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राहुल गांधीकी घरवापसी या मूंह-दिखाई या राहुल-वर्सन – n+1
Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, tagged अपरिपक्व, इन्दिरा, एजंडा, कार्यसूचि, नकारात्मक, नहेरु, नहेरुवीयन कोंग्रेस, निम्न स्तर, पंडित, पूर्व निश्चित, प्रभावशाली, मीडीया, मूंह दिखाई, सकारात्मक, समाचार माध्यम, सांस्कृतिक साथी, हंगामा on April 29, 2015| 8 Comments »
राहुल गांधीकी घरवापसी या मूंह–दिखाई या राहुल–वर्सन – n+1
मीडीया धन्य हो गया.
यदि आपको मीडीयाका निम्नसे निम्न स्तर देखना हो तो भारतके समाचार माध्यमोंको देख लिजीये.
यदि आप भारतकी प्रज्ञा पर गर्व करते हैं, तो भारतीय समाचार माध्यमों का स्तर देखके आप लज्जासे नतमस्तक हो जाओ.
वैसे तो आप नतमस्तक हो जाओ, ऐसी कई घटनाएं है, जिसमें नहेरुवीयन कोंग्रेसी संस्कार पर चलनेवाली मुस्लिम नेतागीरी भी संमिलित है, जो सतत हिन्दुओंके मानव अधिकारोंका हनन किया करती है. ये लोग तो सिद्ध देशद्रोही है, उनके विषय पर क्या चर्चा करें ! आम जनताको धीरे धीरे सबकुछ ज्ञात हो गया है.
नहेरुका जूठ
नहेरुने स्वातंत्र्यके प्रथम दशकमें कई जूठ फैलायें थे.
उस समय मीडीया माध्यम को यह ज्ञात नहीं था कि सत्य और असत्य, श्रेय और अश्रेय क्या होता है. क्यों कि उनको ऐसी प्रशिक्षा नहीं दी गयी थी. वैसे तो १९४७के पूर्व समय, स्वातंत्र्य सेनानीयोंके द्वारा संचालित कई उत्कृष्ट समाचार पत्र थे जिनसे वे बोध ले सकते थे. लेकिन भय के कारण वे अंग्रेज सल्तनत के विरुद्ध लिखना नहीं चाहते थे. हो सकता कि वे लोग शिशु अवस्थामें हो. मीडीयामें परिपक्वता नहीं आयी थी.
किन्तु यदि २८ वर्षके बाद भी मीडीया पंडित परिपक्व नहीं बन सकते है तो कारण कुछ और ही हो सकता है.
इन मीडीया मूर्धन्योंको १९७५–१९७६ के अंतर्गत, नहेरुवीयन फरजंद इन्दिराने झुकनेको कहा था. किन्तु इन मीडीया मूर्धन्योंने इन्दिरा संचालित सेन्सरशीप को साष्टांग दंडवत प्रणाम करके, उसके शासन द्वारा संचालित अफवाहें फैलानेमें और शासनके भाट बननेमें कोई शर्म नहीं रक्खी.
मीडीयाकी यह अपरिपक्वता कहां तक रहेगी?
मीडीयाका एजन्डा कुछ और ही है.
मीडीयाको क्या लिखना है, कैसे लिखना है, कितना लिखना है, ये सब पूर्व निश्चित है.
वैसे तो आदर्श मीडीया का धर्म है कि, वह जनताको माहिति प्रदान करे. जनताको सुशिक्षित करें. जनताके हितमें लिखे. सत्य लिखे, प्रमाणभान रखकर लिखें, सच्चे संदर्भमें लिखें, विवेकशीलतासे लिखें और निडरतासे लिखें.
नरेन्द्र मोदीने एक बार अपने वक्तव्यमें कहा कि समाचार माध्यम अपना वाचकगण और दर्शकगण बढानेके चक्करमें उत्तेजित शब्द प्रयोग करते है. ऐसा करनेमें ये समाचार माध्यम के पंडित लोग यह नहीं देखते कि समाजमें नकारात्मक वातावरण फैलता है या सकारात्मक वातावरण फैलता है? जनताको सत्य अधिगत होता है या असत्य अधिगत होता है?
सकारात्मक समाचारकी अखबारी परिभाषाः
एक ख्यातनाम समाचार पत्रने नरेन्द्र मोदीको लिखा कि वह, सप्ताहमें एक दिन “सिर्फ सकारात्मक समाचार” ही छापेगा. वैसे तो उस समाचार पत्रकी इस प्रकारकी घोषणा ही उसकी मानसिकता प्रदर्शित करती थी. क्यों कि वैसे तो प्रत्येक समाचार पत्रको हमेशा सकारात्मक समाचार ही प्रसिद्ध करना चाहिये.
लेकिन सकारात्मक समाचार की परिभाषा उस समाचार पत्र की अलग ही थी.
खून हुआ, दंगा हुआ, मारपीट हुआ, चोरी हुई, डकैती हुई, परिणित स्त्रीके साथ दुष्कर्म हुआ, सगिराके साथ दुष्कर्म हुआ, बच्चेके साथ दुष्कर्म हुआ, शिशुके साथ दुष्कर्म हुआ, विदेशीके साथ दुष्कर्म हुआ, कौनसी हिन्दु जाति द्वारा दुष्कर्म हुआ, ठगाई हुई, अकस्मात हुआ, किसीने गाली दी, कोंगीने प्रदर्शन किया, क्या क्या बोला आदि आदि ही नकारात्मक घटनाएं है.
वास्तवमें नकारात्म समाचार क्या है?
समझ लो. कोई भी घटना जब घटती है और जब वह जनमानसके दिमाग पर पडती है तब उसका असर भीन्न भीन्न प्रकारकी व्यक्ति के उपर भीन्न भीन्न होता है.
एक व्यक्ति है जो चोर है उसको यदि चोरीके समाचारसे पता चलता है कि फलां जगह पर इस प्रकारसे चोरी हुई, तो उसको चोरीका एक और तरिका मालुम हो जाता है.
जिसकी जातीय वृत्ति असंतुष्ट है उसको भी जब दुष्कर्म का समाचार मिलता है तो उसको पता चलता है कि इन इन व्यक्तियों पर ऐसे ऐसे प्रकारसे दुष्कर्म किया जा सकता है. दुसरे लोग करते है तो हम भी क्यों न करें !
यदि कोई फिल्मी हिरो कहेता है कि यदि मैं सिग्रेट मूंहमें रखकर अपनी अदा न बताउं तो मैं सोचनेका अभिनय कैसे करु? कोई हिरी (हिरो का स्त्रीलिंग), कहेगी मेरा शरीर मेरा है. मेरी जिंदगी मेरी है, मैं उसका जो चाहे वह करुं. … (फिर वह हिरोईन, आगे बहूत कुछ कहेती है जो समाजकी तंदुरस्तीके लिये विवादका विषय है, इसलिये यहां नहीं लिखा जा सकता).
ऐसे समाचारोंको ज्योंका त्यों और बार बार प्रसिद्ध करनेसे और ऐसे समाचारोंको ज्यादा महत्व देनेसे, वे नकारात्मक बन जाते है. यदि समाचार माध्यम, समाचारोंमे विवेकशीलता रखके समाचारको प्रसारित करता है और वह स्वयं तटस्थ बनकर पूर्व पक्ष और प्रतिपक्ष का मुद्दोंपर प्रतिक्रिया प्रकट करता है तब वे ही समाचार सकारात्मक बन जाते हैं.
एक समाचारपत्रकी मानसिकता देखो
“दिव्यभास्कर” गुजरातका एक ख्यात नाम समाचार पत्र है. वह नरेन्द्र मोदीके विदेश-प्रवासके वर्णन और विदेशप्रवासकी उपलब्धियां, केवल एक अष्टमांश पन्ने पर, और वे भी सातवें या नवमे या ग्यारवें पन्ने जो भितरके पन्ने है उनमेंसे कोई एक पन्ने पर ही प्रकट करता था.
वास्तवमे ऐसे समाचार भारतके भविष्य के विकास पर सर्वाधिक प्रभावशाली माने जाते है. तो भी हमारा यह समाचार पत्र इसको महत्व देना नहीं चाह्ता था. क्यों कि, बीजेपीके विषयमें सकारात्मक समाचार प्रकट करना, नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके सांस्कृतिक साथीयोंके लिये नकारात्मक बन जाता है.
एक हंगामेका समाचार
“आवास योजनाके एक प्रकल्प के लिये बीजेपीकी सरकारने गुजरातके एक नगरमें शिलान्यासका आयोजन किया. इस प्रसंगमें कुछ लोगोंने हंगामा किया. मंडपको तोडा, कुर्सीयां तोडी, टेबल उलट दिये. पूरे समाचार पढने पर भी आपको ऐसा कोई विवरण नहीं मिलता है कि, ऐसा क्यूं हुआ? समाचार माध्यमके लिये हेतु प्रसारित करना महत्व का नहीं. जो हंगामा हुआ उसका वर्णन ही महत्वका है क्यों कि हंगामा बीजेपी द्वारा शासित राज्यमें हुआ है. बीजेपीके लिये नकारात्मक बनता है. और यही समाचार कोंगीके लिये सकारात्मक बनता है. समाचार माध्यमकी हेतुसूचिके अनुसार, समाचार हमेशा सकारात्मक (कोंगीके लिये) होना आवश्यक है.
अभी भूकंप के बारेमें बीजेपी सरकारकी कार्यवाही प्रसंशनीय बन रही है.
कुछ नकारात्मक तो ढूंढना पडेगा.
एक रुग्णालयमें भूकंप पीडित व्यक्तियों के कपोल पर “भूकंप” का लेबल लगाया गया. कर्मचारीका हेतू केवल भूकंप पीडितोंकी पहेचान का था. क्यों कि उनकी चिकित्सा निशुल्क करनी है. समाचार माध्यमोंने हंगामा खडा कर दिया.
“रुग्णालयका अमानवीय कृत्य”. हमारे डीबीने (दिव्यभास्करने) इस समाचारको प्रथम पन्ने पर विशाल अक्षरोंमे मुद्रित किया. हांजी, नरेन्द्र मोदीकी विदेशयात्राका विवरण और उपलब्धियां देशके लिये महत्वपूर्ण नहीं है. किन्तु एक गांवके रुग्णालयके कर्मचारीका “भूकंप”का लेबल लगाना कई गुना ज्यादा सकारात्मक है.
कोंगी साथी नेता उवाच
एक नहेरुवीयन कोंगके साथी नेताने बोला “नरेन्द्र मोदी भूकंपमें भूतानीयों पर और विदेशीयों पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करता है”. इस नेताने न तो कोई विवरण दिया न तो मीडीयाने कोई विवरण मांगा. नरेन्द्र मोदी सभी भूकंप पीडितोंको मनुष्य माने उसमें समाचार माध्यमोंको और कोंगी और उसके साथीयोंको आपत्ति है. उनका संस्कार है कि सभी मनुष्योंको आपत्तिके समय पर भी भीन्नतासे देखना चाहिये.
जिन समाचारोंके प्रकट करनेके पीछे “स्वार्थ” रहता है वे नकारात्मक होते है. क्योंकि “स्वार्थ” नामका अखबारी तत्व सत्यको ढक देता है.
हिरण्मयेन पात्रेण, सत्यस्य अपिहितं मुखं.
स्वर्ण पात्रसे (पीले चमकिले और आकर्षक शब्दोंसें ये पीले पत्रकारत्ववाले समाचारमाध्यम के पंडितोंसे) सत्य ढक जाता है.
कुछ नेताओंकी व्यक्तिओंकी ऐसी प्रकृति ही होती है. इनमें फिल्मी हिरो–हिरोईन, राजकीय पक्ष के नेता खास करके जो नये नये है या पुराने है लेकिन सत्तासे हाथ धो बैठे है, वे ऐसे मौके ढूंढते है कि उनको प्रसिद्धि मिले. ऐसे लोग पैसे देके भी समाचार प्रसिद्ध करवाते है. समाचार माध्यमको और क्या चाहिये? समाचार माध्यमको तो पैसा और वाचक वर्ग चाहिये.
मजाक करना मना है?
बीजेपी के एक नेताने कहा कि नहेरुवीयन कोंग्रेसको चमडीके कलरसे कोंप्लेक्ष (ग्रंथी) है. यदि राजिव गांधीने नाईजिरीयाकी लडकीसे (श्यामा लडकीसे) शादी कि होती तो क्या वे उसको कोंग्रेस प्रमुख बनाते?
यह तो एक प्रश्न था. जो औरत श्वेत है उसको श्वेत कहा गया. यह बात कोई बुराई तो है नहीं. नाईजिरीयाकी लडकीयोंको (न कोई व्यक्ति विशेषको श्याम कहा गया) श्याम कहा गया. यह भी कोई बडी बात तो है नहीं. वैसे तो “ब्लेक इझ ब्युटीफुल” कहा जाता है.
वैसे भी, नहेरुको श्वेत रंग के लोग ज्यादा पसंद थे. नहेरुने विदेशोंकी एम्बेसीयोंमें मूलकश्मिरीयोंकी बिना योग्यता देखें ज्यादा ही भर्ती कर दी थी. उसके कारण भारतको लज्जास्पद स्थितिमें आना पडता था. ऐसे तो कई उदाहरण है.
कमसे कम श्वेत स्त्रीको परोक्ष या प्रत्यक्ष रुपसे श्वेत कहेना, उसकी बुराई तो नहीं है. रही बात श्यामा की. लेकिन यह तो सामान्यीकरण है. यह कोई व्यक्ति विशेषकी बात नहीं है. किन्तु नहेरुवीयनोंने तो नाईजिरीया तक यह बात पहूंचा दी.
प्रमाणभान हीनता
जो कुछ भी हो. श्वेत श्यामकी इस बातको उछालना, उसके उपर टीवीमें चर्चाएं रखना, कोंगी और उसके साथीयों द्वारा संसदकी कार्यवाहीको स्थगित कर देना क्या आवश्यक है?
मीडीया का क्या यही एजंडा है? अन्य कुछ तो नहीं?
क्या यह “श्याम-श्वेत” की चर्चा भारतके लिये जिवन–मृत्युकी समस्या है?
क्या इस कारण किसी नेता–नेत्रीने आत्महत्या कर ली है?
क्या इस बातसे कोई नेता नेत्री बिमार पड गया हैं?
संवेदनशीलताका मिथ्या प्रदर्शन या हास्यवृत्तिका अभाव
एक समय महात्मा गांधीने कोई एक महाकविके संदर्भमें कहा था कि “यदि दूध देने वाली गैया, लात मारे तो भी सहन कर लेना चाहिये.”
उस समय तो वह महाकविके भक्तोंने या वह महाकवि खूदने कोई कोलाहल नहीं किया था.
हांजी, महाकविने यह तो अवश्य कहा कि “मैं गैया नहीं हूं, मैं तो सांढ हूं”. बात खतम.
लेकिन यहां पर तो सोनियाने भी यह प्रदर्शित किया कि वह कोई संवेदनहीन नहीं है, लेकिन वह उच्चकोटीकी होनेकी वजहसे, निम्नकोटीकी व्यक्तिसे की गई अभिव्यक्ति पर कोई टीका नहीं करेगी. इस प्रकर, स्वयंको उच्चस्तरकी माननेवाली व्यक्तिने अन्यको निम्न कक्षाकी दिखाने की मानसिकता प्रदर्शित तो कर ही दी. (अभी बोला अभी फोक).
यह वही सोनिया गांधी है, जिसने खूदने, गुजरातकी जनताको गोडसे कहा था और नरेन्द्र मोदीको मौतका सौदागर कहा था. और उसके पक्षके लोगोंने नरेन्द्र मोदीको जगतके हर आततायीयोंके नामसे नवाजा था और हर निम्नकक्षाके माने जाने वाले प्राणीयोंके नामसे भी नवाजा था. उस समय इन नहेरुवीयन नेताओं की और सोनीयाकी संवेदनशीलता कहां गई थी? इसको कहेते है “सौ चूहे मारके बिल्ली हज करने चली.”
मीडीया पंडितोंने कोई चर्चा नहीं चलायी
एक और नहेरुवीयन फरजंद है जो नहेरु–इन्दिराकी मिक्ष्ड स्टाईल मारता है. संसदके एक सवालके उत्तरमें नहेरुने कहा था “युनोमें लाईन ऑफ कन्ट्रोलकी परिभाषा नहीं है”.
घटना कुछ इस प्रकार थी. नहेरु चीनके चाहक थे. चीनका सैन्य लाईन ऑफ कन्ट्रोलका उलंघन करता रहेता था. महात्मागांधीके अंतेवासी जेबी क्रीपलानीने सवाल उठाया, कि, भारत सरकार चीनी घुस पैठके विषय पर क्या कदम उठा रही है?
तब नहेरुने ऐसी घटनाको ही नकार दिया.
वास्तवमें हमारे सुरक्षा दलके अधिकारीगण, चीनके साथ नियमित रुपसे होनेवाली बैठकोंमें यह मुद्दा उठा ही रहेते थे. और तब चीनी अधिकारी, नहेरुके कथनोंका हवाला देके घुसपैठको नकारते थे.
लेकिन जब चीनी लश्करकी घुसपैठ, हदसे ज्यादा बढ गयी, तो संसदमें जे बी क्रिपलानीजीने सूचित किया कि हम लाईन ओफ कन्ट्रोलका उलंघन करने वालों पर निगरानी करनेके लिये, लाईन ओफ कन्ट्रोल पर अधिक सुरक्षा व्यवस्था रक्खें और युनोमें केस दर्ज करें. तब नहेरुने कहा कि एल.ओ.सी. की कोई परिभाषा युनोके पास नहीं है. और युनोने अभी तक कोई समस्या हल नहीं की है.
क्रीपलानी ने कहा कि तो हम युद्ध करें.
तो नहेरुने कहा कि युद्धसे कोई समस्या हल नहीं होती.
इस प्रकार नहेरुके पास हरेक समस्याका उत्तर फिलोसोफीकल था. उसका यह प्रपोता भी ऐसा लुझ टोकींग करता है. “गरीबी एक मानसिकता है”
यह नहेरुवीयन फरजंदके कितने वर्सन (अवतार) है?
राहुल ? अहो रुपं अहो ध्वनि?
राहुल वर्सन – ०१
बिहारमें राहुलकी नेतागीरीमें चूनाव लडा जायेगा ऐसा घोषित हुआ. मीडीयाने “अहो रुपं अहो ध्वनि” चलाया. वह था उसका अवतार वर्सन–०१. फिर क्या हुआ? नहेरुवीयन कोंग्रेस पीट गयी.
ऐसा क्यों हुआ? नहेरुवीयन नेतागण बोले अरे भाई उसने अपना फर्ज निभाया लेकिन कार्यकर्ता लोग असफल रहें.
राहुल वर्सन – ०२
कोंगी बोली, अब राहुलजी एक बडी जेम्मेवारी लेने वाले है. वे युपी एसेम्ब्ली चूनावमें प्रभारीकी जिम्मेवारी ले रहे है.
मीडीयाने राहुलका वही “अहो रुपं अहो ध्वनि” चलाया”. उसमें भी नहेरुवीयन कोंग्रेस पीट गयी. वर्सन – ०२ समाप्त.
लेकिन अब तो वे एक बहोत बडी जिम्मेवारी अदा करने वाले है…. ऐसा करके उनके कई वर्सन निकले.
फिर उनको महामंत्री बनाया. फिर उनका पक्षके उप–प्रमुखका वर्सन आया. सबमें उसका पक्ष पीट गया.
फिर क्या हुआ?
प्रोडीगल सन क्या घर छोडके भाग गया?
या वालिया लुटेरा तप करनेके नाम पर ब्लेक मनी को ईधर उधर करने चला गया?
या जिम्बो कोई और बेनाम जगह चला गया?
रोबिन हुड … खेल खेलने बेनाम जगह चला गया?
पूरे दो मास बिना कुछ काम किये गुमनाम हो गया. उसके सेवकोंने बताया वह छूट्टी पर गया है.
वैसे तो संसद सदस्यको सरकारी व्यक्ति मानना चाहिये. क्यों कि उसको जन–निधि (पब्लीक फंड)मेंसे वेतन मिलता है. और उसका निवृत्ति वेतन भी सुनिश्चित है.
राहुलके लिये नैतिक धर्म बनता है कि वह क्यों जाता है, कहां जाता है और उसके अवकाशके समयका पता क्या है ये सभी माहिति संसदके स्पीकरको बतावें. ऐसा नहीं करनेसे उसको निलंबित किया जा सकता है. यदि कोई सर्वोच न्यायालयमें जनयाचिका प्रस्तूत करे तो सभी संसदोंको जन–सेवक (पब्लिक सर्वन्ट) घोषित किया जा सकता है. इसके अतिरिक्त भी राहुलका नैतिक धर्म बनता है.
खास करके इन्दिरा गांधीकी स्थापित प्रणालीके अनुसार गुप्तता रखना नहेरुवीयनोंका संस्कार बना है. सोनिया गांधीकी चिकित्सा जननिधि (पब्लिक फंड)में से हुई और वह भी विदेशमें हुई. क्या चिकित्सा? कौनसे रोगकी चिकित्सा? कौनसे रग्णालयमें चिकित्सा हुई? ये सब माहिति गोपनीय रक्खी गयी.
समाचार माध्यमोंने भी इसबात पर आपत्ति नहीं जताई.
राहुलके अज्ञातवासका अंत. उसके आगमनको कैसे प्रदर्शित किया जाय?
क्या कोई युद्ध जिता? नहीं तो.
क्या कोई अभूतपूर्व सेवाका काम किया? नहीं तो.
स्वागत तो अभूतपूर्व करना ही पडेगा !
दिये जलाओ, पटाखे फोडो, अब तो आनंद मंगल हो गया.
मानो झीम्बो कम्स टु टाऊन.
मूंह दिखाई की रसममें सब उमट पडे. मीडीया भी उमट पडा.
वह जो कुछ भी हो, हमारे समाचार माध्यमोंने हेड लाईन दिया …
राहुलने नरेन्द्र मोदीको आडे हाथ लिया. “शुट बुट की सरकार”, “किसानसे छीनके उद्योगपतियोंको जमीन देनेवाली सरकार”, “किसानको जमीनके बदलेमें कुछ भी नहीं देनेवाली सरकार”, “किसानोका खेतीका अधिकार छीना” … “राहुल है आत्मविश्वाससे भरपूर”.
शुट बुट की सरकारसे क्या मतलब है?
क्या राहुलके पिता और प्रपिता, दादी, वे सब, महात्मा गांधीकी तरह सिर्फ दो कपडेके टूकडे लपेटके घुमा करते थे? क्या वे शुट–बुट पहेनते नहीं थे? क्या अन्य नेता भी महात्मा गांधी की तरह कपडा लपेटके घुमते थे और घुमते है?
राहुलको खूदके पूर्वजोंके चरित्रको याद करना चाहिये
ईन्दिरा गांधीको नहेरुकी गद्दी विरासतमें लेनेकी थी, इसलिये वे नहेरुके साथ ही रहा करती थीं. उनके साथ विदेश भी जाती थीं. एक बार उनको सरकारी विदेशी डीग्नीटरी होनेके नाते, मींक कोट जिसकी किमत ३००००० रुपये होती है, भेटमें मिला.
सरकारी नियम अनुसार उनको, या तो उसकी किमत जनकोषमें जमा करा देनी चाहिये, या तो वह प्रधानमंत्रीके वस्तुभंडारमें जमा करवा देना चाहिये. इन्दिरा गांधीने उस भेटको अपने पास ही रख लिया.
राम मनोहर लोहियाने कुछ साल बाद यह प्रश्न संसदमें उठाया कि, वह मींक कोट कहां गया? संसदमें हंगामा हुआ. तब जाके इन्दिराने उस कोटको राष्ट्रीय कोषमें जमा किया.
अब आप तुलना करो. नरेन्द्र मोदीने क्या करते है?
उनको जो भेट मिलती है वह एक बार, भेट देनेवाले के मानके लिये पहन लेते है. फिर उस भेटका निलाम कर देते हैं और भेटकी वास्तविक किमतसे कई गुना ज्यादा मूल्य प्राप्त करके जनकोषमें रकम जमा करवाते है.
किन्तु नहेरुवीयनोंमे ऐसी विचार धारा और प्रज्ञा कहां हो सकती है?
भूमि अधिग्रहणकी चर्चाएं
मीडीयाने तो चर्चा बहूत चलाई, मीडीयाने कई बातें अनदेखी भी की.
जिजाजी वाढेराने जो भूमि अधिग्रहण किया तो कितना पैसा किसानको मिला?
यदि किसानकी हालत दयनीय है तो अभी ६० सालतक नहेरुवीयन कोंग्रेसने किसानके लिये क्या किया कि किसानको आज भी आत्म हत्या करनी पडती है?
किन्तु समाचार माध्यमने ऐसे प्रश्न नहीं उठाये.
भूमि–अधिग्रहण विधेयकको निजी उद्योगसे कोई संबंध नहीं तो भी इसकी चर्चा होती रहेती है और कोंगी वक्ता बिना कोई आधार असंबद्ध बाते बिना रुके करता रहेता है और समय पसार करता है. मीडीया कोंगीयोंको ऐसी बाते करने देता है.
मीडीयाको भी असंबद्ध बातोंको हवा देनेका ज्यादा शौक है.
राहुलका अब कौनसे नंबरका अवतार चलता है? न तो मीडीयाको पता है, न तो राहुल को पता है. तो फिर राहुल का नया अवतार…. राहुलका नया अवतार …. ऐसा कहेते रहो …. वही पर्याप्त है.
शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः मूंह दिखाई, सकारात्मक, नकारात्मक, निम्न स्तर, समाचार माध्यम, मीडीया, पंडित, अपरिपक्व, कार्यसूचि, पूर्व निश्चित, हंगामा, एजंडा, नहेरु, इन्दिरा, नहेरुवीयन कोंग्रेस, सांस्कृतिक साथी, प्रभावशाली
नितीश कुमारने अपनी वोट बेंक को बचाने के लिये किया राज ठाकरे पर हमला
Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, tagged आतंकवादी, आत्मखोज, घुसणखोर, चोरी, नितीश कुमार, प्रतिक्रिया, बिहारी, मीडीया, मुंबइ पूलीस, मुस्लिम, राजठाकरे, संस्कार on September 3, 2012| Leave a Comment »
नरेन्द्र मोदी के विरोधीयोंमें, दंभी सेक्युलरोमें और बीजेपी और उसके सपोर्टरोंको, कोमवादी कहेनेवालोंमें एक बात जरुर समान है कि जब भी कभी मौका मीले तो सांप्रत बातको अयोग्य तरीकेसे प्रस्तुत करके आम जनताको गुमराह करें और जो मूलभूत बात है उसको जानबुझकर दबाकर, अपनी राजकीय रोटी यानी कि, मतबेंककी राजनीति को उजागर करें.
नितीशकुमारकी वॉटबेंककी राजनीति
आसाममें बंगला देशी घुसपैठीओने स्थानिक बोडोवासीयों के प्राकृतिक हक्क पर असीम आक्रमण किया तो बोडो वादीयों ने सरकारकी प्रलंब निस्क्रीयताके कारण प्रतिकार किया. और दंगे शुरु हुए. उसमें घुसपैठी मुस्लिम समुदायको भी नुकशान हुआ. लेकिन घुसपैठी मुस्लिम समाज भी तो आम मुस्लिम समाजकी तरह नहेरुवीयन कोंग्रेसकी वॉट बेंक है, और नहेरुवीयन कोंग्रेस की नीति रही है कि, सेक्युलर नीति के नाम की आडमें यह वोट बेंककी रक्षा करना. वॉट बेंक की नीतिको हवा आलिंगन करने वालेलोंका संस्कार रहा है कि, कोई भी बात अगर घुमा फिराके, लोगोंमें विभाजन करवा सकतें है तो कोई भी किमत पर ऐसी बातोंको बढावा देना.
नहेरुवीयन कोंग्रेसकी ऐसी विभाजन वादी और अंधापन वाली सेक्युलर नीतिके कारण नहेरुवीयन कोंग्रेस सत्ताको कायम कर पायी है और देशको बरबाद करती आयी है. ऐसी वोटबेंक वाली शैली अन्य पक्षोंने भी चालु कि है और उनको सफलता भी मिलती रही है. मायावती, मुलायम, लालु, ममता, इसके उदाहरण है. तो नितीश कुमार भी क्यों ऐसी नीति को क्यूं न अपनाएं?
भक्ष्यका क्षेत्र और फैलाओ
मुंबई (महाराष्ट्र)में और गुजरात पहेलेसे ही विकासके राह पर होनेके कारण मजदुरीके लिये उत्तर भारत और अन्य कई राज्योंसे लोग आते हैं. उनमें चोरी चपाटी करने वाले, आतंकवादी और घुसणखोर मुस्लिम भी आते हैं. इन्ही मुस्लिमोंकी सहायतासे कुछ मुस्लिम नेताओंने “आसाम”के दंगेको लेकर मुंबईमें सभा की, और साथमें आये हुए मुस्लिम आतंकीओने हिंसा की. इन मुस्लिम नेताओंने क्या भाषण दिया उसके बारेमें समाचार प्रसार माध्यम गण संपूर्ण मौन है. इस सभामें सामिल कई लोग शस्त्र लेके आये थे. इन लोगोंने हिंसक व्यवहार किया और पूलिस फोर्सको भी जख्मी किया. एक मुस्लिमने शहिद स्मारकको नुकशान किया.
नितीशकुमारकी नोन-गवर्नन्स
इस शख्सका फोटो भी अखबारमें आया था. नितीशकुमारकी बिहारकी लोकल इन्टेलीजन्स को मालुम होना चाहिये कि अपने राज्यमें असामाजिक तत्व कौन है और उनमेंसे मुंबई कौन कौन गये है. लेकिन नितीशकुमारकी इन्टेलीजन्स जानबुझकर या असफल गवर्नन्सके कारण मौन रही. तो मुंबई पूलीसने बिहार जाकर उस शख्सको पकडा.
अब देखो नितीशने क्या किया?
क्योंकि वह मुस्लिम था, नितीशकुमारकी वॉटबेंकका हिस्सा था. और उसका बचाव करने से मुस्लिम समुदाय के वोटमें वृद्धि कर सकने की शक्यताओ देखते हुए इस नितीश कुमारने मुंबई पूलीसकी तत्कालिन कार्यशैली का जमकर विरोध किया.
हिन्दीभाषी असामाजिक तत्व
गुजरात और महाराष्ट्रमें आके गुन्हा करके अपने राज्यमें भाग जाना यह बात सामान्य है. कइ बार इसमें परराज्यके जो अफसर गुजरात और मुंबई में उनके (अपनके) ऐसे लोगोंके प्रति भी सोफ्ट कोर्नर भी रखते है ऐसी शक्यता नकार नहीं सकते. आप अगर चोरी और डकैतीके किस्सोंको ध्यानसे देखेंगे तो आपको परप्रांतीय लोगोंकी प्रमाणसे अधिक ही ठीक ठीक ज्यादा ही संख्या देखाइ देगी. और जब भी कभी कोई आतंकवादी किस्सा बनता है या तो उनकी कोई योजना पकडी जाती है तो उसका उत्पत्तिस्थान कोंग्रेस शासित और उसके सहयोगी पक्ष वाला राज्य ही ज्यादातर होता है और मुस्लिम ही होता है. इस परिस्थिति पर सरकारको गौर करना चाहिये.
मूलभूत बात क्या है?
तात्विक और विचार और संवाद की बात यह है कि, अगर मुंबई पूलीसने एक मुस्लिम असामाजिक शख्सको बिहारमें जाके पकडा और उसको मुंबई ले आयी तो उसमें मुंबई पूलीससे और मुंबई (महाराष्ट्र सरकार) से झगडा करके झगडेकी भाषामें प्रतिभाव देने की और विरोध करने की नितीशकुमारको क्या अवश्यकता है?
आवश्यकतो यह सोचने की है कि, बिहार सरकारने, ऐसे आतंकी और गद्दार व्यक्तिको क्यों न पहेचान पाई? बिहारमें ऐसे कई लोंगोको क्यों पनाह दिया?
ऐसे लोगोंमेंसे एक को, अगर मुंबई पूलिस, अपने राज्यमें आके गुन्हा और हिंसा करने के कारण पहेचान पायी और उसके भाग जाने पर उसको पीछे पडके पकड लिया, तो उसमें बुरा क्या है?
नितीशको अपने गवर्नन्सके बारेमें आत्मखोज करनी चाहिये. और जो गद्दार, घुसणखोर और आतंकी बिहारमें बस रहे है उनको पकडके उनके उपर कार्यवाही करनी चाहिये क्यों कि बिहारकी अराजकता, देशकी अराजकता का एक हिस्सा है.
ऐसी सीमापारसे आयी हुई अराजकता तो क्या स्थानिक कर्मण्यहीनतासे विकसित अराजकता, दूसरे राज्यवाले अपने यहां घुसने नहीं देंगे, इस बातको नितीश को समझना चाहिये.
नितीशकुमार अपनी अक्षमता छिपाना चाहते है
अगर नितीशकुमार, सीमापारसे आये घुसणखोरोंकों रोकनेमें और पहेचाननेमें अक्षम है तो उन्हे केन्द्र सरकार पर आक्रमक वलण अखत्यार करना चाहिये और यह बात खुल्ले आम घोसित करनी चाहिये.
नितीशकुमारको प्रतिक्रिया और संस्कार का भेद समझना चाहिये
प्रतिक्रीया हमेशा असामाजिक, अयोग्य और अलग अलग मापदंडकी प्रणालीके सामने होती है.
भूमिपूत्रोंके साथ अन्याय और उसके जिवन-आधार पर अतिक्रमण होनेसे हमेशा प्रतिक्रिया होती ही है. अगर कोई बिहारी मुस्लिम घुसणपैठ हो या न हो और अगर वह दुसरे राज्यमें जाके शहिदोंका अपमान करे, और बिहार राज्यका शासक अगर उस असाजिक तत्वका परोक्ष या प्रत्यक्ष पक्ष ले तो पीडित राज्यके हर व्यक्तिका प्रतिक्रिया करनेका हक्क ही नहीं फर्ज भी बनता है. यह एक प्रतिकारकी प्रक्रीया है. राजनीतिके संस्कार के साथ इसको जोडना नहीं चाहिये.
बंबईमें रहेने वाले बिहारके लोग घुसणखोर है या नहीं यह एक लंबा विषय है. लेकिन कोई भी राज्य ऐसी बातको स्विकार नहीं करेगा कि, परप्रांतके लोग मुंबईमें आकर मुंबईकी समस्या में वृद्धि करें. ऐसी स्थितिमें महाराष्ट्र तो क्या कोई भी राज्यके नेतागण और जनता प्रतिक्रिया दर्ज करेगी ही.
अगर बिहारमें परराज्यसे लोग आके बिहारकी समस्याओमें वृद्धि करेंगे तो क्या नितीश कुमार सहन कर पायेंगे?
नितीश कुमारको चाहिये कि वे ऐसी बातोंको ठंडे दिमागसे सोचकर अक्ल चलायें. नितीशकुमारको समक्झना चाहिये कि, वॉटबेंककी राजनीति तो गद्दारीका काम है, ऐसी राजनीतिको त्याग देनी चाहिये.
अगर एक राज्यके लोग दूसरे राज्यमें जाके दूसरे राज्य की समस्या बढायेंगे या असामाजिक प्रवृत्तियां करेंगे को उनको घुसणखोर ही माने जायेंगे. ऐसी सोच स्वाभाविक है. महाराष्ट्र कि जनता सुसंस्कृत है और महेमान नवाजीमें पीछे रहने वाली नहीं है. लेकिन अगर परप्रान्त के लोग समस्याएं और अराजकता फैलायेंगे तो महाराष्ट्र की जनता हि क्यों कोई भी प्रान्तकी जनता प्रतिक्रिया करेगी ही.
नितीशकुमार को अलग अलग मापदंड और संकुचितता छोड के देशके हितमें सोचना चाहिये.
यह घटना समाचार प्रसारण माध्यमोंकी मानसिकता पर संशोधन करनेका विषय भी है. सभी माध्यमोने राजठाकरेकी बातको तोडमरोड कर प्रसिद्ध करके आमजनतामें भेदभावकी बात को उकसाई, राज ठाकरेकी निंदा की, और मूलभूत बात को दबा दी है. भारतीय मीडीया भारतके लिये अवनतिका एक कारण बन गया है.
शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः बिहारी, मुस्लिम, आतंकवादी, मुंबइ पूलीस, प्रतिक्रिया, संस्कार, आत्मखोज, मीडीया, राजठाकरे, नितीश कुमार, घुसणखोर, चोरी