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कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता – ३

कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता – ३

गांधीका खूनी कोंगी है

शाहीन बाग पदर्शनकारीयोंका संचालन करनेवाली गेंग है वह अपनेको महात्मा गांधीवादी समज़ती है. कोंगी लोग और उनके सांस्कृतिक समर्थक भी यही समज़ते है.. इन समर्थकोमें समाचार माध्यम और उनके कटारलेखकगण ( कोलमीस्ट्स) भी आ जाते है.

ये लोग कहते है, “आपको प्रदर्शन करना है? क्या लोक शाही अधिकृत मार्गसे प्रदर्शन करना  है? तो गांधीका नाम लो … गांधीका फोटो अपने हाथमें प्रदर्शन करनेके वख्त रक्खो… बस हो गये आप गांधीवादी. ”

कोंगी यानी नहेरुवीयन कोंग्रेस [इन्दिरा नहेरुघांडी कोंग्रेस I.N.C.)] और उनके सांस्कृतिक साथीयोंकी गेंगें यह समज़ती है कि गांधीकी फोटो रक्खो रखनेसे आप गांधीजीके समर्थक और उनके मार्ग पर चलनेवाले बन जाते है. आपको गांधीजी के सिद्धांतोको पढने की आवश्यकता नहीं.

गांघीजीके नाम पर कुछ भी करो, केवल हिंसा मत करो, और अपनेको गांधी मार्ग द्वारा  शासन का प्रतिकार करनेवाला मान लो. यदि आपके पास शस्त्र नहीं है और बिना शस्त्र ही प्रतिकार कर रहे है तो आप महात्मा गांधीके उसुलों पर चलने वाले हैं मतलब कि आप गांधीवादी है.

देशके प्रच्छन्न दुश्मन भी यही समज़ते है.

हिंसक शस्त्र मत रक्खो. किन्तु आपके प्रदर्शन क्षेत्रमें यदि कोई अन्य व्यक्ति आता है तो आप लोग अपने बाहुओंका बल प्रयोग करके उनको आनेसे रोक सकते हो. यदि ऐसा करनेमें उसको प्रहार भी हो जाय तो कोई बात नहीं. उसका कारण आप नहीं हो. जिम्मेवार आपके क्षेत्रमें आने वाला व्यक्ति स्वयं है. आपका हेतु उसको प्रहार करनेका नहीं था. आपके मनाकरने पर भी, उस व्यक्तिने  आपके क्षेत्रमें आनेका प्रयत्न किया तो जरा लग गया. आपका उसको हताहत करनेका हेतु तो था ही नहीं. वास्तवमें तो हेतु ही मुख्य होता है न? बात तो यही है न? हम क्या करें?

शाहीन बागके प्रदर्शनकारीयोंको क्या कहा जाय?

लोकशाहीके रक्षक कहा जाय?

अहिंसक मार्ग द्वारा प्रदर्शन करने वाले कहा जाय?

निःशस्त्र क्रांतिकारी प्रदर्शनकारी कहा जाय?

गांधीवादी कहा जाय?

लोकशाहीके रक्षक तो ये लोग नहीं है.

इन प्रदर्शनकारीयोंका विरोध “नया नागरिक नियम”के सामने है.

इन प्रदर्शनकारीयोंका विरोध राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (रजीस्टर) बनानेके प्रति है.

इन प्रदर्शन कारीयोंका विरोध राष्ट्रीय जनगणना पंजिका बनानेके प्रति है.

ये प्रदर्शनकारी और कई मूर्धन्य लोग भी मानते है कि प्रदर्शन करना जनताका संविधानीय अधिकार है. और ये सब लोकशाहीके अनुरुप और गांधीवादी है. क्यों कि प्रदर्शनकारीयोंके पास शस्त्र नहीं है इसलिये ये अहिंसक है. अहिंसक है इसलिये ये महात्मा गांधीके सिद्धांतोके अनुरुप है.

इन प्रदर्शन कारीयोंमें महिलाएं भी है, बच्चे भी है. शिशु भी है. क्यों कि इन सबको विरोध करनेका अधिकार है.

इन विरोधीयोंके समर्थक बोलते है कि यह प्रदर्शन दिखाते है कि अब महिलाएं जागृत हो गई हैं. अब महिलायें सक्रिय हो गई हैं, बच्चोंका भी प्रदर्शन करनेका अधिकार है. इन सबकी आप उपेक्षा नहीं कर सकते. ये प्रदर्शन कारीयों के हाथमें भारतीय संविधानकी प्रत है, गांधीजीकी फोटो है, इन प्रदर्शनकारीयोंके हाथमें अपनी मांगोंके पोस्टर भी है. इनसे विशेष आपको क्या चाहिये?

वैसे तो भारतकी उपरोक्त गेंग कई बातें छीपाती है.

ये लोग मोदी-शाहको गोली मारने के भी सूत्रोच्चार करते है, गज़वाहे हिंदके सूत्रोच्चार भी करते है,      

यदि उपरोक्त बात सही है तो हमें कहेना होगा कि ये लोग या तो शठ है या तो अनपढ है. और इनका हेतु कोई और ही है.

निःशस्त्र और सत्याग्रह

निःशस्त्र विरोध और सत्याग्रहमें बडा भेद है. यह भेद न तो यह गेंग समज़ती है, न तो यह गेंग समज़ना चाहती है.

(१) निःशस्त्र विरोधमें जिसके/जिनके प्रति विरोध है उनके प्रति प्रेम नहीं होता है.

(२) निःशस्त्र विरोध हिंसक विरोधकी पूर्व तैयारीके रुपमें होता है. कश्मिरमें १९८९-९०में हिन्दुओंके विरोधमें सूत्रोच्चार किया गया था. जब तक किसी हिन्दु की हत्या नहीं हुई तब तक तो वह विरोध भी अहिंसक ही था. मस्जिदोंसे जो कहा जाता था उससे किसीकी मौत नहीं हुई थी. वे सूत्रोच्चार भी अहिंसक ही थे. वे सब गांधीवादी सत्याग्रही ही तो थे.

(३) सत्याग्रहमें जिनके सामने विरोध हो रहा है उसमें उनको या अन्यको दुःख देना नहीं होता है.

(४) सत्याग्रह जन जागृति के लिये होता है और किसीके साथ भी संवाद के लिये सत्याग्रहीको तयार रहेनेका होता है.

(५) सत्याग्रही प्रदर्शनमें सर्वप्रथम सरकारके साथ संवाद होता है. इसके लिये सरकारको लिखित रुपसे और पारदर्शिता के साथ सूचित किया जाता है. यदि सरकारने संवाद किया और सत्याग्रहीके तर्कपूर्ण चर्चाके मुद्दों पर   यदि सरकार उत्तर नहीं दे पायी, तभी सत्याग्रहका आरंभ सूचित किया जा सकता है.

(६) सत्याग्रह कालके अंतर्गत भी सत्याग्रहीको संवादके लिये तयार रहना अनिवार्य है.

(७) यदि संविधानके अंतर्गत मुद्दा न्यायालयके आधिन होता है तो सत्याग्रह नहीं हो सकता.

(८) जो जनहितमें सक्रिय है उनको संवादमें भाग लेना आवश्यक है.

शाहीन बाग या अन्य क्षेत्रोंमे हो रहे विरोधकी स्थिति क्या है?

(१) प्रदर्शनकारीयोंमे जो औरतें है उनको किसीसे बात करनेकी अनुमति नहीं. क्यों कि जो गेंग, इनका संचालन कर रहा है, उसने या तो इन प्रदर्शनकारीयोंको समस्यासे अवगत नहीं कराया, या गेंग स्वयं नहीं जानती है कि समस्या क्या है? या गेंगको स्वयंमें आत्मविश्वासका अभाव है. वे समस्याको ठीक प्रकारसे समज़े है या तो वे समज़नेके लिये अक्षम है.

(२) प्रदर्शनकारी और उनके पीछे रही संचालक गेंग जरा भी पारदर्शी नहीं है.

(३) प्रदर्शनकारीयोंको और उनके पीछे रही संचालक गेंग को सरकारके प्रति प्रेम नहीं है, वे तो गोली और डंडा मारनेकी भी बातें करते हैं.

(४) प्रदर्शनकारीयोंको और उनके पीछे रही संचालक गेंगको गांधीजीके सत्याग्रह के नियम का प्राथमिक ज्ञान भी नहीं है, इसीलिये न तो वे सरकारको कोई प्रार्थना पत्र देते है न तो समाचार माध्यमके समक्ष अपना पक्ष रखते है.

(५) समस्याके विषयमें एक जनहितकी अर्जी की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालयमें है ही, किन्तु ये प्रदर्शनकारीयोंको और उनके संचालक गेंगोंको न्यायालय पर भरोसा नहीं है. उनको केवल प्रदर्शन करना है. न तो इनमें धैर्य है न तो कोई आदर है.

(६) कुछ प्रदर्शनकारी अपना मूँह छीपाके रखते है. इससे यह सिद्ध होता है कि वे अपने कामको अपराधयुक्त मानते है, अपनी अनन्यता (आईडेन्टीटी) गोपित रखना चाहते है ताकि वे न्यायिक दंडसे बच सकें. ऐसा करना भी गांधीजीके सत्याग्रहके नियमके विरुद्ध है. सत्याग्रही को तो कारावासके लिये तयार रहेना चाहिये. और कारावास उसके लिये आत्म-चिंतनका स्थान बनना चाहिये.

(७) इन प्रदर्शनकारीयोंको अन्य लोगोंकी असुविधा और कष्टकी चिंता नहीं. उन्होंने जो आमजनताके मर्गोंका अवैध कब्जा कर रक्खा है और अन्योंके लिये बंद करके रक्खा है यह एक गंभीर अपराध है. दिल्लीकी सरकार जो इसके उपर मौन है यह बात उसकी विफलता है या तो वह समज़ती है कि उसके लिये लाभदायक है. यह पूरी घटना जनतंत्रकी हत्या है.

(८) सी.ए.ए., एन.सी.आर. और एन.पी.आर. इन तीनोंका जनतंत्रमें होना स्वाभाविक है इस मुद्दे पर तो हमने पार्ट-१ में देखा ही है. वास्तवमें प्रदर्शनकारीयोंका कहेना यही निकलता है कि जो मुस्लिम घुसपैठी है उनको खूला समर्थन दो और उनको भी खूली नागरिकता दो. यानी कि, पडौशी देश जो अपने संविधानसे मुस्लिम देश है, और अपने यहां बसे अल्पसंख्यकोंको धर्मके आधार पर प्रताडित करते है और उनकी सुरक्षा नहेरु-लियाकत करार होते हुए भी नहीं करते है और उनको भगा देते है. यदि पडौशी देशद्वारा भगाये गये इन बिन-मुस्लिमोंको भारतकी सरकार नागरिकत्त्व दे तो यह बात हम भारतीय मुस्लिमोंको ग्राह्य नहीं है.

मतलब कि भारत सरकारको यह महेच्छा रखनी नहीं चाहिये कि पाकिस्तान, नहेरु-लियाकत अली करारनामा का पाकिस्तानमें पालन करें.

हाँ एक बात अवश्य जरुरी है कि भारतको तो इस करारनामाका पालन मुस्लिम हितोंके कारण करना ही चाहिये. क्यों कि भारत तो धर्म निरपेक्ष है.

“हो सकता है हमारे पडौशी देशने हमसे करार किया हो कि, वह वहांके अल्पसंख्यकोंके हित और अधिकारोंकी रक्षा करेगा, चाहे वह स्वयं इस्लामिक देश ही क्यों न हो. लेकिन यदि हमारे पडौशी देशने इस करारका पालन नहीं किया. तो क्या हुआ? इस्लामका तो आदेश ही है कि दुश्मनको दगा देना मुसलमानोंका कर्तव्य है.

“यदि भारत सरकार कहेती है कि भारत तो ‘नहेरु-लियाकत अली करार’ जो कि उसकी आत्मा है उसका आदर करते है. इसी लिये हमने सी.ए.ए. बनाया है. लेकिन हम मुस्लिम, और हमारे कई सारे समर्थक मानते है कि ये सब बकवास है.

“कोई भी “करार” (एग्रीमेन्ट) का आदर करना या तो कोई भी न्यायालयके आदेशका पालन करना है तो सर्व प्रथम भारत सरकार को यह देख लेना चाहिये कि इस कानूनसे हमारे पडौशी देशके हमारे मुस्लिम बंधुओंकी ईच्छासे यह विपरित तो नहीं है न ! यदि हमारे पडौशी देशके हमारे मुस्लिम बंधुओंको भारतमें घुसनेके लिये और फिर भारतकी नागरिकता पानेके लिये अन्य प्रावधानोंके अनुसार प्रक्रिया करनी पडती है तो ये तो सरासर अन्याय है.

“हमारे पडौशी देश, यदि अपने संविधानके  विपरित या तो करारके विपरित आचार करें तो भारत भी उन प्रावधानोंका पालन न करें, ऐसा नहीं होना चाहिये. चाहे हमारे उन मुस्लिम पडौशी देशोंके मुस्लिमोंकी ईच्छा भारतको नुकशान करनेवाली हो तो भी हमारी सरकारको पडौशी देशके मुस्लिमोंका खयाल रखना चाहिये.

“भारत सरकारने, जम्मु – कश्मिर राज्यमें  कश्मिरी हिन्दुओंको जो लोकशाही्के आधार पर नागरिक अधिकार दिया. यह सरासर हम मुस्लिमों पर अन्याय है. आपको कश्मिरी हिन्दुओंसे क्या मतलब है?

“हमारा पडौशी देश यदि अपने देशमें धर्मके आधार पर कुछ भी करता है तो वह तो हमारे मुल्लाओंका आदेश है. मुल्ला है तो इस्लाम है. मतलब कि यह तो इस्लामका ही आदेश है.

भारतने पाकिस्तान से आये धर्मके आधार पर पीडित बीन मुस्लिमोंको नागरिक  अधिकार दिया उससे हम मुस्लिम खुश नहीं. क्यों कि भारत सरकारने हमारे पडौशी मुस्लिम देशके मुस्लिमोंको तो नागरिक अधिकार नहीं दिया है. भारत सरकारने  लोकशाहीका खून किया है. हम हमारे पडौशी देशके मुस्लिमोंको भारतकी नागरिकता दिलानेके लिये अपनी जान तक कुरबान कर देंगे. “अभी अभी ही आपने देखा है कि हमने एक शिशुका बलिदान दे दिया है. हम बलिदान देनेमें पीछे नहीं हठेंगे. हमारे धर्मका आदेश है कि इस्लामके लिये जान कुरबान कर देनेसे जन्नत मिलता है. “हम तो मृत्युके बादकी जिंदगीमें विश्वास रखते है. हमें वहा सोलह सोलह हम उम्रकी  हुरें (परीयाँ) मिलेगी. वाह क्या मज़ा आयेगा उस वख्त! अल्लाह बडा कदरदान है.

“अय… बीजेपी वालों और अय … बीजेपीके समर्थकों, अब भी वख्त है. तुम सुधर जाओ. अल्लाह बडा दयावान है. तुम नेक बनो. और हमारी बात सूनो. नहीं तो अल्लाह तुम्हे बक्षेगा नहीं.

“अय!  बीजेपीवालो और अय … बीजेपीके समर्थकों, हमें मालुम है कि तुम सुधरने वाले नहीं है. अल्लाह का यह सब खेल है. वह जिनको दंडित करना चाहता है उनको वह गुमराह करता है. “लेकिन फिर भी हम तुम्हें आगाह करना चाहते है कि तुम सुधर जाओ. ता कि, जब कयामतके दिन अल्लाह हमें पूछे कि अय इमान वाले, तुम भी तो वहां थे … तुमने क्या किया …? क्या तुम्हारा भी कुछ फर्ज था … वह फर्ज़ तुमने मेहसुस नहीं किया… ?

“तब हम भारतके मुस्लिम बडे गर्वसे अल्लाह को कहेंगे अय परवरदिगार, हमने तो अपना फर्ज खूब निभाया था. हमने तो कई बार उनको आगाह किया था कि अब भी वखत है सुधर जाओ … लेकिन क्या करें …

“अय खुदा … तुम हमारा इम्तिहान मत लो.  जब तुमने ही उनको गुमराह करना ठान लिया था… तो तुमसे बढ कर तो हम कैसे हो सकते? या अल्लाह … हम पर रहम कर … हम कुरबानीसे पीछे नहीं हठे. और अय खुदा … हमने तो केवल आपको खुश करने के लिये कश्मिर और अन्यत्र भी इन हिन्दुओंकी कैसी कत्लेआम की थी और आतंक फैलाके उनको उनके ही मुल्कमें बेघर किया था और उनकी औरतोंकी आबरु निलाम की थी … तुमसे कुछ भी छीपा नहीं है…

“ … अय खुदा ! ये सब बातें तो तुम्हें मालुम ही है. ये कोंगी लोगोंने अपने शासनके वख्त कई अपहरणोंका नाटक करके हमारे कई जेहादीयोंको रिहा करवाया था. यही कोंगीयोंने, हिन्दुओंके उपर, हमारा खौफ कायम रखनेके लिये, निर्वासित हिन्दुओंका पुनर्‌वास नहीं किया था. अय खुदा उनको भी तुम खुश रख. वैसे तो उन्होंने कुछ कुरबानियां तो नहीं दी है [सिर्फ लूटमार ही किया है], लेकिन उन्होंने हमे बहूत मदद की है.

“अय खुदा … तुम उनको १६ हुरें तो नहीं दे सकता लेकिन कमसे कम ८ हुरें तो दे ही सकता है. गुस्ताखी माफ. अय खुदा मुज़से गलती हो गई, हमने तो गलतीमें ही कह दिया कि तुम इन कोंगीयोंको १६ हुरे नहीं दे सकता. तुम तो सर्व शक्तिमान हो… तुम्हारे लिये कुछ भी अशक्य नहीं. हमें माफ कर दें. हमने तो सिर्फ हमसे ज्यादा हुरें इन कोंगीयोंको न मिले इस लिये ही तुम्हारा ध्यान खींचा था. ८ हुरोंसे इन कोंगीयोंको कम हुरें भी मत देना क्यों कि ४/५ हुरें तो उनके पास पृथ्वी पर भी थी. ४/५ हुरोंसे यदि उनको कम हुरें मिली तो उनका इस्लामके जन्नतसे विश्वास उठ जायेगा. ये कोंगी लोग बडे चालु है. अय खुदा, तुम्हे क्या कहेना! तुम तो सबकुछ जानते हो. अल्ला हु अकबर.

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

एक कोंगी नेताने मोदीको बडा घुसपैठी कहा. क्यों कि मोदी गुजरातसे दिल्ली आया. मतलब कि गुजरात भारत देशके बाहर है.

एक दुसरे कोंगी नेताने कहा कि मोदी तो गोडसे है. गोडसेने भी गांधीकी हत्या करनेसे पहेले उनको प्रणाम किया था. और मोदीने भी संविधानकी हत्या करनेसे पहेले संसदको प्रणाम किया था.

शिर्ष नेता सोनिया, रा.गा. और प्री.वा.  तो मोदी मौतका सौदागर है, मोदी चोर है इसका नारा ही लगाते और लगवाते है वह भी बच्चोंसे.

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कोंगी का नया दाव -३

“हमने कभी हमसे विरुद्ध अभिप्राय रखनेवालोंको देश द्रोही नहीं समज़े” अडवाणी उवाच.

अडवाणीके इस कथनको एन्टी-मोदी-गेंग उछालेगी.

“हमसे विरुद्ध अभिप्राय” इस कथनका कोई मूल्य नहीं है, जब तक आप इस कथनके संदर्भको गुप्त रखें. सिर्फ इस कथन पर चर्चा चलाना एक बेवकुफी है, जब आप इसका संदर्भ नहीं देतें.

Tometo and couliflower

मुज़े टमाटर पसंद है और आपको फुलगोभी. मेरे अभिप्रायसे टमाटर खाना अच्छा है. आपके अभिप्रायसे फुलगोभी अच्छी है. इसका समाधान हो सकता है. आरोग्यशास्त्रीको और कृषिवैज्ञानिकको बुलाओ और सुनिश्चित करो कि एक सुनिश्चित विस्तारकी भूमिमें सुनिश्चित धनसे और सुनिश्चित पानीकी उपलब्धतामें जो उत्पादन हुआ उसका आरोग्यको कितना लाभ-हानि है. यदि वैज्ञानिक ढंगसे देखा जाय तो इसका आकलन हो सकता है. मान लो कि फुलगोभीने मैदान मार लिया.

कोई कहेगा, आपने तो वैज्ञानिक ढंगसे तुलना की. लेकिन आपने दो परिबलों पर ध्यान नहीं दिया. एक परिबल है टमाटरसे मिलनेवाला आनंद और दुसरा परिबल है आरोग्यप्रदतामें जो कमी रही उसकी आपूर्ति करनेकी मेरी क्षमता. यदि मैं आपूर्ति करनेमें सक्षम हूँ तो?

अब आप यह सोचिये कि टमाटर पर पसंदगीका अभिप्राय रखने वाला कहे कि फुलगोभी वाला देशद्रोही है. तो आपको क्या कहेना है?

वास्तवमें अभिप्रायका संबंध तर्क से है. और दो विभिन्न अभिप्राय वालोंमे एक सत्यसे नजदिक होता है और दुसरा दूर. जो  दूर है वह भी शायद तीसरे अभिप्राय वाली व्यक्तिकी सापेक्षतासे सत्यसे समीप है.

तो समस्या क्या है?

उपरोक्त उदाहरणमें, मान लो कि, प्रथम व्यक्ति सत्यसे समीप है, दूसरा व्यक्ति सत्यसे प्रथम व्यक्तिकी सापेक्षतासे थोडा दूर है. लेकिन दुसरा व्यक्ति कहेता है कि यह जो दूरी है उसकी आपूर्तिके लिये मैं सक्षम हूँ. अब यदि तुलना करें तो तो दूसरा  व्यक्ति भी सत्यसे उतना ही समीप हो गया. और उसके पास रहा “आनंद” भी.

य.टमाटर+क्ष१.खर्च+य१.आरोग्य+झ.आनंद+आपूर्तिकी क्षमता = र.फुलगोभी+क्ष१.खर्च+य२.आरोग्य+झ.आनंद जहाँ  आनंद समान है बनाता है जब य१.आरोग्य +आपूर्तिकी क्षमता=  य२.आरोग्य होता है.

जब आपूर्तिकी क्षमता होती है तो दोनों सत्य है. या तो कहो कि दोनों श्रेय है.

लेकिन विद्वान लोग गफला कहाँ करते है?

आपूर्तिकी क्षमताको और आनंदकी अवगणनाको समज़नेमें गफला करते है.

कई कोंगी-गेंगोंके प्रेमीयोंने जे.एन.यु. के नारोंसे देशको क्या हानि होती है (हानि = ऋणात्मक आनंद) उसकी अवगणना की है. और उस क्षतिकी आपूर्तिकी क्षमताकी अवगणना की है. क्यों कि उनकी समज़से यह कोई अवयव है ही नहीं. उनकी प्रज्ञाकी सीमासे बाहर है.

जब दो भीन्न अभिप्रायोंका संदर्भ दिया तो पता चल गया कि इसको देश द्रोहसे कोई संबंध नहीं. और ऐसे कथनको यदि कोई अपने मनमाने और अकथित संदर्भमें ले ले तो यह सिर्फ सियासती कथन बन जाता है.

जे.एन.यु. के कुछ “तथा कथित विद्यार्थीयों”के नारोंसे देशका हित होता है क्या?

“मुज़से अलग मान्यता रखनेवालोंको मैंने देश द्रोही नही समज़ा” अडवाणीका यह कथन अन्योक्ति है, या अनावश्यक है या मीथ्या है.

कुछ लोग जे.एन.यु. कल्चरकी दुहाई क्यों देते हैं?

राहुल घांडी और केजरीवाल खुद उनके पास गये थे और उन्होंने जे.एन.यु.की टूकडे टूकडे गेंगको सहयोग देके बोला था कि, आप आगे बढो, हम आप लोगोंके साथ है. विद्वानोंने इस गेंगके  नारोंको बिना दुहराये इसके उपर तात्विक चर्चा की कि नारोंसे देशके टूकडे नहीं होते. नारे लगाना अभिव्यक्तिके स्वातंत्र्यके अंतर्गत आता है.

यदि अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताकी ही बात करें तो,  तो बीजेपी या अन्य लोग भी अपनी अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताके कारण इसकी टीका कर सकते हैं. यदि आप समज़ते है कि ऐसे प्रतिभाव देने वाले असहिष्णु है तो,  संविधानके अनुसार आप दोनों एक दुसरेके उपर कार्यवाही करनेके लिये मूक्त है.

क्या टूकडे टूकडे गेंग वालोंने और उनके समर्थकोंने इस असहिष्णुता पर केस दर्ज़ किया?  नारोंके विरोधीयोंके विरुद्ध नारे लगानेवालों  पर भी आप केस दर्ज करो न.

जिनको उपरोक्त  गेंगके नारे, देशद्रोही लगे वे तो न्यायालयमें गये. गेंगवाले भी अपनेसे विरुद्ध अभिप्राय रखनेवालोंके विरुद्ध न्यायालयमें जा सकते है. न्यायालयने तो, देशविरोधी नारे लगानेवाली गेंगके नेताओं पर प्रारंभिक फटकार लगाई.

जब देशके टूकडे टूकडे करनेके नारे वालोंको विपक्षोंका और समाचार माध्यमोंका खूलकर समर्थन मिला तो ऐसे नारे वाली घटनाएं अनेक जगह बनीं.

फिर भी एक चर्चा चल पडी कि अपने अभिप्रायसे भीन्न अधिकार रखनेवालोंको देश द्रोही समज़ना चाहिये या नहीं. बस हमारे आडवाणीने और मोदी विरोधियोंने यही शब्द पकड लिये. जनताको परोक्ष तरिकेसे गलत संदेश मिला.   

सेनाने सर्जीकल स्ट्राईक किया, सेनाने एर स्ट्राईक किया और उन्होंने ही उसकी घोषणा की. पाकिस्तानने तो अपनी आदतके अनुसार नकार दिया. कुछ विदेशी अखबारोंने अपने व्यापारिक हितोंकी रक्षाके लिये इनको अपने तरिकोंसे नकारा. लेकिन हमारी कोंगी-गेंगोंने भी नकारा.

यह क्या देशके हितमें है?

क्या इससे जो अबुध जनताके मानसको यानी कि देशको, जो नुकशान होता है उसकी आपूर्ति हो सकती है?

इसके पहेले विमुद्रीकरण वाले कदमके विरुद्ध भी यही लोग लगातार टीका करते रहे. “ फर्जी करन्सी नोटें राष्ट्रीयकृत बेंकोंके ए.टी.एम.मेंसे निकले, इस हद तक फर्जी करन्सी नोटोंकी व्यापकता हो” ऐसी स्थितिमें फर्जी करन्सी नोटोंको रोकनेका एक ही तरिका था और वह तरिका, विमुद्रीकरण ही था. और इसके पूर्व मोदीने पर्याप्त कदम भी उठाये थे. विमुद्रीकरण पर गरीबोंके नाम पर काले धनवालोंने अभूत पूर्व शोर मचाया था. लेकिन कोई माईका लाल, ऐसा मूर्धन्य, महानुभाव, प्रकान्ड अर्थशास्त्री निकला नहीं जो विकल्प बता सकें. विमुद्रीकरणकी टीका करनेवाले  सबके सब बडे नामके अंतर्गत छोटे व्यक्ति निकले.

 “चौकीदार चोर है” राहुल के सामने बीजेपीका “मैं भी चौकीदार हूँ”

यह भी समाचार पत्रोमें चला. मूर्धन्य कटारिया (कोलमीस्ट्स) लोग “चौकीदार” शब्दार्थकी, व्युत्पत्तिकी, समानार्थी शब्दोंकी, उन शब्दोंके अर्थकी,   चर्चा करनेमें अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करने लगे. प्रीतीश नंदी उसमें एक है. यह एक मीथ्या चर्चा है हम उसका विवरण नहीं करेंगे.

राहुलका अमेठीसे केरलके वायनाड जाना.

समाचार माध्यम इस मुद्देको भी उछाल रहे है. इसकी तुलना कोंगी-गेंगोंके सहायक लोग, २०१४में मोदीने दो बेठकोंके उपर चूनाव लडा था, उसके साथ कर रहे है.

वास्तवमें इसमें तो राहुल घांडी, अपने कोमवादी मानसको ही प्रदर्शित कर रहे है. जिस बैठक पर राहुल और उसके पूर्वज लगातार चूनाव लडते आये हैं और जितते आये हैं, उस बैठक पर भरोसा न होना या न रखना, और चूंकि, वायनाडमें  मुस्लिम और ख्रीस्ती समुदाय बहुमतमें है और चूं कि आपने (कोंगी वंशवादी फरजंदोंने) उनको आपका मतबेंक बनाया है, इसलिये आप (राहुल घांडी)ने वायनाड चूना, उसका मतलब क्या हो सकता है? कोंगी लोगोंको और उनको अनुमोदन करनेवालोंको या तो उनकी अघटित तुलना करनेवालोंको कमसे कम सत्यका आदर करना चाहिये. कोमवादीयोंको सहयोग देना नहीं चाहिये.

सत्य और श्रेय का आदर ही जनतंत्रकी परिभाषा है.

मोदीकी कार्यशैली पारदर्शी है. मोदीने अपने पदका गैरकानूनी लाभ नहीं लिया, मोदीने अपने संबंधीयोंको भी लाभ लेने नहीं दिया है, मोदीका मंत्री मंडल साफ सुथरा है, मोदीने संपत्तिसे जूडे नियमोंमें पर्याप्त सुधार किया है, मोदीने अक्षम लोगोंकी पर्याप्त सहायता की है, मोदीने अक्षम लोगोंको सक्षम बनानेके लिये पर्याप्त कदम उठाये है, मोदीने विकासके लिये अधिकतर काम किया है.

इसके कारण मोदीके सामने कोई टीक सकता, और कोई उसके काबिल नहीं है, तो भी कुछ मूर्धन्य लोग मोदी/बीजेपीके विरुद्ध क्यों पडे है?

मोदीने पत्रकारोंकी सुविधाएं खतम कर दी. कुछ मूर्धन्योंको महत्व देना बंद कर दिया. इससे इन मूर्धन्य कोलमीस्टोंके अहंकार को आघात हुआ है. सत्य यही है. जो सुविधाओंके गुलाम है, उनका असली चहेरा सामने आ गया. ये लोग स्वकेन्द्री थे और अपने व्यवसायको “देशके हितमें कामकरनेवाला दिखाते थे” ये लोग एक मुखौटा पहनके घुमते थे. यह बात अब सामने आ गयी. लेकिन  इन महानुभावोंको इस बातका पता नहीं है !

ये लोग समज़ते है कि वे शब्दोंकी जालमें किसीभी घटनाको और किसी भी मुद्देको, अपने शब्द-वाक्य-चातुर्यसे मोदीके विरुद्ध प्रस्तूत कर सकते है.

समाचार पत्रोंके मालिकोंका “चातूर्य” देखो. चातूर्य शब्द वैसे तो हास्यास्पद है, लेकिन कुछ उदाहरण देख लो.

अमित शाहने गांधीनगरसे चूनावमें प्रत्याषीके रुपमें आवेदन दिया.

इसके उपर दो पन्नेका मसाला दिया. निशान दो व्यक्ति है. एक है अडवाणी. दुसरे है राजनाथ सिंघ. अभी इसके उपर टीप्पणीयोंकी वर्षा  हो रही है. और अधिक होती रहेगी.

अडवाणीको बिना पूछे उनकी संसदीय क्षेत्रके उपर अमित शाहको टीकट दी. “यह अडवाणीका अपमान हुआ.”

हमारे राहुलबाबाने बोला कि “मोदीने जूते मारके अडवाणीको नीचे उतारा. क्या यह हिन्दु धर्म है?”-राहुल.

तो हमारे “डी.बी. (दिव्य भास्कर गुजराती प्रकाशन)भाईने सबसे विशाल अक्षरोमें प्रथम पृष्ठ पर, यह कथन छापा. और फिर स्वयं (डी.बी.भाई) तो तटस्थ है, वह दिखानेके लिये, छोटे अक्षरोंमें  लिखा कि “मोदीको मर्यादा सिखानेके चक्करमें खुद मर्यादा भूले”.

डी.बी. भाईको “मोदीने अडवाणीको जूते मारके नीची उतारा … क्या यह हिन्दु धर्म है? “ कथन अधिक प्रभावशाली बनानेका था. इस लिये इस कथनको अतिविशाल अक्षरोंमें छापा. राहुल तो केवल मर्यादा भूले. राहुलका “अपनी मर्यादा भूलना” महत्वका नहीं है. “जूता मारना” वास्तविक नहीं है. लेकिन राहुलने कहा है, और वैसे भी “जूता मारना” एक रोमांचक प्रक्रिया है न. इस कल्पनाका सहारा वाचकगण लें, तो ठीक रहेगा. यदि डी.बी.भाईने इससे उल्टा किया होता तो?

डी.बी. भाई यदि सबसे विशाल अक्षरोंमें छापते कि “मोदीको मर्यादा की दूहाई देनेवाले राहुल खुद मर्यादा भूले” और जो शाब्दिक असत्य है उसको छापते तो …? तो पूरा प्रकाशन राहुलके विरुद्ध जाता. जो राहुल के विरुद्ध है उसका विवरण अधिक देना पडता. मजेकी बात यही है कि डी.बी.भाई ने राहुलकी मर्यादा लुप्तताका कोई विवरण नहीं दिया. राहुलका “अडवाणीका टीकट और हिन्दु धर्मको जोडना” उसकी मानसिकता प्रकट करता है कि वह हर बातमें धर्मको लाना चाहता है. डी.बी. भाईने इस बातका भी विवरण नहीं किया.   

अडवाणीको टीकट न देना कोई मुद्दा ही नहीं है. जो व्यक्ति ९२ वर्ष होते हुए भी अपनी अनिच्छा प्रकट करने के बदले  मौन धारण करता है. फिर पक्षका एक वरिष्ठ होद्देदार उसके पास जा कर उसकी अनुमति लेता है कि उनको टीकट नहीं चाहिये. फिर भी, बातका बतंगड बनानेकी क्या आवश्यकता?

यही पत्राकार, मूर्धन्य, कोलमीस्ट लोग जब १९६८में इन्दिरा गांधीने कहा “मेरे पिताजीको तो बहूत कुछ करना था लेकिन ये बुढ्ढे लोग मेरे पिताजीको करने नहीं देते थे”. तब इन्ही लोंगोंने उछल उछल कर इन्दिराका समर्थन किया था. किसी भी माईके लालने इन्दिराको एक प्रश्न तक नहीं किया कि, “कौनसे काम आपके पिताजी करना चाहते थे जो इन बुढ्ढे लोगोंने नहीं करने दिया”.

यशवंत राव चवाणने खुल कर कहा था कि हम युवानोंके लिये सबकुछ करेंगे लेकिन बुढोंके लिये कुछ नहीं करेंगे. और इन्ही लोगोंने तालिया बजायी थीं. आज यही लोग बुढ्ढे हो गये या चल बसे, और भी “गरीबी रही”.

जिन समाचार पत्रोंको बातका बतंगड बनाना है और उसमें भी बीजेपीके विरुद्ध तो खासम खास ही, उनको कौन रोक सकता है?

पत्रकारित्व पहेलेसे ही अपना एजन्डा रखते आया है. ये लोग महात्मा गांधीकी बाते करेंगे लेकिन महात्मा गांधीका “सीधा समाचार”देनेके व्यवहारसे दूर ही रहेंगे. महात्मा गांधीकी ऐसी तैसी.

देश दो हिस्सेमें विभाजित हो गया है;

एक तरफ है विकास. जिसका रीपोर्ट कार्ड “ओन-लाईन” पर भी उपलब्ध है,

सबका साथ सबका विकास,

सुशासन, सुविधा और पारदर्शिता,

दुसरी तरफ है

वंशवादी, स्वकेन्द्री, भ्रष्टताके आरोपवाले नेतागण जिनके उपर न्यायालयमें केस चल रहे हैं और वे जमानत पर है, जूठ बोलनेवाले, “वदतः व्याघात्” वाले (अपनके खुदके कथनो पर विरोधाभाषी हो), जातिवाद, कोमवाद, क्षेत्रवाद आदि देशको विभाजित करने वाले पक्ष और उनके समर्थक, “जैसे थे परिस्थिति” को चाहने वाले. ये लोग देशके नुकशानकी आपूर्ति करनेमें बिलकुल असमर्थ है. इनका नारा है “मोदी हटाओ” और देशको सुरक्षा देनेवाले कानूनोंको हटाओ.

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इसमें क्या निहित है इसकी चर्चा कोई समाचार पत्र या टीवी चेनल नहीं करेगा क्यों कि वैसे भी यही लोग स्वस्थ चर्चामें मानते ही नहीं है.

 

स्वयं लूटो और अपनवालोंको भी लूटने  दो. जन तंत्रकी ऐसी तैसी… समाचार माध्यम भी यह सिद्ध करनेमें व्यस्त है कि बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिलनेवाला नहीं है और एक मजबुर सरकार बनने वाली है. यदि वह कोंगी-गेंगवाली सरकार बनती है, तो वेल एन्ड गुड. और यदि वह बीजेपीकी गठजोड वाली सरकार हो तो हमें तो उनकी बुराई करनेका मौका ही मौका है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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पाकिस्तानके बुद्धिजीवीयोंको चाहिये एक नरेन्द्र मोदी … और ….

नरेन्द्र मोदीकी कार्यशैलीके बारेमें अफवाहोंका बाज़ार अत्याधिक गरम है. क्यों कि  अब मोदी विरोधियोंके लिये जूठ बोलना, अफवाहें फैलाना, बातका बतंगड करना और कुछ भी विवादास्पद घटना होती है तो मोदीका नाम उसमें डालना, बस यही बचा है.

लेकिन, ऐसा होते हुए भी …

हाँ साहिब, ऐसा होते हुए भी … पाकिस्तानके (१०० प्रतिशत शुद्ध) बुद्धिजीवीयोंको चाहिये एक नरेन्द्र मोदी जैसा प्रधान मंत्री. बोलो. पाकिस्तान जो मोदीके बारेमें जानता है वह हमारे स्वयं प्रमाणित बुद्धिजीवी नहीं जानते.

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पाकिस्तानके १००% शुद्ध बुद्धि वाले हसन निस्सार साहिबने अपनी इच्छा प्रगट की है कि पाकिस्तानको चाहिये एक नरेन्द्र मोदी. हमारे १०० प्रतिशत शुद्ध बुद्धिजीवी “मोदी चाहिये” इस बात बोलनेसे हिचकिचाते है.

बुद्धिजीवी

हमारे वंशवादी पक्षोंको ही नहीं किन्तु अधिकतर मूर्धन्यों, विश्लेषकों, कोलमीस्टोंको, चेनलोंको तो चाहिये अफज़ल गुरु. एक नहीं लेकिन अनेक. अनेक नहीं असंख्य. क्यों कि इनको तो भारतके हर घरसे चाहिये अफज़ल गुरु.

हाँजी, यह बात बिलकुल सही है. जब जे.एन.यु. के कुछ तथा कथित छात्रोंने (जिनका नेता २८ सालका होनेके बाद भी भारतके करदाताओंके पैसोंसे पलता है तो इसके छात्रत्व पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है ही)  भारतके टूकडे करनेका, हर एक घरसे एक अफज़ल पैदा करनेका,  भारतकी बर्बादीके नारे लगाते थे तब उनके समर्थनमें केज्री, रा.गा., दीग्गी, सिब्बल, चिदु, ममता, माया, अखिलेश, अनेकानेक कोलमीस्ट, टीवी चेनलके एंकर और अन्य बुद्धिजीवी उतर आये थे.  तो यह बात बिलकुल साफ हो जाती है कि उनकी मानसिकता अफज़ल के पक्ष में है या तो उनका स्वार्थ पूर्ण करनेमें यदि अफज़ल गुरुका नाम समर्थक बनता है तो इसमें उनको शर्म नहीं.

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जो लोग यु-ट्युब देखते हैं, उन्होने ने पाकिस्तानके हसन निस्सार को अवश्य सूना होगा. जिनलोंगोंने उनको नहीं सूना होगा वे आज “दिव्य भास्कर”में गुणवंतभाई शाहका लेख पढकर अवश्य हसन निस्सार को युट्युब सूनेंगे.

हमारा दुश्मन नंबर वन, यानी कि पाकिस्तान. वैसे ही पाकिस्तानका दुश्मन नंबर वन यानीकी भारत. तो पाकिस्तानके बुद्धिजीवीयोंको भी उनके लिये चाहिये नरेन्द्र मोदी जैसा प्रधान मंत्री. और देखो हमारे तथा कथित बुद्धिजीवी हमारे समाचार माध्यमोंमें विवाद खडा करते है कि नरेन्द्र मोदी आपखुद है, नरेन्द्र मोदी कोमवादी है, नरेन्द्र मोदी जूठ बोलता है, नरेन्द्र मोदीने कुछ किया नहीं ….

पाकिस्तानको जो दिखाई देता है वह इन कृतघ्न को दिखाई देता नहीं.

अब हम देखेंगे ममताका नाटक और उस पर समाचार माध्यमोंका यानी कि कोलमीस्ट्स, मूर्धन्य, विश्लेषक, एंकर, आदि महानुभावोंला प्रतिभाव.

घटनासे समस्या और समस्याकी घटना

ममता स्वयंको क्या समज़ती है?

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उनका खेल देखो कि वह किस हद तक जूठ बोल सकती है. पूरा कोंगी कल्चरको उसने आत्मसात्‍ कर लिया है.

यह वही ममता है. जिस जयप्रकाश नारायणने, भ्रष्टाचारके विरुद्ध इन्दिरा गांधीके सामने, आंदोलन छेडा था उस जयप्रकाश नारायणकी जीपके हुड पर यह ममता नृत्य करती थी. एक स्त्रीके नाते वह लाईम लाईटमें आ गयी. आज वही ममता कोंगीयोंका समर्थन ले रही है जब कि कोंगीके संस्कारमें कोई फर्क नहीं पडा है.

ऐसा कैसे हो गया? क्योंकि ममताने जूठ बोलना ही नहीं निरपेक्ष जूठ बोलना सीख लिया है. सिर्फ जूठ बोलना ही लगाना भी शिख लिया है. निराधार आरोप लगाना ही नहीं जो संविधान की प्रर्कियाओंका अनादर करना भी सीख लिया है. “ चोर कोटवालको दंडे”. अपनेको बचाने कि प्रक्रियामें यह ममता, मोदी पर सविधानका अनादर करनेका आरोप लगा रही है.

ऐसा होना स्वाभाविक था.

गुजरातीभाषामें एक मूँहावरा है कि यदि गाय गधोंके साथ रहे तो वह भोंकेगी तो नहीं, लेकिन लात मारना अवश्य शिख जायेगी. लेकिन यहां पर तो गैया लात मारना और भोंकना दोनों शिख गयी.

ममता गेंगका ओर्गेनाईझ्ड क्राईमका विवरणः

ममताके राजमें दो चीट-फंडके घोटाले हुए. कोंगीने अपने शासनके दरम्यान उसको सामने लाया. ममताने दिखावेके लिये जाँच बैठायी. कोंगी यह बात सर्वोच्च अदालतमें ले गयी. सर्वोच्च अदालतने आदेश दिया कि सीबीआई से जाँच हो. सीबीआईने जाँच शुरु की. जांचमें ऐसा पाया कि टीएमसी विधान सभाके सदस्य, मंत्री, एम. पी. और खूद पूलिसके उच्च अफसरोंकी घोटालेके और जाँचमें मीली भगत है. सीबीआईने पूलिससे उनकी जाँचके कागजात भी मांगे थे जिनमें कुछ काकजात,  पूलिसने गूम कर दिये. इस मामलेमें और अन्य कारणोंसे भी सीबीआई ने कलकत्ताके पूलिस आयुक्तकी पूछताछके लिये नोटीस भी भेजी और समय भी मांगा. पूलिस आयुक्त भी आरोपोंकी संशय-सूचिमें थे.

गुमशुदा पूलिस आयुक्तः

आश्चर्यकी बात तो यह है कि पूलिस आयुक्त खूद अदृष्य हो गया. सीबीआईको पुलिस आयुक्तको “गुमशुदा” घोषित करना पडा. तब तक ममताके कानोंमें जू तक नहीं रेंगी. हार कर सीबीआई, छूट्टीके दिन,  पूलिस आयुक्त के घर गई. तो पुलिस आयुक्तने सीबीआई के अफसरोंको गिरफ्तार कर दिया और वह भी बिना वॉरन्ट गिरफ्तार किया और उनको पूलिस स्टेशन ले गये. किस गुनाहके आधार पर सी.बी.आई.के अफसरोंको गिरफ्तार किया उसका ममताके के पास और उसकी पूलिसके पास उत्तर नही है. यदि गिरफ्तार किया है तो गुनाह का अस्तित्व तो होना ही चाहिये. एफ.आई.आर. भी फाईल करना चाहिये.

यह नाटकबाजी ममताकी पूलिसने की. और जब सभी टीवी चेनलोंमे ये पूलिसका नाटक चलने लगा तो ममताने भी अपना नाटक शुरु किया. वह मेट्रो पर धरने पर बैठ गयी. उसके साथ उसने अपनी गेंगको भी बुला लिया. सब धरने पर बैठ गये. पूलिस आयुक्त भी क्यों पीछे रहे? यह चीट फंड तो “ओर्गेनाईझ्ड क्राईम था”. तो ममताआकाको तो मदद करना ही पडेगा. तो वह पूलिस आयुक्त भी ममताके साथ उसकी बगलमें ही धरने पर बैठ किया.

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धरना काहेका है भाई?

ममता कौनसे संविधान प्रबोधित प्रावधान की रक्षाके लिये बैठी है?

ममता किसके सामने धरने पर बैठी है?

पूलिस कमिश्नर जो कायदेका रक्षक है वह  कैसे धरने पर बैठा है?

पूलिस आयुक्त ड्युटी पर है या नहीं?

कुछ टीवी चैनलवाले कहेते है कि वह सीवील-ड्रेसमें है, इसलिये ड्युटी पर नहीं?

अरे भाई, वह वर्दीमें नहीं है तो क्या वह छूट्टी पर है?

इन चैनलवालोंको यह भी पता नहीं कि वर्दीमें नहीं है इसका मतलब यह नहीं कि वह ड्युटी पर नहीं है. पूलिओस आयुक्त कोई सामान्य “नियत समयकी ड्युटी” वाला सीपाई नहीं है कि उसके लिये, यदि वह वर्दी न हो तो ड्युटी पर नहीं है ऐसा निस्कर्ष निकाला जाय.

सभी राजपत्रित अफसर (गेझेटेड अफसर) हमेशा २४/७ ड्युटी पर ही होते है ऐसे नियमसे वे बद्ध है. यदि पूलिस आयुक्त केज्युअल लीव पर है तो भी उसको ड्युटी पर ही माना जाता है. यदि वह अर्न्ड लीव (earned leave) पर है तभी ही उनको ड्युटी पर नहीं है ऐसा माना जाता है. लेकिन ऐसा कोई समाचार ही नहीं है, और किसी भी टीएमसीके नेतामें हिमत नहीं है कि वह इस बातका खुलासा करें.

ममता ने एक बडा मोर्चा खोल दिया है. सी.बी.आई. के सामने पूलिस. वैसे तो सर्वोच्च अदालतके आदेश पर ही सी.बी.आई. काम कर रही है तो भी.

इससे ममताके पूलिस अफसरों पर केस बनता है, ममता पर केस बनाता है चाहे ममता कितनी ही फीलसुफी (तत्त्व ज्ञानकी) बातें क्यूँ न कर ले.

कुछ लोग समज़ते है कि प्र्यंका (वाईदरा) खूबसुरत है इसलिये उसकी प्रसंशा होती है. लेकिन ऐसा कुछ नहीं है. प्रशंसाके लिये तो बहाना चाहिये. हम यह बात भी समज़ लेंगे.

अब सर्वोच्च न्यायालयमें मामला पहूँचा है.

लेकिन सर्वोच्च अदालत क्या है?

सर्वोच्च अदालतके न्याय क्या अनिर्वचनीय है?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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साहिब (जोकर), बीबी (बहनोईकी) और गुलाम(गण)

जोकर, हुकम (ट्रम्प) और गुलाम [साहिब, बीबी (बहनोईकी) और गुलाम]

गुजरातीमें एक कहावत है “भेंस भागोळे, छास छागोळे, अने घेर धमाधम”

एक किसानका संयुक्त कुटुंब था. भैंस खरीदनेका विचार हुआ. एक सदस्य खरीदनेके लिये शहरमें गया. घरमें जोर शोर से चर्चा होने लगी कि भैंसके संबंधित कार्योंका वितरण कैसे होगा. कौन उसका चारा लायेगा, कौन चारा  डालेगा, कौन गोबर उठाएगा, कौन दूध निकालेगा, कौन दही करेगा, कौन छास बनाएगा, कौन  छासका मंथन करेगा ….? छासके मंथन पर चिल्लाहट वाला शोर मच गया. यह शोरगुल सूनकर, सब पडौशी दौडके आगये. जब उन्होंने पूछा कि भैंस कहाँ है? तो पता चला कि भैस तो अभी आयी नहीं है. शायद गोंदरे (भागोळ) तक पहूँची होगी या नहीं पता नही. … लेकिन छास का मंथन कौन करेगा इस पर विवाद है.

यहां इस कोंगीके नहेरुवीयन कुटुंबकवादी पक्षका फरजंदरुपी, भैंस तो अमेरिकामें है, और उसको कोंगी पक्षका एक होद्दा दे दिया है, तो अब उसका असर चूनावमें क्या पडेगा उसका मंथन मीडिया वाले और कोंगी सदस्य जोर शोरसे करने लगे हैं.

कोंगीलोग तो शोर करेंगे ही. लेकिन कोंगीनेतागण चाहते है कि वर्तमान पत्रोंके मालिकोकों समज़ना चाहिये कि, उनका एजन्डा क्या है! उनका एजन्डा भी कोंगीके एजन्डेके अनुसार होना चाहिये. जब हम कोंगी लोग जिस व्यक्तिको प्रभावशाली मानते है उसको समाचार माध्यमोंके मालिकोंको भी प्रभावशाली मानना चाहिये और उसी लाईन पर प्रकाशन और चर्चा होनी चाहिये.

कोंगी नेतागण मीडीया वालोंको समज़ाता है कि;

“हमने क्या क्या तुम्हारे लिये (इन समाचार माध्यमोंके लिये) नहीं किया? हमने तुमको मालदार बनाये. उदाहरणके लिये आप वेस्टलेन्ड हेलीकोप्टरका समज़ौता ही देख लो हमने ४० करोड रुपयेका वितरण किया था. सिर्फ इसलिये कि ये समा्चार माध्यम इस के विरुद्ध न लिखे. हमने जब जब विदेशी कंपनीयोंसे व्यापारी व्यवहार किया तो तुम लोगोंको तुम्हारा हिस्सा दिया था और दिया है. तुम लोगोंको कृतज्ञता दिखाना ही चाहिये.

हमारी इस भैसको कैसे ख्याति दोगे?

मीडीया मूर्धन्य बोलेः “कौन भैस? क्या भैंस? क्यों भैंस? ये सब क्या मामला है?

कोंगीयोंने आगे चलाया; “ अरे वाह भूल गये क्या ?हम कोंगी लोग तो साक्षात्‌ माधव है.

“मतलब?

“मा”से मतलब है लक्ष्मी. “धव”से मतलब है पति. माधव मतलब, लक्ष्मी के पति. यानी कि विष्णु भगवान. हम अपार धनवाले है. हम धनहीन हो ही नहीं सकता. इस धनके कारण हम क्या क्या कर सकते हैं यह बात आपको मालुम ही है?

नहिं तो?

मूकं कुर्मः वाचालं पंगुं लंगयामः गिरिं

अस्मत्‍ कृपया भवति सर्वं, अस्मभ्यं तु नमस्कुरु

[(अनुसंधानः मूकं करोति वाचालं, पंगुं लंगयते गिरिं । यत्कृ‌पा तं अहम्‌ वन्दे परमानंदं माधवं ॥ )

उस लक्ष्मीपति जो अपनी कृपासे  “मुका” को वाचाल बना सकता है और लंगडेको पर्वत पार करनेके काबिल बना देता है उस लक्ष्मी पतिको मैं नमन करता हूँ.]   

लेकिन यदि लक्ष्मीपतियोंको, खुदको ऐसा बोलना है तो वे ऐसा ही बोलेंगे कि हम अपनी कृपासे मुकोंको वाचाल बना सकते है और लंगडोंको पर्वत पार करवा सकते है, इस लिये (हे तूच्छ समाचार माध्यमवाला, हम इससे उलटा भी कर सकते हैं), हमें तू नमन करता रह. तू हमारी मदद करेगा तो हम तुम्हारी मदद करेंगे. धर्मः रक्षति रक्षितां.

भैंसको छा देना है अखबारोंमें

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आर्टीस्टका सौजन्य

वाह क्या शींग? वाह क्या अंग है? वाह क्या केश है? वाह क्या पूंछ है…? वाह क्या चाल है? वाह क्या दौड है? वाह क्या आवाज़ है? इस भैंसने तो “भागवत” पूरा आत्मसात्‌ किया ही होगा…!!!

“हे मीडीया वाले … चलो इसकी प्रशंसा करो…

और मीडीया वालोंने प्रशंसाके फुल ही नहीं फुलोंके गुलदस्तोंको बिखराना चालु कर दिया. अरे यह भैंस तो अद्दल (असल, न ज्यादा, न कम, जैसे दर्पणका प्रतिबिंब) उसके दादी जैसी ही है.  जब दिखनेमें दादी जैसी है तो अवश्य उसकी दादीके समान होशियार, बुद्धिमान, चालाक, निडर …. न जाने क्या क्या गुण थे इसकी दादीमें …. सभी गुण इस भैंसमें होगा ही. याद करो इस भैंसके पिता भैंषाको, जिसको, हमने ही तो “मीस्टर क्लीन” नामके विशेषणसे नवाज़ा था. हालाँ कि वह अलग बात है कि बोफोर्सके सौदेमें उसने अपने  हाथ काले किये. वैसे तो दादीने भी स्वकेन्द्री होने कि वजहसे आपात्काल घोषित करके विरोधीयोंको और महात्मा गांधीके अंतेवासीयोंको भी  कारावासमें डाल दिया था. इसीकी वजह से इसकी दादी खुद १९७७के चूनावमें हार गयी थी वह बात अलग है. और यह बात भी अलग है कि वह हर क्षेत्रमें विफल रही थीं. और आतंकवादीयोंको पुरस्कृत करनेके कारण वह १९८४में भी हारने वाली थी. यह बात अलग है कि वह खुदके पैदा किये हुए भष्मासुरसे मर गई और दुसरी हारसे बच गई.  

गुजराती भाषामें “बंदर” को “वांदरो” कहा जाता है.

लेकिन गुजरात राज्यके “गुजरात”के प्रदेशमें “वादरो”का उच्चारण “वोंदरो” और “वोदरो” ऐसा करते है. काफि गुजराती लोग “आ” का उच्चारण “ऑ” करते है. पाणी को पॉणी, राम को रॉम …. जैसे बेंगाली लोग जल का उच्चार जॉल, “शितल जल” का उच्चार “शितॉल जॉल” करते है. 

सौराष्ट्र (काठीयावाड) प्रदेशमें “वांदरो” शब्दका उच्चारण “वांईदरो” किया जाता है.

अंग्रेज लोग भी मुंबईके “वांदरा” रेल्वेस्टेशनको “बांड्रा” कहेते थे. मराठी लोग उसको बेंन्द्रे कहेते थे या कहेते है.

तो अब यह “वाड्रा” आखिरमें क्या है?

वांईदरा?  या वांद्रा?  या वोंदरा?

याद करो …

पुर तो एक ही है, जोधपुर. बाकी सब पुरबैयां

महापुरुषोंमें “गांधी” तो एक ही है, वह है महात्मा गांधी, बाकी सब घान्डीयां

हांजी, ऐसा ही है. अंग्रेजोंके जमानेसे पहेले, गुजरातमें गांधी एक व्यापारी सरनेम था. लेकिन अंग्रेज लोग जब यहां स्थायी हुए उनका साम्राज्य सुनिश्चित हो गया तब “हम हिन्दुसे भीन्न है” ऐसा मनवाने के लिये पारसी और कुछ मुस्लिमोंने अपना सरनेम “गांधी”का “घान्डी” कर दिया. वे बोले, हम “गांधी” नहीं है. हम तो “घान्डी” है. हम अलग है. लेकिन महात्मा गांधीने जब नाम कमाया, और दक्षिण आफ्रिकासे वापस आये, तो कालक्रममें  नहेरुने सोचा कि उसका दामात “घांडी”में से वापस गांधी बन जाय तो वह फायदएमंद रहेगा. तो इन्दिरा बनी इन्दिरा घान्डीमेंसे इन्दिरा गांधी. और चूनावमें उसने अपना नाम लिखा इन्दिरा नहेरु-गांधी.

तो प्रियन्का बनी प्रियंका वाड्रा (या वांईदरा, या वांदरा या वादरा या वाद्रे)मेंसे बनी प्रियंका वांइन्दरा गांधी या प्रियंका गांधीवांइन्दरा.

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आर्टीस्टका सौजन्य

हे समाचार माध्यमके प्रबंधको, तंत्री मंडलके सदस्यों, कोलमीस्टों, मूर्धन्यों, विश्लेषकों … आपको इस प्रियंका वांईदराको यानी प्रियंका गांधी-वांईदराको राईमेंसे पर्वत बना देनेका है. और हमारी तो आदत है कि हमारा आदेश जो लोग नहीं मानते है उनको हम “उनकी नानी याद दिला देतें है”. हमारे कई नेताओने इसकी मिसाल दी ही है. याद करो राजिव गांधीने “नानी याद दिला देनेकी बात कही थी … हमारे मनीष तीवारीने कहा था कि “बाबा रामदेव भ्राष्टाचारसे ग्रस्त है हम उसके धंधेकी जाँच करवायेंगे” दिग्वीजय सिंघने कहा था “सरसे पाँव तक अन्ना हजारे भ्रष्ट है हम उसकी संस्था की जांच करवाएंगे, किरन बेदीने एरोप्लेनकी टीकटोंमें भ्रष्टाचार किया है हम उसको जेलमें भेजेंगे”, मल्लिकार्जुन खडगेने कहा “ हम सत्तामें आयेंगे तो हर सीबीआई अफसरोंकी फाईल खोलेंगे और उसकी  नानी याद दिला देंगे, यदि उन्होने वाड्राकी संपत्तिकी जाँच की तो … हाँजी हम तो हमारे सामने आता है उसको चूर चूर कर देतें हैं. वीपी सिंह, मोरारजी देसाई, और अनगीनत महात्मागांधीवादीयोंको भी हमने बक्षा नहीं है, तो तुम लोग किस वाडीकी मूली हो. तुम्हे तुम्हारी नानी याद दिला देना तो हमारे बांये हाथका खेल है. सूनते हो या नहीं?

“तो आका, हमें क्या करना है?

तुम्हे प्रियंका वादरा गांधीका प्रचार करना है, उसका जुलुस दिखाना है, उसके उपर पुष्पमाला पहेलाना है वह दिखाना है, पूरे देशमें जनतामें खुशीकी लहर फैल गई है वह दिखाना है, उसकी बडी बडी रेलीयां दिखाना है, उसकी हाजरजवाबी दिखाना है, उसकी अदाएं दिखाना है, उसका इस्माईल (स्माईल) देखाना है, उसका गुस्सा दिखाना है, उसके भीन्न भीन्न वस्त्रापरिधान दिखाना है, उसका केशकलाप दिखाना है, उसके वस्त्रोंकी, अदाओंकी, चाल की, दौडकी स्टाईल दिखाना है और उसकी दादीसे वह हर मामलेमें कितनी मिलती जुलती है यह हर समय दिखाना है. समज़े … न … समज़े?

“हाँ, लेकिन आका! भैंस (सोरी … क्षमा करें महाराज) प्रियंका तो अभी अमेरिकामें है. हम यह सब कैसे बता सकते हैं?

“अरे बेवकुफों … तुम्हारे पास २०१३-१४की वीडीयो क्लीप्स और तस्विरें होंगी ही न … उनको ही दिखा देना. बार बार दिखा देना … दिखाते ही रहेना … यही तो काम है तुम्हारा … क्या तुम्हें सब कुछ समज़ाना पडेगा? वह अमेरिकासे आये उसकी राह दिखोगे क्या? तब तक तुम आराम करोगे क्या? तुम्हे तो मामला गरम रखना है … जब प्रियंका अमेरिकासे वापस आवें तब नया वीडीयो … नयी सभाएं … नयी रेलीयां … नया लोक मिलन… नया स्वागत …  ऐसी वीडीयो तयार कर लेना और उनको दिखाना. तब तक तो पुराना माल ही दिखाओ. क्या समज़े?

“हाँ जी, आका … आप कहोगे वैसा ही होगा … हमने आपका नमक खाया है …

और वैसा ही हुआ… प्रियंका गांधी आयी है नयी रोशनी लायी है …. वाह क्या अदाएं है … अब मोदीकी खैर नहीं ….

प्रियंका वादरा अखबारोंमें … टीवी चैनलोंमें … चर्चाओंमे ..,. तंत्रीयोंके अग्रलेखोंमें … मूर्धन्योंके लेखोंमें … कोलमीस्टोंके लेखोमें … विश्लेषणोंमें छाने लगी है …

प्रियंका वादराको ट्रम्प कार्ड माना गया है. वैसे तो यह ट्रम्प कार्ड २०१३-१४में चला नहीं था … वैसे तो उसकी दादी भी कहाँ चली थीं? वह भी तो हारी थी. वह स्वयं ५५००० मतोंसे हार गयी थी. वह तो १९८४में फिरसे भी हारने वाली थी … लेकिन मर गयी तो हारनेसे  बच गयी.

प्रियंका वांईदरा ट्रम्प कार्ड है. ट्रम्प कार्डको उत्तरभारतके लोग “हुकम” यानी की “काली” या कालीका ईक्का  केहते है. प्रियंका ट्रम्प कार्ड है. कोंगीके प्रमुख जोकर है. कोंगीके बाकी लोग और मीडीया गुलाम है.

साहिब यानी कोंगी पक्ष प्रमुख (यानी जोकर), (वांईदराकी) बीबी और दर्जनें गुलाम कैसा खेल खेलते है वह देखो.

“आँखमारु जोकर” गोवामें पूर्व सुरक्षामंत्री (पनीकर)से मिलने उनके घर गया था. उसने बोला कि “ … मैं पनीकरसे कल मिला. पनीकरने बताया कि राफेल सौदामें जो चेन्ज पीएम ने किया वह उसको दिखाया नहीं गया था.” ताज़ा जन्मा हुआ बच्चा भी कहेगा कि, इसका अर्थ यही होता है कि “जब रा.गा. पनीकरको मिलने गया तो पनीकरने बताया कि राफैल सौदामें जो चेन्ज किया वह पीएमने तत्कालिन रक्षा मंत्रीको दिखाया नहीं था.”

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आर्टीस्टका सौजन्य

ऐसा कहेना रा.गा.के चरित्रमें और कोंगी संस्कारमें आता ही है. रा.गा.के सलाहकारोंने रा.गा.को सीखाया ही है कि तुम ऐसे विवाद खडा करता ही रहो कि जिससे बीजेपी के कोई न कोई नेताके लिये बयान देना आवश्यक हो जाय. फिर हम ऐसा कहेगें कि हमारा मतलब तो यही था लेकिन बीजेपी वाले गलत अर्थमें बातोंको लेते हैं, और बातोंका बतंगड बनाते हैं. उसमें हम क्या करें? और देखो … मीडीया मूर्धन्य तो हमारे सपोर्टर है. उनमेंसे कई हमारे तर्क का अनुमोदन भी करेंगे. कुछ मूर्धन्य जो अपनेको तटस्थता प्रेमी मानते है वे बभम्‌ बभम्‌ लिखेंगे और इस घटनाका सामान्यीकरण कर देंगे. मीडीयाका कोई भी माईका लाल, रा.गा.के उपरोक्त दो अनुक्रमित वाक्योंको प्रस्तूत करके रा.गा.का खेल बतायेगा नहीं. 

कोंगीकी यह पुरानी आदत है कि एक जूठ निश्चित करो और लगातार बोलते ही रहो. तो वह सच ही हो जायेगा. १९६६ से १९७४ तक कोंगी लोग मोरारजी देसाईके पुत्रके बारेमें ऐसा ही बोला करते थे. इन्दिराका तो शासन था तो भी उसने जांच करवाई नहीं और उसने अपने भक्तोंको जूठ बोलने की अनुमति दे रक्खी थी. क्यों कि इन्दिरा गांधीका एजन्डा था कि मोरारजी देसाईको कमजोर करना. यही हाल उसने बादमें वीपी सिंघका किया कि, “वीपी सिंहका सेंटकीट्समें अवैध एकाउन्ट है”. “मोरारजी देसाई और पीलु मोदी आई.ए.एस. के एजन्ट” है….

ऐसे जूठोंका तो कोंगीनेताओंने भरपूर सहारा लिया है और जब वे जूठे सिद्ध होते है तो उनको कोई लज्जा भी नहीं आती. सत्य तो एक बार ही सामने आता है. लेकिन मीडीयावाले जो सत्य सामने आता है, उसको,  जैसे उन्होंनें असत्यको बार बार चलाया था वैसा बार बार चलाते नहीं. इसलिये सत्य गीने चूने यक्तियोंके तक ही पहूँचता है और असत्यतो अनगिनत व्यक्तियों तक फैल गया होता है. इस प्रकार असत्य कायम रहेता है. 

“समाचार माध्यम वाले हमारे गुलाम है. हम उनके आका है. हम उनके अन्नदाता है. ये लोग अतार्किक भले ही हो लेकिन आम जनताको गुमराह करने के काबिल है.

ये मूर्धन्य लोग स्वयंकी और उनके जैसे अन्योंकी धारणाओ पर आधारित चर्चाएं करेंगे.

जैसे की स.पा. और बस.पा का युपीका गठन एक प्रबळ जातिवादी गठबंधन है. हाँ जी … ये मूर्धन्य लोगोंका वैसे तो नैतिक कर्तव्य है कि जातिवाद पर समाजको बांटने वालोंका विरोध करें. लेकिन ये महाज्ञानी लोग इसके उपर नैतिकता पर आधारित तर्क नहीं रखेंगे. जैसे उन्होंने स्विकार लिया है कि “वंशवाद” (वैसे तो वंशवाद एक निम्न स्तरीय मानसिकता है) के विरुद्ध हम जगरुकता लाएंगे नहीं.

हम तो ऐसी ही बातें करेंगे कि वंशवाद तो सभी राजकीय दलोंमे है. हम कहां प्रमाणभान रखनेमें मानते है? बस इस आधार पर हम सापेक्ष प्रमाण की सदंतर अवगणना करेंगे. उसको चर्चाका विषय ही नहीं बनायेंगे. हमें तो वंशवादको पुरस्कृत ही करना है. वैसे ही जातिवादको भी सहयोग देना है. तो हम जातिवादके विरुद्ध क्यूँ बोले? हम तो बोलेंगे कि, स.पा. और ब.स.पा. के गठबंधनका असर प्रचंड असर जनतामें है.  ऐसी ही बातें करेंगे. फिर हम हमारे जैसी सांस्कृतिक मानसिकता रखनेवालोंके विश्लेषणका आधार ले के, ऐसी भविष्यवाणी करेंगे कि बीजेपी युपीमें ५ से ७ सीट पर ही सीमट जाय तो आश्चर्य नहीं.

यदि हमारी भविष्यवाणी खरी न उतरी, तो हम थोडे कम अक्ल सिद्ध होंगे? हमने तो जिन महा-मूर्धन्योंकी भविष्यवाणीका आधार लिया था वे ही गलत सिद्ध होंगे. हम तो हमारा बट (बटक buttock) उठाके चल देंगे.

प्रियंका वांईदरा-घांडी खूबसुरत है और खास करके उसकी नासिका इन्दिरा नहेरु-घांडीसे मिलती जुलती है. तो क्यों न हम इस खुबसुरतीका और नासिकाका सहारा लें? हाँ जी … प्रियंका इन्दिरा का रोल अदा कर सकती है.

“लेकिन इन्दिरा जैसी अक्ल कहाँसे आयेगी?

“अरे भाई, हमें कहां उसको अक्लमान सिद्ध करना है. हमें तो हवा पैदा करना है. देखो … इन्दिरा गांधी जब प्रधान मंत्री बनी, यानी कि, उसको प्रधान मंत्री बनाया गया तो वह कैसे छूई-मूई सी और गूंगी-गुडीया सी रहेती थी. लेकिन बादमें पता चला न कि वह कैसी होंशियार निकली. तो यहां पर भी प्रियंका, इन्दिरासे भी बढकर होशियार निकलेगी ऐसा प्रचार करना है तुम्हे. समज़ा न समज़ा?

“अरे भाई, लेकिन इन्दिरा तो १९४८से अपने पिताजीके साथा लगी रहती थी और अपने पिताजीके सारे दावपेंच जानती थी. उसने केरालामें आंदोलन करके नाम्बुद्रीपादकी सरकारको गीराया था. इन्दिरा तो एक सिद्ध नाटकबाज़ थी. प्रारंभमें जो वह, संसदमें  छूई-मूई सी रहती थी वह भी तो उसकी व्युहरचनाका एक हिस्सा था. सियासतमें प्रियंकाका योगदान ही कहाँ है?

“अरे बंधु,, हमे कहाँ उसका योगदान सिद्ध करना है. तुम तो जानते हो कि, जनताका बडा हिस्सा और कोलमीस्टोंका भी बडा हिस्सा १९४८ – १९७०के अंतरालमें, या तो पैदा ही नहीं हुआ था, या तो वह पेराम्बुलेटर ले के चलता था.

“लेकिन इतिहास तो इतिहास है. मूर्धन्योंको तो इतिहासका ज्ञान तो, होना ही चाहिये न ?

“नही रे, ऐसी कोई आवश्यकता नहीं. जनताका बडा हिस्सा कैसा है वह ही ध्यानमें रखना है. हमारे मूर्धन्य कोलमीस्टोंका टार्जेट आम जनता ही होना चाहिये. इतिहास जानने वाले तो अब अल्प ही बचे होगे. अरे वो बात छोडो. उस समयकी ही बात करो. राजिव गांधीको, तत्कालिन प्रेसीडेन्ट साहबने, बिना किसी बंधारणीय आधार, सरकार बनानेका न्योता दिया ही था न. और राजिव गांधीने भी बिना किसी हिचकसे वह न्योता स्विकार कर ही लिया था न? वैसे तो राजिवके लिये तो ऐसा आमंत्रण स्विकारना ही अनैतिक था न? तब हमने क्या किया था?  हमने तो “मीस्टर क्लीन आया” … “मीस्टर क्लीन आया” … ऐसा करके उसका स्वागत ही किया था न. और बादमें जब बोफोर्स का घोटाला हुआ तो हमने थोडी कोई जीम्मेवारी ली थी? ये सब आप क्यों नहीं समज़ रहे? हमे हमारे एजन्डा पर ही डटे रहेना है. हमें यह कहेना है कि प्रियंका होशियार है … प्रियंका होंशियार है … प्रियंकाके आनेसे बीजेपी हतःप्रभः हो गयी है. प्रियंकाने तो एस.पी. और बी.एस.पी. वालोंको भी अहेसास करवा दिया है कि उन्होंने गठबंधनमें जल्दबाजी की है. … और … दुसरा … जो बीजेपीके लोग, प्रियंकाके बाह्य स्वरुपका जिक्र करते हैं और हमारे आशास्वरुप प्रचारको निरस्र करनेका प्रयास कर रहे है … उनको “ नारी जातिका अपमान” कर रहे … है ऐसा प्रचार करना होगा. हमे यही ढूंढना होगा कि प्रियंकाके विरुद्ध होने वाले हरेक प्रचारमें हमें नारी जातिका अपमान ढूंढना होगा. समज़े … न समज़े?

कटाक्ष, चूटकले, ह्युमर किसीकी कोई शक्यता ही नहीं रखना है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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क्या ये लोग मुंह दिखानेके के योग्य रहे हैं?

नरेन्द्र मोदीकी देश में सर्वव्यापक जित हुई. भारतकी जनताने उसको बहुमतसे विजय दिलाई.

लेकिन उसके पहेले क्या हुआ था?

ऐसा माना जाता है कि एक “मोदी रोको आंदोलन” सामुहिक ढंगसे मिलजुल कर चल रहा था, तथा कुछ मूर्धन्य द्वारा, “हम कुछ हटके है” ऐसी विशेषता का आत्मप्रदर्शन और आत्मख्यातीके मानसिक रोगसे पीडित विद्वानोंने इस आंदोलनमें अपना योगदान दिया करते थे.

नरेन्द्र मोदीके विरोधी कहां कहां थे और है?

दृष्य श्राव्य माध्यम टीवी चेनल

कोई न कोई क्षेत्रमें ख्यात (सेलीब्रीटी) व्यक्ति विशेष.

कोंगी और उनके साथी नेतागण

अखबारामें कटार लिखनेवाले (कोलमीस्ट)

दृष्य श्राव्य समाचार माध्यमः

इन माध्यमोंने कभी मुद्दे पर आधारित और माहितिपूर्ण संवाद नहीं चालाये. नरेन्द्र मोदीने कहा कि धारा ३७० से देशको या कश्मिरको कितना लाभ हुआ इसकी चर्चा होनी चाहिये. तो इसके उपर फारुख, ओमर आदि नेताओंने जो कठोर शब्द प्रयोग किये और इन शब्दोंको ही बार बार प्रसारित किया गया. चेनलोंने कभी उन नेताओंको यह नहीं पूछा कि धारा ३७० से क्या लाभ हुआ उसकी तो बात करो.
चेनलोंका चारित्र्य ऐसा रहा कि जो मूलभूत सत्य है और समस्या है वह दबा दिया जाय. ऐसा ही “गुजरात मोडल”के विषय पर हुआ. जिन नेताओंने बिना कोई ठोस आधार पर कडे और अपमान जनक शब्दोंसे “गुजरात मोडल”की निंदा की, चेनल वाले सिर्फ शब्दोंको ही प्रसिद्धि देते रहे. चेनलोनें कभी उन नेताओंसे यह पूछा नहीं कि आप कौनसे आधार पर गुजरात मोडलकी निंदा कर रहे हो? चैनलोंने बुराई करने वाले नेताओंकी प्रतिपरीक्षा (क्रोस एक्जामीनेशन) भी नहीं की. उनका बतलब ही यही था कि नरेन्द्र मोदीको ही बिना आधार बदनाम करो और नरेन्द्र मोदीके और बीजेपीके बारेमें बोले गये निंदाजनक शब्दों को ही ज्यादा प्रसिद्धि दो. ऐसे तो कई उदाहरण है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसकी देन

सिझोफ्रेनीयासे पीडित

इन लोगोंको पहेचानो जो सिझोफ्रेनीयासे पीडित है(Schizophrenia एक ऐसी बीमारी है जिसमें खुदके विचारका खुदके आचारके साथ संबंध तूट जाता है और सिर्फ उनकी भावना अभद्र शब्दोंसे प्रकट होती है)

पी चिदंबरः

ये महाशय अपनेको अर्थ शास्त्री समझते है. वे अर्थ मंत्री भी रहे. अगर चाहते तो नरेन्द्र मोदीने जिस विकासके लिये जिन क्षेत्रोंको प्राथमिकता दी, और गुजरातका विकास किया, उसमें अपना तर्क प्रस्तूत कर सकते थे. ऐसा लगता है कि, ऐसा करना उनके बसकी बात नहीं थी या तो वे जनताको गुमराह करना चाहते थे.

पी चिदंबरंने क्या कहा? उन्होने कहा कि, “नरेन्द्र मोदीका अर्थशास्त्रका ज्ञान पोस्टेज स्टेंप पर लिख सके उतना ही है”. हो सकता है यह ज्ञान उनके खुदके ज्ञानका कद हो.

महात्मा गांधीने कहा था “सर्वोदय”. उनका एक विस्तृतिकरण है “ओन टु ध लास्ट”.

इसको भी समझना है तो “ईशावास्य वृत्ति रखो. इसमें हर शास्त्र आ जाता है.

नरेन्द्र मोदीने यह समझ लिया है. नरेन्द्र मोदी राजशास्त्री ही नहीं विचारक भी है.
कपिल सिब्बलः “नरेन्द्र मोदी सेक्टेरीयन है. उसने फेक एन्काउन्टर करवाये है. नरेन्द्र मोदी लघुमतियोंके लिये कुछ भी करता नहीं है. नरेन्द्र मोदी कोई भी हालतमें प्रधान मंत्री बन ही नहीं सकता. वह स्थानिक है और वह स्थानिक भी नहीं रहेगा. वह शिवसेनाके नेताओंके जैसे लोगोंके साथ दारुपार्टी करता है.”

अब ये सिब्बल महाशय खुद गृह मंत्री थे. उन्होने क्या किया? अगर नरेन्द्र मोदी संविधानके अनुसार काम करता नहीं है तो उनकी पार्टी की सरकार कदम उठा सकती थी. वे क्युं असफल रहे? यह कपिल सिब्बल भी सिझोफ्रेनीया नामवाला मानसिक रोगसे पीडित है.

मनमोहन सिंहः वैसे यह महाशय प्रधान मंत्री है तो भी रोगिष्ठ है. उन्होने कहा नरेन्द्र मोदी अगर प्रधान मंत्री बने तो भारतके लिये भयजनक है. कैसे? वे खुद प्रधान मंत्री है तो भी उनके लिये वे यह आवश्यक नहीं समजते है कि वे यह बताये कि किस आधार पर वे ऐसा बता रहे है. क्या गुजरातकी हालत भय जनक है? अगर हां, तो कैसे? वास्तवमें उनकी यह रोगिष्ट मानसिकता है. अगर प्रधानमंत्री जनताको गुमराह करेगा तो वह देशके लिये कितना भयजनक स्थितिमें पहोंचा सकता है? आगे चल कर यह प्रधान मंत्री यह भी कहेते है कि मोदी उनके पक्षके पक्षके लिये बेअसर है.

“मोदी तो बिना टोपींगवाला पीझा है” अनन्त गाडगील कोंगीके प्रवक्ता

“मोदी तो फुलाया हुआ बलुन है” वह शिघ्र ही फूटने वाला है” शरद पवार.

“मोदी हिटलर है और पॉलपोट (कम्बोडीयन सरमुखत्यार) है” शान्ताराम नायक कोंगी एम.पी.

“मोदी कोई परिबल ही नहीं है. वह समाचार माध्यमका उत्पादन है. मोदी तो भंगार (स्क्रॅप) बेचनेवाला है. मोदी तो गप्पेबाज यानी कि “फेकु” है, बडाई मारनेवाला है” दिग्विजय सिंह जनरल सेक्रेटरी कोंगी.

“नरेन्द्र मोदी तो बंदर है. लोग मोदी बंदरका खेल देख रहे है. नरेन्द्र मोदी नपुंसक है” सलमान खुर्शिद कोंगी मंत्री.

“नरेन्द्र मोदी भस्मासुर है” जय राम रमेश कोंगी मंत्री

“नरेन्द्र मोदी मेरी गीनतीमें ही नहीं है. “ राहुल कोंगी उप प्रमुख

“हमारे पक्ष के लिये मोदी बेअसर है. हमारे लिये उसका कोई डर नही” गुलाम नबी आझाद. कोंगी मंत्री

“नरेन्द्र मोदी? एक दिखावा है. बीके हरिप्रसाद, राज बब्बर, शकील एहमद, कोंगी नेता.

“नरेन्द्र मोदी एक कोमवादी चहेरा है” चन्द्रभाण. कोंगी प्रमुख राजस्थान

“मोदी एक निस्फलता है” अजय माकन कंगी जनरल सेक्रेटरी

“मोदी एक चमगादड है” ईन्डो एसीअन न्युज सर्वीस (ई.ए.एन.एस)

“मोदी लघुमतियोंका दुश्मन है” सुखपाल सिंग खेरा कोंगी पंजाब प्रमुख

“मोदी रेम्बो बनना चाहता है” मनीश तिवारी कोंगी मंत्री

“मोदी बीजेपीको जमीनमें ८ फीट नीचे गाड देगा. यह निश्चित है.” फ्रान्सीस्को कोंगी प्रमुख गोवा

“मोदी धर्मांधताका प्रतिक है.” रमण बहल कोंगी कारोबारी सदस्य.

“मोदी अपनेको सुपरमेन समजता है. मोदी तो रेम्बो है. मोदी रावण है” सत्यव्रत कोंगी नेता

“मोदी त्रास फैलानेवाला है. रेम्बो बनने के लिये दिमाग जरुरी नहीं है” रेणुका चौधरी कोंगी नेता.

“मोदी और बीजेपीको मानने वालोंको समूद्रमें डूबो दो” फारुख अब्दुला

“मोदी और बीजेपीको मानने वालोंके टूकडे टूकडे करदो” आझमखान

“नरेन्द्र मोदी धर्मांध जुथका प्रतिक है, नरेन्द्र मोदी कोमवादी है उसको हराओ. अगर मोदी प्रधान मंत्री बन गया तो देश विभाजित हो जायेगा. यह समयका तकाजा है कि मोदीको रोका जाय” महेश भट्टा, इम्तीआझ अली, विशाल भारद्वाज, नन्दिता दास, गोविन्द निहलानि, सईद मिर्झा, झोया अख्तर, कबीर खान, शुभा मुद्गल, अदिति राओ हैदरी, आदिने एक निवेदन करके जनहितमें प्रकाशित करवाया.

“अगर नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बन गया तो मैं बोलीवुड छोड दूंगा और जाति परिवर्तन (सेक्स चेन्ज) करवा लुंगा” बोली वुडका कमाल खान

“अगर नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बन गया तो मैं राजकारण छोड दूंगा” देव गौडा पूर्व प्रधान मंत्री.

इन नेताओंने ऐसी छूट कैसे ली? क्यों कि उनकी शिर्ष नेता सोनीया (एन्टोणीया)ने नरेन्द्र मोदीको मौतका सोदागर और गुजरातकी जनताको गोडसे की ओलादें कहा था.

मीडीयाके मूर्धन्य जो अपनी कोलम चलाते है. उनका नैतिक कर्तव्य है राजकीय गतिविधियोंका और विचारोंका विश्लेषण करना और जनताको जागृत करना. लेकिन क्या उन्होने यह कर्तव्य निभाया?

ये कोलमीस्ट कौन थे?

उदाहरण के लिये हम गुजरातकी बात करेंगें. दिव्य भास्कर एक नया नया समाचार पत्र है और कुछ वर्ष पहेले ही उसने पादार्पण किये है लेकिन उसने पर्याप्त वाचकगण बना लिया है. उसके कोलमीस्ट को देखें. जो बीजेपी और नरेन्द्र मोदीके विरोधी थे उनका वैचारिक प्रतिभाव और तर्क कैसा रहा?

सनत महेताः

जो खुद नहेरुवीयन कोंग्रेसके होद्देदार थे. सरकारमें १९६७-१९६९, १९७१-९७५, १९८१-१९९५ गुजरात सरकारमें मंत्री भी रह चूके है. यह सनत महेता का इतिहास क्या है? सर्व प्रथम वे पीएसपी (प्रजा सोसीयालीस्ट पक्षमें थे).
नहेरु भी अपनेको समाजवादीके रुपमें प्रस्तूत करते रहते थे. उन्होने खुदकी विचारधाराका नाम बदलते बदलते “लोकशाहीवादी समाज रचना” का नामकरण किया. स्वतंत्र-पक्ष अपना जोर जमाने लगा. इस स्वतंत्र पक्षमें दिग्गजनेता थे. चीनकी भारत पर “केकवॉक” विजयके बाद और नहेरुकी मृत्युके बाद इन्दिराने खुदको और पिताजीकी यथा कथित विचारधाराको मजबुत करनेके लिये इस प्रजा सोसीयालीस्ट पक्षको पटा लिया.

भारतमें उस समय एक और समाजवादी पक्ष भी था जो “संयुक्त समाजवादी पक्ष” नामसे जाना जाता था. उसके नेता डॉ. राममनोहर लोहिया थे. उनको नहेरुवीयनोंका वैचारिक दंभ मालुम था इस लिये उनका पक्ष इन्दिराके पक्षमें संमिलित नहीं हुआ.

लेकिन यह सनतकुमार का जुथ (अशोक महेता इसके नेता थे) नहेरुकी कोंग्रेसमें विलयित हो गया. इन्दिरा ने देखा कि अपने पिताजीने अपनी बेटीको सत्ता पर लानेके लिये जो सीन्डीकेट बनायी थी वह तो खुदके उपर हामी हो रही है और उसमेंसे कुछ लोग तो दक्षिण पंथी है तब उसने पक्षमें फसाद करके एक नया पक्ष बनाया जो कोंग्रेस आई (कोंग्रेस इन्दिरा) नामसे प्रचलित था. जो मूल कोंग्रेस पक्ष था, जिसके उपर संस्थाकी पकड थी यानी की जिनमें कारोबारीके ज्यादा सदस्य थे उस पक्षका प्रचलित नाम था कोंग्रेस (संस्था). इस तरह कोंग्रेस तूटी. गुजरातमें मोरारजी देसाई जो कोंग्रेस (संस्था)में थे. और कोंग्रेस (संस्था) गुजरातमें राज करती थी.

एक पक्षमेंसे दुसरे पक्षमें कूदनेमें सर्व प्रथम

अविभाजित कोंग्रेसमेंसे कोंग्रेस (आई)में कूदके जाने वालोंमें सनतकुमार और उनके दो तीन मित्र (रसिकलाल परिख, रतुभाई अदाणी, छबीलदास महेता) थे. बादमें कोंगीकी सरकारें ही ज्यादातर गुजरातमें आयी और उसमें यह महाशय मंत्री के रुपमें हमेशा शोभायमान रहेते थे. ये महाशय अविभाजित कोंग्रेसमें भी मंत्री थे. यह महाशय २२+ वर्ष तक मंत्री रहे. उस समय भी गुजरातके पास समूद्र था, समूद्र किनारा था, कच्छका रण था, नर्मदा नदी भी थी. नर्मदा डॅम की योजना भी थी. प्राकृतिक गेस भी था, जंगल भी था, गरीबी भी थी. विकासके लिये जो कुछ भी चाहिये वह सबकुछ था. जंगल तो उनके समयमें सबसे ज्यादा कट गये. समाजवादी होनेके नाते यहां सरकार द्वारा कई योजनाएं लागु करनेकी थी. हररोज एक करोड रुपयेका गेस हवामें जलाया जाता था, क्यों कि गेस भरनेके सीलीन्डर नहीं थे. गेसके सीलीन्डर आयात करनेके थे. आयात करनेमें इन्दिराका समाजवाद, अनुज्ञापत्र(परमीट), अनुज्ञप्ति (लायसन्स) का प्रभावक कैसे धनप्राप्तिके लिये उपयोगमें लाया जाय यह एक भ्रष्ट समाजवादीयोंके लिये समय व्ययवाली समस्या होती है.

नर्मदा डेम, मशीन टूल्सकी फेक्टरी, बेंकोका राष्ट्रीयकरणका राजकीय लाभ कैसे लिया जाय यह सब में ये समाजवादी लोग ज्यादा समय बरबाद करते है. इन प्रभावकोंका ये लोग लोलीपोप की तरह ही उपयोग किया करते है. तो यह सनत महाशय अपनी २३ सालकी सत्ताके अंतर्गत जो खुद कुछ नहीं कर पाये, वे अपने को एक अर्थशास्त्रके विशेषज्ञ समझने लगे है, और सरकार (बीजेपी सरकार) को क्या करना चाहिये और क्या क्या नहीं कर रही है और क्या क्या गलत कर रही है ऐसा विवाद खडा करने लगे, ताकि एक ऋणात्मक वातावरण बीजेपी सरकारके लिये बने.

मल्लिका साराभाईः

कितने हजार घारोंमें बिजली नहीं पहोंची, महिला सशक्ति करण क्यों नहीं हो रहा है, जंगलके लोग कितने दुःखी है, आदि बेतूकी बाते जिसमें कोई ठोस माहिति न हो लेकिन भ्रम फैला सके ऐसे विवाद खडे करती रहीं. हकारत्मक बातें तो देखना ही वर्ज्य था.

प्रकाशभाई शाहः

यह भाईसाब अपनेको गांधीवादी या अथवा तथा सर्वोदयवादी या अथवा तथा ग्रामस्वराज्यवादी समझते है. विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधाराने एक उपोत्पादन (बाय-प्रोडक्ट) बनाया है. प्रकाशभाई जैसे व्यक्ति ऐसा ही एक उपोत्पादन (उप- उत्पादन) यानी कि बाय प्रोडक्ट है. बाय प्रोडक्ट बाय प्रोडक्ट में फर्क होता है. गेंहु, चावल, चने आदिका जब पाक (क्रॉप) होता है तो साथ साथ बावटा, बंटी, अळशी, और कुछ निक्कमी घांस भी उग निकलती है. तो विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधाराकी जो मानसिकता होती है उसके साथ साथ कुछ ऐसे (वीड=weed, गुजरातीमें वीड को निंदामण कहेते है) मानसिकतावाली बाय प्रोडक्ट (वीड) भी उग निकलती है. कोई वीड उपयोगी होती है, कोई वीड हवामें फैलके हवा बिगाडती है. वीड एलर्जीक भी होती है. हमारे प्रकाशभाई विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधारासे उत्पन्न हुई एक वीड है. इस वीडको नरेन्द्र मोदीकी एलर्जी है.

प्रकाशभाईके लेखको आपको समझना है? तो कागज और कलम लेके बैठो. उन्होनें जो वाक्य बनाये है उनके शब्दोंकों लेकर वाक्य को विभाजित करो. और फिर अर्थ निकालो. आपको तर्क मिलेगा नहीं. लेकिन आप उस वाक्यको कैसे सही माना जाय, उस विषय पर दिमाग लगाओ. आपको संत रजनीशकी याद आयेगी. लेकिन आप ऐसा तो करोगे नहीं. आप सिर्फ उसमेंसे क्या संदेश है, क्या दिशा सूचन है वही समझोगे. बस यही प्रकाशभाईका ध्येय है.

मतलबकी लेखमें नरेन्द्र मोदीको एक पंच मारना आवश्यक हो या न हो, एक पंच (punch) अवश्य मारना. पंच मारनेका प्रास्त्युत्य (रेलेवन्स) हो या न हो तो भी.
ऐसा क्युं? क्योंकी हम अहिंसाके पूजारी है. विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधाराके अनुयायी है. नरेन्द्र मोदी २००२ वाला है.

कान्तिभाई भट्टः

ये भाईसाब शीलाबेनके पति है. वैसे तो वे भी ख्यातनाम है. जबतक आरोग्यके बारेमें लिखते है तब तक अच्छा लिखते है. कुदरती चिकित्सा (नेचरोपथी)का खुदका अनुभव है इसलिये उसमें सच्चाईका रणकार मिलता है.

लेकिन अगर हम कटार लेखक (कोलमीस्ट) है तो सब बंदरका व्यापारी बनना पडेगा ही. राजकारण को हाथमें लेना आसान होता है.

कटार लेखन की शैली ऐसी होनी चाहिये कि हम वाचकोंको विद्वान लगे.

विद्वान हम तभी लगेंगे कि हम बहुश्रुत हो.

बहुश्रुत हम तभी लगेंगे कि हमारा वाचन विशाळ हो.

वाचकोंको हमारा वाचन विशाल है वह तब लगेगा कि हमने जो वाक्य उद्धृत किये हो उनमें हम लिखें कि फलां फलां व्यक्तिने यह कहा है. इसमें हम मान लेते हैं कि यह तो कोई महापुरुषने कहा है इसलिये यह तो स्वयं सिद्ध है. तर्क की कोई आवश्यकता नहीं. प्रास्तूत्य होना यह भी आवश्यक नहीं है.

समजमें नहीं आया न? तो आगे पढो…

मेगेस्थीनीसने अपने “फलां” पुस्तकमें लिखा कि सिकंदर एक ऐसा महापुरुष था कि वह हमेशा चिंतनशील रहेता था. एक शासकको चाहे छोटा हो या बडा, उसके लिये चिंतन करते रहेना अति आवश्यक है. खुदने जो काम किया वह अच्छी तरह किया था या नहीं? अगर अच्छी तरह किया था तो क्या उससे भी अच्छा किया जा सकता था या नहीं? उसका चिंतन भी करना जरुरी है. नरेन्द्र मोदीको आगे बढने कि घेलछा है, लेकिन क्या उसने कभी चिंतन किया है? यह उसकी मनोवृत्ति कभी बनी है क्या?

कान्तिभाईको इससे आगे सिद्ध करेनी जरुरत नहीं है. उनके हिसाबसे जो कहेना था वह अपने आप सिद्ध हो जाता है ऐसा वे मानते है.

अगर लेटेस्ट उदाहरण चाहिये तो आजका (ता. २०-०५-२०१४ का दिव्यभास्कर देखो).

लेखकी शिर्ष रेखा है “नरेन्द्र मोदी आनेसे किसान बनेगा बेचारा, और विदेशी कंपनियां न्याल हो जायेगी”.

हो सकता है कि यह लेखकी शिर्ष रेखा समाचार पत्रके संपादकने बनायी हो. अगर ऐसा है तो संपादककी मानसिकताको भी समझ लो.

कान्तिभाई अपने लेखमें क्या लिखते है?

“भावनगर राज्यके कृष्णकुमार सिंह किसानका बहुत खयाल रखते थे,

“शरद पवार अरबों पति किसान है. महाराष्ट्र के एक जिलेमें २०१०में एक ही महिनेमें ३७ किसानोंने आत्म हत्या की.

“मुंबईसे सिर्फ १२७ मील दूरस्थ यवतमाल गांव में मारुति रावने लोन लेके महंगे बीटी कोटन और विलायती खाद खरीद किया. फसल निस्फल हुई तो उसने आत्महत्या की, उसकी पत्नी उषाने ऋण अदा करनेके लिये १४ एकर जमीन बेच दी. और वह खेत-मझदुर बन गई. महाराष्ट्र सरकारने राहतका काम किया लेकिन बाबु लोग बीचमें पैसे खा जाते है. जंतुनाशक दवाईयां जो विकसित देशमें प्रतिबंधित है लेकिन शरद पवारके महाराष्ट्रमें वे सब कुछ चलती है. यह दवाईयां विषयुक्त है, और खुले पांव आपको खेतमें जाना मना है, फिर भी किसान खुले पांव जाता है. और मौतका शिकार होता है.

आगे चलकर लेखक महाशय, यह कीट नाशक दवाईयां, विदेशी जेनेटिक बीज आदि के भय स्थानका वर्णन करते है.केन्द्र की बुराईयां और अमेरिकाकी अच्छाईयां की बात करते है. भारतमें ईन्ट्रनेट व्याप्ति की बात करते है.

फिर मोदी के चूनाव प्रचारकी बात करते है फिर मोदीको एक पंच मारते है कि मोदी जनता को क्या लाभ कर देने वाला है? (मतलब की कुछ नहीं). फिर एक हाईपोथेटीकल निष्कर्ष निकालते है. नरेन्द्र मोदी द्वारा कायदा कानुन आसान किया जायगा और अंबाणीको फायदा होगा. नयी सरकार (मोदी सरकार), विदेशी कंपनीयोंके साथ गठबंध करेगी और उनको न्याल करेगी. कहांकी बाते और कहां का कही निष्कर्ष?

पागल बननेकी छूट

चलो यह बात तो सही है और संविधान उन लेखकोंकी स्वतंत्रता की छूट देता है कि वे बिना कोई मटीरीयल और तर्क, गलत, जूठ और ऋणात्मक लिखे, जब तक वह खुद, अपने लाभसे दूसरेको नुकशान न करें वह, क्षम्य है. लेकिन गाली प्रदान करना और अयोग्य उपमाएं देना गुनाह बनता है. यह बात मोदीके सियासती विरोधीयोंको लागु पडती है. इनमें ऐसे वितंडावाद करनेवाले मूर्धन्य भी सामेल है.

ये ऐसे मूर्धन्य होते है जो ६०सालमें जिन्होंने देशको पायमाल किया, उसके बारे में, एक लाईनमें लिख देते है, लेकिन जो सरकार आने वाली है और जिसके नेताने अभी शपथ भी ग्रहण किया नहीं उसके बारेमें एक हजार ऋणात्मक धारणाएं सिद्ध ही मान लेते है.

जनता को गुमराह करनेवालोंको आप कुछ नहीं कर सकते. क्यों कि लोकतंत्रमें पागल होना भी उनका हक्क है.

जिन महानुभावोंने घोषणा की, कि, अगर मोदी प्रधान मंत्री बना तो वे पाकिस्तान चले जायेंगे. इन लोगोंकी मानसिकता और तर्क का निष्कर्ष निकालें.

ये महानुभाव पाकिस्तानको क्यों पसंद करते है?

नरेन्द्र मोदीवाले भारतकी अपेक्षा पाकिस्तानी सियासत भारतसे अच्छी है.

सर्व प्रथम निष्कर्ष तो यह निकलता है न? क्यों? क्यों कि नरेन्द्र मोदी कोमवादी है. वह अल्पसंख्यकोंका दुश्मन है.

पाकिस्तान कैसा है?

आझादी पूर्व इस प्रदेशमें १९४१में ४० प्रतिशत हिन्दु थे. १९५१ तक भारतमें १.५ करोड हिन्दुओंने स्थानांतर किया. जो १९४१ में २५ प्रतिशतसे ज्यादा थे अब वे २ प्रतिशत या उससे भी कम रह गये हैं. उसके बाद भी हिन्दु वहांसे निकाले जाने लगे.
यह वह पाकिस्तान है जिसका आई.एस.आई. और मीलीटरी मिलकर भारतमें आतंकवादी सडयंत्र चलाते हैं.

इन्होने हमारे कश्मिरमें ३००० हिन्दुओंको १९८९-९० की कत्लेआममें मौतके घाट उतार दिया. और ५-७ लाख हिन्दुओंको भगा दिया.

यह वह पाकिस्तान है जहां पर ज्यादातर लश्करी शासन रहा है.

ऐसा पाकिस्तान, इन मूर्धन्योंको गुजरातके नरेन्द्र मोदीके भारतसे अच्छा लगता है.

क्यों कि इस गुजरातमें मोदीके शासनमें एक भी मुसलमान बेघर रहा नहीं.

एक भी मुसलमान हिन्दुओंके डर की वजहसे पाकिस्तान भाग गया नहीं.

इस गुजरातमें अक्षरधाम पर आतंकवादी हमलावरोंने ३० को मौतके घाट उदार दिया था और कईयोंको जक्ख्मी किया,

२००८में कई बोम्बब्लास्ट किया, जिनमें ५६ को मौतके घाट उतारा और ३०० जक्ख्मी किया,

उसके बावजुद,

नरेन्द्र मोदीने परिस्थितिको सम्हाला और एक भी मुसलमान न तो मारा गया और न तो डरके मारा कोई पाकिस्तान भाग गया.

तो अब आप निर्णय करो किसके दिमागमें कीडे है?

संविधानमें संशोधन अनिवार्य लगता है कि जो लोग इस प्रकार बेतूकी बातें करके खुदकी कोमवादी और लघुमतिको अलग रखनेकी, वोटबेंककी नीति उकसानेकी और कोम कोमके बीच घृणा फैलानेका काम करते है और जो वास्तवमें मानवता वादी है ऐसे नेता पर कोमवादी होनेका आरोप लगाते हैं उनके उपर कानूनी कर्यवाही करके कारावासमें बंद कर देना चाहिये.

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः नरेन्द्र मोदी, जीत, मोदी रोको, मूर्धन्य, कोलमीस्ट, कोंगी, धारा ३७०, ओमर, फारुख, गुजरात, मोडल, अभद्र शब्द, चिदंबर. कपिल सिब्बल, गुमराह, शरद पवार, सनत मेहता, कान्ति भट्ट

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