Posted in Social Issues, tagged अफवाह, अफवाहें फैलाना, अमित शाह, असहिष्णु, अस्थिरता पैदा करना, आंतरिकव्यवहार, आत्महत्या, एकाधिकारवादी, एन.सी.पी.का विधान सभाका नेता, एनसी.पी., एस.सेना, कथन, कार्यवाही, केन्द्र सरकारके आदेशसे विरुद्ध, कोंगीयोंने प्रारंभ किया, कोमवादी मानसिकताका द्योतक, कोरोना महामारी, कोरोना संक्रमित, गठबंधनके साथी, गुन्डागर्दीकेआदी, घटनाकोकमजोर, जनप्रतिनिधि, जूठ बोलना, दाउद गेंग, दायाँ हाथ, नरेन्द्र मोदी, पालघर, पूर्वग्रहसे भरपूर, प्रणाली, प्रतिशोध वादी, प्रश्न उठे, बांद्रा रेल्वे स्टेशन पश्चिम की मस्जिदके पास, बायां हाथ, बीजेपीका प्रवक्ता प्रवक्ता से अधिक, मंत्रीमंडल, मेल मिलाप, राजनाथ सिंह, रामदास आठवले, वंशवादी, विश्वास घात, व्यक्तिगत मन्तव्य, शरद पवार, संतोकी हत्या, सशस्त्र पूलिस, हक्क on September 29, 2020|
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रामदास आठवलेको पदच्यूत करो

रामदास आठवले कौन है?
क्या वह बीजेपीका प्रवक्ता है?
रामदास आठवले बीजेपीका प्रवक्ता नहीं है, लेकिन उससे भी अधिक है.
रामदास आठवले, मोदी के मंत्रीमंडलका एक मंत्री है.
जनतंत्रमें कोई भी मंत्रीका कथन, सरकारका कथन माना जाता है. मंत्रीका व्यक्तिगत मन्तव्य हो ही नहीं नही सकता.
“यह मेरा व्यक्तिगत मन्तव्य है”
“यह मेरा व्यक्तिगत मन्तव्य है” ऐसे कथनकी प्रणालीका प्रारंभ कोंगीयोंने किया है.
वास्तवमें यदि कोई सामान्य सदस्य, आठवले जैसा बोले और साथ साथमें यह भी बोले कि यह मेरा व्यक्तिगत कथन है, तो भी वह अयोग्य है. क्यों कि उसको चाहिये कि, वह, अपना व्यक्तिगत अभिप्राय अपने पक्षकी आम सभामें प्रगट करें. ऐसा करना ही उसका हक्क बनता है. या तो अपने सदस्य-मित्रमंडलमें अप्रगट रुपसे प्रगट करनेका हक्क है. पक्षके कोई ही सदस्यको, और खास करके आठवले जैसे मंत्रीमंडलके सदस्यको खुले आम बोलना जनतंत्रके अनुरुप नहीं है.
रामदास आठवलेने क्या कहा?
रामदास आठवलेने कहा कि यदि एस.सेनाको अपने गठबंधनके साथीयोंसे मेल मिलाप नहीं है तो वह पुनः बीजेपीके गठबंधनमें आ सकता है. शरद पवारके पक्षको भी बीजेपीके गठबंधनमें आनेका आमंत्रण है.
रामदास आठवलेको ऐसी स्वतंत्रता किसने दी?
रामदास आठवले जैसे बीजेपी के सदस्यको मंत्रीपद देना ही नरेन्द्र मोदीकी क्षति है. इस क्षतिको सुधारना ही पडेगा. रामदास आठवले जैसे सदस्य के कारण ही बीजेपीको नुकशान होता है.
यदि नरेन्द्र मोदी और उसकी सरकार समज़ती है कि “सियासतमें सबकुछ चलता है” तो यह सही नहीं है. एनसीपी और एस.सेनासे गठबंधन करना बीजेपीके लिये आत्म हत्या सिद्ध होगा.
क्यों आत्म हत्या सिद्ध होगा?
महाराष्ट्र के चूनावके परिणाम घोषित होनेके बाद एनसीपीके विधानसभाके नेताने ही बीजेपीका विश्वासघात किया है. इस घटना को बीजेपीको भूलना नहीं चाहिये.
इसके अतिरिक्त एन.सी.पी.का आतंरिक व्यवहार और संस्कार ऐसा ही रहा है जो गद्दारीसे कम नही है. एन.सी.पी.को दाउद गेंगका दायाँ हाथ माना जाता है. यह खुला गर्भित सत्य है.
बांद्रके रेल्वे स्टेशनके पासकी मस्जिदकी घटना
एन.सी.पी. महाराष्ट्रने बांदरा रेल्वे स्टेशन (पश्चिम) के पास मस्जिदके सामने हिन्दीभाषीयोंको जानबुज़ कर इकठ्ठा किया था. एनसीपी द्वारा ऐसा करना केन्द्र सरकारके आदेशका अनादर था. इस घटनाका परिणाम महाराष्ट्र आज भी सहन कर रहा है. कोरोना महामारीसे सबसे अधिक संक्रमित महाराष्ट्र है. यदि ऐसा नहीं होता तो भी एनसीपीका व्यवहार, केन्द्रसरकारके आदेशके विरुद्ध था. एन.सी.पी.का ध्येय “पैसा बनाना”, “केन्द्रकी कार्यवाहीको विफल बनाना” और देशमें अस्थिरता पैदा करना था. यह स्वयंसिद्ध है.
पालघर में हिन्दु संतोकी खुले आम हत्या.
पालघर मे दो हिन्दुसंतोकी और उसके वाहन चालककी हत्या की घटना देख लो. महाराष्ट्रकी सशस्त्र पूलिसोंके सामने हिन्दुविरोधी कोमवादीयोंने इन हिन्दुओंको मार मार के हत्या की. उस समय एन.सी.पी.का एक जनप्रतिनिधि भी मौजुद था. किसीने भी उन हिन्दुओंकी जानबुज़कर सहाय नहीं की. उनका परोक्ष ध्येय था हिन्दु संतोंको सबक सिखाना.
महाराष्ट्रकी सरकारने, अफवाह के नाम पर इस घटनाको कमजोर (डाईल्युट) बना दिया. एन.सी.पी. के जनप्रतिनिधिके उपर भी कोई कार्यवाही नहीं की. महाराष्ट्र की सरकार स्वयं ही कोमवादी है यह बात इससे भी सिद्ध होती है. उतना ही नहीं जब कुछ लोगोंने राज्य सरकारकी कार्यवाही पर प्रश्न किये तो मुख्य मंत्रीने धमकी देना शुरु किया. एन.सी.पी. के शिर्ष नेता स्वयं ऐसी कार्यवाही पर मौन रहे. यह बात भी उनके कोमवादी मानसिकताका द्योतक है.
एन.सी.पी. को, बीजेपी के साथ गठबंधनका आमंत्रण देना एक गदारी ही है. रामदास आठवलेको मंत्रीमंडसे पदच्यूत कर दो.
एस.सेना का पूर्णरुपसे कोंगीकरण हो गया है.
कंगना रणौतके साथ दुर्व्यवहार
कोंगीके हर कुलक्षण, एस.सेनाके नेताओंमें विद्यमान है. वे “जैसे थे वादी है, वे भ्रष्ट है, वे कोमवादी है, वे प्रतिशोध वादी है, वे एकाधिकारवादी है, वे पूर्वग्रहसे भरपूर है, वे वंशवादी है, वे अफवाहें फैलाते है, वे जूठ बोलते है, वे गुन्डागर्दीकेआदी है, वे असहिष्णु है… ऐसा एक कुलक्षण बताओ जो कोंगीमें हो और एस.सेना के नेताओंमें न हो. बांद्रा की घटना, पालघरकीघटना, कंगना रणोतके साथका उनका व्यवहार, कंगना रणोतके घरको तोडनेकी घटना… इन सबमें एन.सी.पीका व्यवहार और एस.सेनाका व्यवहार उनकी मानसिकताको पूर्णरुपसे प्रगट कर देता है.
इन सब घटना और व्यवहारके कारण कोंगी , एन.सी.पी. और एस.सेना दफन होनेवाली है.
कोंगी, एन.सी.पी. और एस. सेना इनको अपनी मौत मरने दो.
बीजेपी केन्द्रीय सरकार इन तीनोंके नेताओंको कभी भी गिरफ्तार करके कारावासमें पहोंचा सकती है.
इन बातोंको भूल कर यदि रामदास आठवले, इनके साथ गठबंधनमें आनेका न्योता देता है तो वह आठवले एक गद्दार से कम नहीं है.
रामदास आठवले को पदसे और सदस्यतासे च्यूत करो. नही तो बीजेपीको बडा नुकशान होनेवाला है.
नरेन्द्र मोदीजी, अमित शाहजी और रजनाथ सिंहजी हमारी आपसे चेतावनी है. दुश्मनों पर लॉ एन्ड ओर्डरका डंडा चलाओ.
शिरीष मोहनलाल दवे
चमत्कृतिः
एकेनापि कुवृक्षेण दह्यमानेन वन्हिना,
दह्यते तद् वनं सर्वं, कुपुत्रेण कुलं यथा
एक खराब वृक्षमें स्थित अग्नि, सारे वनको जला कर नष्ट कर देता है,
ऐसे ही एक कुपुत्र (यहाँ पर समज लो एक पक्षका मानसिकतासे भ्रष्ट नेता रामदास आठवले) बीजेपीको नष्ट कर देगा. कोंगी, एन.सी.पी. और एस.सेना को अपने मौत पर मरने दो. उनका मरना सुनिश्चित है.
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Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, tagged अंधश्रद्धा, अद्वैतवाद, आतंक, इस्लाम, ईश्वर निराकार, उपदेश, ओमर, कत्ल, कर्मफल, कल्याणकारी, कश्मिर, काव्य, खंडन, ख्रिस्ती, ज्ञान, तर्क, दंगा, दुराचारी, धर्म, धर्म निरपेक्ष, धर्मगुरु, धर्मस्थान, ध्येय, नीति शतक, पी. के., पूर्वपक्ष, प्रज्ञा, प्रणाली, प्रतिकृति, प्रतिपक्ष, प्रमाणभान, प्राथमिकता, प्रिय, फारुख, बौद्धिक चर्चा, मस्जिद, मुस्लिम, योग्यता, लॉ ऑफ ध लेन्ड, वितंडावाद, विषय चयन, विसंवाद, वैश्विक, शराब बंधी, शिवं, शुद्ध, संघर्ष, संवाद, संस्कृत, संस्कृति, सत्य, सत्यं, सुंदरं, हेतु on January 16, 2015|
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पी.के. ने पीके किया नशा? कथांक – १
कूर्म पुराण और महाभारतमें एक सुसंस्कृत श्लोक है.
(१) आत्मनः प्रतिकुलानी परेषां न समाचरेत.
इसका अर्थ है;
जो वस्तु, स्वयंके लिये (आप) प्रतिकुल (मानते) है, (उसको आप) दुसरोंके उपर मत (लागु) करो.
इसका अर्थ यह भी है, कि जो आचार आप स्वयंके हितमें नही मानते चाहे कोइ भी कारण हो, तो वह आचार आप अन्यको अपनाने के लिये नही कह सकते.
इसका निष्कर्सका गर्भित अर्थ भी है. यदि आपको अन्य या अन्योंको आचारके लिये कहेना है तो सर्व प्रथम आप स्वयं उसका पालन करो और योग्यता प्राप्त करो.
क्या पी.के. में यह योग्यता है?
पी.के.की योग्यता हम बादमें करेंगे.
सर्व प्रथम हम इस वार्तासे अवगत हो जाय कि, फिलममें क्या क्या उपदेश है. किस प्रकारसे उपदेश दिया है और सामाजिक परिस्थिति क्या है.
संस्कृतमें नीतिशतकमें एक बोध है.
(२) सत्यं ब्रुयात्, प्रियं ब्रुयात्, न ब्रुयात् सत्यं अप्रियं.
सच बोलना चाहिये, किन्तु सत्य ऐसे बोलना चाहिये वह प्रिय लगे. अप्रिय लगे ऐसे सत्य नहीं बोलना चाहिये.
यदि आप स्वयंको उपदेश देनेके लिये योग्य समझते है तो आपके पास उपदेश देनेकी कला होनी आवश्यक है. क्या यह कला पी.के. के पास थी?
पी. के. की ईश निंदा

(३) पूर्व पक्षका ज्ञानः
यदि एक विषय, आपने चर्चाके लिये उपयुक्त समझा, तो स्वयंको ज्ञात होना चाहिये कि चर्चा में दो पक्ष होते है.
एक पूर्व पक्ष होता है. दुसरा प्रतिपक्ष होता है.
पूर्वपक्ष का अगर आप खंडन करना चाहते है और उसके विरोधमें आप अपना प्रतिपक्ष रखना चाहते है, तो आपको क्या करना चाहिये?
पूर्वपक्ष पहेलेसे चला आता है इसलिये उसको पूर्वपक्ष समझा जाता है. और उसके विरुद्ध आपको अपना पक्ष को रखना है. तो आपका यह स्वयंका पक्ष प्रतिपक्ष है.
अगर आप बौद्धिक चर्चा करना चाहते है तो आपको पूर्वपक्षका संपूर्ण ज्ञान होना चाहिये तभी आप तर्क युक्त चर्चा करनेके लिये योग्य माने जायेंगे. अगर आपमें यह योग्यता नहीं है तो आप असंस्कृत और दुराचारी माने जायेंगे.
असंस्कृति और दुराचार समाजके स्वास्थ्य के लिये त्याज्य है.
(४) चर्चा का ध्येय और चर्चा के विषय का चयनः
सामान्यतः चर्चाका ध्येय, समाजको स्वस्थ और स्वास्थ्यपूर्ण रखनेका होता है. किसको आप स्वस्थ समाज कहेंगें? जिस समाजमें संघर्ष, असंवाद और विसंवाद न हो तदुपरांत संवादमें ज्ञान वृद्धि और आनंद हो उसको स्वस्थ समाज माना जायेगा. यदि समाजमें संघर्ष, वितंडावाद, अज्ञान और आनंद न हो तो वह समाज स्वस्थ समाज माना नहीं जायेगा.
आनंदमें यदि असमानता है तो वह वैयक्तिक और जुथ में संघर्षको जन्म देती है. उसका निवारण ज्ञान प्राप्ति है.
ज्ञान प्राप्ति संवादसे होती है.
संवाद भाषासे होता है.
किन्तु यदि भाषा में संवादके बदले विसंवाद हो तो ज्ञान प्राप्ति नहीं होती है.
ज्ञान प्राप्तिमें संवाद होना आवश्यक है. संवाद विचारोंका आदान-प्रदान है. और आदान प्रदान एक कक्षा पर आने से हो सकता है. विचारोंके आदान प्रदान के लिये उसके नियम होने चाहिये. इन नियम को तर्क कहेते है. कोई भी संवाद तर्कयुक्त तभी हो सकता है जब पूर्वपक्षका ज्ञान हो.
पी. के. स्वयंमें क्या योग्यता है?
स्वयंमें विषयके चयन की योग्यता है?
स्वयंमें विषय की चर्चा करनेकी योग्यता है? स्वयं को स्वयंके पक्षका ज्ञान है?
स्वयंमें पूर्वपक्षका ज्ञान है?
स्वयंके विचारोंका प्रदान तर्कपूर्ण है?
पी. के. अन्यको जो बोध देना चाहता है उस बोधका वह क्या स्वयं पालन करता है?
अंधश्रद्धा निर्मूलन यदि किसीका ध्येय है तो प्रथम समझना आवश्यक है कि अंधश्रद्धा क्या है.
अंधश्रद्धा क्या है?
अंध श्रद्धा यह है कि, कोई एक प्रणाली, जो परापूर्वसे चली आती है या कोई प्रणाली अचारमें लायी गई हो और उस प्रणालीकी उपयोगिता सही न हो और तर्कशुद्ध न हो.
क्या प्रणालीयां और उसकी तर्कशुद्धता की अनिवार्यता सिर्फ धर्म को ही लागु करने की होती है?
क्या अंधश्रद्धा धर्मसे ही संबंधित है?
क्या अंधश्रद्धा समाजके अन्य क्षेत्रों पर लागु नहीं होती है?
अंधश्रद्धा हर क्षेत्रमें अत्र तत्र सर्वत्र होती है.
अंद्धश्रद्धा समाजके प्रत्येक क्षेत्रमें होती है.
अगर अंधश्रद्धा हरेक क्षेत्रमें होती है तो प्राथमिकता कहा होनी चाहिये?
जो प्रणालीयां समाजको अधिकतम क्षति पहोंचाती हो वहां पर उस प्राणालीयों पर हमारा लक्ष्य होना होना चाहिये. इसलिये चयन उनका होना चाहिये.
पी. के. ने कौनसी प्रणालीयों को पकडा?
पी. के. ने धार्मिक प्रणालीयोंको पकडा.
पी. के. ने धार्मिक प्रणालीयोंको क्यूं पकडा?
पी. के. समझता है कि वह सभी धर्मोंकी, धार्मिक प्रणालीयोंके विषयोंके बारेमें निष्णात है. हां जी, अगर उपदेशक निष्णात नहीं होगा तो वह योग्य कैसे माना जायेगा?
पी. के. समझता है कि वह भारतीय समाजमें रहेता है, इसलिये वह भारतमें प्रचलित धार्मिक, क्षतिपूर्ण और नुकशानकारक प्रणालीयोंकी अंद्धश्रद्धा (तर्कहीनता) पर आक्रमण करेगा.
अगर ऐसा है तो वह किस धर्मकी अंधश्रद्धाको प्राथमिकता देगा?
वही धर्म को प्राथमिकता देगा जिसने समाजको ज्यादा नुकशान किया है और करता है.
कौनसे कौनसे धर्म है? ख्रीस्ती, इस्लाम और हिन्दु.
हे पी. के. !! आपका कौनसा धर्म है?
मेरा धर्म इस्लाम है.
आपके धर्ममें कौनसी अंधश्रद्धा है जिसको आप सामाजिक बुराईयोंके संदर्भ, प्रमाणभानके आधार पर प्राथमिकता देंगे?
पी. के. समझता है कि मुस्लिमोंकी अंधश्रद्धा वह शराब बंधी है, और वह भी प्रार्थना स्थलपर शराब बंधी है.
अब देखो पी. के. क्या करता है? वह मस्जिदके अंदर तो शराब ले नहीं जाता है. इस्लामके अनुसार शराब पीना मना है. लेकिन उसकी सजा खुदा देगा. शराबसे नुकशान होता है. अपने कुटूंबीजनोंको भी नुकशान होता है. शराब पीनेवालेको तो आनंद मिलता है. लेकिन पीने वालेके आनंदसे जो धनकी कमी होती है उससे उसके कुटुंबीजनोंको पोषणयुक्त आहार नहीं मिलता और जिंदगीकी सुचारु सुवाधाओंमें कमी होती है या/और अभाव रहेता है. शराब कोई आवश्यक चिज नहीं है. शराबके सेवनके आनंदसे शराबको पीनेवालेको तो नुकशान होता ही है. शराब पीना इस्लाम धर्मने मना है. किन्तु क्या इस्लामकी प्राथमिकता शराबबंधी है?
इस्लाममें क्या कहा है? इस्लामने तो यह ही कहा है कि, इस्लामके उसुलोंका प्रचार करो और जिनको मुसलमान बनना है उन सबको मुसलमान बनाओ. जब तक अन्य धर्मी तुमको अपने घरमेंसे निकाल न दें उसका कत्ल मत करो. उसका अदब करो.
क्या मुसलमानोंने यह प्रणाली निभाई है?
भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है. इसका अर्थ यह है कि भारतमें सब लोगोंको अपना अपना धर्म और प्रणालीया मनानेकी स्वतंत्रता है. इस स्वतंत्रताका आनंद लेनेके साथ साथ दुसरोंको नुकशान न हो जाय इस बातका ध्यान रखना है.
इस बातको ध्यानमें रखते है तो मुसलमान अगर शराब पीये या न पीये उससे अन्य धर्मीयोंको नुकशान नहीं होता है. अगर कोई मस्जिदमें जाता है तो वह वहां ईश्वरकी इबादतके बदले वह शराबी नशेमें होनेके कारण दुसरोंको नुकशान कर सकता है. इसलिये पूर्वानुमानके आधार पर इस्लामने शराब बंदी की है. यह बात तार्किक है. किन्तु यदि इसमें किसीको अंधश्रद्धा दिखाई देती है यह बात ही एक जूठ है.
तो पी. के. ने ऐसे जूठको क्यों प्राथमिकता दी?
प्राथमिकता क्या होनी चाहिये थी?
यदि अंधश्रद्धाको भारत तक ही सीमित रखना है तो, मुसलमानोंने किये दंगे और कत्लोंको प्राथमिकता देनी चाहिये थी. आतंकीयों और स्थानिक मुसलमानोंने मिलकर हिन्दुओंकी धर्मके नाम पर कत्लें की, हिन्दुओंको यातनाएं दी और दे भी रहे है वह भी तो अंधश्रद्धा है.
मुस्लिमोंकी अंधश्रद्धा क्या है?
इस्लामको अपनानेसे ही ईश्वर आपपर खुश होता है. अगर आपने इस्लाम कबुल किया तो ही वह आपकी प्रार्थना कबुल करेगा और आपके उपर कृपा करेगा.
ईश्वर निराकार है इस लिये उसकी कोई भी आकारमें प्रतिकृति बनाना ईश्वरका अपमान है. अगर कोई ईश्वरकी प्रतिकृति बनाके उसकी पूजा करगा तो उसके लिये ईश्वरने नर्ककी सजा निश्चित की है.
इस बातको छोड दो.
अन्य धर्मीयों की कत्ल करना तो अंधश्र्द्धा ही है.
१९९०में कश्मिरमें ३०००+ हिन्दुओंकी मुसलमानोंने कत्ल की. मुसलमानोंने अखबारोंमें इश्तिहार देके, दिवारों पर पोस्टरें चिपकाके, लाउड स्पीकरकी गाडीयां दौडाके, और मस्जीदोंसे घोषणाए की कि, अगर कश्मिरमें रहेना है तो इस्लाम कबुल करो, या तो इस मुल्कको छोड कर भाग जाओ, नहीं तो कत्लके लिये तयार रहो. इस एलान के बाद मुसलमानोंने ३००० से भी ज्यादा हिन्दुओंकी चून चून कर हत्या की. पांचसे सात लाख हिन्दुओंको अपना घर छोडने पर विवश किया. इस प्रकर मुसलमानोंने हिन्दुओंको अपने प्रदेशसे खदेड दिया.
आज तक कोई मुसलमानने हिन्दुओंको न्याय देनेकी परवाह नहीं की. इसकी वजह सिर्फ और सिर्फ मुसलमानोंकी अंधश्रद्धा ही तो है. लाखोंकी संख्यामें अन्यधमीयोंको २५ सालों तक यातनाग्रस्त स्थितिमें चालु रखना आतंकवाद ही तो है. यह तो सतत चालु रहेनेवाला आतंकवाद है. इससे बडी अंधश्रद्धा क्या हो सकती है?
किन्तु पी. के. ने इस आतंकवादको छूआ तक नहीं. क्यों छूआ तक नहीं?
क्यों कि वह स्वयंके धर्मीयोंसे भयभित है. जो भयभित है वह ज्यादा ही अंधश्रद्धायुक्त होता है. पी. के. खुद डरता है. उसके पास इतनी विद्वत्ता और निडरता नहीं है कि वह सच बोल सके.
कश्मिरके हिन्दुओंको लगातार दी जाने वाली यातनाओंको अनदेखी करना विश्वकी सबसे बडी ठगाई और दंभ है. इस बातको नकारना आतंकवादको मदद करना ही है. उसकी सजा सिर्फ और सिर्फ मौत ही हो सकती है.
तो फिर पी. के. ने किसको निशाना बनाया?
पी. के. ने बुत परस्तीको निशाना बनाया.
लेकिन क्या उसने पूर्व पक्ष को रक्खा? नहीं. उसने पूर्वपक्षको जनताके सामने रक्खा तक नहीं.
क्यों?
क्यों कि, वह अज्ञानी है. अद्वैतवादको समझना उसके दिमागके बाहरका विषय है. अद्वैतवाद क्या है? अद्वैतवाद यह है कि ईश्वर, सर्वज्ञ, सर्वयापी और सर्वस्व है. विश्वमें जो कुछ भी स्थावर जंगम और अदृष्ट है वे सब ईश्वरमें ही है. उसने ब्रह्माण्डको बनाया और आकर्षणका नियम बनाया फिर उसी नियमसे उसको चलाने लगा. उसने मनुष्यको बुद्धि दी और विचार करने की क्षमता दी ताकि वह तर्क कर सके. अगर वह तर्क करेगा तो वह तरक्की करेगा. नहीं तो ज्योंका त्यों रहेगा, या उसका पतन भी होगा और नष्ट भी होगा. ईश्वरने तो कर्मफलका प्रावधान किया और समाजको सामाजिक नियमो बनानेकी प्रेरणा भी रक्खी. जो समाज समझदार था वह प्रणालियोंमें उपयुक्त परिवर्तन करते गया और शाश्वतता की और चलता गया.
हिन्दु समाज क्या कहेता है?
सत्यं, शिवं और सुंदरं
सत्य है उसको सुंदरतासे प्रस्तूत करो तो वह कल्याणकारी बनेगा.
कल्याणकारीसे आनंद मिलता है वह स्थायी है.
आनंद स्थायी तब होता है जब भावना वैश्विक हो. न तो अपने स्वयं तक, न तो अपने कुटुंब तक, न तो अपने समाज तक, न तो अपनी जाति तक, मर्यादित हो, पर वह आनंद विश्व तक विस्तरित हो.
विश्वमेंसे जो कुछ भी तुम्हे मिलता है उसमेंसे विश्वको भी दो (स्वाहा).
यज्ञकी भावना यह है.
शिव तो तत् सत् है. ब्रह्माण्ड स्वरुप अग्निको उन्होने उत्पन्न किया. जो दृश्यमान अग्नि है वह यज्ञ है. अग्नि यज्ञ स्वरुप है. अग्निने आपको जिवन दिया. आप अग्निको भी तुष्ट करें और शांत भी करें. हिन्दुओंके लिये ईश्वरी शक्तियां अपने जिवन प्रणालीका एक भाग है. शिव लिंग एक ज्योति है. उसको जो स्वाहा करेंगे वह धरतीके अन्य जीवोंको मिलेगा. जीनेका और उपभोग करनेका उनका भी हक्क है.
तुम्हे ये सब अपनी शक्तिके अनुसार करना है. तुम अगर शक्तिमान नहीं हो तो मनमें ऐसी भावना रखो. ईश्वर तुम्हारी भावनाओंको पहेचानता है. संदर्भः “शिवमानसपूजा”
यदी पी. के. ने “अद्वैत” पढा होता तो वह शिव को मजाकके रुपमें प्रस्तूत न करता.
मनुष्य एक ऐसी जाति है कि इस जातिमें हरेक के भीन्न भीन्न स्वभाव होते है. यह स्वाभाव आनुवंशी, ज्ञान, विचार और कर्मके आधार पर होते है. इसलिये उनके आनंद पानेके मार्ग भी भीन्न भीन्न होते है. ध्यान योग, ज्ञान योग, कर्मयोग और भक्तियोग इस प्रकार चार योग माने गये है. अपने शरीरस्थ रासायणोंके अनुसार आप अपना मार्ग पसंद करें. हिन्दुओंके लिये ईश्वरकी उपासना एक प्रकृति उपासनाका काव्य है. काव्य एक कला है जिनके द्वारा तत्त्वज्ञान विस्मृतिमें नही चला जाता है. मूर्त्ति भी ईश्वरका काव्य है.
तो क्या पी. के.ने विषयके चयनमें सही प्राथमिकता रक्खी है?
नहीं. पी. के. को प्राथमिकताका चयन करने की या तो क्षमता ही नहीं थी या तो उसका ध्येय ही अंधश्रद्धाका निर्मूलन करना नहीं था. उसका ध्येय कुछ भीन्न ही था.
प्राथमिकता की प्रज्ञाः
अगर आपके घरमें चार चूहे और एक भेडिया घुस गये है तो किसको निकालनेकी प्राथमिकता आप देंगे?
चूहे चार है. भेडिया एक है. चार संख्या, संख्या एकसे ज्यादा है. तो भी जो ज्यादा नुकशानकारक है वह भेडिया है. इसलिये यहां पर प्रमाणभान स्वरुप संख्या नहीं है. किन्तु नुकशानका प्रमाणभान रखना है.
एक अरब हिन्दु है. २० करोड मुस्लिम है. लेकिन दंगे मुस्लिमोंने ज्यादा किया. अत्याचार भी मुस्लिमोंने ज्यादा किया. इसलिये समाजको होने वाले नुकशानके प्रमाणभानके अधारपर मुस्लिम अंधश्रद्धाको हिन्दुओंकी तथा कथित अंधश्रद्धाके विषयोंकी अपेक्षा ज्यादा प्राथमिकता देनी चाहिये.
किन्तु पी. के. ने ऐसा नहीं किया.
प्रमाणभानकी प्रज्ञाः
शिवलिंग पर दूध चढाना दूधका व्यय है. वह दूध गरीबोंके बच्चोंके मूंहमें जाना चाहिये.

दूधका व्यय है या नहीं? अगर व्यय है तो भी कितना व्यह है? किसका व्यय है? किसका पैसा है? किसकी कमाई है? क्या ईश्वरके उपर दूध चढाना अनिवार्य बनाया गया है? ऐसा कोई आदेश भी है?
दूधके पैसे तो पी. के.के या औरोंके है ही नहीं. दूधके पैसे तो दूध डालनेवालेके अधिकृत पैसे है. उसको कोई “लेन्ड ओफ लॉ” या और किसीकी सत्तका भी आदेश नहीं है, कि वह दूध डाले. किसी “लॉ ऑफ ध लेन्ड”ने उसे विवश भी नहीं किया है, कि वह दूध डाले. अगर वह दूध न डाले को उसको कोई दंड देनेवाला भी नहीं है. दूधका प्रमाण भी निश्चित नहीं है. वह अपनी ईच्छाके अनुसार दूध डाल सकता है या न भी डाले. वह अपनी मान्यताके अनुसार समझता है कि उसने कोई व्यय नहीं किया. क्यों कि विश्वने उसको दिया है वह उसमेंसे थोडा विश्वको वापस देता है. जो गाय है उससे वह आभारवश है और उसको भी वह सब देवोंका निवास समझता है और वह गायके प्रति आभारवश है (थेन्क फुल है. थेंकलेस नहीं है) वह गायको माता समझता है.
वह यह समझता है कि दूध चढाना कोई पाप नहीं है. खुदके पैसे है. अपने पैसे का कैसे उपयोग करना वह उसकी पसंद है. खुदकी पसंदका निर्णयकरना उसका अधिकार है.
आप कहोगे, वह जो कुछ भी हो, दूधका तो व्यय हुआ ही न? उसका क्या?
वह हिन्दु कहेता है; अगर आप गायको, भैंषको खाते है तो क्या आनेवाले दूधका घाटा नहीं हुआ?
वह आगे कहता है कि हम तो दूधसे अपनी भावना ईश्वरके प्रति प्रकट करते है. और इससे धरतीके जिवजंतुओंकी पुष्टि करते हैं ताकि धरतीकी फलद्रुपता बढे. हम गायका या ऐसे पशुका बली तो नहीं चढाते है ताकि विश्वमें दूधका स्थायी घाटा हो जाय.
वह आगे कहेता है, कि हमारा पावभर दूध ही क्यों आपकी नजरमें आता है?
हम जो टेक्ष भरते है, उनमेंसे एक बडा हिस्सा गवर्नर और राष्ट्रप्रमुखके और उसकी सुविधाओंके और मकानके रखरखावमें जाता है. टेक्ष द्वारा पैसा देना तो हमारे लिये अनिवार्य है और उसके लिये हम विवश भी है. हमारे पैसे का यह व्यय ही तो है. इसका प्रमाण भी तो बहुत बडा है. यह भी तो एक अंधश्रद्धा मात्र है. आपकी प्राथमिकता तो इस व्यय के विषय पर होनी चाहिये. क्यों आपकी प्रमाणभानकी प्रज्ञा इस बातको नहीं देख सकती?
आप खुद करोडों रुपये कमाते हो. आपको खानेके लिये कितना चाहिये? आपको कितना बडा मकान चाहिये? आप दाल चावल रोटी खाके आनंद पूर्वक जिन्दा रह सकते है, और बाकीके पैसोंसे हजारों कीलो दूध गरीबोंको बांट सकते है. लेकिन आप ऐसा नहीं करते है, क्यों कि दूसरे आप जैसे कई लोग ऐसा नहीं करते हैं. आप उन्हीकी प्रणालीको अनुसरते है. तो यह आपकी भी तो अंधश्रद्धा है. आपकी अंधश्रद्धा तो हमसे भी बडी है. आपकी प्राथमिकतामें वह क्यों नही आयी? अगर आप स्वयंकी कमाईको कैसे खर्च करें उसमें अपनी मुनसफ्फी चलाते हैं तो हमारे लिये क्यों अलग मापदंड?
ऐसी तो कई बातें लिखी जा सकती है.
(क्रमशः)
शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः पी. के. , योग्यता, नीति शतक, सत्य, प्रिय, उपदेश, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष, खंडन, बौद्धिक चर्चा, तर्क, शुद्ध, संस्कृति, संस्कृत, दुराचारी, शराब बंधी, विषय चयन, प्राथमिकता, संवाद, विसंवाद, वितंडावाद, ध्येय, हेतु, संघर्ष, ज्ञान, अंधश्रद्धा, प्रणाली, आतंक, धर्म, मुस्लिम, इस्लाम, ख्रिस्ती, धर्म निरपेक्ष, मस्जिद, धर्मस्थान, धर्मगुरु, दंगा, कत्ल, ईश्वर निराकार, प्रतिकृति, काव्य, कश्मिर, ओमर, फारुख, अद्वैतवाद, कर्मफल, सत्यं, शिवं, सुंदरं, कल्याणकारी, वैश्विक, प्रमाणभान, प्रज्ञा, लॉ ऑफ ध लेन्ड
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हिन्दु और लघुमतीयोंको एक दुसरेसे क्या अपेक्षा है और अपेक्षा क्या होनी चाहिये? – ३

इस लेखको हिन्दु और लघुमतीयोंको एक दुसरेसे क्या अपेक्षा है और अपेक्षा क्या होनी चाहिये? – २ के अनुसंधानमें पढें.
हिन्दु और मुस्लिम जनताके बीचमें जो समस्याएं है वह कैसे दूर की जाय?
इन दोनोंको कैसे जोडा जाय?
सर्व प्रथम हम हिन्दुओंकी मुस्लिमोंकी वजहसे जो समस्याएं है उनकी बात करेंगे.
पहेले तो हिन्दुओंको यह निश्चित करना पडेगा कि उनको हिन्दुके होनेके आधार पर क्या चाहिये?
हिन्दु दृष्टि और प्रणाली
हिन्दुस्तानकी संस्कृतिमें जीवन, एक प्रणाली है. वह समय समय पर आतंरिक विचार विनीमयसे बदलती रही है. हिन्दु मानते है कि हमारी प्रणाली, किसी अन्य धर्म-प्रणालीको, जहां तक मानवीय हक्कोंका सवाल है, नुकशान करती नहीं है. हमें हमारी कोई प्रणाली बदलनी है तो वह हम खुद बदलेंको, दुसरे धर्मवालोंको, उसमें चोंच डालनेकी और हमें बदनाम करनेकी जरुरत नहीं है.
हिन्दु क्या मानते है?
हम मानते हैं कि हमारा धर्म ऐसा है जो रीलीजीयन की परिभाषामें आता नहीं है, उसको रीलीजीयनकी परिभाषामें ले कर हमारे धर्मकी प्रत्यक्ष या परोक्ष रुणात्मक टीका करनेकी दूसरोंको जरुरत नहीं है. हमारा मानना है कि हमने धर्मको दो हिस्सेमें बांटा है.

एक हैः ईश्वर, आत्मा और जगतको समझना और तर्कसे प्रतिपादन करना. हमने यह काम काव्यात्मक रीतसे किया है. और इन काव्योंको साहित्यमें अवतरित किया है. अन्य धर्म वालोंको समझना चाहिये कि वे संस्कृतभाषाका अध्ययन किये बिना और वेदोंमें रही गुढताको समझे बिना, हमारे तत्वज्ञानमें चोंच न डाले.
दुसरा हैः हमारी जीवन शैलीः हमने जगतको एक सजीव समझा है. हमारा सामाजिक व्यवहार प्राकृतिक तत्वोंका आदर, संतुलन और आनंदका संमिश्रण है. हम मानते हैं कि जिन तत्वोंके उपर हमारा जीवन निर्भर है उनका हम आदर करें और उनकी कृतज्ञता (अभार) व्यक्त करते रहें ताकि हमारा मन कृतघ्न (डीसग्रेसफुल, नमकहराम) न बने.
उदाहरणः हमारे समाजमें गायका दूध पिया जाता है. बैलसे खेती करते हैं. घोडे से सवारी की जाती है, हिंसक पशु जंगल की रक्षा करता है, वनस्पतिसे खाद्य पदार्थ लेते हैं आदि आदि.. इन सबको हम पूज्य मानते हैं क्यों कि इन सब पर हमारा जीवन निर्भर है. हम इनकी पूजा करेंगे हम उनकी रक्षा करेंगे. मानव समाजका अस्तित्व भयमें आजाय तो अलग बात है.
इसी प्रकार, जिनको निर्जीव समझे जाते है उनको भी हम पूज्य मानेंगे और ऐसे सभीके प्रति हम, कृतज्ञता व्यक्त करनेके हेतु, उत्सव मानायेंगे और आनंद करेंगे. ये आदर्शके प्रति हमारी गति है. हम इसमें आगे जायेंगे किन्तु पीछे नहीं जायेंगे. आपको हमारे उत्सव मनाना हो तो मनाओ और न मनाना हो तो मत मनाओ.
इतिहासिक मान्यताएंः
हम समझते हैं कि हमारी संस्कृतिका और भाषाका उद्भव और विकास यहां भारत वर्षमें ही हुआ. हम समझते हैं कि हम बाहरकी संस्कृति लेकर भारतमें आये नहीं. हम बाहर जरुर गये. हमारे पास इसका आधारभूत तर्क है. अगर इतिहासमें इन बातोंका समावेश करें तो उसमें कोई अयोग्य बात नहीं है. हमारी इन बातोंको हमारी धर्मांतता या कोमवादके साथ जोडना आवश्यक नहीं. हमने दुसरोंसे क्या अपनाया, दुसरोंने हमसे क्या अपनाया ये सब बातें हम हमारे इतिहासमें हमारा तर्क संमिलित करेंगे. हमारी इन बातोंको, धर्मांतता या कोमवादके साथ जोडना अतार्किक है. हम दुसरोंकी मान्यता और तर्क भी इतिहासमें संमिलित करेंगे.
यह हमारी परंपरा है और हम भारतमें उनको कोई भी किमत पर क्षति होने नहीं देंगे. इस परंपरा वाले हम, हमारे देशमें ८० प्रतिशत है. हम किसीके ऐसे कोई कदम उठाने नहीं देंगे और मान्य करने नहीं देंगे जो इनमें क्षति करे.
१९५१में हम हिन्दु जनसंख्यामें ८० प्रतिशत के बारबर थे. इस ८० प्रतिशतसे मतलब है कि हम विधर्मियोंको विदेशोंसे, हमारे देशमें कोई भी हालतमें इस सीमासे उपर घुसने नहीं देंगे कि हम ८० प्रतिशत से कम हो जाय. मुस्लिम अपने धर्मके आधार पर चार पत्नीयां कर नहीं पायेंगे. कुटुंब नियोजन एक समान रुपसे लागु किया जायेगा.
समान आचार संहिताः
नागरिक आचार संहिता और आपराधिक संहिता समान रहेगी. धर्म और जातिके आधार पर कोई राज्य, जिला, नगर, तेहसिल, ग्राम, संकुल आदि की रचना या नव रचना करने दी जायेगी नहीं.
प्रादेशिक वैशिष्ठ्यः
भूमि पुत्रोंको ८० प्रतिशत तक हर क्षेत्रमें प्राथमिकता रहेगी. इसमें अगर कभी अ-पूर्त्ति रही तो यह अ-पूर्त्ति आगे बढायी जायेगी. भूमिपुत्रोंमें धार्मिक भेद नहीं रक्खा जायेगा.
मुस्लिम जनता, हिन्दुओंके बारेमें यह न माने कि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दु परिषद, बजरंग दल मुस्लिम विरोधी संस्थाएं है. मुस्लिम जनता यह भी न माने कि, बीजेपी का संचालन यह संस्थाएं करती है. क्योंकि नागरिक और आपराधिक आचार संहिता समान है.
हिन्दु जनता, मुस्लिम जनतासे यह भी चाहती है कि, वे भी पारसी और यहुदीयों की तरह हिंदुओंसे मिलजुल कर रहें. हिन्दुओंका ऐतिहासिक सत्य है कि वे अन्य धर्मोंके प्रति सहनशील, आदरभाव और उनकी रक्षाका भाव रखते है, फिर मुस्लिम जनता पारसी, यहुदी आदि के जैसी मनोवृत्ति क्यों नहीं रख सकती?
भारतकी मुस्लिम जनता हिन्दुओंसे क्या अपेक्षा रखती है?
मेरे मन्तव्यसे उनको अमन, शांति और सुरक्षा चाहिये. इसके अतिरिक्त कुछ हो तो वे बतायें.
शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः
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हिन्दु और लघुमतीयोंको एक दुसरेसे क्या अपेक्षा है और अपेक्षा क्या होनी चाहिये? – २
जब देशकी जनता गरीब होती है वह किसीभी बात पर झगडा करने के लिये तैयार हो जाती है. और जिनका उद्देश्य सिर्फ सत्ता और पैसा है वह हमेशा दुसरोंकी अज्ञानताका लाभ लेकर देशको और मानवजातको चाहे कितना ही नुकशान क्युं न होजाय, दुसरोंको गुमराह करके मत बटोरके अपना उल्लु सीधा करती है.
लेकिन वास्तवमें ये हिन्दु और मुस्लिम कौन है और कैसे है?
और ये दोनो क्यों बेवकुफ बनते रहते है?
मुस्लिम और हिन्दु वास्तवमें एक ही जाति है. इसाकी प्रथम सदी तक हिन्दु राजाएं इरान तक राज करते थे. विक्रममादित्यने अरबस्तान तक अपना साम्राज्य फैलाया था. अगर आर्योंके आगमन वाली कल्पनाको सही माने तो भी अरबस्तान वाले भी आर्य जाति के है. अगर भारतसे लोग बाहर गये इस थीयेरीका स्विकार करे तो भी अरबस्तानके लोग और भारतके लोग एक ही जातिके है. एक ही जातिके हो या न हो अब जाति कोई महत्व रखती नहीं है.
फिर टकराव क्युं?
इस्लाम क्या है?
इससे प्रथम यह विचार करो कि इस्लाम क्यों आया? जब कोई भी प्रणालीमें अतिरेक होता है तो एक प्रतिकारवाला प्रतिभाव होता है.
प्रणालीयां समाजको लयबद्ध जिनेके लिये होती है. प्रणालीयां संवादके लिये होती है. प्रणालीयां आनंदके लिये होती है. अगर इसमें असंतुलन हो जाय और समाजके मनुष्योंकी सुविधाओंमें यानी कि आनंदमें असंतुलन हो जाय तब कोई सक्षम मनुष्य आगे आ जाता है और वह विद्रोहवाला प्रतिकार करता है.
इश्वरकी शक्तियों पर समाज निर्भर है. इन शक्तियोंको आप कुछ भी नाम दे दो. आप उनका भौतिक प्रतिक बनाके उनको याद रखो और उसकी उपासना करो. उस उपासनाओंकी विधियां बनाओ. उनकी विधियोंके अधिकारीयोंको सत्ता दो. यह पूरा फिर एक प्रपंच बन जाता है. समाजके युथोंके सुखोंमें असंतुलन हो जाता है. कोई न कोई कभी न कभी ऐसा व्यक्ति निकलेगा जो इनका विरोध करेगा.
अरबस्तानमें महोम्मद साहब हुए. और भारतमें दयानंद सरस्वती हुए. दयानंद सरस्वतीसे पहेले भी कई लोग हुए थे. शंकराचार्यने कर्मकांडका विरोध किया था. भारतमें किसी विद्रोहीने तिरस्कार और तलवारका उपयोग किया नहीं था. क्यों कि भारतमें धर्म-चर्चा एक प्रणाली थी. अरबस्तानमें मोहम्मद साहबके जमानेमें ऐसा कुछ था नहीं. उस समय शासकके हाथमें सर्व सत्ता थी.
मोहम्मद साहबने मूर्त्तिपूजाका और विधियोंका विरोध किया. और वैज्ञानिक तर्कसे सोचनेका आग्रह किया. उस समय जो उच्च लोग थे वे लोग जो अनाचार दुराचार करना चाहते थे वे इश्वरके नामपर करते थे. दारु पीना है? ईश्वरको समर्पित करो और फिर खुद पीओ. जुआ खेलना है? तो ईश्वरके नाम पर करो.
भारतमें भी आजकी तारिखमें ऐसा ही है. कृष्ण भगवानके नाम पर जुआ खेला जाता है. देवीके नाम पर दारु पीया जाता है. ईश्वरके नाम पर भंग पी जाती है. देवदासीके नाम पर व्यभिचार किया जाता है. आचार्य रजनीशने संभोगसे समाधि पुरस्कृत किया है. जब मानव समाजमें समुहोंके बीच सुखोंमे असंतुलन होता है तब दंगा फसाद और विद्रोह होता है.
मोहम्मद साहबने अपने जमानेमें जो जरुरी था वह किया.
इस्लाम यह कहता है
ईश्वर एक है. उसका कोई आकार नहीं. उसकी कोई जाति नहीं. वह किसीका संबंधी नहीं. वह जगतकी हर वस्तुसे नजदिकसे नजदिक है. वह सर्वत्र है और सबकुछ देखता है. वह ज्योतिके रुपमें प्रगट होता है. आपका कर्तव्य है कि आप सिर्फ उसकी ही उपासना करें. यह उपासना नमाजकी विधिके अनुसार करो. और दिनमें पांच बार करो. ईश्वर दयावान है. अगर आप, उनसे, अपने कुकर्मोंकी सच्चे दिलसे माफी मांगोगे तो वह माफ कर देगा.
ईश्वरको ईमान प्रिय है. इसलिये ईमानदार बनो.
वैज्ञानिक अभिगम रक्खो,
आप सुखी है? तो इसका श्रेय ईश्वरको दो.
आपने कुछ अच्छाकाम किया है? तो समझो की ईश्वरने आप पर कृपा है की है, कि उसने इस अच्छे कामके लिये आपको पसंद किया. आप इसका श्रेय ईश्वरको दो.
आप देखो कि आपका पडोसी दुःखी तो नहीं है न? उसको मदद करो. उसको भोजन करानेके बाद आप भोजन करो.
आप संपन्न है तो इसका एक हिस्सा इश्वरको समर्पित करो.
जिसको धनकी जरुरत है उसको धन दो और मदद करो. उससे व्याज मत लो.
अगर कोई गलत रास्ते पर जा रहा है और समझाने पर भी सही रास्ते पर नहीं आता है, तो समझलो कि यह ईश्वर की इच्छा है. ईश्वर उसको गुमराह करेगा और सजा देगा.
ईश्वरने तुम्हारे लिये वृक्षोंपर और पौधोंपर सुंदर भोजन बनाया है. तुम उसको ईश्वरकी कृपाको याद करते करते आनंदसे खाओ. (अगर इनकी कभी कमी पड गई तो) जिंदा रहेनेके लिये फलां फलां प्राणीयोंका मांस इश्वरको समर्पित करके खाओ.
यह है इस्लामके आदेश जो मोहम्मद साहबने अपने लोगोंको राह पर चलनेके लिये बतायें.
और भी कई बाते हैं लेकिन वह सब उस जमानेमें अनुरुप होगी ऐसा प्रस्तूत करने वालोंको लगा होगा इसलिये प्रस्तूत किया होगा. लग्न कैसे करना, किससे करना, कितनी बार करना, कितनोंके साथ करना चाहिये आदि आदि. यह कोई चर्चा और कटूताका विषय बनना नहीं चाहिये.
वैसे तो मनुस्मृतिकी कई बाते हम आज मानते नहीं है.
हिन्दु धर्म क्या है?
सत् एक ही है. वह ब्रह्म है. वह निराकार, निर्विकार और निर्गुण है. वह पूर्ण है. पूर्णमेंसे पूर्ण लेलो तो पूर्ण ही बचता है.
उसको कोई जानता नहीं न तो कोई जान सकता है न कोई वर्णन कर सकता है. जो भी कहो वह ऐसा नहीं है. वह ईन्द्रीयोंसे पर है.
ब्रह्ममेंसे ज्योतिरुप अग्नि निकला और जगत बनाया. यह अग्नि (महोदेवो) ईश्वर है. वह सर्वत्र है और वह ही सब है. वह अग्रमें (आरंभमें) है, मध्यमें है और अंतमें भी वही है.
सब क्रियाओंका कारण है. लेकिन ब्रह्ममेंसे जगत क्यों बना, सिर्फ इसका कारण नहीं है.
ईश्वर ब्रह्म ही है. ईश्वर जगतका संचालन करता है. उसने व्यवस्था बनाई है. और सबको कर्मके अनुसार फल मिलता है.
ईश्वर अनुभूतिका विषय है. भक्ति, कर्म, योग और ज्ञान के द्वारा आप उनको पा सकते है.
आप उसकी किसीभी रुपमें उपासना कर सकते है.
सभी चीजें सजिव है. वनस्पति भी सजीव है. वृक्षमें बीज है और बीजमें वृक्ष है. रसादार फल खाओ और बीजको वृक्ष होने दो. पर्ण खाओ लेकिन वृक्षको जिन्दा रखो. सबको जीनेका अधिकार है. सबका कल्याण हो. सबको शांति हो.
सत्य और अहिंसा अपनानेसे ध्येयकी प्राप्ति होती है.
ईश्वरीय शक्तियोंका आदर करो. और उनको उनका हिस्सा दो. उसके बाद उपभोग करो.
माता प्रथम शक्ति है. द्वीतीय शक्ति पिता है. तृतीय शक्ति जो तुम्हारे घर महेमान आया है वह है. तुम्हारा शिक्षक चतुर्थ शक्ति है. और पंचम शक्ति ईश्वर है.
यह पृथ्वी तुम्हारा कुटुंब है. कोई पराया नहीं है.
तुमने जो काम पसंद किया उसको निभाना तुम्हारा कर्तव्य (धर्म) है. तुमने जिस कामका अभ्यास नहीं किया उस काममें चोंच डालना ठीक नहीं है (अधर्म है). तुमने जिस कामका अभ्यास किया उसमें तुम्हारी मृत्यु हो जाय तो चलेगा. लेकिन अगर तुम अपने केवल स्वार्थको केन्द्रमें रखकर जिसका तुम्हे अभ्यास नहीं उसको करोगे तो समाजके लिये वह भय जनक है.
तुम जो भी कर्म करते हो वह अलिप्त भावसे करो.
कुछ भी तुम्हारा नहीं है. न तुम कुछ लाये हो न तुम कुछ ले जाओगे. तुम तो निमित्त मात्र हो.
तुम कुछ भी करते नहीं हो. सब कुछ ईश्वर करता है. कार्य करनेवाला ईश्वर है, कार्य भी ईश्वर है और क्रिया भी ईश्वर है. हम सब एकमात्र परमात्मा के अंश है. लेकिन अज्ञानताके आवरणके कारण हम अपनेको दुसरोंसे अलग है ऐसा अनुभव करते है.
विगतके लिये पढेः
“जो खुदको भले ही नुकशान हो जाय तो भी दुसरोंके लाभके लिये काम करता है वह सत्पुरुष है.
“जो दुसरोंको नुकशान न हो इस प्रकारसे अपने लाभका काम करता है वह मध्यम कक्षाका पुरुष है.
“जो अपने लाभके लिये दुसरोंका नुकशान करता है वह राक्षस है.
“जो ऐसे ही (निरर्थक ही) दुसरोंको नुकशान करता है वह कौन है वह हमें मालुम नहीं. (भर्तृहरि).
जो उपकार करनेवालेको भी (जनताको) नुकशान पहुंचाके अपना उल्लु सीधा करता है वह नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके साथी हैं.
देशने नहेरुवीयनोंको क्या क्या नहीं दिया. ६० साल सत्ता दी, अरबों रुपये दिया, अपार सुविधाएं दी, तो भी उन्होने देशको लूटा और देशकी ७० प्रतिशत जनताको गरीब और अनपढ रक्खा, ता कि वह हमेशा उनके उपर आश्रित रहे. ये राक्षसके बाप है.

जो हिन्दु और मुस्लिम जनताके बीचमें जो समस्याएं है वह कैसे दूर की जाय? इन दोनोंको कैसे जोडा जाय?
(क्रमशः)
शिरीष मोहनलाल दवे
smdave1940@yahoo.com
टेग्झः हिन्दु, मुस्लिम, अरबस्तान, विक्रमादित्य, इस्लाम, प्रणाली, समाज, लयबद्ध, आनंद, संवाद, असंतुलन, विद्रोह, प्रतिकार, ईश्वर, शक्ति, युथ, महोम्मद साहब, विज्ञान, ईमान, दयानंद सरस्वती, शंकराचार्य, मूर्त्तिपूजा, दारु, ब्रह्म, जगत, कार्य, फल, व्यवस्था, संचालन, निमित्त, ज्ञान
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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-9
खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग–९)
रामको कौन समझ पाया?
एक मात्र महात्मा गांधी है जो रामको सही अर्थोमें समझ पाये.
प्रणालीयोंको बदलना है? तो आदर्श प्रणाली क्या है वह सर्व प्रथम निश्चित करो.
आपको अगर ऐसा लगा कि आप आदर्श प्रणालीको समझ सके हो तो पहेले उसको मनमें बुद्धिद्वारा आत्मसात करो, और वैसी ही मानसिकता बनावो. फिर उसके अनुसार विचार करो और फिर आचार करो. इसके बाद ही आप उसका प्रचार कर सकते हो.
लेकिन यह बात आपको याद रखने की है कि, प्रचार करने के समय आपके पास कोई सत्ता होनी नहीं चाहिये. सत्ता इसलिये नहीं होनी चाहिये कि आप जिस बातका प्रचार करना चाहते है उसमें शक्ति प्रदर्शन होना वर्ज्य है. सत्ता, शक्ति और लालच ये सब एक आवरण है, और यह आवरण सत्यको ढक देता है. (हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्.).
गांधीजीको जब लगा कि वे अब सामाजिक क्रांति लाना चाहते है तो उन्होने कोंग्रेसके पदोंसे ही नहीं लेकिन कोंग्रेसके प्राथमिक सभ्यपदसे भी त्यागपत्र दे दिया. इसकी वजह यह थी कि उनकी कोई भी बातोंका किसीके उपर उनके पदके कारण प्रभाव न पडे और जिनको शंका है वे संवादके द्वारा अपना समाधान कर सके.
कुछ लोग कहेंगे कि उनके उपवास, और कानूनभंग भी तो एक प्रकारका दबाव था! लेकिन उनका कानून भंग पारदर्शी और संवादशील और सजाके लिये आत्मसमर्पणवाला था. उसमें कोई हिंसात्मक सत्ता और शक्ति संमिलित नहीं थी. उसमें कोई कडवाहट भी नहीं थी. सामने वाले को सिर्फ यह ही कहेनेका था कि, उसके हदयमें भी मानवता है और “रुल ऑफ लॉ” के प्रति आदर है.
महात्मा गांधीने रामको ही क्यों आदर्श के लिये चूना?
भारत, प्राचीन समयमें जगत्गुरु था. गुरुकी शक्ति शस्त्र शक्ति नहीं है. गुरुको शस्त्र विद्या आती है लेकिन वह केवल शासकोंको सीखानेके लिये थी. गुरुका धर्म था विद्या और ज्ञानका प्रचार, ताकि जनता अपने सामाजिक धर्मका आचरण कर सके.
शासकका धर्म था आदर्श प्रणाली के अनुसार “रुल ऑफ लॉ” चलाना. शासकका काम और धर्म, यह कतई नहीं था कि वह सामाजीक क्रांति करें और प्रणालीयोंमें परिवर्तन या बदलाव लावें. यह काम ऋषियोंका था. राजाके उपर दबाव लानेका काम, ऋषियोंकी सलाह के अनुसार जनता का था.
वायु पुराणमें एक कथा है.
ब्राह्मणोंको मांस भक्षण करना चाहिये या नहीं? ऋषिगण मनुके पास गये. मनुने कहा ऋषि लोग यज्ञमें आहुत की हुई चीजें खाते है. इस लिये अगर मांस यज्ञमें आहुत किया हुआ द्रव्य बनता है तो वह आहुतद्रव्य खा सकते है. तबसे उन ब्राह्मणोंने यज्ञमें आहुत मांस खाना चालु किया. फिर जब ईश्वरने (शिवने) यह सूना तो उसने मनु और ब्राह्मणोंको डांटा. मनुसे कहाकि मनु, तुम तो राजा हो. राजाका ऐसा प्रणाली स्थापनेका और अर्थघटन करनेका अधिकार नहीं है. उसी प्रकार, ऋषियोंको भी ईश्वरने डांटा कि, उन्होने अनधिकृत व्यक्तिसे सलाह क्यों ली? तो मनु और ये ऋषिलोग पाप भूगतते रहेंगें. उस समयसे कुछ ब्राह्मण लोग मांस खाते रहे.
आचार्य मतलब है कि, आचार और विचारों पर शासन करें. मतलब कि, जिनके पास विद्या और ज्ञान है, उनके पास जो शासन रहेगा वह कहलायेगा अनुशासन. समस्याओंका समाधान ये लोग करेंगे. आचार्योंके शासन को अनुशासन कहा जायेगा. और शासकका काम है, सिर्फ “नियमों”का पालन करना और करवानेका. ऐसा होनेसे जनतंत्र कायम रहेगा.
अब देखो नहेरुवीयन कोंग्रेसने जो भी नियम बनायें वे सब अपने वॉट बेंक के लिये मतलबकी अपना शासन कायम रहे उसके लिये बनाया. वास्तवमें नियम बनानेका मुसद्दा जनताकी समस्याओंके समाधान के लिये ऋषियोंकी तरफसे मतलब कि, ज्ञानी लोगोंकी तरफसे बनना चाहिये. जैसे कि लोकपालका मुसद्दा अन्ना हजारे की टीमने “जनलोकपाल” के बील के नामसे बनवाया था. उसके खिलाफ नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासकोंने एक मायावी-लोकपाल बील बनाया जिससे कुछ भी निष्पन्न होनेवाला नहीं था.
शासक पक्षः
नहेरुवीयन कोंग्रेस एक शासक पक्ष है. वह प्रजाका प्रतिनिधित्व करती है. लेकिन उसने चूनाव अभियानमें अपना लोकपाल बीलका मुसद्दा जनताके सामने रखकर चूनाव जीता नहीं था. उतना ही नहीं वह खुद एक बहुमत वाला और सत्ताहीन पक्ष नहीं था. उसके पास सत्ता थी और वह एक पक्षोंके समूह के कारण सत्तामें आया था. अगर उसके पास सत्ता है तो भी वह कोई नियम बनानेका अधिकार नहीं रख सकता.
शासक पक्षके पास कानून बनानेकी सत्ता नहीः
उसका मतलब यह हुआ कि जनताके प्रतिनिधिके पास नये नियम और पूराने नियमोंमें परिवर्तन करनेकी सत्ता नहीं हो सकती.
जो लोग समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मानसाशास्त्रमें निपूण है वे लोग ही हेतुपूर्ण मुसद्दा बनायेंगे और न्यायविद्वानोंसे मुसद्देका आखरी स्वरुप, नियम की भाषामें बद्ध करेंगे. फिर उसकी जनता और लोक प्रतिनिधियों के बीचमें और प्रसार माध्यमोंमें एक मंच पर चर्चा होगी, और उसमें फिरसे जो लोग समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मानसाशास्त्रमें निपूण है वे लोग हेतुपूर्ण मुसद्दा बनायेंगे और न्यायविद्वानोंसे फिरसे मुसद्देका आखरी स्वरुप नियमकी भाषामें बद्ध करेंगे और फिर उसके उपर मतदान होगा. यह मतदान संसदमें नहीं परंतु चूनाव आयोग करवायेगा. संसदसदस्योंके पास शासन प्रक्रीया पर नीगरानी रखनेकी सत्ता है. जो बात जनताके सामने पारदर्शितरुपमें रख्खी गई नहीं है, उसको मंजुर करने की सत्ता उनके पास नहीं है.
महात्मा गांधीने कोंग्रेसका विलय करनेको क्यों कहा?
महात्मा गांधी चाहते थे कि जो लोग अपनेको समाज सेवक मानते है और समाजमें क्रांति लाना चाहते है, वे अगर सत्तामें रहेंगे तो क्रांतिके बारे में सोचनेके स्थान पर वे खुद सत्तामें बने रहे उसके बारेमें ही सोचते रहेंगे. अगर उनको क्रांति करनी है तो सत्ताके बाहर रह कर जनजागृतिका काम करना पडेगा. और अगर जनता इन महानुभावोंसे विचार विमर्श करके शासक पक्षों पर दबाव बनायेगी कि, ऐसा क्रांतिकारी मुसद्दा तैयार करो और चूनाव आयोगसे मत गणना करवाओ.
महात्मा गांधीको मालुम था
महात्मा गांधीको मालुम था कि कोंग्रेसमें अनगिनत लोग सत्ताकांक्षी और भ्रष्ट है. और जनताको यह बातका पता चल ही जायेगा. “लोग इन कोंग्रेसीयोंको चून चून कर मारेंगे”. और उनकी यह बात १९७३में सच्ची साबित हुई.
गुजरातके नवनिर्माण आंदोलनमें गुजरातकी जनताने कोंग्रेसीयोंको चूनचून कर मारा और उनका विधानसभाकी सदस्यतासे इस्तिफा लिया. विधानसभाका विसर्जन करवाया. बादमें जयप्रकाश नारायणके नेतृत्वमें पूरे देशमें कोंग्रेस हटावोका आंदोलन फैल गया. जिस नहेरुवीयन कोंग्रेसने “हम गरीबी हटायेंगे… हम इसबातके लिये कृत संकल्प है” ऐसे वादे देकर, निरपेक्ष बहुमतसे १९७०में सत्ता हांसिल की थी, वह चाहती तो देशमें अदभूत क्रांति कर सकती थी. तो भी, नहेरुवीयन फरजंद ईन्दीरा गांधीको सिर्फ सत्ता और संपत्ति ही पसंद था. वह देशके हितके हरेक क्षेत्रमें संपूर्ण विफल रही और जैसा महात्मा गांधीने भविष्य उच्चारा था वैसा ही ईन्दीरा गांधीने किया. उसने अपने हरेक जाने अनजाने विरोधीयोंको जेलके हवाले किया और समाचार पत्रोंका गला घोंट दिया. उसने आपतकाल घोषित किया और मानवीय अधिकारोंका भी हनन किया. उसके कायदाविदने कहा कि, आपतकालमें शासक, आम आदमीका प्राण तक ले सकता है तो वह भी शासकका अधिकार है.
रामराज्यकी गहराई समझना नहेरुवीयन संस्कारके बसकी बात नहीं
और देखो यह ईन्दीरा गांधी जिसने हाजारोंसाल पूराना भारतीय जनतंत्रीय मानस जो महात्मा गांधीने जागृत किया था उसका ध्वंस किया. और वह ईन्दीरा गांधी आज भी यह नहेरुवीयन कोंग्रेसमें एक पूजनीया मानी जाती है. ऐसी मानसिकता वाला पक्ष रामचंद्रजीके जनतंत्र की गहराई कैसे समझ सकता है?
राम मंदिरका होना चाहिये या नहीं?
रामकी महानताको समझनेसे भारतीय जनताने रामको भगवान बना दिया. भगवान का मतलब है तेजस्वी. आकाशमें सबसे तेजस्वी सूर्य है. सूर्यसे पृथ्वी स्थापित है. सूर्यसे पृथ्वी की जिंदगी है. सूर्य भगवान वास्तवमें जीवन मात्रका आधार है. जब भी कोई अतिमहान व्यक्ति पृथ्वी पर पैदा होता है तो वह सूर्य भगवान की देन माना जाता है. सूर्यका एक नाम विष्णु है. इसलिये अतिमहान व्यक्ति जिसने समाजको उन्नत बनाया उसको विष्णुका अवतार माना जाता है. ऐसी प्रणाली सिर्फ भारतमें ही है ऐसा नहीं है. यह प्रणाली जापानसे ले कर मीस्र और मेक्सीको तक है या थी.
लेकिन नहेरुवीयन कोंग्रेसको महात्मा गांधीका नाम लेके और महात्मा गांधीकी कोंग्रेसकी धरोहर पर गर्व लेके वोट बटोरना अच्छा लगता है, लेकिन महात्मा गांधीके रामराज्यकी बात तो दूर रही, लेकिन रामको भारत माता का ऐतिहासिक सपूत मानने से भी वह इन्कार करती है. यह नहेरुवीयन कोंग्रेसको भारतीय संस्कृतिकी परंपरा पर जरा भी विश्वास नहीं है. उसके लिये सब जूठ है. राम भी जूठ है क्योंकि वह धार्मिक व्यक्ति है.
नहेरुवीयन कोंग्रेसने रामको केवल धार्मिक व्यक्ति बनाके भारतीय जनतांत्रिक परंपराकी धज्जीयां उडा देनेकी भरपूर कोशिस की. नहेरुवीयन कोंग्रेसने रामका ऐतिहासिक अस्तित्व न्यायालयके सामने शपथ पूर्वक नकार दिया.
पूजन किनका होता है
अस्तित्व वाले तत्वोंका ही पूजन होता है. या तो वे प्राकृतिक शक्तियां होती है या तो वे देहधारी होते है. जिनका अस्तित्व सिर्फ साहित्यिक हो उनकी कभी पूजा और मंदिर बनाये जाते नहीं है. विश्वमें ऐसी प्रणाली नहीं है. लेकिन मनुष्यको और प्राकृतिक तत्वोंको पूजनेकी प्रणाली प्रचलित है, क्यों कि उनका अस्तित्व होता है.
महामानवके बारेमें एकसे ज्यादा लोग कथाएं लिखते है. महात्मागांधीके बारेमें हजारों लेखकोंने पुस्तकें लिखी होगी और लिखते रहेंगे. लेकिन “जया और जयंत”की या “भद्रंभद्र” की जीवनीके बारेमें लोग लिखेंगे नहीं क्यों कि वे सब काल्पनिक पात्र है.
भद्रंभद्रने माधवबागमें जो भाषण दिया उसकी चर्चा नहीं होगी, लेकिन विवेकानंदने विश्व धर्मपरिषदमें क्या भाषण दिया उसकी चर्चा होगी. विवेकानंदकी जन्म जयंति लोग मनायेंगे लेकिन भद्रंभद्रकी जन्म जयंति लोगे मनायेंगे नहीं.
राम धर्मके संलग्न हो य न हो, इससे रामके ऐतिहासिक सत्य पर कोई भी प्रभाव पडना नहीं चाहिये.
मान लिजीये चाणक्यको हमने भगवान मान लिया.
चाणक्यके नामसे एक धर्म फैला दिया. काल चक्रमें उसका जन्म स्थल ध्वस्त हो गया. नहेरुवीयनोंने भी एक धर्म बना लिया और एक जगह जो चाणक्यका जन्म स्थल था उसके उपर एक चर्च बना दिया. जनताने उसका उपयोग उनको करने नहीं दिया. तो अब क्या किया जाय? जे. एल. नहेरुका महत्व ज्यादा है या चाणक्य का? चाणक्य नहेरुसे २४०० मील सीनीयर है. चाणक्यका ही पहेला अधिकार बनेगा.
हिन्दु प्रणाली के अनुसार मृतदेहको अग्निदेवको अर्पण किया जाता है. वह मनुष्यका अंतिम यज्ञ है जिसमें ईश्वरका दिया हुआ देह ईश्वरको वापस दिया जाता है. यह विसर्जनका यज्ञ स्मशान भूमिमें होता है. इसलिये भारतीयोंमें कब्र नहीं होती. लेकिन महामानवों की याद के रुपमें उनकी जन्मभूमि या कर्म भूमि होती है. या तो वह उसकी जन्मभूमि होती है या तो उनसे स्थापित मंदिर होते हैं. ईश्वर का प्रार्थनास्थल यानी की मंदिर एक जगहसे दुसरी जगह स्थापित किया जा सकता है. लेकिन जन्म भूमि बदल नहीं सकती.
एक बात लघुमतीयोंको समझनी चाहिये कि, ईसाई और मुस्लिम धर्ममें शासकोंमें यह प्रणाली रही है कि जहां वे गये वहां उन्होने वहांका स्थानिक धर्म नष्ट करने की कोशिस की, और स्थानिक प्रजाके धर्मस्थानोंको नष्ट करके उनके उपर ही अपने धर्मस्थान बनाये है. यह सीलसीला २०वीं सदीके आरंभ तक चालु था. जिनको इसमें शक है वे मेक्सीको और दक्षिण अमेरिकाके स्थानिक लोगोंको पूछ सकते हैं.
जनतंत्रमें राम मंदिर किस तरहसे बन सकता है?
श्रेष्ठ उपाय आपसी सहमती है, और दूसरा उपाय न्यायालय है.

शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः राम वचन, प्रतिज्ञा, नहेरुवीयन, नहेरु, ईन्दीरा, महात्मा गांधी, राम राज्य, राजा राम, अर्थघटन, नियम, परिवर्तन, प्रणाली, शासक, अधिकार, रुल ऑफ लॉ, निगरानी, सत्ता, ऋषि, ईश्वर, मनु, अधिकारी, जनतंत्र, हिन्दु, धर्म
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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-8
खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग–८)
सीता धरतीमें समा गई. एक पाठ ऐसा है कि वाल्मिकी खुद, सीताकी शुद्धता शपथसे कहे और वशिष्ठ उसको प्रमाण माने . लेकिन राम का मानना है कि, ऐसी कोई प्रणाली नहीं है. प्रणाली सिर्फ अग्नि परीक्षाकी ही है. सीताको पहेलेकी तरह अग्निपरीक्षा देनी चाहिये.
सीताने पहेलेकी तरह अग्नि परीक्षा क्युं न दी? सीताको लगा कि, ऐसी बार बार परीक्षा देना उसका अपमान है. इस लिये योग्य यह ही है कि वह अपना जीवन समाप्त करें.
इस बातका जनताके उपर अत्यंत प्रभाव पडता है. और जनता के हृदयमें राम के साथ साथ सीताका स्थान भी उतनाही महत्व पूर्ण बन जाता है.
राम और नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेता गण
राम की सत्य और प्रणालीयोंके उपरकी निष्ठा इतनी कठोर थी, कि अगर उसको हमारे नहेरुसे लेकर आजके नहेरुवीयन कोंग्रेसके वंशज अगर रामके प्रण और सिद्धांकोके बारेमें सोचने की और तर्क द्वारा समझने की कोशिस करें, तो उनके लिये आत्महत्याके सिवा और कोई मार्ग बचता नहीं है.
राजाज्ञा और राजाज्ञाके शब्दोंका अर्थघटन
रामने तो अजेय हो गये थे. राज्य का कारोबार भी स्थापित और आदर्श परंपरा अनुसार हो रहा था.
एक ऋषि आते है. वे रामके साथ अकेलेमें और संपूर्णतः गुप्त बातचीत करना चाहते है. वह यह भी चाहते है कि जबतक बातचीत समाप्त न हो तब तक किसीको भी संवादखंडके अंदर आने न दिया जाय. राम, लक्ष्मणको बुलाते है. और संवादखंड के द्वारके आगे लक्ष्मणको चौकसी रखने को कहते है. और यह भी कहते है कि यह एक राजाज्ञा है. जिसका अनादर देहांत दंड होता है.
राम और ऋषि संवाद खंडके अंदर जाते है. लक्ष्मण द्वारपाल बन जाता है. संवादखंडके अंदर राम और ऋषि है और बातचीत चल रही है.
कुछ समयके बाद दुर्वासा ऋषि आते है. वे लक्ष्मणको कहेते है कि रामको जल्दसे जल्द बुलाओ. लक्ष्मण उनको बताते है कि राम तो गुप्त मंत्रणा कर रहे है, और किसीको भी जानेकी अनुमति नहीं है. दुर्वासा आग्रह जारी रखते है और शीघ्राति शीघ्र ही नहीं लेकिन तत्काल मिलनेकी हठ पर अड जाते है. और लक्ष्मणके मना करने पर वे गुस्सा हो जाते है. और पूरे अयोध्याको भष्म कर देनेकी धमकी देते है. तब लक्ष्मण संवाद खंड का द्वार खोलता है. ठीक उसी समय राम और ऋषिकी बातचीत खत्म हो जाती है और दोनों उठकर खडे हो जाते है.
“संवादका अंत” की परिभाषा क्या?
संवाद का प्रारंभ तो राम और ऋषि खंडके अंदर गये और द्वार बंद किया तबसे हो जाता है.
लेकिन संवादका अंत कब हुआ?
जब राम और ऋषिने बोलना बंद किया तबसे?
जब राम और ऋषि आसन परसे उठे तबसे?
जब राम और ऋषि द्वारके पास आये तबसे?
जब राम और ऋषि द्वार के बाहर आये तब?
रामके हिसाबसे जब तक राम और ऋषि द्वारके बाहर न आवे तब तक संवादका अंत मानना नहीं चाहिये.
जब राम और ऋषिने बोलना बंद किया तबसे संवादका अंत मानना नहीं चाहिये. क्यों कि यह तो दो मुद्दोंके बीचका विराम हो सकता है. यह भी हो सकता है वे दोनोंको कोई नया मुद्दा या कोई नयी बात याद आ जावें?
जब राम और ऋषि आसन परसे उठे तबसे भी संवादका अंत न मानना चाहिये, क्योंकि वे नयी बात याद आने से फिरसे बैठ भी सकते है.
जब राम और ऋषि द्वारके पास आये तबसे भी संवादका अंत न मानना चहिये, क्यों कि वे बीना द्वार खोले वापस अपने स्थान पर जा सकते है.
चौकीदारके लिये ही नहीं परंतु राम, ऋषि और सबके लिये भी, जब वे दोनों (राम और ऋषि), द्वार खोलके बाहर आते है तब ही संवाद का अंत मान सकता है. क्यों कि संवादकी गुप्तता तभी खतम हुई होती है.
तो अब प्रणाली के हिसाबसे राजाज्ञाका अनादर करने के कारण, लक्ष्मणको देहांत दंड देना चाहिये.
लक्ष्मण, जो रामके साथ रहा और दशरथकी आज्ञा न होने पर भी रामके साथ वनवासमें आया और खुदने अनेक दुःख और अपमान झेले. उसका त्याग अनुपम था. इस लक्ष्मणने अयोध्याकी रक्षाके लिये राजाज्ञाका शाब्दिक उल्लंघन किया जो वास्तवमें उल्लंघन था भी नहीं. जो ऋषि रामके साथ संवाद कर रहे थे उनको भी यह लगता नहीं था कि लक्ष्मणने राजाज्ञाका उल्लंघन किया है. लेकिन क्षुरस्य धारा पर चलने वाले रामको और लक्ष्मणको लगा की राजाज्ञाका उल्लंघन हुआ है.
रामने वशिष्ठसे पूछा. उनके अर्थघटनके अनुसार भी राजाज्ञाका उल्लंघन हुआ था. लेकिन देहांत दंड के बारेमें एक ऐसी भी अर्थघटनकी प्रणाली थी कि अगर देहांत दंड जिस व्यक्ति के उपर लागु करना है वह अगर एक महाजन है तो उसको “स्वदेश त्याग” की सजा दे जा सकती है. रामने लक्ष्मणको वह सजा सूनायी.
लक्ष्मण अयोध्यासे बाहर निकल जाते है और सरयु नदीमें आत्म हत्या कर लेते है.
तो यह थी राम, लक्ष्मण और सीताकी मानसिकता.
इस मानसिकताको भारतकी जनताने मान्य रख्खी. अर्वाचीन समयको छोड कर किसीने रामको कमअक्ल और एक निस्फल पति या कर्तव्य हीन पति, ऐसा बता कर उनकी निंदा नहीं की. सीता और लक्ष्मण की भी निंदा नहीं की.
लेकिन अर्वाचीन युगमें और खास करके नहेरुवीयन युगमें कई मूर्धन्योंने रामकी निंदा की है. रामके त्यागका, रामके उत्कृष्ठ अर्थघटनोंका, रामकी कर्तव्य निष्ठाका, रामकी प्रणालीयोंके प्रति आदरका वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया है.

शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः राम वचन, प्रतिज्ञा, महात्मा गांधी, राम राज्य, राजा राम, अर्थघटन, नियम, परिवर्तन, प्रणाली, शासक, अधिकार, रुल ऑफ लॉ, निगरानी, सत्ता, ऋषि, ईश्वर, मनु, अधिकारी, जनतंत्र, हिन्दु, धर्म
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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-7
खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग–७)
एक बात हमे फिरसे याद रख लेनी चाहिये कि व्यक्ति और समाज प्रणालीके अनुसार चलते है.
समाजमें व्यक्तिओंका व्यवहार प्रणालीयोंके आधार पर है
प्रणाली के अंतर्गत नीति नियमोंका पालन आता है. अलग अलग जुथोंका व्यक्तिओंका कारोबार भी प्रणालीके अंतर्गत आता है. कर्म कांड और पूजा अर्चना भी प्रणालीके अंतरर्गत आते है.
मानव समाज प्रणाली के आधार पर चलता है. प्रणालीके पालनसे मानव समाज उपर उठता है. समाज के उपर उठनेसे मतलब है समाजकी सुखाकारीमें और ज्ञानमें वृद्धि. समाजके ज्ञानमें वृद्धि होनेसे समाजको पता चलता है कि, समाजकी प्रणालीयों को कैसे बदला जाय, कैसे नयी प्रणालीयोंको लाया जाय और कैसे प्रणालीयों को सुव्यवस्थित किया जाय.
शासक का कर्तव्य है कि वह स्थापित प्रणालीयोंका पालन करें और और जनतासे पालन करवायें.
कुछ प्रणालीयां कोई समाजमें विकल्प वाली होती हैं.
जैसे कि एक स्त्रीसे ही शादी करना या एक से ज्यादा स्त्रीयोंसे शादी करना.
जीवन पर्यंत एक ही स्त्रीसे विवाहित जीवन बीताना या उसके न होने से या और कोई प्रयोजनसे दुसरी स्त्रीसे भी शादी करना.
ऐसे और कई विकल्प वाले बंधन होते है. इनमें जो विकल्प आदर्श माना गया हो उसको स्विकारना सत्पुरुषोंके लिये आवश्यक है.
शासक को भी ऐसी आदर्श प्रणालीयोंका पालन करना ईच्छनीय है.
शासकको हृदयसे प्रणालीयोंका पालन करना है.
शासक (राजा या कोई भी व्यक्ति या व्यक्ति समूह जिनके उपर शासन की जिम्मेवारी है) न तो कभी प्रणालीयों मे संशोधन कर सकता है न तो वह नयी प्रणालीयां सूचित कर सकता है. अगर वह ऐसा करता है तो वह जनताकी निंदाके पात्र बनता है और जनता चाहे तो उसको पदभ्रष्ट कर सकती है.
रामने क्या किया?
रामने एक आदर्श राजाका पात्र निभाया.
उन्होने एक मात्र सीता से ही शादी की, और एक पत्नीव्रत रखा,
वनवासके दरम्यान ब्रह्मचर्यका पालन किया,
रावणको हरानेके बाद, सीताकी पवित्रताकी परीक्षा ली,
(वैसे भी सीता पवित्र ही थी उसका एक कारण यह भी था कि वह अशोकवाटिकामें गर्भवती बनी नहीं थी. अगर रावणने उसके उसके साथ जातीय संबंध रखा होता तो वह गर्भवती भी बन सकती थी.)
रामने जनताकी निंदासे बोध लिया और सीताका त्याग किया. राम जनताके साथ बहस नहीं किया. रामने सीताका त्याग किया उस समय सीता सगर्भा थी. रामने सीताको वाल्मिकीके आश्रममें रखवाया, ताकि उसकी सुरक्षा भी हो और उसकी संतानकी भी सुरक्षा और संतानका अच्छी तरह लालन पालन हो सके.
रामने सीताका त्याग करने के बाद कोई दूसरी शादी नहीं की.
रामने यज्ञके क्रीया कांडमें पत्नी की जरुरत होने पर भी दूसरी शादी नहीं की, और पत्नी की जगह सीताकी ही मूर्तिका उपयोग किया.
इससे साफ प्रतित होता है कि, राम सिर्फ सीताको ही चाहते थे और सिर्फ सीताको ही पत्नी मानते थे.
रामने न तो ढिंढोरा पीटवाया कि सीता को एक बडा अन्याय हो रहा है,
रामने न तो ढिंढोरा पीटवाया कि खुदको एक बडा अन्याय हो रहा है,
रामने न तो अपने फायदे के लिये प्रणालीमें बदलाव लानेका ढिंढोरा पीटवाया,
रामने खुद अपने महलमें रहेते हुए भी एक वनवासी जैसा सादगीवाला जीवन जिया और एक शासक का धर्मका श्रेष्ठतासे पालन किया.
क्या रामने ये सब सत्तामें चालु रहने के लिये किया था?
नहीं जी.
रामको न तो सुविधा का मोह था न तो सत्ताका मोह था.
अगर वे चाहते तो १४ सालका वनवास स्विकारते ही नहीं. अपने पार्शदों द्वारा जनतासे आंदोलन करवाते और अयोध्यामें ही रुक जाते.
अगर ऐसा नहीं करते तो भी जब भरत वापस आता है और रामको विनति करता है कि, वे अयोध्या वापस आजाय और राजगद्दी का स्विकार कर लें, तब भी राम भरतकी बात मान सकते थे. लेकिन रामने दशरथके वचनका पालन किया. और अपने निर्णयमें भी अडग रहे.
रामने वचन निभाया.
रामने अपने पुरखोंका वचन निभाया. अपना वचन भी निभाया. अगर राम चाहते तो वालीका राज्य स्वहस्तगत कर सकते थे. अगर राम चाहते तो रावणकी लंकाका राज्य स्वहस्तगत कर सकते थे. उसके लिये कुछभी बहाना बना सकते थे. लेकिन रामने प्रणालीयां निभायी और एक आदर्श राजा बने रहे.
ईन्दीरा गांधीने क्या किया?
नहेरुने भारतकी संसदके सामने प्रतिज्ञा ली थी कि, वे और उसका पक्ष, चीनके साथ युद्धमें हारी हुई जमीन को वापस प्राप्त किये बीना आराम नहीं करेगा. नहेरुको तो वार्धक्यके कारण बुलावा आ गया. लेकिन ईन्दीरा गांधीने तो १६ साल तक शासन किया. परंतु इस प्रतिज्ञाका पालन तो क्या उसको याद तक नहीं किया.
ईन्दीराने खुद जनताको आश्वस्त किया था कि वह एक करोड बंगलादेशी घुसपैठोंको वापस भेज देगी. लेकिन उसने वोंटबेंककी राजनीतिके तहत उनको वापस नहीं भेजा.
पाकिस्तानने आखिरमें भारत पर हमला किया तब ही ईन्दीरा गांधीने जनताके और लश्करके दबावके कारण युद्धका आदेश दिया. भारतके जवानोंने पाकिस्तानको करारी हार दी.
याद करो, तब ईन्दीरागांधीने और उसके संरक्षण मंत्रीने एलान किया था कि अबकी बार पाकिस्तानके साथ पेकेज–डील किया जायगा और इसके अंतर्गत दंड, नुकशान वसुली, १९४७–१९५० अंतर्गत पाकिस्तानसे आये भारतीय निर्वासितों की संपत्तिकी किमत वसुली और उनकी समस्याओंका समाधान, पाकिस्तान स्थित हिन्दु अल्पसंख्यकोंकी सुरक्षा और उनके हितोंकी रक्षा, पाकिस्तानमें भारत विरुद्ध प्रचार अभियान पर कडी पाबंदी, पाकिस्तान की जेलों कैद भारतीय नागरिकोंकी मुक्ति, पाकिस्तानी घुसपैठीयोंकी वापसी, काश्मिरकी लाईन ओफ कन्ट्रोलको कायमी स्विकार और भारतके साथ युद्ध–नहीं का करार. ऐसा पेकेज डील पर हस्ताक्षर करने पर ही पाकिस्तानी युद्ध कैदीयों की मुक्ति और जमीन वापसी पर डील किया जायेगा.
लेकिन ईन्दीरा गांधीने इस पेकेज डील किया नहीं और वचन भंग किया. इतना ही नहीं जो कुछ भी जिता था वह सब बीना कोई शर्त वापस कर दिया.
नहेरु और ईन्दीराने गरीबी हटानेका वचन दिया था वह भी एक जूठ ही था.
ईंदीरा गांधीका चूनाव संविधान अंतर्गत स्थापित प्रणालीयोंसे विरुद्ध था. न्यायालयने ईन्दीरा गांधीका चूनाव रद किया और उसको संसद सदस्यता के लिये ६ सालके लिये योग्यता हीन घोषित किया.
प्रणालीयोंका अर्थघटन करनेका अंतिम अधिकार उच्चन्यायालय का है. यह भी संविधानसे स्थापित प्रणाली है.
अगर इन प्रणालीयोंको बदलना है तो शासक का यह अधिकार नहीं है. लेकिन ईन्दीरागांधीने अपनी सत्ता लालसा के कारण, इन प्रणालीयोंको बदला. वह शासनपर चालु रही. और उसने आपतकाल घोषित किया. जनताके अधिकारोंको स्थगित किया. विरोधीयोंको कारावासमें बंद किया. यह सब उसने अपनी सत्ता चालु रखने के लिये किया. ये सब प्रणालीयोंके विरुद्ध था.
प्रणाली बदलनेकी आदर्श प्रक्रिया क्या है?
प्रजातंत्रमें प्रणालीयोंमे संशोधन प्रजाकी तरफसे ही आना चाहिये. उसका मुसद्दा भी प्रजा ही तयार करेगी.
रामने तो सीताको वापस लाने के लिये या तो उसको शुद्ध साबित करने के लिये कुछ भी किया नहीं. न तो उन्होने कुछ करवाया. न तो रामने अपने विरोधीयोंको जेल भेजा.
तो हुआ क्या?
सीता जो वाल्मिकीके आश्रममें थी. वाल्मिकीने सीतासे सारी बाते सूनी और वाल्मिकीको लगा की सीताके साथ न्याय नहीं हुआ है. इसलिये उन्होने एक महाकाव्य लिखा. और इस कथाका लव और कुशके द्वारा जनतामें प्रचार करवाया और जनतामें जागृति लायी गई. और जनताने राम पर दबाव बनाया.
लेकिन जिस आधार पर यानी कि, जिस तर्क पर प्रणालीका आधार था, वह तर्कको कैसे रद कर सकते है? नयी कौनसी प्रणाली स्थापित की जाय की जिससे सीताकी शुद्धता सिद्ध की जाय.
जैसे राम शुद्ध थे उसी आधार पर सीता भी शुद्ध थी. वाल्मिकी और उनका पूरा आश्रम साक्षी था. और यह प्रक्रियाको वशिष्ठने मान्य किया.
इस पूरी प्रक्रियामें आप देख सकते हैं कि रामका कोई दबाव नहीं है. रामका कोई आग्रह नहीं है. इसको कहेते हैं आदर्श शासक.
रामका आदर्श अभूत पूर्व और अनुपमेय है.

पत्नीके साथ अन्याय?
रामने सीताका त्याग किया तो क्या यह बात सीताके लिये अन्याय पूर्ण नहीं थी?
सीता तो रामकी पत्नी भी थी. सीताके पत्नी होनेका अधिकारका हनन हुआ था उसका क्या?
इस बातके लिये कौन दोषित है?
राम ही तो है?
रामने पतिधर्म क्यों नहीं निभाया?
रामको राजगद्दी छोड देनी चाहिये थी. रामने राजगद्दीका स्विकार किया और अपने पतिधर्मका पालन नहीं क्या उसका क्या?
रामका राज धर्म और रामका पतिधर्म
रामकी प्राथमिकता राजधर्मका पालन करनेमें थी. राम, दशरथराजाके ज्येष्ठपुत्र बने तबसे ही रामके लिये प्राथमिक धर्म निश्चित हो गया था कि, उनको राजधर्मका पालन करना है. यह एक राजाके ज्येष्ठपुत्रके लिये प्रणालीगत प्राथमिकता थी.
सीता रामकी पत्नी ही नहीं पर प्रणाली के अनुसार रानी भी थी. अगर रानी होनेके कारण उसको राज्यकी सुविधाओंके उपभोगका अधिकार मिलता है तो उसका भी धर्म बनता है कि, राजा अगर प्रणालीयोंके पालन करनेमें रानीका त्याग करें तो रानी भी राजाकी बातको मान्य करें. राजा और रानी प्रणालीयोंके पालनके मामलेमें पलायनवादका आचरण न करें.
सीता भी हाडमांसकी बनी हुई थी
रामायणकी कथा, हाडमांससे बने हुए मानवीय समाजकी एक ऐतिहासिक महाकथा है. सीता भी हाडमांसकी बनी हुई थी. उसने अपने हाडमांसके नातेसे सोचा की यह क्या बात हुई जो शुद्धताकी बात इतनी लंबी चली! यदि ऐसा ही चलते रहेगा तो मुझे क्या बार बार शुद्धताका प्रमाण पत्र लेते रह्ना पडेगा?
सीता कोई खीणमें पडकर आत्महत्या कर लेती है.
जनक राजाको यह सीता खेतकी धरती परसे प्राप्त हुई थी. वह सीता धरतीमें समा गयी. कविने उसको काव्यात्मक शैलीमें लिखा की अन्याय के कारण भूकंप हुआ और धरतीमाता सिंहासन लेके आयी और अपनी पुत्रीको ले के चली गई.
रामने अपनी महानता दिखायी. सीताने भी अपनी महानता दिखाई.
क्या रामके लिये यह एक आखरी अग्निपरीक्षा थी. नहीं जी. और भी कई पडाव आये जिसमें रामके सामने सिद्धांतोकी रक्षाके लिये चूनौतियां आयीं.
(क्रमशः)
शिरीष मोहनलाल दवे
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Rama has been lost who had walked on this earth in flesh and blood Part-6
खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग-६)
राजाराम
रामके लिये हम “राजाराम” ऐसा शब्द प्रयोग करते है. इसका कारण भी है और एक संदेश भी है. राम भी तो एक चक्रवर्ती राजा थे. तो भी हम उनको “चक्रवर्ती” राम ऐसा कहेते नहीं है. जो राज्य को चलाता है वह राजा है. राजकर्ताओमें चक्रवर्ती राजा भी आ जाता है. रामने जिस तरह राज कीया और जो प्रणालीयां चलाई वो उस समय आदर्श मानी जाती थी और बादमें भी मानी जाती होगी इस लिये हरहमेश राम एक आदर्श राजा रहे और इस लिये वे पूजनीय भी बने.
आदर्श राजा की परिभाषा क्या है?
जो राजा प्रस्थापित प्रणालीयोंका पालन करावे और स्वयं भी प्रस्थापित प्रणालीयोंका पालन करे और ऐसा करनेमें वह जरा भी शंकास्पद व्यवहार न करे उसको आदर्श राजा कहा जाता है.
प्रणाली क्या होता है?
समाजमें व्यक्तिओंका व्यवहार प्रणालीयोंके आधार पर है. नीति नियमोंका पालन भी प्रणालीके अंतर्गत आता है. अलग अलग जुथोंका व्यक्तिओंका कारोबार भी प्रणालीके अंतर्गत आता है. कर्म कांड और पूजा अर्चना भी प्रणालीके अंतरर्गत आते है.
राजा को भी अपने लिये जो परापूर्वसे जो आदर्श मानी गयी है उन्ही प्रणालीयोंका हृदयसे पालन करना होता है. राजा नयी प्रणाली / प्रणालीयोंकी स्थापना कर सकता नहीं है. यह उसका अधिकार भी नहीं है.
रामने रावणको तो हरा दिया और उसके भाई विभिषणको उसका राज्य दे दिया. क्यों कि राजा का धर्म है पुरस्कार देना. यह आदर्श माना गया है. ऐसा भी एक पाठ है कि विभिषण जब रावणको छोड कर राम के पास रामको मदद करनेके लिये आया तो रामने मददके बदलेमें लंकाकी राजगद्दीका आश्वासन दिया था तना ही नहीं, लेकिन उसका राज्याभिषेक भी कर दिया था. इसको रामकी मुत्सदिता कहो या कुछ भी कहो. लेकिन उन्होने विभिषणके पास पूरी पारदर्शिता रखी थी. इस प्रकार दोनो एक दुसरेके लिये वचन बद्ध हो गये थे.
सीता मुक्त हो गयी. रामने एक राजा की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की
लेकिन सीता, अपने हरणके बाद, तो लंकामें रावण के अधिकारमें थी. यह बात सही है कि, रावणने सीताको अपने महलमें नहीं रखा था. इसके साक्षी हनुमान थे. लेकिन हनुमान तो रामके दूत और सलाहकार थे और रामसे अभिभूत थे. उनका कहेना कैसे मान लिया जाय? राजा या कोई भी पुरुष कभी पराये पुरुषके घर गई और ठहरी अपनी स्त्री को पवित्र मान सकता नहीं है. पर पुरुषके घर ठहरी स्त्रीको पवित्र कैसे माना जाय?
तो क्या किया जाय?
सीता को अपनी पवित्रता सिद्ध करनी चाहिये?
तो पवित्रता सिद्ध करनेके लिये क्या प्रणाली थी?
अग्नि परीक्षा.
अग्नि परीक्षा क्या है?
चिता-प्रवेष. या अंगारों पर चलना.
चिता-प्रवेश करके बिना जले वापस आना एक चमत्कार है. हम चमत्कारोंमे मानते नहीं है. लेकिन आज भी कई लोग अंगारोंके उपर चलके दिखाते है.
अग्नि परीक्षा का एक विशेष अर्थ यह भी है कि मानसिकता की परीक्षा. जैसे कि “यक्ष प्रश्न” एक ऐसा प्रश्न है कि या तो उसका उत्तर ढूंढो या तो खतम हो जाओ.
“२००१ में भूकंप पीडित गुजरातको बाहर निकालके प्रगतिके पथ पर लाना” या तो “२००२ के गुजरातके दंगेके कारण विचलित गरिमाको पुनःस्थापित करना” नरेन्द्र मोदीके लिये अग्निपरीक्षा थी. और “भ्रष्टाचारको कैसे खतम किया जाय” यह देशका यक्ष प्रश्न है.
सीताने तत्कालिन प्रचलित अग्निपरीक्षा पास की. रामने सीताका स्विकार किया.
राम, सीता लक्ष्मण और हनुमान अपने साथीयोंके साथ अयोध्या आये. भरत भी प्रस्थापित प्रणालीयोंमें मानने वाला शासक था, उसने रामको अयोध्या की राजगद्दी दे दी.
राम भली भांति राज करने लगे.
एक ऐसा भी पाठ है कि इस रामके अच्छे गुणोंकी और पराक्रमोंकी अतिप्रशंसा तो होती ही थी, लेकिन उसमें एक और बात भी चलती थी कि, परपुरुष के घर रही हुई सीता को रामने कैसे अपनाया?
परपुरुषके घर पर रही हुई स्त्री पवित्र होती है?
आजकी मान्यता क्या है?
अगर एक स्त्री और एक पुरुष एक घरमें एक साथ रहते है तो स्त्रीको पवित्र मानी जाती है? ( पवित्रताके बारेमें स्त्री और पुरुष दोनोंको समझ लो).
एक पुरुष और एक स्त्री अगर अकेले एक घरमें रहते है तो उनमें शारीरिक संबंध नहीं हुआ होगा ऐसा न्यायालय मानती नहीं है. न्यायालयका मानना है कि अगर उस स्त्रीका पति, अपनी स्त्रीको दुःचरित्रवाली समझे तो वह मान्य है. क्योंकि पर पुरुष एक परायी स्त्रीको अपने साथ अकेलेमें रखता है तो वह उसको इबादतके (पूजाके) लिये नहीं रखता है. और पतिको इस कारणसे उस स्त्रीसे तलाक मिल सकता है. ठीक उसी प्रकार एक स्त्री को भी एक वैसे ही पुरुषसे तलाक मिल सकता है.
अगर यह मान्यता आज भी है तो अगर ऐसी मान्यता आजसे पांच दश हजार साल पहले रखी जाती हो तो इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिये.
हम गलती कहां करते है?
हम एक मान्यताका स्विकार करके और पूर्ण विश्वाससे सीताकी पवित्रताको मान लेते है और फिर आगे चर्चा करते हैं.
क्यों कि हमने स्विकार कर लिया कि,
सीताको रावणके महलमें नहीं रक्खा गया था,
सीताको अशोकवनमें रक्खा गया था,
सीताके पास दैवी शक्तिथी कि रावण उसके पास आ नहीं सकता था और उसको स्पर्ष नहीं कर सकता था.
रामने लंकामें सीताकी अग्नि परीक्षा ली थी, और उसमें सीता सफल रही थी.
साक्षी कौन थे?
लेकिन इन सभी बातोंमे साक्षी कौन थे? इसका साक्षी कोई त्राहित व्यक्ति (थर्ड पार्टी जिनको रामसे और सीतासे कोई भी सरोकार न हो) नहीं था. अग्नि परीक्षा हुई, वह तो रामकी सेनाकी साक्षीमें हुई. राम की सेनाको कैसे त्राहित माना जाय.?
निष्कर्ष यही है कि वह अग्नि-परीक्षा अमान्य (ईनवेलीड) थी.
जिस बातको या जिस मान्यताको अगर आप प्रणालीके अंतर्गत सिद्ध न कर सके, तो उसको स्विकारा नहीं जा सकता. सीता की पवित्रता भी सिद्ध नहीं हो सकती थी. और इस बातको उछाला गया.
जिस बातको आप नकार नहीं सकते, जनताकी या तो कोई एक व्यक्ति की उस बातका या ऐसी मान्यताका आदर किया जाय, उस व्यवस्थाका नाम है जनतंत्र.
जिस सत्यको (बातको) नकारा न जा सके, उस सत्यका (बातका) जहां आदर होता है, चाहे वह सत्य कितने ही निम्न स्तरसे क्यों आया न हो, तो भी अगर उसका आदर होता है, उसको जनतंत्र (डेमोक्रसी) माना जाता है.
तो रामने उस सत्यका आदर किया. “आदर किया” मतलब आवश्यक कदम उठाये ताकि प्रणालीको क्षति न हो.
लेकिन राम तो राजा थे. युगपुरुष थे. एक पूर्ण पुरुष थे. क्या वे अपना दिमाग नहीं चला सकते थे?
जरुर चला सकते थे. और उन्होने चलाया भी.
कैसे उन्होने अपना दिमाग चलाया? कहां उन्होने गलती की? उन्होने गलती की थी या नहीं?
(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः राजाराम, सीता, परपुरुष, स्त्री, अपवित्र, पवित्र, अग्नि परीक्षा, थर्ड पार्टी, सत्य, प्रणाली, आदर, जनता, जनतंत्र
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Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, tagged इतिहास, ऐतिहासिक, कुबेर, कैकेयी, जनक, ज्येष्ठपुत्र, तथ्य, दक्ष, दशरथ, धनुष, प्रणाली, भद्रकाली, यज्ञ, राम, रामायण, रावण, लंका, वीरभद्र, शिव, सीता on September 3, 2013|
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खो गये है हाड मांसके बने राम (भाग-३)
दशरथ राजा
वैवस्वतः मनु (सूर्यवंश) के बादके ६३ क्रमके राजा दशरथ (दशरथ-२)का प्रथम पुत्र रामचन्द्रजी थे. हम चाहे मनवन्तर-७ को माने या न माने, रामके पिताका नाम दशरथके अस्तित्वको न माननेका कोई कारण नहीं. सभी पुराणोंमे जो क्रम दिया है वह मुख्यतः समान है. कुछ राजाओंके नाम अलग मिलते है, लेकिन फिर पुत्रके नाम सही मिलते है. एक राजा दो नामसे जाना जा सकता है.
अयोध्या को नकारना भी जरुरी नहीं है.
दशरथने कैकेयीसे शादी की. कैकेयी केकेय देशकी थी, इस लिये “कैकेयी” नामसे जानी जाती थी. केकेय प्रदेश अयोध्याकी पश्चिम दीशामें लम्बी मुसाफरी के बाद, कुरुक्षेत्रको पसार करने के बाद भी कई सारी नदीयोंको पार करने के बाद आता है. उस जमानेमें तेज गतिसे दौडने वाले अश्वोंके बावजुद, सात दिन लगते थे. केकेय के बाद गांधार आता था. केकेय हालके पाकिस्तानमें होना चाहिये.
दशरथको दो रानीया थी लेकिन कोई पुत्र नहीं था, इसलिये उसने एक और शादी की. दशरथने केकेयकी राजकन्या पसंद की थी. इससे ऐसे निष्कर्ष पर जा सकते है कि, भारतीय संस्कृति उस समय भी गांधार तक विस्तृत थी.
वैसे तो ईशु की पहेली सदी तक हिन्दु राजाएं ईरान तक राज करते थे. रावण का भाई कुबेर पूर्वोत्तर (ईशान) सीमामें राज करता था, मतलब यह हुआ कि, आज हम जिसको अखंड भारत मानते है, उससे भी बडे विस्तारमें भारतीय संस्कृति फैली हुई थी.
कैकेयी के साथ शादी करनेके बाद भी दशरथको कोई संतान नहीं होती है. दशरथ पुत्रेष्टी यज्ञ करता है.
पुत्रेष्टी यज्ञ क्या था?
वास्तवमें यह एक उपचार हो शकता है. आयुर्वेदमें दूध चावल और सर्कराका नीत्य सेवन, पुत्र प्राप्तिका एक उपचार माना गया है. यज्ञ भी हुआ होगा. शायद वह खीरके नीत्य सेवनके उपचारका आरंभ या पूर्णाहुतिका हो. उपचारकी क्रिया को भी यज्ञ कह सकते है. कोई भी कार्यको यज्ञ कह सकते है.
सभी रानीयां गर्भवती हुई. सुमित्राको लक्ष्मण और शत्रुघ्न हुए. कौशल्याको राम हुए. कैकेयीको भरत हुआ. सबसे बडे राम थे. दुसरे क्रम पर भरत. तीसरे क्रम पर लक्ष्मण और चौथे क्रम पर शत्रुघ्न.
राम-लक्ष्मण और भरत-शत्रुघ्न इस प्रकार जोडी भी बनी थी ऐसा कहा जाता है.
ऐसा क्युं था?
शायद प्रारंभसे ही यह बात निश्चित नहीं थी कि, दशरथका अनुगामी राजा किसको बनने का था?
रामका राज्याभिषेक करनेका था या भरतका राज्याभिषेक करनेका था?
तीनों रानीयोंके मनमें इसमें अनिश्चिंतता थी. कमसे कम सुमित्राके मनमें तो थी ही. क्यों कि सुमित्राने अपने एक पुत्रको रामके साथ लगा दिया था. और दुसरे पुत्रको भरतके साथ लगा दिया था. अगर राम राजा बने तो लक्ष्मणका भावी निश्चिंत बने. और अगर भरत राजा बने तो शत्रुघ्नका भावी निश्चिंत बने. और इससे खुद भी निश्चिंत रहे.
जब दशरथ केकेयके राजाके पास उसकी पुत्रीका हाथ मांगने गये तो हो सकता ही है कि उसने दशरथ से प्रश्न पूछा हो कि तुम्हे दो रानीयां तो है ही, तो तीसरी करने की क्या जरुरत पडी. तो दशरथने कहा होगा कि मुझे कोई संतान नहीं है इसलिये तीसरी शादी करनी है. केकेयके राजाने कहा भी हो, मेरी पुत्रीके पुत्रको तुम्हे राजा बनाना पडेगा. यदि कौशल्या पुत्रको जन्म दे तो भी, मेरी पुत्रीके पुत्रको राज सिंहासन पर बैठाना पडेगा. दशरथने इसका स्विकार किया था. ऐसी भी एक मान्यता है और पाठ भी है.
कैकेयी शूरवीर और मेधावती थी. वह दशरथको ज्यादा प्रिय थी. लेकिन पट्टराणी कौशल्या थी. उस समयकी प्रणालीके अनुसार पट्टराणीका पद एकबार दिया तो उसको विस्थापित किया जा सकता नहीं था.
चारों पुत्रोंने विश्वामित्र ऋषिसे अस्र शस्त्र की विद्या प्राप्त की. विश्वामित्र कैसे आये और विश्वामित्रका दशरथ और दशरथके, मंत्रीमंडळ से क्या संवाद हुआ इसका विवरण आवश्यक नहीं. क्योंकि यह सब संवाद है. और संवादसे ऐतिहासिकताका निष्कर्ष निकाला नहीं जा सकता. प्रसंगोके क्रमसे ऐतिहासिकता पर अनुमान लगाया जा सकता है.
शिव धनुष और उसके उपर पणछ बांधना और शरसंधान करना
दक्षने एक यज्ञ किया था. जिसके यज्ञका ध्वंश शिवने किया था. शिवने वैसे इस यज्ञका ध्वंश किया नहीं था, परंतु, शिवने वीरभद्रको और भद्रकालीको उत्पन्न किया था और इन दोनोंने दक्षके यज्ञका नाश किया था. वीरभद्र का यह धनुष कालांतरे मिथीला के जनक राजाके पास आया था. ऐसी एक कहानी है. इसका विवरण हम छोड देतें है. लेकिन इतना जरुर कि वह एक बडा अदभूत धनुष था. जिसके बारे यह हो सकता है कि, उसको कैसे उठाना और उसके उपर पणछ की रस्सी कैसे बांधना और शरसंधान कैसे करना वह एक समस्या होगी.
जनकराजाकी कोई शर्त थी या नहीं? सीता स्वयंवर हुआ था या नहीं? कौन कौन राजा आये थे? रावण आया था या नहीं?
क्या रावण सचमुच मान गया था?
एक बातकी पुष्टि होती है कि, राम एक नीपूण बाणावली थे. और उन्होने वह धनुष उठाके, पणछ बांधके सरसंधान कर दिया. अगर रामने यह काम सीता स्वयंवर के अंतर्गत किया था तो उस समय कई और कई राजा भी आये होगे. तो रावण भी होगा. ऐसे पाठ मिलते है कि रावण भी उस धनुषको उठा न पाया था.क पाठ यह भी है कि रावण जब उठा तो उसको समझाया गया कि तुम तो उम्रमें सीताके पिता समान हो इसलिये तुम न उठो तो बहेतर रहेगा. रावण मान गया था.
यदि इस बात पर शका है तो इस पाठको पढे.
१९५५में बृहद् गुजरात संस्कृत विद्यापीठकी संस्कृतकी “मध्यमा” अभ्यासक्रममें एक पाठ था. “कौशल्याहरणम्” या तो “रावणस्य कौशल्याहरणम्” जिसमें रावण कौशल्याका ही नहीं लेकिन दशरथकी कौशल्याके साथ शादीके बाद कौशल्या और दशरथ, दोनोंका हरण करता है. और लंका ले जाता है. बादमें ऋषि लोग उसको समझाते है कि, अब तो कौशल्या परिणित स्त्री है, उसका हरण करना और परिणित स्त्रीके साथ लग्न करना तुम्हारे लिये वर्जित है. तो रावण मान जाता है. बादमें रावण, दशरथ और कौशल्याको एक लकडीकी टोकरीमें रखके टोकरीको समूद्रमें छोड देता है. अगर रावण, लग्नके बारेमें कौशल्याको छोड दे सकता है तो वह सीताको भी छोड सकता है.
भरतकी अनुपस्थितिमें रामका युवराज पद समारोह.
“युवराजपद समारोह” ऐसी कोई प्रणाली, दुसरी कोई जगह इतिहासमें सुनाई नहीं दी है. क्या दशरथ मुत्सद्दी था?
हमने अभी थोडे समय पहले देखा था कि भारतीय जनता पक्षने लोकसभाकी आगामी चूनावके लिये एक समितिका गठन किया और, इस चूनाव प्रचार समितिके अध्यक्ष के स्थानपर नरेन्द्र मोदीको नियुक्त किया गया. इस बातका बडा प्रचार भी हुआ. जिसको विरोध करना था उन लोगोंने विरोध किया. जिसको रुसवाना था उन लोगोंने रुसवाई की. इन लोंगोंकी शक्तिका नाप हो गया. जनशक्तिका भी पता लग गया.
दशरथने रामकी युवराजपदकी घोषणाके लिये अपना समय सुनिश्चित किया. जब भरत अपने नानाके यहां गया था तबका समय उसने युवराजपद समारोह के लिये चूना. दशरथकी धारणा थी कि शायद भरत ही विरोध प्रगट करेगा. कैकेयी कुछ विरोध प्रगट नहीं करेगी. जनता भी कोई विरोध नहीं करेगी इसलिये नानाके घरसे वापस आनेके बाद, भरतको भी जनताकी ईच्छाको मानना पडेगा.
कैकेयीको दशरथने दो वर मांगनेको कोई एक समय कहा था. इसमें दो प्रकारके पाठ है. जब दशरथ राजा असुरोंके सामने सुरोंके युद्धके समय सुरोंको मदद करने के लिये गये थे तब कैकेयी दशरथकी सारथी बनी थी. असुरोंने दशरथ पर जमकर आक्रमण किया, तो कैकेयीने इस आक्रमणसे दशरथको बचानेके लिये रथको भगाकर ले गई थी और दशरथ को बचा लिया था. दुसरी कथा यह है, दशरथके रथका एक पहिया उसके धरीकी ठेसी निकल जानेकी वजहसे धरीसे निकलजानेवाला था, तब कैकेयीने अपनी उंगली रखके पहियेको निकले नहीं दिया. कैकेयीकी उंगली ईजाग्रस्त हो गई या कट गई थी. दशरथने इस कारण कैकेयीको दो वरदान दिये थे.
केकेय एक सीमावर्ती प्रदेश था. विदेशी आक्रमण का प्रथम भक्ष्य सीमावर्ती प्रदेश बनते है. हो सकता है कि, कैकेयी वीरांगना हो. इसलिये उसके पिताने उसके पुत्रको ही राजगद्दी मीले ऐसा दशरथसे वचन लिया हो. लेकिन एक बात यह भी है कि, प्रणाली ज्येष्ठपुत्रको ही राजगद्दी मिले ऐसी थी.
(क्रमशः)
शिरीष मोहनलाल दवे,
टेग्झः
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