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मीडीया वंशवादको बढवा देता है

मीडीया वंशवादको बढवा देता है

बीजेपीका शस्त्रः

राष्ट्रवादी होने के कारण बीजेपीका,  विपक्षके विरुद्ध सबसे बडा आक्रमणकारी शस्त्र, वंशवादका विरोध था और होना भी आवश्यक है. वंशवादने भारतीय अर्थतंत्रको और नैतिकताको अधिकतम हानि की है.

वंशवाद क्या है?

हम केवल राजकारणीय वंशवादकी ही चर्चा करेंगे.

अधिकतर लोग वंशवादके प्रकारोंके भेदको अधिगत नहीं कर सकते.

पिताके गुण उसकी संतानोंमे अवतरित होते है. सभी गुण संतानमें अवतरित होनेकी शक्यता समान रुपसे नहीं होती है. वास्तवमें तो माता-पिताके डीएनएकी प्राकृतिक अभिधृति (टेन्डेन्सी) ही संतानमें अधिकतर अवतरित होती है. अधिकतर गुण तो संतान कैसे सामाजिक और प्राकृतिक वातावरणमें वयस्क हुआ उसके उपर निर्भर है. उनमें आर्थिक स्थिति, खानपान, शिक्षा, पठन, चिंतन, चिंतनके विषय, मित्र और मित्र-मंडल, दुश्मन, रोग, प्राकृतिक घटनाएं आदि अधिक प्रभावशाली होता है.

माता-पिताकी संपत्ति का वारस तो संतान बनती ही है, किन्तु, पढाई, आगंतुक विषयोंके प्रकारोंका चयन और उनके उपरके  चिंतन और प्रमाण, नैतिकता और श्रेयके प्रमाण की प्रज्ञा आदिको  तो संतानको स्वयं के अपने श्रम से विकसित करना पडता है.

स्थावर-जंगम संपत्ति तो संतानको प्राप्त हो जाती है. इसमें व्यवसाय भी संमिलित है, लेकिन व्यवसायको अधिक उच्चस्तर पर ले जानेका जो कौशल्य है उसके लिये तो संतानको स्वयं कष्ट उठाना पडता है.

“संतानको पिताके राजकीय पदका वारस बनाना” इस प्रणालीको पुरस्कृत करनेवालोंको हम वंशवादी कहेंगे और उनकी चर्चा करेंगे.

वंशवादकी प्रणालीको पुरस्कृत किसने किया?

नहेरुने वंशवादकी प्रणालीका प्रारंभ किया. वैसे तो मोतीलाल नहेरुने वंशवाद का आरंभ किया था. १९१९में मोतीलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रमुख बने थे. किन्तु १९२०में जवाहरलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रमुख बन नहीं पाये थे. तत्‍ पश्चात्‌, १९२८में भी मोतीलाल नहेरु कोंग्रेस पक्षके प्रमुख बने थे. १९२९में जवाहरलाल नहेरु कोंग्रेसके अस्थायी प्रमुख बने थे. १९३६में पुनः अस्थायी प्रमुख बने और १९३७में बने. १९४६में महात्मा गांधीके सूचनसे फिरसे हंगामी प्रमुख बने. फिर १९५१से सातत्य रुपसे १९५४ तक जवाहरलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रमुख बने रहे.

इसके अंतर्गत कालमें नहेरु (जवाहरलाल)ने कोंग्रेसके प्रमुखपदकी सत्ता पर्याप्तरुपसे अशक्त कर दी थी. नहेरुने अपनी दुहिता (इन्दिरा) को भी कोंग्रेस पक्ष की प्रमुख बना डाला था. इस अंतरालमें कोंग्रेसमें क्रमांक – एकका पद प्रधान मंत्रीका हो गया था.

प्रच्छन्न और अप्रच्छन्न गुणः

भारतके उपर चीनकी अतिसरल विजयके बाद शिघ्र ही नहेरुने सीन्डीकेटकी रचना कर दी थी. इससे १९६५में लाल बहादुर शास्त्रीजीकी मृत्युके बाद इन्दिराको (शोक कालके पश्चात्‌)  नहेरुकी वारसाई (दहेजरुप) में  प्रधान पद मिला.

कौशल्य और अनुभवमें इन्दिरा गांधी अग्रता क्रममें कहीं भी आती नहीं थी. फिर भी उसको प्रथम क्रमांक दे दिया. जो दुर्गुण नहेरुमें प्रच्छन्न रुपसे पडे हुए थे वे सभी दुर्गुण  इन्दिरामें प्रकट रुपसे प्रदर्शित हुए. नहेरुकी पार्श्व भूमिकामें स्वातंत्र्यका आंदोलन का उनका योगदान था. इस कारणसे नहेरु प्रकट रुपसे स्वकेन्द्री नहीं बन पाये. किन्तु इन्दिरा गांधीके लिये तो “नंगेको नहाना क्या और निचोडना क्या”. वह तो कोई भी निम्न स्तर पर जा सकती थी. इन्दिराका स्वातंत्र्यके आंदोलनमें ऐसा कोई योगदान ही नहीं था कि उसको स्वकेन्द्रीय बननेमें कुछ भी लज्जास्पद लगें.

नहेरु और वंशवाद

नहेरुने कई काले कर्म किये थे इस लिये उनके काले कर्मोंको अधिक प्रसिद्धि न मिले या तो उनको गुह्य रख सकें, इस लिये नहेरुका अनुगामी नहेरुकी ही संतान हो यह अति आवश्यक था. इन्दिराकी वार्ता भी ऐसी ही है. संजय गांधी राजकारणमें था. संजय गांधीकी अकालमृत्यु हो गई.

वंशवादसे यदि पिताके/माताके सत्तापदकी प्राप्ति की जाती है तो सामाजिक चारित्र्यका पतन भी होता है और देशको हानि भी होती है.

ZERO TO MAKE HERO

इन्दिरा गांधीको नहेरुका सत्तापद मिलनेसे जो लोग इन्दिरासे कहीं अधिक वरिष्ठक्रमांकमें थे, उनकी सेवा देशको मिल नहीं सकी. जगजिवनराम, आचार्य क्रिपलानी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, मोररजी देसाई, राममनोहर लोहिया … आदि वैसे तो कभी न कभी कोंग्रेसमें ही थे. किन्तु उनका अनादर हुआ तो उनको पक्षसे भीन्न होना पडा. वंशवादके कारण, पक्षमें कुशल व्यक्तित्व वालोंकी अवहेलना होती ही रहेती है. इसके कारण पक्षके अंदरके प्रथम क्र्मांककी संतानको छोड कर अन्य किसीको, चाहे वह कितनाही कुशल और अनुभवी क्यूँ न हो, उसको सर्वोच्च पदकी कामना नहीं करना है. इसके कारण पक्षके अन्य  नेता या तो पक्ष छोड देते है, या तो पक्षमें रहकर, अपनी सीमित लोकप्रियताका प्रभाव प्रदर्शित करते रहेते है और इसी मार्गसे धनप्राप्ति करते रहेते है. नैतिकताका पतन ऐसे ही जन्म लेता है.

कोंग्रेसमें अनैतिकताका प्रवेश कैसे हुआ?

नहेरुने “सेनाकी जीपोंके क्रयन (खरीदारीमें)” सुरक्षा मंत्रीको आदेश जाँचका आदेश न दिया. तो ऐसी प्रणाली ही स्थापित हो गई. इन्दिरा गांधीने सोचा की ऐसा तो होता ही रहेता है. तो इन्दिरा गांघीने सरकारी गीफ्टमें मिला मींककोट अपने पास रख लिया. तत्‌ पश्चात्‌ ऐसा आचार सर्वमान्य हो गया. नेतागण स्वयको मिला सरकारी आवास ही छोडते नहीं है. दो दो तीन तीन सरकारी आवास रख लेते है और किराये पर भी दे देते है. यदि सरकार खाली करवायें तो स्नानागारके उपकरण, टाईल्स, एसी, कारपेट, फर्नीचर … उठाके ले जाते हैं. फिर सरकारी कर्मचारीयोंमें भी यही गुण अवतरित होता है. वे लोग सरकारी वाहनका अपनी संतानोंके लिये, पत्नीके नीजी कामोंके लिये उपयोग किया करते है.

प्रतिभा पाटिल जो भारतकी राष्ट्रप्रमुख रही वह अपना कार्यकाल समाप्त होने पर १० टनके १४ मालवाहक भरके संपत्ति अपने साथ ले गयीं थीं. और शिवसेनाके सर्वोच्च नेता बाला साहेब ठाकरेने जो स्वयं अपनेको धर्मके रक्षक के रुपमें प्रस्तूत करते है उन्होंने अपने पक्षके जनप्रतिनिधियोंको आदेश दिया था कि राष्ट्रप्रमुख पदके चूनावमें प्रतिभा पाटिलको, प्रतिभा पाटील, मराठी होनेके कारण  उनका अनुमोदन करें. नीतिमत्ता क्या भाषावाद और क्षेत्रवाद से अधिक है? नीतिमत्ताको कौन पूछताहै!!

शिवसेना भी वंशवादी है. बालासाहेब के बाद, उसके बेटे उद्धव ठाकरेको पक्षका प्रमुख बनाया. अब उद्धव ठाकरेने अपनी ही संतानको मुख्य मंत्री बनानेका संकल्प किया है. क्या शिवसेनामें कुशल नेताओंका अभाव है? यदि ६० वर्षकी शिवसेनाके पास वंशीय नेताकी संतानके अतिरिक्त  प्रभावी और वरिष्ठ नेता ही नहीं है तो ऐसे पक्षको तो जीवित रहेनेका हक्क ही नहीं है.

एन.सी.पी. के शरद पवार भी वंशवादी है. ममता बेनर्जी भी वंशवादी है. मायावती, शेखाब्दुला, मुफ्ती मोहम्मद सईद, मुलायम सिंघ … ये सब वंशवादी है और इन सभीके पक्षोंके नेताओंने वर्जित स्रोतोंसे अधिकाधिक संपत्ति बनायी है. इन लोगोंकी अन्योन्य मैत्री भी अधिक है. इन लोगोंके पक्षोंका अन्योन्य विलय नहीं होता है. क्यों कि उनको लगता है कि भीन्न पक्ष बनाके रहकर हम  सत्तामें प्रथम क्रमांक प्राप्त करें ऐसी शक्यता अधिक है. जब तक प्रथम क्रमांक का मौका नहीं मिलता, तब तक पैसा बनाते रहेंगे. यही हमारे लिये श्रेय है.

वंशवाद पर समाचार माध्यमोंका प्रतिभावः

वंशवादी पक्ष जब चूनावमें सफल होता है और सरकार बनानेमें जब वह  प्रभावशाली भूमिका प्रस्तूत कर सकता है तब मोदी-विरोधी ग्रुपवाले समाचार माध्यम, वंशवादी पक्षके गुणगान करने लगते है. जो समाचार माध्यम मोदी-विरोधी नहीं है वे भी असमंजसकी स्थितिमें आ जाते है.

भारतीय जनता पार्टी वंशवादसे विरुद्ध है. उनका यह विचार उनके लिये एक शस्त्र है. जो लोग मोदीके विरुद्ध है, वे लोग बीजेपीके इस शस्त्र को निस्क्रीय करना चाहते है.

इन समाचार माध्यमोंको देशहितकी अपेक्षा, निर्बल और अस्थिर सरकार अधिक प्रिय है. ये लोग वंशवादकी भर्त्सना नहीं करते है. वे कभी उद्धवकी संतानकी कुशलता की चर्चा नहीं करेंगे. ये समाचार माध्यम, बीजेपीकी कष्टदायक स्थितिका अधिकाधिक विवरण देंगे. उस विवरणमें अतिशयोक्ति भी करेंगे. क्यों कि चमत्कृति और रसप्रदीय रम्यता तो उसमें ही है न!!

यदि पिता/माताकी संतानको सत्तापदका वारस बनानेवाली प्रणाली को नष्ट करना है तो सभी समाचार माध्यमोंको पुरस्कृत वारसकी और उसी पक्षके अन्यनेताओंकी बौद्धिक शक्ति और अनुभव शक्ति की तुलना करनेकी चर्चा करना चाहिये और वंशवादीसे पुरस्कृत संतानकी भर्त्सना करना  चाहिये.

व्युहरचना कुछ भीन्न है

समाचार माध्यमोंका धर्म है कि वे या तो केवल समाचार ही प्रस्तूत करें या तो जनसाधारणको सुशिक्षित करें.

किन्तु हमारे देशके कई समाचार माध्यम के संचालक देश हितको त्यागकर, समाचारोंके द्वारा अपना उल्लु सीधा करने पर तुले हुए है. “भारत तेरे टूकडे होगे”, “कसाबको चीकन बीर्यानी खिलानेवाले”, “हिन्दुओंके मौतके जीम्मेवारों”, गुन्डों और आतंकीयोंको और उनके सहायकों … आदिके जनतांत्रिक अधिकार एवं उनके मानवाधिकारोंकी रक्षा यही उनका एजन्डा है. इनकी प्रज्ञामें भला देश हित कैसे घुस सकें?

सत्ता क्या चोरीका माल है?

ये लोग चाहते है कि शिवसेना के सबसे कनिष्ठ, अनुभवहीन और वरीष्ठता क्रममें कहीं भी न आनेवाले उद्धव ठाकरेके लडकेको सीधा ही मुख्यमंत्री बनाया जाय. यदि बीजेपी उसको उपमंत्री पद  दे तो भी यह व्यवस्था उचित नहीं है. क्यों कि विपक्षको तो मौका मिलजायेगा कि देखो बीजेपी भी वंशवादमें मानती है और वंशवादमें माननेवाले पक्षका सहयोग ले रही है.

बीजेपी को भी सोचना चाहिये कि यह  शिवसेना, एनसीपी और कोंगीकी चाल भी हो सकती है कि अब बीजेपी वंशवादके विरुद्ध न बोल सके. श्रेय तो यही होगा कि बीजेपी, शिवसेना को स्पष्ट शब्दोंमें कहे दे कि मंत्रीपद, योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर ही मिलेगा. यह कोई लूट का माल नहीं है कि ५०:५० के प्रमाणसे वितरण किया जाय.

शिवसेना अल्पमात्रामें भी विश्वसनीय नहीं है. इनके नेता, बीजेपीके उपर दबाव बनानेका एक भी अवसर छोडते नहीं है. और परोक्षरुपसे कोंगी आदि विपक्षको ही सहाय करते है.

याद करो ये वही शिवसेना है जिसके शिर्षनेता और स्थापक बालासाहेब ठाकरेने, जब बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुई तो कहा था कि ये भूमि पर न तो मस्जिद बने न तो मंदिर बने. इस पर अब चिकीत्सालय बनना चाहिये.

यही शिवसेना के नेतागण यह कहेनेका अवसर चूकते नहीं कि बीजेपी मंदिर निर्माणमें विलंब कर रहा है.

ईन लोगोंसे सावधान,

शिरीष मोहनलाल दवे

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“आगसे खेल” मुल्लायम और उसके सांस्कृतिक साथीयोंका

“आगसे खेल” मुल्लायम और उसके सांस्कृतिक साथीयोंका

यदि कोई जनताको धर्म, जाति और और क्षेत्रके नाम पर विभाजन करें और वॉट मांगे उसको गद्दार ही कहेना पडेगा. अब तो इस बातका समर्थन और आदेश सर्वोच्च न्यायालयने  और चूनाव आयुक्तने भी परोक्ष तरिकेसे कर दिया है.

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मुल्लायम, अखिलेश और उनके साथीयोंने युपीके चूनावमें  बीजेपी के विरुद्ध आंदोलन छेड दिया है. ये लोग बीजेपी के नेतागण चूनाव प्रचारके लिये भी न आवें क्यों कि वे युपीके नहीं हैं. आप समझलो कि ये मुल्लायम, अखिलेश आदि नेता लोग, स्थानिक लोगके अलावा, अन्य भारतीय नागरिकके वाणी स्वातंत्र्यके हक्कको भी युपीमें मान्य नहीं रखना चाहते हैं. उनके लिये युपी-बिहारमें नौकरी देनेकी तो बात ही छोड दो. ये लोग तो क्षेत्रवादमें अन्य राज्योंके क्षेत्रवादसे एक कदम आगे हैं. वे ऐसा प्रचार कर रहे है कि, स्थानिक नेताओंको छोडकर अन्य नेता युपीमें चूनाव प्रचार भी न करें. युपी-बिहारमें तो स्थानिक पक्ष (सिर्फ हिन्दीभाषी) ही होना चाहिये.

१९५७के चूनावमें पराजयसे बचने के लिये कोंग्रेसके नहेरुने मुम्बईमें भाषावाद को जन्म दिया था.

नहेरु है वॉटबेंक सियासत की जड

वॉटबेंककी सियासत करने वालोंमें नहेरुवंशी कोंग्रेसका  प्रथम क्रम है. नहेरु वंशवाद का यह संस्कारकी जड नहेरु ही है.

नहेरुने सर्व प्रथम गुजराती और मराठीको विभाजित करनेवाले उच्चारण किये थे.

नहेरुने कहा कि यदि महाराष्ट्रको मुंबई मिलेगा तो वे स्वयं खुश होंगे.

नहेरुका यह उच्चारण मुंबईके लिये बेवजह था. गुजरातने कभी भी मुंबई पर अपना दावा रक्खा ही नहीं था.  वैसे तो मुंबईको विकसित करनेमें गुजरातीयोंका योगदान अधिकतम था. लेकिन उन्होने कभी मुंबई को गुजरातके लिये मांगा नहीं था और आज भी है.

गुजराती और मराठी लोग हजारों सालोंसे मिलजुल कर रहेते थे.  स्वातंत्र्य पूर्वके कालमें कोंग्रेसकी यह नीति थी कि भाषाके अनुसार राज्योंका पुनर्गठन किया जाय और जैसे प्रादेशिक कोंग्रेस समितियां है उस प्रकारसे राज्य बनाया जाय. इस प्रकार मुंबईकी “मुंबई प्रदेश कोंग्रेस समिति” थी तो मुंबईका अलग राज्य बनें.

लेकिन महाराष्ट्र क्षेत्रमें भाषाके नाम पर एक पक्ष बना. उस समय सौराष्ट्र, कच्छ और मुंबई ईलाका था. मुंबई इलाकेमें राजस्थानका कुछ हिस्सा, गुजरात, महाराष्ट्र था, और कर्नाटकका कुछ हिस्सा आता था. १९५७के चूनावके बाद ऐसी परिस्थिति बनी की महाराष्ट्र क्षेत्रमें नहेरुवीयन कोंग्रेस अल्पमतमें आ गयी. यदि उस समय नहेरु भाषाके आधार पर महाराष्ट्रकी रचना करते तो महाराष्ट्रमें उसकी सत्ता जानेवाली थी. इस लिये नहेरुने द्विभाषी राज्यकी रचना की, जिसमें सौराष्ट्र, कच्छ, गुजरात, मुंबई और महाराष्ट्र मिलाके एक राज्य बनाया और अपना बहुमत बना लिया.

महाराष्ट्रमें विपक्षको तोडके १९६०में गुजरात और महाराष्ट्र अलग अलग राज्य बनाये.

जातिवादका जन्म

डॉ. आंबेडकर तो मार्यादित समयके लिये, और वह भी केवल अछूतोंके लिये ही आरक्षण मांग रहे थे. गांधीजी तो किसी भी प्रकारके आरक्षण के विरुद्ध थे. क्यों कि महात्मा गांधी समज़ते थे कि आरक्षणसे वर्ग विग्रह हो सकता है.

नहेरुने पचासके दशकमें आरक्षण को सामेल किया. अछूत के अतिरिक्त और जातियोंने भी आरक्षणकी  मांग की.

नहेरुवीयन कोंग्रेसको लगा कि विकासके बदले वॉट-बेंक बनानेका यह तरिका अच्छा है. सत्ताका आनंद लो, पैसा बनाओ और सत्ता कायम रखनेके लिये जातियोंके आधार पर जनताको विभाजित करके नीच जातियोंमें ऐसा विश्वास पैदा करो कि एक मात्र कोंग्रेस ही उनका भला कर सकती है.

नहेरुने विदेश और संरक्षण नीतिमें कई मूर्खतापूर्ण काम किये थे, इस लिये उन्होंने अपनी किर्तीको बचाने के लिये इन्दिरा ही अनुगामी बने ऐसी व्यवस्था की. ईन्दिरा भी सहर्ष बडे चावसे अपने वंशीय चरित्रके अनुसार प्रधान मंत्री बनी. लेकिन उसमें वहीवटी क्षमता न होने के कारण १९६७ के चूनावमें नहेरुवीयन कोंग्रेसकी बहुमतमें काफी कमी आयी.

हिन्दु-मुस्लिम के दंगे

जनताको गुमराह करने के लिये इन्दिराने कुछ विवादास्पद कदम उठाये. खास करके साम्यवादीयोंको अहेसास दिलाया की वह समाजवादी है.  वैसे तो जो नीतिमत्तावाला और अपने नामसे जो समाजवादी पक्ष संयुक्त समाजवादी पक्ष (डॉ. राममनोहर लोहियाका) था वह इन्दिराकी ठग विद्याको जानता था. वह इन्दिराकी जालमें फंसा नहीं. इस कारण इन्दिराको लगा की  एक बडे वॉट-बेंककी जरुरत है. इन्दिराके मूख्य प्रतिस्पर्धी मोरारजी देसाई थे. इन्दिराके लिये मोरारजी देसाईको कमजोर करना जरुरी था. इसलिये उसने १९६९में गुजरातमें हिन्दु-मुस्लिम के दंगे करवाये, इस बातको आप नकार नहीं सकते.

नहेरुवीयन कोंग्रेसकी संस्कृतिका असर

वॉट बेंक बनानेकी आदत वाला एक और पक्ष कांशीरामने पैदा किया. सत्ताके लिये यदि ऐसी वॉट बेंक मददरुप होती है तो बीजेपी (जनसंघ)को छोड कर, अपना अपना वॉट बेंक यानी की लघुमति, आदिवासी, अपनी जातिका, अपना क्षेत्र वाद, अपना भाषावाद आदिके आधार पर अन्य पक्ष भी वॉट बेंक बनाने लगे. यह बहूत लंबी बात है और इसी ब्लोग साईट पर अन्यत्र लिखी गयी है.

आज भारतमें, वॉट बेंकका समर्थन करनेमें, भाषा वादवाले  (शिव सेना, एमएनएस, ममता), जातिवाद वाले (लालु, नीतीश, अखिलेश, मुल्लायम, ममता, नहेरुवीयन कोंग्रेस, चरण सिंहका फरजंद अजित सिंह, मायावती, डीएमके, एडीएमके, सीपीआईएम आदि), धर्मवादके नाम पर वॉट बटोरने वाले(मुस्लिम पेंपरींग करनेवाले नेतागण जैसे कि मनमोहन सिंह, सोनिया, उनका फरजंद रा.गा.,  ममता, अकबरुद्दीन ओवैसी, आझम खान,   अखिलेश, मुल्लायम, केज्री, फारुख अब्दुल्ला, उनका फरजंद ओमर,  जूटे हुए हैं.

पीला पत्रकारित्व (यलो जर्नालीझम)

पीला पत्रकारित्व (यलो जर्नालीझम) भी वॉट बेंकोके समर्थनमें है और ऐसे समाचारोंसे आवृत्त समाचार रुपी अग्निको फूंक मार मार कर प्रज्वलित करनेमें जूटा हुआ है. आपने देखा होगा कि, ये पीला पत्रकारित्व, जिसकी राष्ट्रीय योगदानमें कोई प्रोफाईल नहीं और न कोई पार्श्व भूमिका है, ऐसे निम्न कक्षाके, पटेल, जट, यादव, ठाकुर, नक्षलवादी, देशके टूकडे करनेकी बात करने वाले नेताओंके कथनोंको समाचार पत्रोंमें और चेनलों पर बढावा दे रहा है.

भारतमें नहेरुसे लेकर रा.गा. (रा.गा.का पूरा नाम प्रदर्शित करना मैं चाहता नहीं हूं. वह इसके काबिल नहीं है) तकके नहेरुवीयन कोंग्रेसके सभी नेतागण और उसके सांस्कृतिक नेतागणने बिहारके चूनावमें क्षेत्रवादको भी उत्तेजित किया था. इसके परिणाम स्वरुप बिहारमें नरेन्द्र मोदीके विकास वादकी पराजय हूयी. अर्थात्‌ वॉट-बेंक वालोंको बिहारमें भव्य विजय मिली.

क्षेत्रवाद क्या है?

क्षेत्रवादके आधार पर नहेरुवीन कोंग्रेस और एन.सी. पी. की क्रमानुसार स्थापित शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनी है.

“हम भी कुछ कम नहीं” नीतीश-लालु चरित्र

नीतीश कुमारने सत्ता पानेके लिये “बाहरी” और “बिहारी” (स्थानिक), शब्दोंको प्रचलित करके बिहारमें बहुमत हांसिल किया. समाचार माध्यमोंने भी “बाहरी” और “स्थानिक” शब्दोंमें पल रही देशको पायमाल करने वाली वैचारिक अग्निको अनदेखा किया.

यदि क्षेत्रवादकी अग्निको हवा दी जाय तो देश और भी पायमाल हो सकता है.

गुजरातमें क्या हो सकता है?

गुजरातमें सरकारी नौकरीयोंमे खास करके राज्यपत्रित उच्च नौकरीयोंमें बिन-गुजरातीयोंकी बडी भारी संख्या है.

कंपनीयोंमें वॉचमेन, मज़दुर कर्मचारी ज्यादातर बिन-गुजराती होते है, सरकारी कामके और कंपनीयोंके ठेकेदार अधिकतर बिन-गुजराती होते है. और ये बिन-गुजराती ठेकेदार और उनके सामान्य कर्मचारी और श्रमजीवी कर्मचारी गण भारी मात्रामें बिन-गुजराती होते हैं.  शहेरोंमें राजकाम (मेशनरीकाम), रंगकाम, सुतारीकाम, इत्यादि काम करने वाले कारीगर, बिन-गुजराती होते है. और केन्द्र सरकारकी नौकरीयोंमें तो चतुर्थ वर्गमें सिर्फ युपी बिहार वाले ही होते है.  प्रथम वर्गमें भी उनकी संख्या अधिकतम ही होती है. द्वितीय वर्गमें भी वे ठीक ठीक मात्रामें होते हैं.  इतना ही नहीं, हॉकर्स, लारीवाले, अनधिकृत  ज़मीन पर कब्जा जमानेवालोंमे और कबाडीका व्यवसाय करनेवालोंमे, सबमें भी, अधिकतर बिन-गुजराती होते है. चोरी चपाटी, नशीले पदार्थोंके उत्पादन-वितरणके धंधा  उनके हाथमें है. अनधिकृत झोंपड पट्टीयोंमें बिन गुजराती होते हैं.ये सब होते हुए भी गुजरातके सीएम कभी “बाहरी-स्थानिक”का विवाद पैदा नहीं होने देते. उतना ही नहीं लेकिन उनके कानुनी व्यवसायोंकी प्रशंसा करते हुए कहेते है कि गुजरातकी तरक्कीमें,  बिन-गुजरातीयोंके योगदान के लिये गुजरात उनका आभारी है. पीले पत्रकारित्वने कभी भी गुजरातकी इस भावनाकी  कद्र नहीं की. इसके बदले गुजरातीयोंकी निंदा करनेमें अग्रसर रहे. यहां तक कि नीतीशने बिहारकी प्राकृतिक आपदाके समय गुजरातकी आर्थिक मददको नकारा था. बहेतर था कि नीतीश गुजरातमें बसे बिहारीयोंको वापस बुला लेता.

यदि गुजरातमेंसे बिनगुजरातीयोंको नौकरीयोंमेंसे और असामाजिक प्रवृत्ति करनेवाले बिनगुजरातीयोंको निकाला जाय तो गुजरातमें बेकारीकी और गंदकीकी कोई समस्या ही न रहे. इतना ही नहीं भ्रष्टाचार भी ९५% कम हो जाय. गुजरात बिना कुछ किये ही यु.के. के समकक्ष हो जायेगा.

नीतीशलालु और अब मुल्लायम फरजंदका आग फैलाने वाला खेल

नीतीश कुमार और उसके सांस्कृतिक साथीगण को मालुम नहीं है कि गुजरातकी जनता वास्तवमें यदि चाहे तो नीतीशकुमारके जैसा “बाहरी और बिहारी” संस्कार अपनाके बिहारीयोंको और युपीवालोंको निकालके युपी और बिहारको बेहाल कर सकता है.

यदि समाचार माध्यम वास्तव में तटस्थ होते तो नीतीशकुमारके “बाहरी – बिहारी” प्राचारमें छीपा क्षेत्रवाद को उछाल कर, बीजेपीके विकासवादको पुरस्कृत कर सकता था. लेकिन समाचार माध्यमोंको बीजेपीका विकासवाद पसंद ही नहीं था. उनको तो “जैसे थे” वाद पसंद था. ताकि, वे नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंकी तरह, और उनके सांस्कृतिक साथीयोंकी तरह, पैसे बना सके. इसलिये उन्होंने बिहारको असामाजिक तत्वोंके भरोसे छोड दिया.

अन्य राज्योंमे बिन-स्थानिकोंका नौकरीयोंमें क्या हाल है?

बेंगालमें आपको राज्यकी नौकरीयोंमें बिन-बंगाली मिलेगा ही नहीं.

युपी-बिहारमें थोडे बंगाली मिलेंगे क्योंकि वे वहां सदीयोंसे रहेते है.

कश्मिरमें तो काश्मिरी हिन्दु मात्रको मारके निकाल दिया है.

पूर्वोत्तर राज्योंमें बिन-स्थानिकोंके प्रति अत्याचार होते है. आसाममें  नब्बेके दशकमें सरकारी दफ्तरोंके एकाउन्ट ओफीसरोंको, आतंकवादीयोंको मासिक हप्ता देना पडता था. नागालेन्ड, त्रीपुरामें भी यही हाल था. मेघालयमें बिहारीयोंका, बंगालीयोंका और मारवाडीयोंका आतंकवादीयों द्वारा गला काट दिया जाता था.

केराला, तामीलनाडु और हैदराबादमें तो आप बिना उनकी भाषा जाने कुछ नहीं कर सकते. बिन-स्थानिकोंको नौकरी देना  वहांके लोगोंके सोचसे बाहर है. कर्नाटकमें आई.टी. सेक्टरको छोडके ज्यादातर ऐसा ही हाल है.

मुंबईमें बिन-मराठीयोंका क्या हाल है?

मुंबईका तो विकास ही गुजरातीयोंने किया है. मुंबईमें गुजराती लोग स्थानिक लोगोंको नौकरीयां देते है. नौकरीयोंमे अपना हिस्सा मांगने के बदले गुजराती लोग स्थानिकोंके लिये बहुत सारी नौकरीयां पैदा करते हैं. इसके बावजुद भी राज्यसरकारकी नौकरीयोंमें गुजरातीयोंका प्रमाण नहींवत है. नब्बेके दशकमें मैंने देखा था कि, ओमानकी मीनीस्ट्री ऑफ टेलीकोम्युनीकेशनमें जितने गुजराती कर्मचारी थे उससे कम, मुंबईके प्रभादेवीके संचार भवनमें गुजराती कर्मचारी थे. मराठी लोगोंकी गुजरातीयोंके प्रति खास कोई शिकायत नहीं है इसके बावजुद भी यह हाल है..

मुंबईमें शिवसेना और एमएन एस है. उनके नेता उत्तर भारतीयोंके प्रति धिक्कार युक्त भावना फैलाते है. और उनके उपर कभी कभी आक्रमक भी बनते है.

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चूनाव आयुक्त को मुल्लायम, अखिलेश, नहेरुवीयन कोंग्रेसको सबक सिखाना चाहिये. युपीकी जनताको भी समझना चाहिये कि मुल्लायम, अखिलेश, और उसके साथ सांस्कृतिक दुर्गुणोंसे जुडे नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताओंके विरुद्ध चूनाव आयुक्तसे शिकायत करें. भारतमें यह आगका खेल पूरे देशको जला सकता है.

स्वातंत्र्यके संग्राममें हरेक नेता “देशका नेता” माना जाता था. लेकिन अब छह दशकोंके नहेरुवीयन शासनने ऐसी परिस्थिति बनायी है कि नीतीश, लालु, मुल्लायम, अखिलेश, ममता, माया, फारुख, ओमर, करुणा आदि सब क्षेत्रवादकी नीति खेलते हैं.  

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः आगसे खेल, मुल्लायम और उनके सांस्कृतिक साथी, नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक साथी, सर्वोच्च

न्यायालय, चूनाव आयुक्त, १९५७के चूनाव, नहेरु, मुंबईमें भाषावाद, वॉटबेंक सियासत, नहेरुका वंशवाद, विभाजित,

महाराष्ट्रको मुंबई, राज्योंका पुनर्गठन, जातिवादका जन्म, सत्ताका आनंद, इन्दिरा, जनताको गुमराह, नहेरुवीयन कोंग्रेसकी संस्कृतिका असर, लालु, नीतीश, अखिलेश, ममता, नहेरुवीयन कोंग्रेस, चरण सिंहका फरजंद अजित सिंह, मायावती, डीएमके, एडीएमके, सीपीआईएम, अकबरुद्दीन ओवैसी, आझम खान,   अखिलेश, मुल्लायम, केज्री, फारुख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्लाका फरजंद ओमर, पीला पत्रकारित्व (यलो जर्नालीझम), राष्ट्रीय योगदानमें कोई प्रोफाईल, देशके टूकडे करनेकी बात करने वाले नेता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, “बाहरी” और “बिहारी” (स्थानिक), बाहरी और युपीवाले, असामाजिक तत्वोंके भरोसे,

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O!! LEARNED COLUMNIST, HAVE YOU ANY DREAM FOR YOUR NATION?

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मूर्धन्योंकी तटस्थताकी घेलछा और देशकी पायमाली

आप भारतीय समाचारपत्रके लेखकों के लेख पढते होंगे. वे लोग राजकीय समस्याओं के उपर भी लिखते है. इसमें कोई शक नहीं कि एतत्‌ कालिन परिस्थिति में यह आवश्यक भी है. और श्रेयकर भी होगा.

सांप्रत समयमें अधिकाधिक  लेखक जब राजकीय सांप्रतसमस्याके विषय पर लिखते हैं तब उनका प्राथमिक ध्येय अपना ताटस्थ्य दिखाने का होता है. वे लोग समझते है कि इसके कारण उनकी विश्वसनीयतामें वृद्धि होती है. लेकिन उनको यह ज्ञात नहीं रह्वता कि, मूर्धन्यों का प्राथमिक ध्येय लोक शिक्षा भी है. और समाजका उत्कर्ष भी है. 

इन ध्येयोंकी अवगणना करनेसे ये मूर्धन्य लोग यत्‌ किंचित लिखते हैं उसमें प्रमाणभान और प्राथमिकता की हीनता दृष्टिगोचर होती है.

आप क्या देखेंगे?

उदाहरणके आधारपर उत्तर प्रदेशका चूनाव प्रचारके संबंधित लेखोंका वाचन करें.

इसमें वर्तमानपत्रके लेखकों को विश्लेषण करनेमें लोक-शिक्षा, प्रमाणभान एवं प्राथमिकताके स्थान पर, भविष्यवेत्ता बननेकी और आप कितने कूट प्रगल्भ और तटस्थ विश्लेषक है ऐसा प्रदर्शित करनेकी घेलछा रहती है.

ये मूर्धन्यलोग सर्व प्रथम तो नहेरुवंशीय एतत्‌ कालिन संतान कैसे प्रचार करता है उसका वर्णन करेंगे. और उसको  श्रवण करने के लिये आने वाले श्रोतागण के समुदाय के बारेमें वर्णन करेंगे. यद्यपि यह संतान बिहारमें संपूर्ण विफल रहा है तथापि ये लोग उस विषय पर कोई उल्लेख नहीं करेंगे. इस नहेरुवीय संतानकी क्या उपलब्धीयां है, क्या पढाई है, क्या सत्य है क्या असत्य है, क्या योग्यता है, ईत्यादि कुछ भी उल्लेख नहीं करेंगे.
क्यूं?
ज्ञात नहीं. संभव है कि उनको स्वयं को भी ज्ञात नहीं. नहेरुवंशीय कोंग्रेसने एतत्‌ कालिन अद्यतन समयमें ही अमाप कद और संख्यामें जो क्षतियां और चौर कर्म किये उसकी चर्चा नहीं होंगी और उसके उपर लगी कालिमाकी भी चर्चा नहीं होगी. लेकिन अन्ना हजारेजी का आंदोलन कैसा विफल हो गया और उसमें क्या क्या अपूर्णता थी और उसके सदस्योंके उपर कैसे आरोप लगे है उसकी चर्चा हो सकती है. लोकपालके विषयपर उनके प्रतिभाव पर चर्चा हो सकती है. किन्तु नहेरुवंशी कोंग्रेसकी निस्क्रीयता और छद्मवृत्ति पर कोई चर्चा नहीं होगी. शक्य है कि नहेरुवंशी पक्षने कैसे सफलता पूर्वक व्यूहरचना करके, विपक्षोंकों परास्त करके उनकी खुदकी ईच्छाकी पूर्ति की इन सबकी वार्ता हो सकती है. इसके उपर शक्य है कि इस नहेरुवंशी कोंग्रेसकी प्रशंसा भी की जाय. 

किन्तु जब मायावती जो अपने स्वयं के प्रयत्नोंसे विजय प्राप्त करती हुई आयी है उसका कोई उल्लेख नहीं होगा. उसकी सीमाएं अपूर्ण या दुषित कर्यशैली का जरुर उल्लेख होगा.

मुलायम सिंगको स्पर्धामें प्रथम क्रम या द्वितीय क्रम दें या नदें लेकिन तृतीय क्रम तो नहीं ही देंगे.उसके पक्षकी कार्यशैली और उपलब्धियोंके उपर गुणदोषकी कोई चर्चा नहीं.

ये मूर्धन्य लोग, सबसे बूरा हाल भारतीय जनता पार्टीका करेंगे. वैसे तो नहेरुवंशी पक्षके अतिरिक्त यह एक ही पक्ष है जिसको पांचसालके लिये गठबंधनवाला शासन करनेका अवसर मिला था और उसने श्रेष्ठ शासन करके भी दिखाय था. तथापि उसकी उपलब्धियों का कोई उल्लेख किया नहीं जयेगा. उसके स्थान पर, “लोकपाल” विषय पर उसका प्रतिभाव शंकास्पद था ऐसा प्रतिपादिन करनेका प्रयत्न किया जायेगा. अरुण जेटली ने वक्तव्य दिया और प्रत्येक भ्रमका निःरसन किया उसका कोई उल्लेख नहीं कीया जायेगा. उसके स्थान पर, अडवाणी जी की यात्रा के उपर तथाकथित असाफल्य का वितंडावाद उत्पन्न किया जायेगा. भारतीय जनता पार्टीके नेतागणके अंतर्गत क्या क्या तथाकथित असंवाद अथवा विसंवाद है उसकी चर्चा की जायेगी या हो सकती है. नरेन्द्र मोदीको किस प्रयोजनसे या किस आधार पर चूनाव प्रचारमें आमंत्रण नहीं दिया गया, उसकी चर्चा हो सकती है. अगर आमंत्रण दिया तो सबसे पहेले क्यों नहीं दिया उसका प्रयोजन या रहस्य क्या हो सकता है ऐसी चर्चा उत्पन्न की जायेगी.किन्तु भारतीय जनता पार्टीके शासन वाले अन्य राज्योंमें नहेरुवंशी पक्षके शासनसे श्रेयकर शासन कैसे है उसकी चर्चा नहीं होगी.

ये मूर्धन्य लोग, नीतिहीनता सभी पक्षोंमें है, ऐसी चर्चा जरुर करंगे. इस तरह वे नितिहीनताका सामान्यीकरण करके नहेरुवंशी कोंग्रेस पक्षके कुशासनके उपर प्रहार नहीं करेंगे.
 
इस प्रकार प्रमाणात्मक दोषापरोणकी वार्ता त्याज्य ही रहेगी.

यदि मूर्धन्योंकी ऐसी ही प्रणाली और प्रतिभाव रहे तो प्रमाणभान और प्राथमिकताकी चर्चा कब होगी? अगर ६० वर्षके कुशासनके बाद और देशका सर्व क्षेत्रोंमें विनीपात होनेके बाद भी अगर मूर्धन्य लोग प्रजाजनोंको दीशासूचन नहीं कर सकतें और व्यंढ तत्वज्ञान विश्लेषण और तटस्थाका आडंबर प्रदर्शित करते रहेंगे तो देश कैसे प्रगतिके पंथ पर जायेगा? विनीपात चालु ही रहेगा. ऐसा ही देखा गया है. ऐसा क्यूं होता है? मूर्धन्योंकी क्या विडंबना है?

उपनिषद में कहा गया है, हिरण्मयेन पात्रेण सत्यसापिहितं मुखम्‌””””

हिरण्य का अर्थ सुवर्ण (तृष्णा, धनकी तृष्णा) भी होता है. जब (धनकी) तृष्णा होती है तो सत्य आवृत (अप्रकट रखा जायेगा) रहेगा.

नहेरुवंशी पक्षके उपर असीमित और अवैध साधनोंसे प्राप्त क्या हुआ धन और उसको विदेशी बेंकोमें रखनेके विषयमें अगणित आरोप हैं. यदि, मूर्धन्य लोग  अपना भाग लेनेका प्रयत्न करते हो तो इस शक्यताको कौन नकार सकता है? भाग लेनेके अनेक प्रकार होते है. जरुरी नहीं कि पुरस्कार नकदमें ही ग्रहण करें. 

शिरीष दवे  

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