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जो भय था वह वास्तविकता बना (बिहारका परिणाम) भाग – २
Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, tagged अमित शाह, अस्विकार्य, आवास, उछाल, कोमवाद, गजेन्द्र गडकरी, गठबंधन, गुजरात, गौ, घटना, चूनाव, दंभी, दाद्री, धर्मनिरपेक्ष, नरेन्द्र मोदी, नहेरुवीयन कोंग्रेस, नौकरी, बिहार, बिहारी, बीजेपी, महाठग, युपी, राजनाथ सिंह, विकास, विचारधारा, विभाजन, व्यवसाय, संदेश, संविधान, समाचार माध्यम, सुनिश्चित मतदाता on November 13, 2015| Leave a Comment »
जो भय था वह वास्तविकता बना (बिहारका परिणाम) भाग – २
दाद्रीकी घटानाको उछालके यह महाठग महाधूर्त महागठबंधन काफी सफल रहा.
सफल होनेका श्रेय, समाचार माध्यम, नहेरुवीयन कोंग्रेस, महा गठबंधन और कुछ दंभी धर्मनिरपेक्ष गेंग, ये चारों चंडाल चौकडीने मिलके जो महाठग बंधन करके जो रणनीति बनायी थी उसको जाता है.
महागठबंधन और महागठबंधनमें क्या भेद है?
महागठबंधन नहेरुवीयन कोंग्रेस, आरजेडी और जेडीयु इन तीनोंने मिलकर एक चूनावी और सत्तामें भागीदारी करने के लिये एक गठबंधन बनाया है वह है. महाठग गठबंधन एक ऐसा गठबंधन है जिनका एक मात्र हेतु बीजेपीको चूनावमें हराना है. और अपने धंधे चालु रखना है. उनके अनेक धंधेमें सत्ताकी प्रत्यक्ष और परोक्ष भागबटाइ, अयोग्य रीतीयोंसे पैसे कमाना और देशकी आम जनताको गुमराह करके गरीबी कायम रखना ताकि आम जनता विभाजित और गरीब ही रहे.
महाठग–गठबंधनकी पूर्व निश्चित प्रपंचकारी और विघातक योजना
बीजेपीने विकासके मुद्दे पर ही अपना एजन्डा बनाया था. किन्तु यदि परपक्ष, यानी उपरोक्त महाठगोंका गठबंधन, कोमवादका मुद्दा उठावे तो उसको कैसे निपटा जाय, उसके लिये बीजेपी संपूर्ण रीतसे सज्ज नहीं था. महाठग–गठबंधन, दाद्रीकी घटनाको, मीडीया और दंभी धर्मनिरपेक्ष गेंग के सहारे कोमवाद पर ले गया.
जब भी चूनाव आता है और जब हवा नहेरुवीयन कोंग्रेसकी विरुद्धमें होती है तो कोमी भावना भडकाना नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासनमें और उसके सांस्कृतिक पक्षके शासनमें एक आम बात है.
आरएस एस, वीएचपी और कुछ बीजेपी नेता भी बेवकुफ बनकर, समाचार माध्यमोंकी हवामें आके उसको हिन्दुमान्यताके परिपेक्ष्यमें आक्रमक बनके प्रत्याघात देने लगतें हैं. वास्तवमें बीजेपीको गौ–वध वाले कोमवादी उस मुद्देको तर्क और अप्रस्तूतताके आधार पर लेजाके उसका खंडन करनेका था. बीजेपी नेतागण उपरोक्त महाठग बंधनी पूर्व निश्चित चाल नहीं समझ पाये. बीजेपी नेतागण को समझना चाहिये कि नहेरुवीयन कोंग्रेस चूनावकी रणनीति बनानेमें उस्ताद है. इसी कारण वह महाभ्रष्ट होनेके बावजूद, भारत जैसी महान और प्राचीन धरोहरवाले देश पर ६० वर्ष जैसे सुदीर्घ समयका शासन कर पाई.
शत्रु को कभी निर्बल समझना नहीं चाहिये.
आरएसएस और वीएचपीमें बेवकूफोंकी कमी नहीं है. ये लोग कई बार सोसीयल मीडीयामें वैसे भी फालतु, असंबद्ध और आधारहीन वार्ताएं लिखा करते हैं, जिससे बीजेपीकी भी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाते है.
जनताके कई पढे लिखे लोग यह नहीं समझ सकते की आरएसएस और वीएचपी के लोग सिर्फ मतदाता है. यह बात सही कि, वे बीजेपीके निश्चित मतदाता है. हर सुनिश्चित मतदाता अपने मनपसंद पक्षका प्रचार करता है ऐसा नहीं है. इसका अर्थ यह नहीं कि हर सुनिश्चित मान्यतावाला मतदाता अपने पक्षका प्रचार करे ही नहीं. क्यों कि किसी मतदाताको आप प्रचार करनेमेंसे रोक नहीं सकते. यदि वह अपने पक्षका प्रचार करे या तो पर–पक्षके उठाये गये प्रश्नोंका उत्तर दें तो यह मानना नहीं चाहिये कि उसका अभिप्राय वह पक्षकी विचारधारा है. यदि महाठग गठबंधन आरएसएस या वीएचपी के उच्चारणोंको बीजेपीकी विचारधारा मानता है तो …
कोमवादी और आतंकवादी मुस्लिम जो कुछ भी बोले वह युपीएकी विचारधारा है
जैसे अधिकतर मुसलमान और कुछ अन्य जुथ नहेरुवीयन कोंग्रेस या तो उसके सांस्क्रुतिक पक्षके सुनिश्चित मतदाता है. वे कई बातें अनापसनाप बोलते हैं और कुतर्क भी करते हैं. उनकी बातें भी तो नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्क्रुतिक साथीयोंकी विचारधारा है समज़नी चाहिये. समाचार माध्यमको ऐसा ही समज़ना चाहिये. वे दोहरा मापदंड क्यों चलाते है? अकबरुद्दीन ओवैसी, फारुख, ओमर, गीलानी, आजमखान, लालु, पप्पु, अरुन्धती, तित्सा, मेधा, आदि आदि जो भी कोमवादको बढावा देनेवाले उच्चारण करते है वे सब नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके सांस्कृतिक साथी है वे जो कुछभी बोले वह नहेरुवीयन कोंग्रेसकी ही विचार धारा है.
विडंबना और कुतर्क तो यह है कि, नहेरुवीयन कोंग्रेस तो उसके प्रवक्ताओंके भी कई उच्चारणोंको उनकी निजी मान्यता है ऐसा बताती है. यहां तक कि यदि नहेरुवीयन कोंग्रेसका उप प्रमुख, नहेरुवीयन कोंग्रेसके मंत्री मंडलने पारित प्रस्ताव विधेयक को फाडके फैंक तो भी वह इस घटनाका उल्लेख पक्षके उपप्रमुखका नीजी अभिप्राय बताता है. बादमें उसी प्रस्तावमें संशोधन करता है. वैसा ही इस नहेरुवीयन कोंग्रेसने कोमवादी नेताओंके विरोधी प्रतिभावोंके चलते शाहबानो की न्यायिक घटनाके विषय पर संविधानमें संशोधन किया था. तात्पर्य यह है कि ऐसे सुनिश्चित मतदाता जुथोंके मंतव्य, वास्तविक रुपसे नहेरुवीयन कोंग्रेसकी विचारधारा होती ही है. नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताओंका स्थान आजिवन कारावासमें या फांसीका फंदा ही है. आरएसएस या वीएचपी के लोग तो बीजेपीके शासनके सहयोगी भी नहीं है. दोनोंकी प्राथमिकताए और मान्यताएं भीन्न भीन्न है. तो इनके भी बयान बीजेपीका सरकारी बयान नहीं माने जा सकते.
बिहारमें दंभी धर्मनिरपेक्षोंका विभाजनवादी नग्न नृत्य
बीजेपी एक राष्ट्रीय पक्ष है. अमित शाह, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, आदि सब भारतके नागरिक है.
महाठग–गठबंधनके नेताओं की विभाजनवादी मानसिकताका अधमाधम प्रदर्शन देखो.
बिहारमेंसे बाहरीको भगाओ
अमित शाह, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, स्मृति ईरानी, आदि को नीतीशकुमार और उसके साथी बाहरी मानते है. ऐसे बाहरी लोगोंको बिहारमें प्रचारके लिये नहीं आना चाहिये. बिहारमें केवल बिहारी नेताओंको ही चूनाव प्रचारके लिये आना चाहिये.
इसी मानसिकतासे नीतीशकुमार अपनी चूनाव प्रचार सभामें जनताको कहेते थे कि आपको चूनाव प्रचारमें कौन चाहिये, बिहारी या बाहरी?
तात्पर्य यह है कि, बिहारमें चूनाव प्रचारका अधिकार केवल बिहारीयोंका ही है. बाहरी लोगोंका कोई अधिकार मान्य करना नहीं चाहिये. महाठग–गठबंधनके किसी नेताने नीतीशकी ये विभाजन वादी मानसिकताका विरोध नहीं किया. इतना ही महाठग–गठबंधनके लोगोंने तालीयां बजायी. समाचार माध्यमके विश्लेषकोंने भी इसका विभाजनवादी भयस्थानको उजागर नहीं किया क्यों कि वे हर हालतमें बीजेपीको परास्त करना चाहते थे. महाठग–गठबंधनके नेताओंका यह चरित्र है कि देशकी जनता विभाजित हो जाय और देश कभी आबाद न बने और वे सत्तामें बने रहें और मालदार बनें.
नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक साथीयोंका ध्येय रहा है कि, देशकी जनता विभाजित होती ही रहे और खुदका हित बना रहे.
बाहरी और बिहारीसे क्या निष्कर्ष निकलता है?
महागठबंधन बिहारकी जनताको यह संदेश देना चाह्ता है कि बिहारमें हमे चूनाव प्रचारमें भी बाहरी लोग नहीं चाहिये. यदि चूनाव प्रचारमें भी बाहरी और बिहारीका भेद करना है तो व्यवसाय और नौकरीमें तो रहेगा ही. जो लोग केवल चूनाव प्रचारके लिये आते है वे तो बिहारीयोंको कोई नुकशान नहीं करते. वे लोग न तो उनको भूका मारते है न तो उनकी नौकरीकी तकमें कमी करते हैं, नतो उनकी व्यवसायकी तकोंमें कमी करते है न तो उनके आवासकी तकोंमे कमी करते हैं, तो भी महाठग–गठबंधन बाहरी लोगोंके प्रति एक तिरस्कारकी भावना बिहारी जनतामें स्थापित करनेका भरपूर प्रचार करता है.
बिहारी–बाहरी द्वंद्वका क्या असर पड सकता है. यदि बिहारमें बाहरी आवकार्य नहीं है तो जो बिहारके लोग बाहर और वह भी खास करके मुंबई, गुजरात आदि राज्योंमे जाके वहांके लोगोंकी नौकरीकी तकोंमें कमी करते हैं, वहांके लोगोंकी व्यवसायी तकोंमें कमी करते हैं और वहां जाके झोंपडपट्टी बनाके असामाजिक तत्वोंको बढावा देते हैं वहां पर महाठग–गठबंधनका यही संदेश जाता है कि बिहारी लोग आपके केवल चूनाव प्रचार करनेके लिये आने वाले चाहे वह देशका प्रधान मंत्री क्यों न हो, उसको बहारी समज़ते है और अस्विकार्य बनते है. महाराष्ट्रके नीतिन गडकरी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, नरेन्द्र मोदी बाहरी है ऐसा थापा, बिहारकी जनता मारती है, तो बिहारके लोग भी गुजरात, महाराष्ट्र, मुंबई आदिमें बाहरी ही है. ये बिहारके बाहरी लोगोंको नौकरी और व्यवसाय आदिके लिये अस्विकार्य बनाओ. महाठग–गठबंधनके नेताओंने यही संदेश दिया है, इस लिये यदि महाराष्ट्र, गुजरात और युपीके लोग बिहारीयोंको बाह्य समज़के उसको नौकरी, व्यवसाय, सेवा आदिके लिये अस्विकार्य करें तो इस आचारकी भर्त्सना करना अब न तो बिहारीयोंका हक्क है नतो महाठग–गठबंधनके लोगोंका हक्क है.
महाठग–गठबंधनने अपने स्वार्थ लिये देशकी जनताको एक विनाशकारी संदेश दिया है, उसके लिये उसमें संमिलित तत्वोंके उपर न्यायिक कार्यवाही होनी चाहिये. उनकी संस्थाकी या और उनके स्थान होद्देकी जो भी बंधारणीय मान्यता हो उसको तत्काल निलंबित करना चाहिये और न्यायिक कार्यवाहीके फलस्वरुप मान्यता रद होनी चाहिये.
यदि ऐसा नहीं होगा तो एक विनाशक प्रणाली स्थापित होगी जो देशकी एकता पर वज्राघात करेगी.
शिरीष मोहनलाल दवे.
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गोब्बेल्स अन्यत्र ही नहीं भारतमें भी जिवित है
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गोब्बेल्स अन्यत्र ही नहीं भारतमें भी जिवित है.
रामायण में ऐसा उल्लेख है कि रावणने राम के मृत्युकी अफवाह फैलायी थी. किन्तु सभी रामकाथाओंमें ऐसा उलेख नहीं है. रावणने अफवाह फैलायी थी ऐसी भी एक अफवाह मानी जाती है. सर्वप्रथम विश्वसनीयन अफवाहका उल्लेख महाभारतके युद्धके समय मिलता है, जब भीमसेन एक अफवाह फैलाता है कि “अश्वस्थामा मर गया”. यह बात अश्वस्थामाके पिता द्रोणके पास जाती है. किन्तु द्रोणके मंतव्यके अनुसार, भीमसेन विश्वसनीय नहीं है. द्रोण इस घटनाकी सत्यताके विषय पर सत्यवादी युधिष्ठिरसे प्रूच्छा करते है. युधिष्ठिर उच्चरते है “नरः वा कुंजरः वा (नरो वा कुंजरो वा)”. लेकिन नरः शब्द उंचे स्वरमें बोलते है और कुंजरः (हाथी) धीरेसे बोलते है जो द्रोणके लिये श्रव्य सीमा से बाहर था. तो इस प्रकार पांण्डव पक्ष, अफवाह फैलाके द्रोण जैसे महारथी को मार देता है.
अर्वाचिन युगमें गोब्बेल्स नाम अफवाहें फैलानेवालोंमे अति प्रख्यात है. ऐसा कहा जाता है कि, उसने अफवाहें फैलाके शत्रुसेनाके सेनापतियोंको असमंजसमें डाल दिया था.
अफवाह की परिभाषा क्या है?
अफवाहको संस्कृतभाषामें जनश्रुति कहेते है. जनश्रुति का अर्थ है एक ऐसी घटना जिसके घटनेकी सत्यताका कोई प्रमाण नहीं होता है. इसके अतिरिक्त इस घटनाको सत्यके रुपमें पुरष्कृत किया जाता है या तो उसका अनुमोदन किया जाता है. और इस अनुमोदनमें भी किया गया तर्क शुद्ध नहीं होता है. एक अफवाहकी सत्यताको सिद्ध करने के लिये दुसरी अफवाह फैलायी जाती है. और ऐसी अफवाहोंकी कभी एक लंबी शृंखला बनायी जाती है कभी उसकी माला भी बनायी जाती है.
अफवाह उत्पन्न करो और प्रसार करो
कई बार अफवाह फैलाने वाला दोषित नहीं होता है. वह मंदबुद्धि अवश्य होता है. जिन्होंने अफवाहका जनन किया है वे लोग, ऐसे मंदबुद्धि लोगोंका एक प्रसारण उपकरण (टुल्स), के रुपमें उपयोग करते है. ऐसा भी होता है कि ऐसे प्रसार–माध्यम–व्यक्ति अपने स्वार्थके कारण या अहंकारके कारण अफवाह को सत्य मान लेता है और प्रसारके लिये सहायभूत हो जाता है.
अफवाहें फैलानेमें पाश्चात्य संस्कृतियां का कोई उत्तर नहीं.
वास्तवमें तो स्वर्ग, नर्क, सेतान, देवदूत, क्रोधित होनेवाला ईश्वर, प्रसन्न होनेवाला ईश्वर, कुछ लोगोंको “ ये तो अपनवाले है” और दुसरोंकों “पराये” कहेने वाला ईश्वर, यही धर्म श्रेष्ठ है, इसी धर्मका पालन करनेसे ईश्वरकी प्राप्ति हो सकती है, इस धर्मको स्विकारोगे तो तुम्हारा पाप यह देवदूत ले लेगा, ये सभी कथाएं और मान्यताएं भी अफवाह ही तो है.
कामदेव, विष्णु भगवानका पुत्र था. “काम”का यदि प्रतिकात्मक अर्थ करें तो नर–मादामें परस्पर समागमकी वृत्ति को काम कहा जाता है.
भारतीय संस्कृतिमें तत्वज्ञानको प्रतिकात्मक करके, काव्य के रुपमें उसको लोकभोग्य बनानेकी एक प्रणाली है. इस तरहसे जन समुदायको तत्वज्ञान अवगत करानेकी परंपरा बनायी है.
काम भी एक देव है. देवसे प्रयोजित है शक्ति या बल.
कामातुर जिवकी कामेच्छा कब मर जाती है?
जब कामातुर व्यक्तिको अग्निकी ज्वालाका स्पर्ष हो जाता है, तब उसकी कामेच्छा मर जाती है. लेकिन काम मरता नहीं है. इस प्राकृतिक घटनाको प्रतिकात्मक रुपमें इस प्रकार अवतरण किया कि रुद्रने (अग्निने) कामको भष्म कर दिया. किन्तु देव तो कभी मर नहीं सकता. अब क्या किया जाय? तो तत् पश्चात् इश्वरने उसको सजिवोंमे स्थापित कर दिया. बोध है कि कामदेव सजिवमें विद्यमान है.
“जनश्रुति” यानीकी अफवाह भी जनसमुदायोंमे जिवित है. हांजी, प्रमाण कितना है वह चर्चा का विषय है.
इतिहासमें जनश्रुति (अफवाहें रुमर);
पाश्चात्य इतिहासकारोंने भारतके पूरे पौराणिक साहित्यको अफवाह घोषित कर दिया. पुराणोमें देवोंकी और ईश्वरकी जो प्रतिकात्मक या मनोरंजनकी कथायें थी उनकी प्रतिकात्मकताको इन पाश्चात्य इतिहासकारोंने समझा नही या तो समझनेकी उनकी ईच्छा नहीं थी क्योंकि उनका ध्येय अन्य था. उनको उनकी ध्येय–सूची (एजन्डा)के अनुसार, कुछ अन्य ही सिद्ध करनेका था. उस ध्येय सूचि के अनुसार उन्होंने इन सब प्रतिकात्मक ईश्वरीय कथाओंको मिथ्या घोषित कर दिया. और उनको आधार बनाके भारतमें भारतवासीयोंके लिखे इस इतिहासको अफवाह घोषित कर दिया.
भारत पर आर्योंका आक्रमणः
पराजित देशकी जनताको सांस्कृतिक पराजय देना उनकी ध्येय–सूची थी. अत्र तत्र से कुछ प्रकिर्ण वार्ताएं उद्धृत करके उसमें कालगणना. भाषाकी प्रणाली, जन सामान्यकी तत्कालिन प्रणालीयां, प्रक्षेपनकी शक्यता, आदि को उपेक्षित कर दिया.
आर्य, अनार्य, वनवासी, आदि जातियोंमें भारतकी जनताको विभाजित करके भारतीय संस्कृतिको भारतीय लोगोंके लिये गौरवहीन कर दिया. ऐसी तो कई बातें हैं जो हम जानते ही है.
ऐसा करना उनके लिये नाविन्य नहीं था. ऐसी ही अफवाहें फैलाके उन्होने अमेरिकाकी माया संस्कृतिको और इजिप्तकी महान संस्कृतिको नष्ट कर दिया था. पश्चिम एशियाकी संस्कृतियां भी अपवाद नहीं रही है.
आप कहोगे कि इन सब बातोंका आज क्या संदर्भ है?
संदर्भ अवश्य है. भारतीय संस्कृतिकी प्रत्येक प्रणालीयोंमें इसका संदर्भ है और उसका प्रास्तूत्य भी है.
अफवाहें फैलाके दुश्मनोंमें विभाजन करना, दुश्मनोंकी सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट करना, दुश्मनोंकी प्रणालीयोंको निम्नस्तरीय सिद्ध करना और उसका आनंद लेना ये सब उनके संस्कार है. आज भी आपको यह दृष्टिगोचर होता है.
भारतमें इन अफवाहोंके कारण क्या हुआ?
भारतकी जनतामें विभाजन हुआ. उत्तर, दक्षिण, पूर्वोत्तर, हिन्दु, मुस्लिम, ख्रीस्ती, भाषा, आर्य, अनार्य, ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शुद्र, वनवासी, पर्वतवासी, अंग्रेजीके ज्ञाता, अंग्रेजीके अज्ञाता आदि आदि… इनमें सबसे भयंकर भेद धर्म, जाति और ज्ञाति.
मुस्लिमोंमें यह अफवाह फैलायी कि वे तो भारतके शासक थे. उन्होने भारतके उपर १२०० साल शासन किया है. उन्होंने ही भारतीयोंको सुसंस्कृत किया है. भारतकी अफलातुन इमारतें आपने ही तो बनायी. भारतके पास तो कुछ नहीं था. भारत तो हमेशा दुश्मनों से २५०० सालोंसे हारता ही आया है. सिकंदरसे लेके बाबर तक भारत हारते ही आया है.
ख्रीस्ती और मुसलमानोंने भारतके निम्न वर्णको यह बताया कि आपके उपर उच्च वर्णके लोगोंने अमानवीय अत्याचार किया है. दक्षिण भारतकी अ–ब्राह्मण जनताको भी ऐसा ही बताया गया. इन कोई भी बातोंमे सत्यका अभाव था.
सबल लोग, निर्बल लोगोंका शोषण करे ऐसी प्रणाली पूरे विश्वमें चली है और आज भी चलती है. केवल सबल और निर्बलके नाम बदल जाते है. भारतमें शोषण, अन्य देशोंके प्रमाणसे अति अल्प था. जो ज्ञातियां थी वे व्यवसाय के आधार पर थी. और पूरा भारतीय समाज सहयोगसे चलता था.
धार्मिक अफवाहेः
धर्मकी परिभाषा जो पाश्च्यात देशोंने बानायी है, वह भारतके सनातन धर्म को लागु नहीं पड सकती. किन्तु यह समझनेकी पाश्चात्य देशोंकी वृत्ति नहीं है या तो उनकी समझसे बाहर है.
भारतके अंग्रेजी–ज्ञाताओंकी मानसिकता पराधिन है. इतिहास, धरोहर, प्रणालीयां, तत्वज्ञान, वैश्विक भावना, आदिको एक सुत्रमें गुंथन करके भारतीय विद्वानोंने भारतकी संस्कृतिमें सामाजिक लयता स्थापित की है. लयता और सहयोग शाश्वत रहे इस कारण उन्होंने स्थिति–स्थापकता भी रक्खी है.
किन्तु इन तथ्योंको समझना और आत्मसात् करना पाश्चात्य विद्वानोंके मस्तिष्कसे बाहर की बात है. इस लिये उन्होंने ऐसी अफवाहें फैलायी कि, हिन्दु देवदेवीयां तो बिभत्स है. उनके उपासना मंत्र और पुस्तकें भी बिभत्स है. वे लोग जननेन्द्रीयकी पूजा करते है. उनके देव लडते भी रहेते है और मूर्ख भी होते है. भला, देव कभी ऐसे हो सकते हैं? पाश्चात्य भाषी इस प्रकार हिन्दु धर्मकी निंदा करके खुश होते हैं.
वेदोंमे और कुछ मान्य उपनिषदोंमे नीहित तत्वज्ञानका अर्क जो गीतामें है उनको आत्मसात तो क्या किन्तु समझनेकी इन लोगोंमें क्षमता नहीं है.
शास्त्र क्या है? इतिहास क्या है? समाज क्या है? कार्य क्या है? इश्वर क्या है? आत्मा क्या है? शरीर सुरक्षा क्या है? आदि में प्रमाणभूत क्या है, इन बातोंको समझनेकी भी इन विद्वानोंमे क्षमता नहीं है. तो ये लोग इनके तथ्योंको आत्मसात् तो करेंगे ही कैसे?
राजकीय अफवाहेः
दुसरों पर अधिकार जमाना यह पाश्चात्य संस्कृतिकी देन है.
भारतमें गुरु परंपरा रही है. गुरु उपदेश और सूचना देता है. हरेक राजाके गुरु होते थे. राजाका काम सिर्फ गुरुनिर्देशित और सामाजिक मान्यता प्राप्त प्रणालियोंके आधार पर शासन करना था. भारतका जनतंत्र एक निरपेक्ष जनतंत्र था. गणतंत्र राज्य थे. राजाशाही भी थी. तद्यपि जनताकी बात सूनाई देती थी. यह बात केवल महात्मा गांधी ही आत्मसात कर सके थे.
भारतकी यथा कथित जनतंत्रको अधिगत करनेकी नहेरुमें क्षमता नहीं थी. नहेरुको भारतीय संस्कृति और संस्कारसे कोई लेना देना नहीं था. उन्होंनें तो कहा भी था कि “मैं (केवल) जन्मसे (ही) हिन्दु हूं. मैं कर्मसे मुस्लिम हूं और धर्मसे ख्रीस्ती हूं. नहेरुको महात्मा गांधी ढोंगी लगते थे. किन्तु यह मान्यता उन्होंने गांधीजीके मरनेके सात वर्षके पश्चात्, केनेडाके एक राजद्वारी व्यक्तिके सामने प्रदर्शित की थी.
नहेरुकी अपनी प्राथमिकता थी, हिन्दुओंकी निंदा. नहेरुने हिन्दुओंकी निंदा करनेकी बात, आचारमें तभी लाया, जब वे एक विजयी प्रधान मंत्री बन गये.
हिन्दु महासभा को नष्ट करनेमें नहेरुका भारी योगदान था.
वंदे मातरम् और राष्ट्रध्वजमें चरखाका चिन्ह को हटानेमें उनका भारी योगदान था. गौ रक्षा और संस्कृतभाषाकी अवहेलना करना, मद्य निषेध न करना, समाजको अहिंसाकी दिशामें न ले जाना, अंग्रेजीको अनियत कालके लिये राष्ट्रभाषा स्थापित करके रखना, समाजवादी (साम्यवादी) समाज रचना आदि सब आचारोंमे नहेरुका सिक्का चला. उन्होंने तथा कथित समाजवाद, हिन्दी चीनी भाई भाई, स्व कथित और स्व परिभाषित “धर्म निरपेक्षता”की अफवाहें फैलायी. इन सभी अफवाहोंको अंग्रेजी ज्ञाता–जुथोंने स्वकीय स्वार्थके कारण अनुमोदन भी किया.
जनतंत्र पर जो प्रहार नहेरु नहीं कर पाये, वे सब प्रहार इन्दिरा गांधीने किया.
इन्दिरा गांधी, अफवाहें फैलानेमें प्रथम क्रम पर आज भी है.
इन्दिरा गांधीने जितनी अफवाहें फेलायी थी उसका रेकॉर्ड कोई तोड नहीं सकता. क्यों कि अब भारतमें आपात् काल घोषित करना संविधानके प्रावधानोंके अनुसार असंभव है.
सुनो, ऑल इन्डिया रेडियो क्या बोलता था?
एक वयोवृद्ध नेता, सेनाको और कर्मचारीयोंको विद्रोहके लिये उद्युत कर रहा है. (संदर्भः जय प्रकाश नारायणने कहा था कि सभी सरकारी कर्मचारी संविधानके नियमोंसे बद्ध है. इसलिये उनको हमेशा उन नियमोंके अनुसार कार्य करना है. यदि उनका उच्च अधिकारी या मंत्री नियमहीन आज्ञा दें तो उनको वह आदेश लेखित रुपमें मांगना आवश्यक है.) किन्तु उपरोक्त समाचार ‘एक वयोवृद्ध नेता, सेनाको और कर्मचारीयोंको विद्रोहके लिये उद्युत कर रहा है” सातत्य पूर्वक चलता रहा.
उसी प्रकार “आपातकाल अनुशासन है”का अफवाहयुक्त अर्थघटन यह किया गया कि, “आपातकाल एक आवश्यक और निर्दोष कदम है और विनोबा भावे इस कदमसे सहमत है.”
विनोबा भावेने खुदने इस अयोग्य कदमके विषय पर स्पष्टता की थी, “यदि वास्तवमें देशके उपर कठोर आपत्ति है तो यह, एक शासककी समस्या नहीं है, यह तो पुरे देशवासीयोंकी समस्या है. इस लिये देशको कैसे चलाया जाय इस बात पर सिर्फ (सत्ताहीन) आचार्योंकी सूचना अनुसार शासन होना चाहिये. क्योंकि आचार्योंका शासन ही अनुशासन है. “आचार्योंका अनुशासन होता है. सत्ताधारीयोंका शासन होता है.”
विनोबा भावे का स्पष्टीकरण दबा दिया गया. सत्यको दबा देना भी तो अफवाहका हिस्सा है.
“एक वयोवृद्ध नेता (मोरारजी देसाई) के लिये प्रतिदिन २० कीलोग्राम फल का खर्च होता है.” यह भी एक अफवाह इन्दिरा गांधीने फैलायी थी. मोरारजी देसाईने कहा कि यदि मैं प्रतिदिन २० कीलोग्राम फल खाउं तो मैं मर ही जाउं.
ऐसी तो सहस्रों अफवायें फैलायी जाती थी. अफवाहोंके अतिरिक्त कुछ चलता ही नहीं था.
समाचार माध्यमों द्वारा प्रसारित अफवाहें
आज दंभी धर्मनिरपेक्षताके पुरस्कर्ताओंने समाचार पत्रों और विजाणुंमाध्यमों द्वारा अफवाहें फैलानेका ठेका नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंके पक्षमें ले लिया है.
मोदी–फोबीयासे पीडित नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके साथीयोंके द्वारा कथित उच्चारणोंसे नरेन्द्र मोदी कौनसा जानवर है या वह कौनसा दैत्य है, या वह कौनसा आततायी है, इन बातों को छोड दो. यह तो गाली प्रदान है. ऐसे संस्कारवालोंने (नहेरुवीयनोंने) इन लोगोंका नाम बडा किया है.
किन्तु भूमि अधिग्रहण विधेयक, आतंकवाद विरोधी विधेयक, उद्योग नीति, परिकल्पनाएं, विशेष विनिधान परिक्षेत्र (स्पेश्यल इन्वेस्टमेंट झोन), आदि विकास निर्धारित योजनाओं के विषय पर अनेक अफवाहें ये लोग फैलाते हैं. इसके विषय पर एक पुस्तक लिखा जा सकता है.
उदाहरण के तौर पर, भूमिअधिग्रहणमें वनकी भूमि नहीं है तो भी वनवासीयोंको अपने अधिकार से वंचित किया है, ऐसी अफवाह फैलायी जाती है. कृषकोंको अपनी भूमिसे वंचित करनेका यह एक सडयंत्र है. यह भी एक अफवाह है. क्यों कि उसको चार गुना प्रतिकर मिलता है जिससे वह पहेलेसे भी ज्यादा भूमि कहींसे भी क्रय कर सकते है.
आतंकवाद विरुद्ध हिन्दु और भारत समाज सुरक्षाः
कश्मिरके हिन्दुओंने तो कुछ भी नहीं किया था.
तो भी, १९८९–९० में कश्मिरी हिन्दुओंको खुल्ले आम, अखबारोंमें, दिवारों पर, मस्जिदके लाउड स्पीकरों द्वारा धमकियां दी गयी कि, “इस्लाम कबुल करो या तो कश्मिर छोड दो. यदि ऐसा नहीं करना है तो मौतके लिये तयार रहो.” फिर ३००० से भी अधिक हिन्दुओंकी कत्ल कर दी. और उनके उपर हर प्रकारका आतंक फैलाया. ५–७ लाख हिन्दुओंको अपना घर छोडना पडा. उनको अपने प्रदेशके बाहर, तंबूओंमे आश्रय लेना पडा. उनका जिवन तहस नहस हो गया है.
ऐसे आतंकके विरुद्ध दंभी धर्मनिरपेक्ष जमात मौन रही, नहेरुवीयन कोंग्रेसनेतागण मौन रहा, कश्मिरी नेतागण मौन रहा, समाचार माध्यम मौन रहा, मानव अधिकार सुरक्षा संस्थाएं मौन रहीं, समाचार पत्र मौन रहें, दूरदर्शन चेनलें मौन रहीं, सर्वोदयवादी मौन रहें… ये केवल मौन ही नहीं निरपेक्ष रीतिसे निष्क्रीय भी रहे. जिनको मानवोंके अधिकारकी सुरक्षाके लिये कर–प्रणाली द्वारा दिये जन–निधिमेंसे वेतन मिलता है वे भी मौन और निष्क्रीय रहे. यह तो ठंडे कलेजेसे चलता नरसंहार ही था और यह एक सातत्यपूर्वक चलता आतंक ही है जब तक इन आतंकवादग्रस्त हिन्दुओंको सम्मानपूर्वक पुनर्वासित नहीं किया जाता.
एक नहेरुवीयन कोंग्रेस पदस्थ नेताने आयोजन पूर्वक २००२ में गोधरा रेल्वे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेसका डीब्बा जलाकर ५९ स्त्री, पुरुष बच्चोंको जिन्दा जला दिया. ऐसा शर्मनाक आतंक, गुजरातमें प्रथम हुआ.
गुजरात भारतका एक भाग है. वह कोई संतोंका मुल्क नहीं है, न तो वह भारत में, संतोंका एक टापु बन सकता है. यदि कोई ऐसी अपेक्षा रक्खे तो वह मूर्ख ही है.
५९ हिन्दुओंको जिन्दा जलाया तो हिन्दुओंकी प्रतिक्रिया हुई. दंगे भडक उठे. तीन दिन दंगे चले. शासनने ३ दिनमें नियंत्रण पा लिया. जो निर्वासित हो गये थे उनका पुनर्वसन भी कर दिया. इनमें हिन्दु भी थे और मुसलमान भी थे. मुसलमान अधिक थे. ३ से ६ मासमें, स्थिति पूर्ववत् कर दी गयी.
तो भी गुजरातके शासन और शासककी भरपुर निंदा कर दी गयी और वह आज भी चालु है.
मुस्लिमोंने जो सहन किया उसके उपर जांच आयोग बैठे,
विशेष जांच आयोग बैठे,
सेंकडोंको जेलमें बंद किया,
न्यायालयोंमें केस चले.
सजाएं दी गयी.
इसके अतिरिक्त इसके उपर पुस्तकें लिखी गयीं,
पुस्तकोंके विमोचन समारंभ हुए,
घटनाके विषय को ले के हिन्दुओंके विरुद्ध चलचित्र बने,
अनेक चलचित्रोंमें इन दंगोंका हिन्दुओंके विरुद्ध और शासनके विरुद्ध प्रसार हुआ. इसके वार्षिक दिन मनाये जाने लगें.
२००२ के दंगोमें क्या हुआ था?
२००० से कम हुई मौत/हत्या जिनमें पुलीस गोलीबारीसे हुई मौत भी निहित है.
इसमें हिन्दु अधिक थे. ११४००० लोगोंको तंबुमें जाना पडा जिनमें १/३ से ज्यादा हिन्दु भी थे
३ से ६ महीनेमें सब लोगोंका पुनर्वसन कर दिया गया.
इनके सामने तुलना करो कश्मिरका हत्याकांड १९८९–९०
हिन्दुओंने कुछ भी नहीं किया था.
३०००+ मौत हुई केवल हिन्दुओंकी.
५०००००–७००००० निर्वासित हुए. सिर्फ हिन्दुओंको निर्वासित किया गया था.
शून्य पोलीस गोलीबारी
शून्य मुस्लिम मौत
शून्य पुलीस या अन्य रीपोर्ट
शून्य न्यायालय केस
शून्य गिरफ्तारी
शून्य दंड विधान
शून्य सरकारी नियंत्रण
शून्य पुस्तक
शून्य चलचित्र
शून्य दूरदर्शन प्रदर्शन
शून्य उल्लेख अन्यत्र माध्यम
शून्य सरकारी कार्यवायी
शून्य मानवाधिकारी संस्थाओंकी कार्यवाही
यदि हिन्दुओंका यही हाल है और फिर भी उनके बारेमें कहा जाता है कि, “मुस्लिम आतंकवादकी तुलनामें हिन्दु आतंकवाद से देशको अधिक भय है” ऐसा जब नहेरुवीयन कोंग्रेसका अग्रतम नेता एक विदेशीको कहेता है तो इसको अफवाह नहीं कहोगे तो क्या कहोगे?
अघटित को घटित बताना, संदर्भहीन घटनाको अधिक प्रभावशाली दिखाना, असत्य अर्थघटन करना, प्रमाणभान नहीं रखना, संदर्भयुक्त घटनाओंको गोपित रखना, निष्क्रीय रहना, अपना कर्तव्य नहीं निभाना … ये सब बातें अफवाहोंके समकक्ष है. इनके विरुद्ध दंडका प्रावधान होना आवश्यक है.
और कौन अफवाहें फैलाते हैं?
लोगोंमें भी भीन्न भीन्न फोबिया होता है.
मोदी और बीजेपी या आएसएस फोबीया केवल दंभी धर्मनिरपेक्ष पंडितोमें होता है ऐसा नहीं है, यह फोबीया सामान्य मुस्लिमोंमें और पाश्चात्य संस्कृति से अभिभूत व्यक्तिओमें भी होता है. ऐसा ही फोबीया महात्मा गांधी के लिये भी कुछ लोगोंका होता है. कुछ लोगोंको मुस्लिम फोबिया होता है. कुछ लोगोंको क्रिश्चीयन लोगोंसे फोबीया होता है. कुछ लोगोंको श्वेत लोगोंकी संस्कृतिसे या श्वेत लोगोंसे फोबिया होता है. वे भी अपनी आत्मतूष्टिके लिये अफवाहें फैलाते है. ये सब लोग केवल तारतम्य वाले कथनों द्वारा अपना अभिप्राय व्यक्त करके उसके उपर स्थिर रहते हैं.
शिरीष मोहनलाल दवे
क्या ये लोग मुंह दिखानेके के योग्य रहे हैं?
Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, tagged अभद्र शब्द, ओमर, कान्ति भट्ट, कोंगी, कोलमीस्ट, गुजरात, गुमराह, चिदंबर. कपिल सिब्बल, जीत, धारा ३७०, नरेन्द्र मोदी, फारुख, मूर्धन्य, मोडल, मोदी रोको, शरद पवार, सनत मेहता on May 20, 2014| 5 Comments »
क्या ये लोग मुंह दिखानेके के योग्य रहे हैं?
नरेन्द्र मोदीकी देश में सर्वव्यापक जित हुई. भारतकी जनताने उसको बहुमतसे विजय दिलाई.
लेकिन उसके पहेले क्या हुआ था?
ऐसा माना जाता है कि एक “मोदी रोको आंदोलन” सामुहिक ढंगसे मिलजुल कर चल रहा था, तथा कुछ मूर्धन्य द्वारा, “हम कुछ हटके है” ऐसी विशेषता का आत्मप्रदर्शन और आत्मख्यातीके मानसिक रोगसे पीडित विद्वानोंने इस आंदोलनमें अपना योगदान दिया करते थे.
नरेन्द्र मोदीके विरोधी कहां कहां थे और है?
दृष्य श्राव्य माध्यम टीवी चेनल
कोई न कोई क्षेत्रमें ख्यात (सेलीब्रीटी) व्यक्ति विशेष.
कोंगी और उनके साथी नेतागण
अखबारामें कटार लिखनेवाले (कोलमीस्ट)
दृष्य श्राव्य समाचार माध्यमः
इन माध्यमोंने कभी मुद्दे पर आधारित और माहितिपूर्ण संवाद नहीं चालाये. नरेन्द्र मोदीने कहा कि धारा ३७० से देशको या कश्मिरको कितना लाभ हुआ इसकी चर्चा होनी चाहिये. तो इसके उपर फारुख, ओमर आदि नेताओंने जो कठोर शब्द प्रयोग किये और इन शब्दोंको ही बार बार प्रसारित किया गया. चेनलोंने कभी उन नेताओंको यह नहीं पूछा कि धारा ३७० से क्या लाभ हुआ उसकी तो बात करो.
चेनलोंका चारित्र्य ऐसा रहा कि जो मूलभूत सत्य है और समस्या है वह दबा दिया जाय. ऐसा ही “गुजरात मोडल”के विषय पर हुआ. जिन नेताओंने बिना कोई ठोस आधार पर कडे और अपमान जनक शब्दोंसे “गुजरात मोडल”की निंदा की, चेनल वाले सिर्फ शब्दोंको ही प्रसिद्धि देते रहे. चेनलोनें कभी उन नेताओंसे यह पूछा नहीं कि आप कौनसे आधार पर गुजरात मोडलकी निंदा कर रहे हो? चैनलोंने बुराई करने वाले नेताओंकी प्रतिपरीक्षा (क्रोस एक्जामीनेशन) भी नहीं की. उनका बतलब ही यही था कि नरेन्द्र मोदीको ही बिना आधार बदनाम करो और नरेन्द्र मोदीके और बीजेपीके बारेमें बोले गये निंदाजनक शब्दों को ही ज्यादा प्रसिद्धि दो. ऐसे तो कई उदाहरण है.
सिझोफ्रेनीयासे पीडित
इन लोगोंको पहेचानो जो सिझोफ्रेनीयासे पीडित है(Schizophrenia एक ऐसी बीमारी है जिसमें खुदके विचारका खुदके आचारके साथ संबंध तूट जाता है और सिर्फ उनकी भावना अभद्र शब्दोंसे प्रकट होती है)
पी चिदंबरः
ये महाशय अपनेको अर्थ शास्त्री समझते है. वे अर्थ मंत्री भी रहे. अगर चाहते तो नरेन्द्र मोदीने जिस विकासके लिये जिन क्षेत्रोंको प्राथमिकता दी, और गुजरातका विकास किया, उसमें अपना तर्क प्रस्तूत कर सकते थे. ऐसा लगता है कि, ऐसा करना उनके बसकी बात नहीं थी या तो वे जनताको गुमराह करना चाहते थे.
पी चिदंबरंने क्या कहा? उन्होने कहा कि, “नरेन्द्र मोदीका अर्थशास्त्रका ज्ञान पोस्टेज स्टेंप पर लिख सके उतना ही है”. हो सकता है यह ज्ञान उनके खुदके ज्ञानका कद हो.
महात्मा गांधीने कहा था “सर्वोदय”. उनका एक विस्तृतिकरण है “ओन टु ध लास्ट”.
इसको भी समझना है तो “ईशावास्य वृत्ति रखो. इसमें हर शास्त्र आ जाता है.
नरेन्द्र मोदीने यह समझ लिया है. नरेन्द्र मोदी राजशास्त्री ही नहीं विचारक भी है.
कपिल सिब्बलः “नरेन्द्र मोदी सेक्टेरीयन है. उसने फेक एन्काउन्टर करवाये है. नरेन्द्र मोदी लघुमतियोंके लिये कुछ भी करता नहीं है. नरेन्द्र मोदी कोई भी हालतमें प्रधान मंत्री बन ही नहीं सकता. वह स्थानिक है और वह स्थानिक भी नहीं रहेगा. वह शिवसेनाके नेताओंके जैसे लोगोंके साथ दारुपार्टी करता है.”
अब ये सिब्बल महाशय खुद गृह मंत्री थे. उन्होने क्या किया? अगर नरेन्द्र मोदी संविधानके अनुसार काम करता नहीं है तो उनकी पार्टी की सरकार कदम उठा सकती थी. वे क्युं असफल रहे? यह कपिल सिब्बल भी सिझोफ्रेनीया नामवाला मानसिक रोगसे पीडित है.
मनमोहन सिंहः वैसे यह महाशय प्रधान मंत्री है तो भी रोगिष्ठ है. उन्होने कहा नरेन्द्र मोदी अगर प्रधान मंत्री बने तो भारतके लिये भयजनक है. कैसे? वे खुद प्रधान मंत्री है तो भी उनके लिये वे यह आवश्यक नहीं समजते है कि वे यह बताये कि किस आधार पर वे ऐसा बता रहे है. क्या गुजरातकी हालत भय जनक है? अगर हां, तो कैसे? वास्तवमें उनकी यह रोगिष्ट मानसिकता है. अगर प्रधानमंत्री जनताको गुमराह करेगा तो वह देशके लिये कितना भयजनक स्थितिमें पहोंचा सकता है? आगे चल कर यह प्रधान मंत्री यह भी कहेते है कि मोदी उनके पक्षके पक्षके लिये बेअसर है.
“मोदी तो बिना टोपींगवाला पीझा है” अनन्त गाडगील कोंगीके प्रवक्ता
“मोदी तो फुलाया हुआ बलुन है” वह शिघ्र ही फूटने वाला है” शरद पवार.
“मोदी हिटलर है और पॉलपोट (कम्बोडीयन सरमुखत्यार) है” शान्ताराम नायक कोंगी एम.पी.
“मोदी कोई परिबल ही नहीं है. वह समाचार माध्यमका उत्पादन है. मोदी तो भंगार (स्क्रॅप) बेचनेवाला है. मोदी तो गप्पेबाज यानी कि “फेकु” है, बडाई मारनेवाला है” दिग्विजय सिंह जनरल सेक्रेटरी कोंगी.
“नरेन्द्र मोदी तो बंदर है. लोग मोदी बंदरका खेल देख रहे है. नरेन्द्र मोदी नपुंसक है” सलमान खुर्शिद कोंगी मंत्री.
“नरेन्द्र मोदी भस्मासुर है” जय राम रमेश कोंगी मंत्री
“नरेन्द्र मोदी मेरी गीनतीमें ही नहीं है. “ राहुल कोंगी उप प्रमुख
“हमारे पक्ष के लिये मोदी बेअसर है. हमारे लिये उसका कोई डर नही” गुलाम नबी आझाद. कोंगी मंत्री
“नरेन्द्र मोदी? एक दिखावा है. बीके हरिप्रसाद, राज बब्बर, शकील एहमद, कोंगी नेता.
“नरेन्द्र मोदी एक कोमवादी चहेरा है” चन्द्रभाण. कोंगी प्रमुख राजस्थान
“मोदी एक निस्फलता है” अजय माकन कंगी जनरल सेक्रेटरी
“मोदी एक चमगादड है” ईन्डो एसीअन न्युज सर्वीस (ई.ए.एन.एस)
“मोदी लघुमतियोंका दुश्मन है” सुखपाल सिंग खेरा कोंगी पंजाब प्रमुख
“मोदी रेम्बो बनना चाहता है” मनीश तिवारी कोंगी मंत्री
“मोदी बीजेपीको जमीनमें ८ फीट नीचे गाड देगा. यह निश्चित है.” फ्रान्सीस्को कोंगी प्रमुख गोवा
“मोदी धर्मांधताका प्रतिक है.” रमण बहल कोंगी कारोबारी सदस्य.
“मोदी अपनेको सुपरमेन समजता है. मोदी तो रेम्बो है. मोदी रावण है” सत्यव्रत कोंगी नेता
“मोदी त्रास फैलानेवाला है. रेम्बो बनने के लिये दिमाग जरुरी नहीं है” रेणुका चौधरी कोंगी नेता.
“मोदी और बीजेपीको मानने वालोंको समूद्रमें डूबो दो” फारुख अब्दुला
“मोदी और बीजेपीको मानने वालोंके टूकडे टूकडे करदो” आझमखान
“नरेन्द्र मोदी धर्मांध जुथका प्रतिक है, नरेन्द्र मोदी कोमवादी है उसको हराओ. अगर मोदी प्रधान मंत्री बन गया तो देश विभाजित हो जायेगा. यह समयका तकाजा है कि मोदीको रोका जाय” महेश भट्टा, इम्तीआझ अली, विशाल भारद्वाज, नन्दिता दास, गोविन्द निहलानि, सईद मिर्झा, झोया अख्तर, कबीर खान, शुभा मुद्गल, अदिति राओ हैदरी, आदिने एक निवेदन करके जनहितमें प्रकाशित करवाया.
“अगर नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बन गया तो मैं बोलीवुड छोड दूंगा और जाति परिवर्तन (सेक्स चेन्ज) करवा लुंगा” बोली वुडका कमाल खान
“अगर नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बन गया तो मैं राजकारण छोड दूंगा” देव गौडा पूर्व प्रधान मंत्री.
इन नेताओंने ऐसी छूट कैसे ली? क्यों कि उनकी शिर्ष नेता सोनीया (एन्टोणीया)ने नरेन्द्र मोदीको मौतका सोदागर और गुजरातकी जनताको गोडसे की ओलादें कहा था.
मीडीयाके मूर्धन्य जो अपनी कोलम चलाते है. उनका नैतिक कर्तव्य है राजकीय गतिविधियोंका और विचारोंका विश्लेषण करना और जनताको जागृत करना. लेकिन क्या उन्होने यह कर्तव्य निभाया?
ये कोलमीस्ट कौन थे?
उदाहरण के लिये हम गुजरातकी बात करेंगें. दिव्य भास्कर एक नया नया समाचार पत्र है और कुछ वर्ष पहेले ही उसने पादार्पण किये है लेकिन उसने पर्याप्त वाचकगण बना लिया है. उसके कोलमीस्ट को देखें. जो बीजेपी और नरेन्द्र मोदीके विरोधी थे उनका वैचारिक प्रतिभाव और तर्क कैसा रहा?
सनत महेताः
जो खुद नहेरुवीयन कोंग्रेसके होद्देदार थे. सरकारमें १९६७-१९६९, १९७१-९७५, १९८१-१९९५ गुजरात सरकारमें मंत्री भी रह चूके है. यह सनत महेता का इतिहास क्या है? सर्व प्रथम वे पीएसपी (प्रजा सोसीयालीस्ट पक्षमें थे).
नहेरु भी अपनेको समाजवादीके रुपमें प्रस्तूत करते रहते थे. उन्होने खुदकी विचारधाराका नाम बदलते बदलते “लोकशाहीवादी समाज रचना” का नामकरण किया. स्वतंत्र-पक्ष अपना जोर जमाने लगा. इस स्वतंत्र पक्षमें दिग्गजनेता थे. चीनकी भारत पर “केकवॉक” विजयके बाद और नहेरुकी मृत्युके बाद इन्दिराने खुदको और पिताजीकी यथा कथित विचारधाराको मजबुत करनेके लिये इस प्रजा सोसीयालीस्ट पक्षको पटा लिया.
भारतमें उस समय एक और समाजवादी पक्ष भी था जो “संयुक्त समाजवादी पक्ष” नामसे जाना जाता था. उसके नेता डॉ. राममनोहर लोहिया थे. उनको नहेरुवीयनोंका वैचारिक दंभ मालुम था इस लिये उनका पक्ष इन्दिराके पक्षमें संमिलित नहीं हुआ.
लेकिन यह सनतकुमार का जुथ (अशोक महेता इसके नेता थे) नहेरुकी कोंग्रेसमें विलयित हो गया. इन्दिरा ने देखा कि अपने पिताजीने अपनी बेटीको सत्ता पर लानेके लिये जो सीन्डीकेट बनायी थी वह तो खुदके उपर हामी हो रही है और उसमेंसे कुछ लोग तो दक्षिण पंथी है तब उसने पक्षमें फसाद करके एक नया पक्ष बनाया जो कोंग्रेस आई (कोंग्रेस इन्दिरा) नामसे प्रचलित था. जो मूल कोंग्रेस पक्ष था, जिसके उपर संस्थाकी पकड थी यानी की जिनमें कारोबारीके ज्यादा सदस्य थे उस पक्षका प्रचलित नाम था कोंग्रेस (संस्था). इस तरह कोंग्रेस तूटी. गुजरातमें मोरारजी देसाई जो कोंग्रेस (संस्था)में थे. और कोंग्रेस (संस्था) गुजरातमें राज करती थी.
एक पक्षमेंसे दुसरे पक्षमें कूदनेमें सर्व प्रथम
अविभाजित कोंग्रेसमेंसे कोंग्रेस (आई)में कूदके जाने वालोंमें सनतकुमार और उनके दो तीन मित्र (रसिकलाल परिख, रतुभाई अदाणी, छबीलदास महेता) थे. बादमें कोंगीकी सरकारें ही ज्यादातर गुजरातमें आयी और उसमें यह महाशय मंत्री के रुपमें हमेशा शोभायमान रहेते थे. ये महाशय अविभाजित कोंग्रेसमें भी मंत्री थे. यह महाशय २२+ वर्ष तक मंत्री रहे. उस समय भी गुजरातके पास समूद्र था, समूद्र किनारा था, कच्छका रण था, नर्मदा नदी भी थी. नर्मदा डॅम की योजना भी थी. प्राकृतिक गेस भी था, जंगल भी था, गरीबी भी थी. विकासके लिये जो कुछ भी चाहिये वह सबकुछ था. जंगल तो उनके समयमें सबसे ज्यादा कट गये. समाजवादी होनेके नाते यहां सरकार द्वारा कई योजनाएं लागु करनेकी थी. हररोज एक करोड रुपयेका गेस हवामें जलाया जाता था, क्यों कि गेस भरनेके सीलीन्डर नहीं थे. गेसके सीलीन्डर आयात करनेके थे. आयात करनेमें इन्दिराका समाजवाद, अनुज्ञापत्र(परमीट), अनुज्ञप्ति (लायसन्स) का प्रभावक कैसे धनप्राप्तिके लिये उपयोगमें लाया जाय यह एक भ्रष्ट समाजवादीयोंके लिये समय व्ययवाली समस्या होती है.
नर्मदा डेम, मशीन टूल्सकी फेक्टरी, बेंकोका राष्ट्रीयकरणका राजकीय लाभ कैसे लिया जाय यह सब में ये समाजवादी लोग ज्यादा समय बरबाद करते है. इन प्रभावकोंका ये लोग लोलीपोप की तरह ही उपयोग किया करते है. तो यह सनत महाशय अपनी २३ सालकी सत्ताके अंतर्गत जो खुद कुछ नहीं कर पाये, वे अपने को एक अर्थशास्त्रके विशेषज्ञ समझने लगे है, और सरकार (बीजेपी सरकार) को क्या करना चाहिये और क्या क्या नहीं कर रही है और क्या क्या गलत कर रही है ऐसा विवाद खडा करने लगे, ताकि एक ऋणात्मक वातावरण बीजेपी सरकारके लिये बने.
मल्लिका साराभाईः
कितने हजार घारोंमें बिजली नहीं पहोंची, महिला सशक्ति करण क्यों नहीं हो रहा है, जंगलके लोग कितने दुःखी है, आदि बेतूकी बाते जिसमें कोई ठोस माहिति न हो लेकिन भ्रम फैला सके ऐसे विवाद खडे करती रहीं. हकारत्मक बातें तो देखना ही वर्ज्य था.
प्रकाशभाई शाहः
यह भाईसाब अपनेको गांधीवादी या अथवा तथा सर्वोदयवादी या अथवा तथा ग्रामस्वराज्यवादी समझते है. विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधाराने एक उपोत्पादन (बाय-प्रोडक्ट) बनाया है. प्रकाशभाई जैसे व्यक्ति ऐसा ही एक उपोत्पादन (उप- उत्पादन) यानी कि बाय प्रोडक्ट है. बाय प्रोडक्ट बाय प्रोडक्ट में फर्क होता है. गेंहु, चावल, चने आदिका जब पाक (क्रॉप) होता है तो साथ साथ बावटा, बंटी, अळशी, और कुछ निक्कमी घांस भी उग निकलती है. तो विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधाराकी जो मानसिकता होती है उसके साथ साथ कुछ ऐसे (वीड=weed, गुजरातीमें वीड को निंदामण कहेते है) मानसिकतावाली बाय प्रोडक्ट (वीड) भी उग निकलती है. कोई वीड उपयोगी होती है, कोई वीड हवामें फैलके हवा बिगाडती है. वीड एलर्जीक भी होती है. हमारे प्रकाशभाई विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधारासे उत्पन्न हुई एक वीड है. इस वीडको नरेन्द्र मोदीकी एलर्जी है.
प्रकाशभाईके लेखको आपको समझना है? तो कागज और कलम लेके बैठो. उन्होनें जो वाक्य बनाये है उनके शब्दोंकों लेकर वाक्य को विभाजित करो. और फिर अर्थ निकालो. आपको तर्क मिलेगा नहीं. लेकिन आप उस वाक्यको कैसे सही माना जाय, उस विषय पर दिमाग लगाओ. आपको संत रजनीशकी याद आयेगी. लेकिन आप ऐसा तो करोगे नहीं. आप सिर्फ उसमेंसे क्या संदेश है, क्या दिशा सूचन है वही समझोगे. बस यही प्रकाशभाईका ध्येय है.
मतलबकी लेखमें नरेन्द्र मोदीको एक पंच मारना आवश्यक हो या न हो, एक पंच (punch) अवश्य मारना. पंच मारनेका प्रास्त्युत्य (रेलेवन्स) हो या न हो तो भी.
ऐसा क्युं? क्योंकी हम अहिंसाके पूजारी है. विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधाराके अनुयायी है. नरेन्द्र मोदी २००२ वाला है.
कान्तिभाई भट्टः
ये भाईसाब शीलाबेनके पति है. वैसे तो वे भी ख्यातनाम है. जबतक आरोग्यके बारेमें लिखते है तब तक अच्छा लिखते है. कुदरती चिकित्सा (नेचरोपथी)का खुदका अनुभव है इसलिये उसमें सच्चाईका रणकार मिलता है.
लेकिन अगर हम कटार लेखक (कोलमीस्ट) है तो सब बंदरका व्यापारी बनना पडेगा ही. राजकारण को हाथमें लेना आसान होता है.
कटार लेखन की शैली ऐसी होनी चाहिये कि हम वाचकोंको विद्वान लगे.
विद्वान हम तभी लगेंगे कि हम बहुश्रुत हो.
बहुश्रुत हम तभी लगेंगे कि हमारा वाचन विशाळ हो.
वाचकोंको हमारा वाचन विशाल है वह तब लगेगा कि हमने जो वाक्य उद्धृत किये हो उनमें हम लिखें कि फलां फलां व्यक्तिने यह कहा है. इसमें हम मान लेते हैं कि यह तो कोई महापुरुषने कहा है इसलिये यह तो स्वयं सिद्ध है. तर्क की कोई आवश्यकता नहीं. प्रास्तूत्य होना यह भी आवश्यक नहीं है.
समजमें नहीं आया न? तो आगे पढो…
मेगेस्थीनीसने अपने “फलां” पुस्तकमें लिखा कि सिकंदर एक ऐसा महापुरुष था कि वह हमेशा चिंतनशील रहेता था. एक शासकको चाहे छोटा हो या बडा, उसके लिये चिंतन करते रहेना अति आवश्यक है. खुदने जो काम किया वह अच्छी तरह किया था या नहीं? अगर अच्छी तरह किया था तो क्या उससे भी अच्छा किया जा सकता था या नहीं? उसका चिंतन भी करना जरुरी है. नरेन्द्र मोदीको आगे बढने कि घेलछा है, लेकिन क्या उसने कभी चिंतन किया है? यह उसकी मनोवृत्ति कभी बनी है क्या?
कान्तिभाईको इससे आगे सिद्ध करेनी जरुरत नहीं है. उनके हिसाबसे जो कहेना था वह अपने आप सिद्ध हो जाता है ऐसा वे मानते है.
अगर लेटेस्ट उदाहरण चाहिये तो आजका (ता. २०-०५-२०१४ का दिव्यभास्कर देखो).
लेखकी शिर्ष रेखा है “नरेन्द्र मोदी आनेसे किसान बनेगा बेचारा, और विदेशी कंपनियां न्याल हो जायेगी”.
हो सकता है कि यह लेखकी शिर्ष रेखा समाचार पत्रके संपादकने बनायी हो. अगर ऐसा है तो संपादककी मानसिकताको भी समझ लो.
कान्तिभाई अपने लेखमें क्या लिखते है?
“भावनगर राज्यके कृष्णकुमार सिंह किसानका बहुत खयाल रखते थे,
“शरद पवार अरबों पति किसान है. महाराष्ट्र के एक जिलेमें २०१०में एक ही महिनेमें ३७ किसानोंने आत्म हत्या की.
“मुंबईसे सिर्फ १२७ मील दूरस्थ यवतमाल गांव में मारुति रावने लोन लेके महंगे बीटी कोटन और विलायती खाद खरीद किया. फसल निस्फल हुई तो उसने आत्महत्या की, उसकी पत्नी उषाने ऋण अदा करनेके लिये १४ एकर जमीन बेच दी. और वह खेत-मझदुर बन गई. महाराष्ट्र सरकारने राहतका काम किया लेकिन बाबु लोग बीचमें पैसे खा जाते है. जंतुनाशक दवाईयां जो विकसित देशमें प्रतिबंधित है लेकिन शरद पवारके महाराष्ट्रमें वे सब कुछ चलती है. यह दवाईयां विषयुक्त है, और खुले पांव आपको खेतमें जाना मना है, फिर भी किसान खुले पांव जाता है. और मौतका शिकार होता है.
आगे चलकर लेखक महाशय, यह कीट नाशक दवाईयां, विदेशी जेनेटिक बीज आदि के भय स्थानका वर्णन करते है.केन्द्र की बुराईयां और अमेरिकाकी अच्छाईयां की बात करते है. भारतमें ईन्ट्रनेट व्याप्ति की बात करते है.
फिर मोदी के चूनाव प्रचारकी बात करते है फिर मोदीको एक पंच मारते है कि मोदी जनता को क्या लाभ कर देने वाला है? (मतलब की कुछ नहीं). फिर एक हाईपोथेटीकल निष्कर्ष निकालते है. नरेन्द्र मोदी द्वारा कायदा कानुन आसान किया जायगा और अंबाणीको फायदा होगा. नयी सरकार (मोदी सरकार), विदेशी कंपनीयोंके साथ गठबंध करेगी और उनको न्याल करेगी. कहांकी बाते और कहां का कही निष्कर्ष?
पागल बननेकी छूट
चलो यह बात तो सही है और संविधान उन लेखकोंकी स्वतंत्रता की छूट देता है कि वे बिना कोई मटीरीयल और तर्क, गलत, जूठ और ऋणात्मक लिखे, जब तक वह खुद, अपने लाभसे दूसरेको नुकशान न करें वह, क्षम्य है. लेकिन गाली प्रदान करना और अयोग्य उपमाएं देना गुनाह बनता है. यह बात मोदीके सियासती विरोधीयोंको लागु पडती है. इनमें ऐसे वितंडावाद करनेवाले मूर्धन्य भी सामेल है.
ये ऐसे मूर्धन्य होते है जो ६०सालमें जिन्होंने देशको पायमाल किया, उसके बारे में, एक लाईनमें लिख देते है, लेकिन जो सरकार आने वाली है और जिसके नेताने अभी शपथ भी ग्रहण किया नहीं उसके बारेमें एक हजार ऋणात्मक धारणाएं सिद्ध ही मान लेते है.
जनता को गुमराह करनेवालोंको आप कुछ नहीं कर सकते. क्यों कि लोकतंत्रमें पागल होना भी उनका हक्क है.
जिन महानुभावोंने घोषणा की, कि, अगर मोदी प्रधान मंत्री बना तो वे पाकिस्तान चले जायेंगे. इन लोगोंकी मानसिकता और तर्क का निष्कर्ष निकालें.
ये महानुभाव पाकिस्तानको क्यों पसंद करते है?
नरेन्द्र मोदीवाले भारतकी अपेक्षा पाकिस्तानी सियासत भारतसे अच्छी है.
सर्व प्रथम निष्कर्ष तो यह निकलता है न? क्यों? क्यों कि नरेन्द्र मोदी कोमवादी है. वह अल्पसंख्यकोंका दुश्मन है.
पाकिस्तान कैसा है?
आझादी पूर्व इस प्रदेशमें १९४१में ४० प्रतिशत हिन्दु थे. १९५१ तक भारतमें १.५ करोड हिन्दुओंने स्थानांतर किया. जो १९४१ में २५ प्रतिशतसे ज्यादा थे अब वे २ प्रतिशत या उससे भी कम रह गये हैं. उसके बाद भी हिन्दु वहांसे निकाले जाने लगे.
यह वह पाकिस्तान है जिसका आई.एस.आई. और मीलीटरी मिलकर भारतमें आतंकवादी सडयंत्र चलाते हैं.
इन्होने हमारे कश्मिरमें ३००० हिन्दुओंको १९८९-९० की कत्लेआममें मौतके घाट उतार दिया. और ५-७ लाख हिन्दुओंको भगा दिया.
यह वह पाकिस्तान है जहां पर ज्यादातर लश्करी शासन रहा है.
ऐसा पाकिस्तान, इन मूर्धन्योंको गुजरातके नरेन्द्र मोदीके भारतसे अच्छा लगता है.
क्यों कि इस गुजरातमें मोदीके शासनमें एक भी मुसलमान बेघर रहा नहीं.
एक भी मुसलमान हिन्दुओंके डर की वजहसे पाकिस्तान भाग गया नहीं.
इस गुजरातमें अक्षरधाम पर आतंकवादी हमलावरोंने ३० को मौतके घाट उदार दिया था और कईयोंको जक्ख्मी किया,
२००८में कई बोम्बब्लास्ट किया, जिनमें ५६ को मौतके घाट उतारा और ३०० जक्ख्मी किया,
उसके बावजुद,
नरेन्द्र मोदीने परिस्थितिको सम्हाला और एक भी मुसलमान न तो मारा गया और न तो डरके मारा कोई पाकिस्तान भाग गया.
तो अब आप निर्णय करो किसके दिमागमें कीडे है?
संविधानमें संशोधन अनिवार्य लगता है कि जो लोग इस प्रकार बेतूकी बातें करके खुदकी कोमवादी और लघुमतिको अलग रखनेकी, वोटबेंककी नीति उकसानेकी और कोम कोमके बीच घृणा फैलानेका काम करते है और जो वास्तवमें मानवता वादी है ऐसे नेता पर कोमवादी होनेका आरोप लगाते हैं उनके उपर कानूनी कर्यवाही करके कारावासमें बंद कर देना चाहिये.
शिरीष मोहनलाल दवे
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झिम्बो कम्स टु टाउन यानी केज्रीवाल कम्स टु गुजरात
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झिम्बो कम्स टु टाउन यानी केज्रीवाल कम्स टु गुजरात
टीवी चेनल
एक पेईड टीवी चेनल वालेने कहा मोदी गभरा (डर) गया है. अब तक मोदी सवाल पूछता था. अब मोदी गभरा गया है उसको लगा, अरे ये सवाल पूछने वाला और कहांसे पैदा हो गया?
टीवी चेनल पर टीपणी करना व्यर्थ है. उनको अपने पेटके लिये पाप करने पडते है. नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताओंको और टीवी चेनलोंको अपने अस्तित्वको सिद्ध करनेके लिये या बनाये रखने के लिये कुछ न कुछ व्यर्थ और अर्थहिन बातें करनी पडती है.
नहेरुवीयन कोंग्रेस वाले पैसे देतें है. चेनलवाले अगर पैसे मिलते है तो क्यूं छोड दें? सवाल पूछना कोई बडी बात नहीं है.
अखबारी कटारीया (Columnist)
केजरीवाल जटायु इसलिये नरेन्द्र मोदी रावण
यह कटारीया महाशय वैसे तो नरेन्द्र मोदीको कटारीया, पंच (मुक्का) मारने का मौका ढूंढते ही रहते है, और अगर मौका न मिले तो भी नरेन्द्र मोदीको विशेष्य बनाके एक पंच लगा ही देते है. इस महाशयने केज्रीवालको जटायु का नामाभिकरण करके नरेन्द्र मोदीको रावण घोषित कर दिया. नरेन्द्र मोदीने कौनसी सीताका अपहरण किया है, इस बात पर यह भाईसाब मौन है. ऐसा व्यवहार वैसे तो नहेरुवीयन कोंग्रेसी संस्कार है. नहेरुवीयन कोंग्रेसी कल्चर यह है कि बस कथन करते जाओ और कैसा सुंदर कहा ऐसा गर्व लेते जाओ. इन्दीरा गांधीने भी १९६८में कहा था कि मेरे पिताजी तो बहूत कुछ करना चाहते थे लेकिन ये सब बुढे लोग उनको करने नहीं देते थे. उस समयके समाचार माध्यमोंने और मूर्धन्योंने तालीयां बजायी थी. ईसी कारणसे तो इन्दीर गांधीका होसला बढा था और भारतीय जनताको नहेरुवीयनोंकी आपखुदी देखनी पडी थी और देशको हरेक क्षेत्रमें पायमाली देखनी पडी थी.
सवाल है थ्री नोट थ्री
खुदको एक गांधी वादी और सर्वोदयी मानने वाला कटारीयाने [कटार लेखकने (प्रकाश शाहने)] दिव्यभास्कर ८, मार्च में अपनी कटारमें (कोलममें) कहा, केजरीवालने नरेन्द्र मोदी को थ्री नोट थ्री टाईप सवाल पूछे.
कटारीया लेखकश्रीको शायद मालुम नहीं है, कि, थ्री नोट थ्री का मतलब क्या होता है. शब्दों पर बलात्कार करना मूर्धन्योंको शोभा नहीं देता. कटारीया लेखकश्रीजीको मालुम होना चाहिये कि थ्री नोट थ्री लगने पर आदमी जिंदा रहेता नहीं है. और जो सवाल केज्रीवालने पूछे वे सब सवाल देशकी सभी सरकारोंको पूछा जा सकता है. अगर सवालोंके पीछे भ्रष्टाचारोंकी सच्चाई है तो केन्द्रमें नहेरुवीयन कोंग्रेसकी सरकार है. उसको पहेले पूछो. अगर वह भी भ्रष्ट है तो पब्लिक ईन्टरेस्ट पीटीशन दाखिल करनेसे किसको कौन रोकता है?
उसने यह भी कहा जो सुत्र हमने उससे ही पढा कि, “शीला दिक्षितको हराया है अब मोदीकी बारी है.” प्रासानुप्रास से सत्य तो सिद्ध नहीं होता है लेकिन हमारे कटारीया लेखक इसमें भावी संभावना देखते है और खुश होते है. कटारिया लेखकश्री लिखते है; “एक (भ्रष्टाचारकी) प्रतिमा (शीला दिक्षित)को खंडित किया है. इसलिये दुसरी प्रतिमा (नरेन्द्र मोदी) भी खंडित हो सकती है.” इति सिद्धम्. महात्मा गांधी स्वर्गमें शायद अपने अनुयायी के ऐसे तर्कसे आहें भरतें हो गये होगे.
इमानदारी निश्चित करनेका केज्रीवालके पास यंत्र है
नहेरुवीयन कोंग्रेस तो भ्रष्ट है ही, इसलिये केज्रीवाल नहेरुवीयन कोंग्रेसके नहीं है. केज्रीवाल को बीजेपी का साथ भी नहीं चाहिये क्यों कि, बीजेपी भी भ्रष्ट है. आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार मात्रके विरुद्ध है. इसलिये वह अपने पक्षमें सभी उम्मिदवारोंकी पार्श्व भूमि देखके जांच करके उनका चयन करती है. जब तक सत्ता नहीं होती है, सब लोग इमानदार होते है. बच्चा अपने जन्मके साथ भ्रष्टाचारी होता नहीं होता है. शायद इस बात केज्रीवालको मालुम नहीं होगी.
जे एल नहेरु भी इमानदार थे. भ्रष्टाचार केवल आर्थिक भ्रष्टाचार नहीं हो सकता. अविधेय और अनीतिमान तरिकोंसे सत्ता प्रप्त करना, जूठ बोलना, छूपाना, दूसरोंका हक्क छीन लेना, अपमान करना, भेदभरम करना, वेतन लेना किन्तु काम कम करना, देरसे आना, आदि सब भ्रष्टाचार ही है. भ्रष्टाचारके बारेमें नहेरुवीयन खानदानसे ज्यादा अच्छी मिसाल नहीं मिल सकती.
भ्रष्टाचार एक सापेक्ष होता है. प्रमाणभान की प्रज्ञासे ही ज्ञात हो सकता है कि किसको प्राथमिकता देनी चाहिये. हमारी गति ज्यादासे कम भ्रष्टाचारी की दिशामें होनी चाहिये. क्यों कि निरपेक्षता पूर्ण नीतिमत्ता वाला कोई होता ही नहीं है. जैसे अहिंसा सापेक्ष है वैसे ही भ्रष्टाचार भी सापेक्ष है. लेकिन केज्रीवाल को शायद यह बात मालुम नहीं है.
समय मिलने पर कौन कब भ्रष्टाचारी बन जायेगा इस बातका किसीको भी पता नहीं है. महात्मा गांधी खुद नहेरुको पहेचान नहीं पाये थे कि, वह सत्ताके लोभमें देशके अर्थ तंत्रको और देशकी शासन व्यवस्थाको गर्तमें ले जायेगा. तो यह केज्रीवाल कौन चीज है?
देखो नहेरु, गांधीजीके बारेमें कैसा सोचते थे? पढो निम्न लिखित पैरा.
नहेरु की दृष्टिमें महात्मा गांधीः
कुछ लोग समझते है कि महात्मा गांधी को नहेरु बहुत प्रिय थे. वास्तवमें ऐसा नहीं था. लेकिन गांधी तत्कालिन कोंग्रेसको तूटनेसे बचाना चाहते थे. खण्डित भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गांधीजीके बारे में कहा था – ” ओह दैट आफुल ओल्ड हिपोक्रेट ” Oh, that awful old hypocrite – ओह ! वह ( गांधी ) भयंकर ढोंगी बुड्ढा । यह पढकर आप चकित होगे कि क्या यह कथन सत्य है – गांधी जी के अनन्य अनुयायी व दाहिना हाथ मानेजाने वाले जवाहर लाल नेहरू ने ऐसा कहा होगा , कदापि नहीं । किन्तु यह मध्याह्न के सूर्य की भाँति देदीप्यमान सत्य है – नेहरू ने ऐसा ही कहा था । प्रसंग लीजिये – सन 1955 में कनाडा के प्रधानमंत्री लेस्टर पीयरसन भारत आये थे । भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ उनकी भेंट हुई थी । भेंट की चर्चा उन्होंने अपनी पुस्तक ” द इन्टरनेशनल हेयर्स ” में की है –
सन 1955 में दिल्ली यात्रा के दौरान मुझे नेहरू को ठीक – ठीक समझने का अवसर मिला था । मुझे वह रात याद है , जब गार्डन पार्टी में हम दोनों साथ बैठे थे , रात के सात बज रहे थे और चाँदनी छिटकी हुई थी । उस पार्टी में नाच गाने का कार्यक्रम था । नाच शुरू होने से पहले नृत्यकार दौडकर आये और उन्होंने नेहरू के पाँव छुए फिर हम बाते करने लगे । उन्होंने गांधी के बारे में चर्चा की , उसे सुनकर मैं स्तब्ध हो गया । उन्होंने बताया कि गांधी कैसे कुशल एक्टर थे ? उन्होंने अंग्रेजों को अपने व्यवहार में कैसी चालाकी दिखाई ? अपने इर्द – गिर्द ऐसा घेरा बुना , जो अंग्रेजों को अपील करे । गांधी के बारे में मेरे सवाल के जबाब में उन्होंने कहा – Oh, that awful old hypocrite । नेहरू के कथन का अभिप्राय हुआ – ” ओह ! वह भयंकर ढोंगी बुड्ढा ” ।( ग्रन्थ विकास , 37 – राजापार्क , आदर्शनगर , जयपुर द्वारा प्रकाशित सूर्यनारायण चौधरी की ‘ राजनीति के अधखुले गवाक्ष ‘ पुस्तक से उदधृत अंश )
नेहरू द्वारा गांधी के प्रति व्यक्त इस कथन से आप क्या समझते है?
महात्मा गांधी जैसा महान आर्षदृष्टा भी नहेरु कभी ऐसा बोल सकते है वह समझ नहीं पाये. यह बात सही है कि शायद नहेरुके पागलपनसे ही उन्होने कोंग्रेसको समाप्त करनेकी सलाह दी थी. लेकिन जो नहेरु क्रीप्स कमीशनका बहिष्कार नही कर सकता था वह सत्ता देनेवाली कोंग्रेसका कैसे विलोप कर सकता है. सरदार पटेल नहेरुके भरोसे कोंग्रेसको और देशको छोडना नहीं चाहते थे. इसलिये जब तक सरदार पटेल थे तब तक न तो तिबत्त पर चीन हमला कर सका न तो भारत सरकारने चीन का सार्वभौमत्व तिबत्त पर स्विकारा, न तो भारत सरकारने पंच शील का करार चीनके साथ किया.
सवालों के आधार पर केज्रीवालका ग्लोरीफीकेशन?
छोटे बच्चे भी कई सवाल करते है. सवाल करके अपना ज्ञान बढाते है और दुनियाको समझते है. लेकिन जब मनुष्यकी उम्र बढती है तो वह वह सवाल कम पूछता है और जवाब अपने आप ढूंढता है. और जवाब ढूंढनेके लिये दूसरोंसे सलाह मशवरा करता है.
केज्रिवालने क्या किया?
उसने गुजरातमें आनेसे गुजरातकी पोल खोलनेका मनसुबा बना लिया था. केज्रीवाल के एक साथीने तो उद्घोषित भी कर दिया कि, नरेन्द्र मोदी यह बताये कि वह कहांसे चूनाव लडने वाला है. हमारे केज्रीवाल वहांसे ही चूनाव लडेंगे. हमारे उपरोक्त खुदको गांधीवादी मनानेवाले कटारीया लेखश्रीने तो लिख ही दिया जब नरेन्द्र मोदीको पता चला कि अगर वह बनारससे चूनावके लिये खडा रहेगा तो केज्रीवाल उसके सामने खडा रहेगा. तो नरेन्द्र मोदीने अब बनारससे चूनाव लडना रद कर दिया है. वैसे नरेन्द्र मोदीके बारेमें और उसके व्यावहारोंके बारेमें उसके विरोधींयोंने अफवाहें फैलानेका बडा शौक बना रखा है. वे अफवाहोंवाली भविष्यवाणी भी करते हैं और खुदको खुश करते हैं.
अफवाहें फैलाओ और तत्कालिन खुश रहो
गुजरातीमे एक मूंहावरा है. मनमें ही मनमें शादी करो (खुशी मनाओ) और बादमें रंडापा भी भुगतो. क्योंकि वास्तविक शादी तो की ही नहीं है. [मनमांने मनमां परणो अने मनमांने मनमां पछी रांडो].
वैसे तो सियासतमें ऐसी प्रणाली नहेरुने चालु की थी. ईन्दीराने सरकारी तौरसे अफवाहें फैलानेका बडे पैमाने पर चालु किया था. आपतकाल इन्दीराई सरकारके लिये अफवाहें फैलानेका सुवर्णकाल था. यह तो नहेरुवीयन कोंग्रेसीयों की आदत ही बन गई है. तो उनके साथमें वैचारिक या मानसिकता से साथ रहनेवाले कैसे अलिप्त रहें? “अगर गैया भी गधोंके साथ रहें तो कमसे कम लात मारने की आदत बना ही देती है”. वैसे तो ये नहेरुवीयन कोंग और उसके साथी गैया जैसे नहीं है. वैसे तो ये सब नहेरुवीयन कोंग्रेसकी तरह वृकोदर ही है.
मान न मान मैं तेरा महेमान?
गुजरातकी नहेरुवीयन कोंगीनेता नेताने कहा कि नरेन्द्र मोदीको केजरीवालको मिलना चाहिये था. केजरीवाल तो गुजरातका महेमान था. महेमानको मिलनेसे इन्कार करना महेमानका अपमान है. केज्रीवालने भी यह बात दोहराई है.
गुजरातके महेमान केज्रीवाल
यह एक ऐसा महेमान है, जिसने नरेन्द्र मोदीको कहा ही नहीं कि मुझे तुम्हे मिलना है. केज्रीवालने यह अवश्य कहा कि, मैं गुजरातकी पोल खोलने वाला हुं. चलो इस बातका स्विकार करते है कि, महेमान तिथि बताके आते नहीं है. लेकिन क्या कभी महेमान, पहेले पूरा घुमघामके यजमान की भरपेट बुराई करके यजमानके पास जाते है?
महेमानने क्या किया?
केज्रीवालने सबसे पहेले तो भरपेट रेलीयां की. वैसे रेलियों की गुजरातमें कमी नहीं. क्यों कि नहेरुवीयन कोंग्रेस यही काम ११ सालोंसे गुजरातमें कर रही है. जब पूरे देशमें आपतकाल था और सभा सरघसकी पाबंदी थी, तब गुजरातमें कुछ समय तक जनता मोरचेकी महात्मा गांधीवादी बाबुभाई जशभाईकी सरकार थी. बाबुभाई जशभाईने लोकशाही मूल्योंको नष्ट किया नहीं था. तब ये नहेरुवीयन कोंग्रेसी बाबुभाई जशभाई पटेलकी सरकारके विरुद्ध प्रदर्शन करते ही रहते थे. इन्दीरा गांधी विपक्षको खुदके विरुद्ध किये गये प्रदर्शन के कारण गालीयां देती रहती थीं, उसका मापदंड अपनोंके लिये अलग ही था. पूरे देशमें आपतकालकी नहेरुवीयन आपखुदी चल रही और लोकशाही मूल्योंका गला घोंट दिया था. तब बाबुभाईने गुजरातमें लोकशाही को जिन्दा रक्खी था.
जनता यह खूब समजती हैं कि रेलियां मुफ्तमें नहीं होती है यह बात रेली करने वाले भी सब लोग जानते है. केज्रीवालकी रेलीयां भी मुफ्तमें होती नहीं है. अगर घीसेपीटे आक्षेप ही करना है और सूत्रोच्चार ही करने है तो अखबार वालोंको और टीवी वालोंको फोटु खींचवाने के लिये बुलाना ही पडेगा. बेनर और प्लेकार्ड भी बनाना पडेगा. रेलीयोंमे इस गुजरातके महेमानने नरेन्द्र मोदीको बिना विवरण वाले आक्षेप किये. और बादमें नरेन्द्र मोदीको मिलने गये. केज्रीवाल वैसे तो खुदको आम आदमी है वैसा समझानेकी भरपूर कोशिस करते है, लेकिन नरेन्द्र मोदीके पास खुदको भूतपूर्व सीएम बताया. अगर केज्रीवाल भूत पूर्व सीएम भी है, तो उनको अपनी मुलाकात पूर्वनिश्चित करने चाहिये थी.
नरेन्द्र मोदीने क्या कहा?
“साक्षीभावसे मिलनेके लिये आये होते तो जरुर मिलता”
यह नरेन्द्र मोदीका उच्च संस्कार है कि उसने केज्रीवाल को यह नहीं बताया कि रेलीयोंमे मुझ पर आक्षेपबाजी करके अब महेमान बनके कैसे आ रहे हो?
नरेन्द्र मोदीने परोक्षरुपसे यह संदेश दिया, कि देखो भाई देशमें कई समस्या है. उसका समाधान निकालना एक शैक्षणिक कार्य है. इसके बारेमें बिना आक्षेप किये, चर्चा हो सकती है. यह चर्चा तटस्थ रुपसे और विवेकपूर्ण होनी चाहिये. ऐसा करना भारतीय संस्कृतिकी परंपरा है. शंकराचार्यने भी तत्वज्ञानकी चर्चा ऐसे ही की थी. उन्होने किसीके उपर आक्षेपबाजी करके चर्चा नहीं की थी. जब हमें सत्यको ढूंढना है तो खुदके मनको समस्यासे अलिप्त रखना चाहिये. इसको गीतामें साक्षीभाव कहा गया है. हे केज्रीवालजी आप अगर साक्षीभावसे आये होते तो मैं आपको अवश्य मिलता और चर्चा भी करता.
नरेन्द्र मोदीके और केज्रीवालके संस्कारके इस भेदको समझना अखबारी मूर्धन्योंके लिये, और खुद केज्रीवालके लिये बसकी बात नहीं. समस्याके समाधानके लिये साक्षीभाव लानेकी बात इनके दिमागके बाहर की बात है.
शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः महेमान, गुजरात, भूतपूर्व, सीएम, आम आदमी, केज्रीवाल, नरेन्द्र मोदी, मुलाकात, नहेरुवीयन संस्कार, प्रदर्शन, बुराई, लोकशाही मूल्य, गलाघोंटना, साक्षीभाव, अखबारी, कटार लेखक, मूर्धन्य, दिमागके बाहर