There is a difference between alliance against INC and against BJP
एक गठबंधन नहेरुवीयन कोंग्रेसके विरुद्ध और एक गठबंधन बीजेपीके विरुद्ध -२
जो गठबंधन १९७०में हुआ और उस समय जो सियासती परिस्थितियां थी वह १९७२के बाद बदलने लगी थीं.
भारत पाकिस्तान संबंधः
१९७०में एक ऐसी परिस्थिति बनानेमें इन्दिरा गांधी सफल हुई थी, कि उसने जो भी किया वह देशके हितके लिये किया. उसके पिताजी देशके लिये बहुत कुछ करना चाहते थे लेकिन कोंग्रेसके (वयोवृद्ध नेतागण) उसको करने नहीं देते थे. और अब वह स्वयं, नहेरुका अधूरा काम पूरा करना चाहती है. विद्वानोने, विवेचकोंने, मूर्धन्योंने और बेशक समाचार माध्यमोंने यह बात, जैसे कि उनको आत्मसात् हो गयी हो, ऐसे मान ली थी, और जनताको मनवा ली थी.
पूर्व पाकिस्तानमें बंग्लाभाषी कई सालोंसे आंदोलन कर रहे थे. पश्चिम पाकिस्तानी सेना हिन्दुओं पर और बंग्लाभाषी मुसलमानों पर आतंक फैला रही थी. उसके पहेले हिन्दीभाषीयोंसे बंगलाभाषी जनता नाराज थी. हिन्दीभाषी पूर्वपाकिस्तानवासीयोंकी और हिन्दुओंकी हिजरत लगातार चालु थी. वह संख्या एक करोडके उपर पहूंच चुकी थी. इन लोगोंको वापस भेजनाका वादा इन्दिरा गांधी कर रही थी.
भारतमें भी इन्दिरा गांधी पर सेनाका और खास करके जनताका दबाव बढ रहा था. पाकिस्तानने सोचा कि यह एक अच्छा मौका है कि भारत पर आक्रमण करें. यह लंबी कहानी है. १९७१में पाकिस्तानने भारत पर आक्रमण किया. भारतीय सेना तो तैयार ही थी. भारतकी सेनाके पास यह युद्ध जीतनेके सिवा कोई चारा ही नहीं था. और भारतने यह युद्ध प्रशंसनीय तरीकेसे जीत लिया. लेकिन इन्दिरा गांधीने सिमला समज़ौता अंतर्गत पराजयमें परिवर्तित कर दिया. या तो इन्दिरा गांधी बेवकुफ थी या ठग थी.
इस युद्धसे पहेले तो विधानसभाओंके चूनावको विलंबित करनेकी बातें इन्दिरा गांधी कर रही थी. लेकिन इस युद्धकी जीतके बात इन्दिरा गांधीने राज्योंकी विधान सभाओंका चूनाव भी कर डाला.
१९७2में राज्यों के विधान सभाके चूनाव भी इन्दिरा गांधीने जीत लिये. उसकी हिंमत बढ गयी थी. अब तो उसकी आदत बन गयी थी कि वह राज्योंमे अपनी स्वयंकी पसंदका नेता चूनें. इस प्रकार मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात … आदि सब राज्योंमें इन्दिराकी पसंदका नेता चूना गया यानी कि इन्दिराकी पसंदके मूख्य मंत्री बने.
गुजरातमें क्या हुआ?
वैसे तो १९७१ के लोकसभाके चूनावके बाद, देशके अन्य पक्षोंमें खास करके कोंग्रेस (ओ) में अफरातफरी मच गयी थी. बहुतेरे कोंग्रेस(ओ)के कोंग्रेसी चूहोंकी तरह इन्दिरा कोंग्रेसकी तरफ भाग रहे थे. कोंग्र्स(ओ)मेंसे बहुतसारे सभ्य इन्दिरा कोंग्रेसमें भाग गये थे. स्वतंत्र पक्ष तूट गया था. हितेन्द्र देसाई की सरकार तूट चूकी थी. इन्दिरा गांधीने अपनी पसंदका मुख्य मंत्री घनश्याम भाई ओझा को मुख्य मंत्री बनाया. १९७२में गुजरात विधान सभाका चूनाव हुआ. इस चूनावमें मोरारजी देसाईका गढ तूट गया था. विधान सभामें इन्दिरा कोंग्रेसको विधान सभाकी कुल १६८ सीटोमेंसे १४० सीटें मिलीं.
युद्ध सेना जीतती है, सरकार तो सिर्फ युद्ध करनेका या तो न करनेका निर्णय करती है. सेनाने युद्ध जीत लिया. इस जीतका लाभ भी इन्दिरा गांधीने १९७२के विधान सभा चूनावमें ले लिया. लेकिन युद्ध जीतना और चूनाव जीतना एक बात है. सरकार चलाना अलग बात है.
इन्दिरा गांधी पक्षमें सर्वोच्च थी क्यों कि उसको जनताका सपोर्ट था. पक्षमें वह मनचाहे निर्णय कर सकती थी. लेकिन सरकार चलाना अलग बात है. सरकार कायदेसे चलती है. सरकार चलानेमें अनेक परिबल होते है. इन परिबलोंको समज़नेमें कुशाग्र बुद्धि चाहिये, पूर्वानुमान करने की क्षमता चाहिये. आर्षदृष्टि चाहिये. विवेकशीलता चाहिये. इन सब क्षमताओंका इन्दिरा गांधीमें अभाव था.
गुजरातमें विधानसभा चूनावके बाद इन्दिराने अपने स्वयंके पसंद व्यक्तिको (घनश्याम भाई ओझाको) मुख्य मंत्रीपद के लिये स्विकारने का आदेश दिया. गुजरातके चिमनभाई पटेलने इसका विरोध किया. इन्दिराने एक पर्यवेक्षक भेजा जिससे वह घनश्याम भाई ओझाकी स्विकृति करवा सके. लेकिन वह असफल रहा. गुजरातमें इन्दिरा गांधी की मरजी नहीं चली.
१९७३में परिस्थिति बदलने लगी. केन्द्र सरकारके पास बहुमत अवश्य था. लेकिन कार्यकुशता और दक्षता नहीं थी. युवा कोंग्रेसके लोग मनमानी कर रहे थे. देशमें हर जगह अराजकताकी अनुभूति होती थी. विरोध पक्षके कई सक्षम नेता थे लेकिन वे हार गये थे. अराजकता और शासन के अभावोंके परिणाम स्वरुप महंगाई बढने लगी थी. घटीया चीज़े मिलने लगी. वस्तुएं राशनमेंसे अदृष्य होने लगी. सीमेंट, लोहा, तो पहेले भी परमीटसे मिलते था अब तो गुड, लकडीका कोयला, दूध, शक्कर, चावल भी अदृष्य होने लागा.
१६८मेंसे १४० सीट जीतने वाली इन्दिरा कोंग्रेसका हारनेका श्री गणेश १९७२के एक उपचूनावसे ही हो गया. इन्दिरा कोंग्रेस १४० सीटें ले तो गई लेकिन उसमें जनता खुश नहीं थी. लोकसभाकी सीट जो इन्दुलाल याज्ञिक (अपक्ष= इन्दिरा कोंग्रेस) की मृत्यु से खाली पडी.
उस सीट पर पुरुषोत्तम गणेश मावलंकर, इन्दिरा कोंग्रेसके प्रत्यासीके उपर २००००+मतके मार्जिनसे जित गये. सभी पक्षोंका उनको समर्थन था.
पुरुषोत्तम मावलंकर अहमदाबादके अध्यापक, पोलीटीकल विवेचक, बहुश्रुत विद्वान थे. वैसे तो वे भारतकी प्रथम लोकसभाके अध्यक्ष गणेशमावलंकरके पुत्र थे, लेकिन उनका खुदका व्यक्तित्व था.
गुजरातमें नवनिर्माण का आंदोलन
गुजरातमें नवनिर्माण का आंदोलन शुरु हुआ. लोगोंको भी लगा कि उसने गलत पक्षको जिताया है. लेकिन इसका सामना करने के लिये इन्दिरा कोंग्रेसने जातिवाद को बढाने की कोशिस शुरु की. शहरमें उसका खास प्रभाव न पडा. गांवके प्रभावशील होनेका प्रारंभ हुआ. लेकिन आखिरमें १६८मेंसे १४० सीट लाने वाली इन्दिरा कोंग्रेसकी सरकार गीर गयी. चिमनभाई पटेलको इस्तिफा देना पडा. इन्दिराने फिर भी विधान सभाको विसर्जित नहीं किया. जनताको विसर्जनके सिवा कुछ और नहीं पसंद था. राष्ट्रपति शासन लदा. चूनावके लिये मोरारजी देसाईको आमरणांत उपवास पर बैठना पडा. परिणाम स्वरुप १९७५में चूनाव घोषित करना पडा. इन सभी प्रक्रियामें इन्दिराकी विलंब करने की नीति सामने आती थी.
अब सारे देशके नेताओंको लगा कि इन्दिरा हर बात पर विलंब कर रही है. तो विपक्षको एक होना ही पडेगा.
गुजरातमें विधानसभा चूनावमें जनता फ्रंटका निर्माण हुआ. इसमें जनसंघ, कोंग्रेस(ओ), संयुक्त समाजवादी पार्टी, अन्य छोटे पक्ष और कुछ अपक्ष थे. चिमनभाई पटेलको इन्दिरा कोंग्रेसने बरखास्त किया था. उन्होंने अपना किमलोप (किसान, मज़दुर, लोक पक्ष) नामका नया पक्ष बनाया था.
चूनावमें १८२ सीटमेंसे
जनता मोरचाको = ६९
जिनमें
कोंग्रेस (ओ) = ५६
जन संघ = १८
राष्ट्रीय मज़दुर पक्ष = १
भारतीय लोक दल =२
समाजवादी पक्ष = २
किसान मजदुर लोक पक्ष = १२
अपक्ष = १८
और
इन्दिरा कोंग्रेसको = ७५
अपक्षोंके उपर विश्वास नहीं कर सकते थे. इस लिये स्थाई सरकार बनानेके लिये जनता मोरचाने, किसान मजदुर लोक पक्षका सहारा लिया. और बाबुभाई जशभाई पटेल जो एक कदावर नेता थे उनकी सरकार बनी. हितेन्द्र देसाई ने चूनाव लडा नहीं था. और चिमनभाई पटेल चूनाव हार गये थे.
यह चूनाव एक गठबंधनका विजय था.
वैसे तो गुजरातकी तुलना अन्य राज्योंसे नहीं हो सकती, लेकिन जो देशमें होनेवाला है उसका प्रारंभ गुजरातसे होता है.
गुजरातमें इन्दिरा गांधीके कोंग्रेसकी हारके कारण देश भरमें जयप्रकाशनारायण की नेतागीरीमें आंदोलन शुरु हुआ. वैसे भी जब नवनिर्माणका आंदोलन चलता था तो सर्वोदयके कई नेता आते जाते रहेते थे.
सर्व सेवा संघमें अघोषित विभाजन
सर्वोदय मंडल दो भागमें विभक्त हो गया था. एक भाग मानता था कि जयप्रकाश नारायण जो संघर्ष कर रहे है उनको सक्रिय साथ देना चाहिये. दुसरा भाग मानता था कि, इससे सर्वोदय को कोई फायदा नहीं होने वाला है. यदि फायदा होना है तो राजकीय पक्षोंको ही होने वाला है. इसलिये हमें किसी पक्षको फायदा पहोंचे ऐसे संघर्षमें भाग लेना नहीं चाहिये.
लेकिन शांतिसेना तो जयप्रकाश नारायणको ही मानती थी. शांतिसेनाके सदस्योंकी संख्या बहुत बढ गयी थी. और वह सक्रिय भी रही.
कुछ समयके बाद इन्दिराके सामने उसके चूनावको रद करनेका जो केस चल रहा था उसका निर्णय आया. इन्दिरा गांधी को दोषी करार दिया और उसको ६ सालके लिये चूनाव के लिये अयोग्य घोषित किया.
मनका विचार आचरणमें आया
जो बात नहेरुके मनमें विरोधीयोंको कैसे बेरहेमीसे नीपटना चाहिये, जो गुह्य रुपसे निहित थी लेकिन खुल कर कही जा सकती नहीं थीं. क्यों कि स्वातंत्र्यके अहिंसक संग्राममें नहेरु, पेट भर जनतंत्रकी वकालत कर रहे थे. उनके लिये अब कोयला खाना मुश्किल था.
इन्दिरा गांधी अपने पिताके साथ ही हर हमेश रहेती थी इसलिये उनको तो अपने पिताजीकी ये मानसिकता अवगत ही थी.
वैसे भी नहेरु और गांधीके बीचमें ऐसे कोई एक दुसरेके प्रति मानसिक आदर नहीं था. यह बात नहेरुने केनेडाके एक राजनयिक (डीप्लोमेट)को, जो बादमें केनेडाके प्रधान मंत्री बने, उनके साथ भारतमें एक मुलाकात में उजागर की थी. नहेरुने गांधीजीको ढोंगी और दंभी और नाटकबाज बताया था. इस बात सुनकर वह राज नयिक चकित और आहत हो गया था. इसके बारेमें इस ब्लोग साईट पर ही विवरण दिया है. गांधीजीने भी नहेरुके बारे में कहा था कि जवाहरको तो मैं समज़ सकता हूँ, लेकिन उनके समाजवादको नहीं समज़ सकता. वे खुदभी समज़ते है मैं मान नहीं सकता.
इन्दिराको सब बातें मालुम थीं.
गांधीजीने यह भी कहा था कि “अब जवाहर मेरा काम करेगा और मेरी भाषा बोलेगा.” इसका अर्थ यही था कि नहेरुको सत्ता प्राप्तिसे विमुख रहेना चाहिये और बिना सत्ता ही जन जागृतिका काम करना चाहिये. गांधीजीने इसलिये कोंग्रेसका विलय करने का भी आदेश दिया था.
यदि जवाहर स्वयं, गांधीजीका काम करते, तो उनको यह बात कहेने कि आवश्यकता न पडती. गांधीजीने कभी विनोबा भावेके बारेमें तो ऐसा नहीं किया कि “अब विनोबा मेरी भाषा बोलेंगे और मेरा काम करेंगे”. क्यों कि ऐसा कहनेकी उनको आवश्यकता ही नहीं थी. विनोबा भावे तो गांधीजीका काम करते ही थे.
यह सब बातोंसे इन्दिरा गांधी अज्ञात तो हो ही नही सकती. इस लिये नहेरुके मनमें जो राक्षस गुस्सेसे उबल रहा था, वह राक्षस इन्दिराके अंदर विरासतमें आया था. चूं कि इन्दिरा गांधीका, स्वातंत्र्य संग्राममें कोई योगदान नहीं था, इस लिये उसको अनियंत्रित सरमुखत्यार बनने की बात त्याज्य नहीं थी. “गुजरातीमें एक मूँहावरा है कि नंगेको नाहना क्या और निचोडना क्या?”
जनतंत्रकी रक्षा
कुछ फर्जी या स्वयं द्वारा प्रमाणित विद्वान लोग बोलते है कि भारतमें जो जनतंत्र है वह नहेरुवीयन कोंग्रेस के कारण विद्यमान है. वास्तवमें जनतंत्रके अस्तित्व लिये नहेरुवीयन कोंग्रेसको श्रेय देना एक जूठको प्रचारित करना है. नहेरुवीयन कोंग्रेसने तो जनतंत्रको आहत करने की भरपूर कोशिस की है.
वास्तवमें यदि जनतंत्रको जीवित रखनेका श्रेय किसीको भी जाता है तो भारतकी जनताको ही जाता है. दुसरा श्रेय यदि किसीको जाता है तो गांधीजीके सब अंतेवासी और कोंग्रेस(ओ)के कुछ नेताओंको जाता है और उस समयके कुछ विपक्षीनेताओंको जाता है जो इन्दिरा गांधीके विरोध करनेमें दृढ रहे.
नहेरुवीयन फरजंदकी सरमुखत्यारी और दीशाहीनता
आपातकालमें क्या हुआ वह सबको ज्ञात है. लाखों लोगोंको बिना कारण बाताये कारावासमें अनिश्चित कालके लिये रखना, समाचार पर अंधकार पट, सरकार द्वारा अफवाहें फैलाना, न्यायालयके निर्णयों पर भी निषेध, भय फैलाना…. अदि जो भी सरकारके मनमें आया वह करना. यह आपात्कालकी परिभाषा थी.
जो भारतके नागरिक विदेशमें थे वे भी विरोध करनेसे डर रहे थे. क्यों कि उनको डर था कि कहीं उनका पासपोर्ट रद न हो जाय. क्यों कि सरकारके कोई भी आचार, सिर्फ मनमानीसे चलता था. इसमें अपना उल्लु सिधा करनेवालोंको भी नकार नहीं सकते.
लेकिन सरकार कैसी भी हो, जब वह अकुशल हो तो वह अपना माना हुए ध्येय क्षमतासे नहीं प्राप्त कर सकती. गुजरातमें “जनता समाचार” और “जनता छापुं” ये दो भूगर्भ पत्रिकाएं चलती थीं. गुजरातमें बाबुभाई पटेलकी सरकार थी तब तक ये दोनों चले. इन्दिरा गांधीने कुछ विधान सभ्योंको भयभित करके पक्षपलटा करवाया और सरकारको गिराया. और ये भूगर्भ पत्रिका वालोंको कारावासमें भेज दिया.
जनता तो डरी हई थी. प्रारंभमें तो कुछ मूर्धन्यों द्वारा आपातकालका अनुमोदन हुआ या तो करवाया. लेकिन बादमें सच सामने आने लगा. आपात्काल, अपने बोज़से ही समास्याएं उलज़ाने की अक्षमताके कारण थकने लगा.
इन्दिरा आपात्काल के समय में डरी हुई रहेती थी. घरमें जरा भी आहटसे वह चौंक जाती थीं ऐसे समाचार भूगर्भ पत्रिकाओंमे आते रहे थे. इन्दिरा गांधी, वास्तवमें सही विश्वसनीय परिस्थित क्या थी यह जाननेमें वह असमर्थन बनी थी.
साम्यवादी लोग, इस आपात्कालको क्रांतिका एक शस्त्र बनाने के लिये उत्सुक थे. लेकिन क्रांति क्या होती है और साम्यवादीयोंकी सलाह कहां तक माननी चाहिये, उनकी बातों पर इन्दिराको विश्वास नहीं था. उनके कई संपर्क उद्योगपतियोंसे थे. इन्दिरा गांधी स्वयं अपने बेटे संजयसे कार बनवाना चाहती थी. उसके सिद्धांत में कोई मनमेल नहीं था. वह दीशाहीन थी और उसके भक्त भी दीशा हीन थे.
एक और साहस
परिस्थिति हाथसे चली जाय, उसके पहेले वह फिरसे प्रधान मंत्री बनना चाहती थी ताकि वह आरामसे सोच सकें. ऐसा चूनावी साहस उसने १९७१में लिया था और उसको विजय मिली थी. उसने आपात्काल चालु रखके ही चूनावकी घोषणा की.
कुछ लोग समज़ते है कि, इन्दिरा गांधीने आपात्काल हटा लिया था और फिर चूनाव घोषित किया था. यह बात वास्तवमें जूठ है.
जब वह खूद हार गयी तो उसने सेना प्रमुखको सत्ता हाथमें ले लेनेका प्रस्ताव दिया था. लेकिन सेनाने उसको नकार दिया था. तब इन्दिरा गांधीने आपात्कालको उठा लिया और यह निवेदन दिया कि, मैंने तो जरुरी था इसलिये आपात्काल घोषित किया था. अब यदि आपको लगे कि मैं सत्य बोलती थीं तो आप फिरसे आपात्काल लगा सकते हैं.
वास्तवमें उसको आपात्काल चालु रखके ही सत्ताका हस्तांतरण करना चाहिये था. यदि आने वाली सरकारको आपात्काल आवश्यक न लगे तो वह आपात्कालको उठा सकती थी. यह भी तो एक वैचारिक विकल्प था. लेकिन इन्दिरा गांधी ऐसा साहस लेना चाहती नहीं थीं. क्यों कि उसको डर था कि विपक्ष आपात्कालका आधार लेके उनको ही गिरफ्तार करके कारावास में भेज दें तो?
जो लोग कारावासमें थे वे सब एक हो गये. और इस प्रकार विपक्षका एक संगठन बना.
विपक्षके कोई भी नेताके नाम पर कोई कालीमा नहीं थी. सबके सब सिर्फ जनतंत्र पर विश्वास करने वाले थे. उनकी कार्यरीति (परफोर्मन्स)में कोई कमी नहीं थी. न तो उन्होने पैसे बनाये थे न तो उन्होंने कोई असामाजीक काम किया था, न तो कोई विवाद था उनकी प्रतिष्ठा पर.
मोरारजी देसाई, ज्योर्ज फर्नान्डीस, मधु दन्डवते, पीलु मोदी, मीनु मसाणी, दांडेकर, मधु लिमये, राजनारायण, बहुगुणा, अजीत सिंह … ये सब इन्दिरा विरोधी थे. जब कोम्युनीस्टोंने देखा कि इन्दिरा कोंग्रेसका सहयोग करनेसे उनको अब कोई लाभ नहीं तो वे भी जनता मोरचाका समर्थन करने लगे.
आपात्कालसे डरी हुई शिवसेना भी सियासती लाभ लेनेके लिये जनता मोरचाको सहयोग देनेके लिये आगे आयी. आंबेडकरका दलित पक्ष भी जनता मोरचाके समर्थनमें आगे आया. जगजीवन राम भी इन्दिराको छोड कर जनता मोरचामें सामिल हो गये.
हाँ जी. यह संगठनका नाम जनता मोरचा था. उसके सभी प्रत्याषी जनता दलके चूनाव चिन्ह पर चूनाव लडे थे.
जनता फ्रंटको भारी बहुमत मिला.
प्रधान मंत्री बननेके लिये थोडा विवाद अवश्य हुआ.
जय प्रकाश नारायणकी मध्यस्थतामें सभी निर्णय लिये गये और उनके निर्णयको सभीने मान्य भी रखा. सबसे वरिष्ठ, उज्ज्वल और निडर कार्यरीतिके प्रदर्शन वाले मोरारजी देसाईको प्रधान मंत्री बनाया गया. वह भी सर्वसंमतिसे बनाया गया. जयप्रकाश नारायणने इन सबकी शपथ विधि भी राजघाट संपन्न करवाई.
इस प्रधान मंडलमें कोई कमी नहीं थी. मन भी साफ था ऐसा लगता था.
गठबंधनवाली सभी पार्टीयोंका जनता पार्टीमें विलय हुआ.
जनता पार्टीने क्या किया?
(१) सर्व प्रथम इस गठबंधनवाली सरकारने फिरसे कोई सरमुखत्यारी मानसिकता वाला प्रधान मंत्री आपात्काल देश के उपर लाद न सके उसका प्रावधान किया.
(२) उत्पादनकी इकाईयों उपरके अनिच्छनीय प्रतिबंध रद किया. जिसका परिणाम १९८०से बाद मिला.
(३) नोटबंदी लागु की जिसमें ₹ १००० ₹ ५००० और ₹ १०००० नोंटे रद की गयी.
(४) आपात्कालके समयमें जो अतिरेक हुआ था, उसके उपर जाँच कमीटी बैठायी.
१९७७के चूनाव परिणामके पश्चात यशवंतराव चवाणने इन्दिरा कोंग्रेससे अलग हो कर अपना नया पक्ष एन.सी.पी. बनाया.
जगजीवन राम तो चूनावसे पहेले ही जनता पार्टीमें आ गये थे.
अब गठबंधनका जो एक पार्टीके रुपमें था तो भी उसका क्या हुआ?
चौधरी चरण सिंहमें धैर्यका अभाव था. उनको शिघ्र ही प्रधान मंत्री बनना था.
उनकी व्युह रचना मोरारजी देसाई जान गये, और उन्होंने चौधरीको रुखसद दे दी. उस समय यदि जनसंघके नेता बाजपाई बीचमें न आते तो चरण सिंहके साथ अधिक संख्या बल न होने से उनके साथ २० से २५ ही सदस्य जाते.
मोरारजीने बाजपाई की बात मानली. यह उनकी गलती साबित हुई. क्यों कि चरण सिंह तो सुधरे नहीं थे. और वे कृतघ्न ही बने.
इन्दिराने इसका लाभ लिया. यशवंत राव चवाणने उसका साथ दिया. थोडे समयके अंदर चरण सिंहने अपने होद्देके कारण कुछ ज्यादा संख्या बल बनाया. और तीनोंने मिलकर मोरारजी देसाईकी सरकारको गीरा दी.
मोरारजी देसाईने प्रधान मंत्रीके पदसे त्याग पत्र दे दिया. लेकिन संसदके नेता पदसे त्याग पत्र नहीं दिया. यदि उन्होने त्याग पत्र दिया होता तो शायद सरकार बच जाती. लेकिन जगजीवन राम प्रधान मंत्री बननेको तयार हो गये. चरण सिंह और जगजीवन राममें बनती नहीं थी. इस लिये उन्होने नहेरुने जैसा जीन्ना के बारेमें कहा था उसके समकक्ष बोल दिया कि, मैं उस चमार को तो कभी भी प्रधानमंत्री बनने नहीं दुंगा.
जब ये नेता नहेरुवीयन कोंग्रेसमें थे तो उनके प्रधान मंत्री बननेकी शक्यताओंको नहेरुवीयनोंने निरस्त्र कर दिया था. वे सब इसी कारणसे नहेरुवीयन कोंग्रेससे अलग हुए थे या तो अलग कर दिया था.
उपरोक्त संगठन वरीष्ठ नेताओंका प्रधान मंत्री बननेकी इच्छाका भी एक परिमाण था. प्रधान मंत्री बननेकी इच्छा रखना बुरी बात नहीं. लेकिन अयोग्य तरीकोंसे प्रधान मंत्री बनना ठीक बात नहीं है.
प्रवर्तमान गठबंधनका प्रयास
अभी तक इन सभी नेताओं की संतान नहेरुवीयन कोंग्रेसको शोभायमान कर रही थीं. उनको महेसुस हो गया कि अब प्रधान मंत्री बनने के बजाय यदि प्रधान पद भी मिल जाय तो भी चलेगा.
इसलिये चरण सिंघ, जगजीवन राम, वीपी सींघ, बहुगुणा, गुजराल, एन.टी. रामाराव, … आदि की संतान नहेरुवीयन कोंग्रेसको सपोर्ट देनेको तत्पर है. लेकिन जब नहेरुवीयन कोंग्रेस भी डूब गयी और उनका संख्या बल कम हो गया तो इनकी संतानोंमें फिरसे उनके अग्रजोंकी तरह वह सुसुप्त इच्छाएं जागृत हुई है.
यदि २०१९में ये सरकार चले भी तो उनका कारण देशको लूटनेमें सहयोग की वजहसे चलेगी. जैसे मनमोहन सिंघकी सरकार १० साल चली थी क्यों कि मनमोहन सिंघने सबको अपने अपने मंत्रालयमें जो चाहे वह करने की छूट दे रक्खी थी. शीला दिक्षित, ए. राजा, चिदंबरम आदि अनेक के कारनामे इसकी मिसाल है. इन लोगोंको यथेच्छ मनमानी करने की छूट दे दी थी. जब न्यायालय स्वयं विवादसे परे न हो तो इन लोगोंको कौन सज़ा दे सकता है?
आप देख लो सोनिया, माया, मुल्लायम, लालु, शरद पवार, जया, शशिकला, फारुख, ममता आदि सभी नेता पर एक या दुसरे कौभान्ड के आरोप है. कुछ लोग तो सजा काट रहे है, कुछ लोग बेल पर है और बाकी नेता न्यायालयमें सुनवाई पर है.
किसी भी मुंबई वालेको पूछोगे तो वह शिवसेना को नीतिमत्ताका प्रमाण पत्र देगा नहीं. महाराष्ट्रके मुख्यमंत्रीने उनके पर काट लिया है इस लिये वह भी अब ये नया गठबंधनमें सामिल होने जा रहा है.
गठ बंधनका कोई भी नेता, नरेन्द्र मोदी के पैंगडेमें पैर रखनेके काबिल नहीं है.
अब जो विद्वान और मोदी-फोबियासे पीडित है वे और सर्वोदय वादी या गांधीवादी बचे है वे न तो गांधीवादी है न तो सर्वोदयवादी है. वे सब खत-पतवार (वीड) है. वे लोग सिर्फ अपने नामकी ख्याति के लिये मिथ्या आलाप कर रहे हैं.
२०१९का चूनाव, भारतमें विवेचकोंकी, विद्वानोंकी और मूर्धन्योंकी विवेक शक्तिकी एक परीक्षा स्वरुप है. १९७७में तो जयप्रकाश और मोरारजी देसाई जैसे गांधी वादी विद्यमान थे. इससे शर्मके मारे ये लोग जनतंत्रकी रक्षाके लिये बाहर आये. किन्तु अब ये लोग अपना कौनसा फरेबी रोल अदा करते हैं वह इतिहास देखेगा.
शिरीष मोहनलाल दवे