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वे जगतके तात है तो हम जगतके तातके तात है

वे जगतके तात है तो हम जगतके तातके तात है

जगतके पितामहका एवं मातामहका प्रार्थना पत्र

माननीय, प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी तथा माननीय गृहमंत्री अमित शाह,

विषयः ग्राहक सुरक्षा नियम रद कारवाने के लिये आंदोलन करने के लिये प्रार्थना पत्र एवं पूर्व-सूचना.

अनुसंधानः उपभोक्ता संरक्षण नियम, अधिनियम

हम ग्राहक लोग, सरकार द्वारा   पारित ग्राहक सुरक्षा नियम और अधिनियम जो भी हो वो, उसके विरुद्ध आंदोलन करने जा रहे है.

(१) प्रदर्शन स्थलः

आप, हमे प्रदर्शनके लिये दिल्लीमें योग्य स्थल सूचित करें. यह स्थालका क्षेत्रफल १०००० चोरस किलोमीटर का होना अनिवार्य है.

यदि आपके पास इतना विशाल स्थल नहीं है तो यह आपकी समस्या है, हमारी समस्या नहीं. यदि आप हमें कमसे कम १०००० चोरस किलोमीटर का विस्तारवाला स्थल नहीं दोगे तो हम दिल्लीमें बलपूर्वक प्रवेश करेंगे और संसद भवनकी कार्यवाहीको चलने नहीं देंगे.

आप हमे १०००० चोरस किलोमीटर की औचित्य क्या है, ऐसे प्रश्न न करें, तो आपके लिये यह शोभनीय रहेगा.

आपको अवश्य ज्ञात होगा कि जब देशमें १९ कोटी कृषक (किसान) है तो किसानोंके अतिरिक्त जो बचे वे सर्व उपभोक्ता है. तात्पर्य यह है कि यदि हम दिल्लीमें एक लाख चोरस किलोमीटर जगह मांगे तो भी कम है.

आप कहोगे कि पूरे दिल्लीका विस्तार ही १५०० चोरस कीलोमीटर है और इसमें मकान, संकुल, कार्यालय भी संमिलित है.  तो हमें १०००० चोरस किलोमीटरका विस्तार कैसे दे पाओगे?

हमने आपको पहेसे ही कह दिया है कि यह आपकी समस्या है. वैसे तो हमें नहीं कहेना चाहिये कि रा.गा.जी (राहुल गांधीजी)का कथन था कि,आपने अंबाणीको को कच्छमें ५००० करोड एकड भूमि दान कर दी है. वैसे तो समग्र पृथ्वि पर ही ३८०० करोड एकड से कम भूमि है. यदि आप ५००० करोड एकड भूमिदान अंबाणीको कर सकते है तो हमें १०००० चोरस किलोमीटर भूमि अस्थायी उपयोगके लिये क्यूँ नहीं दे सकते?

हम आपसे अपेक्षा रखते है कि आप हमें तर्कशुद्धतासे चर्चा करना नहीं कहोगे. हम तर्कमें मानते नहीं है. आपने जब हमारी संतान यानी कि किसान-प्रतिनिधियोंसे ऐसी ही सहानुभुति रक्खी है तो हमसे भी वैसा ही व्यवहार करोगे. 

(२) प्रदर्शन और विरोध करना हमारा अधिकारः

यदि आपकी सरकार, हमें आंदोलनके लिये उपरोक्त विस्तारवाला स्थल देनेमें विफल रही तो, हम, दिल्लीमें आनेवाले भूमिगत यातायात मार्ग ही नहीं, रेल और हवाई मार्ग सहित सभी मार्ग बंद कर देंगे. और इन मार्गों पर, हम अपना अस्थायी निवास बनाके, सरकारका  विरोध करेंगे. हम बडी सज्जताके साथ आंदोलन करने वाले है. हमें ज्ञात है कि हमारा आंदोलन सुदीर्घकाल चलनेवाला है.

(३) हमारी मांग है कि सरकार उपभोक्ता कानून रद करें. हम चर्चाके लिये सज्ज है किन्तु जब तक उपभोक्ता कानून रद नहीं होगा तब तक हमारा आंदोलन प्रवर्तमान रहेगा.

(४) जनतंत्रमें विरोध आवश्यक है इसमें वैश्विक संमति है. आपने और आपकी सरकारके आधिकारिक पदस्थ वाले विद्वानोंने भी इस बिन्दुका स्विकार किया है. हम अपना विरोध अहिसक रुपमें करेंगे. हम संविधानकी पुस्तक हाथमें रख कर विरोध करेंगे. हम राष्ट्रध्वज हाथमें लेके विरोध करेंगे. हम “भारतवर्ष अमर रहो” लिखित विशाल पताका दिखाके प्रदर्शन करेंगे. हम किसीके उपर भी, प्रहार नहीं करेंगे. शस्त्र प्रहार या मुष्टी प्रहार या दंड-प्रहार भी नहीं करेंगे. हम देश-विरोधी सूत्रोच्चार भी नहीं करेंगे.

(५) हो सकता है कि हम लोगोंके अंदर, कुछ देश विरोधी व्यक्ति और हिंसक व्यक्ति घुस जाय. हम इस शक्यताको नकार नहीं सकते. कृषि-कानूनके विरोध करनेवालोंके कुछ दलोंमें “मोदी तू मर जा…. इन्दिराको हमने ठोक दिया तो मोदीको भी ठोक देंगे … खालिस्तान जिंदाबाद … “ ऐसे सूत्रोच्चार हो सकते है तो हमारी तो दिल्ली जानेवाले हर मार्गों पर हजारों लाखोंमें विरोधी लोग होगे. उनमें ऐसा होना सहज है.

(६) जैसे आपने कृषि-कानून के (५) में दर्शित देशविरोधीयोंके आचरणकी उपेक्षा (नजर अंदाज किया है) की है, वैसी ही उपेक्षा आप, हममें स्थित उपद्रवी तत्त्वोंकी करें.

(७) “अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रता” और “कानूनका विरोध करना”   जनतंत्रका एक आवश्यक अंग है. और हम जनतंत्रवादी होनेके कारण ये सब कर रहे है. और उसके संबंधित प्रबंधन व्यवस्था, यानी कि, बकरा, बैल, भैंस, सुवर, चिकन, मटन, गोस्त, अन्न, फल, कन्द, बिर्यानी, पीत्झा, बर्गर, व्हिस्की, रम, शेम्पेईन, वोडका, श्वेत-व्हाईन, रेड-व्हाईन, चालु-व्हाईन, जीन, टोम कोल्लिन्स, ब्रान्डी, टेलीक्वीला, मार्गारीटा, (ड्रग्ज़की बात नहीं करेंगे किन्तु व्यवस्था अवश्य करेंगे), भीन्न भीन्न प्रकारके व्हीस्कीयोंको उग्र करनेके लिये अश्वका मूत्र  … आदिका संचय करना, यातायातके मार्गों पर इंधन गेस आधारित, लकडी आधारित चूल्हा जलाना, विशाल पात्रोंमें भोजन पकाना, आंदोलनकारीयों के लिये भोजन-पात्रों की व्यवस्था करना, उनकी सफाई करना, पानीकी व्यवस्था करना, मालवाहकोंमें माल लाना, आंदोलनकारीयोंके लिये सोने की व्यवस्था करना, जब सूत्रोच्चार करनेसे उनके मूखारविंद श्रमित हो जाय तो आराम करनेके लिये आराम-कुर्सीयां और सोफा की व्यवस्था करना, ज्ञान ईच्छुक आंदोलनकारीयोंके लिये और ज्ञानी आंदोलनकारीयोंके लिये अधिक ज्ञान प्राप्त करनेके लिये पुस्तकालयोंकी व्यवस्था करना,  शित ऋतुके कारण, आंदोलनकारी लोग सुविधापूर्वक  आंदोलन कर सके उनके लिये उष्मावर्धक यंत्रोकी व्यवस्था करना, और उष्मऋतुमें शित-हवा उत्सर्जित करनेवाले यंत्रोंकी व्यवस्था करना, सभी यंत्रोंको स्वस्थ रखनेके लिये तजज्ञोंको नियुक्ति करना … ये सब तो हमने आपको संक्षिप्तमें बताया. हमारी सूची तो अति अधिक सुदीर्घ (बहुत लंबी) है. वह तो हम हमारी गोदीमें बैठनेवाले समाचार मध्यमोंको, हमारी गोदीमें बैठनेवाले मूर्धन्योंको, हमारी गोदीमें बैठनेवाले विश्लेषकोंको, हमारी गोदीमें बैठनेवाले कोलमीस्टोंको, हमारी गोदीमें बैठनेवाले संवादकोंको, बतायेंगे …         

(८) हम आपके साथ किसीभी चर्चाके विषयमें किसीभी प्रकारकी सूची नहीं देंगे. आप यदि हमें आपकी सूची दोगे तो हम उसका उत्तर नहीं देंगे. हाँ हम चर्चा अवश्य करेंगे. हम चर्चा करनेसे दूर भागते नहीं हैं. हम चर्चा तो करेंगे ही किन्तु आंदोलन चलता रहेगा.

(९) हम तो जगतके तातके तात है.

यानी कि हम किसानके बाप है. यदि किसान जगतका तात है तो हम इस तातका भी बाप है. मान लो कि किसानने हमसे अन्न नहीं लिया तो क्या हुआ?

क्या अन्न ही सर्वस्व है?

जब कृषिका आविष्कार नहीं हुआ था तो क्या मनुष्य जीवित नहीं रहेता था?

क्या किसानको वस्त्र नहीं चाहिये?

क्या किसान नंगा रहेता है?

वैसे तो जैनोंके कुछ साधुलोग नंगा रहेते है, किन्तु वे किसान कहां है?

क्या किसानको निवास नहीं चाहिये?

क्या किसानको चिकित्सक नहीं चाहिये?

क्या किसानको संसाधन नहीं चाहिये?

क्या किसानको यातायातके साधन नहीं चाहिये,

क्या किसानको शिक्षा नहीं चाहिये?

क्या किसानको सहयोगी नहीं चाहिये?

क्या किसानको सुरक्षा नहीं चाहिये?

किसानको ये सब चाहिये.

किसानको ये सब देनेवाले कौन है?

हम ही तो है.

यही तो भीन्नता है मनुष्य और पशुके बीचमें.

और ये सब देनेवाले हम, किसानके भी बाप है.

यदि किसान जगतका तात है,

तो हम जगतेके तातके बाप यानी कि पितामह है.

(९) आप हमें ऐसा मत कहेना कि “आपको यदि अन्याय हुआ है तो आप न्यायालयमें जाओ… कानून आपने बनाया है तो कानून तो आपको ही रद करना पडेगा.

(१०) याद करो न्यायालयने कृषि-कानूनका विरोध कर रहे आंदोलनकारीयोंके प्रति क्या अवलोकन किया था?

(१०.१) क्या उन्होंने तर्ककी चर्चा की थी?

न्यायालयने किसानको तो कुछ भी नहीं कहा है.

(१०.२) न्यायालयने तो सरकारको डांटा कि “यदि आपका संवाद चल रहा है तो क्या उस समयके लिये कानून स्थगित कर दिया जाय?”

जब सरकारने कहा कि “हम सबके साथ संवाद कर रहे है इसलिये कानून स्थगित करना ठीक नहीं होगा.”

(१०.४) तो न्यायालयने तो कहा कि “हम तो सरकारसे निराश है”. न्यायालयने तो सरकारको ही डांटा कि “आप, कैसी कार्यवाही कर रहे है कि आप निस्फल रहेते हो.” न्यायालयने कभी आपसे आपकी और किसान नेताओंके बिचकी चर्चाका विवरण नहीं मांगा. यानी कि किसानोंके क्या बिन्दु थे और आपने उनका क्या उत्तर दिया. और आपने क्या मुद्दे उनके समक्ष रक्खे और उन्होंने क्या उत्तर दिया … इन सबका विवरण न तो आपसे मांगा न तो किसान नेताओंसे मांगा.

(१०.५) जब सरकारने कहा कि “कई सारे किसान संगठन कानूनके समर्थनमें है.”

इस बात पर न्यायालयने क्या कहा मालुम है?

न्यायालयने कहा हमारे सामने तो ऐसा कोई आया नहीं.

(१०.६) क्या आप ये समज़ते है कि न्यायालय अखबार पढे … टीवी चेनल देखें … कृषि-कानूनके समर्थकोंको नोटीस भेजें …?

यह मत पूछना कि न्यायालयने यह कैसे कहा कि आंदोलनकारीयोंमे वृद्ध है, शिशु है, महिलाएं है … बाहर ठंड है … जो आत्म-हत्याएं हूई वे सब नये कानूनके कारण हूई … जो लोग आंदोलनकारीयोंमें थे, या तो उनको आंदोलनकारी मान लिया गया था, वे कौन थे, कहाँसे आये थे,  उनमेंसे जो मरे वे अन्य कारणसे नहीं किन्तु नये किसान-कानूनके कारण ही मरे. न्यायालयने अपना तारतम्य किस/किन आधार पर निकाले? क्यों कि सरकारने या तो न्यायालयने ऐसी कोई जाँच समिति तो बनायी नहीं थी.

(१०.७) जब सरकारने कहा कि “हम कानून स्थगित करनेको तयार है, यदि न्यायालय आंदोलनकारी किसानोंको आदेश दें कि, वे अपना आंदोलन स्थगित कर दे.”

तो इसके उपर न्यायालयने क्या कहा मालुम है? न्यायालयने कहा कि “हम ऐसा आदेश कभी भी नहीं देंगे कि, आंदोलनकारी किसान अपना आंदोलन स्थगित करें. हम वह कह सकते हैं कि वे मार्ग यातायातके लिये साफ करें.”

न्यायालयके इस कथनका संदेश आप समज़े या नहीं समज़े?

नहीं समज़े तो अब समज़ो;

किसान आंदोलन का प्रारंभ ९ अगस्त २०२०से हुआ था. न्यायालय, सुओ मोटो अंतर्गत ही, “रास्ते यातायातके लिये साफ करो और सरकार जो निर्देश दे उस स्थल पर आंदोलन/प्रदर्शन करो” ऐसा आदेश देनेके लिये सक्षम था. किन्तु न्यायालयने ऐसा नहीं किया.

इतना ही नहीं, जब जनहितमें की गयी याचिकाएं न्यायालयके पास है तो भी, न्यायालयने “यातायातके लिये साफ मार्ग” के बारेमें आदेश दिया नहीं. जब ४ जनवरी को न्यायालयने, याचिका सूननेका प्रारंभ किया तब भी, अंतरिम आदेश दिया नहीं. और ११ जनवरीको ऐसा माना भी, कि स्वयं ऐसा आदेश देनेके लिये सक्षम है, तो भी अंतरिम आदेश दिया नहीं, न तो किसीको न्यायिक सूचना (notice) दी.

(१०.८) आपने देखा ही होगा कि दुसरे दिन न्यायालयने, सरकारको ही लताड दी कि, आप एक समिति नहीं बना पाये. न्यायलयने चार सदस्योंकी समिति बनायी.  वास्तवमें तथा-कथित किसान-आंदोलनके नेताओंने तो, आपका, समिति बनानेका प्रस्ताव ही ठूकरा दिया था. किन्तु ये तथ्य, जानते हुए भी न्यायालयने आपको ही लताडा. और मजेकी बात तो यह है, कि, न्यायालयकी बनायी हुई समितिको भी इन्ही नेताओंने अमान्य कर दिया. उन्होंने तो साफ बोल दिया कि, हमे तो कृषि-कानून रद करनेके सिवा, कुछ भी स्विकार्य नहीं. न्यायालयने फिर भी, उनके उपर, न्यायालयकी अवमाननाकी तो बात ही छोडो, न्यायालयने उनको कठोर या नरम शब्दोंमें डांटा तक नहीं. मजेकी बात है न … !, कि न्यायालयका रवैया, उग्र और मालेतुजार आंदोलनकारीयोंके प्रति कैसा “सोफ्ट है”! 

(१०.९) आप समज़ो और अपनी स्मृतिको टटोलो. सर्वोच्च न्यायालयके   एक निवृत्त न्यायाधीशने, एक टीवी चेनलके साक्षात्कारमें क्या कहा था? यह निवृत्त न्यायाधीशने एक प्रश्नके उत्तरमें कहा था कि, जब तक लुट्येन गेंगोंका प्रभाव, न्यायाधीशों परसे दूर नहीं होगा, तब तक न्यायालाय स्वतंत्रता पूर्वक न्याय, नहीं दे पायेका.

(१०.१०) न्यायालयके इस प्रकारके व्यवहारसे आपको एक संदेश लेना है, कि आप हमारे आंदोलनके कार्यकर्ताओंके साथ भी ऐसा ही व्यवहार करेंगे, कि जैसा आपने शाहीन बाग, कृषि-नियम विरोधीयोंके आंदोलनकारीयोंके साथ किया.   

(११) हमारी मांग है कि आप उपभोक्ता सुरक्षा नियम और अधिनियम रद करें.

हमारी इस मांग के प्रयोजनः

(१२) यह नियम और अधिनियम हमारे लिये नुकशानकारक और त्रासदायक है.

(१२.१) हमें न्याय मिलनेमें तीनसे अधिक स्तर बढ गये है.

(१२.२) हमें कागज दिखाने पडता है, कागज कैसा है वह कौन सुनिश्चित करेगा?

(१२.३) विक्रेताने जो कागज दिया वह सही है या नहीं वह बात अनपढ कैसे सुनिश्चित करेगा?

(१२.४) ग्राहकको वकिल रखना पडेगा, आपने तो कह दिया वकील अनिवार्य नहीं. किन्तु यह शक्य नहीं.

(१२.५) यदि विक्रेताने हमारी या फोरमकी कानूनी सूचना (लीगल नोटीस) लाने वाले को युक्तिसे भगा दिया, तो केस नहीं बनेगा,

(१२.६) यदि विक्रेताने या उत्पादकने अपना नाम नहीं बताया, गलत नाम बताया, नोटीस लिया नही, …  तो केस नहीं बनेगा …

 (१२.७) … यदि सबकुछ सीधा चला और फोरमने दंड भी लगाया, पर उसने दंड नहीं भरा, तो?

(१२.८) … ऐसा हुआ तो हमे “फोरमका अनादर हुआ” उसका केस करना पडेगा …

ऐसे तो हजार प्रश्न और कष्ट है.

संक्षिप्तमें कहें तो, हमे आंदोलन करना है. हमें हर हालतमें आंदोलन करना है.

(१३) न्यायालयकी संवेदनशीलता आपने भीन्न भीन्न समय पर भीन्न भीन्न देखा ही है.

रावणका आक्रमण

(१३.१) बाबा राम देव ने २०१२में सरकारसे कालेधन के उपर जाँच के विषय पर आंदोलन किया ही था. उनका आंदोलन भी शांत और अहिंसक था. किसान आंदोलनसे विपरित, उनका आंदोलन आम जनहितमें था. कानून बनानेके लिये था. सरकारने उनको रामलीला मैदानमें   आंदोलन करने की अनुमति भी दी थी. वे आंदोलनकारीयोंने देश विरोधी, सरकार विरोधी, प्रधान मंत्री विरोधी (नरेन्द्र मोदी तू मर जा … इन्दिराको हमने जैसे ठोक दिया,वैसे मोदी को भी ठोक देंगे, लाशोंका ढेर कर देंगे …) सूत्रोच्चार कभी भी किया नहीं था.

(१३.२) किन्तु २०१२की वह सरकार भीन्न थी. वह सरकार हलाहल, कोमवादी, वंशीय एकाधिकारवादी, भ्रष्टाचारसे लिप्त … ऐसी सेक्युलर, नरम, अनिर्वाचित प्रधानमंत्रीवाली जनतांत्रिक सरकार थी. जिसका नाम कोंगी यानी कि नेशनल इन्दिरा नहेरुगांधी कोंग्रेस (आइ.एन.सी) गठबंधनवाली युपीए सरकार थी.

(१३.३) ऐसी यु.पी.ए. की सरकारके सामने बाबा रामदेवकी नेतागीरीमें जनता रामलीला मैदानमें आंदोलन कर रही थी. उन आंदोलन कारीयोंने तो अपने मुद्दोंकी सूची भी दिया था. इन आंदोलनकारीयोंमें भी महिलाएं थी. वृद्ध भी थे. फिर भी उस सरकारने राम लीलाके मैदानके उपर आधी रातमें आक्रमण करके बलप्रयोगसे (ताडन पूर्वक) आंदोलन कारीयोंको भगा दिया था. तबसे बाबा रामदेव आंदोलन करना भूल गये है.

(१३.४) उस २०१२ वाले आंदोलनमें, न्यायालयकी संवेदनशीलता क्या थी वह जनता को अधिगत नहीं हो पायी थी.

(१३.५) जिन पक्षोंको चूनावमें जनताने पराजित किया ये पक्ष, कृषि-कानूनके विरोधमें प्रवर्तमान किसान आंदोलनके समर्थक है सामिल है. इन्होंने अपने शासन कालमें ही, कृषि-कानूनके समर्थनमें अपार वाणीविलास किया था. न्यायालयने इन सियासती तथ्योंकी अवहेलना करके, आंदोलनकारीयोंके प्रति उनकी उम्र, जाति, लिंग … को लक्ष्यमें लेके अपनी संवेदनशीलता प्रकट की है.

(१३.६) अवश्य एक बिन्दु और भी है. “सरकारी “एफ.आर. एवं एस आर (F.R. & S.R.)” के अनुसार, जो प्राधिकारी, कर्मचारी की नियुक्ति के लिये सक्षम है, वह सक्षम प्राधिकारी ही उसको निलंबित या पदच्युत कर सकता है. (Appointing authority only can suspend or dismiss an employee). यदि यह प्राधिकार उसको संविधानके अनुसार मिले है तो वह प्रात्यायोजित (delegate) कर सकता है, किन्तु यदि वह स्वयं प्रात्यायोजित होनेके कारण सक्षम बना है तो वह अन्यको प्रत्यायोजित नहीं कर सकता.

इससे क्या निष्कर्ष है?

नियम बनानेका काम संविधानने संसदको दिया है. संसद ही उस नियममें संशोधन या निलंबन या रद कर सकती है. संविधानने नियमको लागु करनेका अधिकार सरकारको दिया है.   संविधानने या तो संसदने, न्यायालयको नियम बनानेका, उसको स्थगित करनेका या तो उसको रद करनेका अधिकार नहीं दिया. सरकार न्यायालयसे परामर्श कर सकती है, किन्तु न्यायालयके उपदेशको माननेके लिये बाध्य नहीं है.

ये सर्व प्रावधान न्यायालयको अवगत होने पर भी न्यायालयने कृषि-नियमको अपनी संवेदनशीलताके कारण, निलंबित किया है.

हम भी हमारे पूर्वानुमानसे, न्यायालयकी उसी प्रकारकी मानसिकता की, अपेक्षा रखते है, और आंदोलन करना चाहते है.

(१४) आप समज़ते होगे कि, हमको संसदमें हारे हुए पक्षोंका साम और दामका समर्थन है. इसलिये हम आपको भय और दंड (हप्ता वसुली वाले लोग जो “भय” दिखाते है वह “भय”, और सूपारी लेनेवाले का “कार्य”, यानी कि आपके किसी भी चहितेका अपहरण कर उसकी “हत्या” … ) दिखाते है. अधिक जानकारीके लिये आप बोलीवुडके महानुभावोंका संपर्क करे और लुट्येन गेंग जो न्यायालयके उपर, साम, दाम, भेद और दंड का क्रियान्वयन करता है, उनका संपर्क करें.

 (१५) हम अपना सामर्थ्य दिखाना चाहते है. हम किसीकी निंदा करते नहीं है. हमे जो साफ दिखाई देता है वही हमें सिखाता है, कि, हमें कैसे, आंदोलन करना है, और कैसे आपके विरुद्ध वातावरण तयार करना है.

(१६) इस विषयमें हम भौतिक-शास्त्रके शास्त्री आलबर्ट आईन्स्टाईन वादी है और समाज-शास्त्रके शास्त्री महात्मा गांधीके वादी है.  जैसे पदार्थकी गतिमें परिवर्तन क्षेत्र-बलसे होता है, वैसे ही मनुष्यकी मानसिकता मे परिवर्तन, सामाजिक वातावरणके क्षेत्र-बलसे होता है.

सामाजिक क्षेत्र आपके प्रति ऋणात्मक बने ऐसी कार्यवाही हम करेंगें. ये सब साम, दाम, भेद और दंड से होता है.  आपको भी अनुभूति हो जाय, लुट्येन गेंग संसदको ही स्थगित कर सकती है उतना ही नहीं, संसदके बाहर भी उसके पास विशाल क्षेत्र है. 

हम है किसानके अतिरिक्त आम जनतामें रही लुट्येन गेंग

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शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

आपको इससे अधिक ज्ञानकी यदि आवश्यक है तो श्री संदिप देवका निम्न लिखित लींक पर  वीडीयो देखें.

https://youtu.be/2wXI7TkcLjM

(India Speaks Daily)

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क्या इस्लामका सर्वनाश सुनिश्चित हो गया है?

क्या इस्लामका सर्वनाश सुनिश्चित हो गया है?

जब भी तथा कथित शांतिप्रिय धर्म, इस्लामके मुसलमानों बहेकावेमें आके देशकी संपत्तिको नुकशान करते हुए हम देखते है तो ऐसा लगता है कोंगीने अपने शासन कालके अंतर्गत इन  मुस्लिमोंका  किस हद तक पतन किया है!!

यह केवल मुसलमानोंके मानसिक पतनकी समस्या नहीं है. कोंगीयोंके सर्वनाशकी भी यह भविष्यवाणी है.

आश्चर्य इस बातका है कि जिस इस्लामने अब्दुल कलाम आज़ाद, हसन निस्सार, तारेक फतह, मुख्तार अब्बास … ऐसे और कई सारे  नेतागण को जन्म दिया उस इस्लामको मानने वाले कैसे इतने निम्नस्तर पर पहूंच गये?

देशका विभाजन के समय

देशके विभाजनके समय भी भारतमें रहेने वाले  मुसलमानोंके बारेमें यह प्रश्न उत्पन्न हुआ था.

यदि भारत देशके मुसलमान, भारतको वफादार नहीं रहे तो क्या होगा? इतना ही नहीं, एक प्रश्न यह भी उठा था कि यदि पाकिस्तानस्थित हिन्दुओंकी सुरक्षा पर, पाकिस्तानके मुस्लिम शासकोंने ध्यान नहीं दिया तो क्या होगा?

महात्मा गांधीका उत्तर सुनिये.

(१) यदि पाकिस्तान, अपने व्यवहारमें पाक नहीं रहा तो पाकिस्तान नष्ट हो जायेगा.

(२) यदि भारतका मुसलमान भारतको वफादार नहीं रहा तो सरकार उसको गोली मारेगी. 

अहिंसामें माननेवाले और अहिंसामें पूर्ण श्रद्धा रखनेवाले महात्मा गांधीने इस प्रकार दो भविष्यवाणी की थी.

गांधीजीको कोसनेवालोंको गांधीजीको पढना चाहिये. यदि वे बिना पढे ही गांधीजीको कोसते रहेंगे  तो वे अविश्वसनीय ही बन बनते हैं.

अहिंसाके नाम पर कायरता दिखाना गांधीजीको ग्राह्य नहीं था. और यह बात जबलपुरके गांधीचोक पर भी शिलालिखित है.

पहेली भविष्य वाणी गांधीजीने, तत्कालिन  पाकिस्तानवासी हिन्दुओंकी सुरक्षाके अनुसंधानमें, की थी. हिन्दुओंको सुरक्षा देना पाकिस्तानके शासकोंकी प्रतिबद्धता थी. यदि पाकिस्तानको अपने नामकी सार्थकता रखना है तो यह पाक (पवित्र) कर्तव्य, उसके लिये निभाना अनिवार्य था.

किन्तु पाकिस्तानने प्रारंभसे ही पाकिस्तान स्थित हिन्दुओंका संहार करना चालु कर दिया था. और वह आज पर्यंत चालु रक्खा है. पाकिस्तानमें हिन्दुओंकी जनसंख्या उस समय (१९५१) २४ प्रतिशत थी. अब १.६ प्रतिशत है.

इसका तात्पर्य है कि, हिन्दु लोग,, पाकिस्तानमें सुरक्षित नहीं थे और नहीं है. पाकिस्तानमें हिन्दुओंके उपर अत्याचार हुए. उनका बलपुर्वक धर्म परिवर्तन हुआ और जो माने नहीं उनको भागके भारत आना पडा.

नहेरुने १९५४मे पाकिस्तानवासी हिन्दुओंकी सुरक्षा के लिये पाकिस्तानके प्रधान मंत्री लियाकत अली, के साथ एक करारनामा किया था. किन्तु नहेरु अपनी आदतके अनुसार, पाकिस्तानके शासकके उपर कभी इस करारका पालन करवानेके लिये दबाव नहीं बनाया.

नहेरु अनिर्णायकताके और अकर्मण्यताके गुलाम थे. उन्होंने अपने शब्दोंकी किमत कभी भी समज़ा नहीं. नहेरुके कोंगी अनुगामी भी अनिर्णायकताके गुलाम ही सिद्ध होके रहे है. इसका कारण केवल यही था कि नहेरुवीयनोंको कुछ फर्क नहीं पडता था. इनकी चर्चा हम कभी और समय करेंगे.

एक बात अवश्य याद रखना है कि हिन्दुओंने अपने देशके निवासी मुस्लिमोंको कोई कष्ट नहीं दिया. कोंगीयोंने तो लघुमतियोंको हिन्दुओंसे भी अधिक अधिकार और सुरक्षा दिया. वास्तव में असमान व्यवहार, जनतंत्रका अनादर ही है. किन्तु कोंगीयोंको और उनके सांस्कृतिक साथीयोंको इससे कोई फर्क पडता नहीं है. उनकी न्याय अन्यायकी परिभाषा धर्मके आधार पर है. उन्होंने तो महात्मा गांधीका बार बार और लगातार खून किया है और करते रहे हैऔर यदि नष्ट नहीं हुए तो उनका खून करते रहेंगे. नहेरुवीयन कोंग्रेसकी (कोंगीकी) यह जन्मजात प्रकृति है.

महात्मा गांधीको यह ज्ञात था कि नहेरु और उसकी कोंग्रेस कैसी है. इसलिये ही उन्होंने एक और भविष्यवाणी की थी कि, “एक समय आयेगा कि जव कोंगीयोंको चून चून कर जनता मारेगी.”

 कोंगीका सर्वनाश सुनिश्चित है. लेकिन कब?

पाकिस्तान का तो नष्ट होना सुनिश्चित है.

किन्तु भारतका भविष्य क्या है?

कोंगीयोंने अपने शासनकालमें पूरे होशहवासमें, अपने राजधर्मका पालन नहीं किया है. इसके अगणित उदाहरण है. और यही कोंगी, देशके सिद्ध देशद्रोहीयोंके साथ मिलकर, देशको नष्ट करने पर उतर आयी है.

कोंगीके सांस्कृतिक साथी “आम आदमी” पक्षने, मज़दुरोंको आधीरातको “डीडी बसें तयार है अपने राज्यमें चले जाओ” ऐसी खुले आम घोषणा करके ईकठ्ठा किया. इसी पक्षने  विदेशी कट्टरवादी मुस्लिमोंको मर्कज़में महासभा करने दिया. इनसे पुरे भारतमें महामारी फैली. इसके पहेले दिल्लीमें प्रदर्शन, रास्ता रोको और सुनियोजित तरिके से मुस्लिमोंसे आग लगवाई और खून खराबा करवाया. अन्य स्थानों पर भी ऐसा ही करवाया.

बेंगलुरुमें क्या हुआ?

एक दलितने, एक मुस्लिमकी, हिन्दु-देवीयोंकी अभद्र चित्रकी पोस्टींगके उत्तरमें प्रोफेट महम्मदकी अभद्र चित्रकी पोस्टींग की.

यह दोनों पोस्टींग कैसे हुई यह संशोधनका विषय है. लेकिन प्रोफेट महम्मद के चित्रकी अभद्र पोस्टंगके कारण एक ही घंटेमें दो पूलीस स्टॅशनके मुस्लिमोंकी भीड जमा हो गयी. पुलिस स्टेशनमें तोड फोड की उनमें  वाहनोंको आग लगायी, पथराव होने लगे… जिसने अभद्र पोस्टींग की थी वह एक कोंगी सदस्यका भतीजा था. दोनोंके घरको तोड दिया. ऐसा लगता है कि जैसे कि यह सब पूर्वसे ही सुनियोजित था.

मुस्लिम मोबकी मांग थी कि जिस व्यक्तिने (जो कोंगी सदस्यका भतीजा था) उसको मुस्लिम मोबके हवाले कर दिया जाय.

कोंगीके लडके को जो दलित और हिन्दु था उसको तो गिरफ्तार कर ही लिया था. उसका कहेना था कि उसका एकाउन्ट हेक हो गया था. फिर भी उसकी गिरफ्तारी हो गई. लेकिन जो मुस्लिम था जिसने अति अभद्र चित्र  पोस्ट किया था, उसका क्या हुआ? उसका कुछ नहीं हुआ. हिन्दु दलितने तो कहा भी है कि उसका एकाउन्ट हॅक हो गया था. मुस्लिमने तो ऐसा कुछ कहा भी नहीं है. तो भी  उसकी रफ्तारी हुई है या नहीं उसके बारेमें कुछ पता नहीं.

मुस्लिमोंकी मांग थी कि प्रोफेट महम्मदकी अभद्र पोस्टींग करनेवाला लडका उनके हवाले कर दिया जाय.

मुस्लिमोंकी इस मांगका आधार क्या है?

मुस्लिमोंका कहेना है कि, “जिसने प्रोफेट महम्मदके बारेमें अभद्र पोस्टींग की, उसका न्याय हम  करेंगे. हम भारतके संविधानकी प्रत लेके उसकी तथा कथित और फर्जी सुरक्षाके नाम पर प्रदर्शन भी करेंगे, माहात्मा गांधीकी छवी, हाथमे  रख कर, असंबद्ध प्रदर्शन भी करेंगे, रास्ता भी महिनों तक रोकेंगे, जनतंत्रके नाम पर अभिव्यक्तिकी स्वातंत्र्यताका फायदा भी उठायेंगे चाहे अन्य लोगके लिये असुविधा ग्रस्त हो”. मुस्लिम लोग आगे कहेते है;

फिर भी अय पूलिस लोग !

“हमे वह लडका, जिसने प्रोफेट महम्मदका चित्र पोस्ट किया है, हमारे हवाले कर दो. हम ही उसका न्याय करेंगे. यह हमारा हक्क है.

“जी हाँ. जब महाराष्ट्रकी पूलिसने, हिन्दुओंके दो सन्यासीयोंको, क्र्श्चीयन कम कोमी बिरादरोंके बने हुए मोबके हवाले कर दिया था, तो बेंगलुरुकी पूलिस, क्यूँ इस अपराधीको हमारे हवाले नहीं करती?

“अब देखो

“पालघरमें दो सन्यासी जिनमें एक सन्यासी ७० सालका था. दुसरा ३५ सालका था और उसका ड्राईवर, उन तीनोंको हमने मार डाला. जी हाँ हमने इनको मार डाला. क्यों कि उन्होंने हमारे बच्चोकों चोरी किया था.

“हमारे कौनसे बच्चे थे वह हमे मालुम नहीं. इसके पहेले भी हमारे बच्चोको चोरी किया था. वे बच्चे कौन कौन थे वह भी हमे मालुम नहीं. पूलीसको भी मालुम नहीं है. तो हम क्या करे?

“लेकिन हम जूठ नहीं बोलते है वह पालघरकी पूलीसको भी मालुम है. इस लिये तो उन्होंने इन तीनोंको हमारे हवाले कर दिया था. और हमने इन पूलिसके सामने ही इन तीनोंको मार मारके मार डाला. हम जो करते है वह सही ही करते है. उपरोक्त मामलेमें किस नेताको गिरफ्तार किया?

“आपके हिन्दुधर्मके महारक्षक पक्षवाले  मुख्य मंत्रीने भी हमारी बात मानी कि यह सब गलतफहमीसे हुआ था. हमने तो उनके उपर कोई दबाव नहीं डाला था कि वे हमारी बात ही माने. लेकिन उन्होंने हमारी बात मान ली. तो हम क्या करें? हमने गलतफहमीसे इन तीनोंको मार डाला, इस बातका आपका मुख्यमंत्री स्विकार कर लें वह भी क्या हमारा गुनाह है? आप तो बडे असहिष्णु है.

“जब एक हिन्दुपक्षकी सरकारकी पूलीस, जिन सन्यासीयोंको हमने बच्चोंके उचक्का करनेवाले माना उन  तथा कथित उचक्केवाली  हमारी बातसे वह सरकार तुरंत ही संतुष्ट हो गई और उस पोलीसने उन तीनोंको हमारे हवाले कर दिया. तो बेंगलुरुकी बात तो सरल ही थी. बेंगलुरुमें भी हिन्दुपक्षकी सरकार है. इसमें तो “तथा कथित” जैसा कुछ था ही नहीं. सीधा ही मामला था. बेंगलुरुमें उस अपराधीको हमारे हवाले क्यूं नहीं किया? हम शांतिप्रिय धर्मवाले है इसलिये ही न? हम अस्त्र शस्त्र, पेट्रोल बोंब, लाठी ले के आये थे इस लिये क्या? हमें किसीको मारना ही है तो लाठीसे भी मार सकते है.

“केवल लाठी तल्वार पेट्रोल बंब रखनेसे ही हम अपराधी बन जाते है क्या?

“एक तरफ आप हमारी सीधी और सरल बातको मानते नहीं है. ऐसा करके आप हमें उकसाते है तो अपराधी तो आप ही बनते है न? हिंसा करनेके लिये उकसानेवाला क्या छोटा अपराधी है?  लेकिन आप अपराध करनेके लिये उकसाने वालेको अपराधी मानते ही नहीं है.

दिल्लीके दंगेमें आप पार्टीका सदस्य संमिलित था. आप कैसे कह सकते है कि जिस केज्रीवालने देशभरमें कोरोना नही फैलाने के लिये, रातको लोगोंकी भीड इकठ्ठा कर दी थी? यदि गोडसे आर एसएसका सदस्य नहीं था तो भी आप पुरे आरएसएसको गांधीका खुनी मानते है तो “आप”के कर्ता हर्ता केज्रीवाल  भी तो दिल्लीके दंगोंका बाप हुआ.  कोंगी भी तो आतंकवादका बाप है. और इस निष्कर्षके तो हजार प्रमाण  है.

“देखीये हम अल्पसंख्यक है. और हमारे अधिकार हिन्दुओंसे कहीं अधिक है. यह प्रणालीसे भी सिद्ध है. हमारे सुज्ञ लोग और बीजेपीके शिर्ष नेतागण भी यह बातका अनुमोदन करते है. “जो लोग मुर्दे को भी नहीं जलाते वे जिंदाको क्या जलायेंगे?”  

“हमने कश्मिरमें सब कुछ खुल्ले आम किया है. हमने १०००० से भी अधिक हिन्दु  महिलाओं पर रेप किया, हमने १०००से अधिक हिन्दुओंका कत्ल किया, हमने ५०००००से अधिक हिन्दुओंको उनके घरसे भगाया और निराश्रित किया. यह सब हमने खुले आम किया. और यह सब जनतंत्रीय भारतके आधिन जनतंत्रीय  काश्मिरमे किया. हम भी तो जनतंत्रवादी है. इसकी मिसाल तो आपकी सर्वोच्च अदालत है. हमारा कोई भी आदमी या नेता गिरफ्तार नही हुआ. अरे हमारे नेता तो मजेसे विदेश जाकर मौज  करने लगे थे और वापस आके आपको ही उनको मुख्य मंत्री बनाना पडा. और आपके केन्द्रके  हिन्दु शासकको भी गिरफ्तार नहीं किया. हमारे कश्मिरी नेताको केन्द्रका गृह मंत्री बनाना पडा. फिर क्या कहेना!!  हमने तो पूरे देशमें दूर दूर तक बडे मजेसे आतंक फैला दिया.  न तो आप कोई स्पेसीयल ईन्वेस्टीगेशन टीम बना पाये. न तो कोई एफ.आई.आर. दर्ज कर पाये.

“अरे भाई हमतो खुले आम, आपके तीर्थ यात्रीयों पर सूचना देके हमला करते है. आपके सुज्ञ जनोंके कानमें जू तक नहीं रेंगती.

“अमरनाथ यात्रीयों की सुरक्षाके लिये आप अमरनाथ श्राईन बोर्ड के लिये भूमि उपलब्ध करना चाहते उस बात पर हमने और हमारी सरकारने भी कडा विरोध किया और पुरे राज्यमें हंगामा किया. आप क्या कर पाये? शून्य ही न?

“क्या आपमें ताकत है कि आप हमारे हजयात्रीओं पर हमला करें? अरे एक विरोधका सूर भी तो निकालके देखो? पूरी दुनिया आपके उपर थू थू  करेगी. हम तो खुले आम बोलते है और हमला भी करते है. और आपके शिर्ष नेता भी कबुल करते है कि हम मुस्लिमोंका ही भारत पर अधिक अधिकार है.

“जब हम कोंगी जैसी पर्टीको हमारी लुगाई बनाके देशको दशकों तक लूट सकते है तो उद्ध्व ममता जैसे कई हमारे शरणमें आ ही जाते है. देख लिया न?

“हमने कई मंदिर तोडे और अब भी तोडते है. उसके उपर बनाई एक मस्जिदको आपने तोडा तो हमने आपको पुरी दुनियामें बदनाम कर दिया. उस तूटी मस्जिदके उपर, मंदिर बनानेमें आपको अपनी नानी याद करवा दी. यह है हमारा जनतंत्र. जब आप लुट्येन गेंगका एक बाल भी बांका नहीं कर सकते तो हमे क्या कर पाओगे?

शिरीष मोहनलाल दवे  

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हम कैसे वितंडावादीको परिलक्षित (आइडेन्टीफाय) करें?

हम कैसे वितंडावादीको परिलक्षित (आइडेन्टीफाय) करें?

वितंडावाद क्या है?

यदि कोई, चर्चाके विषय पर असंबद्ध, प्रमाणहीन और स्वयंसिद्ध विधिसे चर्चा प्रस्तूत करें, इसको वितंडावाद कहा जाता है. वितंडावादका प्रयोजन वैसे तो पूर्वग्रह भी हो सकता है. किन्तु क्वचित ऐसा भी होता है कि, स्वयंमें कोई पूर्वग्रह है या नहीं वह लेखक स्वयंको ज्ञात होता नहीं है.

यदि लेखकको ज्ञात होता है कि, अपना पक्ष सही नहीं है तत्‌ पश्चात्‌ भी वह वितंडावाद करता है तो उसका प्रयोजन वह किसी सांस्कृतिक समूहके ध्येय पर वह काम कर रहा है. लेखक उस समूहका सदस्य हो सकता है. कोई एक समूहका सदस्य होनेके कारणसे वह उस समूहके ध्येय के अनुसार लिखता है. तात्पर्य यह है कि लेखक जो विवरण उसके ध्येयके अनुरुप नहीं है उसको प्रकट नहीं करता है और जो ध्येयको अनुरुप है उसको किसी भी प्रकार प्रकट किया करता है.

वितंडावादी को कैसे परिलक्षित (पहेचाने) करे?

कोमन मेन

जैसे कि, कोई एक समय “जे.एन.यु.” में देशविरोधी सूत्रोच्चार किया गया. इस घटनाका विवरण किन किन वैचारिक जूथोंने कैसे किया था? याद करो.

सर्व प्रथम सूत्रोच्चारोंसे अवगत हो

“भारत तेरे टूकडे होगे, इन्शाल्ला इन्शाल्ला

“कश्मिरको चाहिये आज़ादी … आज़ादी …  छीनके लेंगे आज़ादी … आज़ादी … लडके लेंगे आज़ादी … आज़ादी…

“अफज़ल हम शर्मींदा है … तेरे कातिल जिन्दा है …

“कितने अफज़ल मारोगे हर घरसे अफज़ल निकलेगा …

इन सूत्रोंसे संदेश क्या मिलता है?

संदेश तो यह है कि इन लोगोंको “भारतको तोडना है”,

सूत्रोच्चार करनेवाले देशहितके विरोधी है,

सूत्रोच्चार करनेवाले देशविरोधी वातावरण बनानेका प्रयत्न कर रहे है,

सूत्रोच्चार करनेवाले जनतंत्रमें मानते नहीं है,

सूत्रोच्चार करनेवाले संविधानमें मानते नहीं है,

सूत्रोच्चार करनेवाले अहिंसामें मानते नहीं है, पर्याप्त जनाधार न होनेके कारण इन्होंने हिंसा नहीं की किन्तु हिंसाके लिये प्रचार अवश्य किया.

हिंसाका साक्ष्य नहीं

कुछ मूर्धन्य लोग, इस घटनामें  प्रत्यक्ष हिंसाका साक्ष्य (एवीडन्स) नहीं होने से,  इन सूत्रोंच्चार करनेवालोंको अहिंसक मानते है और ऐसी ही एक प्रणाली स्थापित करना चाहते हैं,

चूकि इसमें प्रत्यक्ष हिंसाका साक्ष्य नहीं है इसको लोकतंत्रके अधिकारके रुपमें देखते है,

यह विद्यार्थीगण, जे.एन.यु.में शिक्षा प्राप्त करनेके लिये आते है और इन सूत्रोच्चारोंको शिक्षाके एक  परिमाणके रुपमें समज़ते है और स्थापित करना चाहते हैं. यानी कि ऐसा करना शिक्षाका एक भाग है.

इस घटनाके संबंधित बिन्दु (टोपिक) क्या है?

ये सभी सूत्र घटनाकी चर्चाके  बिन्दु ही तो हैं. इनके उपर चर्चा हो सकती है.

प्राथमिकता किन किन बिन्दुओंको दी जाय?

(१) सूत्रोंको  प्राथमिकता देना आवश्यक है,

(२) सूत्रोंका पूर्वनियोजित रीतिसे समूह द्वारा उच्चारण करवाना इनमें विद्यार्थीयोंका ध्येय तो निहित है, तो इन विद्यार्थीओं पर कार्यवाही किस प्रमाण-प्रज्ञाने होना आवश्यक है, तो इनके उपर चर्चा की जाय.

(३) इन विद्यार्थीयोंकी पार्श्वभूमि क्या है उसका भी अन्वेषण होना आवश्यक है इसके उपर चर्चा होना आवश्य्क है,

(४) इन विद्यार्थीयोंने क्या और कैसे आयोजन किया था उसके उपर अन्वेषण होना आवश्यक है इसके उपर भी चर्चा हो सकती है,

(५) यह घटना देशके लिये श्रेय है या नहीं इसके उपर चर्चा हो सकती है,

(६) इन विद्यार्थीयों पर कार्यवाही करके कितना दंड देना आवश्यक है इसके उपर चर्चा हो सकती है,

(७) इन विद्यार्थीयोंके बाह्य सहयोगी कौन कौन है और उनका कार्यक्षेत्र क्या है उसके उपर अन्वेषण होना आवश्यक है इसके उपर चर्चा आवश्यक है.

किन्तु यदि आप बीजेपी शासनके विरोधी है तो आप क्या करोगे?

तो आप सूत्रोंका उल्लेख ही विवरणमें करोगे नहीं.

कुछ समाचार माध्यमके विश्लेषकोंने “सूत्रों”का उल्लेख ही उचित नहीं माना, यानी कि “सूत्रों”के अर्थका कोई महत्त्व ही नहीं है. इन महानुभावोंने “सूत्रों”को उपेक्षित ही किया.

उनका कहेना है  शासनके विरुद्ध अहिंसक विद्रोह करना संविधानिक अधिकार है … सूत्रोंसे देशको हानि नहीं होती … कई राजकीय पक्षोंके नेता और समाचार माध्यमोंके संवादक इन विद्यार्थी नेताओंका साक्षात्कार करनेके लिये तत्पर बने और उनका साक्षात्कार भी किया. राहुल गांधी जैसे मूर्ख नेताओंने तो इन नेताओंको कह भी दिया कि “ … तूम आगे बढो … हम तुम्हारे साथ है …”

मूर्धन्योंके, नेताओंके और समाचार माध्यमोंके इस प्रकारके प्रचारसे क्या होता है?

ऐसी घटनाओंका पुनरावर्तन होता है. 

अन्य कोमवादी मानसिकता रखनेवाली शिक्षा-संस्थाओंके विद्यार्थीओंने जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंके समर्थनमें प्रदर्शन किये. इनसे जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंके मनोबलमें असीम वृद्धि हुई.

बीजेपी शासनने जे.एन.यु. के नियमोंमें कुछ संशोधन किया.

क्यों संशोधन किया?

“अरे भाई, हम तो दोघलापन दिखानेवाले है ही नहीं. जो अन्य सरकार संचालित संस्थाएं है उसमें जो शिक्षण फीस और अन्य शुल्क शिक्षार्थीयोंसे लिये जाते है उसके साथ जे.एन.यु. के फीस और शुल्क तुलनात्मक होना आवश्यक है. यह आवश्यक नहीं है कि यदि कोई न्यायालयमें जाके न्याय मांगे और न्यायालय आदेश करें तभी हम फीस और शुल्कमें तुलनात्मकतासे परिवर्तन करें. सरकारी अन्य संस्थाएं, जे.एन.यु.से, प्रतिविद्यार्थी दशगुना खर्च करती है. यह सरकार पक्षपात्‌ नहीं कर सकती. पक्षपात्‌ करना भारतीय संविधानके विरुद्ध है.

“लेकिन जे.एन.यु. एक विशिष्ठ संस्था है …

“देशमें कई संस्थाएं विशिष्ठ है … वीजेटीआई, खरगपुरकी आई.टी.आइ. रुडकी आई.टी.आई. …

जी हाँ … सरकारने जेएनयुमें फीस और शुल्कमें वृद्धि की. अब इस वृद्धिका विवरण हम करेंगे नहीं. क्यों कि ये सब विवरण “ऑन-लाईन” पर उपलब्ध है.

किन्तु अब आप देखो मूर्धन्योंका वितंडावाद.

किस मूर्धन्यकी हम बात करेंगें?

प्रीतीश नंदीकी बात हम करेंगे.

डीबीभाईने [(दिव्य भास्कर दैनिक दिनांक २०-११-२०१९) गुजराती प्रकाशन ] प्रीतीशका लेख

यह प्रीतीशभाई, “जे.एन.यु. घटना”की सद्य घटित घटना जिसमें  फीस-शुल्क वृद्धिके अतिरिक्त कुछ विशेष भी संमिलित है उन बातोंको पतला-दुर्बल करनेके लिये नक्षलवादके जन्म तक पहूँच जाते है. और विवरणका प्रारंभ वहाँसे करते है.

“विद्यार्थी तो पहेलेसे ही विद्रोही होता है,

 “मैं जब महाविद्यालयमें था …. मुज़े पता चला कि कुछ अदृष्य हुए विद्यार्थी क्या कर रहे थे !!! अरे वे तो किसान और भूमिहीनोंकी लडाई लडनेके लिये देहातोंमें गये थे. वे तो संघर्ष करते थे. और कुछ तो उसमें शहिद भी हो गये. … अरे ये विद्रोही विद्यार्थीयोंमें कई लोग तो धनवान माता-पिताकी संतान थे … ये विद्यार्थी लोग सुविधाजनक जिंदगीसे उब चूके थे …” वगैरा वगैरा … तत्त्वज्ञान और त्याग … की बातें हमारे प्रीतीशभाईने लिख डाली. क्यों कि उनको जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंकी असाधारणता और उत्कृष्टता सिद्ध करनेके लिये ऐसी एक भूमिका बनानी है. चाहे उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुपसे भी सीधा या टेढा-मेढा संबंध भी न हो, तो भी.

जैसे कि

“हालके नोबेल पुरस्कारके विजेता के पिता भी हमारे महाविद्यालयमें हमारे अध्यापक थे.”

भला ! यह भी कोई तर्क है?

फिर हमारे प्रीतीशभाई, इन कुछ विद्यार्थीयोंकी तथा कथित “जीवनकी सार्थकताकी शोधकी तालाशामें थे” इस बातका जीक्र करते है.

“उस समयकी कविताएं, नाट्यगृहके नाटक, मूवीज़, शानदार वार्ताएं … आदि, उनकी निरस जीवनको पडकार दे रही थीं. … ये लोग तो समाजको एक कदम आगे ले गये थे … लेकिन समाजको बदलनेका उनके स्वप्नको किसीने भी सहयोग नहीं दिया … कोंग्रेस ने भी … (हंसना मना है)

फिर हमारे प्रीतीशभाई फ्रांस, जर्मनी, युरोपके देशों की बाते करते है. उन देशोंके तथा कथित हिरोका नाम लेते है. चाल्स द गॉल के विरुद्ध युवानोंने अभियान चलाया इस बातका भी उल्लेख करते है.

शायद प्रीतीशभाई पचास या साठके दशककी बातें कर रहे है.

“विद्यार्थी तो विद्यार्थी है, उसको तो पढाईमें ध्यान देना चाहिये”. इस बातको प्रीतीशभाई नकारते है. और उसी तर्क का आवर्तन करते है कि सूत्रोच्चार करने के लिये विद्यार्थीयोंको “टूकडे टूकडे गेंग” और “देश द्रोही” के आरोपी बनाये जाता है. प्रीतीशभाई यह भी लिखते है कि “विद्यार्थी विरोध नहीं करेगा तो कौन विरोध करेगा?” प्रीतीशभाई इस के समर्थनमें लिखते है कि अमेरिकाके  विद्यार्थीयोंने विएटनाम युद्धका विरोध किया था, ब्रीटनके विद्यार्थीयोंने  ब्रेक्ज़िटका विरोध किया था तो किसीने भी उनको “देशद्रोह”का लेबल नहीं लगाया था, तो यदि “जे.एन.यु. घटना” पर जे.एन.यु.के विद्यार्थीयों पर देशद्रोहका आरोप क्यों?

प्रीतीशभाईने  “वादोंका” भी जीक्र भी करते है.

१०० प्रतिशत लेख इन असंबंध विवरणोंसे भरा है.

क्या हमारे मूर्धन्य लोग सीधी बात नहीं कर सकते?

लोकशाहीमें सूत्रों को पूकारे जाते हैं किन्तु उसकी एक प्रक्रिया होती है. केवल सूत्र पूकारना एक गंदी सियासत है. आओ चर्चा करें…

आपके विश्वविद्यालयमें ही आपसे भीन्न विचारधारा रखनेवालोंसे  चर्चा सभा आयोजित करो. वियेतनाम युद्ध या चाल्स द गॉल या ब्रेक्ज़िट और अफज़लको फांसी   आदि ये तुलनात्मक विषय नहीं है. कमसे कम भारतके मूर्धन्यों की प्रज्ञानेमें यह भ्रम नहीं होना चाहिये.

प्रीतीश भाई कहेते है कि;

“ जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंका अनुरोध (डीमान्ड) न तो विश्वविद्यालय की फीसमें वृद्धि के विरोधमें है, न तो शुक्ल वृद्धिके विरोधमें है, न तो नियमोंमें किये गये परिवर्तनके विरोधमें है, न तो उपाहार गृह ११ बजे तक ही खूला रहेगा उसके विरोधमें है … वास्तवमें उनका विरोध वे उस जगतका विरोध कर रहे है जिसमें वे है, जिस दुनिया उनकी सरलता, निरापराधताकी परीक्षा ले रही है…..

इन विद्यार्थीयोंको (जिनके नेताविद्यार्थीगण २६ वर्षसे ४१ वर्षके है) उनको नियमबद्ध करना और भयभित करना बंद करो …. क्यों कि ऐसा करनेसे हमारे ये विद्यार्थी, वाहियात कायदाओंको मानने वाले हमारे जैसे स्वप्नहीन और बिनादिमागवाले बन जायेंगे … आदि आदि आदि “.

भाई मेरे प्रीतीश, क्या तत्त्वज्ञान चलाया है आपने, जिसमें कोई सुनिर्देशित मुद्दा ही नहीं है. प्रीतीशभाई का लेख एक ऐसे असंबंद्ध अनिश्चित बातोंसे पूर्ण होता है.

पढनेके पश्चात्‌ हमे लगता है कि हम कोई मूर्धन्यका लेख पढ रहे है या  कोई स्वयं प्रमाणित, स्वयंप्रमाणित सर्वतत्त्वज्ञ संत रजनीश मल जैसे बाबाका लेख?

लोकशाहीमें विरोध आवश्यक है. चर्चा आवश्यक है.  यह बात तो नरेन्द्र मोदी भी कहेते है. किन्तु विरोध करने की भी रीत होती है.

महात्मा गांधीको पढो.

कमसे कम उनका “मेरा स्वप्नका भारत” पढो और विरोध कैसे किया जाना चाहिये उनके उपर भी उन्होंने स्पष्ट रुपसे लिखा है. यदि आप शास्त्र पढनेमें मानते नहीं है और आप जिसको आपका हक्क समज़ते है और वही हक्क दुसरोंका नहीं होना चाहिये ऐसा ही मानते है तो सरकार अपनी दंड संहितासे आपको दंडित करेगा.

किन्तु दुःखकी बात यह है कि भारतके मूर्धन्य भी पूर्वग्रह से पीडित है और वे स्वयं वितंडावाद में ग्रस्त है.

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

अविज्ञातप्रबंधस्य वचः वाचस्पतिः इव I

व्रजति अफलतां एव नयत्युह इव अहितम्‌ II

बृहस्पतिकी वाणी जैसी उक्ति भी यदि संदर्भहीन हो तो, वह भी अन्याय करने वाले मनुष्यकी तरह निरर्थक है.

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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-9

खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग)

रामको कौन समझ पाया?

एक मात्र महात्मा गांधी है जो रामको सही अर्थोमें समझ पाये.

प्रणालीयोंको बदलना है? तो आदर्श प्रणाली क्या है वह सर्व प्रथम निश्चित करो.

आपको अगर ऐसा लगा कि आप आदर्श प्रणालीको समझ सके हो तो पहेले उसको मनमें बुद्धिद्वारा आत्मसात करो, और वैसी ही मानसिकता बनावो. फिर उसके अनुसार विचार करो और फिर आचार करो. इसके बाद ही आप उसका प्रचार कर सकते हो.

लेकिन यह बात आपको याद रखने की है कि, प्रचार करने के समय आपके पास कोई सत्ता होनी नहीं चाहिये. सत्ता इसलिये नहीं होनी चाहिये कि आप जिस बातका प्रचार करना चाहते है उसमें शक्ति प्रदर्शन होना वर्ज्य है. सत्ता, शक्ति और लालच ये सब एक आवरण है, और यह आवरण सत्यको ढक देता है. (हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌.).

गांधीजीको जब लगा कि वे अब सामाजिक क्रांति लाना चाहते है तो उन्होने कोंग्रेसके पदोंसे ही नहीं लेकिन कोंग्रेसके प्राथमिक सभ्यपदसे भी त्यागपत्र दे दिया. इसकी वजह यह थी कि उनकी कोई भी बातोंका किसीके उपर उनके पदके कारण प्रभाव न पडे और जिनको शंका है वे संवादके द्वारा अपना समाधान कर सके.

कुछ लोग कहेंगे कि उनके उपवास, और कानूनभंग भी तो एक प्रकारका दबाव था! लेकिन उनका कानून भंग पारदर्शी और संवादशील और सजाके लिये आत्मसमर्पणवाला था. उसमें कोई हिंसात्मक सत्ता और शक्ति संमिलित नहीं थी. उसमें कोई कडवाहट भी नहीं थी. सामने वाले को सिर्फ यह ही कहेनेका था कि, उसके हदयमें भी मानवता है और “रुल ऑफ लॉ” के प्रति आदर है.

महात्मा गांधीने रामको ही क्यों आदर्श के लिये चूना?

भारत, प्राचीन समयमें जगत्‌गुरु था. गुरुकी शक्ति शस्त्र शक्ति नहीं है. गुरुको शस्त्र विद्या आती है लेकिन वह केवल शासकोंको सीखानेके लिये थी. गुरुका धर्म था विद्या और ज्ञानका प्रचार, ताकि जनता अपने सामाजिक धर्मका आचरण कर सके.

शासकका धर्म था आदर्श प्रणाली के अनुसार “रुल ऑफ लॉ” चलाना. शासकका काम और धर्म, यह कतई नहीं था कि वह सामाजीक क्रांति करें और प्रणालीयोंमें परिवर्तन या बदलाव लावें. यह काम ऋषियोंका था. राजाके उपर दबाव लानेका काम, ऋषियोंकी सलाह के अनुसार जनता का था.

वायु पुराणमें एक कथा है.

ब्राह्मणोंको मांस भक्षण करना चाहिये या नहीं? ऋषिगण मनुके पास गये. मनुने कहा ऋषि लोग यज्ञमें आहुत की हुई चीजें खाते है. इस लिये अगर मांस यज्ञमें आहुत किया हुआ द्रव्य बनता है तो वह आहुतद्रव्य खा सकते है. तबसे उन ब्राह्मणोंने यज्ञमें आहुत मांस खाना चालु किया. फिर जब ईश्वरने (शिवने) यह सूना तो उसने मनु और ब्राह्मणोंको डांटा. मनुसे कहाकि मनु, तुम तो राजा हो. राजाका ऐसा प्रणाली स्थापनेका और अर्थघटन करनेका अधिकार नहीं है. उसी प्रकार, ऋषियोंको भी ईश्वरने डांटा कि, उन्होने अनधिकृत व्यक्तिसे सलाह क्यों ली? तो मनु और ये ऋषिलोग पाप भूगतते रहेंगें. उस समयसे कुछ ब्राह्मण लोग मांस खाते रहे.

आचार्य मतलब है कि, आचार और विचारों पर शासन करें. मतलब कि, जिनके पास विद्या और ज्ञान है, उनके पास जो शासन रहेगा वह कहलायेगा अनुशासन. समस्याओंका समाधान ये लोग करेंगे. आचार्योंके शासन को अनुशासन कहा जायेगा. और शासकका काम है, सिर्फ “नियमों”का पालन करना और करवानेका. ऐसा होनेसे जनतंत्र कायम रहेगा.

अब देखो नहेरुवीयन कोंग्रेसने जो भी नियम बनायें वे सब अपने वॉट बेंक के लिये मतलबकी अपना शासन कायम रहे उसके लिये बनाया. वास्तवमें नियम बनानेका मुसद्दा जनताकी समस्याओंके समाधान के लिये ऋषियोंकी तरफसे मतलब कि,  ज्ञानी लोगोंकी तरफसे बनना चाहिये. जैसे कि लोकपालका मुसद्दा अन्ना हजारे की टीमने “जनलोकपाल” के बील के नामसे बनवाया था. उसके खिलाफ नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासकोंने एक मायावी-लोकपाल बील बनाया जिससे कुछ भी निष्पन्न होनेवाला नहीं था.

शासक पक्षः

नहेरुवीयन कोंग्रेस एक शासक पक्ष है. वह प्रजाका प्रतिनिधित्व करती है. लेकिन उसने चूनाव अभियानमें अपना लोकपाल बीलका मुसद्दा जनताके सामने रखकर चूनाव जीता नहीं था. उतना ही नहीं वह खुद एक बहुमत वाला और सत्ताहीन पक्ष नहीं था. उसके पास सत्ता थी और वह एक पक्षोंके समूह के कारण सत्तामें आया था. अगर उसके पास सत्ता है तो भी वह कोई नियम बनानेका अधिकार नहीं रख सकता.

शासक पक्षके पास कानून बनानेकी सत्ता नहीः

उसका मतलब यह हुआ कि जनताके प्रतिनिधिके पास नये नियम और पूराने नियमोंमें परिवर्तन करनेकी सत्ता नहीं हो सकती.

जो लोग समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मानसाशास्त्रमें निपूण है वे लोग ही हेतुपूर्ण मुसद्दा बनायेंगे और न्यायविद्वानोंसे मुसद्देका आखरी स्वरुप, नियम की भाषामें बद्ध करेंगे. फिर उसकी जनता और लोक प्रतिनिधियों के बीचमें और प्रसार माध्यमोंमें एक मंच पर चर्चा होगी, और उसमें फिरसे जो लोग समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मानसाशास्त्रमें निपूण है वे लोग हेतुपूर्ण मुसद्दा बनायेंगे और न्यायविद्वानोंसे फिरसे मुसद्देका आखरी स्वरुप नियमकी भाषामें बद्ध करेंगे और फिर उसके उपर मतदान होगा. यह मतदान संसदमें नहीं परंतु चूनाव आयोग करवायेगा. संसदसदस्योंके पास शासन प्रक्रीया पर नीगरानी रखनेकी सत्ता है. जो बात जनताके सामने पारदर्शितरुपमें रख्खी गई नहीं है, उसको मंजुर करने की सत्ता उनके पास नहीं है.

महात्मा गांधीने कोंग्रेसका विलय करनेको क्यों कहा?

महात्मा गांधी चाहते थे कि जो लोग अपनेको समाज सेवक मानते है और समाजमें क्रांति लाना चाहते है, वे अगर सत्तामें रहेंगे तो क्रांतिके बारे में सोचनेके स्थान पर वे खुद सत्तामें बने रहे उसके बारेमें ही सोचते रहेंगे. अगर उनको क्रांति करनी है तो सत्ताके बाहर रह कर जनजागृतिका काम करना पडेगा. और अगर जनता इन महानुभावोंसे विचार विमर्श करके शासक पक्षों पर दबाव बनायेगी कि, ऐसा क्रांतिकारी मुसद्दा तैयार करो और चूनाव आयोगसे मत गणना करवाओ.

महात्मा गांधीको मालुम था

महात्मा गांधीको मालुम था कि कोंग्रेसमें अनगिनत लोग सत्ताकांक्षी और भ्रष्ट है. और जनताको यह बातका पता चल ही जायेगा. “लोग इन कोंग्रेसीयोंको चून चून कर मारेंगे”. और उनकी यह बात १९७३में सच्ची साबित हुई.

गुजरातके नवनिर्माण आंदोलनमें गुजरातकी जनताने कोंग्रेसीयोंको चूनचून कर मारा और उनका विधानसभाकी सदस्यतासे इस्तिफा लिया. विधानसभाका विसर्जन करवाया. बादमें जयप्रकाश नारायणके नेतृत्वमें पूरे देशमें कोंग्रेस हटावोका आंदोलन फैल गया. जिस नहेरुवीयन कोंग्रेसने “हम गरीबी हटायेंगे… हम इसबातके लिये कृत संकल्प है” ऐसे वादे देकर, निरपेक्ष बहुमतसे १९७०में सत्ता हांसिल की थी, वह चाहती तो देशमें अदभूत क्रांति कर सकती थी. तो भी, नहेरुवीयन फरजंद ईन्दीरा गांधीको सिर्फ सत्ता और संपत्ति ही पसंद था. वह देशके हितके हरेक क्षेत्रमें संपूर्ण विफल रही और जैसा महात्मा गांधीने भविष्य उच्चारा था वैसा ही ईन्दीरा गांधीने किया. उसने अपने हरेक जाने अनजाने विरोधीयोंको जेलके हवाले किया और समाचार पत्रोंका गला घोंट दिया. उसने आपतकाल घोषित किया और मानवीय अधिकारोंका भी हनन किया. उसके कायदाविदने कहा कि, आपतकालमें शासक, आम आदमीका प्राण तक ले सकता है तो वह भी शासकका अधिकार है.

रामराज्यकी गहराई समझना नहेरुवीयन संस्कारके बसकी बात नहीं

और देखो यह ईन्दीरा गांधी जिसने हाजारोंसाल पूराना भारतीय जनतंत्रीय मानस जो महात्मा गांधीने जागृत किया था उसका ध्वंस किया. और वह ईन्दीरा गांधी आज भी यह नहेरुवीयन कोंग्रेसमें एक पूजनीया मानी जाती है. ऐसी मानसिकता वाला पक्ष रामचंद्रजीके जनतंत्र की गहराई कैसे समझ सकता है?

राम मंदिरका होना चाहिये या नहीं?

रामकी महानताको समझनेसे भारतीय जनताने रामको भगवान बना दिया. भगवान का मतलब है तेजस्वी. आकाशमें सबसे तेजस्वी सूर्य है. सूर्यसे पृथ्वी स्थापित है. सूर्यसे पृथ्वी की जिंदगी है. सूर्य भगवान वास्तवमें जीवन मात्रका आधार है. जब भी कोई अतिमहान व्यक्ति पृथ्वी पर पैदा होता है तो वह सूर्य भगवान की देन माना जाता है. सूर्यका एक नाम विष्णु है. इसलिये अतिमहान व्यक्ति जिसने समाजको उन्नत बनाया उसको विष्णुका अवतार माना जाता है. ऐसी प्रणाली सिर्फ भारतमें ही है ऐसा नहीं है. यह प्रणाली जापानसे ले कर मीस्र और मेक्सीको तक है या थी.

लेकिन नहेरुवीयन कोंग्रेसको महात्मा गांधीका नाम लेके और महात्मा गांधीकी कोंग्रेसकी धरोहर पर गर्व लेके वोट बटोरना अच्छा लगता है, लेकिन महात्मा गांधीके रामराज्यकी बात तो दूर रही, लेकिन रामको भारत माता का ऐतिहासिक सपूत मानने से भी वह इन्कार करती है. यह नहेरुवीयन कोंग्रेसको भारतीय संस्कृतिकी परंपरा पर जरा भी विश्वास नहीं है. उसके लिये सब जूठ है. राम भी जूठ है क्योंकि वह धार्मिक व्यक्ति है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसने रामको केवल धार्मिक व्यक्ति बनाके भारतीय जनतांत्रिक परंपराकी धज्जीयां उडा देनेकी भरपूर कोशिस की. नहेरुवीयन कोंग्रेसने रामका ऐतिहासिक अस्तित्व न्यायालयके सामने शपथ पूर्वक नकार दिया.

पूजन किनका होता है

अस्तित्व वाले तत्वोंका ही पूजन होता है. या तो वे प्राकृतिक शक्तियां होती है या तो वे देहधारी होते है. जिनका अस्तित्व सिर्फ साहित्यिक हो उनकी कभी पूजा और मंदिर बनाये जाते नहीं है. विश्वमें ऐसी प्रणाली नहीं है. लेकिन मनुष्यको और प्राकृतिक तत्वोंको पूजनेकी प्रणाली प्रचलित है, क्यों कि उनका अस्तित्व होता है.

महामानवके बारेमें एकसे ज्यादा लोग कथाएं लिखते है. महात्मागांधीके बारेमें हजारों लेखकोंने पुस्तकें लिखी होगी और लिखते रहेंगे. लेकिन “जया और जयंत”की या “भद्रंभद्र” की जीवनीके बारेमें लोग लिखेंगे नहीं क्यों कि वे सब काल्पनिक पात्र है.

भद्रंभद्रने माधवबागमें जो भाषण दिया उसकी चर्चा नहीं होगी, लेकिन विवेकानंदने विश्व धर्मपरिषदमें क्या भाषण दिया उसकी चर्चा होगी. विवेकानंदकी जन्म जयंति लोग मनायेंगे लेकिन भद्रंभद्रकी जन्म जयंति लोगे मनायेंगे नहीं.

राम धर्मके संलग्न हो य न हो, इससे रामके ऐतिहासिक सत्य पर कोई भी प्रभाव पडना नहीं चाहिये.

मान लिजीये चाणक्यको हमने भगवान मान लिया.

चाणक्यके नामसे एक धर्म फैला दिया. काल चक्रमें उसका जन्म स्थल ध्वस्त हो गया. नहेरुवीयनोंने भी एक धर्म बना लिया और एक जगह जो चाणक्यका जन्म स्थल था उसके उपर एक चर्च बना दिया. जनताने उसका उपयोग उनको करने नहीं दिया. तो अब क्या किया जाय? जे. एल. नहेरुका महत्व ज्यादा है या चाणक्य का? चाणक्य नहेरुसे २४०० मील सीनीयर है. चाणक्यका ही पहेला अधिकार बनेगा.

हिन्दु प्रणाली के अनुसार मृतदेहको अग्निदेवको अर्पण किया जाता है. वह मनुष्यका अंतिम यज्ञ है जिसमें ईश्वरका दिया हुआ देह ईश्वरको वापस दिया जाता है. यह विसर्जनका यज्ञ स्मशान भूमिमें होता है. इसलिये भारतीयोंमें कब्र नहीं होती. लेकिन महामानवों की याद के रुपमें उनकी जन्मभूमि या कर्म भूमि होती है. या तो वह उसकी जन्मभूमि होती है या तो उनसे स्थापित मंदिर होते हैं. ईश्वर का प्रार्थनास्थल यानी की मंदिर एक जगहसे दुसरी जगह स्थापित किया जा सकता है. लेकिन जन्म भूमि बदल नहीं सकती.

एक बात लघुमतीयोंको समझनी चाहिये कि, ईसाई और मुस्लिम धर्ममें शासकोंमें यह प्रणाली रही है कि जहां वे गये वहां उन्होने वहांका स्थानिक धर्म नष्ट करने की कोशिस की, और स्थानिक प्रजाके धर्मस्थानोंको नष्ट करके उनके उपर ही अपने धर्मस्थान बनाये है. यह सीलसीला २०वीं सदीके आरंभ तक चालु था. जिनको इसमें शक है वे मेक्सीको और दक्षिण अमेरिकाके स्थानिक लोगोंको पूछ सकते हैं.

जनतंत्रमें राम मंदिर किस तरहसे बन सकता है?

श्रेष्ठ उपाय आपसी सहमती है, और दूसरा उपाय न्यायालय है.

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शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः राम वचन, प्रतिज्ञा, नहेरुवीयन, नहेरु, ईन्दीरा, महात्मा गांधी, राम राज्य, राजा राम, अर्थघटन, नियम, परिवर्तन, प्रणाली, शासक, अधिकार, रुल ऑफ लॉ, निगरानी, सत्ता, ऋषि, ईश्वर, मनु, अधिकारी, जनतंत्र, हिन्दु, धर्म 

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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-8

खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग)

सीता धरतीमें समा गई. एक पाठ ऐसा है कि वाल्मिकी खुद, सीताकी शुद्धता शपथसे कहे और वशिष्ठ उसको प्रमाण माने . लेकिन राम का मानना है कि, ऐसी कोई प्रणाली नहीं है. प्रणाली सिर्फ अग्नि परीक्षाकी ही है. सीताको पहेलेकी तरह अग्निपरीक्षा देनी चाहिये.

सीताने पहेलेकी तरह अग्नि परीक्षा क्युं न दी? सीताको लगा कि, ऐसी बार बार परीक्षा देना उसका अपमान है. इस लिये योग्य यह ही है कि वह अपना जीवन समाप्त करें.

इस बातका जनताके उपर अत्यंत प्रभाव पडता है. और जनता के हृदयमें राम के साथ साथ सीताका स्थान भी उतनाही महत्व पूर्ण बन जाता है.

राम और नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेता गण

राम की सत्य और प्रणालीयोंके उपरकी निष्ठा इतनी कठोर थी, कि अगर उसको हमारे नहेरुसे लेकर आजके नहेरुवीयन कोंग्रेसके वंशज अगर रामके प्रण और सिद्धांकोके बारेमें सोचने की और तर्क द्वारा समझने की कोशिस करें, तो उनके लिये आत्महत्याके सिवा और कोई मार्ग बचता नहीं है.

राजाज्ञा और राजाज्ञाके शब्दोंका अर्थघटन

रामने तो अजेय हो गये थे. राज्य का कारोबार भी स्थापित और आदर्श परंपरा अनुसार हो रहा था.

एक ऋषि आते है. वे रामके साथ अकेलेमें और संपूर्णतः गुप्त बातचीत करना चाहते है. वह यह भी चाहते है कि जबतक बातचीत समाप्त न हो तब तक किसीको भी संवादखंडके अंदर आने न दिया जाय. राम, लक्ष्मणको बुलाते है. और संवादखंड के द्वारके आगे लक्ष्मणको चौकसी रखने को कहते है. और यह भी कहते है कि यह एक राजाज्ञा है. जिसका अनादर देहांत दंड होता है.

राम और ऋषि संवाद खंडके अंदर जाते है. लक्ष्मण द्वारपाल बन जाता है. संवादखंडके अंदर राम और ऋषि है और बातचीत चल रही है.

कुछ समयके बाद दुर्वासा ऋषि आते है. वे लक्ष्मणको कहेते है कि रामको जल्दसे जल्द बुलाओ. लक्ष्मण उनको बताते है कि राम तो गुप्त मंत्रणा कर रहे है, और किसीको भी जानेकी अनुमति नहीं है. दुर्वासा आग्रह जारी रखते है और शीघ्राति शीघ्र ही नहीं लेकिन तत्काल मिलनेकी हठ पर अड जाते है. और लक्ष्मणके मना करने पर वे गुस्सा हो जाते है. और पूरे अयोध्याको भष्म कर देनेकी धमकी देते है. तब लक्ष्मण संवाद खंड का द्वार खोलता है. ठीक उसी समय राम और ऋषिकी बातचीत खत्म हो जाती है और दोनों उठकर खडे हो जाते है.

“संवादका अंत” की परिभाषा क्या?

संवाद का प्रारंभ तो राम और ऋषि खंडके अंदर गये और द्वार बंद किया तबसे हो जाता है.

लेकिन संवादका अंत कब हुआ?

जब राम और ऋषिने बोलना बंद किया तबसे?

जब राम और ऋषि आसन परसे उठे तबसे?

जब राम और ऋषि द्वारके पास आये तबसे?

जब राम और ऋषि द्वार के बाहर आये तब?

रामके हिसाबसे जब तक राम और ऋषि द्वारके बाहर न आवे तब तक संवादका अंत मानना नहीं चाहिये.

जब राम और ऋषिने बोलना बंद किया तबसे संवादका अंत मानना नहीं चाहिये. क्यों कि यह तो दो मुद्दोंके बीचका विराम हो सकता है. यह भी हो सकता है वे दोनोंको कोई नया मुद्दा या कोई नयी  बात याद आ जावें?

जब राम और ऋषि आसन परसे उठे तबसे भी संवादका अंत न मानना चाहिये, क्योंकि  वे नयी बात याद आने से फिरसे बैठ भी सकते है. 

जब राम और ऋषि द्वारके पास आये तबसे भी संवादका अंत न मानना चहिये, क्यों कि वे बीना द्वार खोले वापस अपने स्थान पर जा सकते है.

चौकीदारके लिये ही नहीं परंतु राम, ऋषि और सबके लिये भी, जब वे दोनों (राम और ऋषि),  द्वार खोलके बाहर आते है तब ही संवाद का अंत मान सकता है. क्यों कि संवादकी गुप्तता तभी खतम हुई होती है.

तो अब प्रणाली के हिसाबसे राजाज्ञाका अनादर करने के कारण, लक्ष्मणको देहांत दंड देना चाहिये.

लक्ष्मण, जो रामके साथ रहा और दशरथकी आज्ञा न होने पर भी रामके साथ वनवासमें आया और खुदने अनेक दुःख और अपमान झेले. उसका त्याग अनुपम था. इस लक्ष्मणने अयोध्याकी रक्षाके लिये राजाज्ञाका शाब्दिक उल्लंघन किया जो वास्तवमें उल्लंघन था भी नहीं. जो ऋषि रामके साथ संवाद कर रहे थे उनको भी यह लगता नहीं था कि लक्ष्मणने राजाज्ञाका उल्लंघन किया है. लेकिन क्षुरस्य धारा पर चलने वाले रामको और लक्ष्मणको लगा की राजाज्ञाका उल्लंघन हुआ है.

रामने वशिष्ठसे पूछा. उनके अर्थघटनके अनुसार भी राजाज्ञाका उल्लंघन हुआ था. लेकिन देहांत  दंड के बारेमें एक ऐसी भी अर्थघटनकी प्रणाली थी कि अगर देहांत दंड जिस व्यक्ति के उपर लागु करना है वह अगर एक महाजन है तो उसको “स्वदेश त्याग” की सजा दे जा सकती है. रामने लक्ष्मणको वह सजा सूनायी.

लक्ष्मण अयोध्यासे बाहर निकल जाते है और सरयु नदीमें आत्म हत्या कर लेते है.

तो यह थी राम, लक्ष्मण और सीताकी मानसिकता.

इस मानसिकताको भारतकी जनताने मान्य रख्खी. अर्वाचीन समयको छोड कर किसीने रामको कमअक्ल और एक निस्फल पति या कर्तव्य हीन पति, ऐसा बता कर उनकी निंदा नहीं की. सीता और लक्ष्मण की भी निंदा नहीं की.

लेकिन अर्वाचीन युगमें और खास करके नहेरुवीयन युगमें कई मूर्धन्योंने रामकी निंदा की है. रामके त्यागका, रामके उत्कृष्ठ अर्थघटनोंका, रामकी कर्तव्य निष्ठाका, रामकी प्रणालीयोंके प्रति आदरका वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया है.

RAMA PROVIDED RULE OF LAW

शिरीष मोहनलाल दवे 

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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-6

खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग-)

 

राजाराम

रामके लिये हम “राजाराम” ऐसा शब्द प्रयोग करते है. इसका कारण भी है और एक संदेश भी है. राम भी तो एक चक्रवर्ती राजा थे. तो भी हम उनको “चक्रवर्ती” राम ऐसा कहेते नहीं है. जो राज्य को चलाता है वह राजा है. राजकर्ताओमें चक्रवर्ती राजा भी आ जाता है. रामने जिस तरह राज कीया और जो प्रणालीयां चलाई वो उस समय आदर्श मानी जाती थी और बादमें भी मानी जाती होगी इस लिये हरहमेश राम एक आदर्श राजा रहे और इस लिये वे पूजनीय भी बने.

आदर्श राजा की परिभाषा क्या है?

जो राजा प्रस्थापित प्रणालीयोंका पालन करावे और स्वयं भी प्रस्थापित प्रणालीयोंका पालन करे और ऐसा करनेमें वह जरा भी शंकास्पद व्यवहार न करे उसको आदर्श राजा कहा जाता है.

प्रणाली क्या होता है?

समाजमें व्यक्तिओंका व्यवहार प्रणालीयोंके आधार पर है. नीति नियमोंका पालन भी प्रणालीके अंतर्गत आता है. अलग अलग जुथोंका व्यक्तिओंका कारोबार भी प्रणालीके अंतर्गत आता है. कर्म कांड और पूजा अर्चना भी प्रणालीके अंतरर्गत आते है.

 

राजा को भी अपने लिये जो परापूर्वसे जो आदर्श मानी गयी है उन्ही प्रणालीयोंका हृदयसे पालन करना होता है. राजा नयी प्रणाली / प्रणालीयोंकी स्थापना कर सकता नहीं है. यह उसका अधिकार भी नहीं है.

 

रामने रावणको तो हरा दिया और उसके भाई विभिषणको उसका राज्य दे दिया. क्यों कि राजा का धर्म है पुरस्कार देना. यह आदर्श माना गया है. ऐसा भी एक पाठ है कि विभिषण जब रावणको छोड कर राम के पास रामको मदद करनेके लिये आया तो रामने मददके बदलेमें लंकाकी राजगद्दीका आश्वासन दिया था तना ही नहीं, लेकिन उसका राज्याभिषेक भी कर दिया था. इसको रामकी मुत्सदिता कहो या कुछ भी कहो. लेकिन उन्होने विभिषणके पास पूरी पारदर्शिता रखी थी. इस प्रकार दोनो एक दुसरेके लिये वचन बद्ध हो गये थे.

 

सीता मुक्त हो गयी. रामने एक राजा की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की

लेकिन सीता, अपने हरणके बाद, तो लंकामें रावण के अधिकारमें थी. यह बात सही है कि, रावणने सीताको अपने महलमें नहीं रखा था. इसके साक्षी हनुमान थे. लेकिन हनुमान तो रामके दूत और सलाहकार थे और रामसे अभिभूत थे. उनका कहेना कैसे मान लिया जाय? राजा या कोई भी पुरुष कभी पराये पुरुषके घर गई और ठहरी अपनी स्त्री को पवित्र मान सकता नहीं है. पर पुरुषके घर ठहरी स्त्रीको पवित्र कैसे माना जाय? 

तो क्या किया जाय?

सीता को अपनी पवित्रता सिद्ध करनी चाहिये?

तो पवित्रता सिद्ध करनेके लिये क्या प्रणाली थी?

अग्नि परीक्षा.

 

अग्नि परीक्षा क्या है?

चिता-प्रवेष. या अंगारों पर चलना.

चिता-प्रवेश करके बिना जले वापस आना एक चमत्कार है. हम चमत्कारोंमे मानते नहीं है. लेकिन आज भी कई लोग अंगारोंके उपर चलके दिखाते है.

अग्नि परीक्षा का एक विशेष अर्थ यह भी है कि मानसिकता की परीक्षा. जैसे कि “यक्ष प्रश्न” एक ऐसा प्रश्न है कि या तो उसका उत्तर ढूंढो या तो खतम हो जाओ.

“२००१ में भूकंप पीडित गुजरातको बाहर निकालके प्रगतिके पथ पर लाना” या तो “२००२ के गुजरातके दंगेके कारण विचलित गरिमाको पुनःस्थापित करना” नरेन्द्र मोदीके लिये अग्निपरीक्षा थी. और “भ्रष्टाचारको कैसे खतम किया जाय” यह देशका यक्ष प्रश्न है.

 

सीताने तत्कालिन प्रचलित अग्निपरीक्षा पास की. रामने सीताका स्विकार किया.

राम, सीता लक्ष्मण और हनुमान अपने साथीयोंके साथ अयोध्या आये. भरत भी प्रस्थापित प्रणालीयोंमें मानने वाला शासक था, उसने रामको अयोध्या की राजगद्दी दे दी.

 

राम भली भांति राज करने लगे.

एक ऐसा भी पाठ है कि इस रामके अच्छे गुणोंकी और पराक्रमोंकी अतिप्रशंसा तो होती ही थी, लेकिन उसमें एक और बात भी चलती थी कि, परपुरुष के घर रही हुई सीता को रामने कैसे अपनाया?

परपुरुषके घर पर रही हुई स्त्री पवित्र होती है?

आजकी मान्यता क्या है?

 

अगर एक स्त्री और एक पुरुष एक घरमें एक साथ रहते है तो स्त्रीको पवित्र मानी जाती है? ( पवित्रताके बारेमें स्त्री और पुरुष दोनोंको समझ लो).

एक पुरुष और एक स्त्री अगर अकेले एक घरमें रहते है तो उनमें शारीरिक संबंध नहीं हुआ होगा ऐसा न्यायालय मानती नहीं है. न्यायालयका मानना है कि अगर उस स्त्रीका पति, अपनी स्त्रीको दुःचरित्रवाली समझे तो वह मान्य है. क्योंकि पर पुरुष एक परायी स्त्रीको अपने साथ अकेलेमें रखता है तो वह उसको इबादतके (पूजाके) लिये नहीं रखता है. और पतिको इस कारणसे उस स्त्रीसे तलाक मिल सकता है. ठीक उसी प्रकार एक स्त्री को भी एक वैसे ही पुरुषसे तलाक मिल सकता है.

 

अगर यह मान्यता आज भी है तो अगर ऐसी मान्यता आजसे पांच दश हजार साल पहले रखी जाती हो तो इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिये.

 

हम गलती कहां करते है?

 

हम एक मान्यताका स्विकार करके और पूर्ण विश्वाससे सीताकी पवित्रताको मान लेते है और फिर आगे चर्चा करते हैं.

क्यों कि हमने स्विकार कर लिया कि,

सीताको रावणके महलमें नहीं रक्खा गया था,

सीताको अशोकवनमें रक्खा गया था,

सीताके पास दैवी शक्तिथी कि रावण उसके पास आ नहीं सकता था और उसको स्पर्ष नहीं कर सकता था.

रामने लंकामें सीताकी अग्नि परीक्षा ली थी, और उसमें सीता सफल रही थी.

साक्षी कौन थे?

लेकिन इन सभी बातोंमे साक्षी कौन थे? इसका साक्षी कोई त्राहित व्यक्ति (थर्ड पार्टी जिनको रामसे और सीतासे कोई भी सरोकार न हो) नहीं था. अग्नि परीक्षा हुई, वह तो रामकी सेनाकी साक्षीमें हुई. राम की सेनाको कैसे त्राहित माना जाय.?

 

निष्कर्ष यही है कि वह अग्नि-परीक्षा अमान्य (ईनवेलीड) थी.

 

जिस बातको या जिस मान्यताको अगर आप प्रणालीके अंतर्गत सिद्ध न कर सके, तो उसको स्विकारा नहीं जा सकता. सीता की पवित्रता भी सिद्ध नहीं हो सकती थी. और इस बातको उछाला गया.

 

जिस बातको आप नकार नहीं सकते, जनताकी या तो कोई एक व्यक्ति की उस बातका या ऐसी मान्यताका आदर किया जाय, उस व्यवस्थाका नाम है जनतंत्र.

 

जिस सत्यको (बातको) नकारा न जा सके, उस सत्यका (बातका) जहां आदर होता है, चाहे वह सत्य कितने ही निम्न स्तरसे क्यों आया न हो, तो भी अगर उसका आदर होता है, उसको जनतंत्र (डेमोक्रसी) माना जाता है.

 

तो रामने उस सत्यका आदर किया. “आदर किया” मतलब आवश्यक कदम उठाये ताकि प्रणालीको क्षति न हो.

लेकिन राम तो राजा थे. युगपुरुष थे. एक पूर्ण पुरुष थे. क्या वे अपना दिमाग नहीं चला सकते थे?

जरुर चला सकते थे. और उन्होने चलाया भी.

कैसे उन्होने अपना दिमाग चलाया? कहां उन्होने गलती की? उन्होने गलती की थी या नहीं?

(क्रमशः)

 Rama Married Sita none else

शिरीष मोहनलाल दवे

 

टेग्झः राजाराम, सीता, परपुरुष, स्त्री, अपवित्र, पवित्र, अग्नि परीक्षा, थर्ड पार्टी, सत्य, प्रणाली, आदर, जनता, जनतंत्र 

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