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Posts Tagged ‘परिवर्तन’

हमे परिवर्तन नहीं चाहिये. “जैसे थे” वाली ही परिस्थिति रक्खो” मूर्धन्याः उचुः – २

कोई भी मनुष्य आम कोटिका हो सकता है, युग पुरुषसे ले कर वर्तमान शिर्ष नेता की संतान या तो खुद नेता भी आम कोटिका हो सकता है.

“आम कोटिका मनुष्य” की पहेचान क्या है?

clueless

(कार्टुनीस्टका धन्यवाद)

जो व्यक्ति आम विचार प्रवाहमें बह जाता है, या,

जो व्यक्ति पूर्वग्रह का त्याग नहीं कर सकता,

जो व्यक्ति विवेकशीलतासे सोच नहीं सकता,

जिस व्यक्तिमें प्रमाण सुनिश्चित करके तुलना करनेकी क्षमता नही,

जिस व्यक्तिमें संदर्भ समज़नेकी क्षमता नहीं,

जिस व्यक्तिमें सामाजिक बुराईयोंसे (अनीतिमत्तासे) लडनेकी क्षमता नहीं,

जिस व्यक्तिमें अनीतिमत्ताको समज़नेकी क्षमता नहीं.

इन सभी गुणोंको, यदि एक ही वाक्यमें कहेना है तो, जिसमें समाजके लिये सापेक्षमें क्या श्रेय है वह समज़ने की क्षमता नहीं वह आम कोटिका व्यक्ति है. जो व्यक्ति स्वयं अपनेको आम कोटिका समज़े वह आम कोटिसे थोडा उपर है. क्यों कि वह व्यक्ति जिस विषयमें उसका ज्ञान नहीं, उसमें वह चंचूपात नहीं करता है.

हमारे कई मूर्धन्य आम कोटिके है.

प्रवर्तन मान समयमें देशके मूर्धन्य तीन प्रकारमें विभाजित है.

(१) मोदीके पक्षमें

(२) मोदीके विरुद्ध

(३) तटस्थ.

मोदीके पक्षमें है वे लोग, यदि हम कहें कि वे देश हितमें सोच रहे है, तो वह प्रवर्तमान स्थितिमें, सही है. लेकिन बादमें इनमेंसे कई लोगोंको बदलना पडेगा. इनमें मुस्लिम-फोबिया पीडित लोग और महात्मा गांधी-फोबिया पीडित लोग आते है. इसकी चर्चा हम करेंगे नहीं. लेकिन इन लोगोंका लाभ कोंगी प्रचूर मात्रामें लेती है.

मोदी का प्रतिभाव

कोंगीनेतागण स्वकेन्द्री और भ्रष्ट है. यह बात स्वयं सिद्ध है. यदि किसीको शंका है तो अवश्य इस लेखका प्रतिभाव दें.

कोंगीको आप स्वातंत्र्यका आंदोलन चलानेवाली कोंग्रेस नहीं कह सकते. क्यों कि वह कोग्रेस साधन शुद्धिमें मानती थी. और १९४८के पश्चात्य कालकी कोंग्रेस (कोंगी) साधन शुद्धिमें तनिक भी मानती नहीं है. कोंगीके नेताओंकी कार्यसूचिके ऐतिहसिक दस्तावेज यही बोलते है.

आतंकवादके साथ कोंगीयोंका मेलमिलाप या तो सोफ्ट कोर्नर, कोंगीयोंका कोमवाद और जातिवादको उत्तेजन, मोदीके प्रति कोंगीयोंकी निम्न स्तरकी सोच, कोंगीयोंका मीथ्या वाणीविलास … ये सब दृष्यमान है. कुछ मुस्लिम नेताओंकी सोच जैसे हिन्दुके विरुद्ध है उसी प्रकार इन कोंगीयोंकी सोच भी खूले आम विकृत है.

कोंगीयोंको की तो हम अवगणना कर सकते है. क्यों कि यह कोई नयी बात नहीं है. लेकिन मूर्धन्य लोग जो अपनेको तटस्थ मानते है वे भी प्रमाणकी तुलना किये बिना केवल एक दिशामें ही लिखते है.

साध्वी प्रज्ञा के उपर कोंगी सरकारने जो असीम अत्याचार करवाया वे हर नापदंडसे और निरपेक्षतासे घृणास्पद है. उसको पढके हर सद्‌व्यक्ति का खून उबल सकता है. साध्वी प्रज्ञाके उपर किये गये अत्याचार किससे प्रेरित थे. इस बात पर एक विशेष जाँच टीमका गठन करना चाहिये. और संबंधित हर पूलिसका, अफसरका और सियासती नेताओंकी पूछताछ होनी चाहिये.

यदि ऐसा नहीं होगा तो इन्दिरा गांधीकी तरह हर कोंगी और उसके हर सांस्कृतिक पक्षका नेता सोचेगा कि हमें तो किसीको भी कुछ भी करने की छूट है, जैसे इन्दिरा गांधीने १९७५-१९७६में किया था.

हमारे मूर्धन्योंको देखो. एक भी माईका लाल निकला नहीं जिसने इस मुद्दे पर चर्चा की हो. हाँ, इससे विपरीत ऐसे कटारीया (कोलमीस्ट) अवश्य निकले जिसने साध्वी प्रज्ञाकी बुराई की. ऐसे कटारीया लेखक साध्वी प्रज्ञाकी शालिन भाषासे भी उसकी सांस्कृतिक उच्चताकी अनुभूति नही कर पाये.  और देखो कटारिया लेखककी विकृतिकी कल्पना शीलता देखो कि उसने तो अपनी कल्पनाका उपयोग करके “साध्वी प्रज्ञाने एन्टी टेररीस्ट स्क्वार्ड के हेड हेमंत करकरे जब वे कसाबको गोली मार रहे थे तो साध्वी प्रज्ञाने हेमंत करकरेको श्राप दिया कि उस मासुम आतंकवादीको क्यों मारा? अब तुम भी मरोगे.”  और हेमंत करकरे मारे गये.

sadvi pragya tortured

यह क्या मजाक है? कल्पना कटारीया की, कल्पना चढाई साध्वी प्रज्ञाके नाम. प्रज्ञा – कसाब बहेन भाई, कौन कब कहाँ मरा और किसने मारा … इसके बारेमें कटारियाका घोर अज्ञान और घालमेल. एक साध्वी प्रज्ञाके उपर पोलिस कस्टडीमें घोर अत्याचार हुआ. लंबे अरसे तक अत्याचार होता रहा, अत्याचारकी जांच के बदले, अत्याचारको “मस्जिदमें गीयो तो कौन” करके एक मजाकवाला लेख लिख दिया ये कटारिया भाईने.

जिस साध्वी प्रज्ञाको न्यायालय द्वारा क्लीन चीट मीली है,लेकिन इस बातसे तो उनके उपर हुए अत्याचार का मामला और अधिक गंभीर बनता है.  साध्वी प्रज्ञाने कभी कसाब को मारनेके कारण करकरे तो श्राप दिया ऐसा कभी सुना पढा नहीं. साध्वी प्रज्ञाने स्वयंके उपर करकरेके कहेनेसे हुई यातना से करकरे को श्राप दिया ऐसा सूना है. कसाबको तो न्यायालयमें केस चला और उसको फांसीकी सज़ा हुई. कसाबकी फांसीके जल्लाद करकरे नहीं थे. करकरे तो कसाबसे पहेले ही आतंकवादीयोंके साथ मुठभेडमें मर गये थे. कसाब को मृत्युदंड २१ नवेम्बर २०१२ हुआ. और करकरे मुठभेडमें मरा २६ नवेम्बर २००८.

हिन्दु आतंकवद एक फरेब

साध्वी प्रज्ञाके कथनोंको पतला करनेके लिये कटारीयाभाईने उसको एक मजाकका विषय बना दिया. यह है हमारे मूर्धन्योंकी मानसिकता. ऐसी भद्दी मजाक तो कोंगीप्रेमी ही कर सकते है. किन्तु इससे क्या कोंगीका पल्ला भारी होता है?

अरुण शौरी लो या शेखर गुप्ता लो या प्रीतीश नंदी लो या अपनके स्वयं प्रमाणित शशि थरुर लो. या तो गीता पढाओ या तो इनको डॉ. आईनस्टाईन एन्ड युनीवर्स पढाओ या तो उनको कहो कि आपका पृथ्वीपरका करतव्य पूरा हुआ है और आप अब मौन धारण करो.

एक तरफ मोदी है, जिसने कभी संपत्ति संचयका सोचा नहीं, जिसने अपने संबंधीयोंको भी दूर रक्खा, वह अपने परिश्रमसे आगे आया और वह देशके हितके अतिरिक्त कुछ सोचता नहीं,

दुसरी तरफ है (१) कोंगीके नहेरुवीयनसे प्रारंभ करके, यानी कि सोनिया, राहुल,  चिदंबरम, दिग्विजय सिंह, अभिषेक मनु सिंघवी, मोतीलाल वोरा, साम पित्रोडा जैसे नेतागण जो बैल पर है, (२) मुलायम, अखिलेश, मायावती जिनके उपर अवैध तरीकोंसे संपत्ति प्राप्तिके केस चल रहे है, (३) ममता और उसके साथीयोंके उपर शारदा ग्रुप चीट फंडके कौभान्डके केस चल रहे है, और ममताका नक्षलवादीयोंके साथकी सांठगांठके बारेमें कभी भी खुलासा हो सकता है, (४) लालु प्रसाद कारावासके शलाखेकी गीनती कर रहे है और उसके कुटुंबीजन अवैध संपतिके केस चल रहे है.

उपरोक्त लोगोंने जे.एन.यु. के विभाजन वादी टूकडे टूकडे गेंगका और अर्बन नक्षलीयोंका खुलकर समर्थन किया है जिसमें कश्मिरके विभाजनवादी तत्त्व भी संमिलित है. ये योग आतंकवादीयोंके मानव अधिकारका समर्थन करनेमें कूदकर आगे रहेते है, लेकिन हिन्दुओंकी कत्लेआम और विस्थापित होने पर मौन है. देश की सुरक्षा पर भी मौन है.

यह भेद क्रीस्टल क्लीयर है. इसमें कोई विवादकी शक्यता नहीं. तो भी हमारे मूर्धन्य कटारीयाओंकी कानोंमे जू तक नहीं रेंगती. दशको बीत जाते है लेकिन उनके मूँहसे कभी “उफ़” तक नहीं निकलता. और जब कोई बीजेपी/मोदी फोबिया पीडित नेता जैसा कि राहुल, पित्रोडा, प्रयंका, सोनिया, मणी अय्यर, आझम, दीग्विजय, चिदंबरं, शशि, माया, ममता आदि कोई कोमवादी या जातिवादी टीप्पणी करता है और बीजेपीके कोई नेता उसका उत्तर देता है तो वे सामान्यीकरण करके एन्टी-बीजेपी गेंगकी कोमवादी जातिवादी टीप्पणीको अति डाईल्युट कर देते है. “इस चूनावमें नेताओंका स्तर निम्न स्तर पर पहूँच गया है ऐसा लिखके अपनी पीठ थपथपाते है कि स्वयं कैसे तटस्थ है.

मूर्धन्योंकी ऐसी तटस्थता व्यंढ है और ऐसे मूर्धन्य भी व्यंढ है जो अपनी विवेकशीलतासे जो वास्तविकता क्रीस्टल क्लीयर है तो भी, उसको उजागर न कर सके. इतनी सीमा तक स्वार्थी तो कमसे कम मूर्धन्योंको नहीं बनना चाहिये.     

इसके अतिरिक्त कोम्युनीस्ट पार्टी और कट्टरवादी मुस्लिम पक्ष है जिनकी एलफेल बोलनेकी हिमत कोंगीयोंने बढायी है. इनकी चर्चा हम नहीं करेंगे.

“जैसे थे” वाली परिस्थिति मूर्धन्योंको क्यूँ चाहिये? 

क्यूँ कि हमें पीला पत्रकारित्व चाहिये, हमें मासुम/मायुस चहेरेवाले लचीले शासकके शासनमें हस्तक्षेप करना है. हमें हमारे हिसाबसे मंत्रीमंडलमें हमारा कुछ प्रभाव चाहिये, हम एजन्टका काम भी कर सकें, हमे सुरक्षा सौदोमें भी हिस्सा चाहिये ताकि हमारा चेनल/वर्तमानपत्र रुपी मुखकमल बंद रहे. अरे भाई, हमे पढने वाले लाखों है, तो हमारा भी तो महत्त्व होना ही चाहिये न?

स्वय‌म्‌ प्रमाणित महात्मा गांधीवादीयोंका और गांधी-संस्था-गत क्षेत्रमें महात्मा गांधीके विचारोंका प्रचार करने वाले अधिकतर महानुभावोंका क्या हाल है?

इनमेंसे अधिकतर महानुभाव लोग आर.एस.एस. फोबियासे पीडीत होनेके कारण, एक पूर्वग्रहसे भी पीडित है. आर.एस.एस.में तो आपको नरेन्द्र मोदी और उनके साथी और कई सारे लोग मिल जायेंगे जो महात्मा गांधीके प्रति आदरका भाव रखते है और उनका बहुमान करते है. महात्मा गांधी के विचारोंका प्रसार करनेका जो काम कोंगीने नहीं किया, वह काम बीजेपीकी सरकारोंने गुजरात और देशभरमें किया है. इस विषय पर महात्मा गांधीवादी महानुभावोने नरेन्द्र मोदीका अभिवादन या प्रशंसा नहीं किया. लेकिन ये पूर्वग्रहसे पीडित महानुभावोंने ऐसे प्रश्न उठाये वैसे प्रश्न कोंगी शासन कालमें कभी नही उठाये गये. जैसे कि “मोदीको अपने कामका प्रचार करनेकी क्या आवश्यकता है? वह प्रचार करता है वही अनावश्यक है. काम तो अपने आप बोलेगा ही. मोदी स्वयं अपने कामोंकी बाते करता है यही तो उसका कमीनापन है.” “ मोदीने अंबाणीसे प्रचूर मात्रामें पैसे लिये. ऐसे पैसोंसे वह जीतता है.” कोंगीयोंकी तरह ये लोग भी प्रमाण देना आवश्यक नहीं समज़ते.

मा, माटी और मानुष

हमारे कथित गांधीवादी (दिव्यभास्कर के गुजराती प्रकाशन के दिनांक १६-०५-२०१९) मूर्धन्यको ममताके “मा माटी” में भावनात्मक मानस दृष्टिगोचर होता है, चाहे ममता पश्चिम बंगालमें प्रचारके लिये आये अन्य भाषीयोंको, “बाहरी” घोषित करके देशकी जनताको विभाजित करे.

पूरी भारतकी जनता एक ही है और उसमें विभाजनको अनुमोदन देना और बढावा देना “अ-गांधीवाद” है. गांधीजी जब चंपारणमें गये थे, तब तो किसीने भी उनको बहारी नहीं कहा था. और अब ये कथित गांधीवादी, “बाहरी”वाली मानसिकता का गुणगान कर रहे है.

यदि नरेन्द्र मोदीने गुजरातमें ऐसा किया होता तो?

तब तो ये गांधीवादी उनके उपर तूट पडते.

अब आप देखो और तुलना करो… नरेन्द्र मोदीने कभी “अपन” और “बाहरी’ वाला मुद्दा बनाया नहीं. तो भी ये लोग २००१से, मोदी प्रांतवादको उजागर करता है ऐसा कहेते रहेते है. वास्तवमें मोदी तो परप्रांतियोंका गुजरातके विकासमें दिये हुये योगदानकी सराहना करते रहेते है. लेकिन इन तथा-कथित गांधीवादीयोंका मानस ही विकृत हो गया है. इन लोंगोंको पश्चिम बंगालकी टी.एम.सी. द्वारा प्रेरित आपखुदी, सांविधानिक प्रावधानोंकी उपेक्षा, और हिंसा नहीं दिखाई देती. तब तो वे शाहमृगकी तरह अपना शिर, भूमिगत कर देते हैं. उपरोक्त गांधीवादी महानुभाव लोगोंने विवेक दृष्टि खो दी है. ईश्वर उनको माफ नहीं करेगा, चाहे उनको ज्ञात हो या नहीं. उपरोक्त गांधीवादीयोंके लिये इस सीमा तक कहेना इस कालखंडकी विडंबना है. तथाकथित महात्मा गांधीवादीयोंके वैचारिक विनीपातसे, हमारे जैसे अपूर्ण गांधीवादी शर्मींदा है. १९६४-१९७७में तो इन्दिरा नहेरु कोंग्रेस (आई.एन.सी.)की गेंगसे देशकी जनताको सुरक्षा देने के लिये जयप्रकाश नारायण, मैदानमें आ गये थे, किन्तु प्रवर्तमान समयमें, ये जूठसे लिप्त और भ्रष्टाचारसे प्लवित कोंगी, और उसके सांस्कृतिक साथीयोंकी अनेकानेक गेंगसे बचाने के लिये कोई गांधीवादी बचा नहीं है और जो है वे अक्षम है. यह युद्ध जनता और बीजेपीको ही लडना है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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why we write

with a curtsy to the cartoonists

हमे परिवर्तन नहीं चाहिये. “जैसे थे” वाली ही परिस्थिति रक्खो” मूर्धन्याः उचुः

(मूर्धन्याः उचुः = विद्वान लोगोंने बोला)

परिवर्तन क्या है? और “जैसे थे” वाली परिस्थिति से क्या अर्थ है?

नरेन्द्र मोदी स्वयं परिवर्तन लाना चाहता है. यह बात तो सिद्ध है क्यों कि उसने जिन क्षेत्रोमें परिवर्तन लानेका संकल्प किया है उनके अनुसंधानमें उसने कई सारे काम किये है.

परिवर्तन क्या है. परिवर्तन तो प्रकृति भी करती है.

वास्तवमें परिवर्तनमें शिघ्रताकी आवश्यकता है. क्यों कि शिघ्रताके अभावमें जो परिवर्तन होता है उसको परिवर्तन नहीं कहा जाता. शिघ्रतासे हुए परिवर्तनको क्रांति भी बोलते है.

“होती है चलती है… पहले अपना हिस्सा सुनिश्चित करो …“

ऐसी मानसिकता रखके जो परिवर्तन होता है उसमें विलंबसे होता है और विलंबसे अनेक समस्या उत्पन्न होती है. वे समस्या प्राकृतिक भी होती है और मानव सर्जित भी होती है. और अति विलंबको परिवर्तन कहा ही नहीं जा सकता. वैसे तो प्रकृति स्वयं परिवर्तन करती है. ऐसे परिवर्तनसे ही मानव, पेडसे उतरकर कर भूमि पर आया था. पेडसे भूमि की यात्रा एक जनरेशन में नहीं होती है.  इस प्रकार अति विलंबसे होने वाले परिवर्तन को उत्क्रांति (ईवोल्युशन) कहा जाता है.

कोंगीयोंने भी परिवर्तन किया है. किन्तु उनका परिवर्तन उत्क्रांति (ईवोल्युशन) जैसा है.

(ईवोल्युशनमे कभी प्रजातियाँ या तत्त्व नष्ट भी हो जाते है.)

उदाहरण के लिये तो कई परिकल्पनाएं है (केवल गुजरातका ही हाल देखें).

(१) जैसे कि नर्मदा योजना (योजनाकी कल्पना वर्ष १९३६. योजनाका निर्धारित समाप्तिकाल २० वर्ष. वास्तविक निर्धारित समाप्ति वर्ष २०२२).

(२) मीटर गेज, नेरो गेज का ब्रोड गेजमें परिवर्तन (परिकल्पना की कल्पना १९५२)

वास्तविकताः महुवा-भावनगर नेरोगेज उखाड दिया, डूंगर – पोर्ट विक्टर उखाड दिया, राजुला रोड राजुला उखाड दिया, गोधरा- लुणावाडा उखाड दिया, चांपानेर रोड पावागढ उखाड दिया, मोटा दहिसरा – नवलखी उखाड दिया, जामनगर (कानालुस)  – सिक्का उखाड दिया. अब यह पता नहीं कि ये सब रेल्वे लाईन ब्रॉडगेजमें कब परिवर्तित होगी.

भावनगर-तारापुर, मशीन टुल्सका कारखाना ये कल्पना तो गत शतकके पंचम दशक की है. जिसमे स्लीपरका टेन्डर भी निकाला है ऐसे समाचार चूनावके समय पर समाचार पत्रोंमे आया था. दोनों इल्ले इल्ले. ममताके रेल मंत्री दिनेश त्रीवेदीने गत दशकमें रेल्वेबजटमें उल्लेख किया था. किन्तु बादमें इल्ले इल्ले.

परिवर्तनके क्षेत्र?

नरेन्द्र मोदीकी सरकारने काम हाथ पर तो लिया है, लेकिन कोंगीके शासकोंने जो ७० वर्षका विलंब किया है वह अक्षम्य है.

चीन १९४९में नया शासन बना. १४ वर्षमें वह भारत देश जैसे बडे देशको हरा सकनेमें सक्षम हो गया. आप कहोगे कि वहां तो सरमुखत्यारी (साम्यवादी) शासान था. वहां जनताके अभिप्रायोंकी गणना नहीं हो सकती. इसलिये वहां सबकुछ हो सकता है.

अरे भाई सुरक्षासे बढकर बडा कोई काम नहीं हो सकता. सुरक्षाका काम भी विकासका काम ही है. विकासके कामोंमे कभी भारतकी जनताने उस समय तो कोई विरोध करती नहीं थी. आज जरुर विकासके कामोंमें जनता टांग अडाती है. लेकिन इसमें सरकारी (कर्मचारीयोंका) भ्रष्टाचार और विपक्षकी सियासत अधिक है. ये सब कोंगीकी देन है. विकासके कामोसे ही रोजगार उत्पन्न होता है.   

मूलभूत संरचना का क्षेत्रः

इसमें मार्ग, यातायात संसाधन, जलसंसाधन,   विद्युत उत्पादन, उद्योग (ग्रामोद्योग भी इनमें समाविष्ट है). नरेन्द्र मोदीने इसमें काफि शिघ्रगतिसे काम किया है. इसके विवरणकी आवश्यकता नहीं है.

उत्पादन क्षेत्रः उद्योगोंके लिये भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया, यातायातकी सुविधा, विद्युतकी सुविधा, जल सुविधा और मानवीय कुशलता आवश्यक है.

कोंगीको तो मानव संसाधनके विषयमें खास ज्ञान ही नहीं था. उसने तो ब्रीटीश शिक्षा प्रणाली के अनुसार ही आगे बढना सोचा था. पीढीयोंकी पीढीयों तक जनताको निरक्षर रखा था. समय बरबाद किया.

नरेन्द्र मोदीने गुजरातमें प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य किया था. स्कील डेवेलोप्मेन्टकी संस्थाएं खोली. बेटी बचाओ, बेटी बढाओ अभियान छेडा.

न्याय का क्षेत्रः

कोंगीने तो न्यायिक प्रक्रीया ही इतनी जटील कर दी कि सामान्य स्थितिका आदमी न्याय पा ही न सके. नरेन्द्र मोदीने कई सारे (१५००) नियमोंको रद कर दिया है. इसमें और सुधार की आवश्यकता है.

शासन क्षेत्रः

भारतमें कोंगीका शासन एक ऐसा शासन था कि जिसमें साम्यवाद, परिवारवाद, सरमुखत्यार शाही और जनतंत्रका मिलावट थी. इससे हर वादकी हानि कारक तत्व भारतको मिले. और हर वादके लाभ कारक तत्त्व कोंगीके संबंधीयोंको मिले.

सामाजिक क्षेत्रः

कोंगीने   जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, आर्थिक स्थिति … आदिके आधार पर विभाजन कायम रक्खा. उतना ही नहीं उसको और गहरा किया. समाजको विभाजित करने वाले तत्त्वोंको महत्त्व दिया. लोगोंकी नैतिक मानसिकता तो इतनी कमजोर कर दी की सामान्य आदमी स्वकेन्द्री बन गया. उसके लिये देशका हित और देशका चारित्र्य का अस्तित्व रहा ही नहीं. आम जनताको गलत इतिहास पढाया और उसीके आधार पर देशकी जनताको और विभाजित किया.

कोंगीने यदि सबसे बडा राष्ट्रीय अपराध किया है तो वह है मूर्धन्योंकी मानसिकताका विनीपात.

मूर्धन्य कौन है?

वैसे तो हमे गुजरातीयोंको प्राथमिक विद्यालयमें पढाया गया था कि जिनका साहित्यमें योगदान होता है वे मूर्धन्य है. अर्वाचीन गुजरातके सभी लेखक गण मूर्धन्य है.

माध्यमिक विद्यालयमें पढाया गया कि जो भी लिखावट है वह साहित्यका हिस्सा है.

हमारे जयेन्द्र भाई त्रीवेदी जो हिन्दीके अध्यापक थे उन्होंने कहा कि जो समाजको प्रतिबिंबित करके बुद्धियुक्त लिखता है  वह मूर्धन्य है. तो इसमें सांप्रत विषयोंके लेखक, विवेचक, विश्लेषक, अन्वेषक, चिंतक, सुचारु संपादक, व्याख्याता … सब लोग मूर्धन्य है….

कोंगीने मूर्धन्योंका ऐसा विनीपात करने में क्या भूमिका अदा की है?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-9

खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग)

रामको कौन समझ पाया?

एक मात्र महात्मा गांधी है जो रामको सही अर्थोमें समझ पाये.

प्रणालीयोंको बदलना है? तो आदर्श प्रणाली क्या है वह सर्व प्रथम निश्चित करो.

आपको अगर ऐसा लगा कि आप आदर्श प्रणालीको समझ सके हो तो पहेले उसको मनमें बुद्धिद्वारा आत्मसात करो, और वैसी ही मानसिकता बनावो. फिर उसके अनुसार विचार करो और फिर आचार करो. इसके बाद ही आप उसका प्रचार कर सकते हो.

लेकिन यह बात आपको याद रखने की है कि, प्रचार करने के समय आपके पास कोई सत्ता होनी नहीं चाहिये. सत्ता इसलिये नहीं होनी चाहिये कि आप जिस बातका प्रचार करना चाहते है उसमें शक्ति प्रदर्शन होना वर्ज्य है. सत्ता, शक्ति और लालच ये सब एक आवरण है, और यह आवरण सत्यको ढक देता है. (हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌.).

गांधीजीको जब लगा कि वे अब सामाजिक क्रांति लाना चाहते है तो उन्होने कोंग्रेसके पदोंसे ही नहीं लेकिन कोंग्रेसके प्राथमिक सभ्यपदसे भी त्यागपत्र दे दिया. इसकी वजह यह थी कि उनकी कोई भी बातोंका किसीके उपर उनके पदके कारण प्रभाव न पडे और जिनको शंका है वे संवादके द्वारा अपना समाधान कर सके.

कुछ लोग कहेंगे कि उनके उपवास, और कानूनभंग भी तो एक प्रकारका दबाव था! लेकिन उनका कानून भंग पारदर्शी और संवादशील और सजाके लिये आत्मसमर्पणवाला था. उसमें कोई हिंसात्मक सत्ता और शक्ति संमिलित नहीं थी. उसमें कोई कडवाहट भी नहीं थी. सामने वाले को सिर्फ यह ही कहेनेका था कि, उसके हदयमें भी मानवता है और “रुल ऑफ लॉ” के प्रति आदर है.

महात्मा गांधीने रामको ही क्यों आदर्श के लिये चूना?

भारत, प्राचीन समयमें जगत्‌गुरु था. गुरुकी शक्ति शस्त्र शक्ति नहीं है. गुरुको शस्त्र विद्या आती है लेकिन वह केवल शासकोंको सीखानेके लिये थी. गुरुका धर्म था विद्या और ज्ञानका प्रचार, ताकि जनता अपने सामाजिक धर्मका आचरण कर सके.

शासकका धर्म था आदर्श प्रणाली के अनुसार “रुल ऑफ लॉ” चलाना. शासकका काम और धर्म, यह कतई नहीं था कि वह सामाजीक क्रांति करें और प्रणालीयोंमें परिवर्तन या बदलाव लावें. यह काम ऋषियोंका था. राजाके उपर दबाव लानेका काम, ऋषियोंकी सलाह के अनुसार जनता का था.

वायु पुराणमें एक कथा है.

ब्राह्मणोंको मांस भक्षण करना चाहिये या नहीं? ऋषिगण मनुके पास गये. मनुने कहा ऋषि लोग यज्ञमें आहुत की हुई चीजें खाते है. इस लिये अगर मांस यज्ञमें आहुत किया हुआ द्रव्य बनता है तो वह आहुतद्रव्य खा सकते है. तबसे उन ब्राह्मणोंने यज्ञमें आहुत मांस खाना चालु किया. फिर जब ईश्वरने (शिवने) यह सूना तो उसने मनु और ब्राह्मणोंको डांटा. मनुसे कहाकि मनु, तुम तो राजा हो. राजाका ऐसा प्रणाली स्थापनेका और अर्थघटन करनेका अधिकार नहीं है. उसी प्रकार, ऋषियोंको भी ईश्वरने डांटा कि, उन्होने अनधिकृत व्यक्तिसे सलाह क्यों ली? तो मनु और ये ऋषिलोग पाप भूगतते रहेंगें. उस समयसे कुछ ब्राह्मण लोग मांस खाते रहे.

आचार्य मतलब है कि, आचार और विचारों पर शासन करें. मतलब कि, जिनके पास विद्या और ज्ञान है, उनके पास जो शासन रहेगा वह कहलायेगा अनुशासन. समस्याओंका समाधान ये लोग करेंगे. आचार्योंके शासन को अनुशासन कहा जायेगा. और शासकका काम है, सिर्फ “नियमों”का पालन करना और करवानेका. ऐसा होनेसे जनतंत्र कायम रहेगा.

अब देखो नहेरुवीयन कोंग्रेसने जो भी नियम बनायें वे सब अपने वॉट बेंक के लिये मतलबकी अपना शासन कायम रहे उसके लिये बनाया. वास्तवमें नियम बनानेका मुसद्दा जनताकी समस्याओंके समाधान के लिये ऋषियोंकी तरफसे मतलब कि,  ज्ञानी लोगोंकी तरफसे बनना चाहिये. जैसे कि लोकपालका मुसद्दा अन्ना हजारे की टीमने “जनलोकपाल” के बील के नामसे बनवाया था. उसके खिलाफ नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासकोंने एक मायावी-लोकपाल बील बनाया जिससे कुछ भी निष्पन्न होनेवाला नहीं था.

शासक पक्षः

नहेरुवीयन कोंग्रेस एक शासक पक्ष है. वह प्रजाका प्रतिनिधित्व करती है. लेकिन उसने चूनाव अभियानमें अपना लोकपाल बीलका मुसद्दा जनताके सामने रखकर चूनाव जीता नहीं था. उतना ही नहीं वह खुद एक बहुमत वाला और सत्ताहीन पक्ष नहीं था. उसके पास सत्ता थी और वह एक पक्षोंके समूह के कारण सत्तामें आया था. अगर उसके पास सत्ता है तो भी वह कोई नियम बनानेका अधिकार नहीं रख सकता.

शासक पक्षके पास कानून बनानेकी सत्ता नहीः

उसका मतलब यह हुआ कि जनताके प्रतिनिधिके पास नये नियम और पूराने नियमोंमें परिवर्तन करनेकी सत्ता नहीं हो सकती.

जो लोग समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मानसाशास्त्रमें निपूण है वे लोग ही हेतुपूर्ण मुसद्दा बनायेंगे और न्यायविद्वानोंसे मुसद्देका आखरी स्वरुप, नियम की भाषामें बद्ध करेंगे. फिर उसकी जनता और लोक प्रतिनिधियों के बीचमें और प्रसार माध्यमोंमें एक मंच पर चर्चा होगी, और उसमें फिरसे जो लोग समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मानसाशास्त्रमें निपूण है वे लोग हेतुपूर्ण मुसद्दा बनायेंगे और न्यायविद्वानोंसे फिरसे मुसद्देका आखरी स्वरुप नियमकी भाषामें बद्ध करेंगे और फिर उसके उपर मतदान होगा. यह मतदान संसदमें नहीं परंतु चूनाव आयोग करवायेगा. संसदसदस्योंके पास शासन प्रक्रीया पर नीगरानी रखनेकी सत्ता है. जो बात जनताके सामने पारदर्शितरुपमें रख्खी गई नहीं है, उसको मंजुर करने की सत्ता उनके पास नहीं है.

महात्मा गांधीने कोंग्रेसका विलय करनेको क्यों कहा?

महात्मा गांधी चाहते थे कि जो लोग अपनेको समाज सेवक मानते है और समाजमें क्रांति लाना चाहते है, वे अगर सत्तामें रहेंगे तो क्रांतिके बारे में सोचनेके स्थान पर वे खुद सत्तामें बने रहे उसके बारेमें ही सोचते रहेंगे. अगर उनको क्रांति करनी है तो सत्ताके बाहर रह कर जनजागृतिका काम करना पडेगा. और अगर जनता इन महानुभावोंसे विचार विमर्श करके शासक पक्षों पर दबाव बनायेगी कि, ऐसा क्रांतिकारी मुसद्दा तैयार करो और चूनाव आयोगसे मत गणना करवाओ.

महात्मा गांधीको मालुम था

महात्मा गांधीको मालुम था कि कोंग्रेसमें अनगिनत लोग सत्ताकांक्षी और भ्रष्ट है. और जनताको यह बातका पता चल ही जायेगा. “लोग इन कोंग्रेसीयोंको चून चून कर मारेंगे”. और उनकी यह बात १९७३में सच्ची साबित हुई.

गुजरातके नवनिर्माण आंदोलनमें गुजरातकी जनताने कोंग्रेसीयोंको चूनचून कर मारा और उनका विधानसभाकी सदस्यतासे इस्तिफा लिया. विधानसभाका विसर्जन करवाया. बादमें जयप्रकाश नारायणके नेतृत्वमें पूरे देशमें कोंग्रेस हटावोका आंदोलन फैल गया. जिस नहेरुवीयन कोंग्रेसने “हम गरीबी हटायेंगे… हम इसबातके लिये कृत संकल्प है” ऐसे वादे देकर, निरपेक्ष बहुमतसे १९७०में सत्ता हांसिल की थी, वह चाहती तो देशमें अदभूत क्रांति कर सकती थी. तो भी, नहेरुवीयन फरजंद ईन्दीरा गांधीको सिर्फ सत्ता और संपत्ति ही पसंद था. वह देशके हितके हरेक क्षेत्रमें संपूर्ण विफल रही और जैसा महात्मा गांधीने भविष्य उच्चारा था वैसा ही ईन्दीरा गांधीने किया. उसने अपने हरेक जाने अनजाने विरोधीयोंको जेलके हवाले किया और समाचार पत्रोंका गला घोंट दिया. उसने आपतकाल घोषित किया और मानवीय अधिकारोंका भी हनन किया. उसके कायदाविदने कहा कि, आपतकालमें शासक, आम आदमीका प्राण तक ले सकता है तो वह भी शासकका अधिकार है.

रामराज्यकी गहराई समझना नहेरुवीयन संस्कारके बसकी बात नहीं

और देखो यह ईन्दीरा गांधी जिसने हाजारोंसाल पूराना भारतीय जनतंत्रीय मानस जो महात्मा गांधीने जागृत किया था उसका ध्वंस किया. और वह ईन्दीरा गांधी आज भी यह नहेरुवीयन कोंग्रेसमें एक पूजनीया मानी जाती है. ऐसी मानसिकता वाला पक्ष रामचंद्रजीके जनतंत्र की गहराई कैसे समझ सकता है?

राम मंदिरका होना चाहिये या नहीं?

रामकी महानताको समझनेसे भारतीय जनताने रामको भगवान बना दिया. भगवान का मतलब है तेजस्वी. आकाशमें सबसे तेजस्वी सूर्य है. सूर्यसे पृथ्वी स्थापित है. सूर्यसे पृथ्वी की जिंदगी है. सूर्य भगवान वास्तवमें जीवन मात्रका आधार है. जब भी कोई अतिमहान व्यक्ति पृथ्वी पर पैदा होता है तो वह सूर्य भगवान की देन माना जाता है. सूर्यका एक नाम विष्णु है. इसलिये अतिमहान व्यक्ति जिसने समाजको उन्नत बनाया उसको विष्णुका अवतार माना जाता है. ऐसी प्रणाली सिर्फ भारतमें ही है ऐसा नहीं है. यह प्रणाली जापानसे ले कर मीस्र और मेक्सीको तक है या थी.

लेकिन नहेरुवीयन कोंग्रेसको महात्मा गांधीका नाम लेके और महात्मा गांधीकी कोंग्रेसकी धरोहर पर गर्व लेके वोट बटोरना अच्छा लगता है, लेकिन महात्मा गांधीके रामराज्यकी बात तो दूर रही, लेकिन रामको भारत माता का ऐतिहासिक सपूत मानने से भी वह इन्कार करती है. यह नहेरुवीयन कोंग्रेसको भारतीय संस्कृतिकी परंपरा पर जरा भी विश्वास नहीं है. उसके लिये सब जूठ है. राम भी जूठ है क्योंकि वह धार्मिक व्यक्ति है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसने रामको केवल धार्मिक व्यक्ति बनाके भारतीय जनतांत्रिक परंपराकी धज्जीयां उडा देनेकी भरपूर कोशिस की. नहेरुवीयन कोंग्रेसने रामका ऐतिहासिक अस्तित्व न्यायालयके सामने शपथ पूर्वक नकार दिया.

पूजन किनका होता है

अस्तित्व वाले तत्वोंका ही पूजन होता है. या तो वे प्राकृतिक शक्तियां होती है या तो वे देहधारी होते है. जिनका अस्तित्व सिर्फ साहित्यिक हो उनकी कभी पूजा और मंदिर बनाये जाते नहीं है. विश्वमें ऐसी प्रणाली नहीं है. लेकिन मनुष्यको और प्राकृतिक तत्वोंको पूजनेकी प्रणाली प्रचलित है, क्यों कि उनका अस्तित्व होता है.

महामानवके बारेमें एकसे ज्यादा लोग कथाएं लिखते है. महात्मागांधीके बारेमें हजारों लेखकोंने पुस्तकें लिखी होगी और लिखते रहेंगे. लेकिन “जया और जयंत”की या “भद्रंभद्र” की जीवनीके बारेमें लोग लिखेंगे नहीं क्यों कि वे सब काल्पनिक पात्र है.

भद्रंभद्रने माधवबागमें जो भाषण दिया उसकी चर्चा नहीं होगी, लेकिन विवेकानंदने विश्व धर्मपरिषदमें क्या भाषण दिया उसकी चर्चा होगी. विवेकानंदकी जन्म जयंति लोग मनायेंगे लेकिन भद्रंभद्रकी जन्म जयंति लोगे मनायेंगे नहीं.

राम धर्मके संलग्न हो य न हो, इससे रामके ऐतिहासिक सत्य पर कोई भी प्रभाव पडना नहीं चाहिये.

मान लिजीये चाणक्यको हमने भगवान मान लिया.

चाणक्यके नामसे एक धर्म फैला दिया. काल चक्रमें उसका जन्म स्थल ध्वस्त हो गया. नहेरुवीयनोंने भी एक धर्म बना लिया और एक जगह जो चाणक्यका जन्म स्थल था उसके उपर एक चर्च बना दिया. जनताने उसका उपयोग उनको करने नहीं दिया. तो अब क्या किया जाय? जे. एल. नहेरुका महत्व ज्यादा है या चाणक्य का? चाणक्य नहेरुसे २४०० मील सीनीयर है. चाणक्यका ही पहेला अधिकार बनेगा.

हिन्दु प्रणाली के अनुसार मृतदेहको अग्निदेवको अर्पण किया जाता है. वह मनुष्यका अंतिम यज्ञ है जिसमें ईश्वरका दिया हुआ देह ईश्वरको वापस दिया जाता है. यह विसर्जनका यज्ञ स्मशान भूमिमें होता है. इसलिये भारतीयोंमें कब्र नहीं होती. लेकिन महामानवों की याद के रुपमें उनकी जन्मभूमि या कर्म भूमि होती है. या तो वह उसकी जन्मभूमि होती है या तो उनसे स्थापित मंदिर होते हैं. ईश्वर का प्रार्थनास्थल यानी की मंदिर एक जगहसे दुसरी जगह स्थापित किया जा सकता है. लेकिन जन्म भूमि बदल नहीं सकती.

एक बात लघुमतीयोंको समझनी चाहिये कि, ईसाई और मुस्लिम धर्ममें शासकोंमें यह प्रणाली रही है कि जहां वे गये वहां उन्होने वहांका स्थानिक धर्म नष्ट करने की कोशिस की, और स्थानिक प्रजाके धर्मस्थानोंको नष्ट करके उनके उपर ही अपने धर्मस्थान बनाये है. यह सीलसीला २०वीं सदीके आरंभ तक चालु था. जिनको इसमें शक है वे मेक्सीको और दक्षिण अमेरिकाके स्थानिक लोगोंको पूछ सकते हैं.

जनतंत्रमें राम मंदिर किस तरहसे बन सकता है?

श्रेष्ठ उपाय आपसी सहमती है, और दूसरा उपाय न्यायालय है.

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शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः राम वचन, प्रतिज्ञा, नहेरुवीयन, नहेरु, ईन्दीरा, महात्मा गांधी, राम राज्य, राजा राम, अर्थघटन, नियम, परिवर्तन, प्रणाली, शासक, अधिकार, रुल ऑफ लॉ, निगरानी, सत्ता, ऋषि, ईश्वर, मनु, अधिकारी, जनतंत्र, हिन्दु, धर्म 

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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-8

खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग)

सीता धरतीमें समा गई. एक पाठ ऐसा है कि वाल्मिकी खुद, सीताकी शुद्धता शपथसे कहे और वशिष्ठ उसको प्रमाण माने . लेकिन राम का मानना है कि, ऐसी कोई प्रणाली नहीं है. प्रणाली सिर्फ अग्नि परीक्षाकी ही है. सीताको पहेलेकी तरह अग्निपरीक्षा देनी चाहिये.

सीताने पहेलेकी तरह अग्नि परीक्षा क्युं न दी? सीताको लगा कि, ऐसी बार बार परीक्षा देना उसका अपमान है. इस लिये योग्य यह ही है कि वह अपना जीवन समाप्त करें.

इस बातका जनताके उपर अत्यंत प्रभाव पडता है. और जनता के हृदयमें राम के साथ साथ सीताका स्थान भी उतनाही महत्व पूर्ण बन जाता है.

राम और नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेता गण

राम की सत्य और प्रणालीयोंके उपरकी निष्ठा इतनी कठोर थी, कि अगर उसको हमारे नहेरुसे लेकर आजके नहेरुवीयन कोंग्रेसके वंशज अगर रामके प्रण और सिद्धांकोके बारेमें सोचने की और तर्क द्वारा समझने की कोशिस करें, तो उनके लिये आत्महत्याके सिवा और कोई मार्ग बचता नहीं है.

राजाज्ञा और राजाज्ञाके शब्दोंका अर्थघटन

रामने तो अजेय हो गये थे. राज्य का कारोबार भी स्थापित और आदर्श परंपरा अनुसार हो रहा था.

एक ऋषि आते है. वे रामके साथ अकेलेमें और संपूर्णतः गुप्त बातचीत करना चाहते है. वह यह भी चाहते है कि जबतक बातचीत समाप्त न हो तब तक किसीको भी संवादखंडके अंदर आने न दिया जाय. राम, लक्ष्मणको बुलाते है. और संवादखंड के द्वारके आगे लक्ष्मणको चौकसी रखने को कहते है. और यह भी कहते है कि यह एक राजाज्ञा है. जिसका अनादर देहांत दंड होता है.

राम और ऋषि संवाद खंडके अंदर जाते है. लक्ष्मण द्वारपाल बन जाता है. संवादखंडके अंदर राम और ऋषि है और बातचीत चल रही है.

कुछ समयके बाद दुर्वासा ऋषि आते है. वे लक्ष्मणको कहेते है कि रामको जल्दसे जल्द बुलाओ. लक्ष्मण उनको बताते है कि राम तो गुप्त मंत्रणा कर रहे है, और किसीको भी जानेकी अनुमति नहीं है. दुर्वासा आग्रह जारी रखते है और शीघ्राति शीघ्र ही नहीं लेकिन तत्काल मिलनेकी हठ पर अड जाते है. और लक्ष्मणके मना करने पर वे गुस्सा हो जाते है. और पूरे अयोध्याको भष्म कर देनेकी धमकी देते है. तब लक्ष्मण संवाद खंड का द्वार खोलता है. ठीक उसी समय राम और ऋषिकी बातचीत खत्म हो जाती है और दोनों उठकर खडे हो जाते है.

“संवादका अंत” की परिभाषा क्या?

संवाद का प्रारंभ तो राम और ऋषि खंडके अंदर गये और द्वार बंद किया तबसे हो जाता है.

लेकिन संवादका अंत कब हुआ?

जब राम और ऋषिने बोलना बंद किया तबसे?

जब राम और ऋषि आसन परसे उठे तबसे?

जब राम और ऋषि द्वारके पास आये तबसे?

जब राम और ऋषि द्वार के बाहर आये तब?

रामके हिसाबसे जब तक राम और ऋषि द्वारके बाहर न आवे तब तक संवादका अंत मानना नहीं चाहिये.

जब राम और ऋषिने बोलना बंद किया तबसे संवादका अंत मानना नहीं चाहिये. क्यों कि यह तो दो मुद्दोंके बीचका विराम हो सकता है. यह भी हो सकता है वे दोनोंको कोई नया मुद्दा या कोई नयी  बात याद आ जावें?

जब राम और ऋषि आसन परसे उठे तबसे भी संवादका अंत न मानना चाहिये, क्योंकि  वे नयी बात याद आने से फिरसे बैठ भी सकते है. 

जब राम और ऋषि द्वारके पास आये तबसे भी संवादका अंत न मानना चहिये, क्यों कि वे बीना द्वार खोले वापस अपने स्थान पर जा सकते है.

चौकीदारके लिये ही नहीं परंतु राम, ऋषि और सबके लिये भी, जब वे दोनों (राम और ऋषि),  द्वार खोलके बाहर आते है तब ही संवाद का अंत मान सकता है. क्यों कि संवादकी गुप्तता तभी खतम हुई होती है.

तो अब प्रणाली के हिसाबसे राजाज्ञाका अनादर करने के कारण, लक्ष्मणको देहांत दंड देना चाहिये.

लक्ष्मण, जो रामके साथ रहा और दशरथकी आज्ञा न होने पर भी रामके साथ वनवासमें आया और खुदने अनेक दुःख और अपमान झेले. उसका त्याग अनुपम था. इस लक्ष्मणने अयोध्याकी रक्षाके लिये राजाज्ञाका शाब्दिक उल्लंघन किया जो वास्तवमें उल्लंघन था भी नहीं. जो ऋषि रामके साथ संवाद कर रहे थे उनको भी यह लगता नहीं था कि लक्ष्मणने राजाज्ञाका उल्लंघन किया है. लेकिन क्षुरस्य धारा पर चलने वाले रामको और लक्ष्मणको लगा की राजाज्ञाका उल्लंघन हुआ है.

रामने वशिष्ठसे पूछा. उनके अर्थघटनके अनुसार भी राजाज्ञाका उल्लंघन हुआ था. लेकिन देहांत  दंड के बारेमें एक ऐसी भी अर्थघटनकी प्रणाली थी कि अगर देहांत दंड जिस व्यक्ति के उपर लागु करना है वह अगर एक महाजन है तो उसको “स्वदेश त्याग” की सजा दे जा सकती है. रामने लक्ष्मणको वह सजा सूनायी.

लक्ष्मण अयोध्यासे बाहर निकल जाते है और सरयु नदीमें आत्म हत्या कर लेते है.

तो यह थी राम, लक्ष्मण और सीताकी मानसिकता.

इस मानसिकताको भारतकी जनताने मान्य रख्खी. अर्वाचीन समयको छोड कर किसीने रामको कमअक्ल और एक निस्फल पति या कर्तव्य हीन पति, ऐसा बता कर उनकी निंदा नहीं की. सीता और लक्ष्मण की भी निंदा नहीं की.

लेकिन अर्वाचीन युगमें और खास करके नहेरुवीयन युगमें कई मूर्धन्योंने रामकी निंदा की है. रामके त्यागका, रामके उत्कृष्ठ अर्थघटनोंका, रामकी कर्तव्य निष्ठाका, रामकी प्रणालीयोंके प्रति आदरका वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया है.

RAMA PROVIDED RULE OF LAW

शिरीष मोहनलाल दवे 

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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-7

खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग)

एक बात हमे फिरसे याद रख लेनी चाहिये कि व्यक्ति और समाज प्रणालीके अनुसार चलते है.

समाजमें व्यक्तिओंका व्यवहार प्रणालीयोंके आधार पर है

     प्रणाली के अंतर्गत नीति नियमोंका पालन आता है. अलग अलग जुथोंका व्यक्तिओंका कारोबार भी प्रणालीके अंतर्गत आता है. कर्म कांड और पूजा अर्चना भी प्रणालीके अंतरर्गत आते है.

     मानव समाज प्रणाली के आधार पर चलता है. प्रणालीके पालनसे मानव समाज उपर उठता है. समाज के उपर उठनेसे मतलब है समाजकी सुखाकारीमें और ज्ञानमें वृद्धि. समाजके ज्ञानमें वृद्धि होनेसे समाजको पता चलता है कि, समाजकी प्रणालीयों को कैसे बदला जाय, कैसे नयी प्रणालीयोंको लाया जाय और कैसे प्रणालीयों को सुव्यवस्थित किया जाय.

     शासक का कर्तव्य है कि वह स्थापित प्रणालीयोंका पालन करें और और जनतासे पालन करवायें.

कुछ प्रणालीयां कोई समाजमें विकल्प वाली होती हैं.

     जैसे कि एक स्त्रीसे ही शादी करना या एक से ज्यादा स्त्रीयोंसे शादी करना.

जीवन पर्यंत एक ही स्त्रीसे विवाहित जीवन बीताना या उसके होने से या और कोई प्रयोजनसे दुसरी स्त्रीसे भी शादी करना.

     ऐसे और कई विकल्प वाले बंधन होते है. इनमें जो विकल्प आदर्श माना गया हो उसको स्विकारना सत्पुरुषोंके लिये आवश्यक है.

शासक को भी ऐसी आदर्श प्रणालीयोंका पालन करना ईच्छनीय है.

शासकको हृदयसे प्रणालीयोंका पालन करना है.

     शासक (राजा या कोई भी व्यक्ति या व्यक्ति समूह जिनके उपर शासन की जिम्मेवारी है) तो कभी प्रणालीयों मे संशोधन कर सकता है तो वह नयी प्रणालीयां सूचित कर सकता है. अगर वह ऐसा करता है तो वह जनताकी निंदाके पात्र बनता है और जनता चाहे तो उसको पदभ्रष्ट कर सकती है.

रामने क्या किया?

     रामने एक आदर्श राजाका पात्र निभाया.

     उन्होने एक मात्र सीता से ही शादी की, और एक पत्नीव्रत रखा,

     वनवासके दरम्यान ब्रह्मचर्यका पालन किया,

     रावणको हरानेके बाद, सीताकी पवित्रताकी परीक्षा ली,

(वैसे भी सीता पवित्र ही थी उसका एक कारण यह भी था कि वह अशोकवाटिकामें गर्भवती बनी नहीं थी. अगर रावणने उसके उसके साथ जातीय संबंध रखा होता तो वह गर्भवती भी बन सकती थी.)

     रामने जनताकी निंदासे बोध लिया और सीताका त्याग किया. राम जनताके साथ बहस नहीं किया. रामने सीताका त्याग किया उस समय सीता सगर्भा थी. रामने सीताको वाल्मिकीके आश्रममें रखवाया, ताकि उसकी सुरक्षा भी हो और उसकी संतानकी भी सुरक्षा और संतानका अच्छी तरह लालन पालन हो सके.

     रामने सीताका त्याग करने के बाद कोई दूसरी शादी नहीं की.

     रामने यज्ञके क्रीया कांडमें पत्नी की जरुरत होने पर भी दूसरी शादी नहीं की, और पत्नी की जगह सीताकी ही मूर्तिका उपयोग किया.

 

     इससे साफ प्रतित होता है कि, राम सिर्फ सीताको ही चाहते थे और सिर्फ सीताको ही पत्नी मानते थे.

 

रामने तो ढिंढोरा पीटवाया कि सीता को एक बडा अन्याय हो रहा है,

रामने तो ढिंढोरा पीटवाया कि खुदको एक बडा अन्याय हो रहा है,

रामने तो अपने फायदे के लिये प्रणालीमें बदलाव लानेका ढिंढोरा पीटवाया,

रामने खुद अपने महलमें रहेते हुए भी एक वनवासी जैसा सादगीवाला जीवन जिया और एक शासक का धर्मका श्रेष्ठतासे पालन किया.

क्या रामने ये सब सत्तामें चालु रहने के लिये किया था?

     नहीं जी.

     रामको तो सुविधा का मोह था तो सत्ताका मोह था.

     अगर वे चाहते तो १४ सालका वनवास स्विकारते ही नहीं. अपने पार्शदों द्वारा जनतासे आंदोलन करवाते और अयोध्यामें ही रुक जाते.

     अगर ऐसा नहीं करते तो भी जब भरत वापस आता है और  रामको विनति करता है कि, वे अयोध्या वापस आजाय और राजगद्दी का स्विकार कर लें, तब भी राम भरतकी बात मान सकते थे. लेकिन रामने दशरथके वचनका पालन किया. और अपने निर्णयमें भी अडग रहे.

रामने वचन निभाया.

     रामने अपने पुरखोंका वचन निभाया. अपना वचन भी निभाया. अगर राम चाहते तो वालीका राज्य स्वहस्तगत कर सकते थे. अगर राम चाहते तो रावणकी लंकाका राज्य स्वहस्तगत कर सकते थे. उसके लिये कुछभी बहाना बना सकते थे. लेकिन रामने प्रणालीयां निभायी और एक आदर्श राजा बने रहे.

ईन्दीरा गांधीने क्या किया?

     नहेरुने भारतकी संसदके सामने प्रतिज्ञा ली थी कि, वे और उसका पक्ष, चीनके साथ युद्धमें हारी हुई जमीन को वापस प्राप्त किये बीना आराम नहीं करेगा. नहेरुको तो वार्धक्यके कारण बुलावा गया. लेकिन ईन्दीरा गांधीने तो १६ साल तक शासन किया. परंतु इस प्रतिज्ञाका पालन तो क्या उसको याद तक नहीं किया.

     ईन्दीराने खुद जनताको आश्वस्त किया था कि वह एक करोड बंगलादेशी घुसपैठोंको वापस भेज देगी. लेकिन उसने वोंटबेंककी राजनीतिके तहत उनको वापस नहीं भेजा.

     पाकिस्तानने आखिरमें भारत पर हमला किया तब ही ईन्दीरा गांधीने जनताके और लश्करके दबावके कारण युद्धका आदेश दिया. भारतके जवानोंने पाकिस्तानको करारी हार दी.

     याद करो, तब ईन्दीरागांधीने और उसके संरक्षण मंत्रीने एलान किया था कि अबकी बार पाकिस्तानके साथ पेकेजडील किया जायगा और इसके अंतर्गत दंड, नुकशान वसुली, १९४७१९५० अंतर्गत पाकिस्तानसे आये भारतीय निर्वासितों की संपत्तिकी किमत वसुली और उनकी समस्याओंका समाधान, पाकिस्तान स्थित हिन्दु अल्पसंख्यकोंकी सुरक्षा और उनके हितोंकी रक्षा, पाकिस्तानमें भारत विरुद्ध प्रचार अभियान पर कडी पाबंदी, पाकिस्तान की जेलों कैद भारतीय नागरिकोंकी मुक्ति, पाकिस्तानी घुसपैठीयोंकी वापसी, काश्मिरकी लाईन ओफ कन्ट्रोलको कायमी स्विकार और भारतके साथ युद्धनहीं का करार. ऐसा पेकेज डील पर हस्ताक्षर करने पर ही पाकिस्तानी युद्ध कैदीयों की मुक्ति और जमीन वापसी पर डील किया जायेगा.

     लेकिन ईन्दीरा गांधीने इस पेकेज डील किया नहीं और वचन भंग किया. इतना ही नहीं जो कुछ भी जिता था वह सब बीना कोई शर्त वापस कर दिया.

     नहेरु और ईन्दीराने गरीबी हटानेका वचन दिया था वह भी एक जूठ ही था.

     ईंदीरा गांधीका चूनाव संविधान अंतर्गत स्थापित प्रणालीयोंसे विरुद्ध था. न्यायालयने ईन्दीरा गांधीका चूनाव रद किया और उसको संसद सदस्यता के लिये सालके लिये योग्यता हीन घोषित किया.

प्रणालीयोंका अर्थघटन करनेका अंतिम अधिकार उच्चन्यायालय का है. यह भी संविधानसे स्थापित प्रणाली है.

     अगर इन प्रणालीयोंको बदलना है तो शासक का यह अधिकार नहीं है. लेकिन ईन्दीरागांधीने अपनी सत्ता लालसा के कारण, इन प्रणालीयोंको बदला. वह शासनपर चालु रही. और उसने आपतकाल घोषित किया. जनताके अधिकारोंको स्थगित किया. विरोधीयोंको कारावासमें बंद किया. यह सब उसने अपनी सत्ता चालु रखने के लिये किया. ये सब प्रणालीयोंके विरुद्ध था.

प्रणाली बदलनेकी आदर्श प्रक्रिया क्या है?

     प्रजातंत्रमें प्रणालीयोंमे संशोधन प्रजाकी तरफसे ही आना चाहिये. उसका मुसद्दा भी प्रजा ही तयार करेगी.  

     रामने तो सीताको वापस लाने के लिये या तो उसको शुद्ध साबित करने के लिये कुछ भी किया नहीं. तो उन्होने कुछ करवाया. तो रामने अपने विरोधीयोंको जेल भेजा.

तो हुआ क्या?

     सीता जो वाल्मिकीके आश्रममें थी. वाल्मिकीने सीतासे सारी बाते सूनी और वाल्मिकीको लगा की सीताके साथ न्याय नहीं हुआ है. इसलिये उन्होने एक महाकाव्य लिखा. और इस कथाका लव और कुशके द्वारा जनतामें प्रचार करवाया और जनतामें जागृति लायी गई. और जनताने राम पर दबाव बनाया.

     लेकिन जिस आधार पर यानी कि, जिस तर्क पर प्रणालीका आधार था, वह तर्कको कैसे रद कर सकते है? नयी कौनसी प्रणाली स्थापित की जाय की जिससे सीताकी शुद्धता सिद्ध की जाय.

     जैसे राम शुद्ध थे उसी आधार पर सीता भी शुद्ध थी. वाल्मिकी और उनका पूरा आश्रम साक्षी था. और यह प्रक्रियाको वशिष्ठने मान्य किया.

     इस पूरी प्रक्रियामें आप देख सकते हैं कि रामका कोई दबाव नहीं है. रामका कोई आग्रह नहीं है. इसको कहेते हैं आदर्श शासक.

रामका आदर्श अभूत पूर्व और अनुपमेय है.

RAMA KEEPS SITA IN VALMIKI ASHRAM

पत्नीके साथ अन्याय?

     रामने सीताका त्याग किया तो क्या यह बात सीताके लिये अन्याय पूर्ण नहीं थी?

सीता तो रामकी पत्नी भी थी. सीताके पत्नी होनेका अधिकारका हनन हुआ था उसका क्या?

इस बातके लिये कौन दोषित है?

राम ही तो है?

रामने पतिधर्म क्यों नहीं निभाया?

रामको राजगद्दी छोड देनी चाहिये थी. रामने राजगद्दीका स्विकार किया और अपने पतिधर्मका पालन नहीं क्या उसका क्या?

रामका राज धर्म और रामका पतिधर्म

     रामकी प्राथमिकता राजधर्मका पालन करनेमें थी. राम, दशरथराजाके ज्येष्ठपुत्र बने तबसे ही रामके लिये प्राथमिक धर्म निश्चित हो गया था कि, उनको राजधर्मका पालन करना है. यह एक राजाके ज्येष्ठपुत्रके लिये प्रणालीगत प्राथमिकता थी.

     सीता रामकी पत्नी ही नहीं पर प्रणाली के अनुसार रानी भी थी. अगर रानी होनेके कारण उसको राज्यकी सुविधाओंके उपभोगका अधिकार मिलता है तो उसका भी धर्म बनता है कि, राजा अगर प्रणालीयोंके पालन करनेमें रानीका त्याग करें तो रानी भी राजाकी बातको मान्य करें. राजा और रानी प्रणालीयोंके पालनके मामलेमें पलायनवादका आचरण करें.

सीता भी हाडमांसकी बनी हुई थी

      रामायणकी कथा, हाडमांससे बने हुए मानवीय समाजकी एक ऐतिहासिक महाकथा है. सीता भी हाडमांसकी बनी हुई थी. उसने अपने हाडमांसके नातेसे सोचा की यह क्या बात हुई जो शुद्धताकी बात इतनी लंबी चली! यदि ऐसा ही चलते रहेगा तो मुझे क्या बार बार शुद्धताका प्रमाण पत्र लेते रह्ना पडेगा?

     सीता कोई खीणमें पडकर आत्महत्या कर लेती है.

     जनक राजाको यह सीता खेतकी धरती परसे प्राप्त हुई थी. वह सीता धरतीमें समा गयी. कविने उसको काव्यात्मक शैलीमें लिखा की अन्याय के कारण भूकंप हुआ और धरतीमाता सिंहासन लेके आयी और अपनी पुत्रीको ले के चली गई.

     रामने अपनी महानता दिखायी. सीताने भी अपनी महानता दिखाई.

क्या रामके लिये यह एक आखरी अग्निपरीक्षा थी. नहीं जी. और भी कई पडाव आये जिसमें रामके सामने सिद्धांतोकी रक्षाके लिये चूनौतियां आयीं.

(क्रमशः)

 

शिरीष मोहनलाल दवे

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