके साथी भी शुद्ध है. ऐसा नहीं होता तो यह कोंगी उनका हाल मोरारजी देसाई और बाजपाई जैसा करती. अडवाणीको २००४ और २००९ के चूनावमें ऐसे दो बार मौका मिला, किन्तु वे सानुकुल परिस्थितियां होने पर भी, सक्षम व्युहरचनाकार  और आर्षदृष्टा  नहीं होनेके कारण बीजेपीको बहुमत नहीं दिलवा सकें.

कोंगी और उसके सांस्कृतिक साथी वाल्मिकी ऋषि तो क्या, एक आम आदमी भी बननेको तयार नहीं है. हाँ वे ऐसा प्रदर्शन अवश्य करेंगे कि वे निस्वार्थ देश प्रेमी है. अफवाएं फैलाना या/और जूठ बोलना उनकी वंशीय प्रकृति है. निम्न दर्शित लींक पर क्लीक करो और देख लो.

युपीके मुख्य मंत्री  श्रमजीवीयों की यातना पर कितने असंवेदनशील है और  कोंगीकी एक शिर्ष नेत्रीने श्रम जीवीयोंकी यातनाओंसे स्वयं कितनी  संवेदनशील और आहत है यह प्रदर्शित करने के लिये युपीके मुख्य मंत्रीको,  १००० बसें भेजनेका प्रस्ताव दे दिया. युपीके मुख्य मंत्रीने उसका सहर्ष स्विकार भी कर लिया और बोला के आप बसोंका रजीस्ट्रेशन नंबर, ड्राईवरोंका नाम और लायसन्स नंबर आदिकी सूचि भेज दो.

अब क्या हुआ?

वह शिर्षनेत्रीने सूचि भेज दी. जब योगीजीने पता किया तो उसमें स्कुटर, रीक्षा, छोटीकार, बडीकार, अवैध नंबर, प्रतिबंधित नंबर, फर्जी नंबर, अलभ्य नंबर … आदि निकले. ये सब राजस्थानसे थे.

इसके अतिरिक्त ये कोंगी नेत्रीने (प्रियंका वाईड्रा) ने कहा कि “हम ये बसें आपके लखनौमें लानेमें असमर्थ है. हमारी बसें दिल्लीमें कबसे लाईनमें खडी है.” ऐसा दिखानेके लिये बसोंकी लंबी लाईन की तस्विर भी भेजी. वह भी फर्जी. जो तस्विर थी, वह तो कुम्भके मेलेकी बसोंकी कतारकी तस्विर थी. युपीके मुख्य मंत्रीने बसें लखनौ को भेजनेकी तो बात ही नहीं की थी.

कमसे कम इस कोंगी नेत्रीको खुदको  हजम हो सके इतना जूठ तो बोलते. “केपीटल टीवी” निम्न दर्शित वीडीयो देखें.

https://www.youtube.com/results?search_query=%23%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F_%E0%A4%98%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE

कोंगी और उनके सांस्कृतिक साथी कैसा फरेब करते है उनका इन्डिया स्पिक्स का यह वीडीयो भी देखें

https://www.youtube.com/watch?v=oCRssuW7ywQ

आप इन सबको सत्य का सन्मान करनेके लिये और आसुरी शक्तियोंके नाश के लिये अवश्य अपने मित्रोंमें प्रसारित करें. यही तो हमारा आपद्‌ धर्म है.

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

कोंगीके प्रमुखने कहा हमारा पक्ष श्रमजीवीयोंके रेलका किराया देगा.

इसके उपर स्मृति ईरानीजीने कहा कि

 श्रमजीवीयोंके लिये  रेलवे ट्रेन चलानेकी घोषणा करनेके समय ही यह सुनिश्चित हो गया था कि ८५ प्रतिशत किराया केन्द्र सरकार देगी और १५ प्रतिशत किराया राज्य सरकार रेल्वेको देगी. इसके बाद कोंगी कहेती है कि किराया हमारा पक्ष देगा, लेकिन किराया बचा ही कहाँ है? यह तो ऐसी बात हुई कि शोलेमें असरानी कहेता है कि आधे पोलीस लोग इधर जाओ, आधे उधर जाओ. जो बचे वे मेरे साथ रहो.

सोनिया गांधीकी बात भी ऐसी ही है. ८५ प्रतिशत किराया केन्द्र देगा, १५ प्रतिशत किराया राज्य देगा. जो बचा वह कोंगी देगा.

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“वीर सावरकर”का कोंगीने “सावरकर” कर दिया यह है उसका पागलपन.

“वीर सावरकर”का कोंगीने “सावरकर” कर दिया यह है उसका पागलपन.

Savarakar

जब हम “कोंगी” बोलते है तो जिनका अभी तक कोंगीके प्रति भ्रम निरसन नहीं हुआ है और अभी भी उसको स्वातंत्र्यके युद्धमें योगदान देनेवाली कोंग्रेस  ही समज़ते, उनके द्वारा प्रचलित “कोंग्रेस” समज़ना है. जो लोग सत्यकी अवहेलना नही कर सकते और लोकतंत्रकी आत्माके अनुसार शब्दकी परिभाषामे मानते है उनके लिये यह कोंग्रेस पक्ष,  “इन्दिरा नहेरु कोंग्रेस” [कोंग्रेस (आई) = कोंगी = (आई.एन.सी.)] पक्ष है.

कोंगीकी अंत्येष्ठी क्रिया सुनिश्चित है.

“पक्ष” हमेशा एक विचार होता है. पक्षके विचारके अनुरुप उसका व्यवहार होता है. यदि कोई पक्षके विचार और आचार में द्यावा-भूमिका  अंतर बन जाता है तब, मूल पक्षकी मृत्यु होती है. कोंग्रेसकी मृत्यु १९५०में हो गयी थी. इसकी चर्चा हमने की है इसलिये हम उसका पूनरावर्तन नहीं करेंगे.

पक्ष कैसा भी हो, जनतंत्रमें जय पराजय तो होती ही रहेती है. किन्तु यदि पक्षके उच्च नेतागण भी आत्ममंथन न करे, तो उसकी अंन्त्येष्ठी सुनिश्चित है.

परिवर्तनशीलता आवकार्य है.

परिवर्तनशीलता अनिवार्य है और आवकार्य भी है. किन्तु यह परिवर्तनशीलता सिद्धांतोमें नहीं, किन्तु आचारकी प्रणालीयोंमें यानी कि, जो ध्येय प्राप्त करना है वह शिघ्रातिशिघ्र कैसे प्राप्त किया जाय? उसके लिये जो उपकरण है उनको कैसे लागु किया जाय? इनकी दिशा, श्रेयके प्रति होनी चाहिये. परिवर्तनशीलता सिद्धांतोसे विरुद्धकी दिशामें नहीं होनी चाहिये.

कोंगीका नैतिक अधःपतनः

नहेरुकालः

नीतिमत्ता वैसे तो सापेक्ष होती है. नहेरुका नाम पक्षके प्रमुखके पद पर किसी भी  प्रांतीय समितिने प्रस्तूत नहीं किया था. किन्तु नहेरु यदि प्रमुखपद न मिले तो वे कोंग्रेसका विभाजन तक करनेके लिये तयार हो गये थे. ऐसा महात्मा गांधीका मानना था. इस कारणसे महात्मा गांधीने सरदार पटेलसे स्वतंत्रता मिलने तक,  कोंग्रेस तूटे नहीं इसका वचन ले लिया था क्योंकि पाकिस्तान बने तो बने किन्तु शेष भारत अखंड रहे वह अत्यंत आवश्यकता.

जनतंत्रमें जनसमूह द्वारा स्थापित पक्ष सर्वोपरि होता है क्यों कि वह एक विचारको प्रस्तूत करता है. जनतंत्रकी केन्द्रीय और विभागीय समितियाँ  पक्षके सदस्योंकी ईच्छाको प्रतिबिंबित करती है. जब नहेरुको ज्ञात हुआ कि किसीने उनके नामका प्रस्ताव नहीं रक्खा है तो उनका नैतिक धर्म था कि वे अपना नाम वापस करें. किन्तु नहेरुने ऐसा नहीं किया. वे अन्यमनस्क चहेरा बनाके गांधीजीके कमरेसे निकल गये.

यह नहेरुका नैतिकताका प्रथम स्खलन या जनतंत्रके मूल्य पर प्रहार  था. तत्‌ पश्चात तो हमे अनेक उदाहरण देखने को मिले. जो नहेरु हमेशा जनतंत्रकी दुहाई दिया करते थे उन्होंने अपने मित्र शेख अब्दुल्लाको खुश रखने के लिये अलोकतांत्रिक प्रणालीसे अनुच्छेद ३७० और ३५ए को संविधानमें सामेल किया था और इससे जो जम्मु-कश्मिर, वैसे तो भारत जैसे जनतांत्रिक राष्ट्रका हिस्सा था, किन्तु वह स्वयं  अजनतांत्रिक बन गया.

आगे देखो. १९५४में जब पाकिस्तानके राष्ट्रपति  इस्कंदर मिर्ज़ाने, भारत और पाकिस्तानका फेडरल युनीयन बनानेका प्रस्ताव रक्खा तो नहेरुने उस प्रस्तावको बिना चर्चा किये, तूच्छता पूर्वक नकार दिया. उन्होंने कहा कि, भारत तो एक जनतांत्रिक देश है. एक जनतांत्रिक देशका, एक सरमुखत्यारीवाले देशके साथ युनीयन नहीं बन सकता. और उसी नहेरुने अनुच्छेद ३७० और अनुच्छेद ३५ए जैसा प्रावधान संविधानमें असंविधानिक तरिकेसे घुसाए दिये थे.

जन तंत्र चलानेमें क्षति होना संभव है. लेकिन यदि कोई आपको सचेत करे और फिर भी उसको आप न माने तो उस क्षतिको क्षति नहीं माना जाता, किन्तु उसको अपराध माना जाता है.

नहेरुने तीबट पर चीनका प्रभूत्त्व माना वह एक अपराध था. वैसे तो नहेरुका यह आचार और अपराध विवादास्पद नहीं है क्योंकि उसके लिखित प्रमाण है.

चीनकी सेना भारतीय सीमामें अतिक्रमण किया करें और संसदमें नहेरु उसको नकारते रहे यह भी एक अपराध था. इतना ही नहीं सीमाकी सुरक्षाको सातत्यतासे अवहेलना करे, वह भी एक अपराध है. नहेरुके ऐसे तो कई अपराध है.

इन्दिरा कालः

इन्दिरा गांधीने तो प्रत्येक क्षेत्रमें अपराध ही अपराध किये है. इन अपराधों पर तो महाभारतसे भी बडी पुस्तकें लिखी जा सकती है. १९७१में भारतीयसेनाने जो अभूतपूर्व  विजय पायी थी उसको इन्दिराने सिमला करार के अंतर्गत घोर पराजयमें परिवर्तित कर दिया था. वह एक घोर अपराध था. इतना ही नहीं लेकिन जो पी.ओ.के. की भूमि, सेनाने  प्राप्त की थी उसको भी   पाकिस्तानको वापस कर दी थी, यह भारतीय संविधानके विरुद्ध था. इन्दिरा गांधीने १९७१में जब तक पाकिस्तानने भारतकी हवाई-पट्टीयों पर आक्रमण नहीं किया तब तक आक्रमणका कोई आदेश नहीं दिया था. भारतीय सेनाके पास, पाकिस्तानके उपर प्रत्याघाती आक्रमण करनेके अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं था. यह बात कई स्वयंप्रमाणित विद्वान लोग समज़ नहीं पाते है.

राजिव युगः

राजिव गांधीका पीएम-पदको स्विकारना ही उसका नैतिक अधःपतन था. उसकी अनैतिकताका एक और प्रमाण उसके शासनकालमें सिद्ध हो गया. बोफोर्स घोटालेमें स्वीस-शासन शिघ्रकार्यवाही न करें ऐसी चीठ्ठी लेके सुरक्षा मंत्रीको स्वीट्झर्लेन्ड भेजा था. यही उसकी अनीतिमत्ताको सिद्ध करती है.

सोनिया-राहुल युगः

इसके उपर चर्चाकी कोई आवश्यकता ही नहीं है. ये लोग अपने साथीयोंके साथ जमानत पर है. जिस पक्षके शिर्ष नेतागण ही जमानत पर हो उसका क्या कहेना?

कोंगीका पागलपनः

पागलपन के लक्षण क्या है?

प्रथम हमे समज़ना आवश्यक है कि पागलपन क्या है.

पागलपन को संस्कृतमें उन्माद कहेते है. उन्मादका अर्थ है अप्राकृतिक आचरण.

अप्राकृतिक आचारण. यानी कि छोटी बातको बडी समज़ना और गुस्सा करना, असंदर्भतासे ही शोर मचाना, कपडोंका खयाल न करना, अपनेको ही हानि करना, गुस्सेमें ही रहेना, हर बात पे गुस्सा करना …. ये सब उन्मादके लक्षण है.

कोंगी भी ऐसे ही उम्नादमें मस्त है.

अनुच्छेद ३७० और ३५ए को रद करने की मोदी सरकारकी क्रिया पर भी कोंगीयोंका प्रतिभाव कुछ पागल जैसा ही रहा है.    

यदि कश्मिरमें अशांति हो जाती तो भी कोंगीनेतागण अपना उन्माद दिखाते. कश्मिरमें अशांति नहीं है तो भी वे कश्मिरीयत और जनतंत्र पर कुठराघात है ऐसा बोलते रहेते है. अरे भाई १९४४से कश्मिरमें आये हिन्दुओंको मताधिकार न देना, उनको उनकी जातिके आधार पर पहेचानना और उसीके आधार पर उनकी योग्यताको नकारके उनसे व्यवसायसे वंचित रखना और वह भी तीन तीन पीढी तक ऐसा करना यह कौनसी मानवता है? कोंगी और उसके सहयोगी दल इस बिन्दुपर चूप ही रहेते है.

खूनकी नदियाँ बहेगी

जो नेता लोग कश्मिरमें अनुच्छेद ३७० और ३५ए को हटाने पर खूनकी नदियाँ बहानेकी बातें करते थे और पाकिस्तानसे मिलजानेकी धमकी देते थे, उनको तो सरकार हाउस एरेस्ट करेगी ही. ये कोंगी और उसके सांस्कृतिक सहयोगी लोग जनतंत्रकी बात करने के काबिल ही नहीं है. यही लोग थे जो कश्मिरके हिन्दुओंकी कत्लेआममें परोक्ष और प्रत्यक्ष रुपसे शरिक थे. उनको तो मोदीने कारावास नहीं भेजा, इस बात पर कोंगीयोंको और उनके सहयोगीयोंको मोदीका  शुक्रिया अदा करना चाहिये.

सरदार पटेल वैसे तो नहेरुसे अधिक कदावर नेता थे. उनका स्वातंत्र्यकी लडाईमें और देशको अखंडित बनानेमें अधिक योगदान था. नहेरुने सरदार पटेलके योगदानको महत्त्व दिया नहीं. नहेरुवंशके शासनकालमें नहेरुवीयन फरजंदोंके नाम पर हजारों भूमि-चिन्ह (लेन्डमार्क), योजनाएं, पुरस्कार, संरचनाएं बनाए गयें. लेकिन सरदार पटेल के नाम पर क्या है वह ढूंढने पर भी मिलता नहीं है.

अब मोदी सराकार सरदार पटेलको उनके योगदानका अधिमूल्यन कर रही है तो कोंगी लोग मोदीकी कटू आलोचना कर रहे है. कोंगीयोंको शर्मसे डूब मरना चाहिये.

महात्मा गांधी तो नहेरुके लिये एक मत बटोरनेका उपकरण था. कोंगीयोंके लिये जब मत बटोरनेका परिबल और गांधीवादका परिबल आमने सामने सामने आये तब उन्होंने मत बटोरनेवाले परिबलको ही आलिंगन दिया है. शराब बंदी, जनतंत्रकी सुरक्षा, नीतिमत्ता, राष्ट्रीय अस्मिताकी सुरक्षा, गौवधबंदी … आदिको नकारने वाली या उनको अप्रभावी करनेवाली कोंगी ही रही है.

कोंगी की अपेक्षा नरेन्द्र मोदी की सरकार, गांधी विचार को अमली बनानेमें अधिक कष्ट कर रही है. कोंगीको यह पसंद नहीं.

कोंगी कहेता है

गरीबोंके बेंक खाते खोलनेसे गरीबी नष्ट नहीं होनेवाली है,

संडास बनानेसे लोगोंके पेट नहीं भरता,

स्वच्छता लाने से मूल्यवृद्धि का दर कम नहीं होता,

हेलमेट पहननेसे भी अकस्मात तो होते ही है,

कोंगी सरकारके लिये तो खूलेमें संडास जाना समस्या ही नहीं थी,

कोंगी सरकारके लिये तो एक के बदले दूसरेके हाथमें सरकारी मदद पहूंच जाय वह समस्या ही नहीं थी,

कोंगी सरकारके लिये तो अस्वच्छता समस्या ही नहीं थी,

कोंगीके सरकारके लिये तो कश्मिरी हिन्दुओंका कत्लेआम, हिन्दु औरतों पर अत्याचार, हिन्दुओंका लाखोंकी संख्यामें बेघर होना, कश्मिरी हिन्दुओंको मताधिकार एवं मानव अधिकारसे से वंचित होना समस्या ही नहीं थी, दशकों से भी अधिक कश्मिरी हिन्दु निराश्रित रहे, ये कोंगी और उनके सहयोगी सरकारोंके लिये समस्या ही नहीं थी, अमरनाथ यात्रीयोंपर आतंकी हमला हो जाय यह कोंगी और उसकी सहयोगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी, उनके हिसाबसे उनके शासनकालमें  तो कश्मिरमें शांति और खुशहाली थी,

आतंक वादमें हजारो लोग मरे, वह कोंगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी,

करोडों बंग्लादेशी और पाकिस्तानी आतंकवादीयोंकी घुसपैठ, कोंगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी,

कोंगी और उनके सहयोगीयोंके लिये भारतमें विभाजनवादी शक्तियां बलवत्तर बनें यही एजन्डा है. बीजेपीको कोमवादी कैसे घोषित करें, इस पर कोंगी अपना सर फोड रही है?

मध्य प्रदेशकी कोंगी सरकारने वीर सावरकरके नाममेंसे वीर हटा दिया.

वीर सावरकर आर एस एस वादी था. इस लिये वह गांधीजीकी हत्याके लिये जीम्मेवार था. वैसे तो वीर सावरकर उस आरोपसे बरी हो गये थे. और गोडसे तो आरएसएसका सदस्य भी नहीं था. न तो आर.एस.एस. का गांधीजीको मारनेका कोई एजन्डा था, न तो हिन्दुमहासभाका ऐसा कोई एजन्डा था. अंग्रेज सरकारने उसको कालापानीकी सज़ा दी थी. वीर सावरकरने कभी माफी नहीं मांगी. सावरकरने तो एक आवेदन पत्र दिया था कि वह माफी मांग सकता है यदि अंग्रेज सरकार अन्य स्वातंत्र्य सैनानीयोंको छोड दें और केवल अपने को ही कैदमें रक्खे. कालापानीकी सजा एक बेसुमार पीडादायक मौतके समान थी. कोंगीयोंको ऐसी मौत मिलना आवश्यक है.

वीर सावरकर महात्मा गांधीका हत्यारा है क्यों कि उसका आर.एस.एस.से संबंध था. या तो हिन्दुमहासभासे संबंध था. यदि यही कारण है तो कोंगी आतंकवादी है, क्यों कि गुजरातके दंगोंका मास्टर माईन्ड कोंग्रेससे संलग्न था. कोंगी नीतिमताहीन है क्यों कि उसके कई नेता जमानत पर है, कोगीके तो प्रत्येक नेता कहीं न कहीं दुराचारमे लिप्त है. क्या कोंगीको कालापानीकी सज़ा नहीं देना चाहिये. चाहे केस कभी भी चला लो.

आज अंग्रेजोंका न्यायालय भारत सरकारसे पूछता है कि यदि युके, ९००० करोड रुपयेका गफला करनेवाला माल्याका प्रत्यार्पण करें तो उसको कारावासमें कैसी सुविधाएं होगी? कोंगीयोंने दंभ की शिक्षा अंग्रेजोंसे ली है.

दो कौडीके राजिव गांधी और तीन कौडीकी इन्दिरा नहेरु-गांधीको, बे-जिज़क भारत रत्न देनेवाली कोंगीको वीर सावरकरको भारत रत्नका पुरष्कार मिले उसका विरोध है. यह भी एक विधिकी वक्रता है कि हमारे एक वार्धक्यसे पीडित मूर्धन्य का कोंगीको अनुमोदन है. यह एक दुर्भाग्य है.

वीर सावरकर एक श्रेष्ठ स्वातंत्र्य सेनानी थे. उनका त्याग और उनकी पीडा अकल्पनीय है. सावरकरकी महानताकी उपेक्षा सीयासती कारणोंके फर्जी आधार पर नहीं की जा सकती.

कोंगीके कई नेतागण पर न्यायालयमें मामला दर्ज है. उनको कठोरसे कठोर यानी कि, कालापानीकी १५ सालकी सज़ा करो फिर उनको पता चलेगा कि वे स्वयं कितने डरपोक है.

कोंगी लोग कितने निम्न कोटीके है कि वे सावरकरका त्याग और पीडा समज़ना ही नहीं चाहते. ऐसी उनकी मानसिकता दंडनीय बननी चाहिये है.  

हमारे उक्त मूर्धन्यने उसमें जातिवादी (वर्णवादी तथा कथित समीकरणोंका सियासती आधार लिया है)

“महाराष्ट्रमें सभी ब्राह्मण गांधीजी विरोधी थे और सभी मराठा (क्षत्रीय) कोंग्रेसी थे. पेश्वा ब्राह्मण थे और पेश्वाओंने मराठाओंसे शासन ले लिया था इसलिये मराठा, ब्राह्मणोंके विरोधी थे. अतः मराठी ब्राह्मण गांधीके भी विरोधी थे. विनोबा भावे और गोखले अपवाद थे. १९६०के बाद कोई भी ब्राह्मण महाराष्ट्रमें मुख्य मंत्री नहीं बन सका. साध्यम्‌ ईति सिद्धम्‌” मूर्धन्य उवाच

यदि यह सत्य है तो १९४७-१९६०के दशकमें ब्राह्मण मुख्य मंत्री कैसे बन पाये. वास्तवमें घाव तो उस समय ताज़ा था?

१८५७के संग्राममें हिन्दु और मुस्लिम दोनों सहयोग सहकारसे संमिलित हो कर बिना कटूता रखके अंग्रेजोंके सामने लड सकते थे. उसी प्रकार ब्राह्मण क्षत्रीयोंके बीच भी कडवाहट तो रह नहीं सकती. औरंगझेब के अनेक अत्याचार होते हुए भी शिवाजीकी सेनामें मुस्लिम सेनानी हो सकते थे तो मराठा और ब्राह्मणमें संघर्ष इतना जलद तो हो नहीं सकता.

“लेकिन हम वीर सावरकरको नीचा दिखाना चाह्ते है इसलिये हम इस ब्राह्मण क्षत्रीयके भेदको उजागर करना चाहते है”

स्वातंत्र्य सेनानीयोंके रास्ते भीन्न हो सकते थे. लेकिन कोंग्रेस और हिंसावादी सेनानीयोंमें एक अलिखित सहमति थी कि एक दुसरेके मार्गमें अवरोध उत्पन्न नहीं करना और कटूता नहीं रखना. यह बात उस समयके नेताओंको सुविदित थी. गांधीजी, भगतसिंघ, सावरकर, सुभाष, हेगडेवार, स्यामाप्रसाद मुखर्जी … आदि सबको अन्योन्य अत्यंत आदर था. अरे भाई हमारे अहमदाबादके महान गांधीवादी कृष्णवदन जोषी स्वयं भूगर्भवादी थे. हिंसा-अहिंसाके बीचमें कोई सुक्ष्म विभाजन रेखा नहीं थी. सारी जनता अपना योगदान देनेको उत्सुक थी.

हाँ जी, साम्यवादीयोंका कोई ठीकाना नहीं था. ये साम्यवादी लोग रुसके समर्थक रहे और अंग्रेजके विरोधी रहे. जैसे ही हीटलरने रुस पर हमला किया तो वे अंग्रेज  सरकारके समर्थक बन गये. यही तो साम्यवादीयोंकी पहेचान है. और यही पहेचान कोंगीयोंकी भी है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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Nehruvian withdraws whole bank

Nehruvian withdraws whole bank

ईन्टरनेट वेबसाईट और सोसीयल नेट वर्कींग पर सरकार क्या कर सकती है और क्या करेगी?

सरकार और वह भी नहेरुवीयन कोंग्रेस सरकार और उसके सहयोगी पक्ष कुछ भी कर सकते है.

आप कहेंगे कि सहयोगी पक्ष क्यों ऐसे काले और जनतंत्र के खिलाफ कार्यवाहीमें कोंग्रेस को समर्थन देगा? तो जवाब है, नहेरुवीयन कोंग्रेसको समर्थन करने वाले तभी उसको समर्थन कर सकते हैं जब उनको नहेरुवीयन कोंग्रेसकी जो आततायी करतूतें इतिहासिके पृष्ठों पर देशके लिये एक कालीमा के रुपमें प्रस्थापित है और उनको ज्ञात भी है तो भी वे यह नहेरुवीय कोंग्रेसका समर्थन करते है, उसका मतलब यही है कि इन पक्षोंको भी ऐसे कर्मोंसे कोई छोछ नहीं है. और आप देख सकते हैं कि मुलायम, माया, ममता करुणा, शरद, लालु, अजितसिंघ और  साम्यवादी जैसे लोंगोका इतिहास और कार्य शैली कैसी है?

मुलायम सिंह वोटबेंक को धर्म के नाम से आगे बढाना चाहते है. मुलायम को मुल्ला मुलायम क्यों कहते थे इसबातके लिये आप कोई भैया जि से ही पूछीये.

मायावतीका संस्कार ईन्दीरा गांधी जैसा है वह सत्ताके लिये कोई भी हद तक जा सकती है.और मायावतीके पास सिद्धांतोका संपूर्ण अभाव है. कल तक वह कहती थी कि “तिलक तराजु और तलवार इसको मारो जूते चार.” अब वह कहती है “ये हाथी नहीं गणेश है” चलो इसको तो हम यह समझकर भूल सकते हैं कि उसको लगा कि सबको साथ लेके चलना है. उसको भी ईन्दीरा गांधी की तरह अपने गुरु-पूर्वजोंकी  प्रतिमाएं स्थापित करके इतिहासमें जनता के पैसोंसे अमर होना है. बाजपाई सरकारको क्षुल्लक बातोंसे अयोग्य दबाव लाके समर्थन वापस लेनेकी बात उठाती थी. मायावतीके दोहरे मापदंड है. खुदके लिये और अन्य लोगोंके लिये.

ममता बेनर्जीने बाजपाई सरकारको समर्थन दिया था. लेकिन उसका वर्तन तो मायावतीसे भी बढकर था. जिसके तडमें लड्डु उसके तडमें हम. कहा जाता है कि उसने माओवादीयोंके साथ और नक्षलवादीयोंके साथ प्रच्छन्न समर्थन गत विधान सभा चूनावमें लिया था. जो लोग बाजपायी को समर्थन करे और जब बीजेपी को बहुमत न मिले तो उसके विरोंधी और लोकशाही मूल्योंका विद्धंश के लिये कुख्यात पार्टी (नहेरुवीयन कोंग्रेस) का समर्थन करें उसका भला कैसे विश्वास किया जा सकता है. जो व्यक्ति सर्वोदय नेता लोकमान्य जयप्रकाश नारायणकी जीप पर खडी होकर नृत्य करती है, और समय आने पर उसी जयप्रकाश नारायण को मृत्युके मूखमें ढकेलने वाली नहेरुवीयन कोंग्रेस सरकारका भी समर्थन कर सकती है, उसके उपर तो दिमागकी बिमारी वाले विश्वास कर सकते है.

करुणानीधिका किस्सा तो जग प्रसिद्ध है.और ईसके वर्णन की कोई आवश्यकता नहीं है.

शरद पवार वैसे तो पहेले कोंग्रेस (ओ) में थे. फिर यशवंतराव चवाण के साथ नहेरुवीय कोंग्रेसमें गये. कटोकटी (इमरजेन्सी) मे वह नहेरुवीयन कोंग्रेसके साथी रहे. १९७७में वे अलग हुए. फिर पता नहीं कितने दलबदल किये. कहा जाता है कि इनके बारेमें दाउदसे अच्छा कोई नहीं जानता. अगर आप के पास फर्जी करेन्सी नोट है और अगर यह बात सिद्ध हो गयी तो वह करेन्सी नोटकी किमत शून्य हो जाती है. अरबों रुपये के फर्जी स्टेम्प पेपर

बने थे और वे बिल्डरोंको और अन्योंको वितरित हुए थे. सरकार पने रिकोर्डसे पता लगवा सकती है कि, ये फर्जी स्टेम्प पेपर कहां कहां उपयोगमें आये. इतनी तो गुंजाइश तो सरकारमें होनी ही चाहिये. लेकिन ऐसा क्यों नहीं होता है? फर्जी स्टेम्प पेपरका मूल्य शून्य क्यों नहीं बनजाता है? यह सब कमाल किसकी है?

लालुजिने अपनी सरकार एसी चलाई जो ढोरोंकी खास भी ढंगसे वितरण न कर पायी. वास्तवमें सरकारी अफसरोंका और खासकरके उत्तरभारतमें तो बांये हाथकी सरकारी अफसरोंकी कमाई एक विशिष्ठ योग्यता मानी जाती है. और जब ये सरकारी अफसरोंको पता चलता है कि उनका मंत्रीवर्य भी अपन जैसा ही है तब तो उनकी सीमा ओर विस्तृत हो जाती है.

अजितसिंघके पिताश्री चरणसिंहको इन्दिरागांधीने विश्वास दिलाया था कि उसकी पार्टी चरण सिंह को सहाकार करेगी और दोनोंने मिलकर मोरारजी देसाई की जनतापार्टीकी सरकारको लघुमतिमें लादी थी. बादमें इन्दीरा गांधीने चरणसिंहका विश्वासघात करके उनको सहाकर नहीं दिया था. और चरण सिंहको मूंहकी खानी पडी थी. तो भी उनका यह पूत्र अजितसिंह इस विश्वास घातको भूल कर सिर्फ सत्तामें भागके लिये उसी ईन्दीराई नहेरुवीयन कोंग्रेसके साथ गठबंधनमें है. इससे ज्यादा पिताजीकी नालेशी क्या हो सकती है? और ऐसे “प्रहारजनिता व्यथाको” गर्दभकी तरह भूल जाने वालेका क्या विश्वास कर सकते है?

अगर नहेरु की पूत्री सीनीयर न होने पर भी भारतकी प्रधानमंत्री बन सकती है तो लालुप्रसाद यादव की पत्नी क्यों मुख्य मंत्री बन न सके? अगर नहेरुवीयन कोंग्रेसके एक प्रधान मंत्री की एक पुत्रवधू कोमन समान मंचपर आके विपक्ष के कोई नेता के साथ चर्चा नहीं कर सकती और समाचार माध्यम पूत्रवधूमें कोइ अपूर्णता और टिकात्मकता देखना नहीं चाहते तो  लालुजिकी पत्नी को भी समान मंचपर गोष्टि करना कैसे जरुरी है? साध्यम इति सिद्धम्‌. समाचारमाध्यमके मालिकोंके लिये और उनके कटार मूर्धन्योंके लिये तो “तेरी बी चूप और मेरी बी चूप हो गई”. मीडीया बिकाउ है इसका इससे उत्कृष्ट उदाहरण क्या हो सकता है?

साम्यवादीयोंका कोई देश और धर्म नहीं होता. जनताको उल्लु बनानेके लिये उसको आघात देते रहो और जनताको गुमराह करते करते अपना शासन करते रहो. पश्चिम बंगालमें तीन दसक तक साम्यवादी शासन रहा. क्या पश्चिम बंगालमेंसे गरीबी हट गई? क्यां वहां पर आदमीसे खिंचीजानेवाली रीक्षाके स्थान पर सीएनजीसे चलने वाली रीक्षा आ गई या दी गई? हरि हरि करो. ऐसा कुछ हुआ नहीं. सीएनजी क्या !! सायकल रीक्षा भी नहीं आयी.

अहमदाबादमें एक सप्ताहमें ही नरेन्द्र मोदीने सभी पेट्रोलकी रीक्षाओंको सीएनजी रीक्षामें परिवर्तित करदीया था. अहमदाबादमें १९५१के बाद सायकल रीक्षा ही खतम हो गई. १९५२से अहमदाबादमें ऑटोरीक्षा ही है. जो नरेन्द्रमोदीने एक सप्ताहमें किया वह नहेरुवीयन कोंग्रेस और साम्यवादी पक्ष साठ सालमें भी नहीं कर पाये.

नहेरुवीयन कोंग्रेस और साम्यवादीयोंमें क्या फर्क है? खास कोई नहीं. जो निघृष्ट कार्य नहेरुवीयन कोंग्रेस खुदके उपर आपत्ति आने पर विरोधीयों और जनताके उपर करती है वह कार्य साम्यवादी लोग हर हालतमें करते है.

Media wants to make a paper tigress

Media wants to make a paper tigress

कोंग्रेसके उपर आपत्ति आयी तो पैसे के लिये बेंकोका राष्ट्रीयकरण किया, नैपूण्य के स्थानपर युनीयनबाजी को प्रोत्साहन दिया. अन्याय और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने वाले विरोधियोंको अनियत कालके लिये कारावासमें डालदिया, समाचार माध्यमोंपर सेन्सरशीप लगा दी, यहां तक कि, अगर कोई केसमें उच्च न्यायालयमें सरकारकी पराजय हूई तो ऐसे सरकारी पराजयके समाचार पर भी सेन्सरशीप रही. अपनवालोंको लूटका अलिखित स्वातंत्र्य दे दिया. ऐसे तो कई कूकर्म इमर्जेन्सीमें हूए. यह साम्यवादी पक्ष तो चाहता था कि, इमर्जेन्सीके अंतर्गत नहेरुवीयन कोंग्रेस साम्यवादी पक्षमें विलिन हो जाय या तो संपूर्ण साम्यवादी तौर तरिके अपनाके एक नये साम्यवाद स्थापनेकी क्रांतिकारी कदम उठावे. लेकिन साम्यवादी लोग यह समझ नहीं पाये के कि भारतमें लोकशाही विचारधारा और सुसुप्त जनशक्ति असाधारण और गहरी थी. नहेरुवीयन कोंग्रेसको अपने सर्वोच्च नेताके कारण मूंहकी खानी पडी तो भी यह नहेरुवीयन कोंग्रेस ने कोई शिख नहीं ली. वह आज भी विरोधियोंको येनकेन प्रकारेण फर्जी किस्से बनानेमें व्यस्त रहेती है. और खुदके सच्चे किस्सेके बारेमें मौन रहेती है और समाचारमाध्यम भी इन पर मौन रहे वैसा कारोबार करती है.

VOTE FOR MOMMY

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ऐसे समाचर माध्यमोंको सेन्सरशीपकी जरुरत भी क्या है? पैसे फेंको और जो करवाना हो वह करवा लो, जो लिखवाना हो, वह लिखवा लो, जो कटवाना हो वह कटवालो. जिनको यह नहेरुवीयन कोंग्रेसवाले झुकवाना चाहते हैं वे तो साष्टांग दंडवत प्रणाम करनेके लिये भी तैयार है.

नहेरुवीयन कोंग्रेस अब क्या कर सकती है? वह विरोधीयों के उपर फर्जी केस बना सकती है. जैसा उसने वी.पी. सिंह के उपर सेन्ट कीट के गैरकानुनी एकाउन्ट केस का किया था.

केजरीवाल, किरन बेदी, प्रशांत भूषण, बाबा रामदेव जैसे लोगपर भी सरसव जैसे दोषोंको पहाड जैसे बताके कार्यवाही कर रही है और समाचारपत्रोमें उनको बदनाम करवा रही है.

लेकिन आमजनताकी आवाज जो ईन्टर्नेटके जरिये चल रही है उसको बंद कैसे करें इस समस्या पर नहेरुवीयन कोंग्रेस अपना ध्यान केंद्रित कर रही है. जनमाहिति अधिकारको तो उसने नष्टप्राय कर दिया है. कैसे? जो भी कोई जनमाहिति अधिकारी होते हैं वे सबके सब तो वही विभागसे संलग्न होते है. जो हमेशा विलंब नीति अपनाके बाद कोई न कोई बहाना बनाके माहितिको टालनेका प्रयास करते है. जब आप माहिति कमिश्नरके पास पहोंचते है तब कमिश्नरोंकी नियुक्ति पर्याप्त और अपूर्ण होने के कारण केसोंका ढेर पडा होता है. जैसे न्यायमें देरी वह न्याय का इन्कार के बराबर है, वैसे भी माहिति देनेमें अपार विलंब भी माहिति न देनेके बराबर ही हो जाता है.

मैं दाउदका नमक खात हूं

मैं दाउदका नमक खात हूं

ऐसा ही अब जनसामान्य जो चर्चाप्रिय है और भ्रष्टाचारके विरुद्धमें अपना स्वर उंचा करते है, और वह भी ईन्टर्नेट माध्यम के द्वारा तो यह नहेरुवंशी कोंग्रेस इनलोंगोंके उपर आक्रमण के लिये तैयार है.

नहेरुवीयन कोंग्रेस कैसे तैयार है?

जो भी भारतीय स्थानिक वेबसाईट है वे सब तो समाचार माध्यमोंकी तरह व्यंढ ही है.

इनके लिये व्यंढ शब्दका उपयोग करना भी व्यंढ लोगोंका अपमान करनेके बराबर है. कारण यह है कि व्यंढ लोग तो  सिर्फ प्रजननके लिये ही व्यंढ है. इन लोगोंमे शूरविरता और देशप्रेमकी कमी होना जरुरी नहीं है.

लेकिन ये भारतस्थ वेबसाइट वाले तो डरपोक और बीना प्रतिकार किये आत्मसमर्पण करनेमें प्रथमकोटीके है. ये लोग समाचार माध्यमोसे कोइ अलग मनोदशा रखनेवाले नहीं है.

तो यह वेब साईट पर आक्रमण करवाना कौन चाहता है? कौन करवायेगा? और कैसे करवायेगा?

नहेरुवंशवादी कोंग्रेसको वेबसाईटकी स्वतंत्रता और पसंद नहीं है. क्योंकि वेबसाईट के सदस्य नहेरुवीयन कोंग्रेसके तथा कथित कारनामे पर आपसमें चर्चा करते है और इससे नहेरुवीयन कोंग्रेसकी कमीयां बाहर आती है. नहेरुवीयन कोंग्रेसको अपनी कमीयोंको दूरकरना चाहती नहीं है. क्योंकि अगर दूर करेगी तो देशकी उन्नति हो जायेगी और देशकी उन्नति का मतलब है लोग पढे लिखे और समझदार हो जायेंगे तो नहेरुवीयन कोंग्रेसकी असलियतको पहचान जायेंगे तो नहेरुवीयन कोंग्रेसको सत्तासे हटा देंगे. अगर नहेरुवीयन कोंग्रेस सत्तासे हट जायेगी तो जो अन्य सरकार आयेगी वो उसके उपर न्यायिक कार्यवाही करेगी. अगर नयी सरकार, नहेरुवीयन कोंग्रेसके सदस्योंपर  न्यायिक कार्यवाही करेगी तो वे सभी नेतागणकी चूनावके लिये योग्यता नष्ट हो जायेगी अन्तमें उनको जेल जाना पडेगा. इतना ही नहीं लेकिन ये नहेरुवीयन फरजंदोने जनताके पैसोंसे जो बनी इमारतें और योजनाओंका नाम खुदके नामसे जोडा है, वे सब हट जायेगा. उनके बूत हट जायेंगे और उनके सभी अव्वल नंबरके नेताओंका नाम दूर्योधन, शकूनी, शिशुपाल, मंथरा, आदिके क्रममें आजायेगा. यह बात तो छोडो लेकिन उनको अपने रक्त-काला धनसे हाथ धोना पडेगा.

Only left hand drive

Only left hand drive

इसीलिये नहेरुवीयन कोंग्रेस वेबसाईट की स्वतंत्रता पर अपना प्रभाव लाना चाह्ती है. लेकिन इसमें नहेरुवीयन कोंग्रेसको मदद कौन कर सकता है?

नहेरुवीयन कोंग्रेसको उसके साथीपक्ष मदद कर सकते है. क्योंकि नहेरुवीयन कोंग्रेसके साथी पक्षकी मनोवृत्तियां और चरित्र भी नहेरुवीयन कोंग्रेस की मनोवृत्तियां और चरित्रके समकक्ष हि है. अगर नहेरुवीयन कोंग्रेस चूनावमें हार भी गई तो ये पक्ष नहेरुवीयन कोंग्रेसके सदस्योंका रक्षण करनेमें अपना दिलसे योगदान करेंगे क्योंकि नहेरुवीयन कोंग्रेसने भी समय समय पर इन पक्षोंके सदस्योंकी रक्षा की है.

नहेरुवीयन कोंग्रेस वेबसाइट पर अपना प्रभाव डालने के लिये किसका सहारा लेगी?

नहेरुवीयन कोंग्रेस ये काम पुलीस डीपार्टमेन्टके द्वारा करवायेगी. क्योंकि यह डिपार्टमेन्ट हो एक ऐसा डिपार्टमेन्ट है जो हमेशा गलत काम करनेमें प्रथम क्रम में रहेता है. जो डिपार्टमेन्ट फर्जी एनकाउन्टर करता है वह क्या क्या नहीं कर सकता!!

वह आपके पेजको हैक करसकता है. वह आपके पेजपर कुछभी आपत्ति जनक लिखके आपके पेज को और आपको बदनाम करके आपके पेजको सेन्सर करके उसको नष्ट कर सकता है.

ऐसा अगर न भी करें, तो भी आपके पेज को बेवजह ही नष्ट कर किया जा सकता है. वजह यही बतायेगा कि आपने नहेरुवीयन कोंग्रेसके खिलाब बेबुनियाद लिखा है और इसलिये आपका पेज नष्ट किया गया है. और यह पता लगानेके लिये भी आपको महिनों तक वेबसाईट के साथ लिखावट करनी पडेगी तब कहीं यह वेबसाईटवाला आपको बतायेगा कि पूलिसकी सूचना पर उसने आपका पेज नष्ट किया है. फिर आपको पूलिस-डिपार्टमेन्टसे “जन माहिति अधिकार”का उपयोग करके और उसके बाद न्यायालयमें जाके अपने हक्क के लिये लडना होगा. इसमें आपका कमसे कम एक साल चला जायगा. अगर आपके पास पैसे है तो ऐसे वेबसाईटसे और सरकारसे नुकशान वसुली करवा पायेंगे. लेकिन ऐसा करनेमें आपको सिर्फ यह काम के लिये हि हाथ धोके पीछे पडना पडेगा.

नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके साथी पक्ष चाहतें है कि जनता यथावत ही रहे. सबकुछ यथावत ही रहे ताकि वे लोगभी अपना काम यथावत ही कर सके और अपनी बहत्तर पेढीयोंका उद्धार करसके.

वे यह नहीं चाहते हैं कि आप लोग अपने मित्रोंके साथ माहिति और विचारोंका आदानप्रदान करे भ्रष्टाचार और असत्य के सामने आवाज उठानेके लिये कोई योजना बनावे.

ये नहेरुवीयन कोंग्रेसके सदस्य खुद कुछभी अनापसनाप बोलसक्ते हैं. उनके उपर कोइ पाबंदी नहीं. उनके पक्षीय महामंत्री बेबुनियाद आरोप लगा सकते है, और सरकारी प्रसार माध्यमभी उसका खुलकर प्रसारण करेंगे. उसमें इस नहेरुवीयन कोंग्रेसको कोई कठिनाई और आपत्ति या बेइमानी दिखाई नहीं देती. लेकिन अगर आप रामराज्यकी बात करेंगे तो उनको आपत्ति होगी और आपका वेबसाईट परका पेज नष्ट होगा.

वैसे तो लोकतंत्रमें आप आपके मित्रोंके साथ कुछभी विचार विनिमय कर सकते है. लेकिन नहेरुवीयन कोंग्रेस एक दंभी, स्वकेन्द्री और आपखुद चरित्र और संस्कार होने के कारण आपके अधिकार पर कोई भी आघात कर सकती है. और ये कमीना पोलीस तंत्र ये नहेरुवीयन कोंग्रेसके आदेशोंका पालन करने के बारेमें दिमागसे अंध है और अगर नहेरुवीयन कोंग्रेस उसको कहेगी कि “हमारे आगे झुको” तो यह पोलीस तंत्र “साष्टांग दंडवत प्रणाम” करने लगेगा. जो खुद भ्रष्ट और नीतिहीन है उसकी करोडराज्जु होती ही नहीं है.

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