अनीतियोंसे परहेज (त्यागवृत्ति) क्यों? जो जिता वह सिकंदर
जब टीम अन्नाने केन्द्रीय मंत्री के समक्ष “जन लोकायुक्त” के विधेयकका प्रारुप (ड्राफ्ट) बनाके प्रस्तूत किया तो मंत्रीने कहा कि आप कौन है हमे यह कहेने वाले कि आप जनताका प्रतिनिधित्व करते है? हमारा उत्तरदायित्व आपसे नहीं है. जनताके वास्तविक प्रतिनिधि तो हम है. इसलिये हम ही लोकायुक्तका विधेयक बनायेंगे. जनताने हमे चूना है. जनताने आपको चूना नहीं है.
अनाधिकार चेष्टाः
प्रसार माध्यमोंकी परोक्ष धारणा और संदेश या प्रयास और नहेरुवीयन कोंग्रेसके आचारणसे मानो कि, ऐसा ही लगता है यह कोंग्रेस चूनाव जितती ही आयी है इसलिये वह जनप्रतिनिधित्व करती है.
एक बात सही है कि टीम अन्ना संविधानके अंतर्गत चूना हुआ प्रतिनिधित्व नहीं रखती. लेकिन शासक के पास ऐसा मनमानी करनेका अधिकार नहीं है. खासकरके लोकायुक्त के प्रारुपसे संबंध है, टीम अन्ना और शासक (नहेरुवीयन कोंग्रेस) एक समान या तो एक कक्षा पर है या तो टीम अन्ना शासकसे उच्च स्तर पर है. क्युं कि, टीम अन्नाने तो अपना लोकायुक्त-विधेयकका प्रारुप जनताके समक्ष रख दिया था. नहेरुवीयन कोंग्रेसने चूनावके प्रचार के समय अपने विधेयकका प्रारुप कभी भी जनताके सामने रक्खा नहीं था. इसीलिये नहेरुवीयन कोंग्रेसके पास ऐसा कोई अधिकार बनता नहीं है कि वह लोकायुक्त या कोई भी विधेयकके प्रारुपके बारेमें यह सिद्ध कर सके कि उसके पास इस बात पर जनप्रतिनिधित्व है.
दूसरी बात यह है, कि नहेरुवीयन कोंग्रेस वैसे भी पूर्ण बहुमतमें नहीं है. और साथी पक्षोंके साथ मिल कर उसने चूनावके पूर्व ऐसा कोई विधेयकका प्रारुप बनाया नहीं था, न तो किसीने उसको जनतासे उसीके आधार पर मत मांगे थे. इसलिये नहेरुवीयन कोंग्रेस जो बहुमतकी बात करती है वह एक भ्रामक तर्क है. जब जनताके साथ विधेयकके बारेमें पारदर्शिता ही नहीं है तो काहेका प्रतिनिधित्व हो सकता है?
भ्रष्ट प्रतिनिधित्वः
चूनावमें जो अभ्यर्थी (केन्डीडॅट) है उसके प्रचार के खर्चकी एक सीमा है. यह सीमा बीसलाख रुपये है.
२० लाख रुपये, एक अत्यधिक रकम है. तो भी जो लोग जानते है वे कहते है कि इससे ज्यादा ही खर्च किया जाता है. अगर देशमें ६६ प्रतिशत लोग गरीबीकी रेखामें आते है तो चूनावमें २०लाख रुपयेका खर्च करने वाला व्यक्ति, जनप्रतिनिधि कैसे हो सकता है? अगर चूनावमें प्रचारके लिये २० लाख रुपयेकी जरुरत पडती है तो २० लाख रुपयेका खर्च करनेवाला अभ्यर्थी जनताके अभिप्रायको कैसे प्रतिबिंबित कर सकता है? इतना ही नहीं इस अभ्यर्थीके पास न तो कोई प्रक्रिया है न तो उसने कभी ऐसी प्रक्रिया स्थापित की होती है कि वह जन अभिप्रायको परिमाणित (क्वान्टीफाय) कर सके और अपना प्रतिनिधित्व सिद्ध कर सके.
इन सब भ्रष्ट प्रावधानोंके बावजुद, नहेरुवीयन कोंग्रेसने कभी लिखित चूनाव प्रावधानोंके अनुसार सुघडतासे चूनाव जिता नहीं है.
१९५२ का चूनावः
उस समय प्रमुख राजकीय पक्ष जनसंघ, समाजवादी, किसान, रामराज्य, हिन्दुमहासभा और कोंग्रेस (जो उस समय नहेरुवीयन कोंग्रेस बन चुकी थी.) थे.
हर पक्षके लिये अलग अलग मतपेटी रखी जाती थी. बुथ अधिकारीसे एक मत पत्रक ले के बुथके कमरेमें जाके अपना मतपत्र अपने मान्य अभ्यर्थीकी (केन्डीडेटकी) मतपेटीमें डालनेका होता था.
यह एक अत्यंत क्षति युक्त प्रक्रिया थी.
१. मतदारने अपना मतपत्रक मतकक्षमें रक्खी मतपेटीमें डाला या नहीं वह जाना नहीं जा सकता था. ग्राम्य विस्तारमें और गरीब विस्तारमें कोंग्रेसी लोग मतदारको समझा देते थे कि तुम बिना मतपत्र डाले ही मतकक्षसे बाहर आ जाओ. और हमे वह मतपत्र देदो. हम तुम्हें कुछ दे देंगे. इस प्रकार कोंग्रेसी लोग ऐसे मतपत्रक अपने विश्वासु मतदाताके द्वारा अपनी मत पेटीमें डलवा देते थे.
२. कस्बे और शहेरी विस्तार जहां लोग कुछ समझदार थे वहां पर वह दुसरे पक्षके अभ्यर्थीकी मतपेटी गूम कर देते थे. मत पेटीयोंका हिसाब नहीं रक्खा जाता था. कई जगह पायखानोंमेंसे और कुडेमेंसे मत पत्रमिले थे.
३. चूनाव और उसके परिणामकी घोषणा एक साथ नहीं होती थी. जहांपर कोंग्रेसकी जित ज्यादा संभव थी वहां प्रथम चूनाव करके उसके परिणामकी घोषणा कि जाती थी. ता कि, उसका असर दुसरी जगह पड सके.
४. ऐसी व्यापक शिकायत थी कि, जिस अभ्यर्थी की हवा थी उसके विपरित अभ्यार्थी चूनाव जितते थे.
५. ४५ प्रतिशत मतदान हुआ था और उसमें भी कोंग्रेसको ४५ प्रतिशतका भी ४५ प्रतिशत मतलब कि २० प्रतिशत मत मिले थे जिसमें फर्जी मत भी सामील थे जो जो अन्य पक्षोंके थे.
६. कई सारे अपक्ष प्रत्यासी के कारण कोंग्रेसके विरुद्धके मत बिखर जाते थे. ब्रीटीश सरकारके समयमें किये गये स्थानिक सरकारमें कोंग्रेसको हमेशा ७५ प्रतिशतसे ज्यादा मत मिलते थे. यह ४५ प्रतिशत जिसमें ज्यादातर फर्जी मत भी संमिलित थे तो भी उस समय तकके यह मत सबसे कम मत थे.
७. ऐसी परिस्थितिके कारण कोंग्रेसको ४८९ मेंसे ३६४ बैठक मिली थीं.
१९५७ का चूनावः
नहेरुको छोडकर कोंग्रेसके अन्य नेता गांधीवादके ज्यादा नजदीक थे. उन्होने अच्छा काम किया था. बडी बडी नहेर योजनायें बनी थी. इसके कारण ग्राम्यप्रजा कोंग्रेसके साथ रही. लेकिन शहरोमें वही बेईमानी चली जो १९५२में चली थी. भाषावार प्रांतरचनामें नहेरुने खुद भाषावादके भूतको जन्म दिया था. यह सर्वप्रथम “जनताको विभाजित करो और चूनाव जितो” का प्रयोग था. अपि तु नहेरु हमेशा जनसंघ और हिन्दुमहासभाके विरुद्ध प्रचार करते थे.
मतदान ५५ प्रतिशत हुआ था. और कोंग्रेसको ४८ प्रतिशत मतके साथ ३७१ बैठकें मिली थीं. कुल ४९४ बैठके थीं.
कोंग्रेसने केराला खोया था. मुंबई (गुजरात, महराष्ट्र, कर्नाटक संयुक्त होनेके कारण ) खोया नहीं था.
१९६२का चूनावः
चीनके साथ युद्ध होना बाकी था. चीनकी घुसपैठके कारण नहेरु बदनाम होते रहेते थे. लेकिन मीडीया नहेरुका गुणगान करता था. ओल ईन्डीया रेडियो कोंग्रेसका ही था.
मुस्लिम लीगके साथ समझोता करके कोंग्रेसने मुस्लिमोंमें कोमवादके बीज बो दिये थे.
१९५८ -१९६० के अंतर्गत, कोंग्रेस ने भाषावार प्रांतरचना करके कई राज्योंको खुश भी किया था.
१९६२में दीव, दमण और गोवा उपर आक्रमण करके उसको जित लिया था.
कई बैठकों के उपर, कोंग्रेसने साम्यवादीयोंका सहारा लिया था.
उद्योग बढे थे. राज्योंकी सरकारोंने अच्छा काम किया था.
मतदान ५५ प्रतिशत हुआ था. कोंग्रेसको ४५ प्रतिशत मत मिले थे. ३६१ बैठकें मिली थीं. कुल बैठक ४९४ थीं.
अगर मीडीयाने चीनका मामला दबाया नहीं होता और नहेरुके विरोधीयोंको बदनाम किया नहीं होता तो चित्र अलग बन सकता था. मीडीया उस समय पढे लिखे लोगोंको भ्रमित करती थी. अनपढ लोग देहातोंमे काफि थे. उनको आतंर् राष्ट्रीय बातोंसे कोई संबंध नहीं था. पंचायती राजने देहातोंके लोगोंको अपने अपने स्वकीय हितवाले राजकारणमें घसीट लिया था. देशकी निरक्षरताने कोंग्रेसको पर्याप्त लाभ किया था.
१९६२- १९६७ का समयः
कोंग्रेसके खिलाफ जनमत जागृत हो गया था. नहेरुकी बेवकुफ नीतियोंका भांडा फूट चूका था. नहेरुने जो चालाकीसे विरोधीयोंको निरस्त्र करनेके दाव खेले थे वे उजागर होने लगे थे. विदेशनीतिकी खास करके चीनके साथ पंचशील करार वाली विफल विदेश नीति जनताको मालुम हो गई थी. नहेरुको शायद मालुम था कि, अगर उनके बाद अपनी बेटीने देशकी लगाम हाथ न ली तो उनके द्वारा कि गई हिमालय जैसी बडी मूर्खता जनता जान ही जायेगी. और इसके कारण उनका नाम इतिहासमें काले अक्षरोंसे लिखा जायेगा. अपनी बेटी इन्दीराको देशकी धूरा सोंपने के लिये उन्होने सीन्डीकेट बनायी थी.
इस सीन्डीकेटने नहेरुको वादा किया था कि अगर हम दूबेंगे तो साथमें डूबेंगे और पार कर जायेंगे तो साथमें तैरके पार कर जायेंगे. नहेरुवीयन कोंग्रेसकी एक प्रणाली है, कि जब भी गंभीर समस्या आती है तब आमजनताका ध्यान मूलभूत समस्यासे हटानेके लिये तत्वज्ञान की भाषाका उपयोग करके नौटंकी करना.
“संस्थाको मजबूत करो” यह नारा बनाया और मोरारजी देसाईको मंत्रीमंडलसे हटाया. मोरारजी देसाईको गवर्नन्स को सुधारने के लिये एक वहीवटी-सुधारणा पंच बनवाके उसका अध्यक्ष बना दिया. इसप्रकार मोरारजी देसाईको उन्होने कामराजप्लानके अंतरगत खतम कर दिया था. इसमें मीडीयाने पूरा साथ दिया था. चीनके साथ जो शर्मनाक पराजय हुई उसको मीडीयाने इस प्रकार भूला दिया. जैसे आज केजरीवालको मीडीया चमकाने लगी है और कोंग्रेसकी राज्योंमें हुई घोर पराजयोंको पार्श्व भूमिमें रखवा दिया है.
दुसरा उन्होने यह किया कि समाजवादी पक्षको “समाजवाद”के नाम पर अपनेमें समा दिया.
तो भी जो चीनके साथके युद्धमें जो बदनामी हुई थी वह पूर्ण रुपसे नष्ट नहीं हुई. और नहेरुकी १९६४में वृद्धावस्था जल्द आजानेसे मृत्य हो गई. उस समय राष्ट्रपति बेवकुफ राष्ट्रपति नहीं थे इस लिये शिघ्रतासे ईन्दीरा गांधीका राज्याभिषेक नहीं हो पाया. लालबहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री करना पडा.
नहेरुवीयन प्रधान मंत्रीसे अ-नहेरुवीयन प्रधान मंत्री हमेशा अधिक दक्षतापूर्ण होता है यह बात शास्त्रीने सबसे पहेले सिद्ध की. लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि, पाकिस्तानको डर लगने लगा. और उसने अपने यहांसे हिन्दुओंको भगाने का काम चालु किया. जैसा भारतमें कोंग्रेसका चरित्र है, वैसा पाकिस्तानमें उसके शासकोंका चरित्र है. पश्चिम पाकिस्तानमें सिंधी, पंजाबी, बलुची, मुजाहिदों के बिच राजकीय आंतरविग्रह चलता था. तो वहांके सैनिक शासकोंने भारत पर हमला कर दिया. पाकिस्तानको शायद ऐसा खयाल था कि चीनके सामने भारत हार गया है तो हमारे साथ भी हार जायेगा. वास्तवमें यदि नहेरुने भारतकी चीनके साथ लगी सीमाको निरस्त्र नहीं रखी होती तो चीनके साथ भी युद्धमें भारत हारता नहीं,
पाकिस्तानके युद्धमें दोनों देशोंने एक दुसरेकी जमीन पर कब्जा किया था. लेकिन भारतने जो कब्जा किया था वह पाकिस्तानके लिये अधिक महत्वपूर्ण था. इसलिये ऐसा लगता था कि, भारतका हाथ उपर है. और अब पाकिस्तान को ऐसा सबक मिलेगा कि, वह कभी भी गुस्ताखी करनेका नाम लेगा नहीं. लेकिन रशिया और अमेरिकाने मिलके तास्कंदमें भारतके प्रधान मंत्रीपर ऐसा दबाव डाला कि, करार के अनुसार दोनोंकों अपनी अपनी भूमि वापस मिले. ऐसा माना जाता है कि, शास्त्रीजीका आकस्मिक निधन इसी वजहसे हुआ. और यह बात आज तक रहस्यमय है. शास्त्रीजीके दक्षता पूर्ण शासन और निधनसे कोंग्रेसका तश्कंदका लगा कलंक तो पार्श्वभूमिमें चला गया.
सीन्डीकेटने इन्दीरा गांधीको प्रधानमंत्री बना दिया. जैसे आज नरेन्द्र मोदीके हरेक वक्तव्योंकी बालकी खाल निकालते है ठीक उसी तरह प्रसारमाध्यमोंने भी सीन्डीकेटको समर्थन दिया और मोरारजी देसाईके वक्तव्योंकी बालकी खाल निकाली.
इन्दीरा गांधी एक सामान्य औरत थी, जैसा आज राहुल गांधी है.
१९६७ का चूनाव
गुजरातमें स्वतंत्रपक्ष उभर रहा था. अन्य राज्योंमें भी स्थानिक या राष्ट्रीय पक्ष उभरने लगे थे. इसमें संयुक्त समाजवादी पक्ष, साम्यवादी पक्ष, जनसंघ मूख्य थे. कोंग्रेसकी नाव डूब रही थी. लेकिन विपक्ष संयुक्त न होने की वजहसे और कोंग्रेस अविभाजित थी और उसका संस्थागत प्रभूत्व ग्राम्यस्तर तक फैला हुआ था, इसलिये उसको केन्द्रमें सुक्ष्म तो सुक्ष्म, लेकिन बहुमत तो मिल ही गया.
इस चूनावमें ६१ प्रतिशत मतदान हुआ. कोंग्रेसको ४१ प्रतिशत मत मिले थे. और उसको ५२० मेंसे २८३ बैठकें मिलीं. विपक्षको विभाजित होने के कारण २३७ बैठकें मिली. कई राज्योंमें कोंग्रेसने शासानसे हाथ धोये.
सीन्डीकेटको भी पता चला कि, मोरारजी देसाई जैसे दक्षता पूर्ण व्यक्ति मंत्रीमंडळमें नहीं होनेकी वजहसे पक्षको घाटा तो हुआ ही है. अगर कमजोर प्रधान मंत्री रहेंगे तो भविष्यमें कोंग्रेस नामशेष हो सकती है. सिन्डीकेटने मोरारजी देसाईको, इन्दीरा गांधीकी नामरजी होते हुए भी, मंत्री मंडलमें सामिल करवाया.
ऐसा माना जाता हैअ कि, अब ईन्दीरा गांधीने राजकीय मूल्योंको बदल देनेका प्रारंभ किया वह भी विदेशी सलाहकारोंके द्वारा.
क्रमशः
शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः १९५२, १९५७, १९६२, १९६७, चूनाव, मतदान, मतदाता, मतपत्र, मतपेटी, मतकक्ष, कोंग्रेस अविभाजित, जनसंघ, हिन्दुमहासभा, मुस्लिम लीग, साम्यवादी, भ्रष्ट, सीन्डीकेट, नहेरुवीयन, मोरारजी, पारदर्शिता, जनप्रतिनिधित्व, जन, लोकपाल, विधेयक, प्रारुप, अभ्यर्थी