Feeds:
Posts
Comments

Posts Tagged ‘गुजरात’

कोंगी और भूमि-पुत्र और धिक्कार

कोंगी और भूमि-पुत्र और धिक्कार

भूमि-पुत्र कौन है?

जिसने जहां जन्म लिया वह वहाँका भूमि-पुत्र है.

क्या यह पर्याप्त है?

नहीं  जी. जिसने जहाँ जन्म लिया, भूमि पुत्र बननेके लिये व्यक्ति को उस प्रदेशकी भाषा भी आनी  चाहिये, और यदि वह उस राज्यमें १५ साल से रहेता है, तो वह उस राज्यका भूमि-पुत्र माना जाना चाहिये. यदि वह अवैध (घुस पैठीया अर्थात्‌ विदेशी घुसपैठीया है) रुपसे रहता है तो यह बात राज्य और केन्द्र सरकार मिलके सुनिश्चित कर सकती है. यदि इसमें केन्द्र सरकार और राज्य सरकारमें भीन्नता है तो न्यायालयका अभिप्राय माना जायेगा.

भूमि-पुत्रकी समस्या किन स्थानों पर है?

सबसे अधिक भूमि-पुत्रकी समस्या जम्मु- कश्मिरमें और  ईशानके राज्योमें है.

जम्मु-काश्मिरकी समस्या कोंगीयोंने वहाँ के स्थानिक मुस्लिमोंके साथ मिलकर उत्पन्न की है. वहाँ तो हिन्दुओंको भी  भगा दिया है. ४४००० दलित कुटूंब, जो जम्मु-कश्मिरमें १९४४से रह रहे है  जब तक नरेन्द्र मोदी सरकारने अनुच्छेद ३७० और ३५ए दूर नहीं किया था तब तक उनको भूमि-पुत्र नहीं माना जाता था. जनतंत्रका अनादर इससे अधिक क्या हो सकता है?

अब वहाँ की स्थिति  परिवर्तन की कैसी दीशा पकडती है उस पर नयी स्थिति निर्भर है.

ईशानीय राज्योंमें भूमि-पुत्रकी क्या समस्या है?

विदेशी घुसपैठी मुस्लिम

विदेशी घुसपैठी हिन्दु

भारतके अन्य राज्योंके बंगाली, बिहारी, मारवाडी …

विदेशी घुसपैठीकी समस्या का समाधान तो केन्द्र सरकार करेगी.

लेकिन विदेशी घुसपैठी इनमें जो हिन्दु है उनका क्या किया जाय?

विदेशी घुसपैथीयोंमें बंग्लादेशी हिन्दु है.

दुसरे नंबर पर पश्चिम बेंगालके हिन्दु है. इन दोनोंमे कोई फर्क नहीं होता है.

पश्चिम बंगालसे जो हिन्दु आये है उन्होंने सरकारी नौकरीयों पर कब्जा कर रक्खा है. असमकी सरकारी नौकरीयोंमें  बेंगालीयोंका प्रभूत्व है.

असममें और ईशानमें भी,  पश्चिम बेंगालके लोग अपनी दुकानमें स्थानिक जनताको न रखके अपने बेंगालीयोंको रखते हैं. इस प्रकार राज्य की छोटी नौकरीयां भी स्थानिकोंको कम मिलतीं है.

भूमिगत निर्माण कार्योंमें भी, पर प्रांतके कोन्ट्राक्टर लोग, अपने राज्यमेंसें मज़दुरोंको लाते है. अपनी दुकानोंमें भी वे अपने राज्यके लोगोंको रखते है.

इसके कारण स्थानिकोंके लिये व्यवसाय कम हो जाते है. इस प्रकार स्थानिक जनतामें परप्रांतियोंके प्रति द्वेषभावना उत्पन्न होती है.

इस कारणसे क्षेत्रवाद जन्म लेता है,  दंगे भी होते है, आतंकवाद उत्पन्न होता, और सबसे अधिक भयावह बात है  यह वह है कि इन परिस्थितियोंका लाभ ख्रीस्ती मिशनरीलोग, स्थानिकोंमें अलगतावाद उत्पन्न करके उनका धर्म परिवर्तन करते है और फिर उनके प्रांतीय अलगतावाद और धार्मिक अलगता वादका सहारा लेके स्थानिकोंमें “हमें अलग देश चाहिये” इस भावनाको जन्म देते है.

मेघालयः

उदाहरणके लिये आप मेघालयको ले लिजीये. यह पूर्णरुपसे हिन्दु राज्य था. (नोर्थ-ईस्ट फ्रन्टीयर्स = ईशानके सीमागत)). ब्रीटीशका तो एजन्डा धर्म प्रचारका था ही.  किन्तु कोंगीने ब्रीटीशका एजन्डा चालु रक्खा. नहेरुमें आर्ष दृष्टि थी ही नहीं कि ब्रीटीशका एजन्डा आगे चलके गंभीर  समस्या बन सकता है. इन्दिराका काम तो केवल और केवल सत्ता लक्षी ही था. उसने  क्रीस्चीयन मीशनरीयोंको धर्मप्रचारसे रोका नहीं.

लिपि परिवर्तन

मेघालयकी स्थानिक भाषा “खासी” है. यह भाषा पूर्वकालमें बंगाली लिपिमें लिखी जाती थी. कोंगीके शासनमें ही वह रोमन लिपिमें लिखी जाने लगी. रोमन लिपिसे ज्ञात ही नहीं होता है कि वसुदेव लिखा है या वासुदेव लिखा है. ऐसी अपूर्ण रोमन लिपिको क्रीस्चीयन मीशनरीयोंने लागु करवा दी. ऐसा करनेसे खासी (मेघालयके स्थानिक)  लोगोंमें वे “भारतसे भीन्न है” भावना बलवत्तर बनी. ऐसी ही स्थिति अन्य राज्योंकी है. असमके लोगोंने अपनी लिपि नहीं बदली किन्तु अलगताकी भावना उनमें भी विकसित हुई. मूल कारण तो विकासका अभाव ही था.

एक काल था, जब यह ईशानका क्षेत्र संपत्तिवान था. कुबेर यहाँ का राजा था. आज भी इशानके राज्योंमें प्राकृतिक संपदा अधिक है, किन्तु  शीघ्रतासे कम हो रही है.. इन्दिरा नहेरुघान्डी कोंग्रेसने इन राज्योंका विकास ही नहीं किया. इसके अतिरिक्त कोंगीने अन्य समस्याओंको जन्म दिया और उन समस्याओंको विकसित होने दिया.

ईशानके राज्य आतंकवाद से लिप्त बने. ईशानके राज्योंमें परप्रांतीय भारतीयों पर हुए अत्याचारोंकी और नरसंहारकी अनेक कथाएं है. इनके उपर बडा पुस्तक लिखा जा सकता है.

सियासतका प्रभाव

भूमि-पुत्रकी समस्यामें जब सियासत घुसती है तो वह अधिक शीघ्रतासे बलवत्तर बनती है. जहाँ स्थानिक लोग शिक्षित होते है वे भी सियासतमें संमिलित हो जाते है.

मुंबई (महाराष्ट्र) ; १९५४-५५में नहेरुने कहा “यदि महाराष्ट्रीयन लोगोंको मुंबई मिलेगा तो मुझे खुशी होगी.” इस प्रकार नहेरुने मराठी लोगोंको संदेश दिया कि,” गुजराती लोग नहीं चाहते है कि  महाराष्ट्रको मुंबई मिले.” ऐसा बोलके नहेरुने मराठी और गुजरातीयोंके बीचमें वैमनस्य उत्पान्न किया.

वास्तवमें तो कोंग्रेसकी केन्द्रीय कारोबारीका पहेलेसे ही निर्णय था कि “गुजरात, महाराष्ट्र और मुंबई” ऐसे तीन राज्य बनाया जाय. किन्तु बिना ही यह निर्णयको बदले, नहेरुने ऐसा बता दिया कि गुजराती लोग चाहते नहीं है कि मुंबई, महाराष्ट्रको मिले.

मुंबईको बसाने वाले गुजराती ही थे. गुजरातीयोंमे कच्छी, काठीयावाडी (सौराष्ट्र), गुजराती बोलनेवाले मारवाडी, और गुजराती (पारसी सहित) लोग आते है. ९० प्रतिशत उद्योग इनके हाथमें था. स्थानिक संपत्तिमें ७० प्रतिशत उनका हिस्सा था. गुजरातीयोंने स्थानिक लोगोंको ही अवसर दिया था. गुजराती कवि लोगोंने शिवाजीका और अन्य मराठाओंका गुणगान गाया है. सेंकडों सालसे गुजराती और मराठी लोग एक साथ शांतिसे रह रहे थे. उनमें नहेरुने आग लगायी. मुंबई एक  व्यवसायोंका केन्द्र है. गुजराती लोग व्यवसाय देनेवाले है. गुजराती लोग व्यवसाय छीनने वाले नहीं है. यदी गुजराती लोग चाह्ते तो वडोदरा जो पेश्वाका राज था वहांसे मराठी लोगोंको भगा सकते थे. किन्तु गुजराती लोग शांति प्रिय है. उन्होंने ऐसा कुछ किया नहीं.

शिव सेना न तो शिवजीकी सेना है, न तो वह शिवाजीकी सेना है.

महाराष्ट्रकी  सियासती कोंग्रेसी नेताओंने मराठीयोंका एक पक्ष तैयार किया. उसका नाम रक्खा शिव सेना. जिनका उद्देश साठके दशकमें कर्मचारी मंडलोंमेंसे साम्यवादीयोंका प्रभूत्त्व खतम करनेका था, और साथ साथ महाराष्ट्र स्थित  केन्द्र सरकारके कार्यालयोंमेंसे दक्षिण भारतीयोंको हटानेका था. यह वही शिवसेना है जिसके स्थापकने इन्दिराको आपत्कालमें समर्थन दिया था. और आज भी यह शिवसेना सोनिया सेना बनके इन्दिरा नहेरुघांडीकी भाषा बोल रही है.

दक्षिण भारत

दक्षिणके राज्योंमे भाषाकी समस्या होनेसे उत्तरभारतीय वहाँ कम जाते है. लेकिन ये उत्तर भारतीय जिनमें राजस्थान, मध्यप्रदेश, ओरीस्सा, उत्तर प्रदेश, बिहार … वे गुजरात, मुंबई (महाराष्ट्र) में नौकरीके लिये अवश्य आते है. ये लोग अपने राज्यमें भूखे मरते है इसीलिये वे गुजरात में (और मुंबईमें भी) आके  कोई भी नौकरी व्यवसाय कर लेते है. इनकी वजह से गुजरात और मुंबईमें झोंपड पट्टी भी बढती  है. कोंगीने  और समाचार माध्यमोंने गुजरातमें भाषावाद पर लोगोंको बांटनेका २००१से  प्रयत्न किया था. एक “पाटीदार (पटेल)”को नेता बनाया था. उसने प्रथम तो आरक्षणके लिये आंदोलन किया था. वह लाईम लाईटमें आया था. कोंगीने परोक्षरुपसे उसका समर्थन भी किया था. शिवसेनाके उद्धव ठाकरेने उसको गुजरातका मुख्य  मंत्री बनानेका आश्वासन भी दिया था. कोंगीयोंने परोक्ष रुपसे गुजरातसे कुछ उत्तर भारतीयोंको भगानेका प्रयत्न भी किया था. कोंगीलोग गुजरातमें सफल नहीं हो पाये.

राहुल गांधीने दक्षिण भारतमें जाके ऐसी घोषणा की थी कि बीजेपी सरकार, दक्षिणभारतीय संस्कृतिकी रक्षा नहीं कर रही है. हम यदि सत्तामें आयेंगे तो दक्षिण भारतीय संस्कृतिकी पूर्णताके साथ रक्षा करेंगे. कोंगीयोंका क्षेत्रवाद और भाषावादके नाम पर भारतीय जनताको विभाजित करनेका यह भी एक प्रकार रहा है.

ईशान, बंगाल और कश्मिरके अतिरिक्त, क्वचित्‌ ही कोई राज्य होगा जहां पर यदि आप उस राज्यकी स्थानिक भाषा सिखलें तो आपको कोई पर प्रांतीय समज़ लें.

 भाषासे कोई महान है?

“गर्म हवा” फिल्ममें एक  घटना  और संवाद है.

परिस्थित ऐसी है कि एक मुस्लिम ने सरकारी टेन्डर भरा. बाकीके सब हिन्दु थे.

मुस्लिम के लिये यह टेन्डर लेना अत्यधिक आवश्यक था. लेकिन धर्मको देखते हुए असंभव था. उसके घरवालोंको लगा कि यह टेन्डर उसको मिलेगा ही नहीं. जब वह मुस्लिम घर पर आया तो घरवालोंने पूछा कि टेन्डर का क्या हुआ? उस मुस्लिमने बताया कि “धर्म से भी एक चीज महान है … वह है रिश्वत … मुझे वह टेन्डर मिल गया.”

 उसी प्रकार, भाषासे भी एक चीज़ महान है वह एक सियासत. सियासती परिबल किसी भी समस्याका हल है और वह है नेताओंकी जेब भर देना.

किन्तु यह रास्ता श्रेयकर नहीं है.

कौनसा रास्ता श्रेयकर है?

प्रत्येक राज्यके लोगोंकी अपनी संस्कृति होती है.

शासन में स्थानिकोंका योगदान आवश्यक है

स्थानिकोंका आदर करना आवश्यक है

स्थानिककोंकी भाषा हर कार्यालयमें होना आवश्यक है,

स्थानिकोंके रहन सहनका आदर और उसको अपनाना आवश्यक है,

स्थानिकोंके पर्व में योगदान देना आवश्यक है,

स्थानिकोकी कलाओंको आदर करना और अपनाना आवश्यक है,

ऐसा तब हो सकता है कि जब राज्यके शासनकी भाषा स्थानिक भाषा बनें.

ऐसी स्थिति की स्थापना करनेके लिये महात्मा गांधीने कोंग्रेसकी कारोबारी द्वारा भाषाके अनुसार राज्य नव रचना करना सूचित किया था. प्रत्येक राज्यका शासन उसकी स्थानिक भाषामें होने से प्रत्येक राज्यकी अस्मिता सुरक्षित रहेती है.

राज्य स्थित केन्द्रीय कार्यालयोंमें भी स्थानिक भाषा ही वहीवटी भाषा होना चाहिये.

पर प्रांतीय लोग, यदि स्थानिक लोगोंका आदर करनेके बदले उनको कोसेंगे तो वे लोग स्विकार्य नहीं होंगे. इसका अर्थ यह है कि वे स्थानीय जनताका एवं उनकी संस्कृतिका आदर करें और उनके उपर प्रभूत्त्व जमानेकी कोशिस न करें.

परप्रांतीय लोग यदि स्थानिक जनता की भाषा अपना लें तो, ६० प्रतिशत समस्याएं उत्पन्न ही नहीं होती हैं..  

क्या आप सोच सकतें है कि आप बिना फ्रेंचभाषा सिखें फ्रान्समें आरामसे रह सकते है?

क्या आप सोच सकते है कि आप बिना जापानी भाषा पढे जापानमें रह सकते है?

क्या आप सोच सकते है कि आप स्पेनीश भाषा पढें स्पेन और दक्षिण अमेरिकामें आरामसे रह सकते है?

भारत देश भी, वैविध्यतासे भरपूर है. वही भारतका सौंदर्य है.

७० प्रतिशत स्थानिक संस्कार स्विकृत करें. ३० प्रतिशत अपना मूल रक्खें.

कोंगीने कैसे अराजकता फैलायी?

कोंगीयोंका ध्येय ही, हर कदम पर, सियासती लाभ प्राप्त करना है. इसीलिये लोक नायक जय प्रकाश नारायणने १९७४में कहा था कि कोंगी अच्छा काम भी बुरी तरहसे करता है.

क्या कश्मिरमें शासनकी भाषा कश्मिरी भाषा है?

क्या हरियाणामें शासनकी भाषा हरियाणवी है?

क्या पंजाबमें शासनकी भाषा पंजाबी है?

क्या हिमाचलमें शासनकी भाषा गढवाली है,

क्या मेघालयमें शासनकी भाषा खासी है?

ऐसे कई राज्य है जिनमें राज्यकी स्थानिक भाषा,  शासनकी भाषा  नहीं है. यह है कोंगीयोंका कृतसंकल्प. कोंगीयोंने अपने शासनके  ७० वर्ष तक जनताके परम हितकी अवमानना करके अनिर्णायकता रक्खी.

शिरीष मो. दवे

चमत्कृतिः

भारतको  १९४७में स्वतंत्रता मिलने पर बडौदामें क्या हुआ?

बडौदा राज्यमें शासनकी भाषा बदली. गुजरातीके बदलेमें अंग्रेजी आयी.

वाह कोंगी स्वतंत्रता, तेरा कमाल ?

हाँजी बरोडाके गायकवाडके राज्यमें शासनकी भाषा (वहीवटी भाषा गुजराती थी)

लेकिन स्वतंत्रता आनेसे उसका मुंबई प्रान्तमें विलय हुआ. मुंबई प्रांतकी वहीवटी भाषा अंग्रेजी थी.

Read Full Post »

why we write

with a curtsy to the cartoonists

हमे परिवर्तन नहीं चाहिये. “जैसे थे” वाली ही परिस्थिति रक्खो” मूर्धन्याः उचुः

(मूर्धन्याः उचुः = विद्वान लोगोंने बोला)

परिवर्तन क्या है? और “जैसे थे” वाली परिस्थिति से क्या अर्थ है?

नरेन्द्र मोदी स्वयं परिवर्तन लाना चाहता है. यह बात तो सिद्ध है क्यों कि उसने जिन क्षेत्रोमें परिवर्तन लानेका संकल्प किया है उनके अनुसंधानमें उसने कई सारे काम किये है.

परिवर्तन क्या है. परिवर्तन तो प्रकृति भी करती है.

वास्तवमें परिवर्तनमें शिघ्रताकी आवश्यकता है. क्यों कि शिघ्रताके अभावमें जो परिवर्तन होता है उसको परिवर्तन नहीं कहा जाता. शिघ्रतासे हुए परिवर्तनको क्रांति भी बोलते है.

“होती है चलती है… पहले अपना हिस्सा सुनिश्चित करो …“

ऐसी मानसिकता रखके जो परिवर्तन होता है उसमें विलंबसे होता है और विलंबसे अनेक समस्या उत्पन्न होती है. वे समस्या प्राकृतिक भी होती है और मानव सर्जित भी होती है. और अति विलंबको परिवर्तन कहा ही नहीं जा सकता. वैसे तो प्रकृति स्वयं परिवर्तन करती है. ऐसे परिवर्तनसे ही मानव, पेडसे उतरकर कर भूमि पर आया था. पेडसे भूमि की यात्रा एक जनरेशन में नहीं होती है.  इस प्रकार अति विलंबसे होने वाले परिवर्तन को उत्क्रांति (ईवोल्युशन) कहा जाता है.

कोंगीयोंने भी परिवर्तन किया है. किन्तु उनका परिवर्तन उत्क्रांति (ईवोल्युशन) जैसा है.

(ईवोल्युशनमे कभी प्रजातियाँ या तत्त्व नष्ट भी हो जाते है.)

उदाहरण के लिये तो कई परिकल्पनाएं है (केवल गुजरातका ही हाल देखें).

(१) जैसे कि नर्मदा योजना (योजनाकी कल्पना वर्ष १९३६. योजनाका निर्धारित समाप्तिकाल २० वर्ष. वास्तविक निर्धारित समाप्ति वर्ष २०२२).

(२) मीटर गेज, नेरो गेज का ब्रोड गेजमें परिवर्तन (परिकल्पना की कल्पना १९५२)

वास्तविकताः महुवा-भावनगर नेरोगेज उखाड दिया, डूंगर – पोर्ट विक्टर उखाड दिया, राजुला रोड राजुला उखाड दिया, गोधरा- लुणावाडा उखाड दिया, चांपानेर रोड पावागढ उखाड दिया, मोटा दहिसरा – नवलखी उखाड दिया, जामनगर (कानालुस)  – सिक्का उखाड दिया. अब यह पता नहीं कि ये सब रेल्वे लाईन ब्रॉडगेजमें कब परिवर्तित होगी.

भावनगर-तारापुर, मशीन टुल्सका कारखाना ये कल्पना तो गत शतकके पंचम दशक की है. जिसमे स्लीपरका टेन्डर भी निकाला है ऐसे समाचार चूनावके समय पर समाचार पत्रोंमे आया था. दोनों इल्ले इल्ले. ममताके रेल मंत्री दिनेश त्रीवेदीने गत दशकमें रेल्वेबजटमें उल्लेख किया था. किन्तु बादमें इल्ले इल्ले.

परिवर्तनके क्षेत्र?

नरेन्द्र मोदीकी सरकारने काम हाथ पर तो लिया है, लेकिन कोंगीके शासकोंने जो ७० वर्षका विलंब किया है वह अक्षम्य है.

चीन १९४९में नया शासन बना. १४ वर्षमें वह भारत देश जैसे बडे देशको हरा सकनेमें सक्षम हो गया. आप कहोगे कि वहां तो सरमुखत्यारी (साम्यवादी) शासान था. वहां जनताके अभिप्रायोंकी गणना नहीं हो सकती. इसलिये वहां सबकुछ हो सकता है.

अरे भाई सुरक्षासे बढकर बडा कोई काम नहीं हो सकता. सुरक्षाका काम भी विकासका काम ही है. विकासके कामोंमे कभी भारतकी जनताने उस समय तो कोई विरोध करती नहीं थी. आज जरुर विकासके कामोंमें जनता टांग अडाती है. लेकिन इसमें सरकारी (कर्मचारीयोंका) भ्रष्टाचार और विपक्षकी सियासत अधिक है. ये सब कोंगीकी देन है. विकासके कामोसे ही रोजगार उत्पन्न होता है.   

मूलभूत संरचना का क्षेत्रः

इसमें मार्ग, यातायात संसाधन, जलसंसाधन,   विद्युत उत्पादन, उद्योग (ग्रामोद्योग भी इनमें समाविष्ट है). नरेन्द्र मोदीने इसमें काफि शिघ्रगतिसे काम किया है. इसके विवरणकी आवश्यकता नहीं है.

उत्पादन क्षेत्रः उद्योगोंके लिये भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया, यातायातकी सुविधा, विद्युतकी सुविधा, जल सुविधा और मानवीय कुशलता आवश्यक है.

कोंगीको तो मानव संसाधनके विषयमें खास ज्ञान ही नहीं था. उसने तो ब्रीटीश शिक्षा प्रणाली के अनुसार ही आगे बढना सोचा था. पीढीयोंकी पीढीयों तक जनताको निरक्षर रखा था. समय बरबाद किया.

नरेन्द्र मोदीने गुजरातमें प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य किया था. स्कील डेवेलोप्मेन्टकी संस्थाएं खोली. बेटी बचाओ, बेटी बढाओ अभियान छेडा.

न्याय का क्षेत्रः

कोंगीने तो न्यायिक प्रक्रीया ही इतनी जटील कर दी कि सामान्य स्थितिका आदमी न्याय पा ही न सके. नरेन्द्र मोदीने कई सारे (१५००) नियमोंको रद कर दिया है. इसमें और सुधार की आवश्यकता है.

शासन क्षेत्रः

भारतमें कोंगीका शासन एक ऐसा शासन था कि जिसमें साम्यवाद, परिवारवाद, सरमुखत्यार शाही और जनतंत्रका मिलावट थी. इससे हर वादकी हानि कारक तत्व भारतको मिले. और हर वादके लाभ कारक तत्त्व कोंगीके संबंधीयोंको मिले.

सामाजिक क्षेत्रः

कोंगीने   जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, आर्थिक स्थिति … आदिके आधार पर विभाजन कायम रक्खा. उतना ही नहीं उसको और गहरा किया. समाजको विभाजित करने वाले तत्त्वोंको महत्त्व दिया. लोगोंकी नैतिक मानसिकता तो इतनी कमजोर कर दी की सामान्य आदमी स्वकेन्द्री बन गया. उसके लिये देशका हित और देशका चारित्र्य का अस्तित्व रहा ही नहीं. आम जनताको गलत इतिहास पढाया और उसीके आधार पर देशकी जनताको और विभाजित किया.

कोंगीने यदि सबसे बडा राष्ट्रीय अपराध किया है तो वह है मूर्धन्योंकी मानसिकताका विनीपात.

मूर्धन्य कौन है?

वैसे तो हमे गुजरातीयोंको प्राथमिक विद्यालयमें पढाया गया था कि जिनका साहित्यमें योगदान होता है वे मूर्धन्य है. अर्वाचीन गुजरातके सभी लेखक गण मूर्धन्य है.

माध्यमिक विद्यालयमें पढाया गया कि जो भी लिखावट है वह साहित्यका हिस्सा है.

हमारे जयेन्द्र भाई त्रीवेदी जो हिन्दीके अध्यापक थे उन्होंने कहा कि जो समाजको प्रतिबिंबित करके बुद्धियुक्त लिखता है  वह मूर्धन्य है. तो इसमें सांप्रत विषयोंके लेखक, विवेचक, विश्लेषक, अन्वेषक, चिंतक, सुचारु संपादक, व्याख्याता … सब लोग मूर्धन्य है….

कोंगीने मूर्धन्योंका ऐसा विनीपात करने में क्या भूमिका अदा की है?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

Read Full Post »

There is a difference between alliance against INC and against BJP

एक गठबंधन नहेरुवीयन कोंग्रेसके विरुद्ध  और एक गठबंधन बीजेपीके विरुद्ध -२

जो गठबंधन १९७०में हुआ और उस समय जो सियासती परिस्थितियां थी वह १९७२के बाद बदलने लगी थीं.

भारत पाकिस्तान संबंधः

१९७०में एक ऐसी परिस्थिति बनानेमें इन्दिरा गांधी सफल हुई थी, कि उसने जो भी किया वह देशके हितके लिये किया. उसके पिताजी देशके लिये बहुत कुछ करना चाहते थे लेकिन कोंग्रेसके (वयोवृद्ध नेतागण) उसको करने नहीं देते थे. और अब वह स्वयं, नहेरुका अधूरा काम पूरा करना चाहती है. विद्वानोने, विवेचकोंने, मूर्धन्योंने और बेशक समाचार माध्यमोंने यह बात, जैसे कि उनको आत्मसात्‌ हो गयी हो, ऐसे मान ली थी, और जनताको मनवा ली थी.

पूर्व पाकिस्तानमें बंग्लाभाषी कई सालोंसे आंदोलन कर रहे थे. पश्चिम पाकिस्तानी सेना हिन्दुओं पर और बंग्लाभाषी मुसलमानों पर आतंक फैला रही थी. उसके पहेले हिन्दीभाषीयोंसे बंगलाभाषी जनता नाराज थी. हिन्दीभाषी पूर्वपाकिस्तानवासीयोंकी और हिन्दुओंकी हिजरत लगातार चालु थी. वह संख्या एक करोडके उपर पहूंच चुकी थी. इन लोगोंको वापस भेजनाका वादा इन्दिरा गांधी कर रही थी.

भारतमें भी इन्दिरा गांधी पर सेनाका और खास करके जनताका दबाव बढ रहा था.  पाकिस्तानने सोचा कि यह एक अच्छा मौका है कि भारत पर आक्रमण करें. यह लंबी कहानी है.  १९७१में पाकिस्तानने भारत पर आक्रमण किया. भारतीय सेना तो तैयार ही थी. भारतकी सेनाके पास यह युद्ध जीतनेके सिवा कोई चारा ही नहीं था. और भारतने यह युद्ध प्रशंसनीय तरीकेसे जीत लिया. लेकिन इन्दिरा गांधीने सिमला समज़ौता अंतर्गत पराजयमें परिवर्तित कर दिया. या तो इन्दिरा गांधी बेवकुफ थी या ठग थी.

SIMLA

इस युद्धसे पहेले तो विधानसभाओंके चूनावको विलंबित करनेकी बातें इन्दिरा गांधी कर रही थी. लेकिन इस युद्धकी जीतके बात इन्दिरा गांधीने राज्योंकी विधान सभाओंका चूनाव भी कर डाला.

१९७2में राज्यों के विधान सभाके चूनाव भी इन्दिरा गांधीने जीत लिये. उसकी हिंमत बढ गयी थी. अब तो उसकी आदत बन गयी थी कि वह राज्योंमे अपनी स्वयंकी पसंदका नेता चूनें. इस प्रकार मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात … आदि सब राज्योंमें इन्दिराकी पसंदका नेता चूना गया यानी कि इन्दिराकी पसंदके मूख्य मंत्री बने.

गुजरातमें क्या हुआ?

वैसे तो १९७१ के लोकसभाके चूनावके बाद, देशके अन्य पक्षोंमें खास करके कोंग्रेस (ओ) में अफरातफरी मच गयी थी. बहुतेरे कोंग्रेस(ओ)के कोंग्रेसी चूहोंकी तरह इन्दिरा कोंग्रेसकी तरफ भाग रहे थे. कोंग्र्स(ओ)मेंसे बहुतसारे सभ्य इन्दिरा कोंग्रेसमें भाग गये थे. स्वतंत्र पक्ष तूट गया था.  हितेन्द्र देसाई की सरकार तूट चूकी थी. इन्दिरा गांधीने अपनी पसंदका मुख्य मंत्री घनश्याम भाई ओझा को मुख्य मंत्री बनाया. १९७२में गुजरात विधान सभाका चूनाव हुआ. इस चूनावमें मोरारजी देसाईका गढ तूट गया था. विधान सभामें इन्दिरा कोंग्रेसको विधान सभाकी कुल १६८ सीटोमेंसे १४० सीटें मिलीं.

युद्ध सेना जीतती है, सरकार तो सिर्फ युद्ध करनेका   या तो न करनेका निर्णय करती है. सेनाने युद्ध जीत लिया. इस जीतका लाभ भी इन्दिरा गांधीने १९७२के विधान सभा चूनावमें ले लिया. लेकिन युद्ध जीतना और चूनाव जीतना एक बात है. सरकार चलाना अलग बात है.

इन्दिरा गांधी पक्षमें सर्वोच्च थी क्यों कि उसको जनताका सपोर्ट था. पक्षमें वह मनचाहे निर्णय कर सकती थी. लेकिन सरकार चलाना अलग बात है. सरकार कायदेसे चलती है. सरकार चलानेमें अनेक परिबल होते है. इन परिबलोंको समज़नेमें कुशाग्र बुद्धि चाहिये, पूर्वानुमान करने की क्षमता चाहिये. आर्षदृष्टि चाहिये. विवेकशीलता चाहिये. इन सब क्षमताओंका इन्दिरा गांधीमें अभाव था.

गुजरातमें विधानसभा चूनावके बाद इन्दिराने अपने स्वयंके पसंद व्यक्तिको  (घनश्याम भाई ओझाको) मुख्य मंत्रीपद के लिये स्विकारने का आदेश दिया. गुजरातके चिमनभाई पटेलने इसका विरोध किया. इन्दिराने एक पर्यवेक्षक भेजा जिससे वह घनश्याम भाई ओझाकी स्विकृति करवा सके. लेकिन वह असफल रहा. गुजरातमें इन्दिरा गांधी की मरजी नहीं चली.

१९७३में परिस्थिति बदलने लगी. केन्द्र सरकारके पास बहुमत अवश्य था. लेकिन कार्यकुशता और दक्षता नहीं थी. युवा कोंग्रेसके लोग मनमानी कर रहे थे. देशमें हर जगह अराजकताकी अनुभूति होती थी. विरोध पक्षके कई सक्षम नेता थे लेकिन वे हार गये थे. अराजकता और शासन के अभावोंके परिणाम स्वरुप महंगाई बढने लगी थी. घटीया चीज़े मिलने लगी. वस्तुएं राशनमेंसे अदृष्य होने लगी. सीमेंट, लोहा, तो पहेले भी परमीटसे मिलते था अब तो गुड, लकडीका कोयला, दूध, शक्कर, चावल भी अदृष्य होने लागा.

१६८मेंसे १४० सीट जीतने वाली इन्दिरा कोंग्रेसका हारनेका श्री गणेश १९७२के एक उपचूनावसे ही हो गया. इन्दिरा कोंग्रेस १४० सीटें ले तो गई लेकिन उसमें जनता खुश नहीं थी.  लोकसभाकी सीट जो इन्दुलाल याज्ञिक (अपक्ष= इन्दिरा कोंग्रेस)   की मृत्यु से खाली पडी.

उस सीट पर पुरुषोत्तम गणेश मावलंकर, इन्दिरा कोंग्रेसके प्रत्यासीके उपर २००००+मतके मार्जिनसे जित गये. सभी पक्षोंका उनको समर्थन था.

Mavalankar

पुरुषोत्तम मावलंकर अहमदाबादके अध्यापक, पोलीटीकल विवेचक, बहुश्रुत विद्वान थे. वैसे तो वे भारतकी प्रथम लोकसभाके अध्यक्ष गणेशमावलंकरके पुत्र थे, लेकिन उनका खुदका व्यक्तित्व था.

गुजरातमें नवनिर्माण का आंदोलन

गुजरातमें नवनिर्माण का आंदोलन शुरु हुआ. लोगोंको भी लगा कि उसने गलत पक्षको जिताया है.  लेकिन इसका सामना करने के लिये इन्दिरा कोंग्रेसने जातिवाद को बढाने की कोशिस शुरु की. शहरमें उसका खास प्रभाव न पडा. गांवके प्रभावशील होनेका प्रारंभ हुआ. लेकिन आखिरमें १६८मेंसे १४० सीट लाने वाली इन्दिरा कोंग्रेसकी सरकार गीर गयी. चिमनभाई पटेलको इस्तिफा देना पडा. इन्दिराने फिर भी विधान सभाको विसर्जित नहीं किया. जनताको विसर्जनके सिवा कुछ और नहीं पसंद था. राष्ट्रपति शासन लदा. चूनावके लिये मोरारजी देसाईको आमरणांत उपवास पर बैठना पडा. परिणाम स्वरुप १९७५में चूनाव घोषित करना पडा. इन सभी प्रक्रियामें इन्दिराकी विलंब करने की नीति सामने आती थी.

अब सारे देशके नेताओंको लगा कि इन्दिरा हर बात पर विलंब कर रही है. तो विपक्षको एक होना ही पडेगा.

गुजरातमें विधानसभा चूनावमें  जनता फ्रंटका निर्माण हुआ. इसमें जनसंघ, कोंग्रेस(ओ), संयुक्त समाजवादी पार्टी, अन्य छोटे पक्ष और कुछ अपक्ष थे. चिमनभाई पटेलको इन्दिरा कोंग्रेसने बरखास्त किया था. उन्होंने अपना किमलोप (किसान, मज़दुर, लोक पक्ष) नामका नया पक्ष बनाया था.

चूनावमें १८२ सीटमेंसे

जनता मोरचाको   = ६९

जिनमें

कोंग्रेस (ओ) = ५६

जन संघ = १८

राष्ट्रीय मज़दुर पक्ष = १

भारतीय लोक दल =२

समाजवादी पक्ष = २

किसान मजदुर लोक पक्ष = १२

अपक्ष = १८

और

इन्दिरा कोंग्रेसको = ७५

अपक्षोंके उपर विश्वास नहीं कर सकते थे. इस लिये स्थाई सरकार बनानेके लिये जनता मोरचाने, किसान मजदुर लोक पक्षका सहारा लिया. और बाबुभाई जशभाई पटेल जो एक कदावर नेता थे उनकी सरकार बनी. हितेन्द्र देसाई ने चूनाव लडा नहीं था. और चिमनभाई पटेल चूनाव हार गये थे.

यह चूनाव एक गठबंधनका विजय था.

वैसे तो गुजरातकी तुलना अन्य राज्योंसे नहीं हो सकती, लेकिन जो देशमें होनेवाला है उसका प्रारंभ गुजरातसे होता है.

गुजरातमें इन्दिरा गांधीके कोंग्रेसकी हारके कारण देश भरमें जयप्रकाशनारायण की नेतागीरीमें आंदोलन शुरु हुआ. वैसे भी जब नवनिर्माणका आंदोलन चलता था तो सर्वोदयके कई नेता आते जाते रहेते थे.

सर्व सेवा संघमें अघोषित विभाजन

सर्वोदय मंडल दो भागमें विभक्त हो गया था. एक भाग मानता था कि जयप्रकाश नारायण जो संघर्ष कर रहे है उनको सक्रिय साथ देना चाहिये. दुसरा भाग मानता था कि, इससे सर्वोदय को कोई फायदा नहीं होने वाला है. यदि फायदा होना है तो राजकीय पक्षोंको ही होने वाला है. इसलिये हमें किसी पक्षको फायदा पहोंचे ऐसे संघर्षमें भाग लेना नहीं चाहिये.

लेकिन शांतिसेना तो जयप्रकाश नारायणको ही मानती थी. शांतिसेनाके सदस्योंकी संख्या बहुत बढ गयी थी. और वह सक्रिय भी रही.

कुछ समयके बाद इन्दिराके सामने उसके चूनावको रद करनेका जो केस चल रहा था उसका निर्णय आया. इन्दिरा गांधी को दोषी करार दिया और उसको ६ सालके लिये चूनाव के लिये अयोग्य घोषित किया.

मनका विचार आचरणमें आया

DEMOCRACY WAS ATTACKED

emergency

जो बात नहेरुके मनमें विरोधीयोंको कैसे बेरहेमीसे नीपटना चाहिये, जो गुह्य रुपसे निहित थी लेकिन खुल कर कही जा सकती नहीं थीं. क्यों कि स्वातंत्र्यके अहिंसक संग्राममें नहेरु, पेट भर जनतंत्रकी वकालत कर रहे थे. उनके लिये अब कोयला खाना मुश्किल था.

इन्दिरा गांधी अपने पिताके साथ ही हर हमेश रहेती थी इसलिये उनको तो अपने पिताजीकी ये मानसिकता अवगत ही थी.

वैसे भी नहेरु और गांधीके बीचमें ऐसे कोई एक दुसरेके प्रति मानसिक आदर नहीं था.  यह बात नहेरुने केनेडाके एक राजनयिक (डीप्लोमेट)को, जो बादमें केनेडाके प्रधान मंत्री बने, उनके साथ भारतमें एक मुलाकात में उजागर की थी. नहेरुने गांधीजीको ढोंगी और दंभी और नाटकबाज बताया था. इस बात सुनकर वह राज नयिक चकित और आहत हो गया था. इसके बारेमें इस ब्लोग साईट पर ही विवरण दिया है. गांधीजीने भी नहेरुके बारे में कहा था कि जवाहरको तो मैं समज़ सकता हूँ, लेकिन उनके समाजवादको नहीं समज़ सकता. वे खुदभी समज़ते है मैं मान नहीं सकता.

इन्दिराको सब बातें मालुम थीं.

गांधीजीने यह भी कहा था कि “अब जवाहर मेरा काम करेगा और मेरी भाषा बोलेगा.” इसका अर्थ यही था कि नहेरुको सत्ता प्राप्तिसे विमुख रहेना चाहिये और बिना सत्ता ही जन जागृतिका काम करना चाहिये. गांधीजीने इसलिये कोंग्रेसका विलय करने का भी आदेश दिया था.

यदि जवाहर स्वयं, गांधीजीका काम करते, तो उनको यह बात कहेने कि आवश्यकता न पडती. गांधीजीने कभी विनोबा भावेके बारेमें तो ऐसा नहीं किया कि “अब विनोबा मेरी भाषा बोलेंगे और मेरा काम करेंगे”. क्यों कि ऐसा कहनेकी उनको आवश्यकता ही नहीं थी. विनोबा भावे तो गांधीजीका काम करते ही थे.

यह सब बातोंसे इन्दिरा गांधी अज्ञात तो हो ही नही सकती. इस लिये नहेरुके मनमें जो राक्षस गुस्सेसे उबल रहा था, वह राक्षस इन्दिराके अंदर विरासतमें आया था. चूं कि इन्दिरा गांधीका, स्वातंत्र्य संग्राममें कोई योगदान नहीं था, इस लिये उसको अनियंत्रित सरमुखत्यार बनने की बात त्याज्य नहीं थी. “गुजरातीमें एक मूँहावरा है कि नंगेको नाहना क्या और निचोडना क्या?”

जनतंत्रकी रक्षा

PM rules out pre emergency days

कुछ फर्जी या स्वयं द्वारा प्रमाणित विद्वान लोग बोलते है कि भारतमें जो जनतंत्र है वह नहेरुवीयन कोंग्रेस के कारण विद्यमान है. वास्तवमें जनतंत्रके अस्तित्व लिये नहेरुवीयन कोंग्रेसको श्रेय देना एक जूठको प्रचारित करना है. नहेरुवीयन कोंग्रेसने तो जनतंत्रको आहत करने की भरपूर कोशिस की है.

वास्तवमें यदि जनतंत्रको जीवित रखनेका श्रेय किसीको भी जाता है तो भारतकी जनताको ही जाता है. दुसरा श्रेय यदि किसीको जाता है तो गांधीजीके सब अंतेवासी और कोंग्रेस(ओ)के कुछ नेताओंको जाता है और उस समयके कुछ विपक्षीनेताओंको जाता है जो इन्दिरा गांधीके विरोध करनेमें दृढ रहे.

नहेरुवीयन फरजंदकी सरमुखत्यारी और दीशाहीनता

i order poverty to quit india

आपातकालमें क्या हुआ वह सबको ज्ञात है. लाखों लोगोंको बिना कारण बाताये कारावासमें अनिश्चित कालके लिये रखना, समाचार पर अंधकार पट, सरकार द्वारा अफवाहें फैलाना, न्यायालयके निर्णयों पर भी निषेध, भय फैलाना…. अदि जो भी सरकारके मनमें आया वह करना. यह आपात्कालकी परिभाषा थी.

Judiciary afraid

जो भारतके नागरिक विदेशमें थे वे भी विरोध करनेसे डर रहे थे. क्यों कि उनको डर था कि कहीं उनका पासपोर्ट रद न हो जाय. क्यों कि सरकारके कोई भी आचार, सिर्फ मनमानीसे चलता था. इसमें अपना उल्लु सिधा करनेवालोंको भी नकार नहीं सकते.

लेकिन सरकार कैसी भी हो, जब वह अकुशल हो तो वह अपना माना हुए ध्येय क्षमतासे नहीं प्राप्त कर सकती. गुजरातमें “जनता समाचार” और “जनता छापुं” ये दो भूगर्भ पत्रिकाएं चलती थीं. गुजरातमें बाबुभाई पटेलकी सरकार थी तब तक ये दोनों चले. इन्दिरा गांधीने कुछ विधान सभ्योंको भयभित करके पक्षपलटा करवाया और सरकारको गिराया. और ये भूगर्भ पत्रिका वालोंको कारावासमें भेज दिया.

जनता तो डरी हई थी. प्रारंभमें तो कुछ मूर्धन्यों द्वारा आपातकालका अनुमोदन हुआ या तो करवाया. लेकिन बादमें सच सामने आने लगा. आपात्काल, अपने बोज़से ही समास्याएं उलज़ाने की अक्षमताके कारण थकने लगा.

इन्दिरा आपात्काल के समय में डरी हुई रहेती थी. घरमें जरा भी आहटसे वह चौंक जाती थीं ऐसे समाचार भूगर्भ पत्रिकाओंमे आते रहे थे.  इन्दिरा गांधी, वास्तवमें सही विश्वसनीय परिस्थित क्या थी यह जाननेमें वह असमर्थन बनी थी.

साम्यवादी लोग, इस आपात्कालको क्रांतिका एक शस्त्र बनाने के लिये उत्सुक थे. लेकिन क्रांति क्या होती है और साम्यवादीयोंकी सलाह कहां तक माननी चाहिये, उनकी बातों पर इन्दिराको विश्वास नहीं था. उनके कई संपर्क उद्योगपतियोंसे थे. इन्दिरा गांधी स्वयं अपने बेटे संजयसे कार बनवाना चाहती थी. उसके सिद्धांत में कोई मनमेल नहीं था. वह दीशाहीन थी और उसके भक्त भी दीशा हीन थे.

एक और साहस

परिस्थिति हाथसे चली जाय, उसके पहेले वह फिरसे प्रधान मंत्री बनना चाहती थी ताकि वह आरामसे सोच सकें.   ऐसा चूनावी साहस उसने १९७१में लिया था और उसको विजय मिली थी. उसने आपात्काल चालु रखके ही चूनावकी घोषणा की.

कुछ लोग समज़ते है कि, इन्दिरा गांधीने आपात्काल हटा लिया था और फिर चूनाव घोषित किया था. यह बात वास्तवमें जूठ है.

जब वह खूद हार गयी तो उसने सेना प्रमुखको सत्ता हाथमें ले लेनेका प्रस्ताव दिया था. लेकिन सेनाने उसको नकार दिया था. तब इन्दिरा गांधीने आपात्कालको उठा लिया और यह निवेदन दिया कि, मैंने तो जरुरी था इसलिये आपात्काल घोषित किया था. अब यदि आपको लगे कि मैं सत्य बोलती थीं तो आप फिरसे आपात्काल लगा सकते हैं.

वास्तवमें उसको आपात्काल चालु रखके ही सत्ताका हस्तांतरण करना चाहिये था. यदि आने वाली सरकारको आपात्काल आवश्यक न लगे तो वह आपात्कालको उठा सकती थी. यह भी तो एक वैचारिक विकल्प था. लेकिन इन्दिरा गांधी ऐसा साहस लेना चाहती नहीं थीं. क्यों कि उसको डर था कि विपक्ष आपात्कालका आधार लेके उनको ही गिरफ्तार करके कारावास में भेज दें तो?

जो लोग कारावासमें थे वे सब एक हो गये. और इस प्रकार विपक्षका एक संगठन बना.

विपक्षके कोई भी नेताके नाम पर कोई कालीमा नहीं थी. सबके सब सिर्फ जनतंत्र पर विश्वास करने वाले थे. उनकी कार्यरीति (परफोर्मन्स)में कोई कमी नहीं थी. न तो उन्होने पैसे बनाये थे न तो उन्होंने कोई असामाजीक काम किया था, न तो कोई विवाद था उनकी प्रतिष्ठा पर.

मोरारजी देसाई, ज्योर्ज फर्नान्डीस, मधु दन्डवते, पीलु मोदी, मीनु मसाणी, दांडेकर, मधु लिमये,  राजनारायण, बहुगुणा, अजीत सिंह … ये सब इन्दिरा विरोधी थे. जब कोम्युनीस्टोंने देखा कि इन्दिरा कोंग्रेसका सहयोग करनेसे उनको अब कोई लाभ नहीं तो वे भी जनता मोरचाका समर्थन करने लगे.

आपात्कालसे डरी हुई  शिवसेना भी सियासती लाभ लेनेके लिये जनता मोरचाको सहयोग देनेके लिये आगे आयी. आंबेडकरका दलित पक्ष भी जनता मोरचाके समर्थनमें आगे आया. जगजीवन राम भी इन्दिराको छोड कर जनता मोरचामें सामिल हो गये.

हाँ जी. यह संगठनका नाम जनता मोरचा था. उसके सभी प्रत्याषी जनता दलके चूनाव चिन्ह पर चूनाव लडे थे.

जनता फ्रंटको भारी बहुमत मिला.

janata from ministry

प्रधान मंत्री बननेके लिये थोडा विवाद अवश्य हुआ.

जय प्रकाश नारायणकी मध्यस्थतामें सभी निर्णय लिये गये और उनके निर्णयको सभीने मान्य भी रखा. सबसे वरिष्ठ, उज्ज्वल और निडर कार्यरीतिके प्रदर्शन वाले मोरारजी देसाईको प्रधान मंत्री बनाया गया. वह भी सर्वसंमतिसे बनाया गया. जयप्रकाश नारायणने इन सबकी शपथ विधि भी राजघाट संपन्न करवाई.

इस प्रधान मंडलमें कोई कमी नहीं थी. मन भी साफ था ऐसा लगता था.

गठबंधनवाली सभी पार्टीयोंका जनता पार्टीमें विलय हुआ.

जनता पार्टीने क्या किया?

(१) सर्व प्रथम इस गठबंधनवाली सरकारने फिरसे कोई सरमुखत्यारी मानसिकता वाला प्रधान मंत्री आपात्काल देश के उपर लाद न सके उसका प्रावधान किया.

(२) उत्पादनकी इकाईयों उपरके अनिच्छनीय प्रतिबंध रद किया. जिसका परिणाम १९८०से बाद मिला.

(३) नोटबंदी लागु की जिसमें ₹ १००० ₹ ५००० और ₹ १०००० नोंटे रद की गयी.

(४) आपात्कालके समयमें जो अतिरेक हुआ था, उसके उपर जाँच कमीटी बैठायी.

१९७७के चूनाव परिणामके पश्चात यशवंतराव चवाणने इन्दिरा कोंग्रेससे अलग हो कर अपना नया पक्ष एन.सी.पी. बनाया.

जगजीवन राम तो चूनावसे पहेले ही जनता पार्टीमें आ गये थे.

अब गठबंधनका जो एक पार्टीके रुपमें था तो भी उसका क्या हुआ?

चौधरी चरण सिंहमें धैर्यका अभाव था. उनको शिघ्र ही प्रधान मंत्री बनना था.

उनकी व्युह रचना मोरारजी देसाई जान गये, और उन्होंने चौधरीको रुखसद दे दी. उस समय यदि जनसंघके नेता बाजपाई बीचमें न आते तो चरण सिंहके साथ अधिक संख्या बल न होने से उनके साथ २० से २५ ही सदस्य जाते.

मोरारजीने बाजपाई की बात मानली. यह उनकी गलती साबित हुई. क्यों कि चरण सिंह तो सुधरे नहीं थे. और वे कृतघ्न ही बने.

इन्दिराने इसका लाभ लिया. यशवंत राव चवाणने उसका साथ दिया. थोडे समयके अंदर चरण सिंहने अपने होद्देके कारण कुछ ज्यादा संख्या बल बनाया. और तीनोंने मिलकर मोरारजी देसाईकी सरकारको गीरा दी.

मोरारजी देसाईने प्रधान मंत्रीके पदसे त्याग पत्र दे दिया. लेकिन संसदके नेता पदसे त्याग पत्र नहीं दिया. यदि उन्होने त्याग पत्र दिया होता तो शायद सरकार बच जाती. लेकिन जगजीवन राम प्रधान मंत्री बननेको तयार हो गये. चरण सिंह और जगजीवन राममें बनती नहीं थी. इस लिये उन्होने नहेरुने जैसा जीन्ना के बारेमें कहा था उसके समकक्ष बोल दिया कि, मैं उस चमार को तो कभी भी प्रधानमंत्री बनने नहीं दुंगा.

जब ये नेता नहेरुवीयन कोंग्रेसमें थे तो उनके प्रधान मंत्री बननेकी शक्यताओंको नहेरुवीयनोंने निरस्त्र कर दिया था. वे सब इसी कारणसे नहेरुवीयन कोंग्रेससे अलग हुए थे या तो अलग कर दिया था.

उपरोक्त संगठन वरीष्ठ नेताओंका प्रधान मंत्री बननेकी इच्छाका भी एक परिमाण था. प्रधान मंत्री बननेकी इच्छा रखना बुरी बात नहीं. लेकिन अयोग्य तरीकोंसे प्रधान मंत्री बनना ठीक बात नहीं है.

प्रवर्तमान गठबंधनका प्रयास

अभी तक इन सभी नेताओं की संतान नहेरुवीयन कोंग्रेसको शोभायमान कर रही थीं. उनको महेसुस हो गया कि अब प्रधान मंत्री बनने के बजाय यदि प्रधान पद भी मिल जाय तो भी चलेगा.

इसलिये चरण सिंघ, जगजीवन राम, वीपी सींघ, बहुगुणा, गुजराल, एन.टी. रामाराव,  … आदि की संतान नहेरुवीयन कोंग्रेसको सपोर्ट देनेको तत्पर है. लेकिन जब नहेरुवीयन कोंग्रेस भी डूब गयी और उनका संख्या बल कम हो गया तो इनकी संतानोंमें फिरसे उनके अग्रजोंकी तरह वह सुसुप्त इच्छाएं जागृत हुई है.

यदि २०१९में ये सरकार चले भी तो उनका कारण देशको लूटनेमें सहयोग की वजहसे चलेगी. जैसे मनमोहन सिंघकी सरकार १० साल चली थी क्यों कि मनमोहन सिंघने सबको अपने अपने मंत्रालयमें जो चाहे वह करने की छूट दे रक्खी थी. शीला दिक्षित, ए. राजा, चिदंबरम आदि अनेक के कारनामे इसकी मिसाल है. इन लोगोंको यथेच्छ मनमानी करने की छूट दे दी थी. जब न्यायालय स्वयं विवादसे परे न हो तो इन लोगोंको कौन सज़ा दे सकता है?

आप देख लो सोनिया, माया, मुल्लायम, लालु, शरद पवार, जया, शशिकला, फारुख, ममता आदि सभी नेता पर एक या दुसरे कौभान्ड के आरोप है. कुछ लोग तो सजा काट रहे है, कुछ लोग बेल पर है और बाकी नेता न्यायालयमें सुनवाई पर है.

किसी भी मुंबई वालेको पूछोगे तो वह शिवसेना को नीतिमत्ताका प्रमाण पत्र देगा नहीं. महाराष्ट्रके मुख्यमंत्रीने उनके पर काट लिया है इस लिये वह भी अब ये नया गठबंधनमें सामिल होने जा रहा है.

गठ बंधनका  कोई भी नेता, नरेन्द्र मोदी के पैंगडेमें पैर रखनेके काबिल नहीं है.

अब जो विद्वान और मोदी-फोबियासे पीडित है वे और सर्वोदय वादी या गांधीवादी बचे है वे न तो गांधीवादी है न तो सर्वोदयवादी है. वे सब खत-पतवार (वीड) है. वे लोग सिर्फ अपने नामकी ख्याति के लिये मिथ्या आलाप कर रहे हैं.  

२०१९का चूनाव, भारतमें विवेचकोंकी, विद्वानोंकी और  मूर्धन्योंकी विवेक शक्तिकी एक परीक्षा स्वरुप है. १९७७में तो जयप्रकाश और मोरारजी देसाई जैसे गांधी वादी विद्यमान थे. इससे शर्मके मारे ये लोग जनतंत्रकी रक्षाके लिये बाहर आये. किन्तु अब ये लोग अपना कौनसा फरेबी रोल अदा करते हैं वह इतिहास देखेगा.

शिरीष मोहनलाल दवे

Read Full Post »

एक गठबंधन नहेरुवीयन कोंग्रेसके विरुद्ध  और एक गठबंधन बीजेपीके विरुद्ध

केन्द्रीय स्तर पर गठ बंधन सर्व प्रथम १९७१में हुआ.

१९६७के  पहेले मोरारजी देसाई के पास कोई पद नहीं था. लाल बहादुर शास्त्रीके अवसानके बाद लोकसभाके नेताका चूनाव हूआ. मोरारजी देसाईकेे पास  कोई मंत्रालय नहीं था.  उन्होने प्रधानमंत्रीके प्रत्याषी के लिये आवेदन दिया और वे १६९ मत ले आये. इससे केन्द्रीय कारोबारी चकित हो गयी. केन्द्रीय कारोबारी तो उनको अधिकसे अधिक ६९ मत मिलेंगे ऐसा मानती थी. उस समय कोंग्रेस संसदमें एक विराट पक्ष था. १९६७के चूनावमें कोंग्रेस संसदमें काफि कमजोर हो गई थी. मोरारजी देसाई एक सशक्त नेता थे. तो उनको मंत्री बनाना जरुरी था.

१९६७ के चूनावके बाद  विपक्ष का गठबंधनका विचार सर्व प्रथम डॉ. राममनोहर लोहियाको आया था. उन्होनें कहा कि (नहेरुवीयन) कोंग्रेस तब तक राज करकर सकती है जब तक विपक्ष चाहे. इसका अर्थ यह था कि विपक्ष यदि चाहे तो एक जूट होकर कोंग्रेसको हरा सकता है. क्यों कि, कोंग्रेसको ४२% के अंदर मत मिले थे. और जो गठबंधन कर सके ऐसे पक्ष और वैसे ही कुछ अपक्ष मिल जाय तो (साम्यवादी पक्षोंको छोड कर भी) विपक्षको ४२% से अधिक मत मिल सकते है. विपक्ष एकजूट न होनेके कारण कोंग्रेसको बहुमत मिलता है. १९६७के चूनावमें विरोध पक्ष विभक्त होने के कारण और ४२%से कम प्रतिशत मत मिलने पर भी  कोंग्रेस बहुमत सीटें २८३   प्राप्त कर ली थी. वैसे ये संख्या  बहुमतसे थोडी ही अधिक थी. विपक्षको २३७ सीटें मिली थी जिसमें जिसमेंसे साम्यवादीयोंकी ४२ सीटें को यदि छोड दें तो १९५ सीटें बनती थी.

जब १९६९में नहेरुवीयन कोंग्रेसका विभाजन हुआ तो कोंग्रेस (ओ) की ६५ सीटें विपक्षमें आ गई. और नहेरुवीयन कोंग्रेसकी सीटें २८३-६५=२१८ हो गई.  लेकिन इन्दिरा गांधीने साम्यवादी पक्षोंका, कुछ पीएसपी के संसद सदस्योंका, अकालीदल, डीएमके, रिपब्लीकन, अपक्ष आदि पक्काषोंके सदस्योंका सहारा लेके बहुमत जारी रक्खा. लेकिन यह गठबंधन अधिक चलनेवाला नहीं था. इसलिये १९७१में चूनाव घोषित किया. लेकिन ये दो वर्षके अंतरर्गत कोंग्रेस(ओ)मेंसे आधे लोग इन्दिराके गुटमें आगये थे.

ग्रान्ड एलायन्स

१९७१के चूनावमें विपक्षका गठबंधन हुआ, जिसको अखबार वालोंने ग्रान्ड एलायन्स नाम दिया. इसमें कोंग्रेस (ओ), जनसंघ, स्वतंत्र पक्ष, पीएसपी, संयुक्त समाजवादी पक्ष समाविष्ट थे. ये लोग छोटे छोटे कई पक्षोंको गठबंधनमें सामील होनेको मना नहीं सकें.

इस चूनावमें सबसे महत्त्वकी भूमिका अखबारवालोंने निभायी. जो लगातार बेंकोका राष्ट्रीय करण, महाराजाओंके प्रीवीपर्सकी नाबुदीको और पक्षमें सीन्डीकेटके वर्चस्वको इन्दिरा गांधीने कैसे नष्ट किया और अपने प्रत्याषीको राष्ट्रप्रमुखके चूनावमें कैसे सिफत पूर्वक हराया  … इन सब बातोंकोआवश्यकतासे कहीं अधिक ही प्रसिद्धि दे रहे थे. वैसे तो कोंग्रेसके प्रत्याषीके विरुद्ध प्रचार करनेमें इन्दिराके ईशारे पर कई सारी बिभत्स बातों वाले पेम्फ्लेट बांटे गये थे, उसका विवरण हम अभी नहीं करेंगे.  थोडा जातिवाद भी था. 

इनबातोंको छोड देवें और १९७१के गठबंधन की बात करें तो मीडीया प्रचारके कारण इन्दिरा कोंग्रेसकी जीत हुई.

इन सबको मिलाके इन्दिरा गांधीकी कोंग्रेसको ४४ % मत मिले.

गठबंधनको २४% मत मिले.  और गठबंधनके सभी पक्षोंकी सीटें कम हो गई. बडा लाभ इन्दिरा कोंग्रेसको हुआ और कुछ फायदा छोटे छोटे पक्षोंको हुआ.

इन्दिरा कोंग्रेसको  ३५२ सीटें मिलीं

गठबंधनको ५१ सीटें मिलीं

साम्यवादीयोंको ४८   सीटें मिलीं

(साम्यवादीयोंने जहां पर खुदका प्रत्याशी नहीं था वहा पर इन्दिरा कोंग्रेसका समर्थन किया था)

छोटे छोटे प्रादेशिक पक्ष और अपक्षोंको ६७  सीटें मिलीं.

विपक्षकी हारका कारण क्या था?

(१) क्या विपक्ष लोकप्रिय नहीं था?

विपक्ष अतिलोकप्रिय था. उनके प्रवचनको लोग आदर पूर्वक सूनते थे.

(२) क्या विपक्षमें उच्च कोटीके नेता नहीं थे?

विपक्षके नेता अत्यंत उच्च कोटीके थे. स्वातंत्र्य संग्राम में उनका बडा योगदान रहा था. उनकी अपेक्षामें इन्दिरा गांधीका योगदान, न के बराबर था. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, कामराज, कमलापती त्रीपाठी, मोरारजी देसाई, मनुभाई शाह, अतुल्य घोष, पटनायक, एच.एम.पटेल, सादोबा पाटिल, मधु दन्डवते, जोर्ज फर्नन्डीस, मधु लिमये, दांडॅकर आदि कई बडे नाम वाले विपक्षी नेता थे.

(३) क्या विपक्ष स्वकेद्री था?

कोई भी विपक्षी नेता किसी भी प्रकारसे स्वकेन्द्री नहीं थे.

(४) क्या विपक्ष सत्ताका लालची था?

मोरारजी देसाईको और सीन्डीकेटके नेताओं पर इन्दिरा कोंग्रेसवाले ऐसा आरोप लगाते थे. लेकिन उन्होंने कभी गैरकानूनी तरीके अपनाये नहीं थे. संयुक्त कोंग्रेसके समयमें केन्द्रस्थ कारोबारी बहुमतसे निर्णय लेती थीं. यह प्रणाली कोंग्रेसके संविधान और जनतंत्रके अनुरुप थी.

अन्य नेताओंके बारेमें यदि कुछ कहें तो सत्ता तो उनको  कभी मिली ही नहीं थी. और उनका ऐसा कोई व्यवहार नहीं था कि उनके उपर ऐसा अरोप लग सके.

(५) क्या विपक्ष वंशवादी था?

स्वातंत्र्य संग्रामके नेतागण इस समय विद्यमान थे. इसलिये ऐसा कोई प्रश्न ही नहीं उठता था.

(६) क्या विपक्षने गैर कानूनी तरीके अपनाये थे?

विपक्ष संपूर्ण रीतसे कानूनका आदर करता था. वास्तवमें ऐसे आरोप तो इन्दिराके उपर और उसकी कोंग्रेसके नेता पर लग रहे थे.

(७) क्या विपक्षके नेताओंकी भूतकालकी कार्यवाही कलंकित थी?

विपक्षके नेताओंका भूतकाल उज्वल था. और सब लोगोंने एक या दुसरे समयमें गांधीजीके साथ काम किया था और अन्य विपक्षी नेता आई.सी.एस. अफसर रह चूके थे.

(८) क्या विपक्षके नेताओंका समाजके प्रति कोई योगदान नहीं था?

आम जनताके हितमें और देशके हितमें वे सब संसदमें सक्रीय रहेते थे. जो लोग अविभक्त कोंग्रेसमें थे उनका अपने विभागके प्रति अच्छा योगदान रहा था. यदि खराब और विवादास्पद रहा हो तो वह नहेरुका खुदके मंत्रालयका कार्य और उनके मित्र वी.के. मेननके संरक्षण मंत्रालयका काम कमजोर रहा था जिनकी विदेश नीति और संरक्षण नीतिके कारण  आज भी भारतको भूगतना पड रहा है.

तो फिर इन्दिरा गांधी जीती कैसे?

(१) जब अविभक्त कोंग्रेसका विभाजन हुआ तो जो कोंग्रेसके जो संगठन कार्यालय थे उनके अधिकतर कर्मचारी और अन्य नेता इन्दिरा गांधीके समर्थनमें रहे.

इसमें अपवाद था   गुजरात. क्यों कि गुजरातमें मोरारजी देसाई का संगठन सक्षम रहा था. अन्य सब जगह जो क्षेत्रीय नेतागण थे वे कोंग्रेसके नामपर ही चूनाव जीतते थे.

(२) देशके युवा वर्गने  कभी ऐसा उच्चस्तरीय सियासती विखवाद देखा ही नहीं था.

(३) इन्दिरा गांधीका कहेना था कि मेरे पिता तो देशके लिये बहूत कुछ करना चाहते थे लेकिन ये बुढे लोग उनको करने नहीं देते थे. वैसे तो किसी समाचार माध्यमने या तो विवेचकोंने इसका विवरण इन्दिरा गांधीसे पूछने योग्य समज़ा नहीं. और समाचार माध्यम भी संरक्षणकी क्षतियोंको भी कोंग्रेस(ओ)की क्षति मानता था और मनवाता था क्यों कि केन्द्रीय  मंत्रीमंडलका निर्णय सामुहिक होता है.

(४) अविभक्त कोंग्रेसको जो आर्थिक दान मिलता था वह प्रान्तीय (राज्यका) सर्वोच्च नेता द्वारा संचित होता था और उसका वहीवट भी प्रान्तका सर्वोच्च नेता ही करता था. लेकिन इन्दिरा गांधीने उस दान और वहीवटको अपने हाथमें ले लिया.

(५) बेंकोंका जो राष्ट्रीयकरण हुआ तो इससे इन्दिरा कोंग्रेसके स्थानिक और कनिष्ठ नेताओंकी सिफारिस पर निम्नस्तरके लोगोंको ऋण मिलना चालु हो गया, और उसमें भी स्थानिक कनिष्ठ नेता अपना कमीशन रखके करजदारको कहेता था कि यह कर्ज परत करना आवश्यक नहीं है. और इस प्रकार शासक पक्षका बेंकोंके वहीवटमें हस्तक्षेप बढ गया और बढता ही गया. और यह बात एक प्रणाली बन गया. जो अभी अभी जनता बेंकोके  एन.पी.ए.के विषयमें जो कौभाण्ड के किस्से से अवगत हो रही है, उनके बीज और उनकी जडें १९६८में शुरु होई. फर्जी नामवाला सीलसीला भी चालु हो गया था.

(६) नहेरुने आम जनताको शिक्षित बनानेमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं ली थी. इसलिये आम जनता, ईन्दिरा-प्रवाहमें आ जाती थी.  

(७) इन्दिरा गांधी सत्ता पर थी और उस समय सरकारी अफसर गवर्नमेंटको कमीटेड रहेते थे क्यों कि नेताओमें और खास करके उच्च स्तरके नेताओमें भ्रष्टाचार व्यापक रुपसे नहीं था.   

(८) इस इन्दिरा-प्रवाहको  प्रवाह किसने बनाया?  राष्ट्रप्रमुखके चूनावमें अविभक्त कोंग्रेसके सूचित प्रत्याषी संजीव रेड्डीके विरुद्ध इन्दिराके सूचित प्रत्याषी वीवी गिरीके विजयकी भारतके विद्वानोंने और विवेचकोंने, प्रशंसा की थी इस कारणसे जनताको इन्दिरा गांधी सही लगी. कुछ लोग अन्यमनस्क भी हो गये.

परिणाम स्वरुप क्या हुआ? विधिकी वक्रता

सबकुछ मिलाके इन्दिरा गांधीके पक्षकी विजय हुई.

सीन्डीकेटकी हार हुई. कोंग्रेस (ओ) की सिर्फ मोरारजी देसाईके गुजरातमें जित हुई वह भी सीमित जीत हुई. अन्य पक्ष भी सिकुडकर रह गये.

अपने पक्षके प्रत्याषीको मत न दे के, अन्य पक्षके प्रत्याषीको मत देना दिलवाना, अपने स्वार्थको ही देखना, पक्षांतर करना “आया राम गया राम”, पैसोंकी हेराफेरी करना, हवामें बात करना, जूठे आरोप लगाना, अफवाहें फैलाना, कुछ भी बोल देना और अंतमें “जो जीता वह सिकंदर” … ऐसी अनीतियोंको  विद्वानोंने और विवेचकोंने स्विकृति दी और प्रमाणित भी कर दी. यह एक विधिकी वक्रता थी.

बीना कोई सबूत अपने पिताके सहयोगीयों पर बे बुनियाद आरोप लगाना, पूर्व पाकिस्तानसे आये हिन्दीभाषी मुस्लिमोंको वापस भेजनेकी समस्याको निलंबित करना, राजकीय मूल्योंकी अवमानना करना, भ्रष्टाचारको निम्नस्तरके लोगों तक प्रसारित करना, व्हाईट कोलर मज़दुर संगठनोंको सीमासे बाहर का महत्व देना, कर्मचारीयोंमे अनुशासन को खत्म करना … यह सब परिबळोंका विकास होना शुरु हो गया था. इन्दिराको, नहेरुके साथ रहेनेसे एक  कोट भेंट मिला था. उस मींक कॉटको सरकारमें जमा करवाने के बदले इन्दिरा गांधीने अपने कब्जेमें रख लिया था, यह बात आचार संहिताके विरुद्ध थी,  लेकिन ये सब इन्दिरा गांधीके ऋणात्म कार्यों को (अल्पदृष्टा) विद्वानोंने और समाचार माध्यमोंने अनदेखा किया.

इन्दिरा गांधीका एक ही सूत्र था कि गरीबी हटाओ.

क्रमशः

शिरीष मोहनलाल दवे

Read Full Post »

जो भय था वह वास्तविकता बना (बिहारका परिणाम) भाग

दाद्रीकी घटानाको उछालके यह महाठग महाधूर्त महागठबंधन काफी सफल रहा.

सफल होनेका श्रेय, समाचार माध्यम, नहेरुवीयन कोंग्रेस, महा गठबंधन और कुछ दंभी धर्मनिरपेक्ष गेंग, ये चारों चंडाल चौकडीने मिलके जो महाठग बंधन करके जो रणनीति बनायी थी उसको जाता है.

महागठबंधन और महागठबंधनमें क्या भेद है?

महागठबंधन नहेरुवीयन कोंग्रेस, आरजेडी और जेडीयु इन तीनोंने मिलकर एक चूनावी और सत्तामें भागीदारी करने के लिये एक गठबंधन बनाया है वह है. महाठग गठबंधन एक ऐसा गठबंधन है जिनका एक मात्र हेतु बीजेपीको चूनावमें हराना है. और अपने धंधे चालु रखना है. उनके अनेक धंधेमें सत्ताकी प्रत्यक्ष और परोक्ष भागबटाइ, अयोग्य रीतीयोंसे पैसे कमाना और देशकी आम जनताको गुमराह करके गरीबी कायम रखना ताकि आम जनता विभाजित और गरीब ही रहे

महाठगगठबंधनकी पूर्व निश्चित प्रपंचकारी और विघातक योजना

बीजेपीने विकासके मुद्दे पर ही अपना एजन्डा बनाया था. किन्तु यदि परपक्ष, यानी उपरोक्त महाठगोंका गठबंधन, कोमवादका मुद्दा उठावे तो उसको कैसे निपटा जाय, उसके लिये बीजेपी संपूर्ण रीतसे सज्ज  नहीं था. महाठगगठबंधन, दाद्रीकी घटनाको, मीडीया और दंभी धर्मनिरपेक्ष गेंग के सहारे कोमवाद पर ले गया.

जब भी चूनाव आता है और जब हवा नहेरुवीयन कोंग्रेसकी विरुद्धमें होती है तो कोमी भावना भडकाना नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासनमें और उसके सांस्कृतिक पक्षके शासनमें एक आम बात है.

आरएस एस, वीएचपी और कुछ बीजेपी नेता भी बेवकुफ बनकर, समाचार माध्यमोंकी हवामें आके उसको हिन्दुमान्यताके परिपेक्ष्यमें आक्रमक बनके प्रत्याघात देने गतें हैं. वास्तवमें बीजेपीको गौवध वाले कोमवादी उस मुद्देको तर्क और अप्रस्तूतताके आधार पर लेजाके उसका खंडन करनेका था. बीजेपी नेतागण उपरोक्त महाठग बंधनी पूर्व निश्चित चाल नहीं समझ पाये. बीजेपी नेतागण को समझना चाहिये कि नहेरुवीयन कोंग्रेस चूनावकी रणनीति बनानेमें उस्ताद है. इसी कारण वह महाभ्रष्ट होनेके बावजूद, भारत जैसी महान और प्राचीन धरोहरवाले देश पर ६० वर्ष जैसे सुदीर्घ समयका शासन कर पाई.

शत्रु को कभी निर्बल समझना नहीं चाहिये.

आरएसएस और वीएचपीमें बेवकूफोंकी कमी नहीं है. ये लोग कई बार सोसीयल मीडीयामें वैसे भी फालतु, असंबद्ध और आधारहीन वार्ताएं लिखा करते हैं, जिससे बीजेपीकी भी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाते है.

जनताके कई पढे लिखे लोग यह नहीं समझ सकते की आरएसएस और वीएचपी के लोग सिर्फ मतदाता है. यह बात सही कि, वे बीजेपीके निश्चित मतदाता है. हर सुनिश्चित मतदाता अपने मनपसंद पक्षका प्रचार करता है ऐसा नहीं है. इसका अर्थ यह नहीं कि हर सुनिश्चित मान्यतावाला मतदाता अपने पक्षका प्रचार करे ही नहीं. क्यों कि किसी मतदाताको आप प्रचार करनेमेंसे रोक नहीं सकते. यदि वह अपने पक्षका प्रचार करे या तो परपक्षके उठाये गये प्रश्नोंका उत्तर दें तो यह मानना नहीं चाहिये कि उसका अभिप्राय वह पक्षकी विचारधारा है. यदि महाठग गठबंधन आरएसएस या वीएचपी के उच्चारणोंको बीजेपीकी विचारधारा मानता है तो

कोमवादी और आतंकवादी मुस्लिम जो कुछ भी बोले वह युपीएकी विचारधारा है 

जैसे अधिकतर मुसलमान और कुछ अन्य जुथ नहेरुवीयन कोंग्रेस या तो उसके सांस्क्रुतिक पक्षके सुनिश्चित मतदाता है. वे कई बातें अनापसनाप बोलते हैं और कुतर्क भी करते हैं. उनकी बातें भी तो  नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्क्रुतिक साथीयोंकी विचारधारा है समज़नी चाहिये. समाचार माध्यमको ऐसा ही समज़ना चाहिये. वे दोहरा मापदंड क्यों चलाते है? अकबरुद्दीन ओवैसी, फारुख, ओमर, गीलानी, आजमखान, लालु, पप्पु, अरुन्धती, तित्सा, मेधा, आदि आदि जो भी कोमवादको बढावा देनेवाले उच्चारण करते है वे सब नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके सांस्कृतिक साथी है वे जो कुछभी बोले वह नहेरुवीयन कोंग्रेसकी ही विचार धारा है.

विडंबना और कुतर्क तो यह है कि, नहेरुवीयन कोंग्रेस तो उसके प्रवक्ताओंके भी कई उच्चारणोंको उनकी निजी मान्यता है ऐसा बताती है. यहां तक कि यदि नहेरुवीयन कोंग्रेसका उप प्रमुख, नहेरुवीयन कोंग्रेसके मंत्री मंडलने पारित प्रस्ताव विधेयक को फाडके फैंक तो भी वह इस घटनाका उल्लेख पक्षके  उपप्रमुखका नीजी अभिप्राय बताता है. बादमें उसी प्रस्तावमें संशोधन करता है. वैसा ही इस नहेरुवीयन कोंग्रेसने कोमवादी नेताओंके विरोधी प्रतिभावोंके चलते शाहबानो की न्यायिक घटनाके विषय पर संविधानमें संशोधन किया था. तात्पर्य यह है कि ऐसे सुनिश्चित मतदाता जुथोंके मंतव्य, वास्तविक रुपसे नहेरुवीयन कोंग्रेसकी विचारधारा होती ही है. नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताओंका स्थान आजिवन कारावासमें या फांसीका फंदा ही है. आरएसएस या वीएचपी के लोग तो बीजेपीके शासनके सहयोगी भी नहीं है. दोनोंकी प्राथमिकताए और मान्यताएं भीन्न भीन्न है. तो इनके भी बयान बीजेपीका सरकारी बयान नहीं माने जा सकते.

बिहारमें दंभी धर्मनिरपेक्षोंका विभाजनवादी नग्न नृत्य

बीजेपी एक राष्ट्रीय पक्ष है. अमित शाह, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, आदि सब भारतके नागरिक है.

महाठगगठबंधनके नेताओं की विभाजनवादी  मानसिकताका अधमाधम प्रदर्शन देखो.

बिहारमेंसे बाहरीको भगाओ

अमित शाह, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, स्मृति ईरानी, आदि को नीतीशकुमार और उसके साथी बाहरी मानते है. ऐसे बाहरी लोगोंको बिहारमें प्रचारके लिये नहीं आना चाहिये. बिहारमें केवल बिहारी नेताओंको ही चूनाव प्रचारके लिये आना चाहिये.

इसी मानसिकतासे नीतीशकुमार अपनी चूनाव प्रचार सभामें जनताको कहेते थे कि आपको चूनाव प्रचारमें कौन चाहिये, बिहारी या बाहरी?

तात्पर्य यह है कि, बिहारमें चूनाव प्रचारका अधिकार केवल बिहारीयोंका ही है. बाहरी लोगोंका कोई अधिकार मान्य करना नहीं चाहिये. महाठगगठबंधनके किसी नेताने नीतीशकी ये विभाजन वादी मानसिकताका विरोध नहीं किया. इतना ही महाठगगठबंधनके लोगोंने तालीयां बजायी. समाचार माध्यमके विश्लेषकोंने भी इसका विभाजनवादी भयस्थानको उजागर नहीं किया क्यों कि वे हर हालतमें बीजेपीको परास्त करना चाहते थे. महाठगगठबंधनके नेताओंका यह चरित्र है कि देशकी जनता विभाजित हो जाय और देश कभी आबाद बने और वे सत्तामें बने रहें और मालदार बनें.

नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक साथीयोंका ध्येय रहा है कि, देशकी जनता विभाजित होती ही रहे और खुदका हित बना रहे.

बाहरी और बिहारीसे क्या निष्कर्ष निकलता है?

महागठबंधन बिहारकी जनताको यह संदेश देना चाह्ता है कि बिहारमें हमे चूनाव प्रचारमें भी बाहरी लोग नहीं चाहिये. यदि चूनाव प्रचारमें भी बाहरी और बिहारीका भेद करना है तो व्यवसाय और नौकरीमें तो रहेगा ही. जो लोग केवल चूनाव प्रचारके लिये आते है वे तो बिहारीयोंको कोई नुकशान नहीं करते. वे लोग तो उनको भूका मारते है तो उनकी नौकरीकी तकमें कमी करते हैं, नतो उनकी व्यवसायकी तकोंमें कमी करते है तो उनके आवासकी तकोंमे कमी करते हैं, तो भी महाठगगठबंधन बाहरी लोगोंके प्रति एक तिरस्कारकी भावना बिहारी जनतामें स्थापित करनेका भरपूर प्रचार करता है.

बिहारीबाहरी द्वंद्वका क्या असर पड सकता है. यदि बिहारमें बाहरी आवकार्य नहीं है तो जो बिहारके लोग बाहर और वह भी खास करके मुंबई, गुजरात आदि राज्योंमे जाके वहांके लोगोंकी नौकरीकी तकोंमें कमी करते हैं, वहांके लोगोंकी व्यवसायी तकोंमें कमी करते हैं और वहां जाके झोंपडपट्टी बनाके असामाजिक तत्वोंको बढावा देते हैं वहां पर महाठगगठबंधनका यही संदेश जाता है कि बिहारी लोग आपके केवल चूनाव प्रचार करनेके लिये आने वाले चाहे वह देशका प्रधान मंत्री क्यों हो, उसको बहारी समज़ते है और अस्विकार्य बनते है. महाराष्ट्रके नीतिन गडकरी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, नरेन्द्र मोदी बाहरी है ऐसा थापा, बिहारकी जनता मारती है, तो बिहारके लोग भी गुजरात, महाराष्ट्र, मुंबई आदिमें बाहरी ही है. ये बिहारके बाहरी लोगोंको नौकरी और व्यवसाय आदिके लिये अस्विकार्य बनाओ. महाठगगठबंधनके नेताओंने यही संदेश दिया है, इस लिये यदि महाराष्ट्र, गुजरात और युपीके लोग बिहारीयोंको बाह्य समज़के उसको नौकरी, व्यवसाय, सेवा आदिके लिये अस्विकार्य करें तो इस आचारकी भर्त्सना करना अब तो बिहारीयोंका हक्क है नतो महाठगगठबंधनके लोगोंका हक्क है.

महाठगगठबंधनने अपने स्वार्थ लिये देशकी जनताको एक विनाशकारी संदेश दिया है, उसके लिये उसमें संमिलित तत्वोंके उपर न्यायिक कार्यवाही होनी चाहिये. उनकी संस्थाकी या और उनके स्थान होद्देकी जो भी बंधारणीय मान्यता हो उसको तत्काल निलंबित करना चाहिये और न्यायिक कार्यवाहीके फलस्वरुप मान्यता रद होनी चाहिये.

यदि ऐसा नहीं होगा तो एक विनाशक प्रणाली स्थापित होगी जो देशकी एकता पर वज्राघात करेगी.

शिरीष मोहनलाल दवे.

टेग्ज़ः  दाद्री, घटना, उछाल, समाचार माध्यम, नहेरुवीयन कोंग्रेस, सुनिश्चित मतदाता, बीजेपी, विचारधारा, विकास, महाठग, गठबंधन, दंभी, धर्मनिरपेक्ष, गौ, संविधान, संदेश, बिहार, चूनाव, बिहारी, गुजरात, युपी, नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, गजेन्द्र गडकरी, नौकरी, व्यवसाय, आवास, कोमवाद, विभाजन, अस्विकार्य

Read Full Post »

गोब्बेल्स अन्यत्र ही नहीं भारतमें भी जिवित है.

WE SPREAD RUMOR

रामायण में ऐसा उल्लेख है कि रावणने राम के मृत्युकी अफवाह फैलायी थी. किन्तु सभी रामकाथाओंमें ऐसा उलेख नहीं है. रावणने अफवाह फैलायी थी ऐसी भी एक अफवाह मानी जाती है. सर्वप्रथम विश्वसनीयन अफवाहका उल्लेख महाभारतके युद्धके समय मिलता है, जब भीमसेन एक अफवाह फैलाता है किअश्वस्थामा मर गया”. यह बात अश्वस्थामाके पिता द्रोणके पास जाती है. किन्तु द्रोणके मंतव्यके अनुसार, भीमसेन विश्वसनीय नहीं है. द्रोण इस घटनाकी सत्यताके विषय पर सत्यवादी युधिष्ठिरसे प्रूच्छा करते है. युधिष्ठिर उच्चरते हैनरः वा कुंजरः वा (नरो वा कुंजरो वा)”. लेकिन नरः शब्द उंचे स्वरमें बोलते है और कुंजरः (हाथी) धीरेसे बोलते है जो द्रोणके लिये श्रव्य सीमा से बाहर था. तो इस प्रकार पांण्डव पक्ष, अफवाह फैलाके द्रोण जैसे महारथी को मार देता है.

अर्वाचिन युगमें गोब्बेल्स नाम अफवाहें फैलानेवालोंमे अति प्रख्यात है. ऐसा कहा जाता है कि, उसने अफवाहें फैलाके शत्रुसेनाके सेनापतियोंको असमंजसमें डाल दिया था.

अफवाह की परिभाषा क्या है?

अफवाहको संस्कृतभाषामें जनश्रुति कहेते है. जनश्रुति का अर्थ है एक ऐसी घटना जिसके घटनेकी सत्यताका कोई प्रमाण नहीं होता है. इसके अतिरिक्त इस घटनाको सत्यके रुपमें पुरष्कृत किया जाता है या तो उसका अनुमोदन किया जाता है. और इस अनुमोदनमें भी किया गया तर्क शुद्ध नहीं होता है. एक अफवाहकी सत्यताको सिद्ध करने के लिये दुसरी अफवाह फैलायी जाती है. और ऐसी अफवाहोंकी कभी एक लंबी शृंखला बनायी जाती है कभी उसकी माला भी बनायी जाती है.

अफवाह उत्पन्न करो और प्रसार करो

कई बार अफवाह फैलाने वाला दोषित नहीं होता है. वह मंदबुद्धि अवश्य होता है. जिन्होंने अफवाहका जनन किया है वे लोग, ऐसे मंदबुद्धि लोगोंका एक प्रसारण उपकरण (टुल्स), के रुपमें उपयोग करते है. ऐसा भी होता है कि ऐसे प्रसारमाध्यमव्यक्ति अपने स्वार्थके कारण या अहंकारके कारण अफवाह को सत्य मान लेता है और प्रसारके लिये सहायभूत हो जाता है.

अफवाहें फैलानेमें पाश्चात्य संस्कृतियां का कोई उत्तर नहीं.

वास्तवमें तो स्वर्ग, नर्क, सेतान, देवदूत, क्रोधित होनेवाला ईश्वर, प्रसन्न होनेवाला ईश्वर, कुछ लोगोंकोये तो अपनवाले हैऔर दुसरोंकोंपरायेकहेने वाला ईश्वर, यही धर्म श्रेष्ठ है, इसी धर्मका पालन करनेसे ईश्वरकी प्राप्ति हो सकती है, इस धर्मको स्विकारोगे तो तुम्हारा पाप यह देवदूत ले लेगा, ये सभी कथाएं और मान्यताएं भी अफवाह ही तो है.

कामदेव, विष्णु भगवानका पुत्र था. “कामका यदि प्रतिकात्मक अर्थ करें तो नरमादामें परस्पर समागमकी वृत्ति को काम कहा जाता है.

भारतीय संस्कृतिमें तत्वज्ञानको प्रतिकात्मक करके, काव्य के रुपमें उसको लोकभोग्य बनानेकी एक प्रणाली है.  इस तरहसे जन समुदायको तत्वज्ञान अवगत करानेकी परंपरा बनायी है.

काम भी एक देव है. देवसे प्रयोजित है शक्ति या बल.

कामातुर जिवकी कामेच्छा कब मर जाती है?

जब कामातुर व्यक्तिको अग्निकी ज्वालाका स्पर्ष हो जाता है, तब उसकी कामेच्छा मर जाती है. लेकिन काम मरता नहीं है. इस प्राकृतिक घटनाको प्रतिकात्मक रुपमें इस प्रकार अवतरण किया कि रुद्रने (अग्निने) कामको भष्म कर दिया. किन्तु देव तो कभी मर नहीं ता. अब क्या किया जाय? तो तत्पश्चात्इश्वरने उसको सजिवोंमे स्थापित कर दिया. बोध है कि कामदेव सजिवमें विद्यमान है.

जनश्रुतियानीकी अफवाह भी जनसमुदायोंमे जिवित है. हांजी, प्रमाण कितना है वह चर्चा का विषय है.

इतिहासमें जनश्रुति (अफवाहें रुमर);

पाश्चात्य इतिहासकारोंने भारतके पूरे पौराणिक साहित्यको अफवाह घोषित कर दिया. पुराणोमें देवोंकी और ईश्वरकी जो प्रतिकात्मक या मनोरंजनकी कथायें थी उनकी प्रतिकात्मकताको इन पाश्चात्य इतिहासकारोंने समझा नही या तो समझनेकी उनकी ईच्छा नहीं थी क्योंकि उनका ध्येय अन्य था. उनको उनकी ध्येयसूची (एजन्डा)के अनुसार, कुछ अन्य ही सिद्ध करनेका था. उस ध्येय सूचि के अनुसार उन्होंने इन सब प्रतिकात्मक ईश्वरीय कथाओंको मिथ्या घोषित कर दिया. और  उनको आधार बनाके भारतमें भारतवासीयोंके लिखे इस इतिहासको अफवाह घोषित कर दिया.

भारत पर आर्योंका आक्रमणः

पराजित देशकी जनताको सांस्कृतिक पराजय देना उनकी ध्येयसूची थी. अत्र तत्र से कुछ प्रकिर्ण वार्ताएं उद्धृत करके उसमें कालगणना. भाषाकी प्रणाली, जन सामान्यकी तत्कालिन प्रणालीयां, प्रक्षेपनकी शक्यताआदि को उपेक्षित कर दिया.   

आर्य, अनार्य, वनवासी, आदि जातियोंमें भारतकी जनताको विभाजित करके भारतीय संस्कृतिको भारतीय लोगोंके लिये गौरवहीन कर दिया. ऐसी तो कई बातें हैं जो हम जानते ही है.

ऐसा करना उनके लिये नाविन्य नहीं था. ऐसी ही अफवाहें फैलाके उन्होने अमेरिकाकी माया संस्कृतिको और इजिप्तकी महान संस्कृतिको नष्ट कर दिया था. पश्चिम एशियाकी संस्कृतियां भी अपवाद नहीं रही है.

आप कहोगे कि इन सब बातोंका आज क्या संदर्भ है?

संदर्भ अवश्य है. भारतीय संस्कृतिकी प्रत्येक प्रणालीयोंमें इसका संदर्भ है और उसका प्रास्तूत्य भी है.

अफवाहें फैलाके दुश्मनोंमें विभाजन करना, दुश्मनोंकी सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट करना, दुश्मनोंकी प्रणालीयोंको निम्नस्तरीय सिद्ध करना और उसका आनंद लेना ये सब उनके संस्कार है. आज भी आपको यह दृष्टिगोचर होता है.

भारतमें इन अफवाहोंके कारण क्या हुआ?

भारतकी जनतामें विभाजन हुआ. उत्तर, दक्षिण, पूर्वोत्तर, हिन्दु, मुस्लिम, ख्रीस्ती, भाषा, आर्य, अनार्य, ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शुद्र, वनवासी, पर्वतवासी, अंग्रेजीके ज्ञाता, अंग्रेजीके अज्ञाता  आदि आदिइनमें सबसे भयंकर भेद धर्म, जाति और ज्ञाति.

मुस्लिमोंमें यह अफवाह फैलायी कि वे तो भारतके शासक थे. उन्होने भारतके उपर ०० साल शासन किया है. उन्होंने ही भारतीयोंको सुसंस्कृत किया है. भारतकी अफलातुन इमारतें आपने ही तो बनायी. भारतके पास तो कुछ नहीं था. भारत तो हमेशा दुश्मनों से २५०० सालोंसे हारता ही आया है. सिकंदरसे लेके बाबर तक भारत हारते ही आया है.

ख्रीस्ती और मुसलमानोंने भारतके निम्न वर्णको यह बताया कि आपके उपर उच्च वर्णके लोगोंने अमानवीय अत्याचार किया है. दक्षिण भारतकी ब्राह्मण जनताको भी ऐसा ही बताया गया. इन कोई भी बातोंमे सत्यका अभाव था.

सबल लोग, निर्बल लोगोंका शोषण करे ऐसी प्रणाली पूरे विश्वमें चली है और आज भी चलती है. केवल सबल और निर्बलके नाम बदल जाते है. भारतमें शोषण, अन्य देशोंके प्रमाणसे अति अल्प था. जो ज्ञातियां थी वे व्यवसाय के आधार पर थी. और पूरा भारतीय समाज सहयोगसे चलता था.

धार्मिक अफवाहेः

धर्मकी परिभाषा जो पाश्च्यात देशोंने बानायी है, वह भारतके सनातन धर्म को लागु नहीं पड सकती. किन्तु यह समझनेकी पाश्चात्य देशोंकी वृत्ति नहीं है या तो उनकी समझसे बाहर है.

भारतके अंग्रेजीज्ञाताओंकी मानसिकता पराधिन है. इतिहास, धरोहर, प्रणालीयां, तत्वज्ञान, वैश्विक भावना, आदिको एक सुत्रमें गुंथन करके भारतीय विद्वानोंने भारतकी संस्कृतिमें सामाजिक लयता स्थापित की है. लयता और सहयोग शाश्वत रहे इस कारण उन्होंने स्थितिस्थापकता भी रक्खी है.

किन्तु तथ्योंको समझना और आत्मसात्करना पाश्चात्य विद्वानोंके मस्तिष्कसे बाहर की बात है. इस लिये उन्होंने ऐसी अफवाहें फैलायी कि, हिन्दु देवदेवीयां तो बिभत्स है. उनके उपासना मंत्र और पुस्तकें भी बिभत्स है. वे लोग जननेन्द्रीयकी पूजा करते है. उनके देव लडते भी रहेते है और मूर्ख भी होते है. भला, देव कभी ऐसे हो सकते हैं? पाश्चात्य भाषी इस प्रकार हिन्दु धर्मकी निंदा करके खुश होते हैं.

वेदोंमे और कुछ मान्य उपनिषदोंमे नीहित तत्वज्ञानका अर्क जो गीतामें है उनको आत्मसात तो क्या किन्तु समझनेकी इन लोगोंमें क्षमता नहीं है.

शास्त्र क्या है? इतिहास क्या है? समाज क्या है? कार्य क्या है? इश्वर क्या है? आत्मा क्या है? शरीर सुरक्षा क्या है? आदि में प्रमाणभूत क्या है, इन बातोंको समझनेकी भी इन विद्वानोंमे क्षमता नहीं है. तो ये लोग इनके तथ्योंको आत्मसात्तो करेंगे ही कैसे?  

राजकीय अफवाहेः

दुसरों पर अधिकार जमाना यह पाश्चात्य संस्कृतिकी देन है.

भारतमें गुरु परंपरा रही है. गुरु उपदेश और सूचना देता है. हरेक राजाके गुरु होते थे. राजाका काम सिर्फ गुरुनिर्देशित और सामाजिक मान्यता प्राप्त प्रणालियोंके आधार पर शासन करना था. भारतका जनतंत्र एक निरपेक्ष जनतंत्र था. गणतंत्र राज्य थे. राजाशाही भी थी. तद्यपि जनताकी बात सूनाई देती थी. यह बात केवल महात्मा गांधी ही आत्मसात कर सके थे.

भारतकी यथा कथित जनतंत्रको अधिगत करनेकी नहेरुमें क्षमता नहीं थी. नहेरुको भारतीय संस्कृति और संस्कारसे कोई लेना देना नहीं था. उन्होंनें तो कहा भी था किमैं (केवल) जन्मसे (ही) हिन्दु हूं. मैं कर्मसे मुस्लिम हूं और धर्मसे ख्रीस्ती हूं. नहेरुको महात्मा गांधी ढोंगी लगते थे. किन्तु यह मान्यता  उन्होंने गांधीजीके मरनेके सात वर्षके पश्चात्‍, केनेडाके एक राजद्वारी व्यक्तिके सामने प्रदर्शित की थी.

नहेरुकी अपनी प्राथमिकता थी, हिन्दुओंकी निंदा. नहेरुने हिन्दुओंकी निंदा करनेकी बात, आचारमें तभी लाया, जब वे एक विजयी प्रधान मंत्री बन गये.

हिन्दु महासभा को नष्ट करनेमें नहेरुका भारी योगदान था.

वंदे मातरम्और राष्ट्रध्वजमें चरखाका चिन्ह को हटानेमें उनका भारी योगदान था. गौ रक्षा और संस्कृतभाषाकी अवहेलना करना, मद्य निषेध करना, समाजको अहिंसाकी दिशामें ले जाना, अंग्रेजीको अनियत कालके लिये राष्ट्रभाषा स्थापित करके रखना, समाजवादी (साम्यवादी) समाज रचना आदि सब आचारोंमे नहेरुका सिक्का चला. उन्होंने तथा कथित समाजवाद, हिन्दी चीनी भाई भाई, स्व कथित और स्व परिभाषित धर्म निरपेक्षताकी अफवाहें फैलायी. इन सभी अफवाहोंको अंग्रेजी ज्ञाताजुथोंने स्वकीय स्वार्थके कारण अनुमोदन भी किया.

जनतंत्र पर जो प्रहार नहेरु नहीं कर पाये, वे सब प्रहार इन्दिरा गांधीने किया.

इन्दिरा गांधी, अफवाहें फैलानेमें प्रथम क्रम पर आज भी है.

इन्दिरा गांधीने जितनी अफवाहें फेलायी थी उसका रेकॉर्ड कोई तोड नहीं सकता. क्यों कि अब भारतमें आपात्काल घोषित करना संविधानके प्रावधानोंके अनुसार असंभव है.

सुनो, ऑल इन्डिया रेडियो क्या बोलता था?

एक वयोवृद्ध नेता, सेनाको और कर्मचारीयोंको विद्रोहके लिये उद्युत कर रहा है. (संदर्भः जय प्रकाश नारायणने कहा था कि सभी सरकारी कर्मचारी संविधानके नियमोंसे बद्ध है. इसलिये उनको हमेशा उन नियमोंके अनुसार कार्य करना है. यदि उनका उच्च अधिकारी या मंत्री नियमहीन आज्ञा दें तो उनको वह आदेश लेखित रुपमें मांगना आवश्यक है.) किन्तु उपरोक्त समाचार  ‘एक वयोवृद्ध नेता, सेनाको और कर्मचारीयोंको विद्रोहके लिये उद्युत कर रहा हैसातत्य पूर्वक चलता रहा.

उसी प्रकारआपातकाल अनुशासन हैका अफवाहयुक्त अर्थघटन यह किया गया कि, “आपातकाल एक आवश्यक और निर्दोष कदम है और विनोबा भावे इस कदमसे सहमत है.”

विनोबा भावेने खुदने इस अयोग्य कदमके विषय पर स्पष्टता की थी, “यदि वास्तवमें देशके उपर कठोर आपत्ति है तो यह, एक शासककी समस्या नहीं है, यह तो पुरे देशवासीयोंकी समस्या है. इस लिये देशको कैसे चलाया जाय इस बात पर सिर्फ (सत्ताहीन) आचार्योंकी सूचना अनुसार शासन होना चाहिये. क्योंकि आचार्योंका शासन ही अनुशासन है. “आचार्योंका अनुशासन होता है. सत्ताधारीयोंका शासन होता है.”

विनोबा भावे का स्पष्टीकरण दबा दिया गया. सत्यको दबा देना भी तो अफवाहका हिस्सा है.

एक वयोवृद्ध नेता (मोरारजी देसाई) के लिये प्रतिदिन २० कीलोग्राम फल का खर्च होता है.” यह भी एक अफवाह इन्दिरा गांधीने फैलायी थी. मोरारजी देसाईने कहा कि यदि मैं प्रतिदिन २० कीलोग्राम फल खाउं तो मैं मर ही जाउं.

ऐसी तो सहस्रों अफवायें फैलायी जाती थी. अफवाहोंके अतिरिक्त कुछ चलता ही नहीं था.

समाचार माध्यमों द्वारा प्रसारित अफवाहें

आज दंभी धर्मनिरपेक्षताके पुरस्कर्ताओंने समाचार पत्रों और विजाणुंमाध्यमों द्वारा अफवाहें फैलानेका ठेका नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंके पक्षमें ले लिया है.

मोदीफोबीयासे पीडित नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके साथीयोंके द्वारा कथित उच्चारणोंसे नरेन्द्र मोदी कौनसा जानवर है या वह कौनसा दैत्य है, या वह कौनसा आततायी है, इन बातों को छोड दो. यह तो गाली प्रदान है. ऐसे संस्कारवालोंने (नहेरुवीयनोंने) इन लोगोंका नाम बडा किया है.

किन्तु भूमि अधिग्रहण विधेयक, आतंकवाद विरोधी विधेयक, उद्योग नीति, परिकल्पनाएं, विशेष विनिधान परिक्षेत्र (स्पेश्यल इन्वेस्टमेंट झोन), आदि विकास निर्धारित योजनाओं के विषय पर अनेक अफवाहें ये लोग फैलाते हैं. इसके विषय पर एक पुस्तक लिखा जा सकता है.

उदाहरण के तौर पर, भूमिअधिग्रहणमें वनकी भूमि नहीं है तो भी वनवासीयोंको अपने अधिकार से वंचित किया है, ऐसी अफवाह फैलायी जाती है. कृषकोंको अपनी भूमिसे वंचित करनेका यह एक सडयंत्र है. यह भी एक अफवाह है. क्यों कि उसको चार गुना प्रतिकर मिलता है जिससे वह पहेलेसे भी ज्यादा भूमि कहींसे भी क्रय कर सकते है.

आतंकवाद विरुद्ध हिन्दु और भारत समाज सुरक्षाः

कश्मिरके हिन्दुओंने तो कुछ भी नहीं किया था.

तो भी, १९८९९० में कश्मिरी हिन्दुओंको खुल्ले आम, अखबारोंमें, दिवारों पर, मस्जिदके लाउड स्पीकरों द्वारा धमकियां दी गयी कि, “इस्लाम कबुल करो या तो कश्मिर छोड दो. यदि ऐसा नहीं करना है तो मौतके लिये तयार रहो.” फिर ३००० से भी अधिक हिन्दुओंकी कत्ल कर दी. और उनके उपर हर प्रकारका आतंक फैलाया. लाख हिन्दुओंको अपना घर छोडना पडा. उनको अपने प्रदेशके बाहर, तंबूओंमे आश्रय लेना पडा. उनका जिवन तहस नहस हो गया है.

ऐसे आतंकके विरुद्ध दंभी धर्मनिरपेक्ष जमात मौन रही, नहेरुवीयन कोंग्रेसनेतागण मौन रहा, कश्मिरी नेतागण मौन रहा, समाचार माध्यम मौन रहा, मानव अधिकार सुरक्षा संस्थाएं मौन रहीं, समाचार पत्र मौन रहें, दूरदर्शन चेनलें मौन रहीं, सर्वोदयवादी मौन रहेंये केवल मौन ही नहीं निरपेक्ष रीतिसे निष्क्रीय भी रहे. जिनको मानवोंके अधिकारकी सुरक्षाके लिये करप्रणाली द्वारा दिये जननिधिमेंसे वेतन मिलता है वे भी मौन और निष्क्रीय रहे. यह तो ठंडे कलेजेसे चलता नरसंहार ही था और यह एक सातत्यपूर्वक चलता आतंक ही है जब तक इन आतंकवादग्रस्त हिन्दुओंको सम्मानपूर्वक पुनर्वासित नहीं किया जाता.  

एक नहेरुवीयन कोंग्रेस पदस्थ नेताने आयोजन पूर्वक २००२ में गोधरा रेल्वे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेसका डीब्बा जलाकर ५९ स्त्री, पुरुष बच्चोंको जिन्दा जला दिया. ऐसा शर्मनाक आतंक, गुजरातमें प्रथम हुआ.

गुजरात भारतका एक भाग है. वह कोई संतोंका मुल्क नहीं है, तो वह भारत में, संतोंका एक टापु बन सकता है. यदि कोई ऐसी अपेक्षा रक्खे तो वह मूर्ख ही है.

५९ हिन्दुओंको जिन्दा जलाया तो हिन्दुओंकी प्रतिक्रिया हुई. दंगे भडक उठे. तीन दिन दंगे चले. शासनने दिनमें नियंत्रण पा लिया. जो निर्वासित हो गये थे उनका पुनर्वसन भी कर दिया. इनमें हिन्दु भी थे और मुसलमान भी थे. मुसलमान अधिक थे. से मासमें, स्थिति पूर्ववत्कर दी गयी.

तो भी गुजरातके शासन और शासककी भरपुर निंदा कर दी गयी और वह आज भी चालु है.

मुस्लिमोंने जो सहन किया उसके उपर जांच आयोग बैठे,

विशेष जांच आयोग बैठे,

सेंकडोंको जेलमें बंद किया,

न्यायालयोंमें केस चले.

सजाएं दी गयी.

इसके अतिरिक्त इसके उपर पुस्तकें लिखी गयीं,

पुस्तकोंके विमोचन समारंभ हुए,

घटनाके विषय को ले के हिन्दुओंके विरुद्ध चलचित्र बने,

अनेक चलचित्रोंमें इन दंगोंका हिन्दुओंके विरुद्ध और शासनके विरुद्ध प्रसार हुआ. इसके वार्षिक दिन मनाये जाने लगें.

२००२ के दंगोमें क्या हुआ था?

२००० से कम हुई मौत/हत्या जिनमें पुलीस गोलीबारीसे हुई मौत भी निहित है.

इसमें हिन्दु अधिक थे. ११४००० लोगोंको तंबुमें जाना पडा जिनमें / से ज्यादा हिन्दु भी थे

से महीनेमें सब लोगोंका पुनर्वसन कर दिया गया.

 

इनके सामने तुलना करो कश्मिरका हत्याकांड १९८९९०

हिन्दुओंने कुछ भी नहीं किया था.

३०००+ मौत हुई केवल हिन्दुओंकी.

५०००००७००००० निर्वासित हुए. सिर्फ हिन्दुओंको निर्वासित किया गया था.

शून्य पोलीस गोलीबारी

शून्य मुस्लिम मौत

शून्य पुलीस या अन्य रीपोर्ट

शून्य न्यायालय केस

शून्य गिरफ्तारी

शून्य दंड विधान

शून्य सरकारी नियंत्रण

शून्य पुस्तक

शून्य चलचित्र

शून्य दूरदर्शन प्रदर्शन

शून्य उल्लेख अन्यत्र माध्यम

शून्य सरकारी कार्यवायी

शून्य मानवाधिकारी संस्थाओंकी कार्यवाही

यदि हिन्दुओंका यही हाल है और फिर भी उनके बारेमें कहा जाता है कि, मुस्लिम आतंकवादकी तुलनामें हिन्दु आतंकवाद से देशको अधिक भय है ऐसा जब नहेरुवीयन कोंग्रेसका अग्रतम नेता एक विदेशीको कहेता है तो इसको अफवाह नहीं कहोगे तो क्या कहोगे?

अघटित को घटित बताना, संदर्भहीन घटनाको अधिक प्रभावशाली दिखाना, असत्य अर्थघटन करना, प्रमाणभान नहीं रखना, संदर्भयुक्त घटनाओंको गोपित रखना, निष्क्रीय रहना, अपना कर्तव्य नहीं निभानाये सब बातें अफवाहोंके समकक्ष है. इनके विरुद्ध दंडका प्रावधान होना आवश्यक है.

और कौन अफवाहें फैलाते हैं?

लोगोंमें भी भीन्न भीन्न फोबिया होता है.

मोदी और बीजेपी या आएसएस फोबीया केवल दंभी धर्मनिरपेक्ष पंडितोमें होता है ऐसा नहीं है, यह फोबीया सामान्य मुस्लिमोंमें और पाश्चात्य संस्कृति से अभिभूत व्यक्तिओमें भी होता है. ऐसा ही फोबीया महात्मा गांधी के लिये भी कुछ लोगोंका होता है. कुछ लोगोंको मुस्लिम फोबिया होता है. कुछ लोगोंको क्रिश्चीयन लोगोंसे फोबीया होता है. कुछ लोगोंको श्वेत लोगोंकी संस्कृतिसे या  श्वेत लोगोंसे फोबिया होता है. वे भी अपनी आत्मतूष्टिके लिये अफवाहें फैलाते है.  ये सब लोग केवल तारतम्य वाले कथनों द्वारा अपना अभिप्राय व्यक्त करके उसके उपर स्थिर रहते हैं.

शिरीष मोहनलाल दवे

Read Full Post »

क्या ये लोग मुंह दिखानेके के योग्य रहे हैं?

नरेन्द्र मोदीकी देश में सर्वव्यापक जित हुई. भारतकी जनताने उसको बहुमतसे विजय दिलाई.

लेकिन उसके पहेले क्या हुआ था?

ऐसा माना जाता है कि एक “मोदी रोको आंदोलन” सामुहिक ढंगसे मिलजुल कर चल रहा था, तथा कुछ मूर्धन्य द्वारा, “हम कुछ हटके है” ऐसी विशेषता का आत्मप्रदर्शन और आत्मख्यातीके मानसिक रोगसे पीडित विद्वानोंने इस आंदोलनमें अपना योगदान दिया करते थे.

नरेन्द्र मोदीके विरोधी कहां कहां थे और है?

दृष्य श्राव्य माध्यम टीवी चेनल

कोई न कोई क्षेत्रमें ख्यात (सेलीब्रीटी) व्यक्ति विशेष.

कोंगी और उनके साथी नेतागण

अखबारामें कटार लिखनेवाले (कोलमीस्ट)

दृष्य श्राव्य समाचार माध्यमः

इन माध्यमोंने कभी मुद्दे पर आधारित और माहितिपूर्ण संवाद नहीं चालाये. नरेन्द्र मोदीने कहा कि धारा ३७० से देशको या कश्मिरको कितना लाभ हुआ इसकी चर्चा होनी चाहिये. तो इसके उपर फारुख, ओमर आदि नेताओंने जो कठोर शब्द प्रयोग किये और इन शब्दोंको ही बार बार प्रसारित किया गया. चेनलोंने कभी उन नेताओंको यह नहीं पूछा कि धारा ३७० से क्या लाभ हुआ उसकी तो बात करो.
चेनलोंका चारित्र्य ऐसा रहा कि जो मूलभूत सत्य है और समस्या है वह दबा दिया जाय. ऐसा ही “गुजरात मोडल”के विषय पर हुआ. जिन नेताओंने बिना कोई ठोस आधार पर कडे और अपमान जनक शब्दोंसे “गुजरात मोडल”की निंदा की, चेनल वाले सिर्फ शब्दोंको ही प्रसिद्धि देते रहे. चेनलोनें कभी उन नेताओंसे यह पूछा नहीं कि आप कौनसे आधार पर गुजरात मोडलकी निंदा कर रहे हो? चैनलोंने बुराई करने वाले नेताओंकी प्रतिपरीक्षा (क्रोस एक्जामीनेशन) भी नहीं की. उनका बतलब ही यही था कि नरेन्द्र मोदीको ही बिना आधार बदनाम करो और नरेन्द्र मोदीके और बीजेपीके बारेमें बोले गये निंदाजनक शब्दों को ही ज्यादा प्रसिद्धि दो. ऐसे तो कई उदाहरण है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसकी देन

सिझोफ्रेनीयासे पीडित

इन लोगोंको पहेचानो जो सिझोफ्रेनीयासे पीडित है(Schizophrenia एक ऐसी बीमारी है जिसमें खुदके विचारका खुदके आचारके साथ संबंध तूट जाता है और सिर्फ उनकी भावना अभद्र शब्दोंसे प्रकट होती है)

पी चिदंबरः

ये महाशय अपनेको अर्थ शास्त्री समझते है. वे अर्थ मंत्री भी रहे. अगर चाहते तो नरेन्द्र मोदीने जिस विकासके लिये जिन क्षेत्रोंको प्राथमिकता दी, और गुजरातका विकास किया, उसमें अपना तर्क प्रस्तूत कर सकते थे. ऐसा लगता है कि, ऐसा करना उनके बसकी बात नहीं थी या तो वे जनताको गुमराह करना चाहते थे.

पी चिदंबरंने क्या कहा? उन्होने कहा कि, “नरेन्द्र मोदीका अर्थशास्त्रका ज्ञान पोस्टेज स्टेंप पर लिख सके उतना ही है”. हो सकता है यह ज्ञान उनके खुदके ज्ञानका कद हो.

महात्मा गांधीने कहा था “सर्वोदय”. उनका एक विस्तृतिकरण है “ओन टु ध लास्ट”.

इसको भी समझना है तो “ईशावास्य वृत्ति रखो. इसमें हर शास्त्र आ जाता है.

नरेन्द्र मोदीने यह समझ लिया है. नरेन्द्र मोदी राजशास्त्री ही नहीं विचारक भी है.
कपिल सिब्बलः “नरेन्द्र मोदी सेक्टेरीयन है. उसने फेक एन्काउन्टर करवाये है. नरेन्द्र मोदी लघुमतियोंके लिये कुछ भी करता नहीं है. नरेन्द्र मोदी कोई भी हालतमें प्रधान मंत्री बन ही नहीं सकता. वह स्थानिक है और वह स्थानिक भी नहीं रहेगा. वह शिवसेनाके नेताओंके जैसे लोगोंके साथ दारुपार्टी करता है.”

अब ये सिब्बल महाशय खुद गृह मंत्री थे. उन्होने क्या किया? अगर नरेन्द्र मोदी संविधानके अनुसार काम करता नहीं है तो उनकी पार्टी की सरकार कदम उठा सकती थी. वे क्युं असफल रहे? यह कपिल सिब्बल भी सिझोफ्रेनीया नामवाला मानसिक रोगसे पीडित है.

मनमोहन सिंहः वैसे यह महाशय प्रधान मंत्री है तो भी रोगिष्ठ है. उन्होने कहा नरेन्द्र मोदी अगर प्रधान मंत्री बने तो भारतके लिये भयजनक है. कैसे? वे खुद प्रधान मंत्री है तो भी उनके लिये वे यह आवश्यक नहीं समजते है कि वे यह बताये कि किस आधार पर वे ऐसा बता रहे है. क्या गुजरातकी हालत भय जनक है? अगर हां, तो कैसे? वास्तवमें उनकी यह रोगिष्ट मानसिकता है. अगर प्रधानमंत्री जनताको गुमराह करेगा तो वह देशके लिये कितना भयजनक स्थितिमें पहोंचा सकता है? आगे चल कर यह प्रधान मंत्री यह भी कहेते है कि मोदी उनके पक्षके पक्षके लिये बेअसर है.

“मोदी तो बिना टोपींगवाला पीझा है” अनन्त गाडगील कोंगीके प्रवक्ता

“मोदी तो फुलाया हुआ बलुन है” वह शिघ्र ही फूटने वाला है” शरद पवार.

“मोदी हिटलर है और पॉलपोट (कम्बोडीयन सरमुखत्यार) है” शान्ताराम नायक कोंगी एम.पी.

“मोदी कोई परिबल ही नहीं है. वह समाचार माध्यमका उत्पादन है. मोदी तो भंगार (स्क्रॅप) बेचनेवाला है. मोदी तो गप्पेबाज यानी कि “फेकु” है, बडाई मारनेवाला है” दिग्विजय सिंह जनरल सेक्रेटरी कोंगी.

“नरेन्द्र मोदी तो बंदर है. लोग मोदी बंदरका खेल देख रहे है. नरेन्द्र मोदी नपुंसक है” सलमान खुर्शिद कोंगी मंत्री.

“नरेन्द्र मोदी भस्मासुर है” जय राम रमेश कोंगी मंत्री

“नरेन्द्र मोदी मेरी गीनतीमें ही नहीं है. “ राहुल कोंगी उप प्रमुख

“हमारे पक्ष के लिये मोदी बेअसर है. हमारे लिये उसका कोई डर नही” गुलाम नबी आझाद. कोंगी मंत्री

“नरेन्द्र मोदी? एक दिखावा है. बीके हरिप्रसाद, राज बब्बर, शकील एहमद, कोंगी नेता.

“नरेन्द्र मोदी एक कोमवादी चहेरा है” चन्द्रभाण. कोंगी प्रमुख राजस्थान

“मोदी एक निस्फलता है” अजय माकन कंगी जनरल सेक्रेटरी

“मोदी एक चमगादड है” ईन्डो एसीअन न्युज सर्वीस (ई.ए.एन.एस)

“मोदी लघुमतियोंका दुश्मन है” सुखपाल सिंग खेरा कोंगी पंजाब प्रमुख

“मोदी रेम्बो बनना चाहता है” मनीश तिवारी कोंगी मंत्री

“मोदी बीजेपीको जमीनमें ८ फीट नीचे गाड देगा. यह निश्चित है.” फ्रान्सीस्को कोंगी प्रमुख गोवा

“मोदी धर्मांधताका प्रतिक है.” रमण बहल कोंगी कारोबारी सदस्य.

“मोदी अपनेको सुपरमेन समजता है. मोदी तो रेम्बो है. मोदी रावण है” सत्यव्रत कोंगी नेता

“मोदी त्रास फैलानेवाला है. रेम्बो बनने के लिये दिमाग जरुरी नहीं है” रेणुका चौधरी कोंगी नेता.

“मोदी और बीजेपीको मानने वालोंको समूद्रमें डूबो दो” फारुख अब्दुला

“मोदी और बीजेपीको मानने वालोंके टूकडे टूकडे करदो” आझमखान

“नरेन्द्र मोदी धर्मांध जुथका प्रतिक है, नरेन्द्र मोदी कोमवादी है उसको हराओ. अगर मोदी प्रधान मंत्री बन गया तो देश विभाजित हो जायेगा. यह समयका तकाजा है कि मोदीको रोका जाय” महेश भट्टा, इम्तीआझ अली, विशाल भारद्वाज, नन्दिता दास, गोविन्द निहलानि, सईद मिर्झा, झोया अख्तर, कबीर खान, शुभा मुद्गल, अदिति राओ हैदरी, आदिने एक निवेदन करके जनहितमें प्रकाशित करवाया.

“अगर नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बन गया तो मैं बोलीवुड छोड दूंगा और जाति परिवर्तन (सेक्स चेन्ज) करवा लुंगा” बोली वुडका कमाल खान

“अगर नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बन गया तो मैं राजकारण छोड दूंगा” देव गौडा पूर्व प्रधान मंत्री.

इन नेताओंने ऐसी छूट कैसे ली? क्यों कि उनकी शिर्ष नेता सोनीया (एन्टोणीया)ने नरेन्द्र मोदीको मौतका सोदागर और गुजरातकी जनताको गोडसे की ओलादें कहा था.

मीडीयाके मूर्धन्य जो अपनी कोलम चलाते है. उनका नैतिक कर्तव्य है राजकीय गतिविधियोंका और विचारोंका विश्लेषण करना और जनताको जागृत करना. लेकिन क्या उन्होने यह कर्तव्य निभाया?

ये कोलमीस्ट कौन थे?

उदाहरण के लिये हम गुजरातकी बात करेंगें. दिव्य भास्कर एक नया नया समाचार पत्र है और कुछ वर्ष पहेले ही उसने पादार्पण किये है लेकिन उसने पर्याप्त वाचकगण बना लिया है. उसके कोलमीस्ट को देखें. जो बीजेपी और नरेन्द्र मोदीके विरोधी थे उनका वैचारिक प्रतिभाव और तर्क कैसा रहा?

सनत महेताः

जो खुद नहेरुवीयन कोंग्रेसके होद्देदार थे. सरकारमें १९६७-१९६९, १९७१-९७५, १९८१-१९९५ गुजरात सरकारमें मंत्री भी रह चूके है. यह सनत महेता का इतिहास क्या है? सर्व प्रथम वे पीएसपी (प्रजा सोसीयालीस्ट पक्षमें थे).
नहेरु भी अपनेको समाजवादीके रुपमें प्रस्तूत करते रहते थे. उन्होने खुदकी विचारधाराका नाम बदलते बदलते “लोकशाहीवादी समाज रचना” का नामकरण किया. स्वतंत्र-पक्ष अपना जोर जमाने लगा. इस स्वतंत्र पक्षमें दिग्गजनेता थे. चीनकी भारत पर “केकवॉक” विजयके बाद और नहेरुकी मृत्युके बाद इन्दिराने खुदको और पिताजीकी यथा कथित विचारधाराको मजबुत करनेके लिये इस प्रजा सोसीयालीस्ट पक्षको पटा लिया.

भारतमें उस समय एक और समाजवादी पक्ष भी था जो “संयुक्त समाजवादी पक्ष” नामसे जाना जाता था. उसके नेता डॉ. राममनोहर लोहिया थे. उनको नहेरुवीयनोंका वैचारिक दंभ मालुम था इस लिये उनका पक्ष इन्दिराके पक्षमें संमिलित नहीं हुआ.

लेकिन यह सनतकुमार का जुथ (अशोक महेता इसके नेता थे) नहेरुकी कोंग्रेसमें विलयित हो गया. इन्दिरा ने देखा कि अपने पिताजीने अपनी बेटीको सत्ता पर लानेके लिये जो सीन्डीकेट बनायी थी वह तो खुदके उपर हामी हो रही है और उसमेंसे कुछ लोग तो दक्षिण पंथी है तब उसने पक्षमें फसाद करके एक नया पक्ष बनाया जो कोंग्रेस आई (कोंग्रेस इन्दिरा) नामसे प्रचलित था. जो मूल कोंग्रेस पक्ष था, जिसके उपर संस्थाकी पकड थी यानी की जिनमें कारोबारीके ज्यादा सदस्य थे उस पक्षका प्रचलित नाम था कोंग्रेस (संस्था). इस तरह कोंग्रेस तूटी. गुजरातमें मोरारजी देसाई जो कोंग्रेस (संस्था)में थे. और कोंग्रेस (संस्था) गुजरातमें राज करती थी.

एक पक्षमेंसे दुसरे पक्षमें कूदनेमें सर्व प्रथम

अविभाजित कोंग्रेसमेंसे कोंग्रेस (आई)में कूदके जाने वालोंमें सनतकुमार और उनके दो तीन मित्र (रसिकलाल परिख, रतुभाई अदाणी, छबीलदास महेता) थे. बादमें कोंगीकी सरकारें ही ज्यादातर गुजरातमें आयी और उसमें यह महाशय मंत्री के रुपमें हमेशा शोभायमान रहेते थे. ये महाशय अविभाजित कोंग्रेसमें भी मंत्री थे. यह महाशय २२+ वर्ष तक मंत्री रहे. उस समय भी गुजरातके पास समूद्र था, समूद्र किनारा था, कच्छका रण था, नर्मदा नदी भी थी. नर्मदा डॅम की योजना भी थी. प्राकृतिक गेस भी था, जंगल भी था, गरीबी भी थी. विकासके लिये जो कुछ भी चाहिये वह सबकुछ था. जंगल तो उनके समयमें सबसे ज्यादा कट गये. समाजवादी होनेके नाते यहां सरकार द्वारा कई योजनाएं लागु करनेकी थी. हररोज एक करोड रुपयेका गेस हवामें जलाया जाता था, क्यों कि गेस भरनेके सीलीन्डर नहीं थे. गेसके सीलीन्डर आयात करनेके थे. आयात करनेमें इन्दिराका समाजवाद, अनुज्ञापत्र(परमीट), अनुज्ञप्ति (लायसन्स) का प्रभावक कैसे धनप्राप्तिके लिये उपयोगमें लाया जाय यह एक भ्रष्ट समाजवादीयोंके लिये समय व्ययवाली समस्या होती है.

नर्मदा डेम, मशीन टूल्सकी फेक्टरी, बेंकोका राष्ट्रीयकरणका राजकीय लाभ कैसे लिया जाय यह सब में ये समाजवादी लोग ज्यादा समय बरबाद करते है. इन प्रभावकोंका ये लोग लोलीपोप की तरह ही उपयोग किया करते है. तो यह सनत महाशय अपनी २३ सालकी सत्ताके अंतर्गत जो खुद कुछ नहीं कर पाये, वे अपने को एक अर्थशास्त्रके विशेषज्ञ समझने लगे है, और सरकार (बीजेपी सरकार) को क्या करना चाहिये और क्या क्या नहीं कर रही है और क्या क्या गलत कर रही है ऐसा विवाद खडा करने लगे, ताकि एक ऋणात्मक वातावरण बीजेपी सरकारके लिये बने.

मल्लिका साराभाईः

कितने हजार घारोंमें बिजली नहीं पहोंची, महिला सशक्ति करण क्यों नहीं हो रहा है, जंगलके लोग कितने दुःखी है, आदि बेतूकी बाते जिसमें कोई ठोस माहिति न हो लेकिन भ्रम फैला सके ऐसे विवाद खडे करती रहीं. हकारत्मक बातें तो देखना ही वर्ज्य था.

प्रकाशभाई शाहः

यह भाईसाब अपनेको गांधीवादी या अथवा तथा सर्वोदयवादी या अथवा तथा ग्रामस्वराज्यवादी समझते है. विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधाराने एक उपोत्पादन (बाय-प्रोडक्ट) बनाया है. प्रकाशभाई जैसे व्यक्ति ऐसा ही एक उपोत्पादन (उप- उत्पादन) यानी कि बाय प्रोडक्ट है. बाय प्रोडक्ट बाय प्रोडक्ट में फर्क होता है. गेंहु, चावल, चने आदिका जब पाक (क्रॉप) होता है तो साथ साथ बावटा, बंटी, अळशी, और कुछ निक्कमी घांस भी उग निकलती है. तो विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधाराकी जो मानसिकता होती है उसके साथ साथ कुछ ऐसे (वीड=weed, गुजरातीमें वीड को निंदामण कहेते है) मानसिकतावाली बाय प्रोडक्ट (वीड) भी उग निकलती है. कोई वीड उपयोगी होती है, कोई वीड हवामें फैलके हवा बिगाडती है. वीड एलर्जीक भी होती है. हमारे प्रकाशभाई विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधारासे उत्पन्न हुई एक वीड है. इस वीडको नरेन्द्र मोदीकी एलर्जी है.

प्रकाशभाईके लेखको आपको समझना है? तो कागज और कलम लेके बैठो. उन्होनें जो वाक्य बनाये है उनके शब्दोंकों लेकर वाक्य को विभाजित करो. और फिर अर्थ निकालो. आपको तर्क मिलेगा नहीं. लेकिन आप उस वाक्यको कैसे सही माना जाय, उस विषय पर दिमाग लगाओ. आपको संत रजनीशकी याद आयेगी. लेकिन आप ऐसा तो करोगे नहीं. आप सिर्फ उसमेंसे क्या संदेश है, क्या दिशा सूचन है वही समझोगे. बस यही प्रकाशभाईका ध्येय है.

मतलबकी लेखमें नरेन्द्र मोदीको एक पंच मारना आवश्यक हो या न हो, एक पंच (punch) अवश्य मारना. पंच मारनेका प्रास्त्युत्य (रेलेवन्स) हो या न हो तो भी.
ऐसा क्युं? क्योंकी हम अहिंसाके पूजारी है. विनोबा भावे, महात्मा गांधी और जयप्रकाश की विचारधाराके अनुयायी है. नरेन्द्र मोदी २००२ वाला है.

कान्तिभाई भट्टः

ये भाईसाब शीलाबेनके पति है. वैसे तो वे भी ख्यातनाम है. जबतक आरोग्यके बारेमें लिखते है तब तक अच्छा लिखते है. कुदरती चिकित्सा (नेचरोपथी)का खुदका अनुभव है इसलिये उसमें सच्चाईका रणकार मिलता है.

लेकिन अगर हम कटार लेखक (कोलमीस्ट) है तो सब बंदरका व्यापारी बनना पडेगा ही. राजकारण को हाथमें लेना आसान होता है.

कटार लेखन की शैली ऐसी होनी चाहिये कि हम वाचकोंको विद्वान लगे.

विद्वान हम तभी लगेंगे कि हम बहुश्रुत हो.

बहुश्रुत हम तभी लगेंगे कि हमारा वाचन विशाळ हो.

वाचकोंको हमारा वाचन विशाल है वह तब लगेगा कि हमने जो वाक्य उद्धृत किये हो उनमें हम लिखें कि फलां फलां व्यक्तिने यह कहा है. इसमें हम मान लेते हैं कि यह तो कोई महापुरुषने कहा है इसलिये यह तो स्वयं सिद्ध है. तर्क की कोई आवश्यकता नहीं. प्रास्तूत्य होना यह भी आवश्यक नहीं है.

समजमें नहीं आया न? तो आगे पढो…

मेगेस्थीनीसने अपने “फलां” पुस्तकमें लिखा कि सिकंदर एक ऐसा महापुरुष था कि वह हमेशा चिंतनशील रहेता था. एक शासकको चाहे छोटा हो या बडा, उसके लिये चिंतन करते रहेना अति आवश्यक है. खुदने जो काम किया वह अच्छी तरह किया था या नहीं? अगर अच्छी तरह किया था तो क्या उससे भी अच्छा किया जा सकता था या नहीं? उसका चिंतन भी करना जरुरी है. नरेन्द्र मोदीको आगे बढने कि घेलछा है, लेकिन क्या उसने कभी चिंतन किया है? यह उसकी मनोवृत्ति कभी बनी है क्या?

कान्तिभाईको इससे आगे सिद्ध करेनी जरुरत नहीं है. उनके हिसाबसे जो कहेना था वह अपने आप सिद्ध हो जाता है ऐसा वे मानते है.

अगर लेटेस्ट उदाहरण चाहिये तो आजका (ता. २०-०५-२०१४ का दिव्यभास्कर देखो).

लेखकी शिर्ष रेखा है “नरेन्द्र मोदी आनेसे किसान बनेगा बेचारा, और विदेशी कंपनियां न्याल हो जायेगी”.

हो सकता है कि यह लेखकी शिर्ष रेखा समाचार पत्रके संपादकने बनायी हो. अगर ऐसा है तो संपादककी मानसिकताको भी समझ लो.

कान्तिभाई अपने लेखमें क्या लिखते है?

“भावनगर राज्यके कृष्णकुमार सिंह किसानका बहुत खयाल रखते थे,

“शरद पवार अरबों पति किसान है. महाराष्ट्र के एक जिलेमें २०१०में एक ही महिनेमें ३७ किसानोंने आत्म हत्या की.

“मुंबईसे सिर्फ १२७ मील दूरस्थ यवतमाल गांव में मारुति रावने लोन लेके महंगे बीटी कोटन और विलायती खाद खरीद किया. फसल निस्फल हुई तो उसने आत्महत्या की, उसकी पत्नी उषाने ऋण अदा करनेके लिये १४ एकर जमीन बेच दी. और वह खेत-मझदुर बन गई. महाराष्ट्र सरकारने राहतका काम किया लेकिन बाबु लोग बीचमें पैसे खा जाते है. जंतुनाशक दवाईयां जो विकसित देशमें प्रतिबंधित है लेकिन शरद पवारके महाराष्ट्रमें वे सब कुछ चलती है. यह दवाईयां विषयुक्त है, और खुले पांव आपको खेतमें जाना मना है, फिर भी किसान खुले पांव जाता है. और मौतका शिकार होता है.

आगे चलकर लेखक महाशय, यह कीट नाशक दवाईयां, विदेशी जेनेटिक बीज आदि के भय स्थानका वर्णन करते है.केन्द्र की बुराईयां और अमेरिकाकी अच्छाईयां की बात करते है. भारतमें ईन्ट्रनेट व्याप्ति की बात करते है.

फिर मोदी के चूनाव प्रचारकी बात करते है फिर मोदीको एक पंच मारते है कि मोदी जनता को क्या लाभ कर देने वाला है? (मतलब की कुछ नहीं). फिर एक हाईपोथेटीकल निष्कर्ष निकालते है. नरेन्द्र मोदी द्वारा कायदा कानुन आसान किया जायगा और अंबाणीको फायदा होगा. नयी सरकार (मोदी सरकार), विदेशी कंपनीयोंके साथ गठबंध करेगी और उनको न्याल करेगी. कहांकी बाते और कहां का कही निष्कर्ष?

पागल बननेकी छूट

चलो यह बात तो सही है और संविधान उन लेखकोंकी स्वतंत्रता की छूट देता है कि वे बिना कोई मटीरीयल और तर्क, गलत, जूठ और ऋणात्मक लिखे, जब तक वह खुद, अपने लाभसे दूसरेको नुकशान न करें वह, क्षम्य है. लेकिन गाली प्रदान करना और अयोग्य उपमाएं देना गुनाह बनता है. यह बात मोदीके सियासती विरोधीयोंको लागु पडती है. इनमें ऐसे वितंडावाद करनेवाले मूर्धन्य भी सामेल है.

ये ऐसे मूर्धन्य होते है जो ६०सालमें जिन्होंने देशको पायमाल किया, उसके बारे में, एक लाईनमें लिख देते है, लेकिन जो सरकार आने वाली है और जिसके नेताने अभी शपथ भी ग्रहण किया नहीं उसके बारेमें एक हजार ऋणात्मक धारणाएं सिद्ध ही मान लेते है.

जनता को गुमराह करनेवालोंको आप कुछ नहीं कर सकते. क्यों कि लोकतंत्रमें पागल होना भी उनका हक्क है.

जिन महानुभावोंने घोषणा की, कि, अगर मोदी प्रधान मंत्री बना तो वे पाकिस्तान चले जायेंगे. इन लोगोंकी मानसिकता और तर्क का निष्कर्ष निकालें.

ये महानुभाव पाकिस्तानको क्यों पसंद करते है?

नरेन्द्र मोदीवाले भारतकी अपेक्षा पाकिस्तानी सियासत भारतसे अच्छी है.

सर्व प्रथम निष्कर्ष तो यह निकलता है न? क्यों? क्यों कि नरेन्द्र मोदी कोमवादी है. वह अल्पसंख्यकोंका दुश्मन है.

पाकिस्तान कैसा है?

आझादी पूर्व इस प्रदेशमें १९४१में ४० प्रतिशत हिन्दु थे. १९५१ तक भारतमें १.५ करोड हिन्दुओंने स्थानांतर किया. जो १९४१ में २५ प्रतिशतसे ज्यादा थे अब वे २ प्रतिशत या उससे भी कम रह गये हैं. उसके बाद भी हिन्दु वहांसे निकाले जाने लगे.
यह वह पाकिस्तान है जिसका आई.एस.आई. और मीलीटरी मिलकर भारतमें आतंकवादी सडयंत्र चलाते हैं.

इन्होने हमारे कश्मिरमें ३००० हिन्दुओंको १९८९-९० की कत्लेआममें मौतके घाट उतार दिया. और ५-७ लाख हिन्दुओंको भगा दिया.

यह वह पाकिस्तान है जहां पर ज्यादातर लश्करी शासन रहा है.

ऐसा पाकिस्तान, इन मूर्धन्योंको गुजरातके नरेन्द्र मोदीके भारतसे अच्छा लगता है.

क्यों कि इस गुजरातमें मोदीके शासनमें एक भी मुसलमान बेघर रहा नहीं.

एक भी मुसलमान हिन्दुओंके डर की वजहसे पाकिस्तान भाग गया नहीं.

इस गुजरातमें अक्षरधाम पर आतंकवादी हमलावरोंने ३० को मौतके घाट उदार दिया था और कईयोंको जक्ख्मी किया,

२००८में कई बोम्बब्लास्ट किया, जिनमें ५६ को मौतके घाट उतारा और ३०० जक्ख्मी किया,

उसके बावजुद,

नरेन्द्र मोदीने परिस्थितिको सम्हाला और एक भी मुसलमान न तो मारा गया और न तो डरके मारा कोई पाकिस्तान भाग गया.

तो अब आप निर्णय करो किसके दिमागमें कीडे है?

संविधानमें संशोधन अनिवार्य लगता है कि जो लोग इस प्रकार बेतूकी बातें करके खुदकी कोमवादी और लघुमतिको अलग रखनेकी, वोटबेंककी नीति उकसानेकी और कोम कोमके बीच घृणा फैलानेका काम करते है और जो वास्तवमें मानवता वादी है ऐसे नेता पर कोमवादी होनेका आरोप लगाते हैं उनके उपर कानूनी कर्यवाही करके कारावासमें बंद कर देना चाहिये.

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः नरेन्द्र मोदी, जीत, मोदी रोको, मूर्धन्य, कोलमीस्ट, कोंगी, धारा ३७०, ओमर, फारुख, गुजरात, मोडल, अभद्र शब्द, चिदंबर. कपिल सिब्बल, गुमराह, शरद पवार, सनत मेहता, कान्ति भट्ट

Read Full Post »

झिम्बो कम्स टु टाउन यानी केज्रीवाल कम्स  टु गुजरात

झिम्बो कम्स टु टाउन

टीवी चेनल

एक पेईड टीवी चेनल वालेने कहा मोदी गभरा (डर) गया है. अब तक मोदी सवाल पूछता था. अब मोदी गभरा गया है उसको लगा, अरे ये सवाल पूछने वाला और कहांसे पैदा हो गया?

टीवी चेनल पर टीपणी करना व्यर्थ है. उनको अपने पेटके लिये पाप करने पडते है. नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताओंको और टीवी चेनलोंको अपने अस्तित्वको सिद्ध करनेके लिये या बनाये रखने के लिये कुछ न कुछ व्यर्थ और अर्थहिन बातें करनी पडती है.

नहेरुवीयन कोंग्रेस वाले पैसे देतें है. चेनलवाले अगर पैसे मिलते है तो क्यूं छोड दें? सवाल पूछना कोई बडी बात नहीं है.

अखबारी कटारीया (Columnist)

केजरीवाल जटायु इसलिये नरेन्द्र मोदी रावण

यह कटारीया महाशय वैसे तो नरेन्द्र मोदीको कटारीया, पंच (मुक्का) मारने का मौका ढूंढते ही रहते है, और अगर मौका न मिले तो भी नरेन्द्र मोदीको विशेष्य बनाके एक पंच लगा ही देते है. इस महाशयने केज्रीवालको जटायु का नामाभिकरण करके नरेन्द्र मोदीको रावण घोषित कर दिया. नरेन्द्र मोदीने कौनसी सीताका अपहरण किया है, इस बात पर यह भाईसाब मौन है. ऐसा व्यवहार वैसे तो नहेरुवीयन कोंग्रेसी संस्कार है. नहेरुवीयन कोंग्रेसी कल्चर यह है कि बस कथन करते जाओ और कैसा सुंदर कहा ऐसा गर्व लेते जाओ. इन्दीरा गांधीने भी १९६८में कहा था कि मेरे पिताजी तो बहूत कुछ करना चाहते थे लेकिन ये सब बुढे लोग उनको करने नहीं देते थे. उस समयके समाचार माध्यमोंने और मूर्धन्योंने तालीयां बजायी थी. ईसी कारणसे तो इन्दीर गांधीका होसला बढा था और भारतीय जनताको नहेरुवीयनोंकी आपखुदी देखनी पडी थी और देशको हरेक क्षेत्रमें पायमाली देखनी पडी थी.  

सवाल है थ्री नोट थ्री

खुदको एक गांधी वादी और सर्वोदयी मानने वाला कटारीयाने [कटार लेखकने (प्रकाश शाहने)] दिव्यभास्कर ८, मार्च में अपनी कटारमें (कोलममें) कहा, केजरीवालने नरेन्द्र मोदी को थ्री नोट थ्री टाईप सवाल पूछे.

कटारीया लेखकश्रीको शायद मालुम नहीं है, कि, थ्री नोट थ्री का मतलब क्या होता है. शब्दों पर बलात्कार करना मूर्धन्योंको शोभा नहीं देता. कटारीया लेखकश्रीजीको मालुम होना चाहिये कि थ्री नोट थ्री लगने पर आदमी जिंदा रहेता नहीं है. और जो सवाल केज्रीवालने पूछे वे सब सवाल देशकी सभी सरकारोंको पूछा जा सकता है. अगर सवालोंके पीछे भ्रष्टाचारोंकी सच्चाई है तो केन्द्रमें नहेरुवीयन कोंग्रेसकी सरकार है. उसको पहेले पूछो. अगर वह भी भ्रष्ट है तो पब्लिक ईन्टरेस्ट पीटीशन दाखिल करनेसे किसको कौन रोकता है?    

उसने यह भी कहा जो सुत्र हमने उससे ही पढा कि, “शीला दिक्षितको हराया है अब मोदीकी बारी है.” प्रासानुप्रास से सत्य तो सिद्ध नहीं होता है लेकिन हमारे कटारीया लेखक इसमें भावी संभावना देखते है और खुश होते है.  कटारिया लेखकश्री लिखते है; “एक (भ्रष्टाचारकी) प्रतिमा (शीला दिक्षित)को खंडित किया है. इसलिये दुसरी प्रतिमा (नरेन्द्र मोदी) भी खंडित हो सकती है.” इति सिद्धम्‌. महात्मा गांधी स्वर्गमें शायद अपने अनुयायी के ऐसे तर्कसे आहें भरतें हो गये होगे.

इमानदारी निश्चित करनेका केज्रीवालके पास यंत्र है

नहेरुवीयन कोंग्रेस तो भ्रष्ट है ही, इसलिये केज्रीवाल नहेरुवीयन कोंग्रेसके नहीं है. केज्रीवाल को बीजेपी का साथ भी नहीं चाहिये क्यों कि, बीजेपी भी भ्रष्ट है. आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार मात्रके विरुद्ध है. इसलिये वह अपने पक्षमें सभी उम्मिदवारोंकी पार्श्व भूमि देखके जांच करके उनका चयन करती है. जब तक सत्ता नहीं होती है, सब लोग इमानदार होते है. बच्चा अपने जन्मके साथ भ्रष्टाचारी होता नहीं होता है. शायद इस बात केज्रीवालको मालुम नहीं होगी.

जे एल नहेरु भी इमानदार थे. भ्रष्टाचार केवल आर्थिक भ्रष्टाचार नहीं हो सकता. अविधेय और अनीतिमान तरिकोंसे सत्ता प्रप्त करना, जूठ बोलना, छूपाना, दूसरोंका हक्क छीन लेना, अपमान करना, भेदभरम करना, वेतन लेना किन्तु काम कम करना, देरसे आना, आदि सब भ्रष्टाचार ही है. भ्रष्टाचारके बारेमें नहेरुवीयन खानदानसे ज्यादा अच्छी मिसाल नहीं मिल सकती.

भ्रष्टाचार एक सापेक्ष होता है. प्रमाणभान की प्रज्ञासे ही ज्ञात हो सकता है कि किसको प्राथमिकता देनी चाहिये. हमारी गति ज्यादासे कम भ्रष्टाचारी की दिशामें होनी चाहिये. क्यों कि निरपेक्षता पूर्ण नीतिमत्ता वाला कोई होता ही नहीं है. जैसे अहिंसा सापेक्ष है वैसे ही भ्रष्टाचार भी सापेक्ष है. लेकिन केज्रीवाल को शायद यह बात मालुम नहीं है.

समय मिलने पर कौन कब भ्रष्टाचारी बन जायेगा इस बातका किसीको भी पता नहीं है. महात्मा गांधी खुद नहेरुको पहेचान नहीं पाये थे कि, वह सत्ताके लोभमें देशके अर्थ तंत्रको और देशकी शासन व्यवस्थाको गर्तमें ले जायेगा. तो यह केज्रीवाल कौन चीज है?

देखो नहेरु, गांधीजीके बारेमें कैसा सोचते थे? पढो निम्न लिखित पैरा.

नहेरु की दृष्टिमें महात्मा गांधीः
कुछ लोग समझते है कि महात्मा गांधी को नहेरु बहुत प्रिय थे. वास्तवमें ऐसा नहीं था. लेकिन गांधी तत्कालिन कोंग्रेसको तूटनेसे बचाना चाहते थे. खण्डित भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गांधीजीके बारे में कहा था – ” ओह दैट आफुल ओल्ड हिपोक्रेट ” Oh, that awful old hypocrite – ओह ! वह ( गांधी ) भयंकर ढोंगी बुड्ढायह पढकर आप चकित होगे कि क्या यह कथन सत्य हैगांधी जी के अनन्य अनुयायी दाहिना हाथ मानेजाने वाले जवाहर लाल नेहरू ने ऐसा कहा होगाकदापि नहींकिन्तु यह मध्याह्न के सूर्य की भाँति देदीप्यमान सत्य हैनेहरू ने ऐसा ही कहा था प्रसंग लीजियेसन 1955 में कनाडा के प्रधानमंत्री लेस्टर पीयरसन भारत आये थेभारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ उनकी भेंट हुई थी भेंट की चर्चा उन्होंने अपनी पुस्तक इन्टरनेशनल हेयर्समें की है
सन 1955 में दिल्ली यात्रा के दौरान मुझे नेहरू को ठीकठीक समझने का अवसर मिला थामुझे वह रात याद हैजब गार्डन पार्टी में हम दोनों साथ बैठे थेरात के सात बज रहे थे और चाँदनी छिटकी हुई थीउस पार्टी में नाच गाने का कार्यक्रम थानाच शुरू होने से पहले नृत्यकार दौडकर आये और उन्होंने नेहरू के पाँव छुए फिर हम बाते करने लगेउन्होंने गांधी के बारे में चर्चा कीउसे सुनकर मैं स्तब्ध हो गयाउन्होंने बताया कि गांधी कैसे कुशल एक्टर थेउन्होंने अंग्रेजों को अपने व्यवहार में कैसी चालाकी दिखाईअपने इर्दगिर्द ऐसा घेरा बुनाजो अंग्रेजों को अपील करे गांधी के बारे में मेरे सवाल के जबाब में उन्होंने कहा – Oh, that awful old hypocrite नेहरू के कथन का अभिप्राय हुआ – ” ओह ! वह भयंकर ढोंगी बुड्ढा( ग्रन्थ विकास , 37 – राजापार्कआदर्शनगरजयपुर द्वारा प्रकाशित सूर्यनारायण चौधरी की ‘ राजनीति के अधखुले गवाक्ष ‘ पुस्तक से उदधृत अंश )

नेहरू द्वारा गांधी के प्रति व्यक्त इस कथन से आप क्या समझते है?

महात्मा गांधी जैसा महान आर्षदृष्टा भी नहेरु कभी ऐसा बोल सकते है वह समझ नहीं पाये. यह बात सही है कि शायद नहेरुके पागलपनसे ही उन्होने कोंग्रेसको समाप्त करनेकी सलाह दी थी. लेकिन जो नहेरु क्रीप्स कमीशनका बहिष्कार नही कर सकता था वह सत्ता देनेवाली कोंग्रेसका कैसे विलोप कर सकता है. सरदार पटेल नहेरुके भरोसे कोंग्रेसको और देशको छोडना नहीं चाहते थे. इसलिये जब तक सरदार पटेल थे तब तक न तो तिबत्त पर चीन हमला कर सका न तो भारत सरकारने चीन का सार्वभौमत्व तिबत्त पर स्विकारा, न तो भारत सरकारने पंच शील का करार चीनके साथ किया.       

सवालों के आधार पर केज्रीवालका ग्लोरीफीकेशन?

छोटे बच्चे भी कई सवाल करते है. सवाल करके अपना ज्ञान बढाते है और दुनियाको समझते है. लेकिन जब मनुष्यकी उम्र बढती है तो वह वह सवाल कम पूछता है और जवाब अपने आप ढूंढता है. और जवाब ढूंढनेके लिये दूसरोंसे सलाह मशवरा करता है.

केज्रिवालने क्या किया?

उसने गुजरातमें आनेसे गुजरातकी पोल खोलनेका मनसुबा बना लिया था. केज्रीवाल के एक साथीने तो उद्घोषित भी कर दिया कि, नरेन्द्र मोदी यह बताये कि वह कहांसे चूनाव लडने वाला है. हमारे केज्रीवाल वहांसे ही चूनाव लडेंगे. हमारे उपरोक्त खुदको गांधीवादी मनानेवाले कटारीया लेखश्रीने तो लिख ही दिया जब नरेन्द्र मोदीको पता चला कि अगर वह बनारससे चूनावके लिये खडा रहेगा तो केज्रीवाल उसके सामने खडा रहेगा. तो नरेन्द्र मोदीने अब बनारससे चूनाव लडना रद कर दिया है. वैसे नरेन्द्र मोदीके बारेमें और उसके व्यावहारोंके बारेमें उसके विरोधींयोंने अफवाहें फैलानेका बडा शौक बना रखा है. वे अफवाहोंवाली भविष्यवाणी भी करते हैं और खुदको खुश करते हैं.

अफवाहें फैलाओ और तत्कालिन खुश रहो

गुजरातीमे एक मूंहावरा है. मनमें ही मनमें शादी करो (खुशी मनाओ) और बादमें रंडापा भी भुगतो. क्योंकि वास्तविक शादी तो की ही नहीं है.  [मनमांने मनमां परणो अने मनमांने मनमां पछी रांडो].

वैसे तो सियासतमें ऐसी प्रणाली नहेरुने चालु की थी. ईन्दीराने सरकारी तौरसे अफवाहें फैलानेका बडे पैमाने पर चालु किया था. आपतकाल इन्दीराई सरकारके लिये अफवाहें फैलानेका सुवर्णकाल था. यह तो नहेरुवीयन कोंग्रेसीयों की आदत ही बन गई है. तो उनके साथमें वैचारिक या मानसिकता से साथ रहनेवाले कैसे अलिप्त रहें? “अगर गैया भी गधोंके साथ रहें तो कमसे कम लात मारने की आदत बना ही देती है”. वैसे तो ये नहेरुवीयन कोंग और उसके साथी गैया जैसे नहीं है. वैसे तो ये सब नहेरुवीयन कोंग्रेसकी तरह वृकोदर ही है.

मान न मान मैं तेरा महेमान?

गुजरातकी नहेरुवीयन कोंगीनेता नेताने कहा कि नरेन्द्र मोदीको केजरीवालको मिलना चाहिये था.  केजरीवाल तो गुजरातका महेमान था. महेमानको मिलनेसे इन्कार करना महेमानका अपमान है.  केज्रीवालने भी यह बात दोहराई है.

गुजरातके महेमान केज्रीवाल

यह एक ऐसा महेमान है, जिसने नरेन्द्र मोदीको कहा ही नहीं कि मुझे तुम्हे मिलना है. केज्रीवालने यह अवश्य कहा कि, मैं गुजरातकी पोल खोलने वाला हुं. चलो इस बातका स्विकार करते है कि, महेमान तिथि बताके आते नहीं है. लेकिन क्या कभी महेमान, पहेले पूरा घुमघामके यजमान की भरपेट बुराई करके यजमानके पास जाते है? 

महेमानने क्या किया?

केज्रीवालने सबसे पहेले तो भरपेट रेलीयां की. वैसे रेलियों की गुजरातमें कमी नहीं. क्यों कि नहेरुवीयन कोंग्रेस यही काम ११ सालोंसे गुजरातमें कर रही है. जब पूरे देशमें आपतकाल था और सभा सरघसकी पाबंदी थी, तब गुजरातमें कुछ समय तक जनता मोरचेकी महात्मा गांधीवादी बाबुभाई जशभाईकी सरकार थी. बाबुभाई जशभाईने लोकशाही मूल्योंको नष्ट किया नहीं था. तब ये नहेरुवीयन कोंग्रेसी बाबुभाई जशभाई पटेलकी सरकारके विरुद्ध प्रदर्शन करते ही रहते थे. इन्दीरा गांधी विपक्षको खुदके विरुद्ध किये गये प्रदर्शन के कारण गालीयां देती रहती थीं, उसका मापदंड अपनोंके लिये अलग ही था. पूरे देशमें आपतकालकी नहेरुवीयन आपखुदी चल रही और लोकशाही मूल्योंका गला घोंट दिया था. तब बाबुभाईने गुजरातमें लोकशाही को जिन्दा रक्खी था.

जनता यह खूब समजती हैं कि रेलियां मुफ्तमें नहीं होती है यह बात रेली करने वाले भी सब लोग जानते है. केज्रीवालकी रेलीयां भी मुफ्तमें होती नहीं है. अगर घीसेपीटे आक्षेप ही करना है और सूत्रोच्चार ही करने है तो अखबार वालोंको और टीवी वालोंको फोटु खींचवाने के लिये बुलाना ही पडेगा. बेनर और प्लेकार्ड भी बनाना पडेगा. रेलीयोंमे इस गुजरातके महेमानने नरेन्द्र मोदीको बिना विवरण वाले आक्षेप किये. और बादमें नरेन्द्र मोदीको मिलने गये. केज्रीवाल वैसे तो खुदको आम आदमी है वैसा समझानेकी भरपूर कोशिस करते है, लेकिन नरेन्द्र मोदीके पास खुदको भूतपूर्व सीएम बताया. अगर केज्रीवाल भूत पूर्व सीएम भी है, तो उनको अपनी मुलाकात पूर्वनिश्चित करने चाहिये थी.

नरेन्द्र मोदीने क्या कहा?

“साक्षीभावसे मिलनेके लिये आये होते तो जरुर मिलता”

यह नरेन्द्र मोदीका उच्च संस्कार है कि उसने केज्रीवाल को यह नहीं बताया कि रेलीयोंमे मुझ पर आक्षेपबाजी करके अब महेमान बनके कैसे आ रहे हो?

नरेन्द्र मोदीने परोक्षरुपसे यह संदेश दिया, कि देखो भाई देशमें कई समस्या है. उसका समाधान निकालना एक शैक्षणिक कार्य है. इसके बारेमें बिना आक्षेप किये, चर्चा हो सकती है. यह चर्चा तटस्थ रुपसे और विवेकपूर्ण होनी चाहिये. ऐसा करना भारतीय संस्कृतिकी परंपरा है. शंकराचार्यने भी तत्वज्ञानकी चर्चा ऐसे ही की थी. उन्होने किसीके उपर आक्षेपबाजी करके चर्चा नहीं की थी. जब हमें सत्यको ढूंढना है तो खुदके मनको समस्यासे अलिप्त रखना चाहिये. इसको गीतामें साक्षीभाव कहा गया है. हे केज्रीवालजी आप अगर   साक्षीभावसे आये होते तो मैं आपको अवश्य मिलता और चर्चा भी करता.

नरेन्द्र मोदीके और केज्रीवालके संस्कारके इस भेदको समझना अखबारी मूर्धन्योंके लिये, और खुद केज्रीवालके लिये बसकी बात नहीं. समस्याके समाधानके लिये साक्षीभाव लानेकी बात इनके दिमागके बाहर की बात है.

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः महेमान, गुजरात, भूतपूर्व, सीएम, आम आदमी, केज्रीवाल, नरेन्द्र मोदी, मुलाकात, नहेरुवीयन संस्कार, प्रदर्शन, बुराई, लोकशाही मूल्य, गलाघोंटना, साक्षीभाव, अखबारी, कटार  लेखक, मूर्धन्य, दिमागके बाहर  

Read Full Post »

%d bloggers like this: