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Posts Tagged ‘महानुभाव’

थालीके छेदके नीचे क्या है?

थालीके छेदके नीचे क्या है?

जया भादुरीने कुछ इस मतलबका कहा कि, बोलीवुड देशकी सेवा करता है, ढेर सारा इन्कम टेक्ष भरता है. आज लोग उनको बदनाम कर रहे है. बोलीवुडने खानेकी थाली दी, तो उन्होंने उस थालीमें ही छेद किया.

क्या वास्तवमें जनता, समग्र  बोलीवुडके विरुद्ध है?

सर्व प्रथम हमें बोलीवुडके जो महानुभावों (सेलीब्रीटीज़)ने बोलीवुडके विषयके अतिरिक्त विषयोंमें अपना चंचूपात करना प्रारंभ किया और उनमें भी हिंदुओंकी प्रचीन सभ्यता और अर्वाचीन सहिष्णुताके विरुद्ध अपना मन्तव्य प्रदर्शित करना प्रारंभ किया तबसे आमजनता इन महानुभावोंके विषयमें उनका पुनर्मूल्यांकन करने लगी.

हिन्दी फिलमोंमें हिन्दु पात्रको पापाचारी दिखाना, मुस्लिम और ख्रीस्ती पात्रको सदाचारी और पुण्यात्मा दिखाना एक प्रणाली है..

इसका उत्कृष्ट उदाहरणपीकेफिलम था. इस फिल्ममे शिवजीके पात्रमें जो अभिनेता था उसका जब वह शिवजी के वस्त्रोंमे था तब ही उसका अपमान किया जाता है.

फिल्म भी नाट्य शास्त्रके नियमके अंतर्गत है

भारतीय संस्कृतिमें नाट्यशास्त्रके रचयिता भरत मुनि थे. नाटक के नियम भरत मुनिने बनाये है. नाट्यकारोंको उन नियमोंका पालन करना अनिवार्य है. उन नियमोंमेंसे एक नियम यह है कि जो अभिनेता ईश्वर/भगवानके पात्रका अभिनय करता है, और वह पात्र जब तक उस वेषमें होता है, तब तक उस पात्रकी गरिमा रखनी होती है. यदी उसके सामने राजा या सम्राट भी जाय, तो राजाको /सम्राटको भी उसका आदर करना पडता हैतात्पर्य यह है कि वह पात्र राजाको या सम्राटको नमस्कार नहीं करेगा किन्तु  राजा या सम्राट उसको नमस्कार करता है.

पीके फिलममें शिवजीके पात्रको अपमान जनक स्थिति में प्रदर्शित किया गया है.

यह एक घटना हुई.

हिन्दुओंकी कटु आलोचना करना आम बात है.

किन्तु  हिन्दु देवदेवीयोंको उपहासके पात्र बनाना बोलीवुडके महानुभावोंके लिये  शोभास्पद नहीं है. वास्तवमें ऐसा करना भारतीय संस्कृतिकी अवमानना है. जिस देशकी धरतीका का अन्न और पानीके कारण आप विद्यमान अवस्थामें है उस धरतीकी संस्कृतिका आदर करना आपका कर्तव्य बनता है.

परिस्थिति क्या है?

हिन्दु पर उसका हिन्दु होने के कारणसे ही अत्याचार किया जाय और वह चूप रहेने स्थान पर कोई यदि अत्याचारके विरुद्धमें भी बात करें तो उसका भी विरोध किया जाता है.

कश्मिरी हिन्दुओंकी हजारोंकी संख्यामें हत्याएं हुई, १००००+ कश्मिरी हिन्दु स्त्रीयोंके उपर  खुले रेप किया, कश्मिरके सभी ५०००००+ हिन्दुओंको घरसे निकाल दिया और यह भी खुले आम किया, और इसके अतिरिक्त इस आतंकवादीयोंके उपर कुछ भी कार्यवाही नहीं की गई. अनुपम खेर ने जब इस बातकी आलोचना की तो बोलीवुडके महानुभाव  नसरुद्दीन शाहने  कहा किअनुपम खेर तो मानो ऐसी बाते करता है कि मानो उसके उपर आतंकवादी हमला हुआ

नसरुद्दीन शाह जैसे महानुभाव तककी मानसिकता देखो. उसके हिसाबसे तो जिसके उपर अत्याचार हुआ है, उसको ही अत्याचार पर बोलनेका हक है. “मतलबकी जिस  हिन्दु पर अत्याचार हुआ वह ही उसके विरुद्ध बोलें. दुसरा हिन्दु मत बोलें.

यदि तू कश्मिरका है तो क्या हुआ? तेरे उपर तो आतंकवादीयोंने हमला नहीं किया . फिर तू काहेको बोलता है? बेशरम कहीं का !!”

एक हिन्दु मंदिरके उपर बनीबाबरी मस्जिदका ध्वंश हुआतो पुरी दुनिया हिन्दुओंके उपर तूट पडी,मुख्य मंत्रीको जाना पडा. कई सारे न्यायिक केस हो गये. किन्तु मुस्लिम लोग (पूरानी बाते छोडों) स्वातंत्र्यके पश्चात्कालमें भी  हिन्दुओंके कई मंदिर तोडते आये है और १९४७के बाद भी हिन्दुओंके मंदिर तूटते रहे है. बाबरी मस्जिदके ध्वंशके बाद तो काश्मिरमें और बंग्लादेशमें कई मंदीर तूटे जिसका कोई हिसाब नहीं.

हिन्दुओंको कुछ भी प्रतिशोध तो क्या शाब्दिक विरोध भी नहीं करना चाहिये. उनको तनिक भी शोर करना नहीं चाहिये. अरे भाई कुछ सहिष्णुता आप हिन्दुओंमें भी तो होना चाहिये !! आपको ज्ञात होना चाहिये कि हमारा भारत देश एक सेक्युलर देश है. तो आपका फर्ज़ बनता है कि हम लघुमति भारतमें सुरक्षित रहें. हमें हमारे धर्मका पालन करनेकी पूरी स्वतंत्रता है.

किन्तु हे लघुमति लोग, आपने कश्मिरके हिन्दुओंके उपर आतंक क्यों फैलाया?” हिन्दु बोला.

मुस्लिमने उत्तर दियाअरे अय, हिन्दु लोग !! आपको पता नहीं है कि हमने हमारे उपर थोपे जानेवाले राष्ट्रपतिके विरोधमें क्या क्या किया था. आपको हम मुस्लिमोंकी ईच्छाका कुछ खयाल ही नहीं है. तो हम प्रतिशोध तो करेगे ही . सियासत क्या होती है वह जरा समज़ा करो. मासुम बननेकी कोशिस मत करो. जब एक खास समूहके मानसका खयाल नहीं रक्खा जाता तो प्रतिक्रिया तो आयेगी ही.

किन्तु निर्दोषोंका खून करना और लाखों लोगोंको घरसे निकाल देनायह कोई प्रमाणभान है?” हिन्दु बोला.

अरे भैया हिन्दु !! जब लोग इकट्ठा हो जाते है तो क्या कोई तराजु लेकर बैठता है कि कितना प्रमाण हुआ और कितना नहीं !! क्या बच्चों जैसी बातें करते हो तुम हिन्दु लोग ..!!” मुस्लिम बोला

लेकिन तुमने पूरे मुंबईमें बोम्ब ब्लास्ट क्यों करवाये?” हिन्दु बोला.

अय हिन्दु, तुमने जो बाबरी मस्जिद तोडा उसका हमने बदला लिया.

लेकिन तुमने बोम्ब ब्लास्ट जैसे आतंकी हमले तो कई वर्षों तक किये उसका क्या?” मुस्लिम बोला

अय हिन्दु, तुम फिर बचकाना बात पर उतर आये. हम मुस्लिम लोग कोई ऐसे वैसे लोग नहीं है. हमारा हर व्यक्ति और हर जुथ अपना अपना बदला लेता है. और लगातार लेता रहेता है. इस लिये तो हमारे कोंगीके स्थानिक  मुस्लिम नेताने साबरमती एक्सप्रेसके कोचको आयोजन पूर्वक जला दिया था. क्यों कि उसमें रामसेवक बैठे थे. और वे अयोध्यासे रहे थे.

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इस प्रकार कोंगीयोंकी कृपासे मुस्लिमोंकी आदत बीगडी.

१९९९में बीजेपीने सरकार बनाई. उसने काम तो अच्छा किया लेकिन कोंगीने अपनी व्युह रचनासे २००४में फिरसे शासन पर कबजा किया.

२००४ से २०१४के शासनकालमें कोंगीने और उसके सांस्कृतिक साथीयोंने खुले आप पैसा बनाया. हिन्दुओंको आतंकवादी सिद्ध करने की भरपुर कोशिस किया. उसकी किताब भी छपवाई.

२०१४के चूनावमें फिरसे बीजेपी सत्ता पर गई

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हिन्दुमुस्लिम वैमनष्य के बीज अंकूरित हुए थे उतना ही नही एक वृक्ष तो कोंगीने उगा ही दिया था.

कोंगीने सोचा अपन के पैसे तो अपन के पैसे है. हमने अपने सांस्कृतिक  मित्रोंको भी पैसे बनाने की पुरी छूट दे दी थी.

लेकिन  बिना शासन पैसे बनाना दुष्कर है.

रा.गा. के सलाहकार तो निकम्मे सिद्ध हुए.  दाउद के दायें हाथ को बडा भाई बनाओ.

दाउदके दो हाथ दांया और बांया. वे दोनों भारतमें है. एक मार्केट सम्हालता है. दुसरा दंगे करवाता है. और भारतमें दाउदके सिपाई सपरे अलग.  

क्या क्या संवाद हो सकता है दाउदके दांये हाथ और एस सेना के बीच.

 “.भाऊ” , समय बदलत आहे म्हणून आता तुम्हाला आपली व्युहरचना बदलावी लागेल, तू बी.जे.पी. चा छोटा भाऊ आहे आणि नेहमी तेच राहणारमोठा भाऊ दीही बनूशकणार नाही , समजलं तूला.” दांया हथा 

[अब समय बदल गया है. अब  व्युह रचना बदलना पडेगा. तुम कब तक बीजेपीका  छोटा भाई ही रहेगा. बडाभाई बननेवाला नहीं. समज़ा समज़ा?].

 तर तात्या आता  मी काय करू ?” एस. सेना. भाउ      [बडेभाई, तो मैं अब क्या करुं?]

भाऊ तुम्ही अस करा पृथक पृथक बी.जे.पी.ची निंदा करा, अता ईलेकशन ची वेळ आली आहे म्हणून बी.जे.पी. सोबत गठ बंधन तोडू नका . सीट मिळविण्यासाठी लाहान लाहान स्टंट करून संतोष चा नाटक करू , तूला माझी वुयहरचना कळली का ?” दांया हाथनी वीचारल.

[भैया तुम ऐसा करो. अभी तो चूनाव दूर है. पर तुम छूटपूट बीजेपी की निंदा करते रहो. गठबंधन तोडना नहीं. ज्यादासे ज्यादा सीट मिले उसके लिये छोटी मोटी स्टंट करते करते असंतोषका नाटक करते रहेना]

 “त्याचा नंतर काय…?” एस. सेना भाउ    [“उसके बाद क्या?] 

इलेकशनचे  परिणाम काय येणार ?” बांया हाथनी विचारलं? [चूनावका परिणाम क्या आयेगा ?]

माला माहीत नाही.” एस. सेना भाउ                [मुज़े पता नहीं]

तुमचा पक्षाचा आणि आमच्या पक्षाचा संयुक्त सीट जळून बहुमता  मिळणारा आहे.”  दाउदका बांया हाथ            [तुम्हारा पक्ष और मेरा पक्ष दोनोंकी सीटें मिलाके हमे बहुमत मिलेगा]

जर बी जे.पी  ला स्वतंत्र बहुमत मिळाले तर…? ” एस. सेना      [ लेकिन यदि बीजेपीको बहुमत मिला तो?]

लक्शात ठेव तस घटणार नाही.” दायां हाथ बोला      [ऐसा होनेवाला नहीं है याद रख.] 

बर पण जर सीट बहुमता साठी कमी पडली तर…?” एस. सेना [ओके. यदि , बहुमतके लिये थोडी सीट कम पडी तो?] 

आपल्या कडे कोंगी आहेत , विसरू नको , त्यांच्या  सपोट॔ मिळणार आहे लक्षात ठेव.”  दाउद का दांया हाथ .     [हमारे पास कोंगी है . इस बातको भूल क्यों जाते हो?]

तात्या तुम्ही गाढवा सारखं का बोलतात , कोंगी  आपल्याला कशाला सपोटॆ करणारत्यांची सोन्या बघीतलं काय ? मी माकड बनुशकणार नाही.” एस. सेना      [बडे भैया, गधे जैसी बात क्यों करते हो. कोंगीकी सोनिया देखा है. मैं क्या बंदर हूँ?]

(मराठी भावानुवाद तोरल बहेनने किया है. आभार)

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संवाद ऐसा चलता रहा  ……. सरकार बन गई महाराष्ट्रमें …. दाउदके दायां हाथ, बायां हाथ और एस. सेना की अघाडी.

कैसे ?

फिर दाउदके दांया हाथ सेना एवं  एस.सेना के बीच क्या हो संवाद हो सकता है?

देखो एस. सेना भाउ, पैसा बडी चीज़ है. पैसेका प्रवाह हमारे तरफ हमेशा आते रहना आवश्यक है. मध्य प्रदेश गया ही समज़ो. राजस्थान एक दरीद्रतापूर्ण राज्य है. वहांसे कमाया हुआ वहां ही खर्च करना पडेगा. महाराष्ट्र भारतका आर्थिक राजधानी है. इसको प्राप्त करना ही पडेगा. तुमने गत पांच सालमें बीजेपीके शासनमें कितना पैसा बना पाये?  … बहूत कमऐसा कब तक चलेगा?  …………………… अब मेरी व्युह रचना देखो. चूनावके बाद, बीजेपीके समक्ष एक ऐसी शर्त रखना कि यदि बीजेपी उस शर्त को स्विकार ले तो, वह देश में बदनाम ही नहीं  “सत्ता लालचीसिद्ध हो जाय …  यदि बीजेपी उस शर्तको माने तो तुम्हे गठ बंधन तोड देनाऔर बोल देना कि बीजेपी  हमारी चूनावके पूर्व हुई हुए समज़ौतेमेंसे मुखर गया है. जूठ बोलनेमें तो तुम माहिर हो ही. कोई हमे जूठ बोलनेवाला कहे उसके पहेले हमें ही उसे जुठ बोलने वाला केह देना.

तुम्हे किसीसे भी डरनेकी जरुरत नहीं है.  दाउदका पुरे नेट वर्क के सदस्य हमारे साथ है. लेकिन हमें भी उसके नेटवर्कके सदस्योंको फायदा करवाना पडेगा.

वह तो हमें पता है, लेकिन उनको फायदा? इसका मतलब?

मतलब यह कि दाउदके ड्रगका कारोबारका नेट वर्कको और दाउदके पूलीस के साथका नेट वर्कको हमें छूना तक नहीं है. उतना ही नहीं, उसको सहाय  भी करना है. तुम ऐसा करो, गृह मत्रालय हमें दे दो. हम सब नीपटा लेंगेराष्ट्रवादी बननेकी कोशिस नहीं करना

ये सब तो हम जानते है. लेकिन … !!!

देखोकाला धन किसके पास होता है? हम नेताओंके पास होता है वह तो तुम जानते ही हो. बील्डरोंके पास होता है …  वह भी तुम जानते हो …. बोलीवुडके महानुभावोंके पार होता हैवह भी तुम जानते होसरकारी बडे अफसरोंके पास होता है जिनमें पूलिस तंत्र भी आता हैतो अब दाउद को अपना ड्रग्ज़का  माल इन लोगोंको भी तो बेचना है !!! दाउद जब बोलीवुडमें इन्वेस्ट करता है तो उसकोआयभी तो होना चाहिये !!!  तो इन महानुभावोंको ड्र्ग्ज़की आदत भी तो डालनी पडेगी !!! समज़े समज़े !!!

दाउदका शराबका नेटवर्क तो चलता ही है …! फिर ये ड्रग्ज़ क्यों …?

अबे बच्चुशराब तो पानसुपारी है. भोजन कहाँ? और शराबका धंधा तो टपोरी भी कर लेता है.

टपोरीयोंका ड्रग्ज़ के कारोबारमें काम नहीं. ड्रग्ज़का कारोबार ही अलग है. इसमें तो बडे लोगोंका काम है. इस धंधेमें पकडे जानेका डर ही नहीं. क्यों कि हम ऐसे वैसे को प्रवेश देते ही नहीं. नेतापोलीसबोलीवुड महानुभावमीडीया कर्मीसप्लायर पार्टीका नेटवर्क और अन्डरवर्ल्डका नेटवर्कये सभी सामेल है. कोई भी इधर उधर जाता हुआ नज़र आया तो, वह खुदाका प्यारा ही हो जायेगा. किसीको खुदाका प्यारा करना है तो उसके हजार तरीके है हमारे पास, चाहे वह कोई भी हो. अब तुम लोगोंको इसमें आना पडेगा. ये सब फार्म हाउस बनाये हैं वे किस लिये है?

लेकिन

लेकिन क्या बच्चु. अब तुम नेटवर्कमें आ ही गये हो. इस नेट वर्कमें एक ही रास्ता है. वह है अंदर जानेका रास्ता. बाहर जानेका रास्ता केवल खुदाके पास ही जाता है

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जनताका सोस्यल मीडीया, सुशांत मर्डर केसमें, क्यूँ इतना इन्टरेस्ट ले रहा है?

क्या जनता एक ही रातमें बोलीवुडके महानुभावोंके विरुद्ध हो गई?

जनता क्यूँ बोलीवुडकी थालीमें अनेक छेद करने लगी है?

जनता को तो मालुम है ही कि, बोलीवुडके अधिकतर महानुभाव लोग, लुट्येन गेंगके सदस्योंकी तरह भारतके हितोके विरुद्ध, भारतकी संस्कृतिके विरुद्ध, भारतके सच्चे इतिहासके विरुद्ध क्यूँ है! इतना ही नहीं वे भारतके दुश्मनोंकी सहायता क्यूँ करते है? इनके अतिरिक्त वे जूठका सहारा लेते है और विदेशमें भी बिकाउ मीडीया द्वारा भारतको और बीजेपी को बदनाम करते है.

तो अब बोलीवुडके साथ साथ विपक्षीय सेनाओंके नेताओंकी, भ्र्ष्ट मीडीया कर्मी और सरकारी अफसरोंकी भी सफाई होनेवाली है. ऐसी आशा भारतीय जनताको दिखाई दे रही है.

अधिकतम नेता महानुभाव लोग “जैसे थे वादी” होते है. कोंगी और उसके सांस्कृतिक साथी पक्षोंमें अधिक “जैसे थे वादी” नेता है. यह बात तो स्वयं सिद्ध है, यदि ऐसा नहीं होता तो कोंगीयोंके ६५ वर्षके शासनके पश्चात्‌ भी  देश निरक्षर  और गरीब न रहेता.

आप, ओमानके सुलतान काबुसको ही देख लो. उसका देश एक मरुभूमि था. भूगर्भ ओईल तो कभीका निकला हुआ था. लेकिन उसके पिता जैसे थे वादी थे. सुल्तान काबुस, १९७0 में सत्ता पर आया. १९९० तक के समयके अंतर्गत उसने ओमानको समृद्धिके शिखर पर ले गया. क्यों कि वह कृतसंकल्प था. “जैसे थे वादी” लोग तो वहाँ पर भी थे. लेकिन उसने नियमका शासन लागु किया.

“जैसे थे वादी” में अधिकतर लोग नीतिमत्तामें मानते नहीं है. यदि सत्ता है तो उसको अपने लिये  संपत्ति उत्पन्न करनेका साधन मानते है. अपनेको और अपनेवालोंको नियमसे उपर मानते है. स्वयंने जो कहा वही नियम है. सत्ता है तो जूठ बोलो, अफवाहें फैलाओ. राजकारण खेलो, प्रपंच करो और विरोधियों के प्रति असहिष्णु, पूर्वग्रह और प्रतिशोधक बनो. समाचार माध्यम पर कब्जा कर लो. यदि सत्तामें न हो तो भी अपने सांस्कृत्क साथीयोंसे मिलकर जहाँ ऐसा हो सकता है  यह सबकुछ करो.

इस परिस्थितिका कारण?

जब किये हुए  परिश्रमकी अपेक्षा कहीं अधिक संपत्ति मिल जाती है तब व्यक्तिमें दोष आनेकी संभावना अधिक हो जाती है. “जैसे थे वादी” होना एक दोष ही है और जनतामें ऐसी मनोवृत्ति फैलानेका शस्त्र भी है.

“अरे भाई, ये मदिरा लेना, ड्रग्ज़ लेना, पार्टीयाँ करना हम मालेतुजार लोगोंका फैशन है. यह सब परापूर्वसे चला आता है. इसको कोई रोक नहीं पाया है. हम आनंद लेते है तो दुसरोंको क्यों कष्ट होना चाहिये? यदि पैसा चलता रहेगा मतलबकी पैसेकी प्रवाहिता (लीक्वीडीटी) रहेगी, तभी तो लोगोंको व्यवसाय मिलेगा! हम तो गरीबी कम करनेमें योगदान दे रहे है.”

 वास्तवमें यह एक वितंडावाद है. वास्तवमें ड्र्ग्ज़्का कारोबार केवल और केवल काले-धनसे ही होता है.

जहाँ तक भारतको संबंध है वहाँ तक, दाउद, ड्रग्ज़के कारोबार करनेवाले, ड्रग्ज़ लेनेकी आदतवाले  कोंगी और उसके सांस्कृतिक साथीके अधिकतर नेतागण, बीजेपी-फोबीयासे पीडित मीडीया कर्मी,  दाउदके कन्ट्रोलवाले बोलीवुडके महानुभाव और अन्य मालेतुजार ग्राहक लोग, और उन तक पहोंचानेवाले  एजन्ट ये सब अवैध कारोबारके हिस्से है. इन सबके कारण  देश विरोधी प्रवृतियाँ होती है. क्यों कि आतंकवादीयोंको भी तो पैसा चाहिये. पैसे पेडके उपर नहीं उगते.

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

होने वाला दुल्हा अपने मित्रके साथ कन्या के घर गया. दुल्हेके पिताने मित्रसे बोलके रक्खा था कि दुल्हेके बारेमें थोडा बढा चढाके ही बोलना.

होनेवाले श्वसुर ने पूछा; कितनी पढाई की है ?

दुल्हेके मित्रने बोलाःपढाई ! अरे वडील, वह तो ग्रेज्युएट है. आई..एस. की परीक्षा देनेवाला है

होनेवाले श्वसुर ने पूछा; “अब क्या कर रहे हैं?

दुल्हेके मित्रने बोलाःमेनेजर है, जनाब.

होनेवाले श्वसुर ने पूछा; खेलनेका शौक तो होगा ही.

दुल्हेके मित्रने बोलाः केप्टन है क्रीकेट टीमके

होनेवाले श्वसुर ने पूछा; पार्टी वार्टीका शौक तो होगा ही

दुल्हेके मित्रने बोलाः अरे साब, हमारा यार तो विदेशी शराब की बात तो छोडो, ड्रग्ज़के सिवा कोई हल्की पार्टी करता ही नहीं है. दाउदका करीबी दोस्त शमसद खानकी कंपनीका मेनेजर ही,  पार्टीका बंदोबस्त करता है. पोलिस कमीश्नरकी  खुदकी निगरानीमें सबकुछ होता है.

इतनेमें दुल्हेने खांसा.

होनेवाले श्वसुरने पूछा क्या जुकाम हुआ है?

पता नहीं कि दुल्हेके मित्रने “कोरोना हुआ है” कहा या नहीं.

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हम कैसे वितंडावादीको परिलक्षित (आइडेन्टीफाय) करें?

हम कैसे वितंडावादीको परिलक्षित (आइडेन्टीफाय) करें?

वितंडावाद क्या है?

यदि कोई, चर्चाके विषय पर असंबद्ध, प्रमाणहीन और स्वयंसिद्ध विधिसे चर्चा प्रस्तूत करें, इसको वितंडावाद कहा जाता है. वितंडावादका प्रयोजन वैसे तो पूर्वग्रह भी हो सकता है. किन्तु क्वचित ऐसा भी होता है कि, स्वयंमें कोई पूर्वग्रह है या नहीं वह लेखक स्वयंको ज्ञात होता नहीं है.

यदि लेखकको ज्ञात होता है कि, अपना पक्ष सही नहीं है तत्‌ पश्चात्‌ भी वह वितंडावाद करता है तो उसका प्रयोजन वह किसी सांस्कृतिक समूहके ध्येय पर वह काम कर रहा है. लेखक उस समूहका सदस्य हो सकता है. कोई एक समूहका सदस्य होनेके कारणसे वह उस समूहके ध्येय के अनुसार लिखता है. तात्पर्य यह है कि लेखक जो विवरण उसके ध्येयके अनुरुप नहीं है उसको प्रकट नहीं करता है और जो ध्येयको अनुरुप है उसको किसी भी प्रकार प्रकट किया करता है.

वितंडावादी को कैसे परिलक्षित (पहेचाने) करे?

कोमन मेन

जैसे कि, कोई एक समय “जे.एन.यु.” में देशविरोधी सूत्रोच्चार किया गया. इस घटनाका विवरण किन किन वैचारिक जूथोंने कैसे किया था? याद करो.

सर्व प्रथम सूत्रोच्चारोंसे अवगत हो

“भारत तेरे टूकडे होगे, इन्शाल्ला इन्शाल्ला

“कश्मिरको चाहिये आज़ादी … आज़ादी …  छीनके लेंगे आज़ादी … आज़ादी … लडके लेंगे आज़ादी … आज़ादी…

“अफज़ल हम शर्मींदा है … तेरे कातिल जिन्दा है …

“कितने अफज़ल मारोगे हर घरसे अफज़ल निकलेगा …

इन सूत्रोंसे संदेश क्या मिलता है?

संदेश तो यह है कि इन लोगोंको “भारतको तोडना है”,

सूत्रोच्चार करनेवाले देशहितके विरोधी है,

सूत्रोच्चार करनेवाले देशविरोधी वातावरण बनानेका प्रयत्न कर रहे है,

सूत्रोच्चार करनेवाले जनतंत्रमें मानते नहीं है,

सूत्रोच्चार करनेवाले संविधानमें मानते नहीं है,

सूत्रोच्चार करनेवाले अहिंसामें मानते नहीं है, पर्याप्त जनाधार न होनेके कारण इन्होंने हिंसा नहीं की किन्तु हिंसाके लिये प्रचार अवश्य किया.

हिंसाका साक्ष्य नहीं

कुछ मूर्धन्य लोग, इस घटनामें  प्रत्यक्ष हिंसाका साक्ष्य (एवीडन्स) नहीं होने से,  इन सूत्रोंच्चार करनेवालोंको अहिंसक मानते है और ऐसी ही एक प्रणाली स्थापित करना चाहते हैं,

चूकि इसमें प्रत्यक्ष हिंसाका साक्ष्य नहीं है इसको लोकतंत्रके अधिकारके रुपमें देखते है,

यह विद्यार्थीगण, जे.एन.यु.में शिक्षा प्राप्त करनेके लिये आते है और इन सूत्रोच्चारोंको शिक्षाके एक  परिमाणके रुपमें समज़ते है और स्थापित करना चाहते हैं. यानी कि ऐसा करना शिक्षाका एक भाग है.

इस घटनाके संबंधित बिन्दु (टोपिक) क्या है?

ये सभी सूत्र घटनाकी चर्चाके  बिन्दु ही तो हैं. इनके उपर चर्चा हो सकती है.

प्राथमिकता किन किन बिन्दुओंको दी जाय?

(१) सूत्रोंको  प्राथमिकता देना आवश्यक है,

(२) सूत्रोंका पूर्वनियोजित रीतिसे समूह द्वारा उच्चारण करवाना इनमें विद्यार्थीयोंका ध्येय तो निहित है, तो इन विद्यार्थीओं पर कार्यवाही किस प्रमाण-प्रज्ञाने होना आवश्यक है, तो इनके उपर चर्चा की जाय.

(३) इन विद्यार्थीयोंकी पार्श्वभूमि क्या है उसका भी अन्वेषण होना आवश्यक है इसके उपर चर्चा होना आवश्य्क है,

(४) इन विद्यार्थीयोंने क्या और कैसे आयोजन किया था उसके उपर अन्वेषण होना आवश्यक है इसके उपर भी चर्चा हो सकती है,

(५) यह घटना देशके लिये श्रेय है या नहीं इसके उपर चर्चा हो सकती है,

(६) इन विद्यार्थीयों पर कार्यवाही करके कितना दंड देना आवश्यक है इसके उपर चर्चा हो सकती है,

(७) इन विद्यार्थीयोंके बाह्य सहयोगी कौन कौन है और उनका कार्यक्षेत्र क्या है उसके उपर अन्वेषण होना आवश्यक है इसके उपर चर्चा आवश्यक है.

किन्तु यदि आप बीजेपी शासनके विरोधी है तो आप क्या करोगे?

तो आप सूत्रोंका उल्लेख ही विवरणमें करोगे नहीं.

कुछ समाचार माध्यमके विश्लेषकोंने “सूत्रों”का उल्लेख ही उचित नहीं माना, यानी कि “सूत्रों”के अर्थका कोई महत्त्व ही नहीं है. इन महानुभावोंने “सूत्रों”को उपेक्षित ही किया.

उनका कहेना है  शासनके विरुद्ध अहिंसक विद्रोह करना संविधानिक अधिकार है … सूत्रोंसे देशको हानि नहीं होती … कई राजकीय पक्षोंके नेता और समाचार माध्यमोंके संवादक इन विद्यार्थी नेताओंका साक्षात्कार करनेके लिये तत्पर बने और उनका साक्षात्कार भी किया. राहुल गांधी जैसे मूर्ख नेताओंने तो इन नेताओंको कह भी दिया कि “ … तूम आगे बढो … हम तुम्हारे साथ है …”

मूर्धन्योंके, नेताओंके और समाचार माध्यमोंके इस प्रकारके प्रचारसे क्या होता है?

ऐसी घटनाओंका पुनरावर्तन होता है. 

अन्य कोमवादी मानसिकता रखनेवाली शिक्षा-संस्थाओंके विद्यार्थीओंने जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंके समर्थनमें प्रदर्शन किये. इनसे जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंके मनोबलमें असीम वृद्धि हुई.

बीजेपी शासनने जे.एन.यु. के नियमोंमें कुछ संशोधन किया.

क्यों संशोधन किया?

“अरे भाई, हम तो दोघलापन दिखानेवाले है ही नहीं. जो अन्य सरकार संचालित संस्थाएं है उसमें जो शिक्षण फीस और अन्य शुल्क शिक्षार्थीयोंसे लिये जाते है उसके साथ जे.एन.यु. के फीस और शुल्क तुलनात्मक होना आवश्यक है. यह आवश्यक नहीं है कि यदि कोई न्यायालयमें जाके न्याय मांगे और न्यायालय आदेश करें तभी हम फीस और शुल्कमें तुलनात्मकतासे परिवर्तन करें. सरकारी अन्य संस्थाएं, जे.एन.यु.से, प्रतिविद्यार्थी दशगुना खर्च करती है. यह सरकार पक्षपात्‌ नहीं कर सकती. पक्षपात्‌ करना भारतीय संविधानके विरुद्ध है.

“लेकिन जे.एन.यु. एक विशिष्ठ संस्था है …

“देशमें कई संस्थाएं विशिष्ठ है … वीजेटीआई, खरगपुरकी आई.टी.आइ. रुडकी आई.टी.आई. …

जी हाँ … सरकारने जेएनयुमें फीस और शुल्कमें वृद्धि की. अब इस वृद्धिका विवरण हम करेंगे नहीं. क्यों कि ये सब विवरण “ऑन-लाईन” पर उपलब्ध है.

किन्तु अब आप देखो मूर्धन्योंका वितंडावाद.

किस मूर्धन्यकी हम बात करेंगें?

प्रीतीश नंदीकी बात हम करेंगे.

डीबीभाईने [(दिव्य भास्कर दैनिक दिनांक २०-११-२०१९) गुजराती प्रकाशन ] प्रीतीशका लेख

यह प्रीतीशभाई, “जे.एन.यु. घटना”की सद्य घटित घटना जिसमें  फीस-शुल्क वृद्धिके अतिरिक्त कुछ विशेष भी संमिलित है उन बातोंको पतला-दुर्बल करनेके लिये नक्षलवादके जन्म तक पहूँच जाते है. और विवरणका प्रारंभ वहाँसे करते है.

“विद्यार्थी तो पहेलेसे ही विद्रोही होता है,

 “मैं जब महाविद्यालयमें था …. मुज़े पता चला कि कुछ अदृष्य हुए विद्यार्थी क्या कर रहे थे !!! अरे वे तो किसान और भूमिहीनोंकी लडाई लडनेके लिये देहातोंमें गये थे. वे तो संघर्ष करते थे. और कुछ तो उसमें शहिद भी हो गये. … अरे ये विद्रोही विद्यार्थीयोंमें कई लोग तो धनवान माता-पिताकी संतान थे … ये विद्यार्थी लोग सुविधाजनक जिंदगीसे उब चूके थे …” वगैरा वगैरा … तत्त्वज्ञान और त्याग … की बातें हमारे प्रीतीशभाईने लिख डाली. क्यों कि उनको जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंकी असाधारणता और उत्कृष्टता सिद्ध करनेके लिये ऐसी एक भूमिका बनानी है. चाहे उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुपसे भी सीधा या टेढा-मेढा संबंध भी न हो, तो भी.

जैसे कि

“हालके नोबेल पुरस्कारके विजेता के पिता भी हमारे महाविद्यालयमें हमारे अध्यापक थे.”

भला ! यह भी कोई तर्क है?

फिर हमारे प्रीतीशभाई, इन कुछ विद्यार्थीयोंकी तथा कथित “जीवनकी सार्थकताकी शोधकी तालाशामें थे” इस बातका जीक्र करते है.

“उस समयकी कविताएं, नाट्यगृहके नाटक, मूवीज़, शानदार वार्ताएं … आदि, उनकी निरस जीवनको पडकार दे रही थीं. … ये लोग तो समाजको एक कदम आगे ले गये थे … लेकिन समाजको बदलनेका उनके स्वप्नको किसीने भी सहयोग नहीं दिया … कोंग्रेस ने भी … (हंसना मना है)

फिर हमारे प्रीतीशभाई फ्रांस, जर्मनी, युरोपके देशों की बाते करते है. उन देशोंके तथा कथित हिरोका नाम लेते है. चाल्स द गॉल के विरुद्ध युवानोंने अभियान चलाया इस बातका भी उल्लेख करते है.

शायद प्रीतीशभाई पचास या साठके दशककी बातें कर रहे है.

“विद्यार्थी तो विद्यार्थी है, उसको तो पढाईमें ध्यान देना चाहिये”. इस बातको प्रीतीशभाई नकारते है. और उसी तर्क का आवर्तन करते है कि सूत्रोच्चार करने के लिये विद्यार्थीयोंको “टूकडे टूकडे गेंग” और “देश द्रोही” के आरोपी बनाये जाता है. प्रीतीशभाई यह भी लिखते है कि “विद्यार्थी विरोध नहीं करेगा तो कौन विरोध करेगा?” प्रीतीशभाई इस के समर्थनमें लिखते है कि अमेरिकाके  विद्यार्थीयोंने विएटनाम युद्धका विरोध किया था, ब्रीटनके विद्यार्थीयोंने  ब्रेक्ज़िटका विरोध किया था तो किसीने भी उनको “देशद्रोह”का लेबल नहीं लगाया था, तो यदि “जे.एन.यु. घटना” पर जे.एन.यु.के विद्यार्थीयों पर देशद्रोहका आरोप क्यों?

प्रीतीशभाईने  “वादोंका” भी जीक्र भी करते है.

१०० प्रतिशत लेख इन असंबंध विवरणोंसे भरा है.

क्या हमारे मूर्धन्य लोग सीधी बात नहीं कर सकते?

लोकशाहीमें सूत्रों को पूकारे जाते हैं किन्तु उसकी एक प्रक्रिया होती है. केवल सूत्र पूकारना एक गंदी सियासत है. आओ चर्चा करें…

आपके विश्वविद्यालयमें ही आपसे भीन्न विचारधारा रखनेवालोंसे  चर्चा सभा आयोजित करो. वियेतनाम युद्ध या चाल्स द गॉल या ब्रेक्ज़िट और अफज़लको फांसी   आदि ये तुलनात्मक विषय नहीं है. कमसे कम भारतके मूर्धन्यों की प्रज्ञानेमें यह भ्रम नहीं होना चाहिये.

प्रीतीश भाई कहेते है कि;

“ जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंका अनुरोध (डीमान्ड) न तो विश्वविद्यालय की फीसमें वृद्धि के विरोधमें है, न तो शुक्ल वृद्धिके विरोधमें है, न तो नियमोंमें किये गये परिवर्तनके विरोधमें है, न तो उपाहार गृह ११ बजे तक ही खूला रहेगा उसके विरोधमें है … वास्तवमें उनका विरोध वे उस जगतका विरोध कर रहे है जिसमें वे है, जिस दुनिया उनकी सरलता, निरापराधताकी परीक्षा ले रही है…..

इन विद्यार्थीयोंको (जिनके नेताविद्यार्थीगण २६ वर्षसे ४१ वर्षके है) उनको नियमबद्ध करना और भयभित करना बंद करो …. क्यों कि ऐसा करनेसे हमारे ये विद्यार्थी, वाहियात कायदाओंको मानने वाले हमारे जैसे स्वप्नहीन और बिनादिमागवाले बन जायेंगे … आदि आदि आदि “.

भाई मेरे प्रीतीश, क्या तत्त्वज्ञान चलाया है आपने, जिसमें कोई सुनिर्देशित मुद्दा ही नहीं है. प्रीतीशभाई का लेख एक ऐसे असंबंद्ध अनिश्चित बातोंसे पूर्ण होता है.

पढनेके पश्चात्‌ हमे लगता है कि हम कोई मूर्धन्यका लेख पढ रहे है या  कोई स्वयं प्रमाणित, स्वयंप्रमाणित सर्वतत्त्वज्ञ संत रजनीश मल जैसे बाबाका लेख?

लोकशाहीमें विरोध आवश्यक है. चर्चा आवश्यक है.  यह बात तो नरेन्द्र मोदी भी कहेते है. किन्तु विरोध करने की भी रीत होती है.

महात्मा गांधीको पढो.

कमसे कम उनका “मेरा स्वप्नका भारत” पढो और विरोध कैसे किया जाना चाहिये उनके उपर भी उन्होंने स्पष्ट रुपसे लिखा है. यदि आप शास्त्र पढनेमें मानते नहीं है और आप जिसको आपका हक्क समज़ते है और वही हक्क दुसरोंका नहीं होना चाहिये ऐसा ही मानते है तो सरकार अपनी दंड संहितासे आपको दंडित करेगा.

किन्तु दुःखकी बात यह है कि भारतके मूर्धन्य भी पूर्वग्रह से पीडित है और वे स्वयं वितंडावाद में ग्रस्त है.

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

अविज्ञातप्रबंधस्य वचः वाचस्पतिः इव I

व्रजति अफलतां एव नयत्युह इव अहितम्‌ II

बृहस्पतिकी वाणी जैसी उक्ति भी यदि संदर्भहीन हो तो, वह भी अन्याय करने वाले मनुष्यकी तरह निरर्थक है.

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कोंगी का नया दाव -३

“हमने कभी हमसे विरुद्ध अभिप्राय रखनेवालोंको देश द्रोही नहीं समज़े” अडवाणी उवाच.

अडवाणीके इस कथनको एन्टी-मोदी-गेंग उछालेगी.

“हमसे विरुद्ध अभिप्राय” इस कथनका कोई मूल्य नहीं है, जब तक आप इस कथनके संदर्भको गुप्त रखें. सिर्फ इस कथन पर चर्चा चलाना एक बेवकुफी है, जब आप इसका संदर्भ नहीं देतें.

Tometo and couliflower

मुज़े टमाटर पसंद है और आपको फुलगोभी. मेरे अभिप्रायसे टमाटर खाना अच्छा है. आपके अभिप्रायसे फुलगोभी अच्छी है. इसका समाधान हो सकता है. आरोग्यशास्त्रीको और कृषिवैज्ञानिकको बुलाओ और सुनिश्चित करो कि एक सुनिश्चित विस्तारकी भूमिमें सुनिश्चित धनसे और सुनिश्चित पानीकी उपलब्धतामें जो उत्पादन हुआ उसका आरोग्यको कितना लाभ-हानि है. यदि वैज्ञानिक ढंगसे देखा जाय तो इसका आकलन हो सकता है. मान लो कि फुलगोभीने मैदान मार लिया.

कोई कहेगा, आपने तो वैज्ञानिक ढंगसे तुलना की. लेकिन आपने दो परिबलों पर ध्यान नहीं दिया. एक परिबल है टमाटरसे मिलनेवाला आनंद और दुसरा परिबल है आरोग्यप्रदतामें जो कमी रही उसकी आपूर्ति करनेकी मेरी क्षमता. यदि मैं आपूर्ति करनेमें सक्षम हूँ तो?

अब आप यह सोचिये कि टमाटर पर पसंदगीका अभिप्राय रखने वाला कहे कि फुलगोभी वाला देशद्रोही है. तो आपको क्या कहेना है?

वास्तवमें अभिप्रायका संबंध तर्क से है. और दो विभिन्न अभिप्राय वालोंमे एक सत्यसे नजदिक होता है और दुसरा दूर. जो  दूर है वह भी शायद तीसरे अभिप्राय वाली व्यक्तिकी सापेक्षतासे सत्यसे समीप है.

तो समस्या क्या है?

उपरोक्त उदाहरणमें, मान लो कि, प्रथम व्यक्ति सत्यसे समीप है, दूसरा व्यक्ति सत्यसे प्रथम व्यक्तिकी सापेक्षतासे थोडा दूर है. लेकिन दुसरा व्यक्ति कहेता है कि यह जो दूरी है उसकी आपूर्तिके लिये मैं सक्षम हूँ. अब यदि तुलना करें तो तो दूसरा  व्यक्ति भी सत्यसे उतना ही समीप हो गया. और उसके पास रहा “आनंद” भी.

य.टमाटर+क्ष१.खर्च+य१.आरोग्य+झ.आनंद+आपूर्तिकी क्षमता = र.फुलगोभी+क्ष१.खर्च+य२.आरोग्य+झ.आनंद जहाँ  आनंद समान है बनाता है जब य१.आरोग्य +आपूर्तिकी क्षमता=  य२.आरोग्य होता है.

जब आपूर्तिकी क्षमता होती है तो दोनों सत्य है. या तो कहो कि दोनों श्रेय है.

लेकिन विद्वान लोग गफला कहाँ करते है?

आपूर्तिकी क्षमताको और आनंदकी अवगणनाको समज़नेमें गफला करते है.

कई कोंगी-गेंगोंके प्रेमीयोंने जे.एन.यु. के नारोंसे देशको क्या हानि होती है (हानि = ऋणात्मक आनंद) उसकी अवगणना की है. और उस क्षतिकी आपूर्तिकी क्षमताकी अवगणना की है. क्यों कि उनकी समज़से यह कोई अवयव है ही नहीं. उनकी प्रज्ञाकी सीमासे बाहर है.

जब दो भीन्न अभिप्रायोंका संदर्भ दिया तो पता चल गया कि इसको देश द्रोहसे कोई संबंध नहीं. और ऐसे कथनको यदि कोई अपने मनमाने और अकथित संदर्भमें ले ले तो यह सिर्फ सियासती कथन बन जाता है.

जे.एन.यु. के कुछ “तथा कथित विद्यार्थीयों”के नारोंसे देशका हित होता है क्या?

“मुज़से अलग मान्यता रखनेवालोंको मैंने देश द्रोही नही समज़ा” अडवाणीका यह कथन अन्योक्ति है, या अनावश्यक है या मीथ्या है.

कुछ लोग जे.एन.यु. कल्चरकी दुहाई क्यों देते हैं?

राहुल घांडी और केजरीवाल खुद उनके पास गये थे और उन्होंने जे.एन.यु.की टूकडे टूकडे गेंगको सहयोग देके बोला था कि, आप आगे बढो, हम आप लोगोंके साथ है. विद्वानोंने इस गेंगके  नारोंको बिना दुहराये इसके उपर तात्विक चर्चा की कि नारोंसे देशके टूकडे नहीं होते. नारे लगाना अभिव्यक्तिके स्वातंत्र्यके अंतर्गत आता है.

यदि अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताकी ही बात करें तो,  तो बीजेपी या अन्य लोग भी अपनी अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताके कारण इसकी टीका कर सकते हैं. यदि आप समज़ते है कि ऐसे प्रतिभाव देने वाले असहिष्णु है तो,  संविधानके अनुसार आप दोनों एक दुसरेके उपर कार्यवाही करनेके लिये मूक्त है.

क्या टूकडे टूकडे गेंग वालोंने और उनके समर्थकोंने इस असहिष्णुता पर केस दर्ज़ किया?  नारोंके विरोधीयोंके विरुद्ध नारे लगानेवालों  पर भी आप केस दर्ज करो न.

जिनको उपरोक्त  गेंगके नारे, देशद्रोही लगे वे तो न्यायालयमें गये. गेंगवाले भी अपनेसे विरुद्ध अभिप्राय रखनेवालोंके विरुद्ध न्यायालयमें जा सकते है. न्यायालयने तो, देशविरोधी नारे लगानेवाली गेंगके नेताओं पर प्रारंभिक फटकार लगाई.

जब देशके टूकडे टूकडे करनेके नारे वालोंको विपक्षोंका और समाचार माध्यमोंका खूलकर समर्थन मिला तो ऐसे नारे वाली घटनाएं अनेक जगह बनीं.

फिर भी एक चर्चा चल पडी कि अपने अभिप्रायसे भीन्न अधिकार रखनेवालोंको देश द्रोही समज़ना चाहिये या नहीं. बस हमारे आडवाणीने और मोदी विरोधियोंने यही शब्द पकड लिये. जनताको परोक्ष तरिकेसे गलत संदेश मिला.   

सेनाने सर्जीकल स्ट्राईक किया, सेनाने एर स्ट्राईक किया और उन्होंने ही उसकी घोषणा की. पाकिस्तानने तो अपनी आदतके अनुसार नकार दिया. कुछ विदेशी अखबारोंने अपने व्यापारिक हितोंकी रक्षाके लिये इनको अपने तरिकोंसे नकारा. लेकिन हमारी कोंगी-गेंगोंने भी नकारा.

यह क्या देशके हितमें है?

क्या इससे जो अबुध जनताके मानसको यानी कि देशको, जो नुकशान होता है उसकी आपूर्ति हो सकती है?

इसके पहेले विमुद्रीकरण वाले कदमके विरुद्ध भी यही लोग लगातार टीका करते रहे. “ फर्जी करन्सी नोटें राष्ट्रीयकृत बेंकोंके ए.टी.एम.मेंसे निकले, इस हद तक फर्जी करन्सी नोटोंकी व्यापकता हो” ऐसी स्थितिमें फर्जी करन्सी नोटोंको रोकनेका एक ही तरिका था और वह तरिका, विमुद्रीकरण ही था. और इसके पूर्व मोदीने पर्याप्त कदम भी उठाये थे. विमुद्रीकरण पर गरीबोंके नाम पर काले धनवालोंने अभूत पूर्व शोर मचाया था. लेकिन कोई माईका लाल, ऐसा मूर्धन्य, महानुभाव, प्रकान्ड अर्थशास्त्री निकला नहीं जो विकल्प बता सकें. विमुद्रीकरणकी टीका करनेवाले  सबके सब बडे नामके अंतर्गत छोटे व्यक्ति निकले.

 “चौकीदार चोर है” राहुल के सामने बीजेपीका “मैं भी चौकीदार हूँ”

यह भी समाचार पत्रोमें चला. मूर्धन्य कटारिया (कोलमीस्ट्स) लोग “चौकीदार” शब्दार्थकी, व्युत्पत्तिकी, समानार्थी शब्दोंकी, उन शब्दोंके अर्थकी,   चर्चा करनेमें अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करने लगे. प्रीतीश नंदी उसमें एक है. यह एक मीथ्या चर्चा है हम उसका विवरण नहीं करेंगे.

राहुलका अमेठीसे केरलके वायनाड जाना.

समाचार माध्यम इस मुद्देको भी उछाल रहे है. इसकी तुलना कोंगी-गेंगोंके सहायक लोग, २०१४में मोदीने दो बेठकोंके उपर चूनाव लडा था, उसके साथ कर रहे है.

वास्तवमें इसमें तो राहुल घांडी, अपने कोमवादी मानसको ही प्रदर्शित कर रहे है. जिस बैठक पर राहुल और उसके पूर्वज लगातार चूनाव लडते आये हैं और जितते आये हैं, उस बैठक पर भरोसा न होना या न रखना, और चूंकि, वायनाडमें  मुस्लिम और ख्रीस्ती समुदाय बहुमतमें है और चूं कि आपने (कोंगी वंशवादी फरजंदोंने) उनको आपका मतबेंक बनाया है, इसलिये आप (राहुल घांडी)ने वायनाड चूना, उसका मतलब क्या हो सकता है? कोंगी लोगोंको और उनको अनुमोदन करनेवालोंको या तो उनकी अघटित तुलना करनेवालोंको कमसे कम सत्यका आदर करना चाहिये. कोमवादीयोंको सहयोग देना नहीं चाहिये.

सत्य और श्रेय का आदर ही जनतंत्रकी परिभाषा है.

मोदीकी कार्यशैली पारदर्शी है. मोदीने अपने पदका गैरकानूनी लाभ नहीं लिया, मोदीने अपने संबंधीयोंको भी लाभ लेने नहीं दिया है, मोदीका मंत्री मंडल साफ सुथरा है, मोदीने संपत्तिसे जूडे नियमोंमें पर्याप्त सुधार किया है, मोदीने अक्षम लोगोंकी पर्याप्त सहायता की है, मोदीने अक्षम लोगोंको सक्षम बनानेके लिये पर्याप्त कदम उठाये है, मोदीने विकासके लिये अधिकतर काम किया है.

इसके कारण मोदीके सामने कोई टीक सकता, और कोई उसके काबिल नहीं है, तो भी कुछ मूर्धन्य लोग मोदी/बीजेपीके विरुद्ध क्यों पडे है?

मोदीने पत्रकारोंकी सुविधाएं खतम कर दी. कुछ मूर्धन्योंको महत्व देना बंद कर दिया. इससे इन मूर्धन्य कोलमीस्टोंके अहंकार को आघात हुआ है. सत्य यही है. जो सुविधाओंके गुलाम है, उनका असली चहेरा सामने आ गया. ये लोग स्वकेन्द्री थे और अपने व्यवसायको “देशके हितमें कामकरनेवाला दिखाते थे” ये लोग एक मुखौटा पहनके घुमते थे. यह बात अब सामने आ गयी. लेकिन  इन महानुभावोंको इस बातका पता नहीं है !

ये लोग समज़ते है कि वे शब्दोंकी जालमें किसीभी घटनाको और किसी भी मुद्देको, अपने शब्द-वाक्य-चातुर्यसे मोदीके विरुद्ध प्रस्तूत कर सकते है.

समाचार पत्रोंके मालिकोंका “चातूर्य” देखो. चातूर्य शब्द वैसे तो हास्यास्पद है, लेकिन कुछ उदाहरण देख लो.

अमित शाहने गांधीनगरसे चूनावमें प्रत्याषीके रुपमें आवेदन दिया.

इसके उपर दो पन्नेका मसाला दिया. निशान दो व्यक्ति है. एक है अडवाणी. दुसरे है राजनाथ सिंघ. अभी इसके उपर टीप्पणीयोंकी वर्षा  हो रही है. और अधिक होती रहेगी.

अडवाणीको बिना पूछे उनकी संसदीय क्षेत्रके उपर अमित शाहको टीकट दी. “यह अडवाणीका अपमान हुआ.”

हमारे राहुलबाबाने बोला कि “मोदीने जूते मारके अडवाणीको नीचे उतारा. क्या यह हिन्दु धर्म है?”-राहुल.

तो हमारे “डी.बी. (दिव्य भास्कर गुजराती प्रकाशन)भाईने सबसे विशाल अक्षरोमें प्रथम पृष्ठ पर, यह कथन छापा. और फिर स्वयं (डी.बी.भाई) तो तटस्थ है, वह दिखानेके लिये, छोटे अक्षरोंमें  लिखा कि “मोदीको मर्यादा सिखानेके चक्करमें खुद मर्यादा भूले”.

डी.बी. भाईको “मोदीने अडवाणीको जूते मारके नीची उतारा … क्या यह हिन्दु धर्म है? “ कथन अधिक प्रभावशाली बनानेका था. इस लिये इस कथनको अतिविशाल अक्षरोंमें छापा. राहुल तो केवल मर्यादा भूले. राहुलका “अपनी मर्यादा भूलना” महत्वका नहीं है. “जूता मारना” वास्तविक नहीं है. लेकिन राहुलने कहा है, और वैसे भी “जूता मारना” एक रोमांचक प्रक्रिया है न. इस कल्पनाका सहारा वाचकगण लें, तो ठीक रहेगा. यदि डी.बी.भाईने इससे उल्टा किया होता तो?

डी.बी. भाई यदि सबसे विशाल अक्षरोंमें छापते कि “मोदीको मर्यादा की दूहाई देनेवाले राहुल खुद मर्यादा भूले” और जो शाब्दिक असत्य है उसको छापते तो …? तो पूरा प्रकाशन राहुलके विरुद्ध जाता. जो राहुल के विरुद्ध है उसका विवरण अधिक देना पडता. मजेकी बात यही है कि डी.बी.भाई ने राहुलकी मर्यादा लुप्तताका कोई विवरण नहीं दिया. राहुलका “अडवाणीका टीकट और हिन्दु धर्मको जोडना” उसकी मानसिकता प्रकट करता है कि वह हर बातमें धर्मको लाना चाहता है. डी.बी. भाईने इस बातका भी विवरण नहीं किया.   

अडवाणीको टीकट न देना कोई मुद्दा ही नहीं है. जो व्यक्ति ९२ वर्ष होते हुए भी अपनी अनिच्छा प्रकट करने के बदले  मौन धारण करता है. फिर पक्षका एक वरिष्ठ होद्देदार उसके पास जा कर उसकी अनुमति लेता है कि उनको टीकट नहीं चाहिये. फिर भी, बातका बतंगड बनानेकी क्या आवश्यकता?

यही पत्राकार, मूर्धन्य, कोलमीस्ट लोग जब १९६८में इन्दिरा गांधीने कहा “मेरे पिताजीको तो बहूत कुछ करना था लेकिन ये बुढ्ढे लोग मेरे पिताजीको करने नहीं देते थे”. तब इन्ही लोंगोंने उछल उछल कर इन्दिराका समर्थन किया था. किसी भी माईके लालने इन्दिराको एक प्रश्न तक नहीं किया कि, “कौनसे काम आपके पिताजी करना चाहते थे जो इन बुढ्ढे लोगोंने नहीं करने दिया”.

यशवंत राव चवाणने खुल कर कहा था कि हम युवानोंके लिये सबकुछ करेंगे लेकिन बुढोंके लिये कुछ नहीं करेंगे. और इन्ही लोगोंने तालिया बजायी थीं. आज यही लोग बुढ्ढे हो गये या चल बसे, और भी “गरीबी रही”.

जिन समाचार पत्रोंको बातका बतंगड बनाना है और उसमें भी बीजेपीके विरुद्ध तो खासम खास ही, उनको कौन रोक सकता है?

पत्रकारित्व पहेलेसे ही अपना एजन्डा रखते आया है. ये लोग महात्मा गांधीकी बाते करेंगे लेकिन महात्मा गांधीका “सीधा समाचार”देनेके व्यवहारसे दूर ही रहेंगे. महात्मा गांधीकी ऐसी तैसी.

देश दो हिस्सेमें विभाजित हो गया है;

एक तरफ है विकास. जिसका रीपोर्ट कार्ड “ओन-लाईन” पर भी उपलब्ध है,

सबका साथ सबका विकास,

सुशासन, सुविधा और पारदर्शिता,

दुसरी तरफ है

वंशवादी, स्वकेन्द्री, भ्रष्टताके आरोपवाले नेतागण जिनके उपर न्यायालयमें केस चल रहे हैं और वे जमानत पर है, जूठ बोलनेवाले, “वदतः व्याघात्” वाले (अपनके खुदके कथनो पर विरोधाभाषी हो), जातिवाद, कोमवाद, क्षेत्रवाद आदि देशको विभाजित करने वाले पक्ष और उनके समर्थक, “जैसे थे परिस्थिति” को चाहने वाले. ये लोग देशके नुकशानकी आपूर्ति करनेमें बिलकुल असमर्थ है. इनका नारा है “मोदी हटाओ” और देशको सुरक्षा देनेवाले कानूनोंको हटाओ.

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इसमें क्या निहित है इसकी चर्चा कोई समाचार पत्र या टीवी चेनल नहीं करेगा क्यों कि वैसे भी यही लोग स्वस्थ चर्चामें मानते ही नहीं है.

 

स्वयं लूटो और अपनवालोंको भी लूटने  दो. जन तंत्रकी ऐसी तैसी… समाचार माध्यम भी यह सिद्ध करनेमें व्यस्त है कि बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिलनेवाला नहीं है और एक मजबुर सरकार बनने वाली है. यदि वह कोंगी-गेंगवाली सरकार बनती है, तो वेल एन्ड गुड. और यदि वह बीजेपीकी गठजोड वाली सरकार हो तो हमें तो उनकी बुराई करनेका मौका ही मौका है.

शिरीष मोहनलाल दवे

https://www.treenetram.wordpress.com

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जो भय था वह वास्तविकता बना (बिहारका परिणाम) – 1

क्या  यह सत्य और श्रेयकी जित है?

नहीं. यह सत्यकी जित नहीं है.

सत्य और श्रेय है वह जनताके बहुमतसे सिद्ध नहीं होता है.

हम जिन चूनावी प्रक्रियाओंके आधार पर जनताका अभिप्राय प्राप्त कर रहे है वह हमेशा सत्य को पुरस्कृत नहीं करता.

बहुमत, सत्यका आधार नहीं बन सकता. बिहारकी जनताने जिस गठबंधनको जित दिलाई, इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि सत्य, उस गठबंधनके पक्षमें था जो जिता था.

सत्य किसके पक्षमें था?

सत्य बीजेपीके पक्षमें था.

सत्य किसको कहेते हैं?

यहां पर सत्यका अर्थ है,

() ऐसा कोनसा पक्ष है कि जिसके पास भारतकी समस्याओंकी अधिक जानकारी है?

() ऐसा कौनसा पक्ष है जो इस समस्याओंका समाधान सुचारु रुपसे कर सकता है?

() ऐसा कौनसा पक्ष है जिसके पास आर्षदृष्टि है?

() ऐसा कौनसा पक्ष है जिसके पास अपनी कार्यसूचि है और उसके उपर प्रतिबद्ध है?

() ऐसा कौनसा पक्ष है जिसके पास अपनी कार्यसूचिकी प्रणाली भी सुनिश्चित है?

() ऐस कौनसा पक्ष है जो अधिक नीतिवान है?

() ऐसा कौनसा पक्ष है जिसके पास व्यापक संगठन है?

() ऐसा कौनसा पक्ष है जिसके लियेप्रामिकता भारतका हितहै?

 

श्रेय पक्ष बीजेपी ही है

ऐसा पक्ष केवल और केवल बीजेपी ही है जिसके नेता नरेन्द्र मोदी है. इसके उपर यदि किसीको संदेह हो तो इसकी चर्चा हो सकती है. इससे यदि कोई श्रेयतर नेता है तो बताओ.

नीतिओंकी स्पष्टता, आर्षदृष्टि और नीतिमत्ता इनका अभाव, वह जेडीयु है.

हम आरजेडी, नहेरुवीयन कोंग्रेस, एस पी, एनसीपी, आदिकी बातें नहीं करेंगे. इन सबके काले करतूत इतिहासके पन्नोंपर पर विद्यमान है. वे सभी पक्ष, एक दुसरेके अवलंबनके लिये विवश है. ये सभी राजकीय समीकरणों के आधार पर बनाई गई चूनावी गेमके से जिन्दा है. आवश्यकता होने पर एक होते है और आवश्यकता यदि हो तो एक दुसरेके दुश्मन बनते हैं.

बीजेपी भी ऐसे गठबंधनके लिये विवश बनता है. जैसे कि बीजेपी, शिवसेना, एमएनएस, एल जे पी, डी.एम.के. या .डी.एम. के साथ गठबंधन करती है. किन्तु बीजेपीने कभी भ्रष्टाचार के साथ समझौता नहीं किया.

यह बात सही है कि, कोई विस्तारमें अपने अस्तित्वको बनानेके लिये बीजेपीने ऐसे प्रादेशिक संकुचित मानसिकता वाले पक्षोंसे समझौता किया है. यदि प्रमाणभान की प्रज्ञासे देखा जाय तो बीजेपी की मात्रा अन्य पक्षोंकी तरह असीम नहीं है.

जेडीयुने आरजेडी और नहेरुवीयन कोंग्रेससे गठबंधन किया. ये दोनों पक्ष एक समय उसके सैधांतिक आधार पर दुश्मन नंबर एक थे.

नहेरुवीयन कोंग्रेस तो एक स्वकेन्द्री, वंशवादी और देशकी जनताको विभाजित करने वाला सरमुखत्यार शाहीमें मानने वाला पक्ष है. इसके पास स्वकेन्द्रीय सत्ता प्राप्त करनेके अतिरिक्त, कोई अन्य कार्य सूचि नहीं है. इसने ही उच्च न्यायालयकी अवमानना करके जनतंत्रको नष्ट भ्रष्ट करदिया था. महात्मा गांधीके निकटके साथीयों तकको इसने बिना कोई अपराध और बिना कोई न्यायिक प्रक्रिया, कारवासमें अनियतकाल के लिये बंद किया था और मरणासन्न किया था. ये सब बातें एततकालिन इतिहासके पन्नों पर विद्यमान है. तो भी जेडीयुने इस कोंग्रेसके साथ गठबंधन किया. इससे जेडीयुकी मानसिकताका दर्श्न होता है. आरजेडी नेता भी १९७७में जनता पक्षके सदस्य थे और उन्होंने नहेरुवीयन कोंग्रेसको नष्ट करनेका प्रण लिया था. जब जनता पक्ष तूट गया और जनता दल भी तूटा, तो लालु यादवने अपने लिये एक वंशवादी पक्ष बना लिया. इसने केवल सत्ताके लिये ही नहेरुवीयन कोंग्रेसके साथ गठबंधन किया. लालु यादव अपने कौभांडोके कारण कारावाससे बचने के लिये ये सब करते रहे. उनके  शासनकोजंगल राजका प्रमाणपत्र नीतीशकुमार स्वयंने दिया था.

ये तीनोंने मिलके बिहार पर कमसेकम ४० वर्ष राज किया है. तो भी ये पक्ष बिहारका विकास नहीं करपाये. ये सब बिहारको पछात राज्यकी कक्षा की मान्यता मिले ऐसी वार्ताएं करते रहे. तदुपरांत समाजकी विभीन्न जातियोंके लिये शिक्षा और नौकरीमें आरक्षण मिलता ही रहे ऐसी प्रतिक्रिया भी प्रदर्शित करते रहे.

इन तीनों पक्षकी अपेक्षा बीजेपीका व्यवहार व्यवस्थित रहा है. इसलिये बीजेपी की विजय चूनावमें होना अपेक्षित था और श्रेय भी था.

किन्तु बीजेपी और उसके साथी पक्ष बिहार चूनावमें पराजित हुए

बीजेपी एक ऐसा पक्ष है जो भारतकी ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व रखता है. उसका स्वदेशीमें विश्वास है. स्वदेशी उत्पादनमें मानता है और स्वदेशी भाषाओं उपर गर्व रखता है. विदेशीओं द्वारा लिखित आधारहीन भारतीय इतिहासमें वह विश्वास नहीं रखता है. तद उपरांत वह परशुराम, राम, कृष्ण आदि पौराणिक या महाकाव्यके पात्रोंको ऐतिहासिक मानता है.

बीजेपी और खास करके नरेन्द्र मोदी मानते है कि सभी समस्याओंका मूल, शिक्षाका अभाव और कामका अभाव है. इसलिये दो प्राथमिकता बननी चाहिये. एक है, शिक्षासे कौशल्य, और दुसरा है भूमिगत संरचना यानी कि, उर्जा, मार्ग, परिवहन, जल संचय, जलवितरण आदिके विकाससे उत्पादनमें वृद्धि. इस प्रकार विकास करनेसे हर समस्याका निवारण हो जायेगा चाहे वह जातिगत हो या आर्थिक हो.

नरेन्द्र मोदीके पास इन सबकी दृष्टिके उपरांत विदेशी संबंधोंके बारेमें और सुरक्षा संबंधित प्रश्नों के बारेमें सुनिश्चित आयोजन है. उत्पादन, कार्य, और प्रबंध के विषयमें नरेन्द्र मोदीके पास निर्धारित और सुनिश्चित प्रणालीयोंका आयोजन है. बीजेपी एक मात्र ऐसा पक्ष है जिसके पास नरेन्द्र मोदी जैसा एक मात्र नेता है जो बिना थके निस्वार्थ भावसे १८ घंटा काम करता है. सुभासचंद्र बोस, दयानंद सरस्वती, विवेकानन्द, महात्मा गांधी और सरदार पटेलके बाद केवल नरेन्द्र मोदी ही एक मात्र नेता भारतको उपलब्ध हुआ है जो अन्य सबसे एक हजार मिल आगे है.

बीजेपीकी पराजयको वक्र दृष्टिसे मुल्यांकन करनेवाले स्वार्थ परायण दल समूहः

जो महाठगबंधनवाले पक्ष थे उनका हित तो स्वयंका विजय पाना हो यह बात तो स्वाभाविक है. किन्तु जो विद्वज्जन अपनेको तटस्थ मानते है और जो दृष्य श्राव्य और वाच्य समाचार माध्यम है उनको चाहिये था कि वे केवल समाचार ही दें, और अपनी तरफसे तारतम्य वाली समाचार शिर्ष पंक्तियां बनावें. जो मूर्धन्य लोग समाचार माध्यममें या तो एंकर है या कोलमीस्ट (कटार लेखक) है वे तर्कबद्धतासे और प्रमाणभानकी प्रज्ञाका उपयोग करके समाचारोंका विश्लेषण करें और मूल्यांकन करनेमें मापदंड भी समान ही रखें.

समाचार माध्यमों द्वारा कौनसी बातें उछाली गई?

बीजेपी नेतागणसे संबंधितः

() शेतानको लालुजीकी जीभ पर बैठने का एड्रेस किसने दिया?

() ‘   ‘-वाले शर्म करो. पहेले अपना ४० सालका हिसाब बताओ.

() मैं क्या बाहरी हुं. मैं क्या पाकिस्तानका प्रधान मंत्री हुं …. …. ?

() अनामत पर पुनर्विचारणा होनी चाहिये

() मैं स्वयं पीछडी जातिका हुं और मुझपर क्या गुजरी है वह मैं जानता हुं..

() लालुजी किस कारणसे चूनावमें प्रत्याशी नहीं बने, इसका कारण तो बताओ लालुजी,

() यदि एनडीए की पराजय हुई तो पटाखे पाकिस्तानमें फूटेंगे

() यह महागठबंधन एक स्वार्थबंधन है. डीएनए चेक करना चाहियेये तीनों पक्षके नेता एक मंच पर क्यों नहीं सकते हैं?

(१०) नीतीश कुमारने जनतंत्रमें मंत्र तंत्रका आश्रय लिया है. यह वीडीयो क्लीप सोसीयल मीडीया पर बहुत चली.

(११) जिनको गोमांस खाना हो वे पाकिस्तान चले जाय.

(१२) यदि यहां गोमांस खाया तो मैं गला काट दूंगा.

महागठबंधन के उच्चारणः

() नीतीशकुमारने २००२ के गुजरातके दंगोंका उल्लेख किया

() बिहारीयोंको बाहरी चाहिये कि बिहारी?

() काला धनके डेढलाख हमारे एकाउन्टमें अभीतक जमा क्यों नहीं हुए,

() मांस खाने वाले असंस्कारी होते है, ऐसा जब मैंने कहा तब मेरी जबानपर शेतान बैठा था.

() गौमांस तो हिन्दु भी खाते है.

() मांस तो मांस ही है चाहे वह गायका हो, घोडेका हो या कुत्तेका हो.

() मुझे शेतान कहा,

() अमित शाह नरभक्षी है, वह नरपिशाच है,

() बीजेपीवालोंने काला जादु करके मुझ पर फैन गिराया. मैं काला जादु जानता हुं औरकाला कबुतरमीर्च मसाले मंत्र पढके उसको भगाउंगा.

(१०) देखो यह फोटो जिसमें नरेन्द्र मोदी अपना हाथ ज्योतीषीको दिखाते है.    

नरेन्द्र मोदीका चूनाव मंत्रविकासथा. लेकिन महागठबंधनके नेता हमेशा जातिवादकी बातें करते थे और आरएसएसके एक नेताने कहा कि अनामतपर पुनर्विचारणा होना चाहिये. यह सुनकर महागठबंधनके नेताओंमे लड्डु फूटने लगे. वैसे भी उनका गठबंधनजातिवादके आधार पर ही हुआ था. और विकासके आधार पर प्रचार करना उनके लिये कठिन था. क्यों कि बिहारके कई विस्तारोमें, मकान, पानी, मार्ग, बीजली और शिक्षासंस्थाओंकी सुविधाएं नहीं है. उद्योग भी इसके कारण अल्प मात्रामें है. बीजेपीको कोमवाद परस्त कह्ना और कोमवादका मुद्दा उठाना यह तो वैसे भी फैशन है.

दाद्रीनामके एक देहातमें जो हुआ, चूं कि वह हिन्दुओंने किया था, ये सब इस बात पर तूट पडे. और उसको गौमांसके साथ, नागरिक स्वतंत्रता और हिन्दुओंकी असहिष्णुता के साथ जोड दिया. इस बातको जिस सीमातक ले गये इससे ऐसा लगता है कि यह एक सोची समझी व्यूहरचना थी जिसको नकारा नही जा सकता.

सियासती महानुभावोंका एवोर्ड वापसीका सीलसीला

इस घटनाको लेके बीजेपीआरएसएस विरोधी और नहेरुवीयन कोंग्रेस परस्त, अभिनेता, कवि, लेखक, विवेचक, समाजसेवी, आदि तथा कथित महानुभावोंने, सरकार तरफसे दिये गये पुरस्कार एक के बाद एक ऐसा करके लौटाने लगे, ताकि, समाचार माध्यम, चूनावप्रचार अंतर्गत समयमें पूरा वातावरण बीजेपीआरएसएस की असहिष्णुताके विरोधमें बना हुआ रख सके.

यदि इस घटनापर विश्लेषण किया जाय तो भूतकालमें ऐसी ही नहीं किन्तु इससे हजारों लाखों दफा बडी कई मानव हनन और मानव अधिकार हननकी घटनाएं घटी तो भी इन महानुभावोंकी संवेदनशीलताको जरासी भी हानि नहीं पहोंची. ये लोग नींभर और संवेदनहीन रहे.

नहेरुकी नीतिके कारण और भारतीय सीमाको असुरक्षित रखनेसे और हमारे जवानोंको शस्त्रोंसज्ज करनेके कारण १९६२में हजारों जवानोंको बेमौत शहीद होना पडा. तो भी इन महानुभावोंकी संवेदनशीलताको जरासी भी हानि नहीं पहोंची. ये लोग नींभर और संवेदनहीन रहे.

१९७२में सिमला समझौता अंतर्गत इन्दिरा गांधीने भारतकी जितको पराजयमें परिवर्तित करके हजारों शहीदोंके बलिदानोंपर पानी फेर दिया. तो भी इन महानुभावोंकी संवेदनशीलताको जरासी भी हानि नहीं पहोंची. ये लोग नींभर और संवेदनहीन रहे.

१९७५१९७६ मे आपतकाल घोषित करके विरोधी आवाजको बंध करने के लिये ६००००+ लोगोंको कारावासमें अनियत कालके लिये बंद कर दिया. समाचार माध्यमों पर सेन्सरशीप डाल दी. तो भी इन महानुभावोंकी संवेदनशीलताको जरासी भी हानि नहीं पहोंची. ये लोग नींभर और संवेदनहीन रहे.

इन्दिराने युनीयन कार्बाईडसे क्षतियुक्त डील किया और भोपालगेस दुर्घटना हुई और सेंकडो मौत हुई और हजारों लोग, शरीरसे स्थायी रुपसे अपंग हुए. इन गेसकांड पीडितोंको, क्षतियुक्त डील के कारण मुआवझा नही मिला. तो भी इन महानुभावोंकी संवेदनशीलताको जरासी भी हानि नहीं पहोंची. ये लोग नींभर और संवेदनहीन रहे.

इस घटनाके दोषी एन्डरशनको अर्जुनसिंह और राजीवगांधीने भगा दिया. तो भी इन महानुभावोंकी संवेदनशीलताको जरासी भी हानि नहीं पहोंची. ये लोग नींभर और संवेदनहीन रहे.

इन्दिरा गांधीने, खालिस्तानी आतंकवादी भींदराणवालेको संत घोषित करके उसको बढावा दिया, इससे खालिस्तानी आतंकवाद और सीमापारके आतंकवादको बढावा मिला. इसी कुकर्मके कारण इन्दिराकी हत्या हुई. इस नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंने हजारों निर्दोष शिखोंका कत्लेआम किया. तो भी इन महानुभावोंकी संवेदनशीलताको जरासी भी हानि नहीं पहोंची. ये लोग नींभर और संवेदनहीन रहे.

सीमापारका आतंकवाद कश्मिरमें बढने लगा और जो हिन्दु कश्मिरमें १५% थे उनके उपर अत्याचार होने लगे और हिन्दु जनसंख्या १९८९ तक % हो यी. तब तो भी इन महानुभावोंकी संवेदनशीलताको जरासी भी हानि नहीं पहोंची. ये लोग नींभर और संवेदनहीन रहे.

१९९०में खुले आम, वर्तमान पत्रोंमें इस्तिहार देके, मस्जिदोंमेंसे लाऊडस्पीकर द्वारा घोषणा करवाके, दिवारों पर पोस्टरों लगाके,  हिन्दुओंको चेतावनी दी, कि निश्चित दिनांकके अंतर्गत या तो इस्लाम कबुल करो या कश्मिर छोड दो. यदि यह स्विकार्य नहीं है तो मौत के लिये तयार रहो. ६०००+ हिन्दुओंका कत्लेआम हुआ. ५००००० हिन्दुओंको अपना घर और राज्य छोडने पर विवश किया जो आज २५ सालके बाद भी, वे या तो तंबुमें रहेते है या खोलीमें रहेते है. १९९० पहेले भी नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनका साथी “एन. एफ” कश्मिर में राज करते थे, और १९९०के बाद नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके साथी पक्षोंने १५ साल राज किया तो भी नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके साथी पक्षोंके कानोंमें जू तक नहीं रेंगी. इन शासकोंने कश्मिरी हिन्दुओंके मानव अधिकारोंके सतत होते हुए हननके विषयमें केवल उपेक्षा की. तो भी इन महानुभावोंकी संवेदनशीलताको जरासी भी हानि नहीं पहोंची. ये लोग नींभर और संवेदनहीन रहे.

और अब देखो यहां क्या हुआ? दाद्री देहातमें एक गरीब मुस्लिमकी हत्या हुई. युपी जो नहेरुवीयन कोंग्रेसके साथी पक्ष द्वारा शासित राज्य है तो उत्तर दायित्वतो उसका ही बनता है, किन्तु इन सियासती महानुभावोंने इस घटनाका उत्तर दायित्व बीजेपी केन्द्रकी बीजेपी सरकार पर डाल दिया. चूं कि मृत व्यक्ति मुस्लिम था और चूं कि मारने वाले हिन्दु थे. यदि मारने वाले हिन्दु है तो बीजेपी को  उत्तरदायी बता दो. क्या इसमें कोई तर्क है? यहा क्या बुद्धिगम्य है?

वास्तवमें महानुभावोंका तारतम्य और प्रतिभाव निरपेक्ष रुपसे एक प्रपंच है और निरपेक्ष रुपसे कोमवादको उकसाना है. ये सभी महानुभाव को कोमवाद फैलाने के आरोप पर न्यायिक कार्यवाही करनी चाहिये. और उनको कारावास में रखना चाहिये.

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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मुस्लिमोंका कश्मिरी हत्याकांड, आतंक और सीमाहीन दंभः

हिन्दुओंके हत्यारे

यदि आप मनुष्य है तो आपका रक्त उबलना चाहिये

आप मनुष्य है यद्यपि कश्मिरी हिन्दुओंकी दशकोंसे हो रही यातनाओंके विषय पर केन्द्रस्थ शासकोंकी और कश्मिरके शासकोंकी और नेताओंकी मानसिकता और कार्यशैलीसे यदि, आपका रक्त क्वथित (ब्लड बोइलींग) नहीं होता है और आप इस सातत्यपूर्ण आतंकके उपर मौन है तो निश्चित ही आप आततायी है.

इस आततायीओंमें यदि अग्रगण्योंकी सूचि बनानी है तो निम्न लिखित गण महापापी और अघोर दंडके योग्य है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसः

हमारे देशके गुप्तचर संस्था सूचना देती रहेती थी कि, आतंकवादीयोंके भीन्न भीन्न समूह अफघानिस्तानमे अमेरिका और सोवीयेत युनीयन के शित युद्धमें क्या कर रहे हैं.

ओसामा बीन लादेन भी कहा करता था कि द्वितीय लक्ष्य भारत है. शित युद्ध अंतर्गत भी एक आतंकी समूह, शिख आतंकवादीयोंके संपर्कमें था. शिख आतंकवादी समुह भी पाकिस्तान हस्तगत कश्मिरमें प्रशिक्षण लेता रहता था. शित युद्ध का एक केन्द्र पाकिस्तान भी था. अमेरिकाकी गुप्तचर संस्था सीआईएपाकिस्तानकी गुप्तचर संस्था आईएसआई, अमेरिका समर्थित आतंकी समूहोंके साथ (उदाहरण = अल कायदा), संवाद और सहयोगमें थे.

खालिस्तानी आतंकवाद का संपर्क पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आई एस आई से था. इस प्रकार पाकिस्तानके शासनको और पाकिस्तानस्थ आतंकी समूहोंके लिये भारतमें आतंकवादी जाल स्थापित करना सुलभ था.

जब शित युद्धका अंत समीप आने लगा (१९८०), तो आतंकवादी संगठनोंने भारतको लक्ष्य बनाया जिसमें खालिस्तानी आतंकवाद मुख्य था. यह एक अति दीर्घ कथा है किन्तु, खालिस्तानी आतंकवाद ने स्वर्णमंदिरपर पूरा कबजा कर लिया था. जब इन्दिरा गांधीको आत्मसात्हुआ कि अब खालिस्तानके आतंकवादी की गतिविधियोंके फलस्वरुप उसकी सत्ता जा सकती है तब उसने १९८४में स्वर्णमंदिर पर आक्रमण करवाया. ४९३ आतंकवादी मारे गये. १९०० व्यक्तियोंका अतापता नहीं. तत्पश्चात्सिख आतंकवाद बलवान हुआ और इन्दिरा गांधीकी आतंकीयोंने हत्या की.

इस प्रकार आतंकवादने अपना जाल फैलाया. १९८८में शितका युद्ध संपूर्ण अंत हुआ और मुस्लिम आतंकी समूहका भारतमें प्रवेश हुआ. वीपी सिंह और चन्दशेखरने सिख आतंकवादका अंत तो किया किन्तु वे मुस्लिम आतंकवादको रोकनेमें असमर्थ बने क्योंकि वीपी सिंहने दलित आरक्षण पर अधिक प्राथमिकता दी, और चन्द्र शेखरने अपना धर्मनिरपेक्ष चित्र बनाने पर अधिक ध्यान दिया. इसका कारण यह था कि भारतीय जनता पक्ष विकसित हो रहा था औरस इन दो महानुभावोंको अपना वोटबेंक बनाना था.

१९८८के अंतर्गत मुस्लिम आतंकवादीयोंने कश्मिर में अपनी जाल प्रसारित कर दी थी. शासन, समाचार पत्र, मुद्रक, मस्जिदें, सभी मुस्लिम संस्थाओंके साथ उनका संपर्क हो गया था.

१९८९ अंतर्गत इन आतंकीयोंने हिन्दुओंको अतिमात्रामें पीडा देना प्रारंभ किया. और १९८९ तक उन्होंने ऐसी स्थिति प्राप्त कर ली कि, वे ध्वनिवर्धक यंत्रोंसे साक्षात रुपसे वाहनोंमें घुम कर, मस्जिदोंसे, स्पष्ट धमकी देने लगे, यदि हिन्दुओंको (सिख सहित), कश्मिरमें रहेना है तो मुस्लिम धर्म अंगिकार करो या तो कश्मिर छोडके पलायन हो. यदि ऐसा नहीं किया तो आपकी अवश्य ही हत्या कर दी जायेगी.

१९ जनवरी, १९९० अन्तिम दिवस

इस घोषणाका अंत यह नहीं था. मुस्लिमोंने १९ जनवरीको अंतिम दिन भी घोषित किया. सार्वजनिक सूचना के विशाल मुद्रित पत्र सार्वजनिक स्थानों पर, भित्तियोंपर (ओन वॉल्स), निश्लेषित (पेस्टेड) किये गये, समाचार पत्रोंमें भी यह सूचना सार्वजनिक की गयी कि  कश्मिरमें रहेना है तो मुस्लिम धर्म अंगिकार करो या तो कश्मिर छोडके पलायन हो. यदि ऐसा नहीं किया तो आपकी अवश्य ही हत्या कर दी जायेगी.

इस समय अंतर्गत क्या हुआ?

पुलिस मौन रहा,

स्वयंको धर्मनिरपेक्ष प्रदर्शित करनेवाले अखिल भारतके नहेरुवीयन कोंगी नेतागण मौन रहा. यह कोंग, उस समय भी कश्मिरके शासक पक्षमंडळका एक अंग था, तो भी मौन और निस्क्रीय रहा.

कश्मिरके स्वयंको धर्मनिरपेक्ष प्रदर्शित करनेवाले मुस्लिम नेता मौन रहे, हाशीम कुरैशी, शब्बीर एहमद, शब्बीर शाह, अब्दुल गनी, मुफ्ती मोहमद, फारुख, ओमर, यासीन मलिक, गुलाम नबी आझाद, सज्जद एहमद किच्लु, सईद एहमद कश्मिरी, हसन नक्वी, आदि असंख्य नेतागण मौन रहे

कश्मिरके मुस्लिम शासनके मंत्रीगण जिनका नेता फरुख अब्दुल्ला जो हमेशा अपने पुर्वजोंके बलिदानोंकी वार्ताएं करके अपनी पीठ थपथपाता है, वह भी अपनी गेंगके साथ सर्व मौन रहा.

इन लोगोंने तो जनकोषसे लाखों रुपयोंका वेतन लिया था. उनका तो धर्म बनता है कि अपने राज्यके नागरिकोंका और उनके अधिकारोंका रक्षण करे. किन्तु यह फारुख तो अपने कबिलेके साथ अंतिम दिन १९ जनवरी १९९०के दिनांकको ही विदेश पलायन हो गया.

आज २५साल के पश्चात्वह कहता है कि हिन्दुओंके उपर हुए अत्याचारके लिये वह उत्तरदायी नहीं है क्यों कि वह तो कश्मिरमें था ही नहीं (पलायनवादी का तर्क देखो. वह समझतता है कि कश्मिरमें आनेके बाद भी और १० साल सत्ता हस्तगत करनेके बाद भी उसका कोई उत्तरदायित्व नहीं है. यह स्वयं आततायी संगठनोंका हिस्सा समझा जाना चाहिये)

कश्मिरके भारतीय नागरिक सुरक्षा सेवा अधिकारी गण (ईन्डीयन पोलीस सर्वीस ओफिसर्स = आई.पी.एस. ओफिसर्स)), नागरिक दंडधराधिपति सेवा अधिकारीगण (ईन्डीयन अड्मीनीस्ट्रटीव सर्वीस ओफीसर्स = आई..एस ओफीसर्स) मौन रहे. इन लोगोंने तो जनकोषसे लाखों रुपयोंका वेतन लिया है. इनका भी धर्म बनता है कि अपने राज्यके नागरिकोंका और उनके अधिकारोंका रक्षण करे.

समाचार प्रसारण माध्यम जिनमें मुद्रित समाचार पत्र, सामायिक, दैनिक आदि आते हैं, और विजाणुं माध्यम जिनमें सरकारी और वैयक्तिक संस्थाके दूरदर्शन वाहिनीयां है और ये सर्व स्वयंको जन समुदायकी भावनाएं एवं परिस्थितियोंको प्रतिबींबित करने वाले निडर कर्मशील मानते हैं वे भी मौन रहे,

यही नहीं पुरे भारतवर्षके ये सर्व कर्मशील मांधाता और मांधात्रीयां मौन रहे, सुनील दत्त, शबाना, जावेद अख्तर, महेश भट्ट, कैफी आझमी, नसरुद्दीन शाह, झाकिर नायक, अमिर खान, शारुख खान, आर रहेमान, अकबरुद्दीन ओवैसी, इरफान हब्बीब, मेधा, तिस्ता, अरुन्धती, आदि असंख्य मौन रहे,

अमेरिका जो अपनेको मानव अधिकारका रक्षक मानता है और मनवाता है, और मानवताके विषय पर वह स्वयंको जगतका पितृव्यज (पेटर्नल अंकल) मनवाता है, वह भी मौन रहा, उसकी संस्थाएं भी मौन रही,

भारतवर्ष के भी सभी अशासकीय कर्मशील, धर्मनिरपेक्षवादी कर्मशील, महानुभाव गण (सेलीब्रीटी), चर्चा चातूर्यमें निपूण महाजन लोग भी मौन रहे.

मौन ही नहीं अकर्मण्य रहे,

अकर्मण्य भी रहे आज पर्यंत, २५ हो गये,

क्या इन महानुभावोंकी प्रकृति है मौन रहेनेकी?

नहीं जी, इन महानुभावोंका किंचिदपि ऐसी प्रकृति नहीं है.

गुजरातके गोधरा नगरके कोंग्रेससे संबंधित मुस्लिमोंने २००२ में हिन्दु रेलयात्रियोंको जीवित अग्निदाह देके भस्म कर दिया तो हिन्दु सांप्रदायिक डिम्ब हिंसा प्रसरित हो गयी और उसमें हिन्दु भी मरे और मुस्लिम भी मरे. इस डिंब हिंसाचारमें मुस्लिम अधिक मरे. कारण था प्रतिक्रिया.

शासनने योग्य प्रतिकारक और दडधरादिक कार्यवाही की, इसमें कई मारे गये. मुस्लिम भी मारे गये और हिन्दु भी मारे गये. हिन्दु अधिक मारे गये.

दोनों संप्रादयके लोगोंके आवासोंको क्षति हुई.

तस्माद्अपि, उपरोक्त दंभी धर्मनिरपेक्ष, प्रत्येक प्रकारकी प्रणालीयोंने और महानुभावोंने अत्यंत, व्यापक, और सुदीर्घ कोलाहल किया, और आज, उसी २००२ के गुजरात डिंब विषय भी कोलाहल चलाते रहेते है.

क्या कश्मिरी मुसलमान लोग और नेतागणकी प्रकृति सांप्रदायिक कोलाहल करने की है?

कश्मिरी मुसलमानोंने ही हत्या करनेवालोंको साथ दिया था और हिन्दुओंको अन्वेषित करनेमें हत्या करनेवालोंको संपूर्ण सहायता की थी.

इतना ही नहीं इन नेताओंने और मुस्लिम जनसामाजने हिन्दुओंको आतंकित करनेमें कोई न्यूनता नहीं रक्खी थी.

अमरनाथ यात्रीयों पर हिंसायुक्त आक्रमण

अमरनाथ एक स्वयंभू शिवलिंग है. हिन्दुओंका यह एक श्रद्धा तीर्थ है. यह तिर्थयात्रा .पूर्व ३०० से भी पूर्व समयसे चली आती है. मई से, २९ अगस्त तक यात्राका समय है.

१९९०में मुस्लिमोंने जो नरसंहार और आततायिता प्रदर्शित की. कश्मिरका शासन और केन्द्रीय भारतीय नहेरुवीयन कोंग्रेसका शासन, निंभर रहा. इससे मुसलमानोंका उपक्रम बढा. उन्होने आतंककी भयसूचना दे डाली. इस कारण दोनों भीरु शासनने १९९०से १९९५ तक अमरनाथ यात्रा स्थगित कर दी.

सन. ९९९६ से शासनने अनुमति देना प्रारंभ किया. प्रत्येक वर्ष कश्मिर के मुस्लिम, हिन्दु यात्रीयोंको धमकी देते हैं. और हमारे जवान यात्रीयोंकी सुरक्षा करते है. कश्मिर शासनका स्थानिक सुरक्षादल कुछ भी सुरक्षा देता नहीं है. अमरनाथ यात्रा पहलगांवसे प्रारंभ होती है और मुस्लिम आतंकी कहींसे भी हमला कर देते हैं. प्रतिवर्ष आक्रमण होता है. कुछ यात्री आहत हो जाते हैं. उनमें शारीरिक पंगुता जाती है. कुछ यात्री हत्यासे बच भी नहीं सकते. सन. २०००मे एक बडा हत्याकांड हुआ था उसमें १५००० का सुरक्षा दल होते हुए भी १०५ हिन्दु मारे गये. इनमें ३० यात्रीयोंको तो पहलगांवमें ही मार दिया.

अमरनाथ श्राईन बोर्डः

सन २००८में अमरनाथ यात्रीयोंकी सुरक्षा और सुविधाओंको ध्यानमें रखते हुए, केन्द्रीय शासन (नहेरुवीयन कोंग्रेस) और कश्मिरके मुस्लिम शासनने एक संमतिपत्र संपन्न किया कि, अमरनाथ श्राईन बोर्डको ९९ एकड वनभूमि उपलब्ध करवाई जाय.

इसका प्रयोजन यह था कि सुरक्षाके उपरांत, यात्रीयोंके लिये श्रेयतर आवासोंका निर्माण किया जा सके. वैसे तो ये सब आवास अल्पकालिन प्रकारके रखने के थे.

तथापि, आप मुसलमानों का तर्क देखिये.

इस प्रकार भूमि अधिग्रहण करनेसे अनुच्छेद ३७०का हनन होता है.

मुस्लिमोंका दुसरा तर्क था कि, आवासोंका निर्माण करनेसे पर्यावरण का असंतुलन होता है.

ये द्नों तर्क निराधार है. अमरनाथ श्राईन बोर्ड स्थानिक शासनका है. इस कारणसे अनुच्छेद ३७० का कोई संबंध नहीं. जो आवास सूचित किये थे वे प्रासंगिक और अल्पकालिन प्रकारके थे. इस कारणसे उनका पर्यावरण के असंतुलनका तर्क भी अप्रस्तुत था.

इस प्रकार कश्मिर के मुस्लिमोंने जो तर्क रक्खा था वह मिथ्या था. “मुसलमान लोग तर्क हीन और केवल दंभी होते हैइस तारतम्यको भारतके मुसलमानोंने पुनःसिद्ध कर दिया.

कश्मिरके मुसलमानोंने अमरनाथ श्राईन बोर्ड और जम्मुकश्मिर शासनके इस संमतिअभिलेखका प्रचंड विरोध किया. पांच लाख मुस्लिमोंने प्रदर्शन किया और कश्मिरमें व्यापकबंधरक्खा.  भारतका पुरा मुस्लिम जन समाज, हिन्दुओंको कोई भी सुविधा मिले उसके पक्षमें होता ही नही है.             –

आप कहेंगे इसमें कश्मिरके अतिरिक्त भारतके मुसलमानोंके संबंधमें क्यों ऋणात्मक भावना क्यों रखनी चाहिये?

जो मुसलमान स्वयं मानवीय अधिकारोंके पक्षमें है, ऐसा मानते है, जो मुसलमान स्वयंको धर्मनिरपेक्ष मानते हैं, जो मुसलमान स्वयंको भारतवासी मानते हैं, इन मुसलमानोंका क्या यह धर्म नहीं है कि वे अपने हिन्दुओं की सुरक्षा और सुविधा पर अपना तर्क लगावें और कश्मिर के पथभ्रष्ट मुसलमान भाईओंके विरुद्ध अपनी प्रतिक्रिया प्रदर्शित करें, आंदोलन करें, उपवास करें?

नहीं. भारतके मुसलमान ऐसा करेंगे ही नहीं. क्यों कि वे अहिंसामें मानते ही नहीं हैं. समाचार माध्यमके पंडितोंने भी, इस विषयके संबंधमें मुस्लिम और शासकीय नेताओंको आमंत्रित करके कोई चर्चा चलायी नहीं. समाचार माध्यमोंके पंडितोंको केवल कश्मिरके मुसलमानोंने कैसा लाखोंकी संख्यामें एकत्र होके कैसा  अभूतपूर्व आंदोलन किया उसको ही प्रसारण करनेमें रुचि थी. उनको मुस्लिम नेताओंकों और नहेरुवीयन कोंगके नेताओंको आमंत्रित करके उनके प्रमाणहीन तर्कोंको धराशाई करनेमें कोई रुचि नही थी. नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेतागण तो वैसे ही दंभी, असत्यभाषी, ठग, सांप्रदायिक, मतोंके व्यापारी, आततायी, कायर और व्यंढ है. उन्होंने तो मुसलमानोंके चरित्रको, स्वयंके चरित्रके समकक्ष किया है.

कश्मिर पर आयी वर्षा की सद्य प्राकृतिक आपदाएं

इसी वर्षमें कश्मिर पर वर्षाका प्राकृतिक प्रकोप हुआ.

भारतके सैन्यका, कश्मिरी मुसलमान वैसे तो अपमान जनक वर्तन करनेमें सदाकाल सक्रिय रहेते है. क्यों कि, मुसलमानोंकी हिंसात्मक मानसिकताको और उनके आचारोंको, भारतीय सैनिक, यथा शक्ति, नियंत्रित करते है.

भारतीय सैनिकोंका ऐसा व्यावहार, मुसलमानोंकों अप्रिय लगता है. ये मुसलमान लोग स्थानिक सुरक्षाकर्मीयोंकी भी हत्या करते है.

यह मुसलमान लोग हिन्दुओंके लिये और स्वयंके लिये भीन्न भीन्न मापदंड रखते हैं.

नरेन्द्र मोदीने गुजरातमें मुसलमानोंकी सुरक्षा की, और तीन ही दिनोमें परिस्थितिको नियंत्रित कर दिया था तो भी मुसलमानोंने और दंभी जमातोंने अपना जठर फट जाय, उतनी नरेन्द्र मोदीकी निंदा की थी. आज भी करते है. तद्यपि नरेन्द्र मोदी हमेशा अपना राजधर्मका पालन करते रहे, और जिन मुस्लिमोंने ३०००+ कश्मिरी हिन्दुओंका कत्ल किया था और लाखों हिन्दुओंके उपर आतंक फैलाके कश्मिरसे भगा दिया था, उन्ही मुस्लिमोंके प्राणोंकी रक्षाके लिये नरेन्द्र मोदीने भारतीय सैनिकोंको आदेश दिया. और उन्ही भारतीय सैनिकोंने स्वयंके प्राणोंको उपेक्षित करके इन कृतघ्न और आततायी कश्मिरके मुस्लिमोंके प्राण बचाये.

अब आप कश्मिरके घोषित, श्रेष्ठ मानवता वादी,

समाचार माध्यम संमानित वासिम अक्रम की

मानसिकता देखो.

इस वासिम अक्रम कश्मिरका निवासी है. उपरोक्त उल्लेखित प्राकृतिक आपदाके समय इस व्यक्तिने कुछ मुसलमानोंके प्राणोंकी रक्षा की. इस कारणसे प्रसार माध्यम द्वारा उसका बहुमान किया गया. उससे प्र्श्नोत्तरी भी की गयी. इस व्यक्तिने वर्णन किया कि उसके मातापिताके मना करने पर भी वह स्वयंमें रही मानवतावादी वृत्तिके कारण घरसे निकल गया और प्राकृतिक आपदा पीडित कश्मिरीयोंके प्राणोंकी रक्षा की.

इसी व्यक्तिने बीना पूछे ही यह कहा कि, भारतीय सैनिकोंने भी अत्यंत श्रेष्ठ काम किया. लेकिन उनका तो वह धर्म था. उनको तो अपना धर्म निभानेके लिये वेतन मिलता है. (किन्तु मैंने तो मानवधर्म निभानेके लिये वेतनहीन काम किया).

इससे अर्थ निकलता है कि मानवतावादी कर्म तभी कहा जा सकता है कि, आप बिना वेतन काम करो. वासिमने बिना वेतन काम किया इसलिये वह मानवता वादी है.

लेकिन इससे एक प्रश्न उठता है.

उसने हिन्दुओंके लिये क्या किया?

हो सकता है कि १९९०में वह दूधपीता बच्चा हो. लेकिन उसके पिता तो दूध पिता बच्चा नहीं था. और अन्य मुसलमान लोग तो दूधपीते बच्चे नहीं थे. वासिम ! २००५ से तो तू बडा हो ही गया था. तो तभीसे तो तू हिन्दुओंको सुरक्षित रीतिसे कश्मिरमें अपने घरोंमें बसा सकता था. इसमें तुम्हारी मानवता कहां गई? हिन्दुओंके विषयमें तू क्यों अपनी मानवता दिखाता नहीं है?

जिसकी मानवताको माध्यमोंने प्रसारित किया, उसको कभी यह पूछा नहीं गया कि कश्मिरी हिन्दुओंके बारेमें उसने क्या किया? उनके प्रति क्यों मानवता नहीं दिखाता है?

कश्मिरी हिन्दुओंका पुनर्वासः

कश्मिरमें मुफ्तीसे मिलीजुली बीजेपीकी सरकार आयी. उसने कश्मिरके प्रताडित, प्रपीडित, निष्काषित निर्वासित हिन्दुओंके पुनर्वासके लिये एक योजना बनायी.

एक भूखंडको सुनिश्चित करके उसमें आवासें बनाके निर्वासितोंका पुनर्वास किया जाय. ऐसी योजना है. उसमें प्राकृतिक आपदासे विस्थापित मुसलमानोंको भी संमिलित किया जा सकता है.

किन्तु यह योजना पर, मुसलमानोंकी संमति नहीं. संमति नहीं उतना ही नहीं प्रचंड विरोध भी है.

इन मुसलमानोंने पूरे राज्यको बंध रखनेकी घोषणा कर दी.

उनका कुतर्क है कि हिन्दु लोग, कश्मिरकी जनताका एक अतूट सांस्कृतिक अंग है, और ऐसा होने के कारण हम मुसलमान लोग उनको ऐसा भीन्न आवसमें रहेने नहीं देंगे. हम चाहते हैं कि ये कश्मिरी हिन्दु लोग हमारे अगलबगलमें ही रहें. हम इसीको ही अनुमति देंगे कि हिन्दुओंका पुनर्वास उनके मूलभूत आवासमें ही हो. हम संयुक्त आवासमें ही मानते है.

वास्तवमें मुसलमानोंका यह तर्क निराधार है.

क्यों कि इस नूतन आवास योजनामें मुसलमानोंके लिये निषेध नहीं हैं. प्राकृतिक आपदासे विस्थापित या और कोई भी मुसलमानको इस आवासमें संमिलित किया जा सकता है. इतना ही नहीं कोई भी कश्मिरी हिन्दु यदि ईच्छा हो तो उसके लिये अपने मूलभूत आवासमें जानेका भी विकल्प खुल्ला है.

इन मुसलमानोंका एक तर्क और भी है.

हिन्दुओंके लिये भीन्न आवास योजना का अर्थ है, कश्मिरमें इस्राएल स्थापित करना. हम हिन्दुमुस्लिमोंके बीच ऐसी दिवार खडी करना नहीं चाहते.

यह तर्क भी आधारहीन है.

हिन्दुओंने कभी संप्रदायके नाम पर  युद्ध किया नहीं. हिन्दुओंने कभी अन्य संप्रदायका अपमान किया नहीं. इतिहास इसका साक्षी है.

इस्राएल, यहुदीओं की तुलना भारत और हिन्दुओंसे नहीं हो सकती. हां यह बात अवश्य कि मुसलमानोंकी तुलना मुसलमानोंसे हो सकती है. भारतके मुसलमानोंने एक भीन्न भूखंड भी मांगा और अपने भूखंडमें हिन्दुओंकी सातत्यपूर्ण निरंतर हत्याएं की.

मुसलमानोंने अपने भूखंडमें हिन्दुओंके उपर अत्याचार भी किये. इतना ही नहीं उन्होंने खुदने पूरे भारतमें अपनी दिवालोंवाली बस्तियां बनायी उसको विस्तृत भी करते गये और हिन्दुओंके आवासों पर कब्जा करते गयें. हिन्दुओंको भगाते भी गये.

कश्मिरमें तो मुसलमानोंने सभी सीमाओंका उल्लंघन किया, सभी सभ्यता नष्ट करके नम्र, सभ्य और अतिसंस्कृत हिन्दुओंका सहस्रोंमें संहार किया, उनको घरसे निकाला दिया और १९९०से आजकी तारिख तक उनको अपने मानवीय अधिकारोंसे वंचित रक्खा.

और ये हिन्दु कौन थे?

ये ऐसे हिन्दु थे जिन्होंने कभी मुसलमानोंसे असभ्य और हिंसक आचार नहीं किया. ऐसे हिन्दुओंके उपर इन मुसलमानोंने कृतघ्नता दिखाई. और अब ये मुसलमान, हिन्दुओंके उपर अपने प्रेमकी बात कर रहे हैं. कौन कहेगा ये मुसलमान विश्वसनीय है और प्रेमके योग्य है?        

जब १९९०में जब मुसलमानोंने ३०००+ हिन्दुओंकी खुल्ले आम हत्यायें की जाती थीं, तब इनमेंसे एक भी माईका लाल निकला नहीं जो हिन्दुओंके हितके लिये आगे आयें.

इन मुसलमानोंका विरोध इतना तर्कहीन और दंभसे भरपुर होने पर भी इसकी चर्चा योग्य और तर्क बद्ध रीतिसे कोई भी समाचार माध्यमने नहीं की. समाचार माध्यम तो, हिन्दुओंके मानव अधिकारके विषय पर सक्रीय है तो वे उत्सुक है.

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः आई.सी.आई., सी.आई.., मानव अधिकार, हनन, शित युद्ध, पाकिस्तान, अमेरिका, सोवियेत युनीयन, खालिस्तानी, यासीन मलिक, फारुख, ओमर, गुलाम नबी, आई.पी.एस., आई..एस., शासन, महानुभाव, कर्मशील, मांधाता, पंडित

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