कोरोना कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक सहयोगी
वैसे तो इस ब्लोग साईट पर इस विषय पर चर्चा हो गई है कि क्या हर युगमें वालीया लूटेरा, वाल्मिकी ऋषि बन सकता है?
वालीया लूटेरा
वालीया लुटेरा वैसे तो वाल्मिकी ऋषी बन सकता है, किन्तु ऐसी घटनाकी शक्यता के लिये भी किंचित पूर्वावस्थाकी भी पूर्वावस्था पर, अवलंबित है. हमारे रामायणके रचयिता वाल्मिकी ऋषिकी वार्तासे तो हम सर्व भारतीय अवगत है कि ये वाल्मिकी ऋषि अपनी पूर्वावस्थामें लूटेरा थे. फिर एक घटना घटी और उनको पश्चाताप हुआ. उन्होंने सुदीर्घ एकान्तवास में मनन किया और वे वाल्मिकी ऋषि बन गये.
प्रवर्तमान कोंगी (कोंग्रेस)
इस आधार पर कई सुज्ञ लोग मानते है कि भारतकी वर्तमान कोंग्रेस जिनको हम कोंग (आई), अर्थात् कोंगी, अथवा इन्दिरा नहेरुगाँधी कोंग्रेस (आई,एन.सी.) अथवा इन्डीयन नहेरुवीयन कोंग्रेस के नामसे जानते है, यह कोंग्रेस पक्ष क्या , भारतीय जनता पक्ष (बीजेपी) का एक विकल्प बन सकता है. कुछ सुज्ञ महाशय का विश्वास अभी भी तूटा नहीं है.
जिस कोंग्रेसने भारतके स्वातंत्र्य संग्रामकी आधारशीला रक्खी थी औस उसके उपर एक प्रचंड महालय बनाया था उसको हम “वाल्मिकी ऋषि” कहेंगे. इस वाल्मिकी ऋषिके पिता अंग्रेज थे.
“वसुधैव कुटूंबम्” विचारधाराको माननेवाले भारतवासीयोंको, इससे कोई विरोध नहीं है.
अयं निजः अयं परः इति वेत्ति, गणनां लघुचेतसां, उदारचरितानां तु वसुधैव कुटूंबकम्.
अर्थात्
यह हमारा है, यह अन्य है, अर्थात् यह हमारा नहीं है, ऐसी मनोवृत्ति रखनेवाला व्यक्ति संकुचित मानस वाला है. जो उदारमानस वाला है, उसके लिये तो समग्र पृथ्वि के लोग अपने ही कुटूंबके है.
इस भारतीय मानसिकताको महात्मा गांधीने समग्र विश्वके समक्ष सिद्ध कर दिया था. भारतमें ऐसे विशाल मन वाले महात्मा गांधी अकेले नहीं थे. कई लोग हुए थे.
हाँ जी, उस समय कोंग्रेस वाल्मिकी ऋषिके समान थी.
फिर क्या हुआ?
१९२८में मोतिलालजीने कहा कि मेरे बेटे जवाहरलालको कोंग्रेसका प्रेसीडेन्ट बनाओ. उस समय मोतिलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रेसीडेन्ट थे. उनका अनुगामी उनका सुपुत्र बना.
महात्मा गांधीने सोचा कि ज्ञानीको एक संकेत ही पर्याप्त होना चाहिये. १९३२में गांधीजीने कोंग्रेसके प्राथमिक सदस्यता मात्रसे त्यागपत्र दे दिया. महात्मा गांधी कोंग्रेसके शिर्षनेताओंको यह संदेश देना चाहते थे कि हमारे पदके कारण हमारे विचारोंका प्रभाव सदस्यों पर एवं जनता पर पडना नहीं चाहिये. हमारे विचारसे यदि वे संतुष्ट है तभी ही उनको उस विचारको अपनाना चाहिये.
१९३६में भी जवाहरलाल प्रेसीडेन्ट बने. और १९३७में भी वे कोंग्रेसके प्रेसीडेन्ट बने.
महात्मा गांधीको लगा कि, कोंग्रेस वाल्मिकी ऋषिमेंसे वालिया लूटेरेमें परिवर्तित होनेकी संभावना अब अधिक हो गयी है. महात्मा गांधीने संकेत दिया कि जनतंत्रकी परिभाषा क्या है और जनतंत्र कैसा होता है. उन्होंने ब्रीटन, फ्रान्स, जर्मनीके जनतंत्र प्रणालीको संपूर्णतः नकार दिया था. गांधीजीने कहा कि हमे हमारी संस्कृतिके अनुरुप हमारी जनताके अनुकुल शासन प्रणाली स्थापित करना होगा. हमारी शास्न प्रणाली का आधार संपूर्णतः नैतिक होना चाहिये. (हरिजन दिनांक २-१-१९३७). भारतकी शासन प्रणाली कैसी होनी चाहिये. महात्मा गांधीने एक उत्कृष्ट उदाहरण दिया था. वह था “राम राज्य”. “राम राज्य”में राजाका कर्तव्य सामाजिक क्रांतिको पुरस्कृत करना नहीं था. सामाजिक क्रांति करना या उसमें सुधार लाना यह काम तो ऋषियोंका था. ऋषियोंके पास नैतिक शासन धुरा थी.
पढिये “कहाँ खो गये हाडमांसके बने राम”.
किन्तु गांधीजीके इस विचारका कोई प्रभाव नहेरु और उनके प्रशंसक युथ पर पडा नहीं. वे तो तत्कालिन पाश्चात्य देशोंमे चल रहे, “समाजवाद”की विचारधारामें रममाण थे.
सत्तामें जब त्यागकी भावनाका अभाव होता है तब वह सत्ता, जनहितसे विमुख ही हो जाती है. १९४७ आते आते कोंग्रेसके नेताओमें सत्ता लालसाका आविर्भाव हो चूका था. शासन करना कोई अनिष्ट नहीं है. किन्तु सत्ता पानेके लिये अघटित हथकंडे अपनाना अनिष्ट है.
“सत्ता पाना” और “सत्तासे हठाना” इन दोनोंमें समान नियम ही लागु पडते है. वह है साधन शुद्धिका नियम.
साधन शुद्धिका अभाव सर्वथा अनिष्ट को ही आगे बढाता है. कई सारे लोग इस सत्यको समज़ नहीं सकते है वह विधिकी वक्रता है.
चाहे बीज १९२९/३०में पडे हो, और अंकुरित १९३५-३६में हो गया हो, कोंग्रेसका वाल्मिकी ऋषि से वालीया-लूटेरा बननेका प्रारंभ १९४६से प्रदर्शित हो गया था. १९५०मे तो वालीया लुटेरा एक विशाल वटवृक्ष बन गया.
वर्तमानमें तो आप देख रहे ही है कि वालीया लुटेरारुप अनेक वटवृक्ष विकसित हो गये है. वे इतने एकदुसरेमें हिलमिल गये है कि उनका मुख्य मूल कहां है इस बातका किसीको पता ही नहीं चलता है. अतः क्यूँ कि, नहेरुकी औलादें वर्तमान कोंग्रेस नामके पक्षमें विद्यमान है उस कोंग्रेसको ही मूल कोंग्रीसकी धरोहर मानी जाय. ऐसी मान्यता रखके मूल कोंग्रेसका थप्पा हालकी कोंगी पर मार दिया जाता है. इससे सिर्फ सिद्ध यही होता है कि ये महानुभाव जनतंत्रमें भी वंशवादको मान्यता दे दे सहे हैं. क्या यह भी विधिकी वक्रता नहीं है? छोडो इन बातको.
क्या निम्न लिखित शक्य है?
गुलाम –> वाल्मिकी ऋषि –>वालीया-लुटेरा –>वाल्मिकी ऋषि (?)
यह संशोधनका विषय है कि हमारे कुछ सुज्ञ महानुभाव लोग आश लगाके बैढे कि यह वालीया लुटेरा फिरसे वाल्मिकी ऋषि बनेगा. जिन व्यक्तियोंने एक ब्रीटीश स्थापित संस्थाको “गुलाम”मेंसे वाल्मिकी ऋषि बनाया था, वे सबके सब १९५०के पहेले ही चल बसे. जो गुणवान बच भी गये थे उनको तो कोंग्रेससे बाहर कर दिया. तत् पश्चात् तो वालीया-लुटेरे गेंगमें तो चोर, उचक्के, डाकू, असत्यभाषी, ठग, आततायी, देशद्रोही … ही बचे है? इस पक्षको सुधरनेकी एक धुंधलीसी किरण तक दिखायी नहीं देती है.
कोरोना कालः
यह एक महामारीवाली आपत्ति है. भारतवासीयोंका यह सौभाग्य है कि केन्द्रमें और अधिकतर राज्योमें बीजेपी का शासन है. भारतवासीयोंका कमभाग्य भी है कि चार महानगरोंमें बीजेपीका शासन नहीं है. खास करके दिल्ली, मुंबई (महाराष्ट्र), कलकत्ता और चेन्नाई.
दिल्लीका केज्रीवालः
कई विदेश, कोरोनाके संक्रमणसे आहत थे और उन देशोंमें हमारे नागरिक फंसे हुए थे. उनको वापस लाना था. केन्द्र सरकारने उन नागरिकोंको भारत लानेकी व्यवस्था की. और पुर्वोपायकी प्रक्रियाके आधार पर उनको संगरोधनमें (क्वारन्टाईन) कुछ समय के लिये रक्खा.
जब केन्द्रको पता चला कि तबलीघीजमातका महा अधिवेशन दिल्लीमें हो गया है और उस अधिवेशनके सहस्रों लोग विदेशी थे और उनमेंसे कई कोरोना ग्रस्त होनेकी शक्यता थी. उनमेंसे कई इधर उधर हो गये थे. ऐसी स्थिति में केन्द्र सरकारके लिये लॉकडाऊन घोषित करना अनिवार्य हो गया था. २३ मार्च को केन्द्र सरकारने २४ मार्चसे तीन सप्ताहका लॉकडाउन घोषित कर दिया. प्रधान मंत्रीने सभी श्रमजिवीयोंको कहा कि आप जहां हो, वहीं पर ही रहो.
लुट्येन गेंगके दिल्लीके हिरो थे केज्रीवाल. उन्होंने २४ मार्च की रातको ही श्रमजिवीयोंकों उदघोषित करके बताया कि आप लोगोंके लिये आपके राज्यमें परत जानेके लिये बसें तयार है.
केज्रीवालने न तो कोई राज्य सरकारोंसे चर्चा की, न तो केन्द्र सरकारसे चर्चा की, न तो लेबर कमीश्नरसे कोई पूर्वानुमानके लिये चर्चा की कि, श्रमजीवीयोंकी क्या संख्या हो सकती है! बस ऐसे ही आधी रातको घोषणा कर दी कुछ बसें रख दी है. आप लोग इन बसोंसे चले जाओ. केज्रीवालका यह आचार, प्रधान मंत्रीकी सूचनासे बिलकुल विपरित ही था और प्रधान मंत्रीकी सूचनाका निरपेक्ष उलंघन था. केज्रीवालको मुख्यमंत्री पदसे निलंबित करके गिरफ्तार किया जा सकता है, कारावासमें भेजा सकता है और न्यायिक कार्यवाही हो सकती है. किन्तु प्रधान मंत्रीकी प्राथमिकता लोगोंके प्राण बचाना था.
वास्तवमें दो सप्ताहका समय देनेका प्रयोजन यही था कि सभी राज्य आगे क्या करना है उसका आयोजन कैसे करना है, यदि किसीको अपने राज्यमें जाना है तो उसके लिये योजना करना या और भी कोई प्रस्ताव है तो हर राज्य दे सकें.
ये सब बातें प्रधान मंत्रीने राज्योंके मुख्य मंत्रीयों पर छोडा था और प्रधान मंत्री हर सप्ताह मुख्य मंत्रीयोंके साथ ऑन-लाईन चर्चा कर रहे थे. यदि कोई मुख्य मंत्रीको कोई मार्गदर्शन चाहिये तो वह प्रधान मंत्रीसे सूचना भी ले सकता था.
श्रमजिवीयोंकी संख्याका पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है?
(१) घरेलु कामके श्रम जीवीः ये तो स्थानिक लोग ही होते है. वे अपने घरमें या अपनी झोंपडपट्टीमें रहेते है. उनको कहीं जाना होता नहीं है. ये लोग डोमेस्टीक सर्वन्ट कहे जाते है.
(२) कुशल और अकुशल श्रमजीवीः ये श्रम जीवीमें जो कुशल है वे तो अपने कुटूंब के साथ ही रहेते है. जो अकुशल है उनमेंसे कुछ लोगोंको अपने राज्यमें जाना हो सकता है. ये दोनों प्रकारके श्रमजीवी अधिकतर मार्गके काम, संरचनाके काम, मूलभूत भूमिगत संरचनाके काम करते है. ये काम वे उनके छोटे बडे कोन्ट्राक्टरोंके साथ जूडे हुए होते है. कोन्ट्राक्टर ही उनको भूगतान करता है.
इन श्रमजीवीयोंके कोंन्ट्राक्टरोंको हरेक कामका श्रम-आयुक्तसे अनुज्ञा पत्र लेना पडता है, और इसके लिये हर श्रमजीवीका आधारकर्ड, प्रवर्तमान पता, कायमी पता और बीमा सुरक्षा कवच, कार्यका स्थल … आदि अनेक विवरण, आलेख, लिखित प्रमाण, देना पडता है. राज्य सरकार चाहे तो एक ही दिन में श्रमजीवीयोंका वर्गीकरण और गन्तव्य स्थानकी योजना बना सकती है. श्रम आयुक्त के पास सभी विवरण होता है. श्रम आयुक्त कोंट्राक्टरोंको सूचना दे सकता है कि श्रमजीवी अधीर न बने.
(३) तीसरे प्रकारके श्रमजीवी ऐसे होते है कि वे छोटे कामके कोंट्रक्टरोंके साथ काम करते है. इन कोंट्राक्टरोंको कामके लिये श्रमआयुक्तसे अनुज्ञापत्र लेनेकी आवश्यकता नहीं होती है. लेकिन हर कोंट्राक्टरको सरकारमें पंजीकरण करवाना पडता है. सरकार इन कोंट्राक्टरोंसे उनके श्रमजीवीयोंका आवश्यक विवरण ले सकता है.
ये सबकुछ ऑन-लाईन हो सकता है और अधिकसे अधिक एक ही सप्ताहमें कहाँ कहाँ कितने श्रमजीवीयोंको किन राज्योंमें कहाँ जाना है उसका डेटाबेज़ बन सकता है.
एक राज्य दुसरे राज्यसे ऑन-लाईन डेटाबेज़का आदानप्रदान करके अधिकसे अधिक उपरोक्त ७ दिन को मिलाके भी, केवल दश दिनमें प्रत्येक श्रमजीवीको उसके गन्तव्यस्थान पर कैसे पहोंचाना उसका आयोजन रेल्वे और राज्यके परिवहन विभाग कर सकते है. इस डीजीटल युगमें यह सब शक्य तो है ही किन्तु सरल भी है.
तो यह सब क्यूँ नहीं हुआ?
राज्यके मुख्यमंत्रीयोंमें और उनके सचिवोंमे आयोजन प्रज्ञाना अभाव है. मुख्य मंत्री और संलग्न सचिव हमेशा कोम्युनीकेशन-गेप रखना चाहते है ताकि वे आयोजनकी अपनी सुविचारित (जानबुज़ कर) रक्खी हुई त्रुटीयोंमें अपना बचाव कर सकें.
अधिकतर उत्तरदायित्व तो सरकारी सचिवोंका ही है. वे हमेशा नियमावली क्लीष्ट बनानेमें चतूर होते है. और मंत्री तो सामान्यतः अपने क्षेत्रके अपने जनप्रभावके आधार पर सामान्यतः मंत्री बना हुआ होता है.
सरकारी अधिकारीयोमें अधिकतम अधिकारी सक्षम नहीं होते है. अधिकतर तो चापलुसी और वरिष्ठ अधिकारीयोंके बंदोबस्त (वरिष्ठ अधिकारीयोंके नीजी काम) करनेके कारण उनके प्रिय पात्र रहेते है. सरकारी अधिकारीयों पर काम चलाना अति कठिन है. अधिकसे अधिक उनका स्थानांतरण (तबादला) किया जा सकता है. लेकिन जब कमसे कम ९९ प्रतिशत अधिकारी अक्षम होते है तो विकल्प यही बचता है कि चाहे वे अक्षम हो, उनकी प्रशंसा करते रहो और काम लेते रहो. सरकारी अधिकारीयोंको सुधारना लोहेके चने चबानेके समकक्ष कठिन है. प्रणाली को बदलनेमें १५ वर्ष तो लग ही जायेंगे.
कोंगी ने केवल मुस्लिम मुल्लाओंको और मुस्लिम नेताओंको ही बिगाडके नहीं रक्खा है. उसने कर्मचारी-अधिकारीयोंको भी बिगाडके रक्खा है. कोंगीयोंका और उनके सांस्कृतिक साथीयोंका एक अतिविस्तृत और शक्तिमान जालतंत्र है. जिनमें देश और देशके बाहरके सभी देशद्रोही और असामाजिक तत्त्व संमिलित है.
ईश्वरका आभार मानो कि हमारे पास नरेन्द्र मोदी जैसा कुशलनेता, अथाक प्रयत्नशील प्रधानमंत्री है. उनके साथी भी शुद्ध है. ऐसा नहीं होता तो यह कोंगी उनका हाल मोरारजी देसाई और बाजपाई जैसा करती. अडवाणीको २००४ और २००९ के चूनावमें ऐसे दो बार मौका मिला, किन्तु वे सानुकुल परिस्थितियां होने पर भी, सक्षम व्युहरचनाकार और आर्षदृष्टा नहीं होनेके कारण बीजेपीको बहुमत नहीं दिलवा सकें.
कोंगी और उसके सांस्कृतिक साथी वाल्मिकी ऋषि तो क्या, एक आम आदमी भी बननेको तयार नहीं है. हाँ वे ऐसा प्रदर्शन अवश्य करेंगे कि वे निस्वार्थ देश प्रेमी है. अफवाएं फैलाना या/और जूठ बोलना उनकी वंशीय प्रकृति है. निम्न दर्शित लींक पर क्लीक करो और देख लो.
युपीके मुख्य मंत्री श्रमजीवीयों की यातना पर कितने असंवेदनशील है और कोंगीकी एक शिर्ष नेत्रीने श्रम जीवीयोंकी यातनाओंसे स्वयं कितनी संवेदनशील और आहत है यह प्रदर्शित करने के लिये युपीके मुख्य मंत्रीको, १००० बसें भेजनेका प्रस्ताव दे दिया. युपीके मुख्य मंत्रीने उसका सहर्ष स्विकार भी कर लिया और बोला के आप बसोंका रजीस्ट्रेशन नंबर, ड्राईवरोंका नाम और लायसन्स नंबर आदिकी सूचि भेज दो.
अब क्या हुआ?
वह शिर्षनेत्रीने सूचि भेज दी. जब योगीजीने पता किया तो उसमें स्कुटर, रीक्षा, छोटीकार, बडीकार, अवैध नंबर, प्रतिबंधित नंबर, फर्जी नंबर, अलभ्य नंबर … आदि निकले. ये सब राजस्थानसे थे.
इसके अतिरिक्त ये कोंगी नेत्रीने (प्रियंका वाईड्रा) ने कहा कि “हम ये बसें आपके लखनौमें लानेमें असमर्थ है. हमारी बसें दिल्लीमें कबसे लाईनमें खडी है.” ऐसा दिखानेके लिये बसोंकी लंबी लाईन की तस्विर भी भेजी. वह भी फर्जी. जो तस्विर थी, वह तो कुम्भके मेलेकी बसोंकी कतारकी तस्विर थी. युपीके मुख्य मंत्रीने बसें लखनौ को भेजनेकी तो बात ही नहीं की थी.
कमसे कम इस कोंगी नेत्रीको खुदको हजम हो सके इतना जूठ तो बोलते. “केपीटल टीवी” निम्न दर्शित वीडीयो देखें.
कोंगी और उनके सांस्कृतिक साथी कैसा फरेब करते है उनका इन्डिया स्पिक्स का यह वीडीयो भी देखें
https://www.youtube.com/watch?v=oCRssuW7ywQ
आप इन सबको सत्य का सन्मान करनेके लिये और आसुरी शक्तियोंके नाश के लिये अवश्य अपने मित्रोंमें प्रसारित करें. यही तो हमारा आपद् धर्म है.
शिरीष मोहनलाल दवे
चमत्कृतिः
कोंगीके प्रमुखने कहा हमारा पक्ष श्रमजीवीयोंके रेलका किराया देगा.
इसके उपर स्मृति ईरानीजीने कहा कि
श्रमजीवीयोंके लिये रेलवे ट्रेन चलानेकी घोषणा करनेके समय ही यह सुनिश्चित हो गया था कि ८५ प्रतिशत किराया केन्द्र सरकार देगी और १५ प्रतिशत किराया राज्य सरकार रेल्वेको देगी. इसके बाद कोंगी कहेती है कि किराया हमारा पक्ष देगा, लेकिन किराया बचा ही कहाँ है? यह तो ऐसी बात हुई कि शोलेमें असरानी कहेता है कि आधे पोलीस लोग इधर जाओ, आधे उधर जाओ. जो बचे वे मेरे साथ रहो.
सोनिया गांधीकी बात भी ऐसी ही है. ८५ प्रतिशत किराया केन्द्र देगा, १५ प्रतिशत किराया राज्य देगा. जो बचा वह कोंगी देगा.