Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, Social Issues, tagged अग्रता क्रम, अप्रच्छन्न, आचार्य क्रिपलानी, आर्थिक स्थिति, इन्दिरा गांधी, उद्धवकी संतान, काले कर्म, कोंग्रेसके अस्थायी प्रमुख, कोंग्रेसमें अनैतिकताका प्रवेश, कौशल्य और अनुभव, खानपान, गुन्डों और आतंकी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, चारित्र्यका पतन, चिंतन, चिंतनके विषय, जगजिवनराम, जवाहरलाल नहेरु, दुश्मन, देशहितकी अपेक्षा, नंगेको नहाना क्या और निचोडना क्या, निम्न स्तर, निर्बल और अस्थिर सरकार, पठन, पिताके गुण, प्रच्छन्न, प्रतिभा पाटिल, प्राकृतिक अभिधृति, प्राकृतिक घटनाएं, प्राकृतिक वातावरण, बाला साहेब ठाकरे, भारत तेरे टूकडे होंगे, ममता बेनर्जी, मायावती, मित्र और मित्र-मंडल, मीडीया, मुफ्ती मोहम्मद, मुलायम, मोतीलाल नहेरु, मोदीके विरोधी, मोररजी देसाई, राजकारणीय, राजकीय पदका वारिस, राजिव गांधी, राममनोहर लोहिया, राहुल, रोग, वंशवाद, वंशवादकी भर्त्सना, वंशवादीयोंकी व्युहरचना, व्यवसायको उच्चस्तर पर ले जाना, शरद पवार, शिक्षा, शेख अब्दुल्ला, संजय गांधी, सरकारी आवास, सोनिया, स्थावर जंगम, स्नानागारके उपकरण, १४ मालवाहक भरके गृहगृहस्थीका सामान, १९१९, १९२८, १९२९, १९३६, १९३७, १९४६, १९५४ on October 31, 2019|
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मीडीया वंशवादको बढवा देता है
बीजेपीका शस्त्रः
राष्ट्रवादी होने के कारण बीजेपीका, विपक्षके विरुद्ध सबसे बडा आक्रमणकारी शस्त्र, वंशवादका विरोध था और होना भी आवश्यक है. वंशवादने भारतीय अर्थतंत्रको और नैतिकताको अधिकतम हानि की है.
वंशवाद क्या है?
हम केवल राजकारणीय वंशवादकी ही चर्चा करेंगे.
अधिकतर लोग वंशवादके प्रकारोंके भेदको अधिगत नहीं कर सकते.
पिताके गुण उसकी संतानोंमे अवतरित होते है. सभी गुण संतानमें अवतरित होनेकी शक्यता समान रुपसे नहीं होती है. वास्तवमें तो माता-पिताके डीएनएकी प्राकृतिक अभिधृति (टेन्डेन्सी) ही संतानमें अधिकतर अवतरित होती है. अधिकतर गुण तो संतान कैसे सामाजिक और प्राकृतिक वातावरणमें वयस्क हुआ उसके उपर निर्भर है. उनमें आर्थिक स्थिति, खानपान, शिक्षा, पठन, चिंतन, चिंतनके विषय, मित्र और मित्र-मंडल, दुश्मन, रोग, प्राकृतिक घटनाएं आदि अधिक प्रभावशाली होता है.
माता-पिताकी संपत्ति का वारस तो संतान बनती ही है, किन्तु, पढाई, आगंतुक विषयोंके प्रकारोंका चयन और उनके उपरके चिंतन और प्रमाण, नैतिकता और श्रेयके प्रमाण की प्रज्ञा आदिको तो संतानको स्वयं के अपने श्रम से विकसित करना पडता है.
स्थावर-जंगम संपत्ति तो संतानको प्राप्त हो जाती है. इसमें व्यवसाय भी संमिलित है, लेकिन व्यवसायको अधिक उच्चस्तर पर ले जानेका जो कौशल्य है उसके लिये तो संतानको स्वयं कष्ट उठाना पडता है.
“संतानको पिताके राजकीय पदका वारस बनाना” इस प्रणालीको पुरस्कृत करनेवालोंको हम वंशवादी कहेंगे और उनकी चर्चा करेंगे.
वंशवादकी प्रणालीको पुरस्कृत किसने किया?
नहेरुने वंशवादकी प्रणालीका प्रारंभ किया. वैसे तो मोतीलाल नहेरुने वंशवाद का आरंभ किया था. १९१९में मोतीलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रमुख बने थे. किन्तु १९२०में जवाहरलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रमुख बन नहीं पाये थे. तत् पश्चात्, १९२८में भी मोतीलाल नहेरु कोंग्रेस पक्षके प्रमुख बने थे. १९२९में जवाहरलाल नहेरु कोंग्रेसके अस्थायी प्रमुख बने थे. १९३६में पुनः अस्थायी प्रमुख बने और १९३७में बने. १९४६में महात्मा गांधीके सूचनसे फिरसे हंगामी प्रमुख बने. फिर १९५१से सातत्य रुपसे १९५४ तक जवाहरलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रमुख बने रहे.
इसके अंतर्गत कालमें नहेरु (जवाहरलाल)ने कोंग्रेसके प्रमुखपदकी सत्ता पर्याप्तरुपसे अशक्त कर दी थी. नहेरुने अपनी दुहिता (इन्दिरा) को भी कोंग्रेस पक्ष की प्रमुख बना डाला था. इस अंतरालमें कोंग्रेसमें क्रमांक – एकका पद प्रधान मंत्रीका हो गया था.
प्रच्छन्न और अप्रच्छन्न गुणः
भारतके उपर चीनकी अतिसरल विजयके बाद शिघ्र ही नहेरुने सीन्डीकेटकी रचना कर दी थी. इससे १९६५में लाल बहादुर शास्त्रीजीकी मृत्युके बाद इन्दिराको (शोक कालके पश्चात्) नहेरुकी वारसाई (दहेजरुप) में प्रधान पद मिला.
कौशल्य और अनुभवमें इन्दिरा गांधी अग्रता क्रममें कहीं भी आती नहीं थी. फिर भी उसको प्रथम क्रमांक दे दिया. जो दुर्गुण नहेरुमें प्रच्छन्न रुपसे पडे हुए थे वे सभी दुर्गुण इन्दिरामें प्रकट रुपसे प्रदर्शित हुए. नहेरुकी पार्श्व भूमिकामें स्वातंत्र्यका आंदोलन का उनका योगदान था. इस कारणसे नहेरु प्रकट रुपसे स्वकेन्द्री नहीं बन पाये. किन्तु इन्दिरा गांधीके लिये तो “नंगेको नहाना क्या और निचोडना क्या”. वह तो कोई भी निम्न स्तर पर जा सकती थी. इन्दिराका स्वातंत्र्यके आंदोलनमें ऐसा कोई योगदान ही नहीं था कि उसको स्वकेन्द्रीय बननेमें कुछ भी लज्जास्पद लगें.
नहेरु और वंशवाद
नहेरुने कई काले कर्म किये थे इस लिये उनके काले कर्मोंको अधिक प्रसिद्धि न मिले या तो उनको गुह्य रख सकें, इस लिये नहेरुका अनुगामी नहेरुकी ही संतान हो यह अति आवश्यक था. इन्दिराकी वार्ता भी ऐसी ही है. संजय गांधी राजकारणमें था. संजय गांधीकी अकालमृत्यु हो गई.
वंशवादसे यदि पिताके/माताके सत्तापदकी प्राप्ति की जाती है तो सामाजिक चारित्र्यका पतन भी होता है और देशको हानि भी होती है.

इन्दिरा गांधीको नहेरुका सत्तापद मिलनेसे जो लोग इन्दिरासे कहीं अधिक वरिष्ठक्रमांकमें थे, उनकी सेवा देशको मिल नहीं सकी. जगजिवनराम, आचार्य क्रिपलानी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, मोररजी देसाई, राममनोहर लोहिया … आदि वैसे तो कभी न कभी कोंग्रेसमें ही थे. किन्तु उनका अनादर हुआ तो उनको पक्षसे भीन्न होना पडा. वंशवादके कारण, पक्षमें कुशल व्यक्तित्व वालोंकी अवहेलना होती ही रहेती है. इसके कारण पक्षके अंदरके प्रथम क्र्मांककी संतानको छोड कर अन्य किसीको, चाहे वह कितनाही कुशल और अनुभवी क्यूँ न हो, उसको सर्वोच्च पदकी कामना नहीं करना है. इसके कारण पक्षके अन्य नेता या तो पक्ष छोड देते है, या तो पक्षमें रहकर, अपनी सीमित लोकप्रियताका प्रभाव प्रदर्शित करते रहेते है और इसी मार्गसे धनप्राप्ति करते रहेते है. नैतिकताका पतन ऐसे ही जन्म लेता है.
कोंग्रेसमें अनैतिकताका प्रवेश कैसे हुआ?
नहेरुने “सेनाकी जीपोंके क्रयन (खरीदारीमें)” सुरक्षा मंत्रीको आदेश जाँचका आदेश न दिया. तो ऐसी प्रणाली ही स्थापित हो गई. इन्दिरा गांधीने सोचा की ऐसा तो होता ही रहेता है. तो इन्दिरा गांघीने सरकारी गीफ्टमें मिला मींककोट अपने पास रख लिया. तत् पश्चात् ऐसा आचार सर्वमान्य हो गया. नेतागण स्वयको मिला सरकारी आवास ही छोडते नहीं है. दो दो तीन तीन सरकारी आवास रख लेते है और किराये पर भी दे देते है. यदि सरकार खाली करवायें तो स्नानागारके उपकरण, टाईल्स, एसी, कारपेट, फर्नीचर … उठाके ले जाते हैं. फिर सरकारी कर्मचारीयोंमें भी यही गुण अवतरित होता है. वे लोग सरकारी वाहनका अपनी संतानोंके लिये, पत्नीके नीजी कामोंके लिये उपयोग किया करते है.
प्रतिभा पाटिल जो भारतकी राष्ट्रप्रमुख रही वह अपना कार्यकाल समाप्त होने पर १० टनके १४ मालवाहक भरके संपत्ति अपने साथ ले गयीं थीं. और शिवसेनाके सर्वोच्च नेता बाला साहेब ठाकरेने जो स्वयं अपनेको धर्मके रक्षक के रुपमें प्रस्तूत करते है उन्होंने अपने पक्षके जनप्रतिनिधियोंको आदेश दिया था कि राष्ट्रप्रमुख पदके चूनावमें प्रतिभा पाटिलको, प्रतिभा पाटील, मराठी होनेके कारण उनका अनुमोदन करें. नीतिमत्ता क्या भाषावाद और क्षेत्रवाद से अधिक है? नीतिमत्ताको कौन पूछताहै!!
शिवसेना भी वंशवादी है. बालासाहेब के बाद, उसके बेटे उद्धव ठाकरेको पक्षका प्रमुख बनाया. अब उद्धव ठाकरेने अपनी ही संतानको मुख्य मंत्री बनानेका संकल्प किया है. क्या शिवसेनामें कुशल नेताओंका अभाव है? यदि ६० वर्षकी शिवसेनाके पास वंशीय नेताकी संतानके अतिरिक्त प्रभावी और वरिष्ठ नेता ही नहीं है तो ऐसे पक्षको तो जीवित रहेनेका हक्क ही नहीं है.
एन.सी.पी. के शरद पवार भी वंशवादी है. ममता बेनर्जी भी वंशवादी है. मायावती, शेखाब्दुला, मुफ्ती मोहम्मद सईद, मुलायम सिंघ … ये सब वंशवादी है और इन सभीके पक्षोंके नेताओंने वर्जित स्रोतोंसे अधिकाधिक संपत्ति बनायी है. इन लोगोंकी अन्योन्य मैत्री भी अधिक है. इन लोगोंके पक्षोंका अन्योन्य विलय नहीं होता है. क्यों कि उनको लगता है कि भीन्न पक्ष बनाके रहकर हम सत्तामें प्रथम क्रमांक प्राप्त करें ऐसी शक्यता अधिक है. जब तक प्रथम क्रमांक का मौका नहीं मिलता, तब तक पैसा बनाते रहेंगे. यही हमारे लिये श्रेय है.
वंशवाद पर समाचार माध्यमोंका प्रतिभावः
वंशवादी पक्ष जब चूनावमें सफल होता है और सरकार बनानेमें जब वह प्रभावशाली भूमिका प्रस्तूत कर सकता है तब मोदी-विरोधी ग्रुपवाले समाचार माध्यम, वंशवादी पक्षके गुणगान करने लगते है. जो समाचार माध्यम मोदी-विरोधी नहीं है वे भी असमंजसकी स्थितिमें आ जाते है.
भारतीय जनता पार्टी वंशवादसे विरुद्ध है. उनका यह विचार उनके लिये एक शस्त्र है. जो लोग मोदीके विरुद्ध है, वे लोग बीजेपीके इस शस्त्र को निस्क्रीय करना चाहते है.
इन समाचार माध्यमोंको देशहितकी अपेक्षा, निर्बल और अस्थिर सरकार अधिक प्रिय है. ये लोग वंशवादकी भर्त्सना नहीं करते है. वे कभी उद्धवकी संतानकी कुशलता की चर्चा नहीं करेंगे. ये समाचार माध्यम, बीजेपीकी कष्टदायक स्थितिका अधिकाधिक विवरण देंगे. उस विवरणमें अतिशयोक्ति भी करेंगे. क्यों कि चमत्कृति और रसप्रदीय रम्यता तो उसमें ही है न!!
यदि पिता/माताकी संतानको सत्तापदका वारस बनानेवाली प्रणाली को नष्ट करना है तो सभी समाचार माध्यमोंको पुरस्कृत वारसकी और उसी पक्षके अन्यनेताओंकी बौद्धिक शक्ति और अनुभव शक्ति की तुलना करनेकी चर्चा करना चाहिये और वंशवादीसे पुरस्कृत संतानकी भर्त्सना करना चाहिये.
व्युहरचना कुछ भीन्न है
समाचार माध्यमोंका धर्म है कि वे या तो केवल समाचार ही प्रस्तूत करें या तो जनसाधारणको सुशिक्षित करें.
किन्तु हमारे देशके कई समाचार माध्यम के संचालक देश हितको त्यागकर, समाचारोंके द्वारा अपना उल्लु सीधा करने पर तुले हुए है. “भारत तेरे टूकडे होगे”, “कसाबको चीकन बीर्यानी खिलानेवाले”, “हिन्दुओंके मौतके जीम्मेवारों”, गुन्डों और आतंकीयोंको और उनके सहायकों … आदिके जनतांत्रिक अधिकार एवं उनके मानवाधिकारोंकी रक्षा यही उनका एजन्डा है. इनकी प्रज्ञामें भला देश हित कैसे घुस सकें?
सत्ता क्या चोरीका माल है?
ये लोग चाहते है कि शिवसेना के सबसे कनिष्ठ, अनुभवहीन और वरीष्ठता क्रममें कहीं भी न आनेवाले उद्धव ठाकरेके लडकेको सीधा ही मुख्यमंत्री बनाया जाय. यदि बीजेपी उसको उपमंत्री पद दे तो भी यह व्यवस्था उचित नहीं है. क्यों कि विपक्षको तो मौका मिलजायेगा कि देखो बीजेपी भी वंशवादमें मानती है और वंशवादमें माननेवाले पक्षका सहयोग ले रही है.
बीजेपी को भी सोचना चाहिये कि यह शिवसेना, एनसीपी और कोंगीकी चाल भी हो सकती है कि अब बीजेपी वंशवादके विरुद्ध न बोल सके. श्रेय तो यही होगा कि बीजेपी, शिवसेना को स्पष्ट शब्दोंमें कहे दे कि मंत्रीपद, योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर ही मिलेगा. यह कोई लूट का माल नहीं है कि ५०:५० के प्रमाणसे वितरण किया जाय.
शिवसेना अल्पमात्रामें भी विश्वसनीय नहीं है. इनके नेता, बीजेपीके उपर दबाव बनानेका एक भी अवसर छोडते नहीं है. और परोक्षरुपसे कोंगी आदि विपक्षको ही सहाय करते है.
याद करो ये वही शिवसेना है जिसके शिर्षनेता और स्थापक बालासाहेब ठाकरेने, जब बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुई तो कहा था कि ये भूमि पर न तो मस्जिद बने न तो मंदिर बने. इस पर अब चिकीत्सालय बनना चाहिये.
यही शिवसेना के नेतागण यह कहेनेका अवसर चूकते नहीं कि बीजेपी मंदिर निर्माणमें विलंब कर रहा है.
ईन लोगोंसे सावधान,
शिरीष मोहनलाल दवे
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Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, Social Issues, tagged अंग्रेज सरकार, अखिलेश, अगत्स्य, अत्री, अनुस्नातक हिमालयन ब्लंडर, अपना उल्लु सीधा करना, अफज़ल प्रेमी, असमंजस, आबु, आरक्षण, उकसाया, उद्धव -बाला साहेब थाकरे, एक मात्र दुश्मन, कच्छी, काठियावाडी, गुजरातके मुख्य मंत्री, गुजरातसे लगने वाले मारवाडी, गोहिलवाडी, गौवध, चंद्र वंश, चन्द्रबाबु नायडु, चरित्र, चरोतरी, जनताका विभाजन, जलवायु परिवर्तन, झालावाडी, ठाकोर, दत्तात्रेय, दुष्कर्म, नहेरु, नहेरुवीयन कोंग्रेस, निम्न स्तर, न्रेन्द्र मोदी, पटेलोंकी सियासत, पन्चमाहाली, परप्रांतीय, पारसी, पेपर टायगर, प्रदेशवाद, फूंक फूंक कर, बनासकांठी, बिन-गुजराती, ब्लेकमेल, भारतके टूकडे, भृगु, ममता, मराठा, मराठी, महाराष्ट्र, माया, मुलायम, मेवाडी, राज ठाकरे, राष्ट्रवाद, रोजगारीका हब, लालु, वशिष्ठ, विश्वामित्र, शस्त्र, संस्कार, सरदार पटेल, सरस्वती संस्कृति, सांदिपनी, साबरकांठी, सूरती, सूर्यवंश, सोरठी, हालारी, हुजराती on October 10, 2018|
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“दुष्कर्मोंकी जड नहेरुवीयन कोंग्रेस है” इससे सावधान रहे भारतीय जनता
नहेरुवीयन कोंग्रेसकी यह पूरानी आदत है कि जनताको विभाजित करना और अपना उल्लु सीधा करना.
जिसने देशके वर्तमान पत्रोंके हिसाबसे गुजरातमें युपी-बिहार वालोंके विरुद्ध लींचीन्ग चालु किया वह कौन है?

अल्पेश ठाकोर नामका एक व्यक्ति है जो वर्तमान पत्रोंने बनाया हुआ टायगर है. वह गुजरात (नहेरुवीयन) कोंग्रेसका प्रमुख भी है. वह गुजरात विधानसभाका सदस्य भी है.
उसने गुजरात विधान सभाके गत चूनाव पूर्व अपनी जातिके अंतर्गत एक आंदोलन चलाया था कि ठाकोर जातिको शराबकी लतसे मूक्त करें. यह तो एक दिखावा था. कोंग्रेसने उसको एक निमित्त बनाया था. किसी भी मानव समूह शराबसे मूक्त करना एक अच्छी बात है. लेकिन अभीतक किसीको पता नहीं कितने ठाकोर लोग शराब मूक्त (व्यसन मूक्त) बने. इस संगठनका इस लींचींगमें नहेरुवीयन कोंग्रेसका पूरा लाभ लिया.
दो पेपर टायगर है गुजरात में
“नहेरुवीयन कोंग्रेस गुजरात”के नेताओंने पहेले पाटीदारोंमेंसे एकको पेपर टायगर बनाया था. उसने आंदोलन चलाया और नहेरुवीयन कोंग्रेसकी मददसे करोडों रुपयेकी सरकारी और नीजी संपत्तिका नाश करवाया था. वर्तमान पत्रोंने (पेपरोंने) उनको टायगर बना दिया था.
नहेरुवीयन कोंग्रेसको गुजरातके अधिकतर वर्तमान पत्रोंने भरपूर समर्थन दिया है, और इन समाचार पत्रोंने पाटीदारोंके आंदोलनको फूंक फूंक कर जीवित रक्खनेकी कोशिस की है. वर्तमान पत्रोंको और उनके विश्लेषकोंने कभी भी आंदोलनके गुणदोषके बारेमें चर्चा नहीं की है. लेकिन आंदोलन कितना फैल गया है, कितना शक्तिशाली है, सरकार कैसे निस्फल रही है, इन बातोंको बढा चढा कर बताया है.
पाटीदार आंदोलनसे प्रेरित होकर नहेरुवीयन कोंग्रेसने अल्पेश ठकोरको आगे किया है. यह एक अति सामान्य कक्षाका व्यक्ति है. जिसका स्वयंका कुछ वजुद न हो और प्रवर्तमान फेशन के प्रवाहमें आके दाढी बढाकर अपनी आईडेन्टीटी (पहेचान) खो सकता है वह व्यक्तिको आप सामान्य कक्षाका या तो उससे भी निम्न कक्षाका नहीं मानोगे तो आप क्या मान मानोगे?
“दुष्कर्म” तो एक निमित्त है. ऐसा निमित्त तो आपको कहीं न कहींसे मिलने वाला ही है. यह पेपर टायगर खुल्लेआम हिन्दीभाषीयोंके विरुद्ध बोलने लगा है. और समाचार माध्यम उसको उछाल रहे है.
वैसे तो मुख्य मंत्रीने १२०० व्यक्तियोंको हिरासतमें लिया है. और इन सबको पता चल जायेगा कि कानून क्या कर सकता है. लेकिन यदि किसीको अति जिम्मेवार समज़ना है तो वे वर्तमान पत्र है. समाचार पत्रोंको तो लगता है कि उनके मूँहमें तो गुड और सक्कर किसीने रख दिया है. लेकिन अब नहेरुवीयन कोंग्रेसकी और उसके दंभी समाचार पत्रोंकी पोल खूल रही है और उनके कई लोग कारावासमें जाएंगे यह सुनिश्चित है इसलिये उनकी आवाज़के सूर अब बदलने लगे है लेकिन कानूनसे गुजरातमें तो कोई बच नहीं सकता. इसलिये ये सब नहेरुवीयन कोंग्रेसी डर गये हैं.
इस विषयमें हमें यह देखना आवश्यक बन जाता है कि आजकी कोंग्रेस (नहेरुवीयन कोंग्रेस) आज के दुष्कर्मोंके उच्च (निम्न) स्तर तक कैसे पहोंची?
वैसे तो बीजेपीकी सरकार और नेतागण सतर्क और सक्रिय है. शासन भी सक्रिय है. जो लोग गुजरात छोडकर गये थे उनको वापस बुलारहे है और वे वापस भी आ रहे है. गुजरातकी जनता और खास करके बीजेपी के नेतागण उन सभीका गुलाबका पुष्प देके स्वागत कर रहे है. हिन्दी भाषीयोंने ऐसा प्रेम कभी भी महाराष्ट्रमें नहीं पाया.
नहेरुवीयन कोंग्रेसका गुजरातके संदर्भमें ऐतिहासिक विवरण देखा जा सकता है.
नहेरुने महात्मा गांधीको ब्लेकमेल करके तत्काल प्रधान मंत्री पद तो ग्रहण कर लिया, लेकिन उनको तो अपनेको प्रधानमंत्रीके पद पर शाश्वत भी बनाये रखना था. और इसमें तो गांधी मददमें आने वाले नहीं थे. इस बात तो नहेरुको अच्छी तरह ज्ञात थी.
गांधी तो मर गये.
नहेरुसे भी बडे कदके सरदार पटेल एक मात्र दुश्मन थे. लेकिन नहेरुके सद्भाग्यसे वे भी चल बसे. नहेरुका काम ५०% तो आसान हो गया. उन्होने कोंग्रेसके संगठनका पूरा लाभ लिया.
जनता को कैसे असमंजसमें डालना और अनिर्णायक बना देना यह एक शस्त्र है. इस शस्त्रका उपयोग अंग्रेज सरकार करती रहेती थी. लेकिन गांधीकी हत्याके बाद हिन्दु विरुद्ध मुस्लिमका शस्त्र इतना धारदार रहा नहीं.
“तू नहीं तो तेरा नाम सही” नहेरु बोले
लेकिन शस्त्रका जो काम था वह “जनताका विभाजन” करना था. तो ऐसे और शस्त्र भी तो उत्पन्न किये जा सकते है.
नहेरुने सोचा, ऐसे शस्त्रको कैसे बनाया जाय और कैसे इस शस्त्रका उपयोग किया जाय. कुछ तो उन्होंने ब्रीटीश शासकोंसे शिखा था और कुछ तो उन्होंने उस समयके रुसकी सरकारी “ओन लाईन” अनुस्नातकका अभ्यास करके शिखा था. यानी कि साम्यवादी लोग जब सत्तामें आ जाते है तो सत्ता बनाये रखने के लिये जनताको असमंजसमें रखना और विभाजित रखना आवश्यक मानते है.
१९५२मे नहेरुने काश्मिर और तिबटकी हिमालयन ब्लन्डरके बाद भी चीनपरस्त नीति अपनाई, और जनताका ध्यान हटाने के लिये भाषा पर आधारित राज्योंकी रचना की. लेकिन कोई काम सीधे तरिकेसे करे तो वह नहेरुवीयन कोंग्रेस नहीं.
नहेरुने प्रदेशवादको उकसायाः
“मुंबई यदि महाराष्ट्रको मिलेगा तो मुज़े खुशी होगी” नहेरुने बोला.
ऐसा बोलना नहेरुके लिये आवश्यक ही नहीं था. “भाषाके आधार पर कैसे राज्योंकी रचना करना” उसकी रुपरेखा “कोंग्रेस”में उपलब्ध थी. लेकिन नहेरुका एजन्डा भीन्न था. इस बातका इसी “ब्लोग-साईट”में अन्यत्र विवरण दिया हुआ है. नहेरुका हेतु था कि मराठी भाषी और गुजराती भाषी जनतामें वैमनष्य उत्पन्न हो जाय और वह बढता ही रहे. इस प्रकार नहेरुने मराठी जनताको संदेश दिया कि गुजराती लोग ही “मुंबई” महाराष्ट्रको न मिले ऐसा चाहते है.
याद रक्खो, गुजरातके कोई भी नेताने “‘मुंबई’ गुजरातको मिले” ऐसी बात तक नहीं की थी, न तो समाचार पत्रोमें ऐसी चर्चा थी.
लेकिन नहेरुने उपरोक्त निवेदन करके मराठी भाषीयोंको गुजरातीयोंके विरुद्ध उकसाया और पचासके दशकमें मुंबईमें गुजरातीयों पर हमले करवाये और कुछ गुजरातीयोंने मुंबईसे हिजरत की.
गुजरातीयोंका संस्कार और चरित्र कैसा रहा है?
एक बात याद रक्खोः उन्नीसवे शतकके अंतर्गत, गुजरातीयोंने ही मुंबईको विकसित किया था. मुंबईकी ९० प्रतिशत मिल्कत गुजरातीयोंने बनाई थी. ७० प्रतिशत उद्योगोंके मालिक गुजराती थे. और २० प्रतिशत गुजराती लोगोंका मुंबई मातृभूमि था. “गुजराती” शब्द से मतलब है कच्छी, सोरठी, हालारी, झालावाडी, गोहिलवाडी, काठियावाडी, पारसी, सूरती, चरोतरी, बनासकांठी, साबरकांठी, पन्चमाहाली, आबु, गुजरातसे लगने वाले मारवाडी, मेवाडी आदि प्रदेश.
गुजरातीयोंने कभी परप्रांतीयों पर भेद नहीं किया. गुजरातमें ४० प्रतिशत जनसंख्या पछात दलित थे. लेकिन गुजरातीयोंने कभी परप्रांतमें जाकर, गुजरातीयोंको बुलाके, नौकरी पर नहीं रक्खा. उन्होंने तो हमेशा वहांके स्थानिक जनोकों ही व्यवसाय दिया. चाहे वह ताता स्टील हो, या मेघालय शिलोंगका “मोदी कोटेज इन्डस्ट्री” हो. गुजरातकी मानसिकता अन्य राज्योंसे भीन्न रही है.
गुजरात और मुंबई रोजगारी का हब है.
पहेलेसे ही गुजरात, मुंबई और महाराष्ट्र, व्यवसायीयोंका व्यवसाय हब है. उन्नीसवीं शताब्दीसे प्रथम अर्ध शतकसे ही अहमदाबादमें कपडेकी मिलोंमें हिन्दी-भाषी लोग काम करते है.
१९६४-६५में जब मैं जबलपुरमें था तब मेरे हिन्दीभाषी सहाध्यायी लोग बता रहे थे कि हमारे लोग, पढकर गुजरात और महाराष्ट्रमें नौकरी करने चले जाते है. गुजरातमें सेन्ट्रल गवर्नमेंटके कार्यालयोंमे चतूर्थ श्रेणीके कर्मचारीयोंमें हिन्दीभाषी लोगोंका बहुमत रहेता था. सेन्ट्रल गवर्नमेंटके कार्यालयोंमे प्रथम और द्वितीय श्रेणीके कर्मचारीयोंमे आज भी हिन्दीभाषीयोंका बहुमत होता है, वैसे तो अधिकारीयोंके लिये गुजरात एक टेन्योर क्षेत्रमाना जाता है तो भी यह हाल है.
नरेन्द्र मोदी और गुजराती
गुजराती लोग शांति प्रिय और राष्ट्रवादी है. जब नरेन्द्र मोदी जैसे कदावर नेता गुजरातके मुख्यमंत्री थे तब भी उन्होंने कभी क्षेत्रवादको बढावा देनेका काम नहीं किया. नरेन्द्र मोदी हमेशा कहेते रहेते थे कि गुजरातके विकासमें हिन्दीभाषी और दक्षिणभारतीयोंका महान योगदान रहा है. गुजरातकी जनता उनका ऋणी है.
२००२ के चूनावमें और उसके बादके चूनावोंमें भी, नरेन्द्र मोदी, यदि चाहते तो ममता, अखिलेश, मुलायम, माया, लालु, चन्द्रबाबु नायडु की तरह क्षेत्रवाद-भाषावादको हवा देकर उसको उछाल के गुजराती और बिन-गुजराती जनताको भीडवा सकते थे. लेकिन ऐसी बात गुजराती जनताके डीएनए में नहीं है. और नरेन्द्र मोदीने राष्ट्रवादको गुजरातमें बनाये रक्खा है.
याद रक्खो, जब नहेरु-इन्दिराके शासनके सूर्यका मध्यान्ह काल था तब भी नहेरुवीयन कोंग्रेस की (१९७१के एक दो सालके समयको छोड) गुजरातमें दाल नहीं गलती थी. वह १९८० तक कमजोर थी और मोरारजी देसाईकी कोंग्रेस (संस्था) सक्षम थी. मतलब कि, राष्ट्रवाद गुजरातमें कभी मरा नहीं, न तो कभी राष्ट्रवाद गुजरातमें कमजोर बना.
१९८०से १९९५ तक गुजरातमें नहेरुवीयन कोंग्रेसका शासन रहा लेकिन उस समय भी राष्ट्रवाद कमज़ोर पडा नहीं क्यों कि गुजरातकी नहेरुवीयन कोंग्रेसके “आका” तो नोन-गुजराती थे इसलिये “आ बैल मुज़े मार” ऐसा कैसे करते?
भाषा और क्षेत्रवादके लिये गुजरातमें जगह नहीं है;
उद्धव -बाला साहेब थाकरे, राज ठाकरे, ममता, अखिलेश, मुलायम, माया, लालु, चन्द्रबाबु नायडु–वाले क्षेत्रवाद के लिये गुजरातमें जगह नहीं है. नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासन कालमें गुजरातमें दंगे, और संचार बंदी तो बहोत होती रही, लेकिन कभी क्षेत्र-भाषा वादके दंगे नहीं हुए.
नहेरुवीयन कोंग्रेसकी यह संस्कृति और संस्कार है कि जूठ बार बार बोलो और चाहे वह जूठ, जूठ ही सिद्ध भी हो जाय, अपना असर कायम रखता है.
(१) पहेले उन्होंने अखलाक का किस्सा उछाला, और ठेर ठेर हमें गौवध आंदोलनके और लींचींगके किस्से प्रकाशित होते हुए दिखने लगे,
(२) फिर हमें भारतके टूकडेवाली गेंग दिखाई देने लगी और उनके और अफज़ल प्रेमी गेंगके काश्मिरसे, दिल्ली, बनारस, कलकत्ता, और हैदराबाद तकके प्रदर्शन दिखनेको मिले,
(३) फिर सियासती खूनकी घटनाएं और मान लो कि वे सब खून हिन्दुओंने ही करवायें ऐसा मानके हुए विरोध प्रदर्शन के किस्से समाचार पत्रोंमे छाने लगे,
(४) फिर सियासती पटेलोंका आरक्षणके हिंसक प्रदर्शन और मराठाओंका आरक्षण आदि के प्रदर्शनोंकी घटनाएं आपको समाचार माध्यमोंमे प्रचूर मात्रामें देखने को मिलने लगी.
(५) फिर आपको कठुआ गेंग रेप की घटनाको, कायदा-व्यवस्थाके स्थान पर, सेना और कश्मिरके मुस्लिमोंकी टकराहट, के प्रदर्शन स्वरुप घटना थी, इस बातको उजागर करती हुए समाचार देखने को मिलने लगे.
(६) अब तो समाचार पत्रोंमे हररोज कोई न कोई पन्ने पर या पन्नों पर एक नाबालीग के गेंगरेप या दुष्कर्मकी घटना चाहे उसमें सच्चाई हो या न हो, देखनेको मिलती ही है. नाम तो नहीं लिखना है इसलिये बनावटी घटनाओं का भी प्रसारण किया जा सकता है.
नहेरुवीयन कोंग्रेस ऐसा माहोल बनाना चाहती है कि जनताको ऐसा लगता है कि बीजेपीके शासनमें गेंग रेप, दुष्कर्म की आदत उत्पन्न हुई. और नहेरुवीयन कोंग्रेसके ७० सालके जमानेमें तो भारत एक स्वर्ग था. न कोई बेकार था, न कोई गरीब था, न कोई अनपढ था, हर घर बिजली थी, हर कोई के पास पक्का मकान था और दो खड्डेवाला संडास था, पेट्रोल मूफ्तमें मिलता था और महंगाईका नामोनिशान नहीं था. सब आनंदमंगल था. कश्मिरमें हिन्दु सुरक्षित थे और आतंकवादका तो नामोनिशान नहीं था.
ये ठाकोर लोग कौन है?
ठाकोर (ठाकोर क्षत्रीय होते है. श्री कृष्ण को भी गुजरातमें “ठाकोरजी” कहे जाते है.) वैसे वे लोग एससी/ओसी में आते हैं और कहा जाता है कि वे लोग व्यसन के आदि होते हैं.
“नहेरुवीयन कोंग्रेस गुजरात”की तबियत गुदगुदाई
नहेरुवीयन कोंग्रेसकी तबियत गुदगुदायी है कि, अब वह क्षेत्रवादका शस्त्र जो उन्होंने महाराष्ट्रमें गुजरातीयोंको मराठीयोंसे अलग करनेमें किया था उस शस्त्रको अजमाया जा सकता है.
शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, नहेरुवीयन कोंग्रेसके क्रमानुसार पूत्र और पौत्र है.
ये दोनों पार्टीयां तो खूल्ले आम क्षेत्रवादकी आग लगाती है. शिवसेना कैसे बीजेपीका समर्थन करती है वह एक संशोधनका विषय है, लेकिन यदि शरद पवारको प्रधान मंत्री बननेका अवसर आयेगा तो यह शिवसेना और एमएनएस, उसके पल्लेमें बैठ जायेंगे यह बात निश्चित है. जैसे कि उन्होंने नहेरुवीयन कोंग्रेसके प्रत्याषी प्रतिभा पाटिलको समर्थन किया था.
महाराष्ट्रमें तो नहेरुवीयन कोंग्रेसने क्षेत्रवादको बहेकानेका काम प्रचूर मात्रामें किया है.
पाटीदारोंके आंदोलनके परिणाम स्वरुप, ज्ञातिवादके साथ साथ अन्य कोई शस्त्र है जिससे गुजरातमें कुछ और हिंसक आंदोलन करवा सकें?
गुजरात विरुद्ध हिन्दीभाषी
गुजरातमें हिन्दीभाषी श्रम जीवी काफी मात्रामें होते है. गुजरातके विकासमें उनका योगदान काफी है.
किसीका भी परप्रांतमें नौकरी करनेका शौक नहीं होता है. जब अपने राज्यमें नौकरीके अवसर नहीं होते है तब ही मनुष्य परप्रांतमें जाता है. मैंने १९६४-६५में भी ऐसे लोगो देखे है जो युपी बिहार के थे. उनके मूँहसे सूना था कि हमारे यहां लडका एमएससीमें डीवीझन लाता है तो भी कई सालों तक बेकार रहेता है. नौकरी मिलने पर उसका भाव बढता है. ये सब तो लंबी बाते हैं लेकिन हिन्दी भाषी राज्योंमे बेकारीके कारण उनके कई लोगोंको अन्य राज्योंमें जाना पडता है.
कौन पर प्रांती है? अरे भाई, यह तो वास्तवमें घर वापसी है.
सुराष्ट्र-गुजरातका असली नाम तो है आनर्त. जिसको गुरुजनराष्ट्र भी कहा जाता था जिसमेंसे अपभ्रंश होकर गुजरात हुआ है
प्राचीन इतिहास पर यदि एक दृष्टिपात् करें तो भारतमें सरस्वती नदीकी महान अद्भूत सुसंस्कृत सभ्यता थी. उसका बडा हिस्सा गुजरातमें ही था. गुजरातका नाम “गुरुजनराष्ट्र था”.
अगत्स्य ऋषिका आश्रम साभ्रमती (साबरमती)के किनारे पर था,
वशिष्ठ ऋषि का आश्रम अर्बुद पर्वत पर था,
सांदिपनी ऋषिका आश्रम गिरनारमें था,
भृगुरुषिका आश्रम भरुचके पास नर्मदा तट पर था,
विश्वामित्र का आश्रम विश्वामित्री नदीके मुखके पास पावापुरीमें था,
अत्री ऋषिके पूत्र, आदिगुरु दत्तात्रेय गिरनारके थे.
चंद्र वंश और सूर्यवंशके महान राजाओंकी पूण्य भूमि सुराष्ट्र-गुरुजनराष्ट्र ही था.
सरस्वती नदीका सुखना और जलवायु परिवर्तन
जब जलवायुमें परिवर्तन हुआ तो इस संस्कृतिकी,
एक शाखा पश्चिममें ईरानसे गुजरकर तूर्क और ग्रीस और जर्मनी गई,
एक शाखा समूद्रके किनारे किनारे अरबस्तान और मीश्र गई
एक शाखा काराकोरमसे तिबट और मोंगोलिया गई,
एक शाखा पूर्वमें गंगा जमना और ब्र्ह्म पूत्रके प्रदेशोंमे गई, जो वहांसे ब्रह्मदेश गई, और वहांसे थाईलेन्ड, फिलीपाईन्स, ईन्डोनेशिया, और चीन जापान गई,
एक शाखा दक्षिण भारतमें और श्रीलंका गई.
जब सुराष्ट्र (गुरुजन राष्ट्र)का जलवायु (वातावरण) सुधरने लगा तो गंगा जमनाके प्रदेशोंमें गये लोग जो अपनी मूल भूमिके साथ संपर्कमें थे वे एक या दुसरे कारणसे घरवापसी भी करने लगे.
राम पढाईके लिये विश्वामित्रके आश्रममें आये थे,
कृष्ण भी पढाईके लिये सांदिपनी ऋषिके आश्रममें आये थे. फिर जब जरासंघका दबाव बढने लगा तो श्री कृष्ण अपने यादवोंके साथ सुराष्ट्रमें समूद्र तट पर आ गये और पूरे भारतके समूद्र तट पर यादवोंका दबदबा रहा.
ईश्वीसन की नवमी शताब्दीमें ईरानसे पारसी लोग गुजरात वापस आये थे.
ईश्वीसनकी ग्यारहवी शताब्दीमें कई (कमसे कम दो हजार कुटूंबोंको) विद्वान और चारों वेदोंके ज्ञाता ब्राह्मणोंको मूळराज सोलंकी काशीसे लेकर आया था. वे आज औदिच्य ब्राह्मणके नामसे जाने जाते है.
इसके बाद भी जनप्रवाह उत्तर भारतसे आनर्त-सुराष्ट्र में आता ही रहा है.
“स्थानांतर” यह एक सामान्य प्राकृतिक प्रक्रिया है.
सुराष्ट्र-गुरुजनराष्ट्रमें सबका स्वागत है. आओ यहां आके आपकी मूल
भूमिका वंदन करो और भारत वर्षका नाम उज्वल करो.
नहेरुवीयन कोंग्रेस तेरा सर्वनाश हो,
बीजेपी तेरा जय जयकार हो.
शिरीष मोहनलाल दवे
चमत्कृतिः
डीबीभाई(दिव्यभास्कर की गुजराती प्रकाशन)ने क्या किया?
जो हंगामा और मारपीट ठाकोरोंने गुजरातमें की, वे “जनता”के नाम पर चढा दी, और उनको नाम दिया “आक्रोश”.
आगे तंत्रीलेखमें लिखा है
“नीतीशकुमार हवे गुजरात विरुद्ध बिहार मोडलनी चर्चा तो शरु करी दीधी छे अने तेमनी चर्चाने उठावनारा नोबेलविजेता अर्थ शास्त्र अमर्त्यसेन पण चूप छे”
यह कैसी वाक्य रचना है? इस वाक्यका क्या अर्थ है? इसका क्या संदेश है? यदि कोई भाषाशास्त्री बता पाये तो एक लाख ले जावे. यह वाक्य रचना और उसका अर्थ जनताके पल्ले तो पडता नहीं है.
डीबीभाई खूद हिन्दीभाषी है. उनको भाषा शुद्धिसे और वाक्यार्थसे कोई मतलब नहीं है. आपको एक भी पेराग्राफ बिना क्षतिवाला मिलना असंभव है. शिर्ष रेखा कैसी भी बना लो. हमें तो बीजेपीके विरुद्ध केवल ऋणात्मक वातावरण तयार करना है.
“(नहेरुवीयन) कोंग्रेसके पैसे, हमारे काम कब आयेंगे? यही तो मौका है …!!!” वर्तमान पत्रकी सोच.
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Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, tagged अपरिपक्व, इन्दिरा, एजंडा, कार्यसूचि, नकारात्मक, नहेरु, नहेरुवीयन कोंग्रेस, निम्न स्तर, पंडित, पूर्व निश्चित, प्रभावशाली, मीडीया, मूंह दिखाई, सकारात्मक, समाचार माध्यम, सांस्कृतिक साथी, हंगामा on April 29, 2015|
8 Comments »
राहुल गांधीकी घरवापसी या मूंह–दिखाई या राहुल–वर्सन – n+1

मीडीया धन्य हो गया.
यदि आपको मीडीयाका निम्नसे निम्न स्तर देखना हो तो भारतके समाचार माध्यमोंको देख लिजीये.
यदि आप भारतकी प्रज्ञा पर गर्व करते हैं, तो भारतीय समाचार माध्यमों का स्तर देखके आप लज्जासे नतमस्तक हो जाओ.
वैसे तो आप नतमस्तक हो जाओ, ऐसी कई घटनाएं है, जिसमें नहेरुवीयन कोंग्रेसी संस्कार पर चलनेवाली मुस्लिम नेतागीरी भी संमिलित है, जो सतत हिन्दुओंके मानव अधिकारोंका हनन किया करती है. ये लोग तो सिद्ध देशद्रोही है, उनके विषय पर क्या चर्चा करें ! आम जनताको धीरे धीरे सबकुछ ज्ञात हो गया है.
नहेरुका जूठ
नहेरुने स्वातंत्र्यके प्रथम दशकमें कई जूठ फैलायें थे.
उस समय मीडीया माध्यम को यह ज्ञात नहीं था कि सत्य और असत्य, श्रेय और अश्रेय क्या होता है. क्यों कि उनको ऐसी प्रशिक्षा नहीं दी गयी थी. वैसे तो १९४७के पूर्व समय, स्वातंत्र्य सेनानीयोंके द्वारा संचालित कई उत्कृष्ट समाचार पत्र थे जिनसे वे बोध ले सकते थे. लेकिन भय के कारण वे अंग्रेज सल्तनत के विरुद्ध लिखना नहीं चाहते थे. हो सकता कि वे लोग शिशु अवस्थामें हो. मीडीयामें परिपक्वता नहीं आयी थी.
किन्तु यदि २८ वर्षके बाद भी मीडीया पंडित परिपक्व नहीं बन सकते है तो कारण कुछ और ही हो सकता है.
इन मीडीया मूर्धन्योंको १९७५–१९७६ के अंतर्गत, नहेरुवीयन फरजंद इन्दिराने झुकनेको कहा था. किन्तु इन मीडीया मूर्धन्योंने इन्दिरा संचालित सेन्सरशीप को साष्टांग दंडवत प्रणाम करके, उसके शासन द्वारा संचालित अफवाहें फैलानेमें और शासनके भाट बननेमें कोई शर्म नहीं रक्खी.
मीडीयाकी यह अपरिपक्वता कहां तक रहेगी?
मीडीयाका एजन्डा कुछ और ही है.
मीडीयाको क्या लिखना है, कैसे लिखना है, कितना लिखना है, ये सब पूर्व निश्चित है.
वैसे तो आदर्श मीडीया का धर्म है कि, वह जनताको माहिति प्रदान करे. जनताको सुशिक्षित करें. जनताके हितमें लिखे. सत्य लिखे, प्रमाणभान रखकर लिखें, सच्चे संदर्भमें लिखें, विवेकशीलतासे लिखें और निडरतासे लिखें.
नरेन्द्र मोदीने एक बार अपने वक्तव्यमें कहा कि समाचार माध्यम अपना वाचकगण और दर्शकगण बढानेके चक्करमें उत्तेजित शब्द प्रयोग करते है. ऐसा करनेमें ये समाचार माध्यम के पंडित लोग यह नहीं देखते कि समाजमें नकारात्मक वातावरण फैलता है या सकारात्मक वातावरण फैलता है? जनताको सत्य अधिगत होता है या असत्य अधिगत होता है?
सकारात्मक समाचारकी अखबारी परिभाषाः
एक ख्यातनाम समाचार पत्रने नरेन्द्र मोदीको लिखा कि वह, सप्ताहमें एक दिन “सिर्फ सकारात्मक समाचार” ही छापेगा. वैसे तो उस समाचार पत्रकी इस प्रकारकी घोषणा ही उसकी मानसिकता प्रदर्शित करती थी. क्यों कि वैसे तो प्रत्येक समाचार पत्रको हमेशा सकारात्मक समाचार ही प्रसिद्ध करना चाहिये.
लेकिन सकारात्मक समाचार की परिभाषा उस समाचार पत्र की अलग ही थी.
खून हुआ, दंगा हुआ, मारपीट हुआ, चोरी हुई, डकैती हुई, परिणित स्त्रीके साथ दुष्कर्म हुआ, सगिराके साथ दुष्कर्म हुआ, बच्चेके साथ दुष्कर्म हुआ, शिशुके साथ दुष्कर्म हुआ, विदेशीके साथ दुष्कर्म हुआ, कौनसी हिन्दु जाति द्वारा दुष्कर्म हुआ, ठगाई हुई, अकस्मात हुआ, किसीने गाली दी, कोंगीने प्रदर्शन किया, क्या क्या बोला आदि आदि ही नकारात्मक घटनाएं है.
वास्तवमें नकारात्म समाचार क्या है?
समझ लो. कोई भी घटना जब घटती है और जब वह जनमानसके दिमाग पर पडती है तब उसका असर भीन्न भीन्न प्रकारकी व्यक्ति के उपर भीन्न भीन्न होता है.
एक व्यक्ति है जो चोर है उसको यदि चोरीके समाचारसे पता चलता है कि फलां जगह पर इस प्रकारसे चोरी हुई, तो उसको चोरीका एक और तरिका मालुम हो जाता है.
जिसकी जातीय वृत्ति असंतुष्ट है उसको भी जब दुष्कर्म का समाचार मिलता है तो उसको पता चलता है कि इन इन व्यक्तियों पर ऐसे ऐसे प्रकारसे दुष्कर्म किया जा सकता है. दुसरे लोग करते है तो हम भी क्यों न करें !
यदि कोई फिल्मी हिरो कहेता है कि यदि मैं सिग्रेट मूंहमें रखकर अपनी अदा न बताउं तो मैं सोचनेका अभिनय कैसे करु? कोई हिरी (हिरो का स्त्रीलिंग), कहेगी मेरा शरीर मेरा है. मेरी जिंदगी मेरी है, मैं उसका जो चाहे वह करुं. … (फिर वह हिरोईन, आगे बहूत कुछ कहेती है जो समाजकी तंदुरस्तीके लिये विवादका विषय है, इसलिये यहां नहीं लिखा जा सकता).
ऐसे समाचारोंको ज्योंका त्यों और बार बार प्रसिद्ध करनेसे और ऐसे समाचारोंको ज्यादा महत्व देनेसे, वे नकारात्मक बन जाते है. यदि समाचार माध्यम, समाचारोंमे विवेकशीलता रखके समाचारको प्रसारित करता है और वह स्वयं तटस्थ बनकर पूर्व पक्ष और प्रतिपक्ष का मुद्दोंपर प्रतिक्रिया प्रकट करता है तब वे ही समाचार सकारात्मक बन जाते हैं.
एक समाचारपत्रकी मानसिकता देखो
“दिव्यभास्कर” गुजरातका एक ख्यात नाम समाचार पत्र है. वह नरेन्द्र मोदीके विदेश-प्रवासके वर्णन और विदेशप्रवासकी उपलब्धियां, केवल एक अष्टमांश पन्ने पर, और वे भी सातवें या नवमे या ग्यारवें पन्ने जो भितरके पन्ने है उनमेंसे कोई एक पन्ने पर ही प्रकट करता था.
वास्तवमे ऐसे समाचार भारतके भविष्य के विकास पर सर्वाधिक प्रभावशाली माने जाते है. तो भी हमारा यह समाचार पत्र इसको महत्व देना नहीं चाह्ता था. क्यों कि, बीजेपीके विषयमें सकारात्मक समाचार प्रकट करना, नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके सांस्कृतिक साथीयोंके लिये नकारात्मक बन जाता है.
एक हंगामेका समाचार
“आवास योजनाके एक प्रकल्प के लिये बीजेपीकी सरकारने गुजरातके एक नगरमें शिलान्यासका आयोजन किया. इस प्रसंगमें कुछ लोगोंने हंगामा किया. मंडपको तोडा, कुर्सीयां तोडी, टेबल उलट दिये. पूरे समाचार पढने पर भी आपको ऐसा कोई विवरण नहीं मिलता है कि, ऐसा क्यूं हुआ? समाचार माध्यमके लिये हेतु प्रसारित करना महत्व का नहीं. जो हंगामा हुआ उसका वर्णन ही महत्वका है क्यों कि हंगामा बीजेपी द्वारा शासित राज्यमें हुआ है. बीजेपीके लिये नकारात्मक बनता है. और यही समाचार कोंगीके लिये सकारात्मक बनता है. समाचार माध्यमकी हेतुसूचिके अनुसार, समाचार हमेशा सकारात्मक (कोंगीके लिये) होना आवश्यक है.
अभी भूकंप के बारेमें बीजेपी सरकारकी कार्यवाही प्रसंशनीय बन रही है.
कुछ नकारात्मक तो ढूंढना पडेगा.
एक रुग्णालयमें भूकंप पीडित व्यक्तियों के कपोल पर “भूकंप” का लेबल लगाया गया. कर्मचारीका हेतू केवल भूकंप पीडितोंकी पहेचान का था. क्यों कि उनकी चिकित्सा निशुल्क करनी है. समाचार माध्यमोंने हंगामा खडा कर दिया.
“रुग्णालयका अमानवीय कृत्य”. हमारे डीबीने (दिव्यभास्करने) इस समाचारको प्रथम पन्ने पर विशाल अक्षरोंमे मुद्रित किया. हांजी, नरेन्द्र मोदीकी विदेशयात्राका विवरण और उपलब्धियां देशके लिये महत्वपूर्ण नहीं है. किन्तु एक गांवके रुग्णालयके कर्मचारीका “भूकंप”का लेबल लगाना कई गुना ज्यादा सकारात्मक है.
कोंगी साथी नेता उवाच
एक नहेरुवीयन कोंगके साथी नेताने बोला “नरेन्द्र मोदी भूकंपमें भूतानीयों पर और विदेशीयों पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करता है”. इस नेताने न तो कोई विवरण दिया न तो मीडीयाने कोई विवरण मांगा. नरेन्द्र मोदी सभी भूकंप पीडितोंको मनुष्य माने उसमें समाचार माध्यमोंको और कोंगी और उसके साथीयोंको आपत्ति है. उनका संस्कार है कि सभी मनुष्योंको आपत्तिके समय पर भी भीन्नतासे देखना चाहिये.
जिन समाचारोंके प्रकट करनेके पीछे “स्वार्थ” रहता है वे नकारात्मक होते है. क्योंकि “स्वार्थ” नामका अखबारी तत्व सत्यको ढक देता है.
हिरण्मयेन पात्रेण, सत्यस्य अपिहितं मुखं.
स्वर्ण पात्रसे (पीले चमकिले और आकर्षक शब्दोंसें ये पीले पत्रकारत्ववाले समाचारमाध्यम के पंडितोंसे) सत्य ढक जाता है.
कुछ नेताओंकी व्यक्तिओंकी ऐसी प्रकृति ही होती है. इनमें फिल्मी हिरो–हिरोईन, राजकीय पक्ष के नेता खास करके जो नये नये है या पुराने है लेकिन सत्तासे हाथ धो बैठे है, वे ऐसे मौके ढूंढते है कि उनको प्रसिद्धि मिले. ऐसे लोग पैसे देके भी समाचार प्रसिद्ध करवाते है. समाचार माध्यमको और क्या चाहिये? समाचार माध्यमको तो पैसा और वाचक वर्ग चाहिये.
मजाक करना मना है?
बीजेपी के एक नेताने कहा कि नहेरुवीयन कोंग्रेसको चमडीके कलरसे कोंप्लेक्ष (ग्रंथी) है. यदि राजिव गांधीने नाईजिरीयाकी लडकीसे (श्यामा लडकीसे) शादी कि होती तो क्या वे उसको कोंग्रेस प्रमुख बनाते?
यह तो एक प्रश्न था. जो औरत श्वेत है उसको श्वेत कहा गया. यह बात कोई बुराई तो है नहीं. नाईजिरीयाकी लडकीयोंको (न कोई व्यक्ति विशेषको श्याम कहा गया) श्याम कहा गया. यह भी कोई बडी बात तो है नहीं. वैसे तो “ब्लेक इझ ब्युटीफुल” कहा जाता है.
वैसे भी, नहेरुको श्वेत रंग के लोग ज्यादा पसंद थे. नहेरुने विदेशोंकी एम्बेसीयोंमें मूलकश्मिरीयोंकी बिना योग्यता देखें ज्यादा ही भर्ती कर दी थी. उसके कारण भारतको लज्जास्पद स्थितिमें आना पडता था. ऐसे तो कई उदाहरण है.
कमसे कम श्वेत स्त्रीको परोक्ष या प्रत्यक्ष रुपसे श्वेत कहेना, उसकी बुराई तो नहीं है. रही बात श्यामा की. लेकिन यह तो सामान्यीकरण है. यह कोई व्यक्ति विशेषकी बात नहीं है. किन्तु नहेरुवीयनोंने तो नाईजिरीया तक यह बात पहूंचा दी.
प्रमाणभान हीनता
जो कुछ भी हो. श्वेत श्यामकी इस बातको उछालना, उसके उपर टीवीमें चर्चाएं रखना, कोंगी और उसके साथीयों द्वारा संसदकी कार्यवाहीको स्थगित कर देना क्या आवश्यक है?
मीडीया का क्या यही एजंडा है? अन्य कुछ तो नहीं?
क्या यह “श्याम-श्वेत” की चर्चा भारतके लिये जिवन–मृत्युकी समस्या है?
क्या इस कारण किसी नेता–नेत्रीने आत्महत्या कर ली है?
क्या इस बातसे कोई नेता नेत्री बिमार पड गया हैं?
संवेदनशीलताका मिथ्या प्रदर्शन या हास्यवृत्तिका अभाव
एक समय महात्मा गांधीने कोई एक महाकविके संदर्भमें कहा था कि “यदि दूध देने वाली गैया, लात मारे तो भी सहन कर लेना चाहिये.”
उस समय तो वह महाकविके भक्तोंने या वह महाकवि खूदने कोई कोलाहल नहीं किया था.
हांजी, महाकविने यह तो अवश्य कहा कि “मैं गैया नहीं हूं, मैं तो सांढ हूं”. बात खतम.
लेकिन यहां पर तो सोनियाने भी यह प्रदर्शित किया कि वह कोई संवेदनहीन नहीं है, लेकिन वह उच्चकोटीकी होनेकी वजहसे, निम्नकोटीकी व्यक्तिसे की गई अभिव्यक्ति पर कोई टीका नहीं करेगी. इस प्रकर, स्वयंको उच्चस्तरकी माननेवाली व्यक्तिने अन्यको निम्न कक्षाकी दिखाने की मानसिकता प्रदर्शित तो कर ही दी. (अभी बोला अभी फोक).
यह वही सोनिया गांधी है, जिसने खूदने, गुजरातकी जनताको गोडसे कहा था और नरेन्द्र मोदीको मौतका सौदागर कहा था. और उसके पक्षके लोगोंने नरेन्द्र मोदीको जगतके हर आततायीयोंके नामसे नवाजा था और हर निम्नकक्षाके माने जाने वाले प्राणीयोंके नामसे भी नवाजा था. उस समय इन नहेरुवीयन नेताओं की और सोनीयाकी संवेदनशीलता कहां गई थी? इसको कहेते है “सौ चूहे मारके बिल्ली हज करने चली.”
मीडीया पंडितोंने कोई चर्चा नहीं चलायी
एक और नहेरुवीयन फरजंद है जो नहेरु–इन्दिराकी मिक्ष्ड स्टाईल मारता है. संसदके एक सवालके उत्तरमें नहेरुने कहा था “युनोमें लाईन ऑफ कन्ट्रोलकी परिभाषा नहीं है”.
घटना कुछ इस प्रकार थी. नहेरु चीनके चाहक थे. चीनका सैन्य लाईन ऑफ कन्ट्रोलका उलंघन करता रहेता था. महात्मागांधीके अंतेवासी जेबी क्रीपलानीने सवाल उठाया, कि, भारत सरकार चीनी घुस पैठके विषय पर क्या कदम उठा रही है?
तब नहेरुने ऐसी घटनाको ही नकार दिया.
वास्तवमें हमारे सुरक्षा दलके अधिकारीगण, चीनके साथ नियमित रुपसे होनेवाली बैठकोंमें यह मुद्दा उठा ही रहेते थे. और तब चीनी अधिकारी, नहेरुके कथनोंका हवाला देके घुसपैठको नकारते थे.
लेकिन जब चीनी लश्करकी घुसपैठ, हदसे ज्यादा बढ गयी, तो संसदमें जे बी क्रिपलानीजीने सूचित किया कि हम लाईन ओफ कन्ट्रोलका उलंघन करने वालों पर निगरानी करनेके लिये, लाईन ओफ कन्ट्रोल पर अधिक सुरक्षा व्यवस्था रक्खें और युनोमें केस दर्ज करें. तब नहेरुने कहा कि एल.ओ.सी. की कोई परिभाषा युनोके पास नहीं है. और युनोने अभी तक कोई समस्या हल नहीं की है.
क्रीपलानी ने कहा कि तो हम युद्ध करें.
तो नहेरुने कहा कि युद्धसे कोई समस्या हल नहीं होती.
इस प्रकार नहेरुके पास हरेक समस्याका उत्तर फिलोसोफीकल था. उसका यह प्रपोता भी ऐसा लुझ टोकींग करता है. “गरीबी एक मानसिकता है”
यह नहेरुवीयन फरजंदके कितने वर्सन (अवतार) है?
राहुल ? अहो रुपं अहो ध्वनि?
राहुल वर्सन – ०१
बिहारमें राहुलकी नेतागीरीमें चूनाव लडा जायेगा ऐसा घोषित हुआ. मीडीयाने “अहो रुपं अहो ध्वनि” चलाया. वह था उसका अवतार वर्सन–०१. फिर क्या हुआ? नहेरुवीयन कोंग्रेस पीट गयी.
ऐसा क्यों हुआ? नहेरुवीयन नेतागण बोले अरे भाई उसने अपना फर्ज निभाया लेकिन कार्यकर्ता लोग असफल रहें.
राहुल वर्सन – ०२
कोंगी बोली, अब राहुलजी एक बडी जेम्मेवारी लेने वाले है. वे युपी एसेम्ब्ली चूनावमें प्रभारीकी जिम्मेवारी ले रहे है.
मीडीयाने राहुलका वही “अहो रुपं अहो ध्वनि” चलाया”. उसमें भी नहेरुवीयन कोंग्रेस पीट गयी. वर्सन – ०२ समाप्त.
लेकिन अब तो वे एक बहोत बडी जिम्मेवारी अदा करने वाले है…. ऐसा करके उनके कई वर्सन निकले.
फिर उनको महामंत्री बनाया. फिर उनका पक्षके उप–प्रमुखका वर्सन आया. सबमें उसका पक्ष पीट गया.
फिर क्या हुआ?
प्रोडीगल सन क्या घर छोडके भाग गया?
या वालिया लुटेरा तप करनेके नाम पर ब्लेक मनी को ईधर उधर करने चला गया?
या जिम्बो कोई और बेनाम जगह चला गया?
रोबिन हुड … खेल खेलने बेनाम जगह चला गया?
पूरे दो मास बिना कुछ काम किये गुमनाम हो गया. उसके सेवकोंने बताया वह छूट्टी पर गया है.
वैसे तो संसद सदस्यको सरकारी व्यक्ति मानना चाहिये. क्यों कि उसको जन–निधि (पब्लीक फंड)मेंसे वेतन मिलता है. और उसका निवृत्ति वेतन भी सुनिश्चित है.
राहुलके लिये नैतिक धर्म बनता है कि वह क्यों जाता है, कहां जाता है और उसके अवकाशके समयका पता क्या है ये सभी माहिति संसदके स्पीकरको बतावें. ऐसा नहीं करनेसे उसको निलंबित किया जा सकता है. यदि कोई सर्वोच न्यायालयमें जनयाचिका प्रस्तूत करे तो सभी संसदोंको जन–सेवक (पब्लिक सर्वन्ट) घोषित किया जा सकता है. इसके अतिरिक्त भी राहुलका नैतिक धर्म बनता है.
खास करके इन्दिरा गांधीकी स्थापित प्रणालीके अनुसार गुप्तता रखना नहेरुवीयनोंका संस्कार बना है. सोनिया गांधीकी चिकित्सा जननिधि (पब्लिक फंड)में से हुई और वह भी विदेशमें हुई. क्या चिकित्सा? कौनसे रोगकी चिकित्सा? कौनसे रग्णालयमें चिकित्सा हुई? ये सब माहिति गोपनीय रक्खी गयी.
समाचार माध्यमोंने भी इसबात पर आपत्ति नहीं जताई.
राहुलके अज्ञातवासका अंत. उसके आगमनको कैसे प्रदर्शित किया जाय?
क्या कोई युद्ध जिता? नहीं तो.
क्या कोई अभूतपूर्व सेवाका काम किया? नहीं तो.
स्वागत तो अभूतपूर्व करना ही पडेगा !
दिये जलाओ, पटाखे फोडो, अब तो आनंद मंगल हो गया.
मानो झीम्बो कम्स टु टाऊन.
मूंह दिखाई की रसममें सब उमट पडे. मीडीया भी उमट पडा.
वह जो कुछ भी हो, हमारे समाचार माध्यमोंने हेड लाईन दिया …
राहुलने नरेन्द्र मोदीको आडे हाथ लिया. “शुट बुट की सरकार”, “किसानसे छीनके उद्योगपतियोंको जमीन देनेवाली सरकार”, “किसानको जमीनके बदलेमें कुछ भी नहीं देनेवाली सरकार”, “किसानोका खेतीका अधिकार छीना” … “राहुल है आत्मविश्वाससे भरपूर”.
शुट बुट की सरकारसे क्या मतलब है?
क्या राहुलके पिता और प्रपिता, दादी, वे सब, महात्मा गांधीकी तरह सिर्फ दो कपडेके टूकडे लपेटके घुमा करते थे? क्या वे शुट–बुट पहेनते नहीं थे? क्या अन्य नेता भी महात्मा गांधी की तरह कपडा लपेटके घुमते थे और घुमते है?
राहुलको खूदके पूर्वजोंके चरित्रको याद करना चाहिये
ईन्दिरा गांधीको नहेरुकी गद्दी विरासतमें लेनेकी थी, इसलिये वे नहेरुके साथ ही रहा करती थीं. उनके साथ विदेश भी जाती थीं. एक बार उनको सरकारी विदेशी डीग्नीटरी होनेके नाते, मींक कोट जिसकी किमत ३००००० रुपये होती है, भेटमें मिला.
सरकारी नियम अनुसार उनको, या तो उसकी किमत जनकोषमें जमा करा देनी चाहिये, या तो वह प्रधानमंत्रीके वस्तुभंडारमें जमा करवा देना चाहिये. इन्दिरा गांधीने उस भेटको अपने पास ही रख लिया.
राम मनोहर लोहियाने कुछ साल बाद यह प्रश्न संसदमें उठाया कि, वह मींक कोट कहां गया? संसदमें हंगामा हुआ. तब जाके इन्दिराने उस कोटको राष्ट्रीय कोषमें जमा किया.
अब आप तुलना करो. नरेन्द्र मोदीने क्या करते है?
उनको जो भेट मिलती है वह एक बार, भेट देनेवाले के मानके लिये पहन लेते है. फिर उस भेटका निलाम कर देते हैं और भेटकी वास्तविक किमतसे कई गुना ज्यादा मूल्य प्राप्त करके जनकोषमें रकम जमा करवाते है.
किन्तु नहेरुवीयनोंमे ऐसी विचार धारा और प्रज्ञा कहां हो सकती है?
भूमि अधिग्रहणकी चर्चाएं
मीडीयाने तो चर्चा बहूत चलाई, मीडीयाने कई बातें अनदेखी भी की.
जिजाजी वाढेराने जो भूमि अधिग्रहण किया तो कितना पैसा किसानको मिला?
यदि किसानकी हालत दयनीय है तो अभी ६० सालतक नहेरुवीयन कोंग्रेसने किसानके लिये क्या किया कि किसानको आज भी आत्म हत्या करनी पडती है?
किन्तु समाचार माध्यमने ऐसे प्रश्न नहीं उठाये.
भूमि–अधिग्रहण विधेयकको निजी उद्योगसे कोई संबंध नहीं तो भी इसकी चर्चा होती रहेती है और कोंगी वक्ता बिना कोई आधार असंबद्ध बाते बिना रुके करता रहेता है और समय पसार करता है. मीडीया कोंगीयोंको ऐसी बाते करने देता है.
मीडीयाको भी असंबद्ध बातोंको हवा देनेका ज्यादा शौक है.
राहुलका अब कौनसे नंबरका अवतार चलता है? न तो मीडीयाको पता है, न तो राहुल को पता है. तो फिर राहुल का नया अवतार…. राहुलका नया अवतार …. ऐसा कहेते रहो …. वही पर्याप्त है.
शिरीष मोहनलाल दवे
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