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कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता? (भाग-१)

कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता? (भाग-१)

“स्वतंत्रता” शब्द पर अत्याचार

paise pe paisa

हमारा काम केवल प्रदर्शन करना है चर्चा नहीं

हमें चाहिये आज़ादी केवल प्रदर्शन के लिये 

कोंगी तो कोमवादी और उन्मादी (पागल) है. साम्यवादीयोंकी तो १९४२से ऐसी परिस्थिति है. किन्तु इन दोनोंमें भेद यह है कि साम्यवादी लोग तो १९४२के पहेलेसे उन्मादी है. उनके कोई सिद्धांत नहीं होते है. वे तो अपनी चूनावी कार्यप्रणालीमें प्रकट रुपसे कहेते है कि यदि आप सत्तामें नहीं है, तो  जनताको विभाजित करो, अराजकता पैदा करो, लोगोंमें  भ्रामक प्रचार द्वारा भ्रम फैलाओ, उनको असंजसमें डालो, और जनतंत्रके नाम पर जनतंत्रके संविधानके प्रावधानोंका भरपूर लाभ लो और तर्कको स्पर्ष तक मत करो. यदि आप सत्तामें है तो असंबद्ध और फर्जी मुद्दे उठाके जनतामें  अत्यधिक ट्रोल करो और  स्वयंने किये हुए निर्णय कितने महत्त्वके है वह जनताको दिखाके भ्रम फैलाओ. पारदर्शिता तो साम्यवादीयोंके लहुमें नहीं है. उनकी दुनियानें तो सब कुछ “नेशनल सीक्रेट” बन जाता है. समाचार माध्यमोंको तो साम्यवादी सरकार भेद और दंडसे अपने नियंत्रणमें रखती है. “भयादोहन (ब्लेक मेल)” करना और वह भी विवादास्पद बातोंको हवा देना आम बात है.

उन्नीसवी शताब्दीके उत्तरार्धमें और बीसवीं शातब्दीके पूर्वार्धमें युवावर्गमें “समाजवादी होना” फैशन था. युवा वर्गको अति आसानीसे पथभ्रष्ट किया जा सकता है. उनके शौक, आदतें बदली जा सकती है. उनको आसानीसे  प्रलोभित किया जा सकता है.

युवा वर्ग आसानीसे मोडा जा सकता है

आज आप देख रहे है कि सारी दुनियाके युवावर्गने दाढी रखना चालु कर दिया है. (वैसे तो नरेन्द्र मोदी भी दाढी रखते है. किन्तु वे तो ४० वर्ष पूर्वसे ही दाढी रखते है). बीस सालसे नरेन्द्र मोदी प्रख्यात है. किन्तु युवावर्गने दाढी रखनेकी फैशन तो दो वर्षसे चालु की है. और दाढीकी फैशन महामारीसे भी अधिक त्वरासे  फैल गयी है. सारे विश्वके युवा वर्ग दाढीकी फैशनके दास बन गये है. यही बात प्रदर्शित करती है कि युवा वर्ग कितनी त्वरासे फैशनका दासत्व स्विकार कर लेता है.

उसको लगता है कि वे यदि फैशनकी दासताका स्विकार नहीं करेगा तो वह अस्विकृतिके संकटमें पड जाएगा. ऐसी मानसिकताको “क्राईसीस ऑफ आडेन्टीफीकेशन” कहा जाता है.

छोडो यह बात. इनकी चर्चा हम किसी और समय करेंगे.

हमारे नहेरुजी भी समाजवाद (साम्यवाद)के समर्थक थे और साम्यवादीयोंके भक्त थे.

नहेरु न तो महात्मा गांधीके सर्वोदय-वादको समज़ पानेमें सक्षम थे न तो वे अपना समाजवाद महात्मा गांधीको समज़ानेके लिये सक्षम थे. गांधीजीने स्वयं इस विषयमें कहा था कि उनको जवाहरका समाजवाद समज़में नहीं आता है. नहेरु वास्तवमें अनिर्णायकता के कैदी  थे. जब प्रज्ञा सक्षम नहीं होती है, स्वार्थ अधिक होता है तो व्यक्ति तर्कसे दूर रहेता है. वह केवल अपना निराधार तारतम्य ही बताता है. नहेरु कोई निर्णय नहीं कर सकते थे क्यों कि उनकी विवेकशीलतासे कठोर समस्याको समज़ना उनके लिये प्राथमिकता नहीं थी. इस लिये वे पूर्वदर्शी नहीं थे. निर्णायकतासे अनेक समस्याएं उत्पन्न होती है. कोई भी एक समस्यामें जब प्रलंबित अनिर्णायकता रहती है तब उसको दूर करना असंभवसा बन जाता है.

नहेरुकी अनिर्णायक्तासे कितनी समस्या पैदा हूई?

कश्मिर, अनुच्छेद ३७०/३५ए को हंगामी के नाम पर संविधानमें असंविधानिक रीतिसे समावेश करना और फिर “हंगामी”शब्द को दूर भी नहीं करना और इसके विरुद्ध का काम भी नहीं करना, यह स्थिति नहेरुकी  घोर अनिर्णायकताका उदाहरण है. कश्मिरमें जनतंत्रको लागु करनेका काम ही नहीं करना, यह कैसी विडंबना थी? नहेरुने इस समस्याको सुलज़ाया ही नही.

अनुच्छेद ३७० कश्मिरको (जम्मु कश्मिर राज्यको) विशेष स्थिति देता है. किन्तु कश्मिरकी वह विशिष्ठ स्थिति क्या जनतंत्र के अनुरुप है?

नहीं जी. इस विशिष्ठ स्थिति जनतंत्रसे सर्वथा विपरित है. अनुछेद ३७० और ३५ए को मिलाके देखा जाय तो यह स्थिति जन तंत्रके मानवीय अधिकारोंका सातत्यपूर्वक हनन है. १९४४में ४४०००+ दलित  कुटुंबोको सफाई कामके लिये उत्तर-पश्चिम भारतसे बुलाया गया था. १९४७से पहेले तो कश्मिरमें जनतंत्र था ही नहीं. १९४७के बाद इस जत्थेको राज्यकी  नागरिकता न मिली. उतना ही नहीं उसकी पहेचान उसके धर्म और वर्णसे ही की जाने लगी. तात्पर्य यह है कि वे दलित (अछूत) ही माने जाने लगे. और उसका काम सिर्फ सफाई करनेका ही माना गया. क्यों कि वे हिन्दु थे. और तथा कथित हिन्दु प्रणालीके अनुसार उनका काम सिर्फ सफाई करना ही था. वैसे तो गांधीजीने इनका लगातार विरोध किया था और उनके पहेले कई संतोंने किसीको दलित नहीं माननेकी विचारधाराको पुरष्कृत किया था. ब्रीटीश इन्डियामें भी दलितको पूरे मानवीय अधिकार थे. लेकिन कश्मिरमें और वह भी स्वतंत्रत भारतके कश्मिरमें उनको जनतंत्रके संविधानके आधार पर दलित माने गये. यदि वह दलित कितना ही पढ ले और कोई भी डीग्री प्राप्त करले तो भी वह भारत और कश्मिरके जनतंत्रके संविधानके आधार पर वह दलित ही रहेगा, वह सफाईके अलावा कोई भी व्यवसायके लिये योग्य नहीं माना जाएगा. इन दलितोंकी संतान चाहे वह कश्मिरमें ही जन्मी क्यों न हो, उनको काश्मिरकी नागरिकतासे, जनतंत्रके संविधानके आधार पर ही सदाकालके लिये  वंचित ही रक्खा जायेगा.

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागको अन्यसे भीन्न समज़ सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागको वंशवादी पहेचान दे सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागके उपर उनकी जाति ठोप सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागके उपर केवल उन विभागके लिये ही भीन्न और अन्यायकारी प्रावधान रख सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागके लोगोंको और उनकी संतानोंको मताधिकार से वंचित रख सकता है.

यदि आप जनतंत्रके समर्थक है और आप “तड और फड” (बेबाक और बिना डरे) बोलने वाले है  तो आप क्या कहेंगे?

क्या आप यह कहेंगे कि कश्मिरमें अनुच्छेद ३७०/३५ए हटानेसे कश्मिर में जनतंत्र पर आघात्‌ हुआ है?

यदि कोई विदेशी संस्था भी भारत द्वारा कश्मिरमें “अनुच्छेद ३७०/३५ए” की हटानेकी बातको “जनतंत्र पर आघात” मानती है तो आप उस विदेशी संस्थाके लिये क्या कहोगे?

चाहे आप व्याक्यार्ध (वृद्धावस्था)से पीडित हो, तो क्या हुआ? यदि आप युवावस्थाकी छटपटाहतसे लिप्त हो, तो क्या हुआ? जनतंत्रके सिद्धांत तो आपके लिये बदलनेवाले नहीं है.

यदि आप जनतंत्रवादी है, तो आप अवश्य कहेंगे कि भारतने जो अनुच्छेद ३७०/३५ए हटानेका काम किया है वह जनतंत्रकी सही भावनाको पुरष्कृत करता है और कश्मिरमें वास्तविक जनतंत्रकी स्थापना करता है. काश्मिरको गांधीजीके जनतंत्रके सिद्धांतोंसे  समीप ले जाता है. नहेरुकी प्रलंबित रक्खी समस्याका निःरसन करता है. भारतके जनतंत्र के उपर लगी कालिमाको दूर करता है. जो भी व्यक्ति जनतंत्रके ह्रार्दसे ज्ञात है, वह ऐसा ही कहेगा.

यदि वह इससे विपरित कहेता है, तो वह या तो अनपढ है, या तो उसका हेतु (एजन्डा) ही केवल स्वकेद्री राजकारण है या तो वह मूढ या घमंडी है. उसके लिये इनके अतिरिक्त कोई विशेषणीय विकल्प नहीं है.

दीर्घसूत्री विनश्यति (प्रलंबित अनिर्णायकता विनाश है)

लेकिन कुछ लोग पाकिस्तानकी भाषा बोलते है. इनमें समाचार माध्यम भी संमिलित है. कश्मिर समस्या के विषयमें यु.नो.को घसीटनेकी आवश्यकता नहीं. यु.नो.को जो करना था वह कर दिया. उस समय जो उसके कार्यक्षेत्रमें आता था वह कर दिया. युनोका तो पारित प्रस्ताव था कि, पाकिस्तान काश्मिरके देशी राज्यके अपने कब्जेवाला हिस्सा खाली करें और भारतके हवाले कर दें. उस हिस्सेमें कोई सेनाकी गतिविधि न करें … तब भारत उसमें जनमत संग्रह करें. पाकिस्तानने कुछ किया नहीं. नहेरुने पाकिस्तानके उपर दबाव भी डाला नहीं. भारत सरकारने भारत अधिकृत काश्मिरके साथ जो अन्य देशी राज्योंके साथ किया था वही किया. केवल पाकिस्तान अधिकृत कश्मिरका हिस्सा छूट गया. नहेरुने इस समस्याको अपनी आदतके अनुसार प्रलंबित  रक्खा. आज हो रहे “हल्ला गुल्ला” की जड, नहेरुकी दीर्घसूत्री कार्यशैली है.

पाकिस्तानका जन्मः

पाकिस्तान का जन्म बहुमत मुस्लिम क्षेत्रके आधार पर हुआ वह अर्ध-सत्य है. जो मुस्लिम मानते थे कि वे बहुमत हिन्दु धर्म वाली जनताके शासनमें अपने हित की रक्षा नहीं कर सकते, उनके लिये बहुमत मुस्लिम समुदायवाले क्षेत्रका पाकिस्तान बनाया जाय. इन क्षेत्रोंको भारतसे अलग किया. जो मुस्लिम लोग उपरोक्त मान्यतावाले थे, वे वहां यानी कि पाकिस्तान चले गये. जो ऐसा नहीं मानते थे, वे भारतमें रहे. पाकिस्तानमें रहेनेवाले बीन-मुस्लिमोंको भारत आने की छूट थी. १९५० तक देशकी सीमाको स्थानांतरके लिये खुला छोड दिया था.

पाकिस्तानमें बीन-मुस्लिम जनताका उत्पीडन १९४७ और १९५०के बाद भी चालु रहा. इसके अतिरिक्त भी कई समस्यायें थी. गांधीजीने कहा था कि हम किसीको भी अपना देश छोडनेके लिये बाध्य नहीं कर सकते. पाकिस्तानमें जो अल्पसंख्यक रह रहे है उनकी सुरक्षाका उत्तरदायित्व पाकिस्तानकी सरकारका है. यदि पाकिस्तान की सरकार विफल रही तो, भारत उसके उपर चढाई करेगा.

नहेरु – लियाकत अली करार नामा

इसके अनुसार १९५४में दोनो देशोंके बीच एक समज़ौताका दस्तावेज बना. जिनमें दोनों देशोंने अपने देशमें रह रहे अल्पसंख्यकोके हित की सुरक्षाके लिये प्रतिबद्धता जतायी. 

नहेरुने लियाकत अलीसे पाकिस्तानसे पाकिस्तानवासी हिन्दुओंकी सुरक्षाके लिये सहमति का (अनुबंध) करारनामा किया.

किन्तु तत्‌ पश्चात्‌ नहेरुने उस अनुबंधका पालन होता है या नहीं इस बातको उपेक्षित किया. पाकिस्तान द्वारा पालन न होने पर भी पाकिस्तानके उपर आगेकी कार्यवाही नहीं की, और न तो नहेरुने इसके उपर जाँच करनेकी कोई प्रणाली बनाई.

नहेरु-लियाकत अली करारनामा के अनुसंधानमें सी.ए.ए. की आवश्यकताको देखना, तर्क बद्ध है और अत्यंत आवश्यक भी है.

नहेरुने अपनी आदत के अनुसार पाकिस्तानसे प्रताडित हिन्दुओंकी सुरक्षाको सोचा तक नहीं. जैसे कि कश्मिर देशी राज्य पर पाकिस्तानके आक्रमणके विरुद्ध यु.नो. मे प्रस्ताव पास करवा दिया. बस अब सब कुछ हो गया. अब कुछ भी करना आवश्यक नहीं. वैसे ही लियाकत अलीसे साथ समज़ौताका करारनामा हो गया. तो समज़ लो समस्या सुलज़ गयी. अब कुछ करना धरना नहीं है.   

भारतदेश  इन्डो-चायना युद्धमें ९२००० चोरसमील भूमि हार गया. तो कर लो एक प्रतिज्ञा संसदके समक्ष. नहेरुने लेली एक प्रतिज्ञा कि जब तक हम खोई हुई भूमि वापस नहीं लेंगे तब तक चैनसे बैठेंगे नहीं. संसद समक्ष प्रतिज्ञा लेली, तो मानो भूमि भी वापस कर ली.

इन्दिरा घांडी भी नहेरुसे कम नहीं थी.

इन्दिराने भी १९७१के युद्ध के पूर्व आये  एक करोड बंग्लादेशी निर्वासितोंकों वापस भेजनेकी प्रतिज्ञा ली थी, इस प्रतिज्ञाके बाद इन्दिराने इस दिशामें कोई प्रयास किया नहीं. और इस कारण और भी घुसपैठ आते रहे. समस्याओंको  प्रलंबित करके समस्याओंको बडा और गंभीर होने दिया. यहाँ तककी उसके बेटे राजिवने १९८४में एक संविदा पर प्रतिज्ञा ली के देश इन घुसपैठीयोंको कैसे सुनिश्चित करेगा. पर इसके उपर कुछ भी कार्यवाही न की. १९८९-९०में कश्मिरमें कश्मिरस्थ मुस्लिमों द्वारा, हजारों हिन्दुओंका संहार होने दिया, हजारों हिन्दु  स्त्रीयोंका शील भंग होने दिया,  लाखों हिन्दुओं को खूल्ले आम, कहा गया कि इस्लाम अंगीकार करो या मौतके लिये तयार रहो या घर छोड कर भाग जाओ. इस प्रकार उनको बेघर कर होने दिया. इसके उपर न तो जांच बैठाई, न तो किसीको गिरफ्तार किया, न तो किसीको कारावासमें भेजा.

इतने प्रताडनके बाद भी किसी भी हिन्दुने हथियार नहीं उठाया, न तो एक अरब हिन्दुओंमेंसे कोई आतंक वादी बना.

तो कोंगीयोंने क्या किया?

कोंगीयोंने इस बात पर मुस्लिमोंकी आतंक वादी घटनाओंको “हिन्दु आतंकवाद” की पहेचान देनेकी भरपुर कोशिस की. जूठ बोलनेकी भी सीमा होती है. किन्तु साम्यवादीयोंके लिये और उन्ही के संस्कारवाले कोंगीयोंके लिये जूठकी कोई सीमा नहीं होती.

सी.ए.ए. के विरोधमें आंदोलनः

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

अनुसंधान (गुजराती लेख)

https://treenetram.wordpress.com/2017/02/05/સુજ્ઞ-લોકોની-કાશ્મિર-વિષ/

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बीजेपीकी पराजय ही हमारी विजय है

बीजेपीकी पराजय ही हमारी विजय है

याद करो पाकिस्तानी शासकोंकी संस्कृति “भारतकी पराजय ही हमारी विजय है”

जब हम क्रिकेटकी बात करते हैं तो पाकिस्तानके जनमानसमें यह बात सहज है कि चाहे पाकिस्तान विश्वकपकी अंतिम स्पर्धामें पराजित हो जाय, या पाकिस्तान सुपरसीक्समेंकी अंतिम स्पर्धामें भी हार जाय, तो भी हमें हमारी इन पराजयोंसे दुःख नहीं किन्तु भारत और पाकिस्तानकी जब स्पर्धा हो तो भारतकी पराजय अवश्य होनी चाहिये. भारतकी पराजयसे हमें सर्वोत्तम सुखकी अनुभूति होती है.

TRAITOR

ऐसी ही मानसिकता भारतमें भी यत्‌किंचित मुसलमानोंकी है. “यत्‌ किंचित” शब्द ही योग्य है. क्यों कि मुसलमानोंको भी अब अनुभूति होने लगी है है कि उनका श्रेय भारतमें ही है. तो भी भारतमें ओवैसी जैसे मुसलमान मिल जायेंगे  जो कहेंगे कि “यदि पाकिस्तान भारत पर आक्र्मण करें, तो भारत इस गलतफहमीमें न रहे कि भारतके मुसलमान भारतके पक्षमें लडेंगे. भारतके मुसलमान पाकिस्तानी सैन्यकी ही मदद करेंगे.” ओवैसीका और कुछ मुल्लाओंका हिन्दु-मुस्लिम संबंधोंका इतिहासका ज्ञान कमज़ोर है, क्यूं कि भारतका हिन्दु-मुस्लिम संबंधोंका इतिहास ओवैसीकी मान्यताको पुष्टि नहीं करता. जब हम ओवैसी को याद करें तो हमें तारेक फतह को भी याद कर लेना चाहिये.

 उपरोक्त मानसिकताके पोषणदाता नहेरुवीयन्स और नहेरुवीयन कोंग्रेस है. ऐसी मानसिकता  केवल मुसलमानोंकी ही है, ऐसा भी नहीं है. अन्य क्षेत्रोमें यत्‌किंचित भीन्न भीन्न नेतागणकी भी है.

ऐसी मानसिकता रखनेवालोंमें सबसे आगे साम्यवादी पक्ष है.

साम्यवादी पक्ष स्वयंको समाजवादी मानता है. समाजवादमें केन्द्रमें मानवसमाज होता है. और तत्‌ पश्चात मनुष्य स्वयं होता है. इतना ही नहीं साम्यवादके शासनमें पारदर्शिता नहीं होती है. साम्यवादी शासनमें नेतागण अपने लिये कई बातें गोपनीय रखते हैं इन बातोंको वे राष्ट्रीय हितके लिये गोपनीय है ऐसा घोषित करते है. इन गोपनीयताको मनगढंत और मनमानीय ढंगसे गुप्त रखते हैं.

दुसरी खास बात यह है कि ये साम्यवादी लोग साधन शुद्धिमें मानते नहीं है. तात्पर्य यह है कि ये लोग दोहरे या अनेक भीन्न भीन्न मापदंड रखते हैं और वे अपनी अनुकुलताके आधार पर मापदंडका चयन करते है. उनका पक्ष अहिंसामें मानता नहीं है, किन्तु दुसरोंकी तथा कथित या कथाकथित हिंसाकी  निंदा वे बडे उत्साह और आवेशमें आकर करते हैं. उनका स्वयंका पक्ष वाणी-स्वातंत्र्यमें मानता नहीं है, किन्तु यदि वे शासनमें नहीं होते हैं तो वे  कथित वाणी स्वातंत्र्यकी सुरक्षाकी बातें करते है और उसके लिये आंदोलन  करते हैं. यदि उनके पक्षका शासन हो तो वे विपक्षके वाणी स्वातंत्र्य और आंदोलनोंको पूर्णतः हिंसासे दबा देतें हैं.

जब साम्यवादी पक्षका शासन होता है, तब ये साम्यवादी लोग, अपना शासन अफवाहों पर चलाते है. साम्यवादी शासित राज्योंमें उनके निम्नस्तरके नेतागण तक भ्रष्टाचार करते हैं. साम्यवादीयोंकी अंतर्गत बातें राष्ट्रीय गोपनीयताकी सीमामें आती है. किन्तु यही लोग जब विपक्षमें होते है तो पारदर्शिताके लिये बुलंद आवाज़ करते है.

साम्यवादका वास्तविक स्वरुप क्या है?

वास्त्वमें साम्यवाद, “अंतिमस्तरका पूंजीवाद और निरंकुश तानाशाहीका अर्वाचीन मिश्रण है.” इसका अर्थ यह है कि शासकके पास उत्पादन, वितरण और शासनका नियंत्रण होता है. यह बात साफ है कि एक ही व्यक्ति सभी कार्यवाही पर निरीक्षण नहीं कर सकता. इसके लिये पक्षके सारे नेता गण अपने अपने क्षेत्रमें मनमानी चलाते है और भ्रष्टाचार भी करते हैं. भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी अंतिम स्तर तक पहूंच जाती है. किन्तु साम्यवादीयोंको इसकी चिंता नहीं होती है. क्यों कि वे पारदर्शितामें मानते नहीं है, इस लिये साम्यवादके शासनमें सभी दुष्ट बातें गुप्त रहती है.

हमने देखा है कि पश्चिम बंगालमें २५ साल नहेरुवीयन कोंग्रेसका और तत्‌पश्चात्‌ ३३ साल साम्यवादीयोंका शासन रहा. इनमें नहेरुवीयन कोंग्रेस प्रच्छन्न साम्यवादी सरकार थी और ज्योतिर्‍ बसु और बुद्धदेव बसु तो स्वयं सिद्ध नामसे भी साम्यवादी थे. १९४७में भी पश्चिम बंगाल राज्य एक बिमारु राज्य था और आज भी वह बिमारु राज्य है. १९४७में भी पश्चिम बंगालमें, रीक्षा आदमी अपने हाथसे खिंचता था और आज २०१७में भी रीक्षा आदमी खिंचता है.

आप पूछेंगे कि जिस देशमें साम्यवादी शासन विपक्षमें है तो वहां साम्यवादी पक्ष क्या कभी  शासक पक्ष बन सकता है?

हां जी. और ना जी.

साम्यवादी पक्ष की विचार प्रणालीयोंका हमें विश्लेषण करना चाहिये.

जब कहीं साम्यवादी पक्षका शासन नहीं होता है तो वे क्या करते हैं?

साम्यवादीयोंका प्रथम कदम है कि देशमें असंतोष और अराजकता फैलाना

असंतोष कैसे फैलाया जा सकता है?

समाजका विभाजन करके उनके विभाजित अंशोंमें जो बेवकूफ है उनमें इस मानसिकताका सींचन करो कि आपके साथ अन्याय हो रहा है.

भारतीय समाजको कैसे विभाजित किया जा सकता है?

भारतीय समाजको ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शुद्र, हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई, घुसपैठी, शिख, दलित, भाषावादी, पहाडी, सीमावर्ती, ग्राम्य, नगरवासी, गरीब, मध्यम वर्गी, धनिक, उद्योगपति, श्रमजिवी, कारीगर, पक्षवादी, अनपढ, कटार लेखक (वर्तमान पत्रोंके कोलमीस्ट), युवा, स्त्री, आर्य, अनार्य, काले गोरे,  आदिमें विभाजित किया जा सकता है.  इन लोगोंमें जो बेवकुफ और नासमज़ है उनको उकसाया जाता है.

कैसे फसाया जाता है?

यादव, जाट, ठाकुर, नीनामा, दलित आदि लोगोंने जो आंदोलन चलाये वे तो सबने देखा ही है.

वैश्योंमें जैनोंको कहा गया कि तुम हिन्दुओंसे भीन्न हो. तुम अल्पसंख्यकमें आ जाओ.

मुस्लिमोंको कहा कि ये घुसपैठी लोग तो तुम्हारे धर्मवाले है, उनका इस देशमें आनेसे तुम्हारी ताकत बढेगी.

पहाडी, वनवासी, सीमावर्ती क्षेत्रवासी, दलित आदि लोगोंको कहा कि तुम तो इस देशमे मूलनिवासी हो, इन आर्यप्रजाने तुह्मारा हजारों साल शोषण किया है. हम दयावान है, तुम ईसाई बन जाओ और एक ताकतके रुपमें उभरो. वॉटबेंक तुम्हारी ताकत है. तुम इस बातको समज़ो.

“दुश्मनका दुश्मन मित्र”

चाणक्यने उपरोक्त बात देशके हितको ध्यानमें रखके कही थी. किन्तु प्रच्छन्न और अप्रच्छन साम्यवादी लोगोंने यह बात स्वयंके और पक्षके स्वार्थके लिये अमल किया और यह उनकी आदत है.

ऐसी कई बातें आपको मिलेगी जो देशकी जनताको विभाजित करनेमें काम आ सकतीं हैं.

युवा वर्गको बेकारीके नाम पर और उनकी तथा कथित परतंत्रिता पर बहेकाया जा सकता है. उनको सुनहरे राजकीय भविष्यके सपने दिखाकर बहेकाया जा सकता है.

जो कटार लेखक विचारशील और तर्कशील नहीं है, लेकिन जिनमें बिना परिश्रम किये ख्याति प्राप्त करनी है, उनको पूर्वग्रह युक्त बनाया जाता है. उन लोगोंमें खास दिशामें लिखनेकी आदत डाली जाती है और वे नासमज़ बन कर उसी दिशामें लिखने की आदतवाले बन जाते है.

जैसे कि, 

डीबी (दिव्य भास्कर)

डीबी (दिव्य भास्कर)में ऐसे कई कटार लेखक है जो हर हालतमें बीजेपीके विरुद्ध ही लिखनेकी आदत बना बैठे हैं. उनके “तंत्री लेख”के निम्न दर्शित अवतरणसे आपको ज्ञात हो जायेगा कि यह महाशय कितनी हद तक पतित है.

आपने “कन्हैया”का नाम तो सुना ही होगा, जो समाचार माध्यमों द्वारा पेपरका शेर (पेपर टायगर) बना दिया गया था.  कन्हैयाके जुथने (जो साम्यवादीयोंकी मिथ्या विचारधारासे  बना है) भारतके विरुद्ध विष उगलने वाले नारे लगाये थे.

उमर खालिद और कई उनके साथी गण “पाकिस्तान जिंदाबाद, भारत तेरे टूकडे होगे, हमें चाहिये आज़ादी, छीनके लेंगे आज़ादी, कितने अफज़ल मारोगे, हर घरसे फज़ल निकलेगा, आदि कई सारे सूत्रोच्चार किये थे. कन्हैया उसके पास ही खडा था. न तो उसके मूंहपर नाराजगी थी, न तो उसने सूत्रोच्चार करने वालोंको रोका था, न तो उसने इन सूत्रोच्चारोंसे विपरित सूत्रोच्चार किये, न तो इसने इन देश द्रोहीयोंका विवरण पूलिसको या युनीवर्सीटी के संचालकोंको दिया, न तो इसने बादमें भी ऐसे सूत्रोच्चार करनेवालोंके विरुद्ध कोई उच्चारण किया. इसका मतलब स्पष्ट है कि उसने इन सूत्रोंको समर्थन ही किया.

अब हमारे डीबीभाईने “१ मार्च २०१७” के समाचार पत्र पेज ८, में क्या लिखा है?

तंत्री लेखका शिर्षक है “राष्ट्रप्रेम और गुन्डागर्दी के बीचकी मोटी सीमा रेखा”

विवरणका संदेश केवल  एबीवीपी की गुन्डागर्दीका विषय है.

संदेश ऐसा दिया है कि “सूचित विश्वविद्यालयमें बौधिकतावादी साम्यवादीयोंका अड्डा है और बौद्धिकता जिंदा है. ये लोग जागृत है…

दुसरा संदेश यह है कि “गुजरात यदि शांत है तो यह लक्षण अच्छा नहीं है.” इन महाशयको ज्ञात नहीं कि नवनिर्माणका अभूतपूर्व, न भूतो न भविष्यति, आंदोलन गुजरातमें ही हुआ था और वह कोई स्वार्थ के लिये नहीं किन्तु भ्रष्टाचार हटानेके लिये हुआ था. इतना ही नहीं वह संपूर्ण अहिंसक था और जयप्रकाश नारायण जैसे महात्मा गांधीवादीने इस आंदोलनसे प्रेरणा ली थी. डी.बी. महाशय दयाके पात्र है.

डी.बी. भाई आगे चलकर लिखते है कि “जागृत विद्यार्थीयोंके आंदोलन एनडीए के शासनमें  बढ गये हैं. डीबीभाईने  गुरमहेरका नामका ज़िक्र किया है. क्योंकि एबीवीपीके विरोधियोंको बौद्धिकतावादी सिद्ध करनेके लिये यह तरिका आसान है.

यदि गुरमहेरने कहा कि “मेरे पिताको पाकिस्तानने नहीं मारा लेकिन युद्धने मारा है” तो इसमें बौद्धिकता कहांसे आयी? यदि इसमें “डी.बी.”भाईको बौद्धिकता दिखाई देती है तो उनके स्वयंकी बौद्धिकता पर प्रश्नचिन्ह लगता ही है. भारतीय बल्लेबाज युवराजने गुरमहेरकी इस बातका सही मजाक उडाया है, कि “शतक मैंने नहीं मारा… शतक तो मेरे बल्लेने मारा है”.

पाकिस्तान

एक देश आक्रमणखोर है, वही देश आतंकवादी भी है, उसी देशने भारत पर चार दफा आक्रमण भी किया होता है, उसी देशका आतंक तो जारी ही है. इसके अतिरिक्त भारतीय शासन और भारतके शासक पक्षोंने मंत्रणाओंके लिये कई बार पहेल की है और करते रहते हैं इतना ही नहीं यदि बीजेपीकी बात करें, तो बीजेपीने भारत पाकिस्तानके बीच अच्छा माहोल बनानेका कई बार प्रयत्न किया, तो भी भारत देशमें जो लोग कहेते रहेते है कि “पाकिस्तान जिंदाबाद, भारत तेरे टूकडे होगे, हमें चाहिये आज़ादी, छीनके लेंगे आज़ादी, कितने अफज़ल मारोगे, हर घरसे फज़ल निकलेगा … “ और पाकिस्तानको समर्थन देनेका संदेश देना और कहेना कि “मेरे पिताको पाकिस्तानने नहीं लेकिन युद्धने मारा है” इस बातमें कोई बौद्धिकता नहीं है. जब आपने “पाकिस्तान जिंदाबाद, भारत तेरे टूकडे होगे, हमें चाहिये आज़ादी, छीनके लेंगे आज़ादी, कितने अफज़ल मारोगे, हर घरसे फज़ल निकलेगा … “ इन सूत्रोंका विरोध न किया हो और भारत विरोधी सूत्रोंकी घटनाके बारेमें प्रश्न चिन्ह खडा किया हो, तो समज़ लो कि आप अविश्वसनीय है. गुरमहेरका कर्तव्य था कि वह ऐसे सूत्र पुकारने वालोंके विरोधमें खुलकर सामने आतीं.

वास्तवमें ट्रोल भी ऐसे दोहरे मापदंडों रखने वाले होते है. कन्हैया, उमर खालिद, गुरमहेर आदि सब ट्रोल है. ऐसे बुद्धिहीन लोगोंको ट्रोल बनाना आसान है. समाचर पत्र वाचकगण बढानेके लिये और टीवी चेनलके प्रेक्षकगण बढानेके लिये और अपना एजंडा चलाने के लिये उनके तंत्री के साथ कई कटारीया (कटार लेखक), और एंकर संचालक स्वयं ट्रोल बननेको तयार होते हैं.

डी.बी.भाईने आगे लिखा है “गत वर्षमें देश विरोधी सूत्रोच्चार विवाद के करनेवालोंकी पहेचान नहीं हो सकी है.” डी.बी. भाईके हिसाबसे सूत्रोच्चार हुए थे या नहीं … यह एक विवादास्पद घटना है.

हम सब जानते है कि उमर खालिदकी और उसके साथीयोंकी जो विडीयोक्लीप झी-न्युज़ पर दिखाई गयी थी वह फर्जी नहीं थी. तो भी “डी.बी.भाई” इन सूत्रोच्चारोंको और उनके करनेवालोंको विवादास्पद मानते है. डि.बी.भाईकी अबौद्धिकता और उनके पूर्वग्रहका यह प्रदर्शन है. “डी.बी.भाइ” आगे यह भी लिखते है कि, “उमर खालिद और कन्हैयाको अनुकुलता पूर्वक (एबीवीपी या बीजेपी समर्थकोंने) देशद्रोहीका लेबल लगा दिया. “

डी.बी.भाईका यह तंत्री लेख, पूर्वग्रहकी परिसीमा और गद्दारीकी पहेचान नहीं है तो क्या है?

ये लोग जिनके उपर देशकी जनताको केवल “सीधा समाचार” देनेका फर्ज है वे प्रत्यक्ष सत्य को (देश विरोधी सूत्रोच्चार बोलनेवालोंकी क्लीपको) अनदेखा करके वाणीविलास करते हैं और अपनी पीठ थपथपाते है. महात्मा गांधी यदि जिंदा होते तो आत्महत्या कर लेते, क्यों कि ऐसे समाचार पत्रोंके कटारीया लेखकोंद्वारा जनताको गुमराह करनेका सडयंत्र जो चलता है.

ये लोग ऐसा क्यों करते हैं?

इन्होंने देश दो हिस्सेमें विभाजित हो गया है. नरेन्द्रमोदीके नेतृत्वको माननेवाला बीजेपी और बीजेपी-विरोधी. जो भी देशके विरोधीयोंकी टिका करते है उनको ये अप्रच्छन्नतासे प्रच्छन्न लोग, “मोदी भक्त, बीजेपीवादी, एबीवीपीवादी, असहिष्णु, कोमवादी …” ऐसे लेबल लगा देते है और स्वयंको बुद्धिवादी मानते है.

बीजेपीका मूल्यहीन तरिकोंसे विरोध क्यों?

नहेरुवीयन कोंग्रेस अपने अस्तित्वको खोज रही है. पैसे तो उसने ६० सालके शासनमें बना लिया. लेकिन भ्रष्टाचारके कारण सत्तासे हाथ धोना पडा. भ्रष्टनेतागणसे और वंशवादसे बाहर निकलनेकी उसकी औकात नहीं है.

समाजवादी पक्ष, बीएसपी, एनसीपी, टीएमसी, जेडीयु, एडीएमके, डीएमके, ये सभी पक्ष एक क्षेत्रीय पक्ष और वंशवादी पक्ष बन गये है. उनका सहारा अब केवल साम्यवादी पक्ष बन गया है. उनको अपना अस्तित्व रखना है. हर हालतमें उनको बीजेपीको हराना है चाहे देशमें कुछ भी हो जाय. नहेरुवंशीय शासनके कारण ये सभी पक्षोंकी मानसिकता सत्तालक्षी और स्वकेन्द्री बन गयी है. उनके पास कुछ छूटपूट राज्योंका शासन और  सिर्फ पैसे ही बचे हैं. पैसोंसे वे कटारीया लेखकोंकी ख्याति-भूखको उकसा सकते है, पैसोंसे वे अफवाहें फैला सकते है, सत्यको भी विवादास्पद बना सकते हैं, असत्यको सत्य स्थापित कर सकते हैं.

“वेमुला” दलित नहीं था तो भी उसको दलित घोषित कर दिया और दलितके नाम पर बहूत देर तक इस मुद्देको उछाला और बीजेपीको जो बदनाम करना था वह काम कर दिया.

देश विरोधी नारोंको जो फर्जी नहीं थे और विवादास्पद भी नहीं थे उनको फर्जी बताया और विवादास्पद सिद्धकरनेकी कोशिस की जो आज भी डी.बी. भाई जैसे कनिष्ठ समाचार माध्यम द्वारा चल रही है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसने ६०साल तक हरेक क्षेत्रमें देशको पायमाल किया गया है. नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके सांस्कृतिक अनुयायीओंको, यह बात समज़में नहीं आती कि कोई एक पक्षका एक नेता, दिनमें अठारह घंटा काम करके, ढाई सालमें ठीक नहीं कर सकता. मूर्धन्य लोग यह बात भी समज़ नहीं सकते कि नरेन्द्र मोदी और बीजेपीका कोई उनसे अच्छा विकल्प भी नहीं है. लेकिन ये मानसिक रोगसे पीडित विपक्ष और उसके सहयोगी देशके हितको समज़ने के लिये तयार नहीं है. वे चाहते हैं कि देशमें अराजका फैल जाय और परिणाम स्वरुप हमें मौका मिल जाय कि देखो बीजेपीने कैसी अराजकता फैला दी है.

साम्यवादी लोग देशप्रेम और धर्ममें (रीलीजीयनमें) मानते नहीं है. उनके लिये सैद्धांतिक रीतसे ये दोनों अफीम है. लेकिन ये लोग फिर भी आज़ादी, सहनशीलता, वाणीस्वातंत्र्यकी बात करते है और साथ साथमें देशको तोडनेकी और हिंसाको बढावा देनेकी बातें करते हैं, पत्थरबाजी भी करते हैं या करवाते हैं, मूंह छीपाके देश विरोधी सूत्रोच्चार करते है और जब गिरफ्तार होते है तो जामीन (बेल्स) पर भी जाने लिये तयार होते जाते है. और इन्ही लोगोंको डीबीभाई जैसे समाचार पत्र बुद्धिवादी कहेते हैं. परस्परकी सहायताके लिये साम्यवादी, नहेरुवीयन कोंग्रेस, नहेरुवीयन कोंग्रेसके सांस्कृतिक साथी, कट्टरवादी मुस्लिम, पादरीयोंकी जमात एकजुट होके काम करती है.

इनलोगों द्वारा अपना उल्लु सिधा करने के लिये ट्रोल पैदा किये जाते है. यदि कोई ट्रोल नेता बनने के योग्य हो गया तो वह नहेरुवीयन कोंग्रेस, साम्यवादी और उनके सांस्कृतिक पक्षमे शोभायमान हो जाता है. गुजरातके नवनिर्माणके आंदोलनमें ऐसे कई ट्रोल घुस गये थे, जो आज या तो नहेरुवीयन कोंग्रेसमें शोभायमान है या तो उन्होने नहेरुवीयन कोंग्रेसका सांस्कृतिक पक्ष बना लिया है.

ऐसे कई स्वकेन्द्री ट्रोल जिनमें कि, लालु, नीतीश, मुल्लायम, ममता, अजित सींघ, केज्रीवाल आज शोभायमान है.

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्ज़ः

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अनीतियोंसे परहेज (त्यागवृत्ति) क्यों? जो जिता वह सिकंदर

जब टीम अन्नाने केन्द्रीय मंत्री के समक्ष “जन लोकायुक्त” के विधेयकका प्रारुप (ड्राफ्ट) बनाके प्रस्तूत किया तो मंत्रीने कहा कि आप कौन है हमे यह कहेने वाले कि आप जनताका प्रतिनिधित्व करते है? हमारा उत्तरदायित्व आपसे नहीं है. जनताके वास्तविक प्रतिनिधि तो हम है. इसलिये हम ही लोकायुक्तका विधेयक बनायेंगे. जनताने हमे चूना है. जनताने आपको चूना नहीं है.

अनाधिकार चेष्टाः

प्रसार माध्यमोंकी परोक्ष धारणा और संदेश या प्रयास और नहेरुवीयन कोंग्रेसके आचारणसे  मानो कि, ऐसा ही लगता है यह कोंग्रेस चूनाव जितती ही आयी है इसलिये वह जनप्रतिनिधित्व करती है.

एक बात सही है कि टीम अन्ना संविधानके अंतर्गत चूना हुआ प्रतिनिधित्व नहीं रखती. लेकिन शासक के पास ऐसा मनमानी करनेका अधिकार नहीं है. खासकरके लोकायुक्त के प्रारुपसे संबंध है, टीम अन्ना और शासक (नहेरुवीयन कोंग्रेस) एक समान या तो एक कक्षा पर है या तो टीम अन्ना शासकसे उच्च स्तर पर है. क्युं कि, टीम अन्नाने तो अपना लोकायुक्त-विधेयकका प्रारुप जनताके समक्ष रख दिया था. नहेरुवीयन कोंग्रेसने चूनावके प्रचार के समय अपने विधेयकका प्रारुप कभी भी जनताके सामने रक्खा नहीं था. इसीलिये नहेरुवीयन कोंग्रेसके पास ऐसा कोई अधिकार बनता नहीं है कि वह लोकायुक्त या कोई भी विधेयकके प्रारुपके बारेमें यह सिद्ध कर सके कि उसके पास इस बात पर जनप्रतिनिधित्व है.

दूसरी बात यह है, कि नहेरुवीयन कोंग्रेस वैसे भी पूर्ण बहुमतमें नहीं है. और साथी पक्षोंके साथ मिल कर उसने चूनावके पूर्व ऐसा कोई विधेयकका प्रारुप बनाया नहीं था, न तो किसीने उसको जनतासे उसीके आधार पर मत मांगे थे. इसलिये नहेरुवीयन कोंग्रेस जो बहुमतकी बात करती है वह एक भ्रामक तर्क है. जब जनताके साथ विधेयकके बारेमें पारदर्शिता  ही नहीं है तो काहेका प्रतिनिधित्व हो सकता है?

भ्रष्ट प्रतिनिधित्वः

चूनावमें जो अभ्यर्थी (केन्डीडॅट) है उसके प्रचार के खर्चकी एक सीमा है. यह  सीमा बीसलाख रुपये है.

२० लाख रुपये, एक अत्यधिक रकम है. तो भी जो लोग जानते है वे कहते है कि इससे ज्यादा ही खर्च किया जाता है. अगर देशमें ६६ प्रतिशत लोग गरीबीकी रेखामें आते है तो चूनावमें २०लाख रुपयेका खर्च करने वाला व्यक्ति, जनप्रतिनिधि कैसे हो सकता है? अगर चूनावमें प्रचारके लिये २० लाख रुपयेकी जरुरत पडती है तो २० लाख रुपयेका खर्च करनेवाला अभ्यर्थी जनताके अभिप्रायको कैसे प्रतिबिंबित कर सकता है? इतना ही नहीं इस अभ्यर्थीके पास न तो कोई प्रक्रिया है न तो उसने कभी ऐसी प्रक्रिया स्थापित की होती है कि वह जन अभिप्रायको परिमाणित (क्वान्टीफाय) कर सके और अपना प्रतिनिधित्व सिद्ध कर सके.

इन सब भ्रष्ट प्रावधानोंके बावजुद, नहेरुवीयन कोंग्रेसने कभी लिखित चूनाव प्रावधानोंके अनुसार सुघडतासे  चूनाव जिता नहीं है.

१९५२ का चूनावः

उस समय प्रमुख राजकीय पक्ष जनसंघ, समाजवादी, किसान, रामराज्य, हिन्दुमहासभा और कोंग्रेस (जो उस समय नहेरुवीयन कोंग्रेस बन चुकी थी.) थे.

हर पक्षके लिये अलग अलग मतपेटी रखी जाती थी. बुथ अधिकारीसे एक मत पत्रक ले के बुथके कमरेमें जाके अपना मतपत्र अपने मान्य अभ्यर्थीकी (केन्डीडेटकी) मतपेटीमें डालनेका होता था.

यह एक अत्यंत क्षति युक्त प्रक्रिया थी.

१.      मतदारने अपना मतपत्रक मतकक्षमें रक्खी मतपेटीमें डाला या नहीं वह जाना नहीं जा सकता था. ग्राम्य विस्तारमें और गरीब विस्तारमें कोंग्रेसी लोग मतदारको समझा देते थे कि तुम बिना मतपत्र डाले ही मतकक्षसे बाहर आ जाओ. और हमे वह मतपत्र देदो. हम तुम्हें कुछ दे देंगे. इस प्रकार कोंग्रेसी लोग ऐसे मतपत्रक अपने विश्वासु मतदाताके द्वारा अपनी मत पेटीमें डलवा देते थे.

२.      कस्बे और शहेरी विस्तार जहां लोग कुछ समझदार थे वहां पर वह दुसरे पक्षके अभ्यर्थीकी मतपेटी गूम कर देते थे. मत पेटीयोंका हिसाब नहीं रक्खा जाता था. कई जगह पायखानोंमेंसे और कुडेमेंसे मत पत्रमिले थे.

३.      चूनाव और उसके परिणामकी घोषणा एक साथ नहीं होती थी. जहांपर कोंग्रेसकी जित ज्यादा संभव थी वहां प्रथम चूनाव करके उसके परिणामकी घोषणा कि जाती थी. ता कि, उसका असर दुसरी जगह पड सके.

४.      ऐसी व्यापक शिकायत थी कि, जिस अभ्यर्थी की हवा थी उसके विपरित अभ्यार्थी चूनाव जितते थे.

५.      ४५ प्रतिशत मतदान हुआ था और उसमें भी कोंग्रेसको ४५ प्रतिशतका भी ४५ प्रतिशत मतलब कि २० प्रतिशत मत मिले थे जिसमें फर्जी मत भी सामील थे जो जो अन्य पक्षोंके थे.

६.      कई सारे अपक्ष प्रत्यासी के कारण कोंग्रेसके विरुद्धके मत बिखर जाते थे. ब्रीटीश सरकारके समयमें किये गये स्थानिक सरकारमें कोंग्रेसको हमेशा ७५ प्रतिशतसे ज्यादा मत मिलते थे. यह ४५ प्रतिशत जिसमें ज्यादातर फर्जी मत भी संमिलित थे तो भी उस समय तकके यह मत सबसे कम मत थे.

७.      ऐसी परिस्थितिके कारण कोंग्रेसको ४८९ मेंसे ३६४ बैठक मिली थीं.

 

१९५७ का चूनावः

नहेरुको छोडकर कोंग्रेसके अन्य नेता गांधीवादके ज्यादा नजदीक थे. उन्होने अच्छा काम किया था. बडी बडी नहेर योजनायें बनी थी. इसके कारण ग्राम्यप्रजा कोंग्रेसके साथ रही. लेकिन शहरोमें वही बेईमानी चली जो १९५२में चली थी. भाषावार प्रांतरचनामें नहेरुने खुद भाषावादके भूतको जन्म दिया था. यह सर्वप्रथम “जनताको विभाजित करो और चूनाव जितो” का प्रयोग था. अपि तु नहेरु हमेशा जनसंघ और हिन्दुमहासभाके विरुद्ध प्रचार करते थे.

मतदान ५५ प्रतिशत हुआ था. और कोंग्रेसको ४८ प्रतिशत मतके साथ ३७१ बैठकें मिली थीं. कुल ४९४ बैठके थीं.

कोंग्रेसने केराला खोया था. मुंबई (गुजरात, महराष्ट्र, कर्नाटक संयुक्त होनेके कारण ) खोया नहीं था.

 १९६२का चूनावः

चीनके साथ युद्ध होना बाकी था. चीनकी घुसपैठके कारण नहेरु बदनाम होते रहेते थे. लेकिन मीडीया नहेरुका गुणगान करता था. ओल ईन्डीया रेडियो कोंग्रेसका ही था.

मुस्लिम लीगके साथ समझोता करके कोंग्रेसने मुस्लिमोंमें कोमवादके बीज बो दिये थे.

१९५८ -१९६० के अंतर्गत, कोंग्रेस ने भाषावार प्रांतरचना करके कई राज्योंको खुश भी किया था.

१९६२में दीव, दमण और गोवा उपर आक्रमण करके उसको जित लिया था.

कई बैठकों के उपर, कोंग्रेसने साम्यवादीयोंका सहारा लिया था.

उद्योग बढे थे. राज्योंकी सरकारोंने अच्छा काम किया था.

मतदान ५५ प्रतिशत हुआ था. कोंग्रेसको ४५ प्रतिशत मत मिले थे. ३६१ बैठकें मिली थीं. कुल बैठक ४९४ थीं.

अगर मीडीयाने चीनका मामला दबाया नहीं होता और नहेरुके विरोधीयोंको बदनाम किया नहीं होता तो चित्र अलग बन सकता था. मीडीया उस समय पढे लिखे लोगोंको भ्रमित करती थी. अनपढ लोग देहातोंमे काफि थे. उनको आतंर्‌ राष्ट्रीय बातोंसे कोई संबंध नहीं था. पंचायती राजने देहातोंके लोगोंको अपने अपने स्वकीय हितवाले राजकारणमें घसीट लिया था. देशकी निरक्षरताने कोंग्रेसको पर्याप्त लाभ किया था.

१९६२- १९६७ का समयः

कोंग्रेसके खिलाफ जनमत जागृत हो गया था. नहेरुकी बेवकुफ नीतियोंका भांडा फूट चूका था. नहेरुने जो चालाकीसे विरोधीयोंको निरस्त्र करनेके दाव खेले थे वे उजागर होने लगे थे. विदेशनीतिकी खास करके चीनके साथ पंचशील करार वाली विफल विदेश नीति जनताको मालुम हो गई थी. नहेरुको शायद मालुम था कि, अगर उनके बाद अपनी बेटीने देशकी लगाम हाथ न ली तो उनके द्वारा कि गई हिमालय जैसी बडी मूर्खता जनता जान ही जायेगी. और इसके कारण उनका नाम इतिहासमें काले अक्षरोंसे लिखा जायेगा. अपनी बेटी इन्दीराको देशकी धूरा सोंपने के लिये उन्होने सीन्डीकेट बनायी थी.

इस सीन्डीकेटने नहेरुको वादा किया था कि अगर हम दूबेंगे तो साथमें डूबेंगे और पार कर जायेंगे तो साथमें तैरके पार कर जायेंगे. नहेरुवीयन कोंग्रेसकी एक प्रणाली है, कि जब भी गंभीर समस्या आती है तब आमजनताका ध्यान मूलभूत समस्यासे हटानेके लिये तत्वज्ञान की भाषाका उपयोग करके नौटंकी करना.

“संस्थाको मजबूत करो” यह नारा बनाया और मोरारजी देसाईको मंत्रीमंडलसे हटाया. मोरारजी देसाईको गवर्नन्स को सुधारने के लिये एक वहीवटी-सुधारणा पंच बनवाके उसका अध्यक्ष बना दिया. इसप्रकार मोरारजी देसाईको उन्होने कामराजप्लानके अंतरगत खतम कर दिया था. इसमें मीडीयाने पूरा साथ दिया था. चीनके साथ जो शर्मनाक पराजय हुई उसको मीडीयाने इस प्रकार भूला दिया. जैसे आज केजरीवालको मीडीया चमकाने लगी है और कोंग्रेसकी राज्योंमें हुई घोर पराजयोंको पार्श्व भूमिमें रखवा  दिया है.

दुसरा उन्होने यह किया कि समाजवादी पक्षको “समाजवाद”के नाम पर अपनेमें समा दिया.

तो भी जो चीनके साथके युद्धमें जो बदनामी हुई थी वह पूर्ण रुपसे नष्ट नहीं हुई. और नहेरुकी १९६४में वृद्धावस्था जल्द आजानेसे मृत्य हो गई. उस समय राष्ट्रपति बेवकुफ राष्ट्रपति नहीं थे इस लिये शिघ्रतासे ईन्दीरा गांधीका राज्याभिषेक नहीं हो पाया. लालबहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री करना पडा.

नहेरुवीयन प्रधान मंत्रीसे अ-नहेरुवीयन प्रधान मंत्री हमेशा अधिक दक्षतापूर्ण होता है यह बात शास्त्रीने सबसे पहेले सिद्ध की. लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि, पाकिस्तानको डर लगने लगा. और उसने अपने यहांसे हिन्दुओंको भगाने का काम चालु किया. जैसा भारतमें कोंग्रेसका चरित्र है, वैसा पाकिस्तानमें उसके शासकोंका चरित्र है. पश्चिम पाकिस्तानमें सिंधी, पंजाबी, बलुची, मुजाहिदों के बिच राजकीय आंतरविग्रह चलता था. तो वहांके सैनिक शासकोंने भारत पर हमला कर दिया. पाकिस्तानको शायद ऐसा खयाल था कि चीनके सामने भारत हार गया है तो हमारे साथ भी हार जायेगा. वास्तवमें यदि नहेरुने भारतकी चीनके साथ लगी सीमाको निरस्त्र नहीं रखी होती तो चीनके साथ भी युद्धमें भारत हारता नहीं,

पाकिस्तानके युद्धमें दोनों देशोंने एक दुसरेकी जमीन पर कब्जा किया था. लेकिन भारतने जो कब्जा किया था वह पाकिस्तानके लिये अधिक महत्वपूर्ण था. इसलिये ऐसा लगता था कि, भारतका हाथ उपर है. और अब पाकिस्तान को ऐसा सबक मिलेगा कि, वह कभी भी गुस्ताखी करनेका नाम लेगा नहीं. लेकिन रशिया और अमेरिकाने मिलके तास्कंदमें भारतके प्रधान मंत्रीपर ऐसा दबाव डाला कि, करार के अनुसार दोनोंकों अपनी अपनी भूमि वापस मिले. ऐसा माना जाता है कि, शास्त्रीजीका आकस्मिक निधन इसी वजहसे हुआ. और यह बात आज तक रहस्यमय है. शास्त्रीजीके दक्षता पूर्ण शासन और निधनसे कोंग्रेसका तश्कंदका लगा कलंक तो पार्श्वभूमिमें चला गया.

सीन्डीकेटने इन्दीरा गांधीको प्रधानमंत्री बना दिया. जैसे आज नरेन्द्र मोदीके हरेक वक्तव्योंकी बालकी खाल निकालते है ठीक उसी तरह प्रसारमाध्यमोंने भी सीन्डीकेटको समर्थन दिया और मोरारजी देसाईके वक्तव्योंकी बालकी खाल निकाली.

इन्दीरा गांधी एक सामान्य औरत थी, जैसा आज राहुल गांधी है.

१९६७ का चूनाव

गुजरातमें स्वतंत्रपक्ष उभर रहा था.  अन्य राज्योंमें भी स्थानिक या राष्ट्रीय पक्ष उभरने लगे थे. इसमें संयुक्त समाजवादी पक्ष, साम्यवादी पक्ष, जनसंघ मूख्य थे. कोंग्रेसकी नाव डूब रही थी. लेकिन विपक्ष संयुक्त न होने की वजहसे और कोंग्रेस अविभाजित थी और उसका संस्थागत प्रभूत्व ग्राम्यस्तर तक फैला हुआ था, इसलिये उसको केन्द्रमें सुक्ष्म तो सुक्ष्म, लेकिन बहुमत तो मिल ही गया.

इस चूनावमें ६१ प्रतिशत मतदान हुआ. कोंग्रेसको ४१ प्रतिशत मत मिले थे. और उसको ५२० मेंसे २८३ बैठकें मिलीं. विपक्षको विभाजित होने के कारण २३७ बैठकें मिली. कई राज्योंमें कोंग्रेसने शासानसे हाथ धोये.

सीन्डीकेटको भी पता चला कि, मोरारजी देसाई जैसे दक्षता पूर्ण व्यक्ति मंत्रीमंडळमें नहीं होनेकी वजहसे पक्षको घाटा तो हुआ ही है. अगर कमजोर प्रधान मंत्री रहेंगे तो भविष्यमें कोंग्रेस नामशेष हो सकती है. सिन्डीकेटने मोरारजी देसाईको, इन्दीरा गांधीकी नामरजी होते हुए भी, मंत्री मंडलमें सामिल करवाया.  

ऐसा माना जाता हैअ कि, अब ईन्दीरा गांधीने राजकीय मूल्योंको बदल देनेका प्रारंभ किया वह भी विदेशी सलाहकारोंके द्वारा.

क्रमशः

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः  १९५२, १९५७, १९६२, १९६७, चूनाव, मतदान, मतदाता, मतपत्र, मतपेटी, मतकक्ष, कोंग्रेस अविभाजित, जनसंघ, हिन्दुमहासभा, मुस्लिम लीग, साम्यवादी, भ्रष्ट, सीन्डीकेट, नहेरुवीयन, मोरारजी, पारदर्शिता, जनप्रतिनिधित्व, जन, लोकपाल, विधेयक, प्रारुप, अभ्यर्थी

 

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नरेन्द्र मोदी जब प्रधान मंत्री बन जाय, तब भारतीय जनता उनसे क्या अपेक्षा रखती है? – 3

सूचना आयोग सुधारः (रेफोर्मस इन पब्लिक इन्फोर्मशन)

हालमें सूचना आयोगके चार स्तर है.

() मुख्य सूचना आयुक्त () सूचना आयुक्त () सूचना अधिकारी ()सहायक सूचना अधिकारी,

केन्द्र सरकार संचालित या उसकी अनुसूचित संस्थाएं और राज्य सरकार संचालित या उसकी अनुसूचित संस्थाएं जिनको सरकारसे लोक कोषमेंसे वेतन, दान, अनुदान मिलता हो या सरकारी कर, उपकर, शुल्क में मुक्ति, शिथिलीकरण, राहत, मिलती हो ऐसी संस्थाएं आती है. इन संस्थाओंका मुख्य अधिकारी सूचना अधिकारी होता है. और उसी संस्थाका एक नियुक्त अधिकारी सहायक सूचना अधिकारी होता है.

सहायक सूचना अधिकारी

सहायक सूचना अधिकारी, जनतासे सूचना अनुरोध प्राप्त करता है.

यह अधिकारी, अपनी संस्थाके समुचित अधिकारीसे एक मासकी अवधि अंतर्गत सूचना उपलब्ध करके अनुरोधकको देता है. सूचनाके नीचे वह अपेलेट प्राधिकारी का नाम और पता और अपीलकी समयावधि अनुसूचित करता है.

यदि सूचना अनुरोधकको इसमें कोई क्षति है ऐसा लगता है तो वह अपेलेट प्राधिकारी को अपील कर सकता है. इस प्रकार (), () और (), क्रमानुसार अपेलेट प्राधिकारी है.

प्राधिकारी () और (), संस्थाके खुदके अधिकारी होते है. और संस्था को ही वे जिम्मेवार होते है. उनका वेतन भी संस्था ही करती है. और ये अधिकारी संस्थाके हितमें (संस्थाके अधिकारीयोंकी क्षतियोंको छिपाने का) काम करते दिखाई देते हैं.

जनताका सूचना अनुरोधकके बारेमें अनुभव कैसा है?

सूचना आयुक्त अपनेको हमेशा, और सूचना अधिकारी अपनेको कभी कभी, जैसे वे खुद न्यायालय चला रहे हो.

सूचना अधिकारी और सूचना आयुक्त सुनवाई प्रक्रिया चलाते हैं. सूचना अनुरोध पत्र सरल होता है. और उसका उत्तर भी सरल होना चाहिये. किन्तु सूचना प्रदान करने वाली संस्था और समुचित अधिकारी हमेशा सूचना छिपानेकी कोशिस करता है. असंबद्ध सूचना देता है या तो टीक शके ऐसे आधरपर अनुरोधित सूचना नकार देता है या अनुरोधित सूचना सतर्कता अधिकारीके अन्वेषण के अंतर्गत है, ऐसा उत्तर दे के उसको टाल देता है. अगर आप सूचना अनुरोधक है और अगर आप मिली हुई सूचनासे  संतुष्ट नहीं है और अगर आपको सूचना आयुक्त के स्तर पर जाना पडा तो आपको एक साल लग सकता है.

सूचना अधिकारीयोंके पास स्वतंत्र कर्मचारी गण या कार्यालय नहीं है

सिर्फ सूचना आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त के पास ही अपना कर्मचारीगण और कार्यालय होता है. बाकी के सब सूचना अधिकारी, उनका कर्मचारी गण और कार्यालय अपने अपने अंतर्गत संस्थाओंका खुदका होता है.

जहां कहां भी अगर कोई अनियमितता, नियमका उल्लंघन, अनादर, कपट आदिका आचरण हुआ है ऐसी आपको शंका है और अगर आपने सूचना अधिकारके अधिनियम के अंतर्गत अनुरोध पत्र दिया तो समझ लो कि आपको सूचना आयुक्त तक जाना ही पडेगा. अगर आप पूर्ण समय के लिये इस कामके लिये प्रबद्ध है तभी आप अंत तक मुकद्दमाबजी करनी पडेगी.

सूचना आयोगका पूनर्गठन क्यों?

हालमें सहायक सूचना अधिकारी और सूचना अधिकारी, संस्थासे संलग्न होते है. वे संस्थाको समर्पित होते है और उसके उपर संस्थाके उच्च अधिकारी के लिखित अलिखित आदेशोंका पालन करना पडता है.

कामकी निविदा (टेन्डर नोटीस), निविदा दस्तावेज (टेन्डर डोक्युमेन्ट), मूल्यांकन (इवेल्युएशन), संविदा (कोन्ट्राक्ट), में कहीं कहीं क्षति रक्खी जाती है ता कि, निवेदक के साथ सौदाबाजी कि जा सके, या ईप्सित निवेदकको  अनुमोदन और स्विकृति दे सकें. याद करो युनीयन कार्बाईड के साथ कि गई संविदा. संविदा ही दूर्घटना के कारण पीडित लोंगोंको हुई हानि का प्रतिकर संपूर्ण क्षतियुक्त था. ऐसा संविदा दस्तावेज बनानेमें गैर कानुनी पैसे की हेराफेरी नकारी नहीं जा सकती. यह तो एक बडी घटना थी. लेकिन ऐसे कई काम होते है जिनमें संस्थाका उच्च अधिकारी अंतिम निर्णय लेता है. इसमें भी गैर कानुनी तरिकेसे पैसे की हेराफेरी होती है. और इस कारण जब सूचना अधिनियम के अंतर्गत आवेदन आता है तो संस्थागत अधिकारी हमेशा सच्चाईको छिपानेकी कोशिस करता है.

ऐसी ही परिस्थिति जनपरिवाद (पब्लीक कंप्लेइन्ट) पर कार्यवाही करनेमें होती है.

परिवाद (कंप्लेईन्ट) पत्रपर कार्यवाही करने वाला संस्थागत अधिकारी ही होता है. और वह अपने क्षतिकरने अधिकारी/कर्मचारीकी प्रतिरक्षा (डीफेन्ड) करनेका प्रयत्न करता है और समुचित कार्यवाही करता नहीं है. एक परिवाद आयोग की रचना आवश्यक है. यह परिवार आयोग संस्थाके सतर्कता अधिकारीसे उत्तर मांगेगा. और जिस प्रकार जन सूचना अभियोगके अंतरर्गत कार्यवाही होती है, वैसी ही कार्यवाही परिवादकके प्रार्थना पत्र पर होगी. जनपरिवादका काम लोकपाल / लोकायुक्त के कार्यक्षेत्रमें आता है.

परिवाद और सूचनाका संमिलन (मर्जर) क्यों

वास्तवमें देखा जाय तो हर एक माहिति/सूचना के अनुरोध आवेदन पत्र की पार्श्व भूमिमें एक प्रच्छन्न परिवाद होता है. लोकपाल और सूचना आयुक्त के अधिकारी, कर्मचारी (अधिकारी) को दंडित कर सकते है

इस प्रकार सूचना आयोगका नाम जन सूचना और जन परिवाद आयोग रहेगा या लोकपाल/लोकाअयुक्त रहेगा. इस आयोगका कुछभी नाम देदो. आवश्यकता के अनुसार अधिकारी संयूक्त कोई स्तर पर संमिलित या भिन्न भिन्न रहेंगें. हम अब इसको सूचना लोक योग कहेंगे.       

जन सूचना और जन परिवाद आयोग (सूचना परिवाद लोकायुक्त अयोग) एक संपूर्ण स्वतंत्र आयोग होना चाहिये.

सूचना लोकायुक्त अयोग अधिकारीसे लेकर मुख्य आयुक्त तक सभी अधिकारी गण, उनके कर्मचारी गण और उनके कार्यालय स्वतंत्र और अलग होना चाहिये.

सूचना लोकायुक्त अधिकार के अंतर्गत सभी अधिकारी गण और कर्मचारी गण को निरपेक्ष और अर्थपूर्ण बनानेके लिये प्रशिक्षण देना चाहिये.

सूचना अधिकारीका कार्यक्षेत्र और लोक आयोग का कार्यक्षेत्र हालमें विभाजित है. सूचना अधिकारीको संस्थासे अलग करके सूचना अधिकारका वह लोक आयोगका कार्य क्षेत्र भौगोलिक क्षेत्रके आधारपर विभाजित होना चाहिये.

कोई भी संस्था जो सूचना अधिकार अधिनियम जो केन्द्र और राज्य सरकारके अंतर्गत क्षेत्रमें आती हैं, उसको अपना वेब साईट रखना पडेगा. उसमें सरकार द्वारा अपेक्षित विवरण रखना बाध्य रहेगा.  

सूचना अनुरोध और परिवाद आवेदन पत्र ग्रहण केन्द्रः

ग्राम सूचना अनुरोध परिवाद पत्र ग्रहण केन्द्रः (ग्राम पंचायतकी सीमा अंतर्गत स्थित केन्द्र) सहायक जन अधिकारीः

यह अधिकारी अपने भौगोलिक सीमाके अंतर्गत आनेवाले निवासीका (और अन्य क्षेत्रके निवासीका भी) सूचनाअनुरोध पत्र और परिवाद पत्र लेगा.

सरकारकी पारदर्शिकाके बारेमें जनताको उत्साहित करना आवश्यक है. इस प्रकारसे जनकोष (पब्लिक एकाऊन्ट)से प्रत्यक्ष या परोक्ष रीतिसे लाभान्वित संस्थाओं पर और सरकारी शासन पर सुचारु और व्यापक अनुश्रवण (मोनीटरींग) होना आवश्यक है.

जिस प्रकारसे मोबाईल के सीमकार्ड का वितरण के लिये ग्रहण केन्द्र निजी अभिकर्ताओंको (प्राईवेट एजन्सीयोंको) रखा जाता है उसी प्रकार सूचना अनुरोध पत्र और परिवाद पत्र ग्रहण के लिये भी निजी अभिकर्ताओंको अनज्ञप्ति (लाईसेन्स) देना चाहिये.

अनुरोध व आवेदन पत्र

सूचना अनुरोध पत्र और परिवाद पत्र विहित प्ररुप (प्रीस्क्राईब्ड फोर्मेट) में होंगे. यह विहित प्ररुप पत्र रू. /- की शुल्क पर इसी कार्यालय से मिलेगा. अगर चाहे तो सूचना अनुरोधक या परिवादक उसी विहित प्ररुपोंमें कद वाले पत्रमें लिखके या मुद्रित करके दे सकता है. सूचना अनुरोधकको अपने अभिज्ञान पत्र (आडेन्टीटी कार्ड) की अधिकृत प्रतिलिपि (सर्टीफाईड कोपी) और उसका क्रम और स्थायी (जहांका वह मतदाता है) पता देना पडेगा. यदि वह अपना अनुरोध पत्र गुप्त रखना चाहता है तो उसको यह शर्त लिखनी पडेगी.

सूचना अनुरोध पत्र और परिवाद पत्र दोनोंका का विहित प्ररुप दो पृष्ठमें होगा. प्रथम पृष्ठ पर सूचना अनुरोधकका, समुचित संस्था का, और सहायक सूचना अधिकारी का विवरण होगा. द्वितीय पृष्ठपर अनुरोधित सूचनाका या परिवादका(कंप्लेईन्टका) विवरण होगा. दोनों पृष्ठपर हस्ताक्षर होगे. दूसरा पृष्ठ ही समुचित संस्थाको भेजा जायेगा.

प्रत्येक पत्र पर एक अनन्य क्रम संख्या लिखी जायेगी, जो दोनों पृष्ठोंको इस क्रम संख्यासे संमिलित होगी.   

सहायक अधिकारी इस पत्रको स्कॅन करके उसकी सोफ्ट प्रतिलिपि बनायेगा. और समुचित संस्थाके उच्च या अनुसूचित अधिकारी को प्रेषण पत्रके साथ ईमेल कर देगा. इसकी एक प्रतिलिपि आवेदकको मुद्रित करके और यदि उसका ईमेल पता है तो एक प्रतिलिपि उसको ईमेल करेगा.

आवेदक अपने पत्रके साथ  रू.१००/- फी, चेकसे या नकद से जमा करेगा. चेक से अगर फीस जमा कि है तो फीस जमा होने पर सहायक अधिकारी दूसरे ही कामके दिन पर उस आवेदन पत्र पर कार्यवाही करेगा.

पुरे भारतमें लोक सूचना आयुक्त के बेंक खाता इस प्रकार रहेंगे.

केन्द्र सरकार आयोग खाता

(राज्य का नाम) सरकार आयोग खाता.

यह राज्य और केन्द्रके आयोगोंकी बेंक खाता की सूचि हरेक अधिकारी के कार्यालयमें प्रमुख स्थान पर स्थायी प्रकारसे प्रदर्शित होगी.

सहायक अधिकारी, आवेदन पत्र को समुचित संस्थाके शिर्ष अधिकारीको या सूचित अधिकारीको भेज देगा. आवेदन पत्र का रेकोर्ड रखेगा.

सूचना खर्च

संस्थासे सूचना प्रदान खर्चका मूल्य के विषय पर उत्तर मिलने पर, सहायक सूचना अधिकारी, सूचना अनुरोधकको १५ दिन के अंतर्गत खर्च रकम सूचना आयुक्त के खाता क्रम संख्यामें जमा करनेका निर्देश देगा. जब सूचना अनुरोधक सूचनाखर्च रकम जमा करेगा, तब सूचना अधिकारी संस्थाको सूचित करेगा. संस्था वह सूचना की सोफ्ट लिपि सहायक सूचना अधिकारीको भेजेगी. और सहायक सूचना अधिकारी उसको मूद्रित करके सूचना अनुरोधकको प्रेषित करेगा. यदि ईमेल पता है तो वह उसके उपर भी प्रेषित करेगा.

संस्था को जो परिवाद पत्र भेजा गया है उसका एक मासके अंदर उत्तर देगी. यदि परिवाद का किस्सा गंभीर अस्तव्यस्तताका या घोर असुविधाका है तो और इस प्रकार की प्रार्थना कि गई है तो सहायक अधिकारी इसको अपेलेट अधिकारीको प्रेषित करेगा और अपेलेट अधिकारी इसके उपर निर्णय करके उत्तरकी कालसीमा पर निर्णय करेगा और समुचित संस्थाके शिर्ष अधिकारीको प्रेषित करेगा

अगर समुचित संस्थाके शिर्ष अधिकारीने एक मासके अंतर्गत या सूचित काल सीमा के अंतर्गत उत्तर नहीं दिया या तो अधिक समयावधि मांगी तो यह बात वह आवेदकको सूचित करेगा. यह भी सूचित करेगा कि, अपेलेट प्राधिकारी कौन है और उसका पता क्या है.

यदि राज्य सरकारके अंतर्गत वह संस्था आती है तो प्रथम अपेलेट प्राधिकारी तेहसिल (या झॉन) विस्तारका सूचना परिवाद सहायक लोक आयुक्त होगा.

यदि केन्द्र सरकारके अंतर्गत वह संस्था आती है तो प्रथम अपेलेट प्राधिकारी जिला विस्तारका सहायक आयुक्त होगा.

बुथ समूह या वॉर्ड सूचना परिवाद सहायक अधिकारीः जहां ग्राम पंचायत नहीं होती है, किन्तु नगर पालिका या वॉर्ड होते है, वहां पर यह कार्यभार के आधार पर बुथ समूह विस्तार में यह अधिकारी होगा. वह ग्राम के सहायक अधिकारी के समान कार्य करेगा.

सूचना व परिवाद आयोग (राज्य)

तहेसिल या झॉनः  (राज्य) सूचना लोक सहायक लोक आयुक्त. यह अधिकारी राज्य सरकार के कार्यक्षेत्रमें आती समुचित संस्थासे संलग्न सूचना परिवाद के आवेदकोंके प्रथम अपेलेट प्राधिकारी है.

जिला विस्तारः  (राज्य) सूचना परिवाद लोक आयुक्तः लिये द्वितीय अपेलेट प्राधिकारी है.

राज्य विस्तारः (राज्य) सूचना परिवाद आयुक्त. यदि (राज्य) सहायक सूचना परिवाद लोकायुक्त  निर्णय पर आवेदक असंतुष्ट है तो वह राज्यके सूचना परिवाद आयुक्त के पास अंतिम अपील करेगा.

उसके बाद भी असंतूष्ट है तो उच्च न्यायलयमें जायेगा.

केन्द्रीय विस्तारः केन्द्रीय सूचना व परिवाद आयोगः

जिला विस्तारः (केन्द्र) सूचना परिवाद सहायक लोक आयुक्त. यह प्राधिकारी केन्द्र सरकारके कार्यक्षेत्रके अंतरर्गत आती संस्थाके विषयके बारेमें प्रथम अपेलेट प्राधिकारी.

राज्य विस्तारः (केन्द्र) सूचना परिवाद लोक आयुक्त. यह प्राधिकारी केन्द्र सरकारके कार्यक्षेत्रके अंतरर्गत आती संस्थाके विषयके बारेमें द्वितीय अपेलेट प्राधिकारी.

राष्ट्र विस्तारः (केन्द्र) सूचना परिवाद मुख्य लोक आयुक्त. यह प्राधिकारी केन्द्र सरकारके कार्यक्षेत्रके अंतरर्गत आती संस्थाके विषयके बारेमें अन्तिम अपेलेट प्राधिकारी.

इनके निर्णयसे यदि आप असंतुष्ट है तो सर्वोच्च अदालतमें जाना होगा.

यह एक रुपरेखा मात्र है. इसको कानुनी भाषामें विधेयक प्रारुपमें शब्द बद्ध करना है और कार्य प्रणालीका विस्तारसे विवरण करना आवश्यक है.

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः सूचना, अनुरोध, सहायक अधिकारी, आयुक्त, आयोग, ग्राम, बुथ समूह, तेहसिल, वॉर्ड, झॉन, जिल्ला, राज्य, राष्ट्र, समयावधि, न्यायालय, उच्च सर्वोच्च, मुख्य,  कामकी निविदा, टेन्डर नोटीस,   संविदा, कोन्ट्राक्ट, जन परिवाद, पब्लीक कंप्लेइन्ट, प्रतिरक्षा, डीफेन्ड, संमिलन, मर्जर, पारदर्शिता, प्रतिलिपि, अपेलेट, प्राधिकारी

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What is expected by the people of India from Narendra Modi – Part – 2

नरेन्द्र मोदी जब प्रधान मंत्री बन जाय, तब भारतीय जनता उनसे क्या अपेक्षा रखती है? – २

जनप्रतिनिधि के चयन, निर्वाचन, नियुक्ति और उसको पदच्यूत करनेवाली प्रक्रियामें संशोधनः

जनप्रतिनिधिके अधिकार, कर्तव्य और उसकी सीमा और परिसीमाके बारेमें हमें स्पष्ट हो जाना पडेगा.

जनप्रतिनिधि कौन है?

जनप्रतिनिधि क्या जनताका कर्मचारी है?

अगर हां, तो उसके उपर सरकारी कर्मचारीगण वाली (पब्लिक सर्वन्ट के लिये निर्धारित और सूचित) आचार संहिताको उपयोजित (एप्लीकेबल) करनी चाहिये. लेकिन भारतीय संविधानके अनुसार जनप्रतिनिधिके लिये अलग, अर्धदग्ध और अस्पष्ट, उपबंधन (प्रोवीझन) और प्रक्रिया है.

जनप्रतिनिधि, वास्तवमें जनताका प्रतिनिधि है जो अपने अपने क्षेत्रकी जनताकी समस्याओंका, विचारोंका, इच्छाओंका, आकांक्षाओंको विधान परिषद [विधि, विधान और उनकी प्रक्रियाओंके विषय पर विधेयकका प्रारुप (ड्राफ्ट) बनानेवाली और उसको स्विकृति देने वाली जनप्रतिनिधियों की सभा)में प्रतिबिंबित करता है. और कर्मचारीगण द्वारा जनहितमें कार्यान्वित करवाता है और उनके उपर अनुश्रवण (मोनीटरींग) करता है.

जनप्रतिनिधिका कार्यकाल ५ वर्ष है या तो विधान परिषद भंग हो जाने पर नष्ट हो जाता है.

क्या जनता, अपने जनप्रतिनिधिको उसके कार्यकालकी निश्चित अवधिके पूर्व उसको पदच्यूत कर सकती है?

उत्तर है; “ना” और “हां.”

“ना” इसलिये कि, भारतीय संविधानमें जनप्रतिनिधिको कार्यकालके पूर्व ही, पदच्यूत करनेकी कोई प्रक्रिया नहीं है.

“हां” अगर विधान परिषदका प्रमुख चाहे तो वैवेकिक शक्ति (डीस्क्रीशनरी पावर) से संविधानमें बोधित प्रक्रियाके अनुसार उसको पदच्यूत कर सकता है.

लेकिन इसमें तत्‍ क्षेत्रीय जनताके अभिप्राय और ईच्छाका प्रतिबिंबन अस्पष्ट है. जनता अपनी ईच्छासे अपने प्रतिनिधिको पदच्यूत नहीं कर सकती. यदि जनता अपने प्रतिनिधि पर कोई भी प्रकारके आंदोलन द्वारा मनोवैज्ञानिक प्रभाव लावे और उसको पदत्याग पत्र देना पडे वह परिस्थिति अलग है.

तो इसमें क्या करना चाहिये?

हम एक जन वसाहतका उदाहरण लेते है.

एक जन वसाहत है. इस वसाहतमें कई प्रकारके आवास है, बडे आवास है, छोटे आवास है, बहुमंजीला आवास है, झुग्गी झोंपडीयां भी है, कार्यालय है, उद्योग है, पैदल मार्ग है, वाहन मार्ग है आदि आदि … .

यहांके आवासीयोंने विचार किया कि, इस वसाहतमें कई सारे काम है. इनकी सफाईका काम, अनुरक्षणका काम, नव सर्जनका काम, काम करनेवालों पर अवलोकन और अनुश्रवणका काम आदि आदि…  इन सब कार्योंको कोई एक व्यक्ति करें  या करवायें ऐसा आयोजन करें.  हम किसीको इन कामोंको करनेका संविदा (कोन्ट्राक्ट) दे दें. यह व्यक्ति हमारे आदेशों और निर्देशोंके अनुसार काम करेगा और करवायेगा.

“फलां” पक्ष नामक एक अभिकर्ता

एक “फलां” पक्ष नामक एक अभिकर्ता (एजन्ट) आ गया. उसने प्रस्ताव दिया कि हम एक संविधान का प्रारुप आपको देंगे और आप जैसी कई वसाहत है. आप आपका प्रतिनिधि हमें दें. आपका यह प्रतिनिधि आपके विचारोंके अनुरुप, प्रारुपको स्विकृति देगा, या विकल्पका प्रस्ताव देगा, उसको हम संमिलित करेंगे और इन प्रतिनिधियों द्वारा जो अंतिम प्रारुप बनेगा वह संविधान बनेगा. इसमें मानवीय अधिकारोंका, शोषण हिनताका, न्याय, प्रतिनिधि के चूनाव आदि आदि सब कर्तव्योंका संमिलन होगा और इस संविधानके आधार पर कर्योंका निष्पादन (एक्झीक्युशन) और अनुश्रवण होगा. यह प्रतिनिधि आपसे कर द्वारा खर्च वसुल करेगा और थोडीसी मझदूरी / वेतन लेगा.

अब हुआ ऐसा कि ऐसा संविधान बन जाने पर और स्विकृत हो जाने पर वह एजन्टने  अपनी तरफसे जनप्रतिनिधिका नाम भी प्रस्तावित किया. जनताने उसको चूनाव द्वारा स्विकृत किया, किंतु यह जनप्रतिनिधि और उसका पक्ष कपट करने लगा और करवाने लगा. कर बढाने लगा, अपने सभ्योंकी मझदूरी, सुख सुविधाओंमें वृद्धि करने लगा. ऐसे विधेयक पसार करने लगा कि जनताकी दीनता बढे और संपत्तिवान ज्यादा संपत्तिवाले बने.

ऐसा कई वसाहतोंमें होने लगा. तो एक वसाहतने पारदर्शिताके लिये सूचनाका अधिकार संमिलित करवाया. प्रयोजन यह था कि जन प्रतिनिधि संविधानके अंतर्गत जो कुछ भी सुधार करे वह पारदर्शितासे करे.

पक्षने कहा ठीक है आप जो माहिती मांगेंगे वह हम देंगे. बात खतम.

ऐसी परिस्थितिमें भी जनप्रतिनिधि अपने वर्तनमें कोई सुधार नहीं लाता है.

जनप्रतिनिधि कहेता है पक्षने मेरे नाम का प्रस्ताव रक्खा था और आपने मुझे पांच वर्षके लिये स्विकृत कर ही लिया है. इसलिये मेरा उत्तरदायित्व पक्षके साथ है. संविधानके अनुसार मेरा कार्यकाल रहेगा.

जनताने कहा तू हमारा प्रतिनिधि है. पक्षने तो तुम्हे सिर्फ प्रस्तावित ही किया है. पक्षने तुम्हारा चयन किया है. हमने तुम्हारा निर्वाचन किया है.

जनप्रतिनिधि और पक्षने कहा, संविधानमें जो प्रावधान है उसके उपर आप जनता लोग नहीं जा सकते. संविधान के उपर कोई नहीं है.

जनता कहेती है संविधानके उपर जनता है. जनता है तो संविधान है.

पक्ष कहेता है, संविधानमें संशोधनके लिये अधिकृत हम ही है. तूम लोग कौन होते हो?

जनता कहेती है कि तो हमारे मूलभूत अधिकारोंका क्या? यदि हमने प्रतिनिधिको चूना है तो उसका प्रतिनिधित्व नष्ट करना हमारा मूलभूत अधिकारा है. यदि वह ढंगसे काम नहीं करता है तो हम उसको पदभ्रष्ट कर ही शकते है.

पक्ष कहेता है, संविधानमें कोई ऐसा प्रावधान और प्रक्रिया नहीं है. हमने आपके सामने हमारा चूनावका घोषणा पत्र रखा था. अगर हमारा व्यवहार ठीक नहीं है तो तुम लोग हमे आगामी चूनावमें निर्वाचित मत करो. तुम लोग हमारे मध्यावधि कार्यकालमें, विरोध प्रदर्शन करके, बहुमत तुम्हारे साथ है ऐसा सिद्ध नहीं कर सकते हो.

जनता कहेती हैः तुम्हारा चूनाव नीति-घोषणा एक कपट है. तुमने घोषणापत्रमें जो वचनबद्धता प्रकट की थी उसका तुमने पालन नहीं किया. जो घोषणा पत्रमें  नहीं था उसका तुम लोग विधेयक लाये. यह एक छलना और विश्वासघात है.

पक्ष कहेता हैः हमने विश्वासघात किया है, ऐसा सिद्ध कौन करेगा? हमने वादा किया था कि, हम लोकपाल विधेयक का प्रस्ताव लायेंगे और हम उस विधेयकको लाये.

जनता कहेती है तुम्हारा लोकपाल विधेयकका प्रारुप अर्थपूर्ण और परिणाम लक्षी नहीं है. यह एक कपट है. तुम्हे तुम्हारे चूनाव नीति-घोषणा पत्रमें ही लोकपाल विधेयकका प्रारुप (लोकपाल बीलका ड्राफ्ट), प्रकट करना चाहिये था. तुमने व्यवहारमें निरपेक्ष पारदर्शिता नहीं प्रदर्शित कि. तुमने अपने नीति-घोषणा पत्रमें यह कभी भी लिखा नहीं था कि, तुम लोग अपना वेतन / मझदुरीमें वृद्धि करोगे और सुख सुविधा बढाओगे, तो भी तुमने अपने खुदके लाभवाला सब कुछ किया. वास्तवमें तुम जो कोई भी विधेयक लाने वाले थे उन सबका प्रारुप हमारे सामने प्रकट स्वरुपमें रखना तुम्हारे लिये आवश्यक था. किंतु तुमने यह कुछ भी किया नहीं. पारदर्शिता रखना तुम्हारा कर्तव्य है. तुम अपने कर्तव्यसे च्यूत हुए हो इसलिये तुम निरर्हित (डीसक्वालीफाईड) बन जाते हो.

पक्ष और जनप्रतिनिधिः लेकिन इस का निर्णय तो न्यायालय ही कर सकता है.

न्यायालय क्या कर सकता है?

न्यायालय, सूचना अधिकार की आत्माको केन्द्रमें रखकर पारदर्शिताका निरपेक्ष पारदर्शिताके रुपमें   अर्थघटन कर शकता है. और जो विधेयका प्रारुप चूनावके नीतिघोषणापत्रमें नहीं है उन सबको शून्य, प्रभावहीन और अप्रवर्तनीय घोषित कर सकता है. और पक्षको शासनके लिये और राजकीय पक्ष के स्थान पर भी निरर्हित कर सकता है.

और कोई विकल्प?

यदि जन प्रतिनिधिके क्षेत्रके समग्र मतदातामेंसे २०% मतदाता, चूनाव अधिकारीको आवेदन दें कि इस जनप्रतिनिधिको वापस बुलालो तो चूनाव अधिकारीको उस जनप्रतिनिधिके प्रतिनिधित्वके बारेमें जनताके “हां”, “ना” या “निश्चित नहीं” का बटन दबाके मत लेना पडेगा. यदि ५०+% मत, जनप्रतिनिधिके विरुद्ध गये तो वह पदच्यूत हो जायेगा.

ऐसी प्रक्रियाकी अनुपस्थितिमें, जनप्रतिनिधिको पदच्यूत करनेके लिये ५०+% मतदाताओंको अधिकृत अधिकारी या न्यायाधीशके सामने या क्षेत्रके चूनाव अधिकारीके सामने शपथपत्र बनाना पडेगा कि वह अपने क्षेत्रके जनप्रतिनिधिमें विश्वास रखता नहीं है और वह उसकी पदच्युतिके पक्षमें है. और वह अपने जनप्रतिनिधिको पदच्युत करना चाहताहै. ऐसे सर्व शपथ पत्रकी संख्या ५०+% होती है तो जनप्रतिनिधि पदच्यूत हो जायेगा.

तो हमें क्या न्यायालयके अर्थघटनकी प्रतिक्षा करना है?

क्या हमें जनप्रतिनिधि के चयन, निर्वाचन, नियुक्ति और उसको पदच्यूत करनेवाली प्रक्रियामें संशोधन करना है?

Last supper

(Artist’s curtsy)

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः संविधान, जनप्रतिनिधि, चयन, चुनाव, पक्ष, अभिकर्ता, एजन्ट, विधेयक, प्रारुप, ड्राफ्ट, निष्पादन, एक्झीक्युशन, निरर्हित, डीसक्वालीफाईड, अर्थपूर्ण, निरपेक्ष, पारदर्शिता, कर्तव्य, अधिकार, कालावधि, विश्वासघात, पदच्यूत, नीति, घोषणा, पत्र, वैवेकिक शक्ति, डीस्क्रीशनरी पावर 

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