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रामदास आठवलेको पदच्यूत करो

रामदास आठवलेको पदच्यूत करो

रामदास आठवले कौन है?

क्या वह बीजेपीका प्रवक्ता है?

रामदास आठवले बीजेपीका प्रवक्ता नहीं है, लेकिन उससे भी अधिक है.

रामदास आठवले, मोदी के मंत्रीमंडलका एक मंत्री है.

जनतंत्रमें कोई भी मंत्रीका कथन, सरकारका कथन माना जाता है. मंत्रीका  व्यक्तिगत मन्तव्य हो ही नहीं नही सकता.

“यह मेरा व्यक्तिगत मन्तव्य है”

“यह मेरा व्यक्तिगत मन्तव्य है” ऐसे कथनकी प्रणालीका प्रारंभ कोंगीयोंने किया है.

वास्तवमें यदि कोई सामान्य सदस्य, आठवले जैसा बोले और साथ साथमें यह भी बोले कि यह मेरा व्यक्तिगत कथन है, तो भी वह अयोग्य है. क्यों कि उसको चाहिये कि, वह, अपना  व्यक्तिगत अभिप्राय अपने पक्षकी आम सभामें प्रगट करें. ऐसा करना ही उसका  हक्क बनता है. या तो अपने सदस्य-मित्रमंडलमें अप्रगट रुपसे प्रगट  करनेका हक्क है. पक्षके कोई ही सदस्यको, और खास करके आठवले जैसे मंत्रीमंडलके सदस्यको खुले आम बोलना जनतंत्रके अनुरुप नहीं है.

रामदास आठवलेने क्या कहा?

रामदास आठवलेने कहा कि यदि एस.सेनाको अपने  गठबंधनके साथीयोंसे मेल मिलाप नहीं है तो वह पुनः बीजेपीके गठबंधनमें आ सकता है. शरद पवारके पक्षको भी बीजेपीके गठबंधनमें आनेका आमंत्रण है.

रामदास आठवलेको ऐसी स्वतंत्रता किसने दी?

रामदास आठवले जैसे बीजेपी के सदस्यको मंत्रीपद देना ही नरेन्द्र मोदीकी क्षति है. इस क्षतिको सुधारना ही पडेगा. रामदास आठवले जैसे सदस्य के कारण ही बीजेपीको नुकशान होता है.

यदि नरेन्द्र मोदी और उसकी सरकार समज़ती है कि “सियासतमें सबकुछ चलता है” तो यह सही नहीं है. एनसीपी और एस.सेनासे गठबंधन करना बीजेपीके लिये आत्म हत्या सिद्ध होगा.

क्यों आत्म हत्या सिद्ध होगा?

महाराष्ट्र के चूनावके परिणाम घोषित होनेके बाद  एनसीपीके विधानसभाके नेताने ही बीजेपीका  विश्वासघात किया है. इस घटना को बीजेपीको भूलना नहीं चाहिये.

इसके अतिरिक्त एन.सी.पी.का आतंरिक व्यवहार और संस्कार ऐसा ही रहा है जो गद्दारीसे कम नही है. एन.सी.पी.को दाउद गेंगका दायाँ हाथ माना जाता है. यह खुला गर्भित सत्य है.

बांद्रके रेल्वे स्टेशनके पासकी मस्जिदकी घटना

एन.सी.पी. महाराष्ट्रने बांदरा रेल्वे स्टेशन (पश्चिम) के पास मस्जिदके सामने हिन्दीभाषीयोंको जानबुज़ कर इकठ्ठा किया था. एनसीपी द्वारा ऐसा करना केन्द्र सरकारके आदेशका अनादर था. इस घटनाका परिणाम महाराष्ट्र आज भी सहन कर रहा है. कोरोना महामारीसे सबसे अधिक संक्रमित महाराष्ट्र है. यदि ऐसा नहीं होता तो भी एनसीपीका व्यवहार, केन्द्रसरकारके आदेशके विरुद्ध था. एन.सी.पी.का  ध्येय “पैसा बनाना”, “केन्द्रकी कार्यवाहीको विफल बनाना” और देशमें अस्थिरता पैदा करना था. यह स्वयंसिद्ध है.

पालघर में हिन्दु संतोकी खुले आम हत्या.

पालघर मे दो हिन्दुसंतोकी और उसके वाहन चालककी हत्या की घटना देख लो. महाराष्ट्रकी सशस्त्र पूलिसोंके सामने हिन्दुविरोधी कोमवादीयोंने इन हिन्दुओंको मार मार के हत्या की. उस समय एन.सी.पी.का एक जनप्रतिनिधि भी मौजुद था. किसीने भी उन हिन्दुओंकी जानबुज़कर सहाय नहीं की. उनका परोक्ष ध्येय था हिन्दु संतोंको सबक सिखाना.

महाराष्ट्रकी सरकारने, अफवाह के नाम पर इस घटनाको कमजोर (डाईल्युट)  बना दिया. एन.सी.पी. के जनप्रतिनिधिके उपर भी कोई कार्यवाही नहीं की. महाराष्ट्र की सरकार स्वयं ही कोमवादी है यह बात इससे भी सिद्ध होती है. उतना ही नहीं जब कुछ लोगोंने राज्य सरकारकी कार्यवाही पर प्रश्न किये तो मुख्य मंत्रीने धमकी देना शुरु किया. एन.सी.पी. के शिर्ष नेता स्वयं ऐसी कार्यवाही पर मौन रहे. यह बात भी उनके कोमवादी मानसिकताका द्योतक है.

एन.सी.पी. को, बीजेपी के साथ गठबंधनका आमंत्रण देना एक गदारी ही है. रामदास आठवलेको मंत्रीमंडसे पदच्यूत कर दो.

एस.सेना का पूर्णरुपसे कोंगीकरण हो गया है.

कंगना रणौतके साथ दुर्व्यवहार

कोंगीके हर कुलक्षण, एस.सेनाके नेताओंमें विद्यमान है.  वे “जैसे थे वादी है, वे भ्रष्ट है, वे कोमवादी है, वे प्रतिशोध वादी है, वे एकाधिकारवादी है, वे  पूर्वग्रहसे भरपूर है, वे वंशवादी है, वे अफवाहें फैलाते है, वे जूठ बोलते है, वे गुन्डागर्दीकेआदी है, वे  असहिष्णु है…  ऐसा एक कुलक्षण बताओ जो कोंगीमें हो और एस.सेना के नेताओंमें न हो. बांद्रा की घटना, पालघरकीघटना, कंगना रणोतके साथका उनका व्यवहार, कंगना रणोतके घरको तोडनेकी घटना…  इन सबमें एन.सी.पीका व्यवहार और एस.सेनाका व्यवहार उनकी मानसिकताको पूर्णरुपसे प्रगट कर देता है.

इन सब घटना और व्यवहारके कारण कोंगी , एन.सी.पी. और एस.सेना दफन होनेवाली है.

कोंगी, एन.सी.पी. और एस. सेना इनको अपनी मौत मरने दो.

बीजेपी केन्द्रीय सरकार इन तीनोंके नेताओंको कभी भी गिरफ्तार करके कारावासमें पहोंचा सकती है.

इन बातोंको भूल कर यदि रामदास आठवले, इनके साथ गठबंधनमें आनेका न्योता देता है तो वह आठवले एक गद्दार से कम नहीं है.

रामदास आठवले को पदसे और सदस्यतासे च्यूत करो. नही  तो बीजेपीको बडा नुकशान होनेवाला है.

नरेन्द्र मोदीजी, अमित शाहजी और रजनाथ सिंहजी हमारी आपसे चेतावनी है. दुश्मनों पर लॉ एन्ड ओर्डरका डंडा चलाओ.

 

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

एकेनापि कुवृक्षेण दह्यमानेन वन्हिना,

दह्यते तद्‌ वनं सर्वं, कुपुत्रेण कुलं यथा

एक खराब वृक्षमें स्थित अग्नि, सारे वनको जला कर नष्ट कर देता है,

ऐसे ही एक कुपुत्र (यहाँ पर समज लो एक पक्षका मानसिकतासे भ्रष्ट  नेता रामदास आठवले) बीजेपीको नष्ट कर देगा. कोंगी, एन.सी.पी. और एस.सेना को अपने मौत पर मरने दो. उनका मरना सुनिश्चित है.

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कोरोना कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक सहयोगी

वैसे तो इस ब्लोग साईट पर इस विषय पर चर्चा हो गई है कि क्या हर युगमें वालीया लूटेरा, वाल्मिकी ऋषि बन सकता है?

वालीया लूटेरा

वालीया लुटेरा वैसे तो वाल्मिकी ऋषी बन सकता है, किन्तु ऐसी घटनाकी शक्यता के लिये भी किंचित पूर्वावस्थाकी भी पूर्वावस्था पर, अवलंबित है. हमारे रामायणके रचयिता वाल्मिकी ऋषिकी वार्तासे तो हम सर्व भारतीय अवगत है कि ये वाल्मिकी ऋषि अपनी पूर्वावस्थामें लूटेरा थे. फिर एक घटना घटी और उनको पश्चाताप हुआ. उन्होंने सुदीर्घ एकान्तवास में मनन किया और वे वाल्मिकी ऋषि बन गये.

प्रवर्तमान कोंगी (कोंग्रेस)

इस आधार पर कई सुज्ञ लोग मानते है कि भारतकी वर्तमान कोंग्रेस जिनको हम कोंग (आई), अर्थात्‌ कोंगी, अथवा इन्दिरा नहेरुगाँधी कोंग्रेस (आई,एन.सी.) अथवा इन्डीयन नहेरुवीयन कोंग्रेस के नामसे जानते है, यह कोंग्रेस पक्ष क्या , भारतीय जनता पक्ष (बीजेपी) का  एक विकल्प बन सकता है. कुछ सुज्ञ महाशय का विश्वास अभी भी तूटा नहीं है.

जिस कोंग्रेसने भारतके स्वातंत्र्य संग्रामकी आधारशीला रक्खी थी औस उसके उपर एक प्रचंड महालय बनाया था उसको हम “वाल्मिकी ऋषि” कहेंगे. इस वाल्मिकी ऋषिके पिता अंग्रेज थे.

“वसुधैव कुटूंबम्‌” विचारधाराको माननेवाले भारतवासीयोंको, इससे कोई विरोध नहीं है.

अयं निजः अयं परः इति वेत्ति, गणनां लघुचेतसां, उदारचरितानां तु वसुधैव कुटूंबकम्‌.

अर्थात्‌

यह हमारा है, यह अन्य है, अर्थात्‌ यह हमारा नहीं है, ऐसी मनोवृत्ति रखनेवाला व्यक्ति संकुचित मानस वाला है. जो उदारमानस वाला है, उसके लिये तो समग्र पृथ्वि के लोग अपने ही कुटूंबके है.

इस भारतीय मानसिकताको महात्मा गांधीने समग्र विश्वके समक्ष सिद्ध कर दिया था. भारतमें ऐसे विशाल मन वाले महात्मा गांधी अकेले नहीं थे. कई लोग हुए थे.

हाँ जी, उस समय कोंग्रेस वाल्मिकी ऋषिके समान थी.

फिर क्या हुआ?

१९२८में मोतिलालजीने कहा कि मेरे बेटे जवाहरलालको कोंग्रेसका प्रेसीडेन्ट बनाओ. उस समय मोतिलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रेसीडेन्ट थे. उनका अनुगामी उनका सुपुत्र बना.

महात्मा गांधीने सोचा कि ज्ञानीको एक संकेत ही पर्याप्त होना चाहिये. १९३२में गांधीजीने कोंग्रेसके प्राथमिक सदस्यता मात्रसे त्यागपत्र दे दिया. महात्मा गांधी कोंग्रेसके शिर्षनेताओंको यह संदेश देना चाहते थे कि हमारे पदके कारण हमारे विचारोंका प्रभाव सदस्यों पर एवं जनता पर पडना नहीं चाहिये. हमारे विचारसे यदि वे संतुष्ट है तभी ही उनको उस विचारको अपनाना चाहिये.

१९३६में भी जवाहरलाल  प्रेसीडेन्ट बने. और १९३७में भी वे कोंग्रेसके प्रेसीडेन्ट बने.

महात्मा गांधीको लगा कि,  कोंग्रेस वाल्मिकी ऋषिमेंसे वालिया लूटेरेमें परिवर्तित होनेकी संभावना अब अधिक हो गयी है.  महात्मा गांधीने संकेत दिया कि जनतंत्रकी परिभाषा क्या है और जनतंत्र कैसा होता है. उन्होंने ब्रीटन, फ्रान्स, जर्मनीके जनतंत्र प्रणालीको संपूर्णतः नकार दिया था. गांधीजीने कहा कि हमे हमारी संस्कृतिके अनुरुप हमारी जनताके अनुकुल शासन प्रणाली स्थापित करना होगा. हमारी शास्न प्रणाली का आधार संपूर्णतः नैतिक होना चाहिये. (हरिजन दिनांक २-१-१९३७). भारतकी शासन प्रणाली कैसी होनी चाहिये. महात्मा गांधीने एक उत्कृष्ट उदाहरण दिया था. वह था “राम राज्य”. “राम राज्य”में राजाका कर्तव्य  सामाजिक क्रांतिको पुरस्कृत करना नहीं था. सामाजिक क्रांति करना या उसमें सुधार लाना यह काम तो ऋषियोंका था. ऋषियोंके पास नैतिक शासन धुरा थी.

पढिये “कहाँ खो  गये हाडमांसके बने राम”.

किन्तु गांधीजीके इस विचारका कोई प्रभाव नहेरु और उनके प्रशंसक युथ पर पडा नहीं. वे तो तत्कालिन पाश्चात्य देशोंमे चल रहे, “समाजवाद”की विचारधारामें रममाण थे.

सत्तामें जब त्यागकी भावनाका अभाव होता है तब वह सत्ता, जनहितसे विमुख ही हो जाती है. १९४७ आते आते कोंग्रेसके नेताओमें सत्ता लालसाका आविर्भाव हो चूका था. शासन करना कोई अनिष्ट नहीं है. किन्तु सत्ता पानेके लिये अघटित हथकंडे अपनाना अनिष्ट है.

“सत्ता पाना” और “सत्तासे हठाना” इन दोनोंमें समान नियम ही लागु पडते है. वह है साधन शुद्धिका नियम.

साधन शुद्धिका अभाव सर्वथा अनिष्ट को ही आगे बढाता है. कई सारे लोग इस सत्यको समज़ नहीं सकते है वह विधिकी वक्रता है.

चाहे बीज १९२९/३०में पडे हो, और अंकुरित १९३५-३६में हो गया हो, कोंग्रेसका  वाल्मिकी ऋषि से वालीया-लूटेरा बननेका प्रारंभ १९४६से प्रदर्शित हो गया था. १९५०मे तो वालीया लुटेरा एक विशाल वटवृक्ष बन गया.

वर्तमानमें तो आप देख रहे ही है कि वालीया लुटेरारुप अनेक वटवृक्ष विकसित हो गये है. वे इतने एकदुसरेमें हिलमिल गये है कि उनका मुख्य मूल कहां है इस बातका किसीको पता ही नहीं चलता है. अतः क्यूँ कि, नहेरुकी औलादें वर्तमान कोंग्रेस नामके पक्षमें विद्यमान है उस कोंग्रेसको ही मूल कोंग्रीसकी धरोहर मानी जाय. ऐसी मान्यता रखके मूल कोंग्रेसका थप्पा हालकी कोंगी पर मार दिया जाता है. इससे सिर्फ सिद्ध यही होता है कि ये महानुभाव जनतंत्रमें भी वंशवादको मान्यता दे दे सहे हैं. क्या यह भी विधिकी वक्रता नहीं है? छोडो इन बातको.

क्या निम्न लिखित शक्य है?

गुलाम –> वाल्मिकी ऋषि –>वालीया-लुटेरा –>वाल्मिकी ऋषि (?)

यह संशोधनका विषय है कि हमारे कुछ सुज्ञ महानुभाव लोग आश लगाके बैढे कि यह वालीया लुटेरा फिरसे वाल्मिकी ऋषि बनेगा. जिन व्यक्तियोंने एक ब्रीटीश स्थापित संस्थाको “गुलाम”मेंसे  वाल्मिकी ऋषि बनाया था, वे सबके सब १९५०के पहेले ही चल बसे. जो गुणवान बच भी गये थे उनको तो कोंग्रेससे बाहर कर दिया. तत्‌ पश्चात्‌  तो वालीया-लुटेरे गेंगमें तो चोर, उचक्के, डाकू, असत्यभाषी, ठग, आततायी, देशद्रोही … ही बचे है? इस पक्षको सुधरनेकी एक धुंधलीसी किरण तक दिखायी नहीं देती है.

कोरोना कालः

यह एक महामारीवाली आपत्ति है. भारतवासीयोंका यह सौभाग्य है कि केन्द्रमें और अधिकतर राज्योमें  बीजेपी का शासन है. भारतवासीयोंका कमभाग्य भी है कि चार महानगरोंमें बीजेपीका शासन नहीं है. खास करके दिल्ली, मुंबई (महाराष्ट्र), कलकत्ता और चेन्नाई.

दिल्लीका केज्रीवालः

कई विदेश, कोरोनाके संक्रमणसे आहत थे और उन देशोंमें हमारे नागरिक फंसे हुए थे. उनको वापस लाना था. केन्द्र सरकारने उन नागरिकोंको भारत लानेकी व्यवस्था की. और पुर्वोपायकी प्रक्रियाके आधार पर उनको संगरोधनमें (क्वारन्टाईन) कुछ समय के लिये रक्खा.

जब केन्द्रको पता चला कि तबलीघीजमातका महा अधिवेशन दिल्लीमें हो गया है और उस अधिवेशनके सहस्रों लोग विदेशी थे और उनमेंसे कई कोरोना ग्रस्त होनेकी शक्यता थी. उनमेंसे कई इधर उधर हो गये थे. ऐसी स्थिति में केन्द्र सरकारके लिये लॉकडाऊन घोषित करना अनिवार्य हो गया था. २३ मार्च को केन्द्र सरकारने २४ मार्चसे तीन सप्ताहका लॉकडाउन घोषित कर दिया. प्रधान मंत्रीने सभी श्रमजिवीयोंको कहा कि आप जहां हो, वहीं पर ही रहो.

लुट्येन गेंगके दिल्लीके हिरो थे केज्रीवाल. उन्होंने २४ मार्च की रातको ही श्रमजिवीयोंकों उदघोषित करके बताया कि आप लोगोंके लिये आपके राज्यमें परत जानेके लिये  बसें तयार है.

केज्रीवालने न तो कोई राज्य सरकारोंसे चर्चा की, न तो केन्द्र सरकारसे चर्चा की, न तो लेबर कमीश्नरसे कोई पूर्वानुमानके लिये चर्चा की कि, श्रमजीवीयोंकी क्या संख्या हो सकती है! बस ऐसे ही आधी रातको घोषणा कर दी  कुछ बसें रख दी है. आप लोग इन बसोंसे चले जाओ. केज्रीवालका यह आचार, प्रधान मंत्रीकी सूचनासे बिलकुल विपरित ही था और प्रधान मंत्रीकी सूचनाका निरपेक्ष उलंघन था. केज्रीवालको मुख्यमंत्री पदसे  निलंबित करके गिरफ्तार किया जा सकता है, कारावासमें भेजा सकता है और न्यायिक कार्यवाही हो सकती है. किन्तु प्रधान मंत्रीकी प्राथमिकता लोगोंके प्राण बचाना था.

वास्तवमें दो सप्ताहका समय देनेका प्रयोजन यही था कि सभी राज्य आगे क्या करना है उसका आयोजन कैसे करना है, यदि किसीको अपने राज्यमें जाना है तो उसके लिये योजना करना या और भी कोई प्रस्ताव है तो हर राज्य दे सकें.

ये सब बातें प्रधान मंत्रीने राज्योंके मुख्य मंत्रीयों पर छोडा था और प्रधान मंत्री हर सप्ताह मुख्य मंत्रीयोंके साथ ऑन-लाईन चर्चा कर रहे थे. यदि कोई मुख्य मंत्रीको कोई मार्गदर्शन चाहिये तो वह प्रधान मंत्रीसे सूचना भी ले सकता था.

श्रमजिवीयोंकी संख्याका पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है?

(१) घरेलु कामके श्रम जीवीः ये तो स्थानिक लोग ही होते है. वे अपने घरमें या अपनी झोंपडपट्टीमें रहेते है. उनको कहीं जाना होता नहीं है. ये लोग डोमेस्टीक सर्वन्ट कहे जाते है.

(२)  कुशल और अकुशल श्रमजीवीः ये श्रम जीवीमें जो कुशल है वे तो अपने कुटूंब के साथ ही रहेते है. जो अकुशल है उनमेंसे कुछ लोगोंको अपने राज्यमें जाना हो सकता है. ये दोनों प्रकारके श्रमजीवी अधिकतर मार्गके काम, संरचनाके काम, मूलभूत भूमिगत संरचनाके काम करते है. ये काम वे उनके छोटे बडे कोन्ट्राक्टरोंके साथ जूडे हुए होते है. कोन्ट्राक्टर ही उनको भूगतान करता है.

इन श्रमजीवीयोंके कोंन्ट्राक्टरोंको हरेक कामका श्रम-आयुक्तसे अनुज्ञा पत्र लेना पडता है, और इसके लिये हर श्रमजीवीका आधारकर्ड, प्रवर्तमान पता, कायमी पता  और बीमा सुरक्षा कवच, कार्यका स्थल … आदि अनेक विवरण, आलेख, लिखित प्रमाण, देना पडता है. राज्य सरकार चाहे तो एक ही दिन में श्रमजीवीयोंका वर्गीकरण और गन्तव्य स्थानकी योजना बना सकती है. श्रम आयुक्त के पास सभी विवरण होता है. श्रम आयुक्त कोंट्राक्टरोंको सूचना दे सकता है कि श्रमजीवी अधीर न बने.

(३) तीसरे प्रकारके श्रमजीवी ऐसे होते है कि वे छोटे कामके कोंट्रक्टरोंके साथ काम करते है. इन कोंट्राक्टरोंको कामके लिये श्रमआयुक्तसे अनुज्ञापत्र लेनेकी आवश्यकता नहीं होती है. लेकिन हर कोंट्राक्टरको सरकारमें पंजीकरण करवाना पडता है. सरकार इन कोंट्राक्टरोंसे उनके श्रमजीवीयोंका आवश्यक विवरण ले सकता है.

ये सबकुछ ऑन-लाईन हो सकता है और अधिकसे अधिक एक ही सप्ताहमें कहाँ कहाँ कितने श्रमजीवीयोंको किन राज्योंमें कहाँ जाना है उसका डेटाबेज़ बन सकता है.

एक राज्य दुसरे राज्यसे ऑन-लाईन डेटाबेज़का आदानप्रदान करके अधिकसे अधिक उपरोक्त ७ दिन को मिलाके भी, केवल दश दिनमें प्रत्येक श्रमजीवीको उसके गन्तव्यस्थान पर कैसे पहोंचाना उसका आयोजन रेल्वे और राज्यके परिवहन विभाग कर सकते है. इस डीजीटल युगमें यह सब शक्य तो है ही किन्तु सरल भी है.

तो यह सब क्यूँ नहीं हुआ?

राज्यके मुख्यमंत्रीयोंमें और उनके सचिवोंमे आयोजन प्रज्ञाना अभाव है. मुख्य मंत्री और संलग्न सचिव हमेशा कोम्युनीकेशन-गेप रखना चाहते है ताकि वे आयोजनकी अपनी सुविचारित (जानबुज़ कर) रक्खी हुई त्रुटीयोंमें अपना बचाव  कर सकें.

अधिकतर उत्तरदायित्व तो सरकारी सचिवोंका ही है. वे हमेशा नियमावली क्लीष्ट बनानेमें चतूर होते है. और मंत्री तो सामान्यतः  अपने क्षेत्रके अपने जनप्रभावके आधार पर सामान्यतः मंत्री बना हुआ होता है.

सरकारी अधिकारीयोमें अधिकतम अधिकारी सक्षम नहीं होते है. अधिकतर तो चापलुसी और वरिष्ठ अधिकारीयोंके बंदोबस्त (वरिष्ठ अधिकारीयोंके नीजी काम) करनेके कारण उनके प्रिय पात्र रहेते है. सरकारी अधिकारीयों पर काम चलाना अति कठिन है. अधिकसे अधिक उनका स्थानांतरण (तबादला) किया जा सकता है. लेकिन जब कमसे कम ९९ प्रतिशत अधिकारी अक्षम होते है तो विकल्प यही बचता है कि चाहे वे अक्षम हो, उनकी प्रशंसा करते रहो और काम लेते रहो. सरकारी अधिकारीयोंको सुधारना लोहेके चने चबानेके समकक्ष कठिन है. प्रणाली को बदलनेमें १५ वर्ष तो लग ही जायेंगे.

कोंगी ने  केवल मुस्लिम मुल्लाओंको और मुस्लिम नेताओंको ही बिगाडके नहीं रक्खा है. उसने कर्मचारी-अधिकारीयोंको भी बिगाडके रक्खा है. कोंगीयोंका और उनके सांस्कृतिक साथीयोंका  एक अतिविस्तृत और शक्तिमान जालतंत्र है. जिनमें देश और देशके बाहरके सभी देशद्रोही और असामाजिक तत्त्व संमिलित है.

ईश्वरका आभार मानो कि हमारे पास नरेन्द्र मोदी जैसा कुशलनेता, अथाक प्रयत्नशील प्रधानमंत्री है. उनके साथी भी शुद्ध है. ऐसा नहीं होता तो यह कोंगी उनका हाल मोरारजी देसाई और बाजपाई जैसा करती. अडवाणीको २००४ और २००९ के चूनावमें ऐसे दो बार मौका मिला, किन्तु वे सानुकुल परिस्थितियां होने पर भी, सक्षम व्युहरचनाकार  और आर्षदृष्टा  नहीं होनेके कारण बीजेपीको बहुमत नहीं दिलवा सकें.

कोंगी और उसके सांस्कृतिक साथी वाल्मिकी ऋषि तो क्या, एक आम आदमी भी बननेको तयार नहीं है. हाँ वे ऐसा प्रदर्शन अवश्य करेंगे कि वे निस्वार्थ देश प्रेमी है. अफवाएं फैलाना या/और जूठ बोलना उनकी वंशीय प्रकृति है. निम्न दर्शित लींक पर क्लीक करो और देख लो.

युपीके मुख्य मंत्री  श्रमजीवीयों की यातना पर कितने असंवेदनशील है और  कोंगीकी एक शिर्ष नेत्रीने श्रम जीवीयोंकी यातनाओंसे स्वयं कितनी  संवेदनशील और आहत है यह प्रदर्शित करने के लिये युपीके मुख्य मंत्रीको,  १००० बसें भेजनेका प्रस्ताव दे दिया. युपीके मुख्य मंत्रीने उसका सहर्ष स्विकार भी कर लिया और बोला के आप बसोंका रजीस्ट्रेशन नंबर, ड्राईवरोंका नाम और लायसन्स नंबर आदिकी सूचि भेज दो.

अब क्या हुआ?

वह शिर्षनेत्रीने सूचि भेज दी. जब योगीजीने पता किया तो उसमें स्कुटर, रीक्षा, छोटीकार, बडीकार, अवैध नंबर, प्रतिबंधित नंबर, फर्जी नंबर, अलभ्य नंबर … आदि निकले. ये सब राजस्थानसे थे.

इसके अतिरिक्त ये कोंगी नेत्रीने (प्रियंका वाईड्रा) ने कहा कि “हम ये बसें आपके लखनौमें लानेमें असमर्थ है. हमारी बसें दिल्लीमें कबसे लाईनमें खडी है.” ऐसा दिखानेके लिये बसोंकी लंबी लाईन की तस्विर भी भेजी. वह भी फर्जी. जो तस्विर थी, वह तो कुम्भके मेलेकी बसोंकी कतारकी तस्विर थी. युपीके मुख्य मंत्रीने बसें लखनौ को भेजनेकी तो बात ही नहीं की थी.

कमसे कम इस कोंगी नेत्रीको खुदको  हजम हो सके इतना जूठ तो बोलते. “केपीटल टीवी” निम्न दर्शित वीडीयो देखें.

https://www.youtube.com/results?search_query=%23%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F_%E0%A4%98%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE

कोंगी और उनके सांस्कृतिक साथी कैसा फरेब करते है उनका इन्डिया स्पिक्स का यह वीडीयो भी देखें

https://www.youtube.com/watch?v=oCRssuW7ywQ

आप इन सबको सत्य का सन्मान करनेके लिये और आसुरी शक्तियोंके नाश के लिये अवश्य अपने मित्रोंमें प्रसारित करें. यही तो हमारा आपद्‌ धर्म है.

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

कोंगीके प्रमुखने कहा हमारा पक्ष श्रमजीवीयोंके रेलका किराया देगा.

इसके उपर स्मृति ईरानीजीने कहा कि

 श्रमजीवीयोंके लिये  रेलवे ट्रेन चलानेकी घोषणा करनेके समय ही यह सुनिश्चित हो गया था कि ८५ प्रतिशत किराया केन्द्र सरकार देगी और १५ प्रतिशत किराया राज्य सरकार रेल्वेको देगी. इसके बाद कोंगी कहेती है कि किराया हमारा पक्ष देगा, लेकिन किराया बचा ही कहाँ है? यह तो ऐसी बात हुई कि शोलेमें असरानी कहेता है कि आधे पोलीस लोग इधर जाओ, आधे उधर जाओ. जो बचे वे मेरे साथ रहो.

सोनिया गांधीकी बात भी ऐसी ही है. ८५ प्रतिशत किराया केन्द्र देगा, १५ प्रतिशत किराया राज्य देगा. जो बचा वह कोंगी देगा.

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कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता – २

कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता – २

नज़ारा ए शाहीन बाग

कोंगी लोग सोच रहे है कि अब हम मर सकते है. अब हमे अंतीम निर्णय लेना पडेगा. इसके सिवा हमारा उद्धार नहीं है. यदि हम ऐसे ही समय व्यतीत करते रहे … नरेन्द्र मोदी और बीजेपी को गालियां देतें रहें तो ये सब प्रर्याप्त नहीं है.

यह तो हमने देख ही लिया कि, जो न्यायिक प्रक्रिया चल रही है उसमें हमारी लगातार हार हो रही है.  हमारे लिये कारावासके अतिरिक्त कोई स्थान नहीं. यदि हम सब नेतागण कारावासमें गये तो कोई हमारा ऐसा नेता नहीं बचा है जो हमारे पक्षको जीवित रख सकें और हमे कारावाससे बाहर निकाल सके. हमने पीछले ७० सालमें जो सेक्युलर, जनतंत्र और भारतीय इतिहास को तो छोडो, किन्तु जो नहेरु और नहेरुवीयनोंके विषयमें जूठ सिखाया है और पढाया है, उसका पर्दा फास हो सकता है.

अब हमारे पास तीन रास्ते है.

नवजोत सिध्धु, मणीशंकर अय्यर और शशि थरुर जैसे लोग यदि भारत में काममें न आये तो वे पाकिस्तानमें तो काममें आ ही सकते है. हमारे मुस्लिम लोगोंके कई रीस्तेदार पाकिस्तानमें है. इस लिये पाकिस्तानके उन रीस्तेदारों द्वारा हम भारतके मुस्लिमोंको उकसा सकते है. बोलीवुडके कई नामी लोग हमारे पक्षमें है और वे तो दाउदके पे रोल पर है. इस लिये ये लोग भी बीजेपीके विरुद्धमें वातावरण बनानेमें काममें आ सकते है. इस परिबल को हमें उपयोगमें लाना पडेगा. अभी तक तो हमने इनका छूटपूट उपयोग किया है लेकिन यह छूटपूट उपयोगसे कुछ होने वाला नहीं हैं.    

(१) मुस्लिम जनतासे हमें कुछ बडे काम करवाना है.

(२) जिन समाचार माध्यमोंने हमारा लुण खाया है उनसे हमे किमत वसुल करना है. यह काम इतना कठिन नहीं है क्यों कि हमारे पास उनकी ब्लेक बुक है. हमने इनको हवाई जहाजमें बहूत घुमाया है … विदेशोंकी सफरोंमे शोपींग करवाया है, फाईवस्टार होटलोंमें आरामसे मजा करवाया है, जो खाना है वो खाओ, जो पीना है वह पीओ, जहां घुमना हैं वहा घुमो … इनकी कल्पनामें न आवे ऐसा मजा हमने उनको करवाया है और इसी कारण वे भी तो नरेन्द्र मोदी से नाराज है तो वैसे भी हम उनका लाभ ले सकते है. और हम देख भी रहे है कि वे बीजेपीकी छोटी छोटी माईक्रोस्कोपिक तथा कथित गलतीयोंको हवा दे रहे है जैसे की पीएम और एच एम विरोधाभाषी कथन बोल रहे है, अर्थतंत्र रसाताल गया है, अभूत पूर्व बेकारी उत्पन्न हो गयी है, जीडीपी खाईमें गीर गया है, किसान आत्म हत्या कर रहा है, देश रेपीस्तान बन गया है …. और न जाने क्या क्या …?

(३) क्या मूर्धन्य लोगोंको हम असंजसमें डाल सकते हैं? जी हाँ. यदि मुसलमान लोग अपना जोर दिखाएंगे और हला गुल्ला करेंगे तो ये लोग अवश्य इस निष्कर्स पर पहोंचेंगे कि यह सब अभी ही क्यों हो रहा है …? पहेले तो ऐसा नहीं होता था …!! कुछ तो गडबड है …!! गुजरातीमें एक कहावत है “हलकुं लोहीं हवालदारनुं” मतलब की हवालदार ही जीम्मेवार है.

शशि थरुर और राजदीप सरदेसाई के वाणी विलासको तो हम समज़ सकते है कि उनका तो एक एजन्डा है कि नरेन्द्र मोदी/बीजेपीके बारेमें अफवाहें फैलाओ और एक ॠणात्मक हवा उत्पन्न करो तो जनता बीजेपीको हटाएगी. इन लोगोंसे जनता तटस्थता की अपेक्षा नहीं रखती.

अब देखो हमारे मूर्धन्य कटारीया लोग [कटारीया = कटार (कोलम) अखबारकी कोलमोंमें लिखने वाला यानी कोलमीस्ट)] क्या लिखते है?

प्रीतीश नंदीः

“घर छोडके विकास तो भाग गया है” “बीजेपी द्वारा हररोज मुश्केलियां उत्पन्न की जाती है”, यह मुश्केलियां हिंसक भी होती है”, “आखिरमें हमने इस सरकारको वोट क्यों दिया?” “हर महत्त्वकी बातको सरकार भूला देती है” “पागलपन, बेवकुफी भरी उत्तेजना सरकार फैला रही है”, “बीजेपीने चूनावमें बडे बडे वचन दिये थे”, “बीजेपीने चूनावमें युपीएके सामने कुछ सही और कुछ काल्पनिक कौभाण्ड  उजागर करके  सत्ता हांसिल की थी,” “प्रजाकी हालत “हिरन जैसी थी” … “नरेन्द्र मोदीके आक्रमक प्रचारमें जनता फंस गई थी”, “नरेन्द्र मोदीने इस फंसी हुई जनताका पूरा फायदा उठाया” और “मनमोहन जैसे सन्मानित और विद्वान व्यक्तिको  ऐसा दिखाय मानो वे दुष्ट और भ्रष्टाचारी …” “ कारोबारीयोंका संचालन कर रहे हो” “छात्रोंके नारोंकी ताकतको कम महत्त्व नहीं देना चाहिए.”

इस प्रीतीश नंदीकी अक्लका देवालीयापन देखो. वे पाकिस्तानके झीया उल हक्कके कालका एक कवि जो झीयाके विरुद्ध था, उसकी एक कविताका  उदाहरण देते है “हम देखेंगे …”. इसका नरेन्द्र मोदीके शासनके कोई संबंध नहीं. फिर भी यह कटारीया [कटारीया = कटार (कोलम) अखबारकी कोलमोंमें लिखने वाला कोलमीस्ट)] उसको उद्धृत करते है और मोदीको भय दिखाता है कि इस कविकी इस कवितासे लाखो लोग खडे हो जाते है.

यह कटारीयाजी इस काव्यका विवरण करते है. और कहेते है कि हे नरेन्द्र मोदी तुम्हारे सामने भी लाखो लोग खडे हो जायेंगे. फिर यह कटारीयाजी ढाकाके युवानोंका उदाहरण देते है. उनका भी लंबा चौडा विवरण देते है.

क्या बेतुकी बात करते है ये कटारीया नंदी. नंदी कटारीया का अंगुली निर्देश जे.एन.यु. के युवाओंके प्रति है. नंदी कटारीया, जे.एन.यु. के किनसूत्रोंको महत्त्व देना चाहते है? क्या ये सूत्र जो अर्बन नक्षल टूकडे टूकडे गेंग वाले थे?  क्या जे.एन.यु. अर्बन नक्षल वाले ही युवा है? बाकिके क्या युवा नहीं है? अरे भाई अर्बन नक्षल वाले तो ५% ही है. और वे भी युवा है या नहीं यह संशोधनका विषय है. ये कौनसी चक्कीका आटा खाते है कि उनको चालीस साल तक डॉक्टरेट की डीग्री नहीं मिल पाती? जरा इसका भी तो जीक्र करो, कटारीयाजी!!! 

नंदी कटारीयाजीका पूरा लेख ऐसे ही लुज़ टोकींगसे भरा हुआ है. तर्ककी बात तो अलग ही रही, लेकिन इनके लेखमें किसी भी प्रकारका मटीरीयल भी आपको मिलेगा नहीं.

यदि सही ढंगसे सोचा जाय तो प्रीतीश नंदीके इस लेखमें केवल और केवल वाणी विलास है. अंग्रेजीमें इनको “लुज़ टोकींग”कहा जाता है. कोंगी नेतागण लुज़ टॉकींग करे, इस बातको तो हम समज़ सकते है क्यों कि उनकी तो यह वंशीय आदत है.

शेखर गुप्ता (कटारीया)

शेखर गुप्ता क्या लिखते है?

मोदीने किसी प्रदर्शनकारीयोंके जुथको देखके ऐसा कहा कि “उनके पहेनावासे ही पता लग जाता है कि वे कौन है?”

यदि कोई मूँह ढकके सूत्र बाजी या तो पत्थर बाजी करता है तो;

एक निष्कर्ष तो यह है कि वह अपनी पहेचान छीपाना चाहता है, इससे यह भी फलित होता है कि वह व्यक्ति जो कर रहा है वह काम अच्छा नहीं है किन्तु बूरा काम कर रहा है.

दुसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि वह अपराधवाला काम कर रहा है. अपराध करनेवालेको सज़ा मिल सकती है. वह व्यक्ति सज़ासे बचनेके लिये मूँह छीपाता है.

तीसरा निष्कर्ष में पहनावा है.  पहनावेमें तो पायजामा और कूर्ता आम तौर पर होता ही है. यह तो आम जनता या कोई भी अपनेको आम दिखानेके लिये पहेनेगा ही.

लेकिन हमारे शे.गु.ने यह निष्कर्ष  निकाला की नरेन्द्र मोदीने मुस्लिमोंके प्रति अंगूली निर्देश किया है. इस लिये मोदी कोम वादी है और मोदी कोमवादको बढावा देता है. शे.गु. कटारीयाका ऐसा संदेश जाता है.

शे.गु.जी ऐसा तारतम्य निकालनेके लिये, अरुंधती रोय और माओवादी जुथके बीचके डीलका उदाहरण देते है. गांधीवाद और माओवाद का समन्वय किस खूबीसे अरुंधती रोय ने किया है कि शे.गु.जी आफ्रिन हो गये. शे.गु.जी कहेते है कि, क्यूं कि प्रदर्शनकारी पवित्र मस्जिदमेंसे आ रहे है, क्यूँ कि उनके हाथमें त्रीरंगा है, क्यूँ कि वे राष्ट्रगान गा रहे है, क्यूँ कि उनके पास महात्मा गांधीकी फोटो है, क्यूं कि उनके पास आंबेडकर की फोटो है … आदि आदि .. शे.गु. जी यह संदेश भी देना चाहते है कि ये बीजेपी सरकार लोग चाहे कितनी ही बहुमतिसे निर्वाचित सरकार क्यूँ न हो इन (मुस्लिमों)के प्रदर्शनकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये.

वास्तवमें शे.गु.जीको धैर्य रखना चाहिये. रा.गा.की तरह, बिना धैर्य रक्खे, शिघ्र ही कुछ भी बोल देना, या तो बालीशता है या तो पूर्वनियोजित एजन्डा है. तीसरा कोई विकल्प शे.गु. कटारीयाके लिये हो ही नहीं सकता.

शे.गु.जी ने आगे चलकर भी वाणी विलास ही किया है.

चेतन भगतः

चेतन भगत भी एक कटारीया है. वे लिखते है कि

“उदार मानसिकतासे ही विकास शक्य है.”

“हम चोकिदार कम और भागीदार अधिक बनें, इससे देश शानदार बनेगा”

श्रीमान चे.भ. जी (चेतन भगत जी), भी एक बावाजी ही है क्या? बावाजी से मतलब है संत रजनीश मल, ओशो आसाराम. बावाजी है तो उदाहरण तो देना ही आवश्यक बनता है न!! वे अपने बाल्यावस्थाका उदाहरण देते है. वे फ्रीज़ और नौकरानीका और बील गेट्सका उदाहरण देते है. परोक्ष में “चे.भ.”जी मोदीजी की मानसिकता अन्यों के प्रति अविश्वासका भाव है. फिर उन्होंने कह दिया कि, नरेन्द्र मोदीने कुछ नियम ऐसे बनाये कि लोग भारतमें निवेश करने से डरते है. कौनसे नियम? इस पर चे.भ.जी मौन है. शायद उनको भी पता नहीं होगा.

चे.भ.जी अपनी कपोल कल्पित तारतम्य को स्वयं सिद्ध मानकर मोदीकी बुराई करते है.

“मुस्लिमोके विरुद्ध हिन्दुओंमें गुस्सा है. इसका कारण हिन्दुओंकी संकुचित मानसिकता है.

“अप्रवासीयोंपर हुए हमले भी हिन्दुओंकी संकुचित मानसिकता कारण भूत है,

“मुस्लिमोंको बहुत कुछ दे दिया है, अब वह वापस ले लेना चाहिये,

“मुस्लिमोंका बहुत तुष्टीकरण किया है अब उनको लूट लेना चाहिये

चे.भ.जी इस बातको समज़ना नहीं चाहते कि, किसी भी जनसमुदायमें कुछ लोग तो कट्टर विचारधारा वाले होते ही है. लेकिन किस समुदायमें इस कट्टरतावादी लोगोंका प्रमाण क्या है? इतनी विवेकशीलता तो मूर्धन्य कटारीयाओंमें होना आवश्यक है. लेकिन इन कटारीयाओंमे विवेक हीनता है. तुलनात्मक विश्लेषणके लिये ये कटारीया लोग अक्षम ही नहीं अशक्त है. वे समज़ते है “… वाह हमने क्या सुहाना शब्द प्रयोग किया है. फिलोसोफिकल वाक्य बोलो तो हमारी सत्यता अपने आप सिद्ध हो जाती है…”चे.भ.जी जैसे लोगोंको तुलनात्मक सत्य दिखायी ही नहीं देता है.

कोंगी और उनके सांस्कृतिक साथी

कोंगी और उनके सांस्कृतिक साथी पक्षोंके शिर्ष नेताओंके उच्चारणोंको देख लो. “चोकिदार चोर है, नरेन्द्र मोदी नीच है, नरेन्द्र मोदीको डंडा मारो, नरेन्द्र मोदी फासीस्ट है, नरेन्द्र मोदी हीटलर है, नरेन्द्र मोदी खूनी है, बीजेपी वाले आर.एस.एस.वादी है, वे गोडसे है…” न जाने क्या क्या बोलते है. पक्षके प्रमुख और मंत्री रह चूके और सरकारी  पद पर रहेते हुए भी उन्होंने ऐसे उच्चारण किये है. लेकिन ये उपरोक्त मूर्धन्य कटारीया लोग इन उच्चारणों पर मौन धारण करते है. उनका जीक्र तक नहीं करतें.

आखिर ऐसा क्यूँ वे लोग ऐसा करते हैं?

यदि बीजेपीके या तो आर.एस.एस.के तृतीय कक्षाके लोग उपरोक्त उच्चारणोसे कम भी बोले तो ये लोग बडे बडे निष्कर्ष निकालते है. अपना कोरसगान (सहगान) चालु कर देते हैं.     

अपराध कब सिद्ध होता है?

“आप अपनी धारणाओंके आधार पर किसीको दोषी करार न ही दे सकते. न्यायिक प्रक्रियाके सिद्धांतोसे यह विपरित है. किसीको भी दोषी दिखानेके लिये आप अपनी मनमानी और धारणाओंका उपयोग नहीं कर सकते. किन्तु महान नंदीजी, शे.गु.जी, चे.भ. जी … आदि क्यूँ कि उनका एजन्डा कुछ और ही है, वे ऐसा कर सकते है. कोंगी लोग यही तो चाहते है.

इन कटारीया लोगोंको वास्तवमें पेटमें दुखता है क्या?

वास्तवमें कोंगी लोग और उनके सहयोगी लोग समज़ गये है कि,

नरेन्द्र मोदी, और भी समस्याएं हल कर सकता है. वैसे तो, जी.एस.टी. तो हमारा ही प्रस्ताव था, “विमुद्रीकरण करना” इस बातको तो हम भी सोच रहे थे, पाकिस्तानमें अल्पसंख्यकों की सुरक्षा हो और वे पीडित होके भारतमें आवे तो, हमे उनको नागरिकता देनी है, यह बात भी हमारे नहेरु-लियाकत अली समज़ौताका हिस्सा था, १९७१के युद्धसे संबंधित जो शरणार्थी प्रताडित होकर भारतमें आये उनमें जो पाकिस्तानके अल्पसंख्यक थे उनको नागरिकता देना, और बांग्लादेशके आये बिहारी मुस्लिमोंको वापस भेजना यह तो हमारे पक्षके प्रधान मंत्रीयोंका शपथ था.  किन्तु हममें उतनी हिंमत और प्रज्ञा ही नहीं थी कि हम अपने शपथोंको पुरा करे. मोदीके विमुद्रीकरण और जी.एस.टी.के निर्णयोंको तो हमने विवादास्पद बनाके विरोध किया और जूठ लगातार फैलाते रहे. बीजेपी के हर कदमका हम विरोध करेंगे चाहे वह मुद्दे हमारे शासनसे संलग्न क्यूँ न हो?

कोंगी और उनके साथी लोगोंको अनुभूति हो गई है कि, “अब तो मोदीने उन समस्याओंको हाथ पे ले लिया है जो हमने दशकों और पीढीयों तक अनिर्णित रक्खी”.

कोंगीने उनके सांस्कृतक साथी पक्षके नेतागणको आत्मसात्‌ करवा दिया है कि “मोदी सब कुछ कर सकता है. अब तक हम उसको हलकेमें ले रहे थे. किन्तु मोदी आतंकी गतिविधियोंको अंकूशमें रख सकने के अतिरिक्त और सर्जीकल स्ट्राईकके अतिरिक्त, अनुछेद ३७० और ३५ऍ तकको खतम कर सकता है. वह जम्मु – कश्मिर राज्यश्रेणी भी बदल सकता है. हमे खुलकर ही मुस्लिम नेताओंको और मुस्लिमोंको अधिकसे अधिक बहेकाना पडेगा.”

कोंगीके सांस्कृतिक साथी कौन कौन है?

कोंगी पक्ष कैसा है?

कोंगी वंशवादी है, वंशवादको स्थायी रखने के लिये अवैध मार्गोंसे संपत्तिकी प्राप्त करना पडता है, शठता करनी पडती है,

सातत्यसे जूठ बोलना पडता है,

असामाजिक तत्त्वोंको हाथ पर रखना पडता,

दुश्मनके दुश्मनको मित्र बनाना पडता है,

जनताको मतिभ्रष्ट और पथ भ्रष्ट करना पडता. और कई समस्याओंको अनिर्णायक स्थितिमें रखना पडता है चाहे ये अनिर्णायकता देशके लिये और आम जनताकाके लिये कितनी भी हानिकारक क्यूँ न हो!!

अनीतिमत्ता वंशवादका एक आनुषंगिक उत्पादन है.

कोंगी जैसा सांस्कृतिक चरित्र और किनका है?

 ममताका TMC, शरदका NCP, लालुका RJD, बाल ठकरे का Siv Sena, मुल्लायमका SP, शेख अब्दुल्लाके फरजंद फारुक अब्दुल्लाका N.C. और सबसे नाता जोडने और तोडने वाले साम्यवादी. अब हम इन सभी पक्षोंके समूह को कोंगी ही कहेंगे. क्योंकि इन सभीका काम येन केन प्रकारेण, बिना साधन शुद्धिसे, बिना देशके हितकी परवाह किये नरेन्द्र मोदी/बीजेपी को फिलहाल को बदनाम करो.

संवाद मत करो और तर्कयुक्त चर्चा मत करो केवल शोर मचाओ

संवाद करेंगे तो सामनेवाला तर्क करेगा. इस लिये संवाद मत करो, बार बार जूठ बोलो, असंबद्ध उदाहरण दो, सब नेता सहगान करो.

कहो… मोदी चोर है. अपने अनपढ श्रोताओंसे सूत्रोच्चार करवाओ मोदी चोर है. मोदीको चोरे सिद्ध करनेके लिये सबूत सामग्री की आवश्यकता नहीं.

मोदी हीटलर है.  सिद्ध करनेके लिये सबूत सामग्री की आवश्यकता नहीं.

मोदी खूनी है… सिद्ध करनेके लिये सबूत सामग्री की आवश्यकता नहीं.

बीजेपी लोग गोडसे है. चाहे गोडसे आर.एस.एस. का सदस्य न भी हो तो भी. हमें क्या फर्क पडता है!!!  सिद्ध करनेके लिये सामग्री की आवश्यकता नहीं.

विमूद्रीकरणमें मोदीने सेंकडो लोगोंको लाईनमें खडा करके मार दिया. बोलनेमें क्या हर्ज है? (वचनेषु किं दरिद्रता?). सिद्ध करनेके लिये सामग्री की आवश्यकता नहीं.

जी.एस.टी. गब्बर सींग टेक्ष है. (चाहे वह हमारा ही प्रस्ताव क्यों न हो. किन्तु हममें उतना नैपूण्य कहाँ कि हम उसको लागु करें). यह सब चर्चा करना कहाँ आवश्यक है? सिद्ध करनेके लिये सबूत सामग्री की आवश्यकता नहीं.

“भारतीय संविधान”को हमारे पक्षमें घसीटो, “मानव अधिकार और फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन” को भी हमारे पक्षमें घसीटो, रास्ता रोको, लगातार रास्ता रोको, आग लगाओ, फतवे निकालो, जनताको हो सके उतनी असुविधाओंमें डालो, कुछ भी करो और सब कुछ करो … मेसेज केवल यह देना है कि यह सब मोदीके कारण हो रहा है.

यदि इतना जूठ बोलते है तो “महात्मा गांधी”को भी हमारे पक्षमें घसीटो. गांधीजीका नाम लेके यह सब कुछ करो.

कोंगीयों द्वारा गांधीका एकबार और खून

कोंगीओंको, उनके सांस्कृतिक साथीयों और समाचार माध्यमोंके मालिकोंको भी छोडो, भारतमें विडंबना यह है कि अब मूर्धन्य कटारीया लोग भी ऐसा समज़ने लगे है कि अहिंसक विरोध और महात्मा गांधीके सिद्धांतों द्वारा विरोध ये दोनों समानार्थी है.

महात्मा गांधीके अनुसार विरोध कैसे किया जाता है?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता? (भाग-१)

कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता? (भाग-१)

“स्वतंत्रता” शब्द पर अत्याचार

paise pe paisa

हमारा काम केवल प्रदर्शन करना है चर्चा नहीं

हमें चाहिये आज़ादी केवल प्रदर्शन के लिये 

कोंगी तो कोमवादी और उन्मादी (पागल) है. साम्यवादीयोंकी तो १९४२से ऐसी परिस्थिति है. किन्तु इन दोनोंमें भेद यह है कि साम्यवादी लोग तो १९४२के पहेलेसे उन्मादी है. उनके कोई सिद्धांत नहीं होते है. वे तो अपनी चूनावी कार्यप्रणालीमें प्रकट रुपसे कहेते है कि यदि आप सत्तामें नहीं है, तो  जनताको विभाजित करो, अराजकता पैदा करो, लोगोंमें  भ्रामक प्रचार द्वारा भ्रम फैलाओ, उनको असंजसमें डालो, और जनतंत्रके नाम पर जनतंत्रके संविधानके प्रावधानोंका भरपूर लाभ लो और तर्कको स्पर्ष तक मत करो. यदि आप सत्तामें है तो असंबद्ध और फर्जी मुद्दे उठाके जनतामें  अत्यधिक ट्रोल करो और  स्वयंने किये हुए निर्णय कितने महत्त्वके है वह जनताको दिखाके भ्रम फैलाओ. पारदर्शिता तो साम्यवादीयोंके लहुमें नहीं है. उनकी दुनियानें तो सब कुछ “नेशनल सीक्रेट” बन जाता है. समाचार माध्यमोंको तो साम्यवादी सरकार भेद और दंडसे अपने नियंत्रणमें रखती है. “भयादोहन (ब्लेक मेल)” करना और वह भी विवादास्पद बातोंको हवा देना आम बात है.

उन्नीसवी शताब्दीके उत्तरार्धमें और बीसवीं शातब्दीके पूर्वार्धमें युवावर्गमें “समाजवादी होना” फैशन था. युवा वर्गको अति आसानीसे पथभ्रष्ट किया जा सकता है. उनके शौक, आदतें बदली जा सकती है. उनको आसानीसे  प्रलोभित किया जा सकता है.

युवा वर्ग आसानीसे मोडा जा सकता है

आज आप देख रहे है कि सारी दुनियाके युवावर्गने दाढी रखना चालु कर दिया है. (वैसे तो नरेन्द्र मोदी भी दाढी रखते है. किन्तु वे तो ४० वर्ष पूर्वसे ही दाढी रखते है). बीस सालसे नरेन्द्र मोदी प्रख्यात है. किन्तु युवावर्गने दाढी रखनेकी फैशन तो दो वर्षसे चालु की है. और दाढीकी फैशन महामारीसे भी अधिक त्वरासे  फैल गयी है. सारे विश्वके युवा वर्ग दाढीकी फैशनके दास बन गये है. यही बात प्रदर्शित करती है कि युवा वर्ग कितनी त्वरासे फैशनका दासत्व स्विकार कर लेता है.

उसको लगता है कि वे यदि फैशनकी दासताका स्विकार नहीं करेगा तो वह अस्विकृतिके संकटमें पड जाएगा. ऐसी मानसिकताको “क्राईसीस ऑफ आडेन्टीफीकेशन” कहा जाता है.

छोडो यह बात. इनकी चर्चा हम किसी और समय करेंगे.

हमारे नहेरुजी भी समाजवाद (साम्यवाद)के समर्थक थे और साम्यवादीयोंके भक्त थे.

नहेरु न तो महात्मा गांधीके सर्वोदय-वादको समज़ पानेमें सक्षम थे न तो वे अपना समाजवाद महात्मा गांधीको समज़ानेके लिये सक्षम थे. गांधीजीने स्वयं इस विषयमें कहा था कि उनको जवाहरका समाजवाद समज़में नहीं आता है. नहेरु वास्तवमें अनिर्णायकता के कैदी  थे. जब प्रज्ञा सक्षम नहीं होती है, स्वार्थ अधिक होता है तो व्यक्ति तर्कसे दूर रहेता है. वह केवल अपना निराधार तारतम्य ही बताता है. नहेरु कोई निर्णय नहीं कर सकते थे क्यों कि उनकी विवेकशीलतासे कठोर समस्याको समज़ना उनके लिये प्राथमिकता नहीं थी. इस लिये वे पूर्वदर्शी नहीं थे. निर्णायकतासे अनेक समस्याएं उत्पन्न होती है. कोई भी एक समस्यामें जब प्रलंबित अनिर्णायकता रहती है तब उसको दूर करना असंभवसा बन जाता है.

नहेरुकी अनिर्णायक्तासे कितनी समस्या पैदा हूई?

कश्मिर, अनुच्छेद ३७०/३५ए को हंगामी के नाम पर संविधानमें असंविधानिक रीतिसे समावेश करना और फिर “हंगामी”शब्द को दूर भी नहीं करना और इसके विरुद्ध का काम भी नहीं करना, यह स्थिति नहेरुकी  घोर अनिर्णायकताका उदाहरण है. कश्मिरमें जनतंत्रको लागु करनेका काम ही नहीं करना, यह कैसी विडंबना थी? नहेरुने इस समस्याको सुलज़ाया ही नही.

अनुच्छेद ३७० कश्मिरको (जम्मु कश्मिर राज्यको) विशेष स्थिति देता है. किन्तु कश्मिरकी वह विशिष्ठ स्थिति क्या जनतंत्र के अनुरुप है?

नहीं जी. इस विशिष्ठ स्थिति जनतंत्रसे सर्वथा विपरित है. अनुछेद ३७० और ३५ए को मिलाके देखा जाय तो यह स्थिति जन तंत्रके मानवीय अधिकारोंका सातत्यपूर्वक हनन है. १९४४में ४४०००+ दलित  कुटुंबोको सफाई कामके लिये उत्तर-पश्चिम भारतसे बुलाया गया था. १९४७से पहेले तो कश्मिरमें जनतंत्र था ही नहीं. १९४७के बाद इस जत्थेको राज्यकी  नागरिकता न मिली. उतना ही नहीं उसकी पहेचान उसके धर्म और वर्णसे ही की जाने लगी. तात्पर्य यह है कि वे दलित (अछूत) ही माने जाने लगे. और उसका काम सिर्फ सफाई करनेका ही माना गया. क्यों कि वे हिन्दु थे. और तथा कथित हिन्दु प्रणालीके अनुसार उनका काम सिर्फ सफाई करना ही था. वैसे तो गांधीजीने इनका लगातार विरोध किया था और उनके पहेले कई संतोंने किसीको दलित नहीं माननेकी विचारधाराको पुरष्कृत किया था. ब्रीटीश इन्डियामें भी दलितको पूरे मानवीय अधिकार थे. लेकिन कश्मिरमें और वह भी स्वतंत्रत भारतके कश्मिरमें उनको जनतंत्रके संविधानके आधार पर दलित माने गये. यदि वह दलित कितना ही पढ ले और कोई भी डीग्री प्राप्त करले तो भी वह भारत और कश्मिरके जनतंत्रके संविधानके आधार पर वह दलित ही रहेगा, वह सफाईके अलावा कोई भी व्यवसायके लिये योग्य नहीं माना जाएगा. इन दलितोंकी संतान चाहे वह कश्मिरमें ही जन्मी क्यों न हो, उनको काश्मिरकी नागरिकतासे, जनतंत्रके संविधानके आधार पर ही सदाकालके लिये  वंचित ही रक्खा जायेगा.

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागको अन्यसे भीन्न समज़ सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागको वंशवादी पहेचान दे सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागके उपर उनकी जाति ठोप सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागके उपर केवल उन विभागके लिये ही भीन्न और अन्यायकारी प्रावधान रख सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागके लोगोंको और उनकी संतानोंको मताधिकार से वंचित रख सकता है.

यदि आप जनतंत्रके समर्थक है और आप “तड और फड” (बेबाक और बिना डरे) बोलने वाले है  तो आप क्या कहेंगे?

क्या आप यह कहेंगे कि कश्मिरमें अनुच्छेद ३७०/३५ए हटानेसे कश्मिर में जनतंत्र पर आघात्‌ हुआ है?

यदि कोई विदेशी संस्था भी भारत द्वारा कश्मिरमें “अनुच्छेद ३७०/३५ए” की हटानेकी बातको “जनतंत्र पर आघात” मानती है तो आप उस विदेशी संस्थाके लिये क्या कहोगे?

चाहे आप व्याक्यार्ध (वृद्धावस्था)से पीडित हो, तो क्या हुआ? यदि आप युवावस्थाकी छटपटाहतसे लिप्त हो, तो क्या हुआ? जनतंत्रके सिद्धांत तो आपके लिये बदलनेवाले नहीं है.

यदि आप जनतंत्रवादी है, तो आप अवश्य कहेंगे कि भारतने जो अनुच्छेद ३७०/३५ए हटानेका काम किया है वह जनतंत्रकी सही भावनाको पुरष्कृत करता है और कश्मिरमें वास्तविक जनतंत्रकी स्थापना करता है. काश्मिरको गांधीजीके जनतंत्रके सिद्धांतोंसे  समीप ले जाता है. नहेरुकी प्रलंबित रक्खी समस्याका निःरसन करता है. भारतके जनतंत्र के उपर लगी कालिमाको दूर करता है. जो भी व्यक्ति जनतंत्रके ह्रार्दसे ज्ञात है, वह ऐसा ही कहेगा.

यदि वह इससे विपरित कहेता है, तो वह या तो अनपढ है, या तो उसका हेतु (एजन्डा) ही केवल स्वकेद्री राजकारण है या तो वह मूढ या घमंडी है. उसके लिये इनके अतिरिक्त कोई विशेषणीय विकल्प नहीं है.

दीर्घसूत्री विनश्यति (प्रलंबित अनिर्णायकता विनाश है)

लेकिन कुछ लोग पाकिस्तानकी भाषा बोलते है. इनमें समाचार माध्यम भी संमिलित है. कश्मिर समस्या के विषयमें यु.नो.को घसीटनेकी आवश्यकता नहीं. यु.नो.को जो करना था वह कर दिया. उस समय जो उसके कार्यक्षेत्रमें आता था वह कर दिया. युनोका तो पारित प्रस्ताव था कि, पाकिस्तान काश्मिरके देशी राज्यके अपने कब्जेवाला हिस्सा खाली करें और भारतके हवाले कर दें. उस हिस्सेमें कोई सेनाकी गतिविधि न करें … तब भारत उसमें जनमत संग्रह करें. पाकिस्तानने कुछ किया नहीं. नहेरुने पाकिस्तानके उपर दबाव भी डाला नहीं. भारत सरकारने भारत अधिकृत काश्मिरके साथ जो अन्य देशी राज्योंके साथ किया था वही किया. केवल पाकिस्तान अधिकृत कश्मिरका हिस्सा छूट गया. नहेरुने इस समस्याको अपनी आदतके अनुसार प्रलंबित  रक्खा. आज हो रहे “हल्ला गुल्ला” की जड, नहेरुकी दीर्घसूत्री कार्यशैली है.

पाकिस्तानका जन्मः

पाकिस्तान का जन्म बहुमत मुस्लिम क्षेत्रके आधार पर हुआ वह अर्ध-सत्य है. जो मुस्लिम मानते थे कि वे बहुमत हिन्दु धर्म वाली जनताके शासनमें अपने हित की रक्षा नहीं कर सकते, उनके लिये बहुमत मुस्लिम समुदायवाले क्षेत्रका पाकिस्तान बनाया जाय. इन क्षेत्रोंको भारतसे अलग किया. जो मुस्लिम लोग उपरोक्त मान्यतावाले थे, वे वहां यानी कि पाकिस्तान चले गये. जो ऐसा नहीं मानते थे, वे भारतमें रहे. पाकिस्तानमें रहेनेवाले बीन-मुस्लिमोंको भारत आने की छूट थी. १९५० तक देशकी सीमाको स्थानांतरके लिये खुला छोड दिया था.

पाकिस्तानमें बीन-मुस्लिम जनताका उत्पीडन १९४७ और १९५०के बाद भी चालु रहा. इसके अतिरिक्त भी कई समस्यायें थी. गांधीजीने कहा था कि हम किसीको भी अपना देश छोडनेके लिये बाध्य नहीं कर सकते. पाकिस्तानमें जो अल्पसंख्यक रह रहे है उनकी सुरक्षाका उत्तरदायित्व पाकिस्तानकी सरकारका है. यदि पाकिस्तान की सरकार विफल रही तो, भारत उसके उपर चढाई करेगा.

नहेरु – लियाकत अली करार नामा

इसके अनुसार १९५४में दोनो देशोंके बीच एक समज़ौताका दस्तावेज बना. जिनमें दोनों देशोंने अपने देशमें रह रहे अल्पसंख्यकोके हित की सुरक्षाके लिये प्रतिबद्धता जतायी. 

नहेरुने लियाकत अलीसे पाकिस्तानसे पाकिस्तानवासी हिन्दुओंकी सुरक्षाके लिये सहमति का (अनुबंध) करारनामा किया.

किन्तु तत्‌ पश्चात्‌ नहेरुने उस अनुबंधका पालन होता है या नहीं इस बातको उपेक्षित किया. पाकिस्तान द्वारा पालन न होने पर भी पाकिस्तानके उपर आगेकी कार्यवाही नहीं की, और न तो नहेरुने इसके उपर जाँच करनेकी कोई प्रणाली बनाई.

नहेरु-लियाकत अली करारनामा के अनुसंधानमें सी.ए.ए. की आवश्यकताको देखना, तर्क बद्ध है और अत्यंत आवश्यक भी है.

नहेरुने अपनी आदत के अनुसार पाकिस्तानसे प्रताडित हिन्दुओंकी सुरक्षाको सोचा तक नहीं. जैसे कि कश्मिर देशी राज्य पर पाकिस्तानके आक्रमणके विरुद्ध यु.नो. मे प्रस्ताव पास करवा दिया. बस अब सब कुछ हो गया. अब कुछ भी करना आवश्यक नहीं. वैसे ही लियाकत अलीसे साथ समज़ौताका करारनामा हो गया. तो समज़ लो समस्या सुलज़ गयी. अब कुछ करना धरना नहीं है.   

भारतदेश  इन्डो-चायना युद्धमें ९२००० चोरसमील भूमि हार गया. तो कर लो एक प्रतिज्ञा संसदके समक्ष. नहेरुने लेली एक प्रतिज्ञा कि जब तक हम खोई हुई भूमि वापस नहीं लेंगे तब तक चैनसे बैठेंगे नहीं. संसद समक्ष प्रतिज्ञा लेली, तो मानो भूमि भी वापस कर ली.

इन्दिरा घांडी भी नहेरुसे कम नहीं थी.

इन्दिराने भी १९७१के युद्ध के पूर्व आये  एक करोड बंग्लादेशी निर्वासितोंकों वापस भेजनेकी प्रतिज्ञा ली थी, इस प्रतिज्ञाके बाद इन्दिराने इस दिशामें कोई प्रयास किया नहीं. और इस कारण और भी घुसपैठ आते रहे. समस्याओंको  प्रलंबित करके समस्याओंको बडा और गंभीर होने दिया. यहाँ तककी उसके बेटे राजिवने १९८४में एक संविदा पर प्रतिज्ञा ली के देश इन घुसपैठीयोंको कैसे सुनिश्चित करेगा. पर इसके उपर कुछ भी कार्यवाही न की. १९८९-९०में कश्मिरमें कश्मिरस्थ मुस्लिमों द्वारा, हजारों हिन्दुओंका संहार होने दिया, हजारों हिन्दु  स्त्रीयोंका शील भंग होने दिया,  लाखों हिन्दुओं को खूल्ले आम, कहा गया कि इस्लाम अंगीकार करो या मौतके लिये तयार रहो या घर छोड कर भाग जाओ. इस प्रकार उनको बेघर कर होने दिया. इसके उपर न तो जांच बैठाई, न तो किसीको गिरफ्तार किया, न तो किसीको कारावासमें भेजा.

इतने प्रताडनके बाद भी किसी भी हिन्दुने हथियार नहीं उठाया, न तो एक अरब हिन्दुओंमेंसे कोई आतंक वादी बना.

तो कोंगीयोंने क्या किया?

कोंगीयोंने इस बात पर मुस्लिमोंकी आतंक वादी घटनाओंको “हिन्दु आतंकवाद” की पहेचान देनेकी भरपुर कोशिस की. जूठ बोलनेकी भी सीमा होती है. किन्तु साम्यवादीयोंके लिये और उन्ही के संस्कारवाले कोंगीयोंके लिये जूठकी कोई सीमा नहीं होती.

सी.ए.ए. के विरोधमें आंदोलनः

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

अनुसंधान (गुजराती लेख)

https://treenetram.wordpress.com/2017/02/05/સુજ્ઞ-લોકોની-કાશ્મિર-વિષ/

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why we write

with a curtsy to the cartoonists

हमे परिवर्तन नहीं चाहिये. “जैसे थे” वाली ही परिस्थिति रक्खो” मूर्धन्याः उचुः

(मूर्धन्याः उचुः = विद्वान लोगोंने बोला)

परिवर्तन क्या है? और “जैसे थे” वाली परिस्थिति से क्या अर्थ है?

नरेन्द्र मोदी स्वयं परिवर्तन लाना चाहता है. यह बात तो सिद्ध है क्यों कि उसने जिन क्षेत्रोमें परिवर्तन लानेका संकल्प किया है उनके अनुसंधानमें उसने कई सारे काम किये है.

परिवर्तन क्या है. परिवर्तन तो प्रकृति भी करती है.

वास्तवमें परिवर्तनमें शिघ्रताकी आवश्यकता है. क्यों कि शिघ्रताके अभावमें जो परिवर्तन होता है उसको परिवर्तन नहीं कहा जाता. शिघ्रतासे हुए परिवर्तनको क्रांति भी बोलते है.

“होती है चलती है… पहले अपना हिस्सा सुनिश्चित करो …“

ऐसी मानसिकता रखके जो परिवर्तन होता है उसमें विलंबसे होता है और विलंबसे अनेक समस्या उत्पन्न होती है. वे समस्या प्राकृतिक भी होती है और मानव सर्जित भी होती है. और अति विलंबको परिवर्तन कहा ही नहीं जा सकता. वैसे तो प्रकृति स्वयं परिवर्तन करती है. ऐसे परिवर्तनसे ही मानव, पेडसे उतरकर कर भूमि पर आया था. पेडसे भूमि की यात्रा एक जनरेशन में नहीं होती है.  इस प्रकार अति विलंबसे होने वाले परिवर्तन को उत्क्रांति (ईवोल्युशन) कहा जाता है.

कोंगीयोंने भी परिवर्तन किया है. किन्तु उनका परिवर्तन उत्क्रांति (ईवोल्युशन) जैसा है.

(ईवोल्युशनमे कभी प्रजातियाँ या तत्त्व नष्ट भी हो जाते है.)

उदाहरण के लिये तो कई परिकल्पनाएं है (केवल गुजरातका ही हाल देखें).

(१) जैसे कि नर्मदा योजना (योजनाकी कल्पना वर्ष १९३६. योजनाका निर्धारित समाप्तिकाल २० वर्ष. वास्तविक निर्धारित समाप्ति वर्ष २०२२).

(२) मीटर गेज, नेरो गेज का ब्रोड गेजमें परिवर्तन (परिकल्पना की कल्पना १९५२)

वास्तविकताः महुवा-भावनगर नेरोगेज उखाड दिया, डूंगर – पोर्ट विक्टर उखाड दिया, राजुला रोड राजुला उखाड दिया, गोधरा- लुणावाडा उखाड दिया, चांपानेर रोड पावागढ उखाड दिया, मोटा दहिसरा – नवलखी उखाड दिया, जामनगर (कानालुस)  – सिक्का उखाड दिया. अब यह पता नहीं कि ये सब रेल्वे लाईन ब्रॉडगेजमें कब परिवर्तित होगी.

भावनगर-तारापुर, मशीन टुल्सका कारखाना ये कल्पना तो गत शतकके पंचम दशक की है. जिसमे स्लीपरका टेन्डर भी निकाला है ऐसे समाचार चूनावके समय पर समाचार पत्रोंमे आया था. दोनों इल्ले इल्ले. ममताके रेल मंत्री दिनेश त्रीवेदीने गत दशकमें रेल्वेबजटमें उल्लेख किया था. किन्तु बादमें इल्ले इल्ले.

परिवर्तनके क्षेत्र?

नरेन्द्र मोदीकी सरकारने काम हाथ पर तो लिया है, लेकिन कोंगीके शासकोंने जो ७० वर्षका विलंब किया है वह अक्षम्य है.

चीन १९४९में नया शासन बना. १४ वर्षमें वह भारत देश जैसे बडे देशको हरा सकनेमें सक्षम हो गया. आप कहोगे कि वहां तो सरमुखत्यारी (साम्यवादी) शासान था. वहां जनताके अभिप्रायोंकी गणना नहीं हो सकती. इसलिये वहां सबकुछ हो सकता है.

अरे भाई सुरक्षासे बढकर बडा कोई काम नहीं हो सकता. सुरक्षाका काम भी विकासका काम ही है. विकासके कामोंमे कभी भारतकी जनताने उस समय तो कोई विरोध करती नहीं थी. आज जरुर विकासके कामोंमें जनता टांग अडाती है. लेकिन इसमें सरकारी (कर्मचारीयोंका) भ्रष्टाचार और विपक्षकी सियासत अधिक है. ये सब कोंगीकी देन है. विकासके कामोसे ही रोजगार उत्पन्न होता है.   

मूलभूत संरचना का क्षेत्रः

इसमें मार्ग, यातायात संसाधन, जलसंसाधन,   विद्युत उत्पादन, उद्योग (ग्रामोद्योग भी इनमें समाविष्ट है). नरेन्द्र मोदीने इसमें काफि शिघ्रगतिसे काम किया है. इसके विवरणकी आवश्यकता नहीं है.

उत्पादन क्षेत्रः उद्योगोंके लिये भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया, यातायातकी सुविधा, विद्युतकी सुविधा, जल सुविधा और मानवीय कुशलता आवश्यक है.

कोंगीको तो मानव संसाधनके विषयमें खास ज्ञान ही नहीं था. उसने तो ब्रीटीश शिक्षा प्रणाली के अनुसार ही आगे बढना सोचा था. पीढीयोंकी पीढीयों तक जनताको निरक्षर रखा था. समय बरबाद किया.

नरेन्द्र मोदीने गुजरातमें प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य किया था. स्कील डेवेलोप्मेन्टकी संस्थाएं खोली. बेटी बचाओ, बेटी बढाओ अभियान छेडा.

न्याय का क्षेत्रः

कोंगीने तो न्यायिक प्रक्रीया ही इतनी जटील कर दी कि सामान्य स्थितिका आदमी न्याय पा ही न सके. नरेन्द्र मोदीने कई सारे (१५००) नियमोंको रद कर दिया है. इसमें और सुधार की आवश्यकता है.

शासन क्षेत्रः

भारतमें कोंगीका शासन एक ऐसा शासन था कि जिसमें साम्यवाद, परिवारवाद, सरमुखत्यार शाही और जनतंत्रका मिलावट थी. इससे हर वादकी हानि कारक तत्व भारतको मिले. और हर वादके लाभ कारक तत्त्व कोंगीके संबंधीयोंको मिले.

सामाजिक क्षेत्रः

कोंगीने   जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, आर्थिक स्थिति … आदिके आधार पर विभाजन कायम रक्खा. उतना ही नहीं उसको और गहरा किया. समाजको विभाजित करने वाले तत्त्वोंको महत्त्व दिया. लोगोंकी नैतिक मानसिकता तो इतनी कमजोर कर दी की सामान्य आदमी स्वकेन्द्री बन गया. उसके लिये देशका हित और देशका चारित्र्य का अस्तित्व रहा ही नहीं. आम जनताको गलत इतिहास पढाया और उसीके आधार पर देशकी जनताको और विभाजित किया.

कोंगीने यदि सबसे बडा राष्ट्रीय अपराध किया है तो वह है मूर्धन्योंकी मानसिकताका विनीपात.

मूर्धन्य कौन है?

वैसे तो हमे गुजरातीयोंको प्राथमिक विद्यालयमें पढाया गया था कि जिनका साहित्यमें योगदान होता है वे मूर्धन्य है. अर्वाचीन गुजरातके सभी लेखक गण मूर्धन्य है.

माध्यमिक विद्यालयमें पढाया गया कि जो भी लिखावट है वह साहित्यका हिस्सा है.

हमारे जयेन्द्र भाई त्रीवेदी जो हिन्दीके अध्यापक थे उन्होंने कहा कि जो समाजको प्रतिबिंबित करके बुद्धियुक्त लिखता है  वह मूर्धन्य है. तो इसमें सांप्रत विषयोंके लेखक, विवेचक, विश्लेषक, अन्वेषक, चिंतक, सुचारु संपादक, व्याख्याता … सब लोग मूर्धन्य है….

कोंगीने मूर्धन्योंका ऐसा विनीपात करने में क्या भूमिका अदा की है?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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कोंगीयोंका दंभ और उनका फीक्सींग

दंभकी असीमता

कोंगीयोंमे और नहेरु-वंशीयोंमे प्रचूर मात्रामें दंभ है. जैसे कि, उनका जूठ बोलना उनकी एक पहेचान है वैसे ही दंभ और आत्मश्लाघा भी उनका ताद्रूप्य (पहेचान Identity) है.

अभी आपने देखा होगा कि चूनाव आयुक्तने नरेन्द्र मोदीकी बायोक्लीप पर प्रतिबंध लगा दिया. इतना ही नही. लेकिन अक्षय कुमारके नरेन्द्र मोदीके साक्षात्कार पर भी कोलाहल मचा दिया. लेकिन जो नहेरुवीयन कोंग्रेसके स्थापक, श्रीमान नहेरु स्वयं, अपने मूँह अपनी आत्मश्लाघा करवाते थे और वे भी सरकारी पैसे से.

याद करो पूराने जमानेमें जब, हालके कोंगी भक्त, और सरकारी मीडीया वाले क्या करते थे. सरकारी मीडीया तो कोंगीयोंकी जागीर था. ऑल ईन्डिया रेडियो मतलब ऑल इन्दिरा रेडियो.

फिल्म डीवीज़न ऑफ ईन्डीया

उस समय इन्डियन न्यूज “फिल्म डीवीज़न ऑफ ईन्डीया”, हमेशा फिलम चालु होनेके पूर्व, देशके समाचार दिखाता था.  १९५७में चूनावके समय “हमारे प्रधान मंत्री” का कैसा दया स्वरुप है उसको कोमेन्ट्रीके साथ दिखाते है? उनकी दिनचर्या दिखाते है. उनके मासुम बच्चोंको (प्रपौत्रोंको) दिखाते है. नहेरुका प्राणी संग्रहालयमें प्राणीयोंको जीवदया प्रेमी  नहेरु कैसे खाना खिलाते दिखाई देते है. अपने मासुम बच्चों (राजिव संजय)के साथ कैसे प्यारभरी बातें करते थे. उदाहरणके तौर पर एक पांडा को खिलाते है. भारतकी जनता ही नहीं लेकिन नहेरुके पालतु प्राणी मात्र भी नहेरुको पहेचानते है. और यह पांडाभाई तो यदि नहेरु न खिलाते तो वह उपवास करता है ऐसा भी कोमेंट्रीमें दिखाते है. वैसे तो यह एक संशोधनका विषय है. क्यों कि इसका मतलब तो यह हुआ कि नहेरु यदि एक सप्ताहके लिये विदेश जाते तो जीव-दया प्रेमी नहेरुका पांडा क्या करता होगा? एक सप्ताह या उससे भी अधिक समय पर्यंत भूखा रहेता होगा? तो फिर नहेरु जिवदया प्रेमी कैसे कहेला सकते? जाने भी दो यारों…

नहेरुके साथ गांधी बापुकी फोटो

नहेरुजीके साथ कभी गांधीबापु दिखाते है … नहेरुजीके साथ कभी गरीब मनुष्य होता है … नहेरुजी कैसे अपने काममें जूटे रहेते है, इसको भी दिखाते है. कोमेंट्री द्वारा ही सब कुछ होता है. फिर नहेरु फेमीलीका ब्रेक फास्ट दिखाते है. अभी तो नहेरुकी हिमालयन ब्लन्डर बनी नहीं है इसलिये पूरी दुनिया उसके सामने नतमस्तक है  ऐसा कोमेंटेटर बेधडक कहेता है. वैसे भी जूठ बोलनेमें हर्ज ही क्या है? रात्रीके दश बजे से रातके दो बजे तक  नहेरुके कार्यालयकी बत्तीयाँ जलती है. फिर जब बत्तीयां बंद हो जाती है तो समज़ना है कि नहेरु सो गये है.. और सुबह आठ बजे फिर नहेरुजी अपने कार्यालयमें काम करते दिखाई देते है. लोक तंत्रके रक्षक नहेरु अपनी पूत्री उनकी अनुगामी बनें ऐसी सुनिश्चित व्यवस्था कर जाते है.

खून क्या होता है?

नहेरु ही नहीं, इन्दिराका जमाना भी ऐसा ही था. इन्दिरा अपने मासुम बच्चोंसे कैसे बाते करती है. जब उनका एक बच्चा खानेसे मना करता है तब इन्दिरा उससे कहेती है कि यदि खाओगे नहीं तो खून कैसे बनेगा. तो उनका बच्चा कहेता है “खून क्या होता है?”

अनुसंधानः https:/youtu.be/nN0X9-6HYSg

(अंजली बहेन द्वारा प्रेषित पंकज राय के संदेश पर आधारित)

हमारे डी.बी. (दिव्य भास्कर गुजराती प्रकाशन) ने भी अब एक नया तरिका निकाला है. उसको लोकप्रिय करनेके लिये उसमें इनाम भी रक्खा है.

वैसे तो आपने देखा होगा कि प्रियंका वांईदरा (वाड्रा का काठियावाडीकरण व अपभ्रंश) के डाचा (मुखमंडलका कच्छीकरण) को इन्दिरा नहेरुघांडीके डाचा के साथ तुलना मीडीया कर्मीयों द्वारा की जाती है तो साथमें संदेश यह है कि उसके दिमागका भी वही हाल होगा. वैसे तो इन्दिराका दिमाग खास असाधारण नहीं था. इसका पता तो हमें सिमला करारकी विफलतासे ही पड जाता है. मीडीया कर्मीयोंने डरसे या तो स्वकेन्द्री हेतुओंके कारण इन्दिराकी कमीयोंको प्रदर्शित नहीं किया है. ये सब बातें जाने दो.

मासुमियत का प्रदर्शन और बीक्री

हमें तो नहेरुवीयन फरजंदोंकी मासुमीयत दिखाना है. यदि फारुख, ओमर, महेबुबा मुफ्ती कई आतंक वादीयोंको और पत्थरबाजोंको मासुम घोषित कर सकते है तो क्या हम कोंगीप्रेमी लोग और  कोंगीलोग और उनके सांस्कृतिक साथी लोग, नहेरुवीयन फरजंदोंको मासुम नहीं दिखा सकते क्या?

मासुम नहेरुवीयनस

नहेरुवीयन फरजंदोंके  पूराने फोटो निकालो. युवा नहेरुके साथ बालिका इन्दिरा कैसी मासुम थी. इन्दिरा के साथ बाल राजिव, कैसे मासुम दिखते है, युवा राजिव और युवा सोनियाके साथ बाल राहुल और बाल प्रियंका कैसे मासुम दिखते है. अभी जो शरीर दिख रहा है वे सोनिया, राहुल, प्रियंकाका ही तो है. कितने मासुम है उसकी कल्पना तो करो. आप सब क्या अष्टम्‌ पष्टम्‌ सोचते हो. उनकी मासुमियतको याद करो. इस प्रकार डीबीभाई ऐसे पूराने फोटो दिखाते है. लेकिन डीबीभाईको तो अपनी तटस्थता भी दिखाना है, तो क्या करेंगे? अरे भाई … उसमें क्या है … !!! मोदी, लालु, लालुके बेटे, मुलायम सभीके बाल्यकालके फोटो दिखादो… क्या करें ! फोटोग्राफीका आविष्कार तो उन्नीसवीं शताब्दीमें ही हुआ, और वह प्रचलित तो बीसवीं शताब्दीमें ही हुआ. और सर्व सामान्य उपलब्धता तो बीसवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें हुई. अगर यदी हजारों लाखों  वर्षकी उपलब्धता होती तो हम इन नहेरुवीयनोंके पूर्वज मासुम वनमानवकी और होमोसेपीयनकी भी फोटो उपलब्ध करातें.

फीक्सींग का मामला और नहेरुवीयन संस्कारः

जो पाप हमने किया है उसके उपर हमारे विरोधी पक्ष द्वारा हमारी बुराई की जाय, उससे पहेले हम विपक्षी तथा कथित वैसी चाहे वह विवादास्पद बातें ही क्यों न हो, हम उनके उपर आरोपित कर दें. इन्दिरा गांधीने ए.एन. रे. को सी.जे.सी. बना दिया. वह क्या था? एस.सी. जब अपने पर आता है तो गहेराई तक जाना चाहता है और वह भी शिघ्रातिशिघ्र. कमीटेड ज्युडीसीयरी किसका फीक्सींग था?

धर्मके आधार पर भेदभाव रखनेके लिये “सेक्युलर” शब्दका संविधानमें प्रक्षेप किसका फीक्सींग था. वैसे तो संविधानमें बुनियाद तो नहीं बदली जा सकती, ऐसा ही तो सर्वोच्च न्यायालयने ताल ठोकके कहा था.           

कपिल सिब्बलने कहा रामजन्म भूमिके उपर चूनावके बाद ही न्याय करो. अब क्या हो रहा है? यह कैसा फीक्सींग है?

राम मंदिरके केस पर १० साल तक सोये रहेना वह किसका फीक्सींग है?

पी.चिदंबरं की गिरफ्तारी पर एक सालसे रोक लगी है, यह किसका फीक्सींग है?

पत्नीकी हत्याके आरोपमें शशि थरुर चार सालसे जमानत पर है, यह किसका फीक्सींग है?

साध्वी प्रज्ञा जिसके उपर आरोप भी न्यायालयने सुनिश्चित नही किया उसको हर हालातमें जमानत नहीं मिल सकती और उसके उपर जो शारीरिक और मानसिक अत्याचार हुआ उसकी जाँचके आदेश नहीं दिया जा सकता, यह किसका फिक्सींग है?  

यदि पी.आई.एल. हिन्दुओंके विरुद्ध है तो बेंच भी बैठ जाती है … उदाहरण … सबरीमाला, महाकाल पर अभिषेक,

एक लाख छहत्तर करोडके घोटालेके सभी अभियुक्त बिना फीक्सींग बरी हो जाते है क्या …?

अरुणाचालके मुख्य मत्रीका स्युसाईड नोट … यह कोई चिंताका विषय है भला? कोई कार्यवाही नहीं …, यह क्या फीक्सींग का मामला नहीं है? इसमें एस.आई.टी. द्वारा जाँच नही क्युँ?

२००२से लेकर बारा साल तक नरेन्द्र मोदीको फसाने की कोशिस कैसे की गई? अरे सूनी सूनाई सफेद दाढी, काली दाढीकी वाली बात पर भी केबिनेट बैठ सकती है तो फीक्सींग क्या चीज़ है. कोंगीकी सरकारने अपने निर्णय कैसे समय समय पर बदले … हेडलीके निवेदनोंको भी नजरांदाज किया यह क्या फीक्सींग था? आतंकवादीयोंके अधिकार, उनसे संलग्न शहेरी नक्सलीयोंकी प्रधान मंत्रीको मारनेका षडयंत्र, रातको तीन बजे याकुब मेमन के लिये अदालत खोलना, पक्षकी पहेचान, पक्षकी पोलीसी और पक्षकी पोलीसी में जनतंत्रीय प्रक्रिया के आधार पर  निर्णय लेना उसके लिये गवर्नरके निर्णयको नकारना … यह क्या फिक्सींग नहीं हो सकता है? ऐसे तो हजारो मामले है. इनके अतिरिक्त अन्य मामले अधिक विस्तारसे इसी ब्लोगसाईट पर उपल्ब्ध है.

शिरीष मोहनलाल दवे

 

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कोंगी का नया दाव -३

“हमने कभी हमसे विरुद्ध अभिप्राय रखनेवालोंको देश द्रोही नहीं समज़े” अडवाणी उवाच.

अडवाणीके इस कथनको एन्टी-मोदी-गेंग उछालेगी.

“हमसे विरुद्ध अभिप्राय” इस कथनका कोई मूल्य नहीं है, जब तक आप इस कथनके संदर्भको गुप्त रखें. सिर्फ इस कथन पर चर्चा चलाना एक बेवकुफी है, जब आप इसका संदर्भ नहीं देतें.

Tometo and couliflower

मुज़े टमाटर पसंद है और आपको फुलगोभी. मेरे अभिप्रायसे टमाटर खाना अच्छा है. आपके अभिप्रायसे फुलगोभी अच्छी है. इसका समाधान हो सकता है. आरोग्यशास्त्रीको और कृषिवैज्ञानिकको बुलाओ और सुनिश्चित करो कि एक सुनिश्चित विस्तारकी भूमिमें सुनिश्चित धनसे और सुनिश्चित पानीकी उपलब्धतामें जो उत्पादन हुआ उसका आरोग्यको कितना लाभ-हानि है. यदि वैज्ञानिक ढंगसे देखा जाय तो इसका आकलन हो सकता है. मान लो कि फुलगोभीने मैदान मार लिया.

कोई कहेगा, आपने तो वैज्ञानिक ढंगसे तुलना की. लेकिन आपने दो परिबलों पर ध्यान नहीं दिया. एक परिबल है टमाटरसे मिलनेवाला आनंद और दुसरा परिबल है आरोग्यप्रदतामें जो कमी रही उसकी आपूर्ति करनेकी मेरी क्षमता. यदि मैं आपूर्ति करनेमें सक्षम हूँ तो?

अब आप यह सोचिये कि टमाटर पर पसंदगीका अभिप्राय रखने वाला कहे कि फुलगोभी वाला देशद्रोही है. तो आपको क्या कहेना है?

वास्तवमें अभिप्रायका संबंध तर्क से है. और दो विभिन्न अभिप्राय वालोंमे एक सत्यसे नजदिक होता है और दुसरा दूर. जो  दूर है वह भी शायद तीसरे अभिप्राय वाली व्यक्तिकी सापेक्षतासे सत्यसे समीप है.

तो समस्या क्या है?

उपरोक्त उदाहरणमें, मान लो कि, प्रथम व्यक्ति सत्यसे समीप है, दूसरा व्यक्ति सत्यसे प्रथम व्यक्तिकी सापेक्षतासे थोडा दूर है. लेकिन दुसरा व्यक्ति कहेता है कि यह जो दूरी है उसकी आपूर्तिके लिये मैं सक्षम हूँ. अब यदि तुलना करें तो तो दूसरा  व्यक्ति भी सत्यसे उतना ही समीप हो गया. और उसके पास रहा “आनंद” भी.

य.टमाटर+क्ष१.खर्च+य१.आरोग्य+झ.आनंद+आपूर्तिकी क्षमता = र.फुलगोभी+क्ष१.खर्च+य२.आरोग्य+झ.आनंद जहाँ  आनंद समान है बनाता है जब य१.आरोग्य +आपूर्तिकी क्षमता=  य२.आरोग्य होता है.

जब आपूर्तिकी क्षमता होती है तो दोनों सत्य है. या तो कहो कि दोनों श्रेय है.

लेकिन विद्वान लोग गफला कहाँ करते है?

आपूर्तिकी क्षमताको और आनंदकी अवगणनाको समज़नेमें गफला करते है.

कई कोंगी-गेंगोंके प्रेमीयोंने जे.एन.यु. के नारोंसे देशको क्या हानि होती है (हानि = ऋणात्मक आनंद) उसकी अवगणना की है. और उस क्षतिकी आपूर्तिकी क्षमताकी अवगणना की है. क्यों कि उनकी समज़से यह कोई अवयव है ही नहीं. उनकी प्रज्ञाकी सीमासे बाहर है.

जब दो भीन्न अभिप्रायोंका संदर्भ दिया तो पता चल गया कि इसको देश द्रोहसे कोई संबंध नहीं. और ऐसे कथनको यदि कोई अपने मनमाने और अकथित संदर्भमें ले ले तो यह सिर्फ सियासती कथन बन जाता है.

जे.एन.यु. के कुछ “तथा कथित विद्यार्थीयों”के नारोंसे देशका हित होता है क्या?

“मुज़से अलग मान्यता रखनेवालोंको मैंने देश द्रोही नही समज़ा” अडवाणीका यह कथन अन्योक्ति है, या अनावश्यक है या मीथ्या है.

कुछ लोग जे.एन.यु. कल्चरकी दुहाई क्यों देते हैं?

राहुल घांडी और केजरीवाल खुद उनके पास गये थे और उन्होंने जे.एन.यु.की टूकडे टूकडे गेंगको सहयोग देके बोला था कि, आप आगे बढो, हम आप लोगोंके साथ है. विद्वानोंने इस गेंगके  नारोंको बिना दुहराये इसके उपर तात्विक चर्चा की कि नारोंसे देशके टूकडे नहीं होते. नारे लगाना अभिव्यक्तिके स्वातंत्र्यके अंतर्गत आता है.

यदि अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताकी ही बात करें तो,  तो बीजेपी या अन्य लोग भी अपनी अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताके कारण इसकी टीका कर सकते हैं. यदि आप समज़ते है कि ऐसे प्रतिभाव देने वाले असहिष्णु है तो,  संविधानके अनुसार आप दोनों एक दुसरेके उपर कार्यवाही करनेके लिये मूक्त है.

क्या टूकडे टूकडे गेंग वालोंने और उनके समर्थकोंने इस असहिष्णुता पर केस दर्ज़ किया?  नारोंके विरोधीयोंके विरुद्ध नारे लगानेवालों  पर भी आप केस दर्ज करो न.

जिनको उपरोक्त  गेंगके नारे, देशद्रोही लगे वे तो न्यायालयमें गये. गेंगवाले भी अपनेसे विरुद्ध अभिप्राय रखनेवालोंके विरुद्ध न्यायालयमें जा सकते है. न्यायालयने तो, देशविरोधी नारे लगानेवाली गेंगके नेताओं पर प्रारंभिक फटकार लगाई.

जब देशके टूकडे टूकडे करनेके नारे वालोंको विपक्षोंका और समाचार माध्यमोंका खूलकर समर्थन मिला तो ऐसे नारे वाली घटनाएं अनेक जगह बनीं.

फिर भी एक चर्चा चल पडी कि अपने अभिप्रायसे भीन्न अधिकार रखनेवालोंको देश द्रोही समज़ना चाहिये या नहीं. बस हमारे आडवाणीने और मोदी विरोधियोंने यही शब्द पकड लिये. जनताको परोक्ष तरिकेसे गलत संदेश मिला.   

सेनाने सर्जीकल स्ट्राईक किया, सेनाने एर स्ट्राईक किया और उन्होंने ही उसकी घोषणा की. पाकिस्तानने तो अपनी आदतके अनुसार नकार दिया. कुछ विदेशी अखबारोंने अपने व्यापारिक हितोंकी रक्षाके लिये इनको अपने तरिकोंसे नकारा. लेकिन हमारी कोंगी-गेंगोंने भी नकारा.

यह क्या देशके हितमें है?

क्या इससे जो अबुध जनताके मानसको यानी कि देशको, जो नुकशान होता है उसकी आपूर्ति हो सकती है?

इसके पहेले विमुद्रीकरण वाले कदमके विरुद्ध भी यही लोग लगातार टीका करते रहे. “ फर्जी करन्सी नोटें राष्ट्रीयकृत बेंकोंके ए.टी.एम.मेंसे निकले, इस हद तक फर्जी करन्सी नोटोंकी व्यापकता हो” ऐसी स्थितिमें फर्जी करन्सी नोटोंको रोकनेका एक ही तरिका था और वह तरिका, विमुद्रीकरण ही था. और इसके पूर्व मोदीने पर्याप्त कदम भी उठाये थे. विमुद्रीकरण पर गरीबोंके नाम पर काले धनवालोंने अभूत पूर्व शोर मचाया था. लेकिन कोई माईका लाल, ऐसा मूर्धन्य, महानुभाव, प्रकान्ड अर्थशास्त्री निकला नहीं जो विकल्प बता सकें. विमुद्रीकरणकी टीका करनेवाले  सबके सब बडे नामके अंतर्गत छोटे व्यक्ति निकले.

 “चौकीदार चोर है” राहुल के सामने बीजेपीका “मैं भी चौकीदार हूँ”

यह भी समाचार पत्रोमें चला. मूर्धन्य कटारिया (कोलमीस्ट्स) लोग “चौकीदार” शब्दार्थकी, व्युत्पत्तिकी, समानार्थी शब्दोंकी, उन शब्दोंके अर्थकी,   चर्चा करनेमें अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करने लगे. प्रीतीश नंदी उसमें एक है. यह एक मीथ्या चर्चा है हम उसका विवरण नहीं करेंगे.

राहुलका अमेठीसे केरलके वायनाड जाना.

समाचार माध्यम इस मुद्देको भी उछाल रहे है. इसकी तुलना कोंगी-गेंगोंके सहायक लोग, २०१४में मोदीने दो बेठकोंके उपर चूनाव लडा था, उसके साथ कर रहे है.

वास्तवमें इसमें तो राहुल घांडी, अपने कोमवादी मानसको ही प्रदर्शित कर रहे है. जिस बैठक पर राहुल और उसके पूर्वज लगातार चूनाव लडते आये हैं और जितते आये हैं, उस बैठक पर भरोसा न होना या न रखना, और चूंकि, वायनाडमें  मुस्लिम और ख्रीस्ती समुदाय बहुमतमें है और चूं कि आपने (कोंगी वंशवादी फरजंदोंने) उनको आपका मतबेंक बनाया है, इसलिये आप (राहुल घांडी)ने वायनाड चूना, उसका मतलब क्या हो सकता है? कोंगी लोगोंको और उनको अनुमोदन करनेवालोंको या तो उनकी अघटित तुलना करनेवालोंको कमसे कम सत्यका आदर करना चाहिये. कोमवादीयोंको सहयोग देना नहीं चाहिये.

सत्य और श्रेय का आदर ही जनतंत्रकी परिभाषा है.

मोदीकी कार्यशैली पारदर्शी है. मोदीने अपने पदका गैरकानूनी लाभ नहीं लिया, मोदीने अपने संबंधीयोंको भी लाभ लेने नहीं दिया है, मोदीका मंत्री मंडल साफ सुथरा है, मोदीने संपत्तिसे जूडे नियमोंमें पर्याप्त सुधार किया है, मोदीने अक्षम लोगोंकी पर्याप्त सहायता की है, मोदीने अक्षम लोगोंको सक्षम बनानेके लिये पर्याप्त कदम उठाये है, मोदीने विकासके लिये अधिकतर काम किया है.

इसके कारण मोदीके सामने कोई टीक सकता, और कोई उसके काबिल नहीं है, तो भी कुछ मूर्धन्य लोग मोदी/बीजेपीके विरुद्ध क्यों पडे है?

मोदीने पत्रकारोंकी सुविधाएं खतम कर दी. कुछ मूर्धन्योंको महत्व देना बंद कर दिया. इससे इन मूर्धन्य कोलमीस्टोंके अहंकार को आघात हुआ है. सत्य यही है. जो सुविधाओंके गुलाम है, उनका असली चहेरा सामने आ गया. ये लोग स्वकेन्द्री थे और अपने व्यवसायको “देशके हितमें कामकरनेवाला दिखाते थे” ये लोग एक मुखौटा पहनके घुमते थे. यह बात अब सामने आ गयी. लेकिन  इन महानुभावोंको इस बातका पता नहीं है !

ये लोग समज़ते है कि वे शब्दोंकी जालमें किसीभी घटनाको और किसी भी मुद्देको, अपने शब्द-वाक्य-चातुर्यसे मोदीके विरुद्ध प्रस्तूत कर सकते है.

समाचार पत्रोंके मालिकोंका “चातूर्य” देखो. चातूर्य शब्द वैसे तो हास्यास्पद है, लेकिन कुछ उदाहरण देख लो.

अमित शाहने गांधीनगरसे चूनावमें प्रत्याषीके रुपमें आवेदन दिया.

इसके उपर दो पन्नेका मसाला दिया. निशान दो व्यक्ति है. एक है अडवाणी. दुसरे है राजनाथ सिंघ. अभी इसके उपर टीप्पणीयोंकी वर्षा  हो रही है. और अधिक होती रहेगी.

अडवाणीको बिना पूछे उनकी संसदीय क्षेत्रके उपर अमित शाहको टीकट दी. “यह अडवाणीका अपमान हुआ.”

हमारे राहुलबाबाने बोला कि “मोदीने जूते मारके अडवाणीको नीचे उतारा. क्या यह हिन्दु धर्म है?”-राहुल.

तो हमारे “डी.बी. (दिव्य भास्कर गुजराती प्रकाशन)भाईने सबसे विशाल अक्षरोमें प्रथम पृष्ठ पर, यह कथन छापा. और फिर स्वयं (डी.बी.भाई) तो तटस्थ है, वह दिखानेके लिये, छोटे अक्षरोंमें  लिखा कि “मोदीको मर्यादा सिखानेके चक्करमें खुद मर्यादा भूले”.

डी.बी. भाईको “मोदीने अडवाणीको जूते मारके नीची उतारा … क्या यह हिन्दु धर्म है? “ कथन अधिक प्रभावशाली बनानेका था. इस लिये इस कथनको अतिविशाल अक्षरोंमें छापा. राहुल तो केवल मर्यादा भूले. राहुलका “अपनी मर्यादा भूलना” महत्वका नहीं है. “जूता मारना” वास्तविक नहीं है. लेकिन राहुलने कहा है, और वैसे भी “जूता मारना” एक रोमांचक प्रक्रिया है न. इस कल्पनाका सहारा वाचकगण लें, तो ठीक रहेगा. यदि डी.बी.भाईने इससे उल्टा किया होता तो?

डी.बी. भाई यदि सबसे विशाल अक्षरोंमें छापते कि “मोदीको मर्यादा की दूहाई देनेवाले राहुल खुद मर्यादा भूले” और जो शाब्दिक असत्य है उसको छापते तो …? तो पूरा प्रकाशन राहुलके विरुद्ध जाता. जो राहुल के विरुद्ध है उसका विवरण अधिक देना पडता. मजेकी बात यही है कि डी.बी.भाई ने राहुलकी मर्यादा लुप्तताका कोई विवरण नहीं दिया. राहुलका “अडवाणीका टीकट और हिन्दु धर्मको जोडना” उसकी मानसिकता प्रकट करता है कि वह हर बातमें धर्मको लाना चाहता है. डी.बी. भाईने इस बातका भी विवरण नहीं किया.   

अडवाणीको टीकट न देना कोई मुद्दा ही नहीं है. जो व्यक्ति ९२ वर्ष होते हुए भी अपनी अनिच्छा प्रकट करने के बदले  मौन धारण करता है. फिर पक्षका एक वरिष्ठ होद्देदार उसके पास जा कर उसकी अनुमति लेता है कि उनको टीकट नहीं चाहिये. फिर भी, बातका बतंगड बनानेकी क्या आवश्यकता?

यही पत्राकार, मूर्धन्य, कोलमीस्ट लोग जब १९६८में इन्दिरा गांधीने कहा “मेरे पिताजीको तो बहूत कुछ करना था लेकिन ये बुढ्ढे लोग मेरे पिताजीको करने नहीं देते थे”. तब इन्ही लोंगोंने उछल उछल कर इन्दिराका समर्थन किया था. किसी भी माईके लालने इन्दिराको एक प्रश्न तक नहीं किया कि, “कौनसे काम आपके पिताजी करना चाहते थे जो इन बुढ्ढे लोगोंने नहीं करने दिया”.

यशवंत राव चवाणने खुल कर कहा था कि हम युवानोंके लिये सबकुछ करेंगे लेकिन बुढोंके लिये कुछ नहीं करेंगे. और इन्ही लोगोंने तालिया बजायी थीं. आज यही लोग बुढ्ढे हो गये या चल बसे, और भी “गरीबी रही”.

जिन समाचार पत्रोंको बातका बतंगड बनाना है और उसमें भी बीजेपीके विरुद्ध तो खासम खास ही, उनको कौन रोक सकता है?

पत्रकारित्व पहेलेसे ही अपना एजन्डा रखते आया है. ये लोग महात्मा गांधीकी बाते करेंगे लेकिन महात्मा गांधीका “सीधा समाचार”देनेके व्यवहारसे दूर ही रहेंगे. महात्मा गांधीकी ऐसी तैसी.

देश दो हिस्सेमें विभाजित हो गया है;

एक तरफ है विकास. जिसका रीपोर्ट कार्ड “ओन-लाईन” पर भी उपलब्ध है,

सबका साथ सबका विकास,

सुशासन, सुविधा और पारदर्शिता,

दुसरी तरफ है

वंशवादी, स्वकेन्द्री, भ्रष्टताके आरोपवाले नेतागण जिनके उपर न्यायालयमें केस चल रहे हैं और वे जमानत पर है, जूठ बोलनेवाले, “वदतः व्याघात्” वाले (अपनके खुदके कथनो पर विरोधाभाषी हो), जातिवाद, कोमवाद, क्षेत्रवाद आदि देशको विभाजित करने वाले पक्ष और उनके समर्थक, “जैसे थे परिस्थिति” को चाहने वाले. ये लोग देशके नुकशानकी आपूर्ति करनेमें बिलकुल असमर्थ है. इनका नारा है “मोदी हटाओ” और देशको सुरक्षा देनेवाले कानूनोंको हटाओ.

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इसमें क्या निहित है इसकी चर्चा कोई समाचार पत्र या टीवी चेनल नहीं करेगा क्यों कि वैसे भी यही लोग स्वस्थ चर्चामें मानते ही नहीं है.

 

स्वयं लूटो और अपनवालोंको भी लूटने  दो. जन तंत्रकी ऐसी तैसी… समाचार माध्यम भी यह सिद्ध करनेमें व्यस्त है कि बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिलनेवाला नहीं है और एक मजबुर सरकार बनने वाली है. यदि वह कोंगी-गेंगवाली सरकार बनती है, तो वेल एन्ड गुड. और यदि वह बीजेपीकी गठजोड वाली सरकार हो तो हमें तो उनकी बुराई करनेका मौका ही मौका है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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भारतमें विपक्षकी सभी पार्टीयां सहमत हो गयी हैं कि …

भारतमें विपक्षकी सभी पार्टीयां सहमत हो गयी हैं कि …

इमरान खान पीएम इन्डिया मोदी

जबसे बीजेपी शासन आयी है;

तबसे विपक्षकी पार्टीयां जैसे कि, कोंगी, एस.पी., बी.एस.पी., आर.जे.डी., टी.एम.सी., एन.सी., पीडीपी, डी.एम.के., टी.डी.पी., जे.डी.एस., साम्यवादी की नज़दिकीयां घट रही है.

जबसे बीजेपीकी विदेशनीति, सुरक्षानीति, जनविकास नीति रंग ला रही है तबसे उपरोक्त सभीपार्टीयां परस्पर इतनी हिलमिल गयी है कि उनके सदस्योंको भी मालुम नहीं है कि वे स्वयं किस विपक्षी पार्टीके सदस्यके कथनका समर्थन कर रहे है. इतना ही नहीं लेकिन उन्होने इस ५० मासमें असामाजिक तत्त्वोंसे और नक्षलीयोंसे भी समर्थन और परस्पर  सहकार प्राप्त  लिया है.

कोंगी गेंग

कुछ वर्षोंसे कोंगी-पक्षको, देशस्थ आतंकवादीयोंका परोक्ष  समर्थन प्राप्त था. लेकिन कालांतरमें उसको सीमापारके आतंकवादीयोंका  समर्थन भी मिलने लगा था. इसलिये कोंगी पक्ष अपने बलबुते पर चूनाव लडनेमें मुस्ताक था.

लेकिन जबसे बीजेपी/मोदीने उरी आक्रमण और पुलवामा-ब्लास्टका बदला लिया तबसे भारतीय विपक्षगठबंधन सामूहिक सर्वनाशके भयसे कांपने लगा है.

लेकिन पंच तंत्रमें कहा है कि;

जब भी विपत्ति आती है तो उसका निवारण भी उत्पन्न हो जाता है. जैसे कि; आगमिष्यति यत्‌ पत्रम्‌, तत्‌ तारिष्यति अस्मान्‌ [जो पत्ता (पेडका पत्ता) आ रहा है वह हमे तारेगा (नदीके सामनेके छोर पर ले जाएगा)]

भारतीय विपक्षगठबंधनमें काले कोटवाले वकिल प्रचूर मात्रामें है;

सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि वकिल महाजन लोगोंका धेय धनप्राप्ति होता है. धनकी तूलनामें सभी चीजे गौण है. उनको प्रधान मंत्री नहीं बनना है. इस लिये, इन वकिलोंका कोंगीको शोभायमान करना स्वाभाविक ही है. एक मंत्री बन जाना, या तो प्रवक्ता बन जाना और अपने तरिकोंसे पैसे कमा लेना. ये बात तो लंबी है. इसका विवरण हम नहीं करेंगे.

लेकिन आप कहोगे कि अब तो कोंगी के नेतृत्ववाला शासन तो रहा नहीं तो ये वकिल लोग पैसे कैसे बना सकते है?

अरे भाई, नहेरुवीयनोंके पास जो पैसे है, उन नहेरुवीयनोंकी स्थावर और जंगम संपत्तिके आगे  कुबेर भी मूँह छिपा लेता है. और कोंगी शासन अंतर्गत जो अन्य हवालावाले धनपति बने थे उनको मोदी-शासनमें, वकिलोंकी आवश्यकता पडने लगी है. इस प्रकार अब तो वकिलोंके दोनों हाथोंमें लड्डु है.

कोंगी कुछ ऐसा कहेती है;

लेकिन भाई, अपना शासन वह अपना शासन है. अपना शासन हो और उसके हम मंत्री, या कमसे कम प्रवक्ता हो तो बस क्या कहेना !!

“हाँ जी, आपकी बात सही है. और इसका मार्ग हमने निश्चित कर दिया है. बस अब थोडीसी मुश्किलें है, उसका समाधान करना है …९

आप कोंगी गेंगसे पूछोगे; “क्या आपने अपना मार्ग निश्चित कर दिया है और वह सुनिश्चित भी हो जायेगा ? क्या बात है? कमाल है? क्या आयोजन है आपका? कुछ बताओ तो सही !!

गेंग बोली; “देखो … मोदीकी सर्जीकल स्ट्राईकके विषय पर तो हमने कई प्र्श्न चिन्ह लगाया है. वैसे तो हमें देशकी मीडीयासे अधिकतर सहयोग नहीं मिला है, किन्तु कुछ विदेशी मीडीया , (जो पहेलेसे ही भारतकी बुराई करनेकी आदत वाले है), उन्होंने कुछ मुद्देकी चर्चा की है उसको हम हमारे अनुकुल अर्थघटन करके, हमारे विवादको अधिक बढावा दे के, आम जनताको असमंजसमें डाल सकते है. यह तो एक बाय प्रोडक्ट है. इससे क्या हुआ है कि पाकिस्तानकी सरकार और पाकिस्तानी मीडीया हमारे उठाये प्रश्नचिन्होंका सहारा लेके पाकिस्तानकी जनतामें विश्वास दिलाते है कि ये सभी सर्जीकल स्ट्राईक फर्जी थीं.

अब हुआ है ऐसा कि;

पाकिस्तानकी सुज्ञ जनता मोदीकी बात मान रही है. पता नहीं आखिरमें इसका नतीजा क्या होगा. वहाँकी जनता यदि मोदी आतंकवादीयोंका सफाया करें तो खुश है. वहाँकी जनता चाहती है मोदी जैसा प्रधान मंत्री पाकिस्तानको मिले.

कोंगी गेंगके लोग कहेते है; “आप यहाँ भारतकी परिस्थिति देखो. यहाँ जो मुसलमान है, उनके तो हम खाविन्द है. उनके मत तो हमे मिलने वाला ही है. हिन्दु आम  जनता है उसको तो हम विभाजित करनेकी भरपूर कोशिस करेंगे. जितनी सफलता मिलेगी उतना ही हमें तो नफा होगा. मीडीयामें और सामाजिक तत्त्वोमें जिनकी दुकान बंद हो गयी है वे भी तो हमारे पक्षमें है. हम सब वंशवादी तो इकठ्ठे हो गये ही है. साम्यवादी और नक्षल वादी भी हमे सहयोग कर रहे है. सीमा पारके आतंकवादी हमें सहाय कर रहे है इस बातको शासकपक्ष उठावे उससे पहेले हमने ही प्रचारका प्रारंभ कर दिया है कि मोदीकी सर्जीकल स्ट्राईक फर्जी है. नरेन्द्रमोदीने और इमरान खानके साथ चूनावमें फायदा उठानेके लिये  फीक्सींग किया है.

कोंगी गेंग आगे कहेती है; “अब देखो. हमारी समस्या थोडी अलग है. हमें डर है कि भारतके कुछ मुसलमान मोदीकी विकासकी बातोंमें और जनकल्याणकी बातोंमें आ सकते है. हमारे पास प्रधान मंत्रीके पदके लिये  कोई सर्वमान्य नेता नहीं है. इस लिये हम सोचते है कि;

क्यूँ न हम इमरान खानको ही विपक्षका प्रधान मंत्री पद पर सर्वमान्य नेता घोषित करें !!

इसमें हमें फायदा ही फायदा है …

(१) सभी मुस्लिम आंखे बंद करके हमें वोट करेंगे …

(२) सर्जीकल स्ट्राईकके बारेमें हमने जो प्रश्नचिन्ह लगाये हैं, उनका फर्स्ट हेन्ड उत्तर इमरान खानको देनेका होगा. और इमरान खान तो हमें अनुरुप हो वैसा ही उत्तर देगा. वह थोडा कहेगा “आ बैल मुज़े मार”. इसलिये भारतकी सामान्य जनता को इमरान खान की बातको मानना पडेगा …

(३) इमरान खान की इमानदारी पर कोई भारतीय शक नहीं करेगा क्यों कि भारतमें एक प्रणाली हमने स्थापित की है कि जिसके उपर कोई आरोप नहीं, वह व्यक्ति यदि हमारा है, तो उसको “मीस्टर क्लीन” ही कहेनेका. जैसे कि, हमने राजिव गांधीको मीस्टर क्लीन का खिताब दे दिया था.

(४) पुरुषके लिये एक से अधिक शादी करना इस्लाममें प्रतिबंधित नहीं है. इस्लाममें बिना तलाक दिये पुरुष चार शादी कर सकता है. जब कि इमरानने तो तलाक दे कर शादियाँ की है. इमरान खान तो पवित्र पुरुष है.

(५) इमरान खान, आम जनताके कल्याण के लिये प्रतिबद्ध है. इस लिये मोदी जो कहा करता है “कि मैं जनसामान्यकी भलाईके लिये प्रतिबद्ध हूँ” उसकी हवा निकल जायेगी. मोदीके काम को हम लोग फुक्का (रबरका बलुन जिसमें हवा भरकर बडा किया जाता है. पटेलोंको भी बलुन कहा जाता है. लेकिन यहां पर बलुन उस अर्थमें नहीं है) कहेते हैं वह भप्प करके फूट जायेगा.

(६) मोदी अपने वस्त्रोंकी और उपहार सौगादोंकी नीलामी करके गरीबोंकी योजनाओंमें दान कर देता है, तो इमरान खान तो सरकारी सामानकी भी नीलामी करके सरकारमें जो कर्मचारी काम करते हैं उनके वेतनका भूगतान करता है. क्या ये कम है?

(७) इमरान खान तो खूबसुरत भी है. हम उसकी खूबसुरतीका सहारा लेंगे. वैसे तो ऐसी बातोंकी तो हमें आदत है. प्रियंका वाईदरा-घांडीके रुप, स्वरुप, सुरुप, अदाएं, वस्त्र परिधान, वस्त्रोंके रंगोंकी उसकी अफलातून पसंद, वस्त्रोंके उपरका डीज़ाईन वर्क, ड्रेस मटीरीयलकी उच्चता,  उसकी बहेतरिन चाल, केशकलाप, आंखे-नज़रें,  उसके कथनोंके गुढार्थ आदि को विवरित करके प्रियंकाको बढावा दिया था और देते भी हैं. इस प्रकार, उसको जनतामें ख्याति, प्रख्याति देनेमें हम सक्रिय हो गये थे ही न? और आप जानते ही है कि प्रियंकाके आनेसे सियासी समीकरण बदल गये थे ऐसा भी हमने प्रसारित करवाया था. अब तो हमारे पास इमरानखान भी आ गया है. महिला वर्ग चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दु, इमरान खानके उपर मरेगा. आपको मालुम है,राजिव गांधी की १९८४की जीतमें महिला मतोंका भारी योगदान रहा था. तो समज़ लो इमरानि खान भी दुसरा राजिव गांधी ही है. अरे भाई, इमरान खान को तो लेडी-कीलर माना जाता है.

(८)  इसके अतिरिक्त हम, मोदी जो भी, विकासके बारेमें बोलता रहेता है वह सब जूठ है, इस बातको हम बढावा देंगे. अरे भाई जब युवा लोग ही बेकार है, तो विकास कैसे हो सकता है?  विकासकी सभी बातें जूठ ही है. यदि भारतके युवाओंको काम मिलेगा तभी तो वे बेकार नहीं रहेंगे. यदि युवा लोग ही बेकार है तो काम होता ही कैसे? क्या भूत-प्रेत आके मोदीका विकासका काम करते हैं?

(९) कुछ लोग व्यर्थ और मीथ्या प्रालाप करते हैं कि;

(९.१) इमरान खान तो पाकिस्तानका नागरिक है. भारतका प्रधान मंत्री तो क्या संसदका सदस्य बनने के लिये भी भारतका नागरिकत्व चाहिये.

लेकिन हम कोंगीयोंके हिसाबसे यह सब बकवास है. अरे भाई, हम तो उसको बेक-डेटसे (रीट्रोस्पेक्टीव इफेक्टसे =भूतलक्षी प्रभावसे) भारतका नागरिक बनादेंगे. अरे भाई फर्जी कागजात बनाना हम कोंगीयोंके लिये बायें हाथका खेल है. सरकारी अफसरोंमें हमारी पहूँच अभी भी कम नहीं है.

“आप कहोगे कि यदि बात न्यायालय में जायेगी और भंडा फूट जायेगा तो?

“अरे भाई, समजो जरा … वकिल लोग किसके पास ज्यादा है? तुम्हारे पास कोई भी वकिल हो, हमारे पास राम है. यानी कि राम जेठमलानी है. वे अति अति वरिष्ठ है.उनकी बात तो न्यायालयको माननी ही पडेगी. और तूम्हे ज्ञात नहीं होगा कि हम सेटींगमें सिर्फ “जमानत” ही ले सकते है इतना नहीं है, हम किसी भी केसको दशकों तक ठंडे बक्षोंमे डाल सकते है. तब तक तो हमारा इमरान खान प्रधान मंत्री रहेगा ही न.

(९.२) अरे तुम याद करो. १९६९के चूनावमें हमारी आराध्या इन्दिरा माईने यही तो किया था. उसका चूनाव का केस, उच्च न्यायालयमें चलता था. सालो तक चला. जब निर्णय आया तो पता है निर्णय के क्या शब्द थे? “इन्दिरामाईकी संसद सदस्यता रद हुई और वह ६ वर्षके लिये चूनावी प्रत्याशीके लिये अयोग्य ठहेरी. तो भी वह प्रधान मंत्री पदके लिये चालु रह सकती है” और वह प्रधान मंत्री पद पर चालु रही उतना ही नहीं, उसने आपातकाल भी घोषित किया. और जो तकनीकी वजहसे वह अयोग्य ठहेरी थी उस नियमको रीट्रोस्पेक्टिव इफेक्ट से (भूत लक्षी प्रभावसे) बदल डाला. अब देखो जो संसद सदस्यके लिये योग्य  ६ सालके लिये योग्य नहीं है, और जिसको ६ महिनेमें ही संसदका सदस्य बनना है जो बिलकुल अशक्य है, तो भी वह प्रधान मंत्री पद पर बनी रहेती है. है न, न्यायालयका कमाल? हम कोंगी लोग, जब बात हम नहेरुवीयनोंके उपर आती है, तो हम नामुमकिनको मुमकिनमें बदल देते हैं. खास करके न्यायालयके अनुसंधानमें ऐसा करना हमें खूब आता है.

(९.३) हम शासक नहीं होते है तो भी हम सरकारस्थ अधिकारीयोंको पोपट बना सकते है. परोक्ष तरिकेसे तो हम कर ही सकते है. देखा न आपने राम-जन्म भूमिका मामला?

(९.४) आप कहोगे, कि, तो फिर  रा.घा.का क्या होगा?

अरे भाई, वैसे भी पाकिस्तानमें इमरान खान आर्मी और  आई.एस.आई. के रीमोटसे तो शासन करता है. तो भारतमें भी वह रा.घा., सोनिया, प्रियंका, रोबर्ट इन चारोंका मौना बनके रहेगा क्योंकि उनके पास ही तो रीमोट रहेगा. इमरान खानको क्या फर्क पडेगा. इमरान खान तो मनमोहन सिंघ की तरह अंगूठा मारनेका काम करता रहेगा.

(१०) इस मामले पर पाकिस्तानी जनता खुश है. क्यों कि उनको वैसे भी मोदी जैसा प्रधान मंत्री चाहिये. अब यदि उनको मौदी खुद ही प्रधान मंत्रीके पद पर मिल जाय तब तो बल्ले बल्ले.

शिरीष मोहनलाल दवे

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पाकिस्तानके बुद्धिजीवीयोंको चाहिये एक नरेन्द्र मोदी … और ….

नरेन्द्र मोदीकी कार्यशैलीके बारेमें अफवाहोंका बाज़ार अत्याधिक गरम है. क्यों कि  अब मोदी विरोधियोंके लिये जूठ बोलना, अफवाहें फैलाना, बातका बतंगड करना और कुछ भी विवादास्पद घटना होती है तो मोदीका नाम उसमें डालना, बस यही बचा है.

लेकिन, ऐसा होते हुए भी …

हाँ साहिब, ऐसा होते हुए भी … पाकिस्तानके (१०० प्रतिशत शुद्ध) बुद्धिजीवीयोंको चाहिये एक नरेन्द्र मोदी जैसा प्रधान मंत्री. बोलो. पाकिस्तान जो मोदीके बारेमें जानता है वह हमारे स्वयं प्रमाणित बुद्धिजीवी नहीं जानते.

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पाकिस्तानके १००% शुद्ध बुद्धि वाले हसन निस्सार साहिबने अपनी इच्छा प्रगट की है कि पाकिस्तानको चाहिये एक नरेन्द्र मोदी. हमारे १०० प्रतिशत शुद्ध बुद्धिजीवी “मोदी चाहिये” इस बात बोलनेसे हिचकिचाते है.

बुद्धिजीवी

हमारे वंशवादी पक्षोंको ही नहीं किन्तु अधिकतर मूर्धन्यों, विश्लेषकों, कोलमीस्टोंको, चेनलोंको तो चाहिये अफज़ल गुरु. एक नहीं लेकिन अनेक. अनेक नहीं असंख्य. क्यों कि इनको तो भारतके हर घरसे चाहिये अफज़ल गुरु.

हाँजी, यह बात बिलकुल सही है. जब जे.एन.यु. के कुछ तथा कथित छात्रोंने (जिनका नेता २८ सालका होनेके बाद भी भारतके करदाताओंके पैसोंसे पलता है तो इसके छात्रत्व पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है ही)  भारतके टूकडे करनेका, हर एक घरसे एक अफज़ल पैदा करनेका,  भारतकी बर्बादीके नारे लगाते थे तब उनके समर्थनमें केज्री, रा.गा., दीग्गी, सिब्बल, चिदु, ममता, माया, अखिलेश, अनेकानेक कोलमीस्ट, टीवी चेनलके एंकर और अन्य बुद्धिजीवी उतर आये थे.  तो यह बात बिलकुल साफ हो जाती है कि उनकी मानसिकता अफज़ल के पक्ष में है या तो उनका स्वार्थ पूर्ण करनेमें यदि अफज़ल गुरुका नाम समर्थक बनता है तो इसमें उनको शर्म नहीं.

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जो लोग यु-ट्युब देखते हैं, उन्होने ने पाकिस्तानके हसन निस्सार को अवश्य सूना होगा. जिनलोंगोंने उनको नहीं सूना होगा वे आज “दिव्य भास्कर”में गुणवंतभाई शाहका लेख पढकर अवश्य हसन निस्सार को युट्युब सूनेंगे.

हमारा दुश्मन नंबर वन, यानी कि पाकिस्तान. वैसे ही पाकिस्तानका दुश्मन नंबर वन यानीकी भारत. तो पाकिस्तानके बुद्धिजीवीयोंको भी उनके लिये चाहिये नरेन्द्र मोदी जैसा प्रधान मंत्री. और देखो हमारे तथा कथित बुद्धिजीवी हमारे समाचार माध्यमोंमें विवाद खडा करते है कि नरेन्द्र मोदी आपखुद है, नरेन्द्र मोदी कोमवादी है, नरेन्द्र मोदी जूठ बोलता है, नरेन्द्र मोदीने कुछ किया नहीं ….

पाकिस्तानको जो दिखाई देता है वह इन कृतघ्न को दिखाई देता नहीं.

अब हम देखेंगे ममताका नाटक और उस पर समाचार माध्यमोंका यानी कि कोलमीस्ट्स, मूर्धन्य, विश्लेषक, एंकर, आदि महानुभावोंला प्रतिभाव.

घटनासे समस्या और समस्याकी घटना

ममता स्वयंको क्या समज़ती है?

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उनका खेल देखो कि वह किस हद तक जूठ बोल सकती है. पूरा कोंगी कल्चरको उसने आत्मसात्‍ कर लिया है.

यह वही ममता है. जिस जयप्रकाश नारायणने, भ्रष्टाचारके विरुद्ध इन्दिरा गांधीके सामने, आंदोलन छेडा था उस जयप्रकाश नारायणकी जीपके हुड पर यह ममता नृत्य करती थी. एक स्त्रीके नाते वह लाईम लाईटमें आ गयी. आज वही ममता कोंगीयोंका समर्थन ले रही है जब कि कोंगीके संस्कारमें कोई फर्क नहीं पडा है.

ऐसा कैसे हो गया? क्योंकि ममताने जूठ बोलना ही नहीं निरपेक्ष जूठ बोलना सीख लिया है. सिर्फ जूठ बोलना ही लगाना भी शिख लिया है. निराधार आरोप लगाना ही नहीं जो संविधान की प्रर्कियाओंका अनादर करना भी सीख लिया है. “ चोर कोटवालको दंडे”. अपनेको बचाने कि प्रक्रियामें यह ममता, मोदी पर सविधानका अनादर करनेका आरोप लगा रही है.

ऐसा होना स्वाभाविक था.

गुजरातीभाषामें एक मूँहावरा है कि यदि गाय गधोंके साथ रहे तो वह भोंकेगी तो नहीं, लेकिन लात मारना अवश्य शिख जायेगी. लेकिन यहां पर तो गैया लात मारना और भोंकना दोनों शिख गयी.

ममता गेंगका ओर्गेनाईझ्ड क्राईमका विवरणः

ममताके राजमें दो चीट-फंडके घोटाले हुए. कोंगीने अपने शासनके दरम्यान उसको सामने लाया. ममताने दिखावेके लिये जाँच बैठायी. कोंगी यह बात सर्वोच्च अदालतमें ले गयी. सर्वोच्च अदालतने आदेश दिया कि सीबीआई से जाँच हो. सीबीआईने जाँच शुरु की. जांचमें ऐसा पाया कि टीएमसी विधान सभाके सदस्य, मंत्री, एम. पी. और खूद पूलिसके उच्च अफसरोंकी घोटालेके और जाँचमें मीली भगत है. सीबीआईने पूलिससे उनकी जाँचके कागजात भी मांगे थे जिनमें कुछ काकजात,  पूलिसने गूम कर दिये. इस मामलेमें और अन्य कारणोंसे भी सीबीआई ने कलकत्ताके पूलिस आयुक्तकी पूछताछके लिये नोटीस भी भेजी और समय भी मांगा. पूलिस आयुक्त भी आरोपोंकी संशय-सूचिमें थे.

गुमशुदा पूलिस आयुक्तः

आश्चर्यकी बात तो यह है कि पूलिस आयुक्त खूद अदृष्य हो गया. सीबीआईको पुलिस आयुक्तको “गुमशुदा” घोषित करना पडा. तब तक ममताके कानोंमें जू तक नहीं रेंगी. हार कर सीबीआई, छूट्टीके दिन,  पूलिस आयुक्त के घर गई. तो पुलिस आयुक्तने सीबीआई के अफसरोंको गिरफ्तार कर दिया और वह भी बिना वॉरन्ट गिरफ्तार किया और उनको पूलिस स्टेशन ले गये. किस गुनाहके आधार पर सी.बी.आई.के अफसरोंको गिरफ्तार किया उसका ममताके के पास और उसकी पूलिसके पास उत्तर नही है. यदि गिरफ्तार किया है तो गुनाह का अस्तित्व तो होना ही चाहिये. एफ.आई.आर. भी फाईल करना चाहिये.

यह नाटकबाजी ममताकी पूलिसने की. और जब सभी टीवी चेनलोंमे ये पूलिसका नाटक चलने लगा तो ममताने भी अपना नाटक शुरु किया. वह मेट्रो पर धरने पर बैठ गयी. उसके साथ उसने अपनी गेंगको भी बुला लिया. सब धरने पर बैठ गये. पूलिस आयुक्त भी क्यों पीछे रहे? यह चीट फंड तो “ओर्गेनाईझ्ड क्राईम था”. तो ममताआकाको तो मदद करना ही पडेगा. तो वह पूलिस आयुक्त भी ममताके साथ उसकी बगलमें ही धरने पर बैठ किया.

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धरना काहेका है भाई?

ममता कौनसे संविधान प्रबोधित प्रावधान की रक्षाके लिये बैठी है?

ममता किसके सामने धरने पर बैठी है?

पूलिस कमिश्नर जो कायदेका रक्षक है वह  कैसे धरने पर बैठा है?

पूलिस आयुक्त ड्युटी पर है या नहीं?

कुछ टीवी चैनलवाले कहेते है कि वह सीवील-ड्रेसमें है, इसलिये ड्युटी पर नहीं?

अरे भाई, वह वर्दीमें नहीं है तो क्या वह छूट्टी पर है?

इन चैनलवालोंको यह भी पता नहीं कि वर्दीमें नहीं है इसका मतलब यह नहीं कि वह ड्युटी पर नहीं है. पूलिओस आयुक्त कोई सामान्य “नियत समयकी ड्युटी” वाला सीपाई नहीं है कि उसके लिये, यदि वह वर्दी न हो तो ड्युटी पर नहीं है ऐसा निस्कर्ष निकाला जाय.

सभी राजपत्रित अफसर (गेझेटेड अफसर) हमेशा २४/७ ड्युटी पर ही होते है ऐसे नियमसे वे बद्ध है. यदि पूलिस आयुक्त केज्युअल लीव पर है तो भी उसको ड्युटी पर ही माना जाता है. यदि वह अर्न्ड लीव (earned leave) पर है तभी ही उनको ड्युटी पर नहीं है ऐसा माना जाता है. लेकिन ऐसा कोई समाचार ही नहीं है, और किसी भी टीएमसीके नेतामें हिमत नहीं है कि वह इस बातका खुलासा करें.

ममता ने एक बडा मोर्चा खोल दिया है. सी.बी.आई. के सामने पूलिस. वैसे तो सर्वोच्च अदालतके आदेश पर ही सी.बी.आई. काम कर रही है तो भी.

इससे ममताके पूलिस अफसरों पर केस बनता है, ममता पर केस बनाता है चाहे ममता कितनी ही फीलसुफी (तत्त्व ज्ञानकी) बातें क्यूँ न कर ले.

कुछ लोग समज़ते है कि प्र्यंका (वाईदरा) खूबसुरत है इसलिये उसकी प्रसंशा होती है. लेकिन ऐसा कुछ नहीं है. प्रशंसाके लिये तो बहाना चाहिये. हम यह बात भी समज़ लेंगे.

अब सर्वोच्च न्यायालयमें मामला पहूँचा है.

लेकिन सर्वोच्च अदालत क्या है?

सर्वोच्च अदालतके न्याय क्या अनिर्वचनीय है?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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बीजेपी विरोधीयोंकी समस्या क्या है?

बीजेपी विरोधीयोंकी समस्या क्या है?

“प्रशस्ति पत्रोंकी वापसी, इसमें हम नहीं, मैं शर्मींदा हूँ, भारतके मुस्लिम सुरक्षित नहीं, अखलाक, पत्रकारकी हत्याएं, दलितों पर अत्याचार, व्यर्थ विमुद्रीकरणके कारण कई मृत्यु और आम आदमीको परेशानी, जीएसटी एक गब्बरसींग टेक्ष, राफेल डील, उद्योगकर्ताओंको खेरात, सुशील मोदी, माल्या आदिको अति अधिक ॠण देकर देशसे भगा देना, सरकारी बेंकोका एनपीएन उत्पन्न करना, मी टू, काश्मिरमें अशांति पैदा करना आदि ये सब मोदी सरकार द्वारा बनी समस्याएं हैं.” ऐसा सिद्ध कैसे किया जाय? यह बीजेपी विरोधीयोंकी समस्या है.

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(मुझे मितु मितु करके मत बुलाओ. मुझे  मिताली कहो)

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ऐसी कई बातोंको नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षने अपने पालतु कटार लेखकों द्वारा, एंकरों द्वारा, महानुभावो द्वारा हवा देके मोदी सरकारके विरुद्ध हवा बनानेका भरपूर प्रयत्न किया है ताकि जनताको यह संदेश मिले कि, नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्ष, जब शासनमें था तब तो देश खुशहाल था और देशमें शांति ही शांति थी.

सत्य क्या था?

किन्तु हम सब जानते हैं कि नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके शासन वास्तवमें कैसा था. विकासको तो रोकके ही रक्खा था और वही योजनाएं होती थीं और वे भी अति देरीसे, जिनमें नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके सर्वोच्च नेताओंके साथ अंडर टेबल डील हो सकता था. इन बातोंके तो कई उदाहरण है.

“विकास पागल है” नहेरु-इन्दिरा गांधी वंशी कोंग्रेसका सूत्र !!

बीजेपीके सत्तामें आनेके बाद, आम जनताको तो अब पता है कि विकास क्या है. लेकिन नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके नेताओंने विकासको पागल बताके विकासके विरुद्ध बोलना आरंभ कर दिया था.

नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके नेताओंको पता चल गया है कि विकासके विरुद्ध प्रचार करने से उनकी दाल गलने वाली नहीं है. इसलिये उन्होंने अपने पालतु समाचार माध्यमके तथा कथित विद्वानोंसे “गठ बंधन” जो नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके नेतागण, उनके सांस्कृतिक साथी पक्षोंके साथ करनेवाले हैं उसका गुणगान करना प्रारंभ कर दिया है. भूतकाल में “गठ बंधनवाली” सरकारोंने अच्छा काम किया था इस बातको मनवाने के लिये उनके शौर्यगीत सूनाना चालु कर दिया है.

“शेखर गुप्ता” एक तथा कथित मूर्धन्य कोलमीस्ट है. सोनेमें सुहागा यह है कि वे “ध प्रीन्ट” के मुख्य तंत्री भी है. लगता है उनको नरसिंह रावका [ जो नहेरुवीयन-{इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके एक अनहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)}  प्रधान मंत्री थे ]  कार्यकाल पसंद होगा. उस समय मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे. इस लिये नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्ष पुरस्कृत युपीएकी अर्थ नीति पसंद हो सकती है. शेखर गुप्ताजीने एक पुस्तक “ईन्डिया रीडीफाईन्स इट्स रोल” लिखा है. वैसे तो कई लोग तत्कालिन वित्त मंत्री को (मनमोहनको) उस समयकी अर्थनीतिके कारण श्रेय देते हैं. वैसे तो नरसिंह रावके वित्तसलाहकार सुब्रह्मनीयम थे और विश्वबंधु गुप्ता जो तत्कालिन आयकर विभागके महान आयुक्त थे उन्होने मनमोहन सिंहके अभिगम और उनकी मान्यताओंके विरुद्ध स्वानुभवके विषय पर काफि कुछ लिखा है. इन बातोंकी चर्चा हम नहीं करेंगे. हम इस समय हमारे उपरोक्त कटारीया भाई (शेखर गुप्ताजी) जो नरेन्द्र मोदीकी अर्थनीतिकी उपलब्धियोंको निरर्थक बताने पर तूट पडे है, और नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षकी यानी कि “गठबंधन वाली” सरकारोंने कैसा अच्छा काम किया था वह सिद्ध करनेके लिये अपना दिमाग तोड रहे हैं, उनकी बाते करेंगे.

नरेन्द्र मोदी हमेशा पूर्ण बहुमत वाली सरकारको लानेका जनताको अनुरोध करते है. वे यह भी कहेते है कि पूर्ण बहुमत होनेके कारण उनकी सरकारकी उपलब्धियां अभूतपूर्व है. गठबंधनकी सरकारें अस्थिर होती हैं और उनकी उपलब्धियाँ पारस्परिक विरोधाभासोंके कारण देशके विकास पर ऋणात्मक असर पडता है.

कटारीयाजी का साध्यः “गठबंधनवाली सरकार श्रेय है” उससे डरना नहीं.

अब हमारे कटारीया भाईका एजन्डा है कि नरेन्द्र मोदीके इस तर्कका खंडन कैसे किया जाय?

किसी भी सत्यका खंडन करना हो तो सर्व प्रथम तो जो सत्य है उसको छोडकर, दुसरे विषय पर विवरण तयार कर देना चाहिये. तत्‍ पश्चात्‍, जो सत्य है उस सत्यको उलज़ा दो. यानी कि जिस समस्याको सुलज़ानेका बीडा जिस व्यक्तिको दिया था उसको पार्श्व भूमिमें रख दो और उसके स्थान पर पूर्व निश्चित और आप जिस व्यक्तिको या समूहको रखना चाह्ते हो उस/उन को रख दो. फिर श्रेय   उस/उन को दे दो.

सियासतमें ऐसा तो बार बार होता है.

जैसे कि दूरसंचार प्रणालीको सुधारनेका बुनियादी ढांचा (ईन्फ्रास्ट्रक्चर)का काम तो बहुगुणाने किया था. लेकिन बहुगुणा उसका श्रेय स्वयं ले रहे थे तो इन्दिरा गांधीने उनको हटा दिया और पक्षसे भी निकाल दिया. ऐसा ही हाल इन्दिराने वीपी सिंगका किया था जब वे अर्थमंत्री थे.

किन्तु नरसिंह रावने ऐसा नहीं किया. नरसिंह रावने अर्थतंत्रके सुधारका श्रेय मनमोहन सिंहको लेने दिया. वैसे तो उसका श्रेय अर्थ-तंत्र-सलाहकार टीम जिसमें नेता सुब्रह्मनीयम स्वामी थे, उनको भी जाता है. नीतियाँ एक अति असरकारक परिबल है और प्रक्रियायें भी एक और परिबल है. प्रक्रियाको सुधारने की महद्‍ जिम्मेवारी वित्त मंत्रीकी होती है. मनमोहनके वित्तमंत्रीकालके जमानेमें “शरद महेता”वाला कौभान्ड हुआ. क्यों कि मन मोहन सिंहने बेंको कि कागजी लेनदेनकी गलतीयों पर ध्यान नहीं दिया था. फिर उन्होंने आश्वासन दिया कि “अबसे (भविष्यमें) ऐसा नही होगा.” यदि मनमोहन सिंह चालाक होते तो, उनको जो प्रधानमंत्री का प्रमोशन मिला, तब जो सत्यम्‍ स्कॅम हुआ वह न होता.

“नहेरुवीयन प्रणाली”

नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षकी सियासतमें गलतीयोंको दुसरोंके नाम पर चढा देना और उपलब्धीयोंको नहेरुवंशके फरजंद पर चढा देना आम बात है. जैसे कि चीनके साथके युद्धमें भारतकी हारका कुंभ सिर्फ वि.के. मेनन पर फोड देना, और पाकिस्तान के उपर भारतकी १९७१की विजयका श्रेय तत्कालिन सुरक्षा मंत्री जगजिवन रामको न देना और सिर्फ इन्दिरा गांधीको दे देना, ये सब नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षका संस्कार है.

नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षकी ऐसी प्रणालीयोंपर तालियाँ पाडने वाले मूर्धन्य भारतमें पहेले भी विद्यमान थे और आज भी विद्यमान है.

अब गठबंधन वाली सरकारोंकी उपलब्धीयां पुरस्कृत करने के लिये हमारे कटारीया भाई, भारतवर्षकी प्रथम संयुक्त “राष्ट्रीय सरकार” १९४७-५२का उल्लेख करते हैं.

याद करो मूल कोंग्रेसी सदस्यका संस्कार

कोंग्रेसके शिर्ष और सर्वोच्च नेता यानी कि “नहेरु”की प्रच्छन्न मानसिकताको छोड दें, और कोंग्रेसके तत्कालिन सामान्य सदस्यकी बात करें तो मुज़े निम्न लिखित प्रसंग याद आता है.

१९४२में महात्मा गांधीने “भारत छोडो” आंदोलन छेडा था और जनताको कहा था कि हर व्यक्ति स्वयंका नेता है. आप कानून भंग करोगे. खूल्लेआम कानून भंग करोगे और यदि आप गिरफ्तार हुए तो आपको सहर्ष गिरफ्तारी स्विकारोगे और कारावासका भी स्विकार करोगे.

एक महिला थी. उसने अपने महिला साथीयोंके साथ प्रदर्शन किया. उस महिलाको पूलीसने गिरफ्तार किया. उस महिलाने कुछ गहने पहने थे. उसने पास खडे एक कोंग्रेसीको अपने गहने दे दिया और कहा कि मेरे घरका पता यह है, आप इन गहेनोंको मेरे घर पर पहूँचा देना, और कह देना कि मैं कारावास जा रही हूँ. उस कोंग्रेसीने कहा कि “बहनजी आप तो मुज़े पहेचानते तक नहीं है. आपने मुज़पर विश्वास कैसे कर दिया कि मैं इन गहनोंको आपके घर तक पहूँचा दूंगा?”

उस महिलाने उत्तर दिया कि आप कोंग्रेसी है इस बात ही मेरे लिये पर्याप्त है कि आप विश्वसनीय और नीतिमान है.”

आज क्या ऐसी स्थिति है कि “विश्वसनीयताके लिये कोंग्रेसी होना पर्याप्त है?”

नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके ६५ सालके शासनके बाद नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके नेतागण, अपनी विश्वसनीयताका, जनतामें कायम रख सके हैं क्या?

नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके आम सदस्यकी बात छोडो, नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके शिर्षनेता भी विश्वसनीय नहीं रहे है. इसका क्या हमारे कटारीयाजीको मिसाल देना पडेगा?

नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके सर्वोच्च नेतागण स्वयं “बेल (जमानत)” पर है. स्वयंके लिये जमानत लेना, यह बात ही मूल कोंग्रेसके मूलभूत सिद्धांतोसे विपरित है. किस मूँह से कोई नीतिमत्ताके इस विनिपातसे पराङगमुख बन सकता है. और वह भी एक मूर्धन्य राजकीय विश्लेषक श्रीमान शेखर गुप्ताजी.

“राष्ट्रीय सरकार” कोई चूनावी गठबंधन था ही नही.

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राष्ट्रीय सरकार के समय पर बना गठबंधन कोई गठबंधन नहीं था. वह कोई सत्ता पाने के लिये या तो किसी अन्य गठबंधनके विरुद्धवाला गठबंधन नहीं था. महात्मा गांधी चाहते थे कि भारतका तत्कालिन शासन और संविधान सभीको साथ लेके चले.

राष्ट्रीय सरकारको गठबंधनवाली सरकार का नाम देना “तर्कहीन” ही नहीं किन्तु “हास्यास्पद” भी है. यदि कोई विद्वान ऐसी तुलना और विश्लेषण करे तो उसकी निष्पक्षता पर कई प्रश्न चिन्ह उठते हैं. जो गठबंधन ही नहीं था उसको गठबंधन बताके उनकी उपलब्धीयोंको “सियासती गठबंधन भी ऐसी उपलब्धीयोंके लिये सक्षम है” ऐसा बताना, यह बात तो जनताको गुमराह करनेके बराबर है.  

वैसे तो हर गठबंधन यदि वह सियासती गठबंधन है तो वह एक पूर्ण बहुमत वाले पक्षकी सरकारसे श्रेय नही हो सकता, चाहे उसका आधार सियासती हो या न हो.

सियासती “अस्थिरता” नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षकी देन है. १९६९ और १९७९की अस्थिर सरकारोमें नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षका बडा योगदान था. इनका जिक्र हमारे कटारीया भाईने नहीं किया है.

१९६७ तक नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षकी आंतरिक संगठन शक्ति कायम थी. नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षकी शिर्ष नेता इन्दिरा गांधीने इस आंतरिक संगठनका विभाजन किया. १९७१की इन्दिरा-विजय नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षकी संगठन शक्ति पर आधारित नहीं था. वह विजय इन्दिरा-वेव्ज़ के कारण था. नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षका संगठन तो निर्बल ही बन गया था. १९८४की नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षकी विजय भी “सहानुभूति-वेव्‍ज़के” कारण था. और इसके बाद तो बहुपक्षीय-संगठनवाला अस्थिरताका युग शुरु हुआ इस बातको तो कटारीयाजी स्वयं कबुल करते है.

वी.पी. सिंघवाले बहुपक्षीय-संगठन सरकारकी उपलब्धीयां थी ऐसा कटारीयाजी प्रदर्शित करते है. वास्तवमें मोरारजी देसाईकी सरकारकी उपलब्धीयां कई गुना अधिक थी. इस बातको यदि हम छोड भी दें तो वीपी सिंघ स्वयं नरेन्द्र मोदीकी तरह नीतिमत्तामें मानते थे. तो भी, उनके उपर भी नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्षके नेताओंने कीचड उछाला था. जैसे कि वीपी सिंघका विदेशमें (सेन्टकीट्समें) एकाउन्ट था.

जब भी नीतिमत्ता की बात आती है तब बहु पक्षीय गठबंधन कमज़ोर पड जाता है.

इसका कारण यह है कि वंशवादी पक्षका आधार एक वंशवादी नेता होता है. उस पक्षके सदस्य, सियासतमें सिर्फ और सिर्फ पैसे बनानेके लिये आते है. इन सदस्योंको सर्वोच्च पद प्राप्त करनेकी ख्वाहिश होती ही नहीं है. क्या वाड्राको प्रधान मंत्री बननेकी ख्वाहिश है? क्या पप्पु यादवको मुख्य मंत्री बनना है? क्या अभीषेक मनु सिंघ्वी या रणदीप सुरजेवालाको प्रधान मंत्री बनना है? नहीं भाई हमें सर्वोच्च पद नहीं चाहिये. हमें हो सके तो मंत्री बना दो और यदि मंत्री भी न बना सको तो सिर्फ हमे हमारा असामाजिक यानी कि गैरकानूनी काम करने दो और कायदा हमे स्पर्ष न करे उसका आप ध्यान रक्खो. हमें सिर्फ यही चाहिये.

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अल्पमत सरकार आवकार्य नहीं है

नरसिंह राव की सरकार अल्प मत सरकार थी. और उसने ५ साल शासन किया. एक दो अल्पमत सरकारका उदाहरण लेके हम ऐसा वैश्विक धारणा/निष्कर्ष बनाके भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि अल्पमत सरकार हर हालतमें आवकार्य है.  जब पक्षीय संगठनका मूलभूत प्रयोजन सामनेवाले को हराना हो और पैसा बनानेके लिये सत्ता प्राप्त करना हो,  तो आपको आठ सालमें तीन चूनाव के लिये तयार रहेना पडता है.

विवादास्पद उपलब्धीयां

कटारीया भाई ऐसा दिखाते है, कि चाहे कुछ भी हो १९९७में पी. चिदम्बरमने राष्ट्रीय विनिवेश पंचकी रचना की और पब्लिक उपक्रमोंका लीस्टींग और प्राईवेटाईझेशनका दरवाज़ा खोला.

कटारीयाजी प्रदर्शित करते है कि भाई हम तो तटस्थ है. मोदीकी विरुद्धमें है. उसका मतलब यह नहीं कि हम बाजपाईजीके भी विरोधी है. बाजपाईजीमें तो दम था. (मतलब? नरेन्द्र मोदीमें वह दम नहीं), क्योंकि बाजपाईने चतुर्भूज हाई वे योजना बनाई. दो बडे एरपोर्टका प्राईवेटाईझेशन किया. ११ पब्लिक सेक्टरकी कंपनीयां जो प्रोफिट करती थी और २४ आई.टी.डी.सी. हॉटेल्स बेच दी. और सर्वशक्तिमान नरेन्द्र मोदी एक भी कंपनी बेच नहीं पाये. कटारीया साहबका संदेश यह है कि पब्लिक सेक्टरकी कंपनीयां बेचना सरकार शक्तिमान होनेका गुण है. “साध्यम इति सिद्धम्‌.”

अरे भाई साहब, खोटमें चलनेवाली सरकारकी कंपनीयोंको नफा करनेवाली बनाना ही सरकारी शक्तिका गुण है जो नरेन्द्र मोदीने गुजरातमें करके दिखाया है. हर गांवमें हर खेतमें बीजली पहूँचाना और वह भी २४/७ घंटे, यह भी तो उपलब्धी है नरेन्द्र मोदीजीकी. हर घरमें गेस पहूँचाना यह भी तो एक महान उपलब्धी है.

भारतीय रीज़र्व्ड सोनेको देशके बाहर ले जानेकी हिमत दिखाना और वह भी भूगतानके लिये, इस घटनाको कटारीयाजी, अपना दिमाग तोड परिश्रमसे, तत्‌कालिन प्रधान मंत्री चन्द्रशेखरकी   उपलब्धीमें गीनती करवाते हैं. लेकिन ऐसी स्थिति किसने उत्पन्न की थी और इसके लिये कौनसी सरकार जीम्मेवार थी उस विषय पर हमारे कटारीया भाई मौन है.

कटारीयाजी मानते है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सिर्फ १९८९-९०में कमजोर थी. शायद कटारीयाजी १९८९से लेकर २०१४ तक कश्मिरमें हिन्दुओंकी कत्लेआम और आतंकवादीयोंका और नक्षलीयोंका देशके महानगरोंमें घुस कर और देशके भीतरी इलाकोंमें दूर दूर तक घूस घूस कर अपनी बोम्बब्लास्ट वाली प्रवृत्तियां विस्तारना, इन सब बातोंको राष्ट्रीय सुरक्षासे जोडनेमें नहीं मानते है. नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्ष,  राफेल का डील नहीं कर पाना उसका कारण ही तो २०१२में पैसा न होना ऐसा एन्टोनी खूद संसदमें बताते है. इस परिस्थितिको यदि दिवालियापन नहीं कहोगे तो क्या कहोगे?  

कटारीयाजी क्या समज़ते है?

कटारीयाजी समज़ते है कि, १९८९-९०की अराजकता और शासकीय निस्फलता पर जोर देना नहीं चाहते. क्यों कि यह बात, कटारीयाजीके एजन्डाके विरुद्ध है.  कटारीयाजी “आतंकवाद” शब्द का उपयोग करना ही नही चाहते है. वे यह कहेते है कि १९९१-१९९६ तक कश्मिर  सबसे बुरी स्थितिमें था. लेकिन परिस्थिति काबुमें थी.

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कमालकी बात है. यदि परिस्थिति काबुमें थी तो ५०००००+ हिन्दुओंको पुनर्थापित क्यों नहीं किया?

यदि परिस्थिति काबुमें थी तो कितनोकों गिरफ्तार कीया? परिस्थिति काबुमें थी तो  कितने केस कोर्टमें दर्ज किये? परिस्थिति काबुमें थी तो किन किन मंत्रीयोंको जिम्मेवार बनाया और उनके उपर कितने केस दाखिल किया? परिथिति काबु में थी तो कोई एस.आई.टी.का गठन किया या नहीं?

कटारीयाजी इन सब कमजोरीयोंको और निस्फलताओंको, नजर अंदाज करवाने लिए, इन सब विषयोंको कश्मिर और केन्द्रस्थ शासकोंकी क्रीमीनल निस्फलतासे नहीं जोडते है.

यह बात समज़नी चाहिये कि खालिस्तानवादीयोंका आतंकवाद खतम करनेका श्रेय सिर्फ केपीएसगील को जाता है (शायद अजित डोभाल भी सामिल हो), और खालिस्तानी नेताओंको बडाभाई बनानेका श्रेय इन्दिरा गांधीको जाता है. लेकिन कटारीया भाई, नहेरुवंशवादको शायद जनतंत्रके लिये घातक नहीं मानते. वे इस बातको समज़नेके लिये तयार नहीं कि, यदि जे.एल. नहेरु अपने कार्यकालमें, अपने फरजंद, इन्दिरा गांधीको, अपना अनुगामी प्रधानमंत्री बनानेका प्रबंध करके नहीं जाते, तो आज कोंग्रेस पर “नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्ष” होने की गाली नहीं लगती, नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्ष भ्रष्टाचारसे तरबर न होती, और वह कमजोर भी न पड जाती.

कटारीयाजी कुछ विवादास्पद विषयो पर, अपने हिसाबसे तत्कालिन सरकारोंके निर्णयोंको अच्छा निर्णय, बुरा निर्णय, या कमजोरीवाला निर्णय ऐसा तारतम्य निकालते है. और उपसंहार में कहेते हैं कि सुरक्षित बहुमतवाली सरकार नेताओंको बेदरकार और दंभी बनाती है.

इस तारतम्यमें कटारीयाजी, जे.एल. नहेरुका, समावेश करते नहीं है लेकिन इन्दिरा से लेकर, राजिव गांधी होकर,  नरेन्द्र मोदीका समावेश अवश्य करते है.

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नरेन्द्र मोदी समय बद्धता में मानते है

वास्तवमें देखें तो, नरेन्द्र मोदीके वचन, नहेरु के वचन जैसे “अनिश्चित कालिन नहीं है”. याद करो कि जय प्रकाश नारायण, नहेरुकी असमयबद्ध ध्येयोंके कारण ही उनके मंत्री मंडलसे दूर रहे थे. जय प्रकाश नारायणने नहेरुको कहा था कि “आप हरेक ध्येय प्राप्तिके लिये समय बद्ध योजना बनाओ तो मैं आपके मंत्री मंडलमें आउंगा.” लेकिन जे एल नहेरु तो बेदरकार और दंभी थे. उन्होने जयप्रकाशकी बात मानी नहीं. नहेरु समय बद्धतामें नहीं मानते थे. “ तत्वज्ञानीय लुज़ टॉकींग” नहेरुको प्रिय था.

“समय बद्ध ध्येय” नरेन्द्र मोदीका गुण

यदि आज जय प्रकाश नारायण होते तो वे नरेन्द्र मोदीको सहकार करते. नरेन्द्र मोदीजी हमेशा समय बद्धतासे ही चलते है और उन्होने पक्षके ध्येयोंको समयबद्ध प्रोग्राममें रक्खा है. लेकिन कटारीया भाई इनका जिक्र नहीं करेंगे. उनको पसंद है “नहेरुकी देशमें बहेनेवाली घी दूधकी नदिया” और इन्दिराके “गरीबी हटाओके नारे”

उनको ०२-१०-२०१९ तक स्वच्छभारत, २०२२ तक किसानकी आय दुगुनी, २०१९ तक घर घर संडास, २०२२ तक हरेकके पास अपना घर, २०२२ तक बुलेट ट्रेन …. आदि समय बद्ध ध्येय पसंद नहीं इसलिये उनका जिक्र नहीं.   

एक दुसरे विद्वान है जो अरुण शौरी है. वे भी नरेन्द्र मोदीके कटु टीकाकार है.

कुछ लोग जीएसटी और विमुद्रीकरण की कटु टिका करते है लेकिन एक भी माईकापूत नहीं निकला कि उसने बताया हो कि जो काला धन देशमें घुम रहा है उसको सरकारी रेकोर्ड पर कैसे लाया जाय, बेनामी कंपनीयोंको रेकोर्ड पर लाके कैसे कार्यवाही की जाय, फर्जी करन्सीको कैसे निरस्त्र किया जाय, आयकर रीटर्न भरने वालोंकी सख्यां कैसे बढाई जाय, टेक्स कलेक्शनमें कैसे वृद्धि की जाय….?

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नरेन्द्र मोदीने तो यह सब करके दिखाया है जो नहेरुवीयन-[इन्दिरा (वंश)] कोंग्रेस पक्ष ६५ सालमें नहीं कर सका.

शिरीष मोहनलाल दवे

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