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विनोबा भावे और कोंगीके संबंध – १

विनोबा भावे और कोगींके संबंध

नहेरु और विनोबा भावे

प्रज्ञावान पद यात्रिक

कुछ मूर्धन्योंका कोंगी नेताओंके प्रति और कोंगी पक्षके प्रति भरोसा उठ गया नहीं है. ऐसा लगता है कि ये लोग शाश्वत ऐसा ही मानेंगे.

पक्षकी रचना ध्येय और सिद्धांतोके आधार पर होती है. तथापि इस बातकी कुछ  मूर्धन्योंने स्विकृत की है कि, सिद्धांत के अनुसार कार्य करना अब आवश्यक नहीं है. जो जीता वह सिकंदर.

इस विरोधाभाष पर हमने इसी ब्लोग-साईट पर अनेक बार चर्चा की है. सर्वोच्च  न्यायालयका निर्णय भी कितना हास्यास्पद था वह भी हमने देखा है. दुःखद बात यह है कि कुछ मूर्धन्य लोग भी, क्यूँ कि (विद्यमान कोंग्रेस पक्ष, जो वास्तवमें कोंगी पक्ष है) इस पक्षके उपर नहेरवंशवादीयोंका एकाधिकार है इसी लिये वही मूल कोंग्रेस पक्ष है. जब स्वतंत्रता मिली तब  नहेरु पक्षके प्रमुख थे, और आज उनके वंशज पक्षके प्रमुख है, इसी लिये यह पक्ष मूल कोंग्रेस पक्ष है. ये मूर्धन्य  ऐसा मानके, वंशवाद की स्विकृतिका थप्पा भी  मारते है. इन मूर्धन्योंकी मानसिकता ऐसी क्यूँ है? यह बात संशोधनका विषय है.

महात्मा गांधीके दो पट्टाशिष्य

आम जनताका सामान्यतः मन्तव्य यह है कि महात्मा गांधीके दो पट्टशिष्य थे. एक था जवाहरलाल नहेरु और दुसरा था विनोबा भावे.

वास्तवमें यह एक विरोधाभाष है. कहाँ नहेरु के विचार और आचार, और कहाँ विनोबा भावे के विचार और आचार?

नहेरु एक दंभी, एकाधिकारवादी, पूर्वग्रहवादी और गांधीजीको सत्ता प्राप्त करनेका सोपान-मार्ग समज़ने वाले  थे. वे गांधीको नौटंकीबाज़ मानते थे. नहेरुके विचार और आचारमें प्रचंड विरोधाभास था. गांधीजी इस सत्यसे अज्ञात नहीं थे. उन्होंने अपनी भाषामे “अब जवाहर मेरी भाषा बोलेगा…” बोलके नहेरुको अवगत कर दिया था कि नहेरुको अपने आचारमें परिवर्तन करना आवश्यक है. किन्तु नहेरुने माना नहीं. अन्तमें गांधीने कोंग्रेसका विलय करनेकी बात कही और उसको सेवासंघमें परिवर्तन करनेको कहा और उसके नियम भी बनाये.

महात्मा गांधीने विनोबा भावेको कोई सूचन किया नहीं. क्यों कि विनोबा भावेके विचार और आचारके बीच कोई विरोधाभाष नहीं था.

नहेरु और विनोबा इन दोनोंकी तुलना ही नहीं हो सकती. जैसे शेतान और जीसस की तुलना नहीं हो सकती.

नहेरु और विनोबा के आपसी संबंध

नहेरु और विनोबा के आपसी संबंध पर चर्चा करें, उसके पूर्व हमें विनोबा कैसे थे इस बातसे अवगत होना आवश्य्क है.

आम जनताकी मान्यता यह थी कि विनोबा भावे, महात्मा गांधीके अपूर्ण कार्य पूर्ण करेंगे.

महात्मा गांधीके अपूर्ण कार्य क्या थे?

(१) कश्मिरका विलय भारतमें करना,

(२) कश्मिरकी समस्याको युनोमें नहीं ले जाना,

(३) कोंग्रेसका विलय सेवा संघमें करना,

(४) विभाजित भारतको पुनः अखंड भारत बनाना

(५) भारतीय आम प्रजाका दारीद्र्य दूर करना,

(६) गौवंशकी हत्या रोकना,

(७) शराब बंदी करना,

(८) शासनमें पारदर्शिता लाना,

(९) शासनको जनताभिमुख करना,

(१०) अहिंसक समाज की स्थापना करना. ग्रामोद्योग आधारित उत्पादन, निसर्गोपचार, सादगी इसके अंग है.

(११) भारतीय संस्कृतिके अनुरुप जनताको शिक्षित करना, मातृभाषामें शिक्षण देना, शिक्षाको स्वावलंबी करना (उत्पादन आधारित)

(१) से (४) बातका उल्लेख तो मनुबेन गांधीने अपनी गांधीकी अंतिम तीन मासकी डायरी  “दिल्लीमें गांधी” पुस्तकमें किया ही है. सेवा संघकी स्थापना तो हो गई. नहेरु और उनके साथी सत्ताका त्याग करके “सेवा संघ”में गये नहीं.  लेकिन सभी सर्वोदय कार्यकर उसमें गये.

विनोबा भावे पाकिस्तान नहीं गये.

विनोबा भावे कर्मशील तो थे. किन्तु प्रथम वे एक विचारशील व्यक्ति अधिक थे. उन्होंने गांधी विचारको आगे बढाया. उनका अंतिम लक्ष्य शासकहीन शासन था. अहिंसक समाजका अंतिम लक्ष्य यही होना आवश्यक है.

भूमिका आधिकारित्त्व (ओनरशीप ओफ लेन्ड)

भूमि पर किसका अधिकार होना चाहिये?

विनोबा भावे का कहेना था कि भूमि तो हमारी माता है. माताके उपर किसीका अधिकार नहीं हो सकता. “माता पर अधिकार” सोचना भी निंदनीय है.

नहेरुकी सरकारने तो “जो जोते उसकी ज़मीन” ऐसा नियम कर दिया और उसका अमल करना राज्योंके उपर छोड दिया.

युपी, बिहार, बेंगाल, एम.पी. जैसे राज्योमें तो खास फर्क पडा नहीं. ज़मीनदारी प्रथा में बडा फर्क नहीं पडा. ठाकुर और पंडित का दबदबा कायम रहा. वहाँ ज़मीनदारोंने अपने पोतों पोतीयों तक ज़मीन बांट दी.  गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्योंमें जहाँ बडे बडे ज़मीनदार ही नहीं थे फिर भी वहाँ  जोतने वालोंको अधिक फायदा हुआ.

भूदान

ऐसी शासकीय अराजकतामें विनोबा भावे को भूदानका विचार आया. विनोबा भावे तो अहिंसावादी थे. उन्होंने लोगोको कहा कि आपके उपर कोई दबाव नहीं है. आप हमें कुछ न कुछ भूमि दानमें देदो. इस कामके लिये विनोबा  भावेने गांव गांव और पूरे देशमें पदयात्रा की. उन्होंने हर गांवमें गांव वालोंसे समिति बनायी और जिन किसानोंके पास ज़मीन नहीं थी उनको ज़मीन दिलायी. विनोबाके इस पुरुषार्थसे जो ज़मीन मिली वह नहेरुके सरकारी कानूनसे मिली ज़मीन से कहीं अधिक ही थी. जो व्यक्ति नीतिमान होता है उसके परिणाम हमेशा अधिक लाभदायी होते है.

एक बात गौरसे याद रक्खो. सरकारको तो भूदानमें मिली हुई ज़मीनको लाभकर्ताके नाम ही करना था. यानी कि कलम ही चलाना था. लेकिन यह काम सरकार दशकों तक न कर सकीं. महेसुल विभाग (रेवन्यु कलेक्टर) कितना नीतिहीन है उसका यह एक ज्वलंत उदाहरण है. विनोबा भावेने नहेरुका इस बात पर ध्यान आकर्षित किया था. लेकिन हम सब जानते है कि नहेरु केवल वाणीविलासमें ही अधिक व्यस्त रहेते थे और वे जब फंस जाते थे तब वे वितंडावाद पर उतर आते  थे या तो गुस्सा कर बैठते थे.

हारकर विनोबा भावे ने कुछ इस मतलबका  कहा कि “मेघ राजा तो पानी बरसाते बरसाते चले जाते है. उनके दिये हुए पानीसे खेती करना तो मनुष्यके दिमागका काम है. सरकारी कलम चलाना मेरा काम नहीं. मैंने तो मेरा काम कर दिया”

सहकारी खेतीः

नहेरु ने सहकारी खेतीका कानून बनाया. और सहकारी खेतीको कुछ रियायतें देनेका का प्रावधान भी रक्खा.

तब विनोबा भावेने क्या कहा?

यह सरकार या तो ठग है या तो यह सरकार बेवकुफ है. इन दोनोंमेंसे एकका तो उसको स्विकार करना ही पडेगा. मेरी पांच संताने थीं. मैंने कुछ मित्रोंको सामेल किया ताकि सरकारको ऐसा न लगे कि मैं फ्रोड करता हूँ. फिर हमने एक सहकारी खेत मंडली बनाई और सरकारी रियायतें ले ली.

क्या  कोई इसको सहकारी खेती कहेगा? यह तो सरकारको बेवकुफ बनानेका धंधा ही हुआ. सहकारी खेतीमें तो पूरा गाँव होना चाहिये.

पाकिस्तानमें मार्शल लॉ

१९५४में पाकिस्तानके प्रमुख  इस्कंदर मीर्ज़ा सर्वसत्ताधीश बन गये.फिर उन्होंने भारतको सूचन  दिया कि चलो हम भारत-पाकिस्तानका फेडरल युनीयन बनावें.

नहेरुने इसको धुत्कार दिया. फेडरल युनीयनके बारेमें  उन्होंने कहा कि क्या एक जनतंत्रवादी देश और एक लश्करी शासनवाले देशके साथ फेडरल युनीयन बन सकता है? नहेरु लगातार लश्करी-शासनकी निंदामें व्यस्त रहेने लगे.

तब विनोबा भावे ने क्या कहा?

जनतंत्रवादी देश और लश्करी शासनवाले देश भी मिलकर फेडरल युनीयन बना ही सकते है. दो देशोंका मिलना ही तो मित्रता है उसको आप कुछ भी नाम देदो. क्या भारतकी चीन और रुससे मित्रता नहीं है. वे कहाँ जनतांत्रिक देश है? भारत और पाकिस्तान मिलकर एक फेडरल युनीयन अवश्य बना सकते है.

नहेरुको विनोबा भावे का स्वभावका पता था. नहेरु तर्कबद्ध संवादमें मानते नहीं थे. क्यूँ कि वह उनके बसकी बात नहीं थी. लेकिन वे १०० प्रतिशत सियासती थे. समाचार माध्यम और उनका समाजवादी ग्रुप, उनका शस्त्र था. विनोबा भावे को सरकारी संत नामसे पहेचाने जाते थे. उनके क्रांतिकारी विचोरोंको प्रसिद्धि नहीं दी जाती थीं.

१९६२का भारत चीन युद्ध

चीनने भारतकी ९१००० चोरसमील भूमि आसानीसे जीत ली. वास्तवमें चीनका दावा ७१००० चोरस मील पर ही था. जब चीनके ध्यानमें यह बात आयी तो उसने अतिरिक्त २०००० चोरसमील भूमि खाली कर दी. युद्ध विराम भी चीनने ही घोषित किया था. कमालकी बात यह है कि जिस युद्धमें भारतने ९१००० चोरस मिल भूमि हारी, वह एक अघोषित युद्ध था.

विनोबा भावे सियासती नहीं थे. लेकिन वे खिलाडी अवश्य थे. उन्होंने चीनकी प्रशंसा की. “चीन एकमात्र ऐसा देश है जिसने विजेता होते हुए भी युद्ध विराम किया. इतना ही नहीं चीन एकमात्र देश है जिसने जीती हुई भूमि अपने दुश्मनको बिना मांगे वापस कर दी.”

नहेरु तो “दुश्मनने हमें दगा दिया … दुश्मनने हमें पीठमें खंजर भोंका … “ ऐसा प्रलाप करनेमें व्यस्त थे. 

 विनोबा भावेका संदेश वास्तवमें नहेरुके लिये था कि ज्यादा बकवास मत करो.  युद्ध विराम,  तुमने तो नहीं किया है. तुम तो युद्ध कर सकते हो.

विमुख

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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सुज्ञ मुस्लिम क्यूँ मौन है?

सुज्ञ मुस्लिम क्यूँ मौन है?

तर्क का एक सिद्धांत है कि आप जो भी शब्द प्रयोग करें, उसकी परिभाषा प्रस्तुत करें.

सुज्ञ मुस्लिम का अर्थ क्या है?

कौन समज़ाएगा

जो मुस्लिम ने कुरान पढा है और उसने कुरानको आत्मसात्‌ भी किया है.

वह यह भी जानता है कि सांप्रतकालमें मुस्लिमोंके लिये क्या आवश्यक है.

वह यह भी जानता है कि अन्य मुस्लिम सुज्ञ नहीं है.

वह यह भी जानता है कि, मुल्लाओंके अर्थघटनोंसे इस्लामका प्रभाव आम मुस्लिमों पर और अ-मुस्लिमों पर क्या  पडता है और उनको क्या संदेश मिलता है

वह यह भी जानता है कि ऐसे अर्थघटनोंके क्या क्या भयस्थान है और पैदा होने वाला है. इनको रोकनेके लिये क्या करना आवश्यक है,

वह यह भी जानता है कि अन्य धर्मोंका सार क्या है,

यह सुज्ञ मुस्लिम है.

सुज्ञ मुस्लिमका  कोई उदाहरण है?

अवश्य उदाहरण हैं. “मज़हब नहीं सिखाता आपसमें बैर रखना” कहनेवाला था. लेकिन वह तो “एक ही देशमें दो राष्ट्र है” ऐसा पुरस्कृत करने वाला हो गया. एक राष्ट्रका विभाजन हो गया. किन्तु उसका काव्य तो भारतमें अमर हो गया. किन्तु उसका नाम तो हम सुज्ञ मुस्लिमोंकी सूचीमें नहीं रह सकते.

पाकिस्तानमें कई सुज्ञ मुस्लिम होगे. भारतमें जितने सुज्ञ मुस्लिम है उनसे अधिक सुज्ञ  मुस्लिम पाकिस्तानमें हो सकते है. इस संभावनाको हम नकार नहीं सकते. किन्तु यह चर्चाका विषय नहीं है.

सुज्ञ मुस्लिम जो भारतमें है उनमें बीजेपीके सदस्य तो है ही. अरिफ मोहम्मद खान, एम जे अकबर, तारेक फतह जैसे कई है. उनके पास अपने मन्तव्यका आधार भी है. वे कुरानकी आयातोंका उदाहरण देकर अपनी मान्यता सिद्ध करते है. टीवी चेनल पर संवादमें भी हम कई मुस्लिम नेताओंको इनकी मान्यताके समर्थन करने वाले देखते हैं. और इनके विरोधीयोंमें केवल हवाई बातें होती है.

किन्तु उपरोक्त सुज्ञ मुस्लिमोंका व्यापक जनाधार नहीं है.

अन्य मुस्लिम युथ कैसे है?

(१) स्वयं प्रमाणित तटस्थ है, और ये दहीं-दूधमें रहेते है

(२) प्रच्छन्न कट्टर वादी है और ये लोग प्रच्छन्न रुपसे कट्टरवादीयोंका समर्थन करते है या उनके प्रति उनकी कोई प्रतिक्रिया ही नहीं होती. संभव है कि कट्टरवादीयोंके प्रति वे कोमल है.

(३) अपने ही मुस्लिमोंसे भयभित है इसलिये मौन है

(४) प्रदर्शन ऐसा करते है कि वे परस्पर भ्रातृभावमें मानते है किन्तु मुस्लिमों द्वारा किये गये अपराधों पर सप्रमाण निंदा नहीं करते,

(५) भारतमें तो रहेना है किन्तु मुस्लिमोंके आपराधिक घटनाओंकी चर्चा नहीं करना है,

(६) कोमवाद से ग्रस्त है और वितंडावादी है

(७) जो करना है वह कर लो हम तो गज़वाहे हिन्द बनाएंगे ही

(८) आतंकवादी मुस्लिम

जो स्वयंको सुज्ञ और तटस्थ मानते है उनके उपर सर्वाधिक उत्तरदायित्व है.

क्या हिन्दुओंमें भी कट्टारता वादी नहीं है?

हाँ अवश्य कट्टरतावादी है. किन्तु उनका वास्तविक जनाधार नहीं है.

सर्व प्रथम तो इस बातको समज़ना अत्यंत आवश्यक है कि जिस प्रकारकी व्याख्या अन्य धर्मोंको लागु पडती है उस व्याख्याको, हम हिन्दु धर्मको लागु नहीं कर सकते. फिर भी हम इस तथा कथित हिन्दुओंको संमिलित रख सकते है. अर्थात्‌ एक धर्म तो है ही. किन्तु इसका विवरण हम इस चर्चामें नहीं करेंगे. “इसी ब्लोगसाईट पर “अद्वैतवादकी मायाजाल … “की चर्चा-शृंखलामे विस्तारसे किया है और “नोट इवन टु, वन एन्ड वन ओन्ली” अंग्रेजी ब्लोगमें अतिसंक्षिप्तमें इसकी चर्चा की है.

हिन्दु कैसे विभाजित है?

कुछ वाचाल हिन्दु लोग, भारतीय-तत्त्वज्ञान क्या है वे जानते नहीं है तथापि स्वयंको सुज्ञ मानते है, फिर भी वे स्वयं प्रमाणित सुज्ञ है. इनमें संत रजनीशमल (जिनको लोग, या स्वयं रजनीश, स्वयंको, पहेले आचार्य, तत्‌ पश्चात्‌ भगवान और तत्‌ पश्चात्‌ ओशो यानी कि परम ज्ञानी. इनके अनुयायीओंकी संख्या के कारण मेरे जैसे लोग रजनीशको “संत” और शक्तिशाली होनेके कारण “मल’ कहेते है), ओशो आसाराम (ओशो मजाक के लिये), सांई बाबा, सत्य सांई बाबा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी,   … इनमें कुछ स्वयंको मोडर्न विचारधारावाले मानते है.

शोभनीय बात यह है कि ये लोग अराजकता नहीं फैलाते है. इसलिये समाजके लिये कोई कष्ट नहीं.

हिन्दु धर्म वास्तवमें एक पारदर्शी विचारधाराओंका समूह है. चर्चा आवकार्य है. किन्तु जब वितंडावादका प्रवेश होता है, तब समाजको हानि होनेका प्रारंभ होता है.

वितंडावाद कब होता है?

(१) स्वयं तटस्थ है इसकी धून जब व्यक्तिके उपर सवार होती है,

(२) स्वयं ज्ञाता है ऐसा स्वयं प्रमाणित मानते है,

(३) स्वयंका स्वार्थ होता है,

(४) पूर्व पक्ष का अज्ञान होता है,

(५) पूर्वग्रह होता है,

(७) सियासत व्यक्तिके उपर आरुढ होती है

 (३) और (५) वाले तत्त्व जब मिल जाते है यानी कि स्वार्थ और पूर्वग्रह जब मिल जाते है तो व्यक्ति सियासती तत्त्व वाला बन जाता है.

वैसे तो वितंडावाद का जन्म, प्रमाणभानकी प्रज्ञाका अभाव, प्राथमिकताकी प्रज्ञाका अभाव और प्रस्तूतताकी प्रज्ञाका अभाव, इन सभी अभावोंकी प्रज्ञाके मिश्रणके कारण वितंडावाद उत्पन्न होता है.

हिन्दु किन किन व्यर्थ बातों पर लडते है?

(१) हिन्दु धर्म क्या है?

(२) भारतका विभाजनका मूल कारण क्या है और कौन जिम्मेवार है?

(३) क्या भारत स्वतंत्र हुआ है?

(४) आज़ादी किसने दिलायी?

(५) प्रवर्तमान जो हिन्दु-मुस्लिम संबंध समस्या है उसका मूल कहांसे है और कौन है?

(६) भारतका विभाजन धर्मके आधार पर हुआ है तो मुसलमान लोगोंको भारतमें किसने रहेने दिया?

(७) भारत १२०० वर्ष गुलाम क्यूँ रहा?

इनमेंसे कई प्रश्न तो हास्यास्पद है.

वैसे तो ये लोग गद्दार तो नहीं ही है, लेकिन प्राथमिकताकी प्रज्ञाके अभावमें हिंदुओंकी संगठन शक्तिमें क्षति अवश्य पहूँचाते है*.

इन लोगोंके व्यर्थ विवादसे, भारत विरोधीयोंकी शक्तिमें अवश्य वृद्धि होती है. इन लोगोमें कुछ प्रच्छन्नरुपसे देशविरोधी तत्त्व छीपे हो सकते है. जो चाहते है कि हिन्दु लोग इन व्यर्थ बातोंमें समय बरबाद करेंगे तो हमारे साथ लडनेका सोचनेमें उनको कम समय मिलेगा और वे आपसमें ही लडते रहेंगे. इस संभावनाको हम नकार नहीं सकते.

वास्तवमें सर्वसे अधिक प्रभाविक समस्या यह है

(१) कोरोना वायरसके प्रसारको कैसे रोकना और कोरोना वायरसके प्रसारके साथ  संबंधित हिन्दु-मुस्लिम  संबंध.

अथवा इससे विलोमित (वाईस वर्सा) हिन्दु-मुस्लिम संबंध और कोरोना वायरसके प्रसारको कैसे रोकना. या तो मुस्लिमोंका क्या करना जिससे कोरोना वायरसका प्रसार कम हो.

 (२) कोंगी लोग और उनके सांस्कृतिक साथी, जैसे अर्बन नक्षल, साम्यवादी विचारधारा वाले लोग, मोदी/बीजेपी के प्रति पूर्वग्रह रखनेवाले देशी-विदेशी मीडीया-मूर्धन्य, असामाजिक तत्त्व, इन सबसे परोक्ष और प्रत्यक्ष संबंधसे जुडे आतंकवादीयोंका संगठन … इन सबके योजना बद्ध प्रपंच और पृथक पृथक आक्रमणोंको कैसे रोका जाय?

(३) कोंगीयों की ७०सालके शासनकी कृपासे कट्टारवादी मुस्लिम नेताओंको इतना बिगाडके रख दिया है कि अब वे हिन्दुओंको  प्रत्यक्ष रुपसे बिना संकोच गृहयुद्धका आव्हाहन  दे रहे है. उपरोक्त ल्युटीअन गेंग इन लोगोंके सभी करतूतों पर मौन है या तो यदि चर्चा करते है तो बिना संदर्भवाली बातें पर वाणीविलास करते है.

समस्या तो हम जानते है, किन्तु उसका उपाय क्या है?

इन समस्याओंको हल करना है तो कुछ खुले दिलवाले मुस्लिम, मुस्लिमोंको नसिहत दे सकने वाले मुस्लिम, सुज्ञ मुस्लिम युथ, आगे आना चाहिये. ऐसे मुस्लिम जो “स्पेड को स्पेड” कह सके. यानी कि बे जीज़क ताल ठोकके सत्यवक्ता हो. हिन्दुओंका युथ तो तयार ही है. लेकिन मुस्लिम लोग संवादके लिये तयार नहीं.

है कोई सज्ज, संवादके लिये?

शिरीष मोहनलाल महाशंकर दवे

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“गद्दारोंको गोली मारो” गांधीजीने कहा था

यदि मुसलमान बेवफा होगा तो हकुमत गोली मारेगी

यह उच्चारण गांधीजीका है. गांधीजीने यह बात २५ नवेम्बर १९४७ बृहस्पति वार को न्यु दिल्ही बिरला हाउससे  कही थी.

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अनपढ सी कोंगीको, चाहिये कि वह गांधीजीको पढें. कोंगीके सांस्कृतिक साथी, लुटीयन गेंग, स्थानिक आतंकवादी, उनकी सहायक गेंगोंके स्वयं प्रमाणित मूर्धन्य लोगोंको भी गांधीजीको पढना चाहिये. इन लोगोंको “दिल्हीमें गांधीजी” पार्ट-१ और पार्ट-२ पुस्तकको तो कमसे कम पढना ही चाहिये ताकि वे गांधीजीका नाम लेना बंद करे. मनुबेन गांधीने, महात्मा गांधीकी दिन प्रतिदिन की दिनचर्या (रोजनीशी) और उच्चारणके रुपमें पुस्तकको लिखा है. मनुबेन गांधी, गांधीजीकी अंतेवासी थीं. उन्होंने इस पुस्तकको लिखा है. नवजीवन पब्लीकेशन है.

क्या गांधीजी कोमवादी थे?

लुटीयन गेंगोंके तर्क के अधार पर तो गांधीजी सरासर कोमवादी थे. उन्होने कहा कि मुसलमान यदि गद्दार हुआ तो हकुमत उसको गोली मारेगी. आप देखते है कि गांधीजीने केवल मुसलमानका उल्लेख किया है. उन्होंने ऐसा तो नहीं कहा कि सरकार को  हर गद्दारको गोली मारना है. महापुरुष लोग तो एक एक शब्द विचार कर कर के बोलते है. मानो कि उनको संविधान लिखना है. प्रत्येक शब्दकी किमत होती है.

अब प्रवर्तमान  महाजन लोग, जो सी.ए.ए.के विषय में ऐसा बोलते हैं कि “बीजेपी तो कोमवादी है. क्यों कि उसने तो सी.ए.ए.में पाकिस्तानकी सरकार द्वारा धर्मके आधार पर  प्रताडित हिन्दु, सिख, …. आदि के लिये ही सामुहिक प्रक्रियासे नागरिकता देनेका प्रावधान किया है. यह तो मुस्लिमों (पाकिस्तान स्थित)के उपर किया गया भारत सरकार का सरासर अन्याय है, चाहे इन्ही मुसलमानोंको नागरिकता देने के लिये अन्य प्रावधानीय व्यवस्था क्यूँ न हो.”

गांधीजीको तब नहीं तो अब ही सही

क्या गांधीजीको तब नहीं तो अब ही सही, चाहे गांधीजी यदि विद्यमान नहीं है, तो वे नहीं तो उनकी छवी ही सही, कोंगी महाजन गोली मारेंगे? जी हाँ. कोंगी और उनकी गेंगोंको आगे आना ही चाहिये यदि वे अपने तर्क पर कायम है.

आपको हँसी आयी होगी. अवश्य. क्यों कि गांधीजीकी छवीको गोली मारने के लिये ये कोंगी या तो उनके सांस्कृतिक साथीयोंमेसे कोई भी आगे नहीं आयेगा, चाहे उसने/उन्होंने  गांधीजीके सिद्धांतोकी कितनी ही अवहेलना करके गांधीजीके उपर मनोमन कितनी ही बार गोलियाँ क्यूँ न चलायी हो.

गांधीजी तो आर्ष दृष्टा थे. उनको ठीक तरह से मालुम था कि नहेरुकी कोंग्रेस सत्ताके लिये कुछ भी कर सकती है. किन्तु बेचारे गांधीके पास ऐसी आर्ष दृष्टि नहीं थी कि वे यह सोच सके के नहेरुकी कोंग्रेस सत्ताके लिये गद्दारी भी कर सकती है.

हर गद्दारको गोली मारो.

गोलीमारो

गोली मारनेकी क्रियाको हमें सेक्युलर करना पडेगा.

केवल मुस्लिम ही, गद्दार नहीं होते हैं. कई और भी गद्दार होते है.

गांधीजीके उपरोक्त कथन को सेक्युलराईज़ करना पडेगा.

हर गद्दारको गोली मारो,

उन सब गद्दारोंको गोली मारो, चाहे वह नहेरुकी कोंग्रेसका सदस्य हो, आम पक्ष का सदस्य हो, साम्यवादी विचारधारा वाला हो, स्थानिक आतंकवादी हो, आतंकवादीयोंका सहायक हो, मूर्धन्य हो, मीडीया कर्मी हो, कोलमीस्ट हो, सेना पर पत्थरबाजी करनार हो  … कोई भी व्यक्ति यदि गद्दार हो, उसको गोलीसे उडा दो. यही सच्चा महात्मा गांधीवाद है. महात्मा गांधीके सिद्धांतो के अनुसार देशकी सुरक्षा सर्व प्रथम है   

गांधीजी खुद वकिल थे.

जब भी वकिल कोई दस्तावेज तैयार करता है तो, जो भी शब्दका प्रयोग करता है उसकी परिभाषा भी लिखता है. यदि कोई शब्दकी परिभाषा नहीं लिखी तो उसका शब्दकोषका अर्थ ग्रहण करना पडता है. कुछ महाशयोंको इस बातका ज्ञान नहीं होता है और वे बोल उठते है कि क्या उनकी उस शब्दकी बनायी परिभाषा अंतीम है? जी हाँ. यदि वकिलने या और किसीने भी, कोई शब्द के प्रयोग करनेसे पहेले उसकी परिभाषा बता दी, तो वही परिभाषा न्यायालयको भी मान्य करना पडता है.  इसकी सीमा उस दस्तावेज तक सीमित है. एक बात अवश्य है कि वह परिभाषा हम्प्टी डम्प्टी की न हो. जैसे कि इन्दिरा गांधीने कहा हमारा ध्येय सबसे नम्र व्यवहार और आचारणमें उसने हजारोंको बिना कारण बताएं कारावासमें भेज दिया था. वैसे तो उसने व्याख्या भी नहीं की थी.

 उसी प्रकार गांधीजीने यदि, अपनी अहिंसाकी परिभाषा कर दी, तो गांधीजीके सामने वही परिभाषा चलेगी. यानी कि कमसे कम हिंसा, वह है अहिंसा.

कोरोना वायरसकी महामारी और सरकारके आदेश

भारत सरकारने तो आदेश घोषित कर दिया कि २१ दिनतक जहाँ भी हो उस स्थान पर ही रहो. उनके मालिकोंको कहा कि उनका वेतन मत काटो. यदि बाहर जाना है तो केवल राशन, दूध और शब्जी के लिये ही निकलो. यह आदेश संचारबंधीसे भी अधिक कठोर है.

भारतमें एक खास वर्ग है जिसमें कोंगी भी सामेल है, उसका ध्येय एक मात्र ही है, कि प्रवर्तमान बीजेपी सरकारको हर हालतमें बदनाम करो चाहे जूठ ही बोलना क्यूँ न पडे, चाहे गद्दारी ही क्यूँ न करनी पडे, चाहे देशमें करोडों लोग ही क्यूँ न मर जाय? यदि इस सरकारको हटाना है तो हमें इस सरकारके विरुद्ध व्यापक  आंदोलन करना पडेगा. हम सरकारसे हजार प्रश्न करते रहेंगे, हमारे वकिल लोग पी.आई.एल. के साथ न्यायालयमें जाते रहेंगे, हम अर्बन नक्षलनेता बनेंगे, मुस्लिम बिरादर हिंसा पर उतरेंगे और हम उनका वितंडावादसे बचाव करते रहेंगे.

लुटीयन गेंग सोचती है कि “पूरानी बातें जानने वाले मूर्धन्य और कोलमीस्ट्स या तो वे खुदाके प्यारे हो गये है, या उनको स्मृति दोष भी हो सकता है, या तो वे अपनी तटस्थता सिद्ध करनेकी धूनमें प्रमाणभान खो चूके है. उनको पथभ्रष्ट करना सरल ही है. जो इक्के दुक्के बचे उनको तो कौन पूछता ही है.  जब ख्यातनाम महानुभावोंका यह हाल है तो आम जनता क्या चीज़ है. आम जनता को तो असंमंजसमें डालना आसान है.”

बीजेपी सरकार द्वारा अनुच्छेद ३७० / ३५ए के हटानेसे इस लुटीयन गेंग के होश उड गये है. आतंकवाद पर सरकारने पर्याप्त अंकुश पा लिया है. अब इस लुटीयन गेंगके सदस्योंको आतंकीयोंसे पर्याप्त मदद नहीं मिलने वाली है. लेकिन पाकिस्तान के नेताओंने कई बार कहा है कि पाकिस्तानकी ताकत, पाकिस्तानके जो परमाणु बॉम्ब है, वह नहीं है, लेकिन भारतमें बसे मुस्लिम है. तो लुटीयन गेंगने सोचा अरे भाई, इस बेवकुफ पाकिस्तानी नेताओंको जो बात मालुम है वह हमारे दिमागमें क्यूँ नहीं आयीं?

हवाला निष्णात यह लुटीयन गेंग

हवाला निष्णात यह लुटीयन गेंगने अब सीना तान लिया है. अफवाहे फैलाओ, मुसलमानोंको डराओ. दिल्लीके चूनावमें  केज्रीवालने वही किया था. उसने मुस्लिमोंको घर घर जाके कहा कि आपका दुश्मन नरेन्द्र मोदी, संविधान बदलने वाला है. बीजेपीको हराना अनिवार्य है. केज्रीवालने मुस्लिम औरतों द्वारा, सी.ए.ए.के विरुद्ध शाहीन बाग करवाया. व्युहरचना करके आगजनी करवाया, हत्याएं करवायीं, लेकिन विदेशमें प्रचार ऐसा करवाया कि यह सब आगजनी हिन्दुओंने की.

केज्रीवालने कौनसी गद्दारी नहीं की एक संशोधनका विषय

केज्रीवालने कोरोनाको अधिक फैलाने के लिये रातको युपी-बिहारके श्रमिकोंको जगाया और कहा कि यह लोकडाउन तो लंबा होनेवाला है. तुम्हारे लिये युपी-बिहारकी सीमा तक जानेके लिये डीडी-बसें तयार है. तुम चले जाओ. केज्रीवालने कोरोना फैलाने का यह तरिका उपयोगमें लिया. सारे श्रमिकोंके लिये बसें तो पर्याप्त नहीं हो सकती. तो बडी मात्रामें बाकीके श्रमिक पैदल चल पडे.

लुटीयन गेंगोंको तो सुनहरा मौका मिल गया. कि देखो बेचारे क्षुधातुर, तृषातुर  गरीब श्रमिक  पैदल चल पडे है. बीजेपीको उनके दुःख दर्दका खयाल ही नहीं है.

इसी समय दरम्यान, योजना अनुसार विदेशसे  तबलीघी जमातवाले मुस्लिम धर्मके प्रचारक आये हुए थे. वे कोरोनाके आयोजनमें पड गये. उस समय दुनियामें कोरोना वायरस प्रसारित था. एक महा संमेलन चालु था. पुरा गेम प्लान बाहर आना बाकी है. दिल्ली और देशमें योजनाबद्ध रुपसे दंगा फैलाना और कोरोना वायरस देशमें दूर दूर तक इन मुस्लिम धर्मगुरुओं द्वारा फैलाना यह उन गेंगोंका काम था.

कोरोनाके कारण तो शाहीनबाग प्रदर्शन तो रोक देना पडा था, लेकिन मुस्लिम नेताओंने, मुस्लिमोंको उकसाया कि कोरोना तो खुदाकी देन है और उसका काम बिन-मुस्लिमोंको खतम करना है. यह खुदाका आदेश है. इस लिये सामुहिक नमाज़ पढो, सामुहिक खाना खाओ, गले मिलो और सरकारके आदेशको मत मानो. सरकारसे बडा खुदा है. और कोरोना मुस्लिमोंका कुछ भी बिगाडने वाला नहीं है. कोरोना फैलाओ. कैसे कोरोना फैलाना उसकी कई वीडीयो क्लीप सोसीयल मीडीया पर उपलब्ध है.

सरकारने अपना राजधर्म निभाया. कितने मुस्लिम लोग कहाँसे आये थे, कितने धर्मगुरु किन किन देशोंसे आये थे. वे कहाँ कहाँ गये है. कौनसे टाईपके वीसा पर आये थे,  सब लोगोंको ट्रेस-आउट किया जा रहा है. सबका कोरोना संक्रमणका टेस्ट हो रहा है. कई  सारे मुस्लिम कोरोना संक्रमित पाये गये है. और भी कोरोना संक्रमित मिलने वाले है. कहा जाता है अधिकतर कोरोना संक्रमित होनेका कारण ये मुस्लिम लोग और उनके धर्मगुरु है. ये लोग अब क्वारेन्टाईन में रक्खे गये है. लेकिन फिर भी देखो. ये लोग सरकारके आदेशोंका पालन नही करते है. वे इकठ्ठे होते है, समूहमें नमाज़ पढते है, चिकित्सक स्टाफको सहयोग नहीं देते है, ये सब बातें तो छोडो, ये लोग जहाँ तहाँ थूंकते है, ये लोग चिकित्सक स्टाफके उपर भी थूंकते है, ये लोग परिचारिकाओंसे अभद्र चेष्टाएं करते है, ये लोग अभद्र शब्दप्रयोग करते है, इनमेंसे कई, नंगा बनकर घुमते है, …… इनसे अधिक अघटित व्यवहार कोई क्या कर सकता है? इनमें केवल विदेशी ही नहीं है. देशी मुस्लिम भी है.

सोसीयल मीडीया पर, इन लोगोंके वैचारिक स्तरका, मुस्लिमोंकी धर्मांधताकी मात्रा कहां तक पहोंच गयी है उनकी अगणित प्रमाणित वीडीयो क्लीप उपलब्ध  है.

लेकिन हमारी लुटीयन गेंगके लोग इन घटनाओं पर गद्दारी मौन धारण किये हुए है. इन लोगोंके हिसाबसे ये लोग नरेन्द्र मोदीके लोक-आउटके कारण निर्दोष फंसे हुए लोग है. ये तो विद्वान, मूर्धन्य

 त्यागी, अमन परस्त और शांतिके दूत है.

हम यह भी जानते है कि कश्मिमें आतंकवादीयोके साथ मूठभेडमें व्यस्त हमारे जवानों पर पत्थरबाजी करने वाले, दाढीवाले मुस्लिम लडके मासुम बच्चे थे. जिनको समज़ानेके लिये महात्मा गांधीके तथा-कथित और स्वयंप्रमाणित धरोहर वाला एक भी कोंगीका नेता या  कश्मिरी नेता आया नहीं था. और आये भी कैसे? जब ५०००००+ कश्मिरी हिन्दुओ पर कश्मिर के मुसलमानोने आतंकवादीयोंके साथ मिलकर आतंक फैलाया और हजारोंकी कत्ल करके उनको भगाया तब ये फारुख और ओमर कश्मिर छोडके भाग गये थे. यह है उनकी  असंवेदनशीलता की परिसीमा. वास्तवमें ये परिस्थित उनके ही  शासनकी ही प्रोडक्ट थी और है.

क्या इस्लाम ऐसा है?

तारिक फतह, हस्सन निसार,   आरिफ मोहम्मद खान, मुख्तार, अब्बास नक्वी, सइद शाह नवाज़ हुसैन, एम. जे. अकबर. …. आदिका  इस्लाम जो कहेते है कि कुरानका इस्लाम है,

लेकिन इस इस्लामको कौन मानता है?

कोई नहीं. क्यों कि कोई मुसलमान डोक्टरोंको और परिरिकाओंको बचाने नहीं आया, लेकिन ढेर सारे, पत्थर बाज आ गये और हमला किया. पुलिस पर भी और उनके वाहनों पर भी पत्थरबाजोंने  हमला कर उनको भगा दिया. क्यों कि वे लोग मुस्लिमोंकी जांच करने आये थे कि उनमें कोई कोरोनाग्रस्त है या नहीं. ऐसी घटनाएं कई जगह हुई.

धर्मकी पहेचान वास्तवमें तो उस धर्मकी आम जनता कैसे आचरण करती है और वह भी आपत्तिकालमें कैसा आचरण करती है वह ही है.

अभी भी नरेन्द्र मोदी ने अपनी आशा नहीं खोई है. उन्होंने तबलीघी जमातके मकानमें इन मुस्लिमोंको समज़ानेके लिये अजित दोवल को भेजा. क्या यह आवश्यक था? जरा भी नहीं. वास्तवमें यह मामला तो कानून और व्यवस्था का है. कानून के सामने सब समान है. इसमें कोई भी छूट, किसीको भी नहीं देना चाहिये. तभी ये मुस्लिम लोग सीधा चलेंगे.

कोंगीने मुस्लिमोंकी आदतें बिगाडी है और भारतकी खास करके हिन्दु जनता उसको भुगत रही है. यदि कोंगीनेताओंके और उनके सांस्कृतिक साथीयोंके विरुद्ध चल रहे  अपराधी मामले न्यायालयमें घोंघेकी (स्नेईल ) गति से ही चलते रहेंगे तो वे तो आश्वस्त है कि मरते दम तक उनको कुछ होनेवाला नहीं है. कोंगीओंने ७० सालके शासन दरम्यान व्यवस्था ही ऐसी बनायी है कि “पैसेसे समर्थ” यानी कि समरथको नहीं दोष गुंसाई. सत्ता चली जाय लेकिन संपत्ति रहे तो निरंकुश ही रहो. आपका बाल तक बांका होनेवाला नहीं है. आप अपना आतंकवादी और गुन्डागर्दीका नेटवर्क फैलाते रहो. मुसलमानोंकी तरह.

शिरीष मोहनलाल दवे

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“वीर सावरकर”का कोंगीने “सावरकर” कर दिया यह है उसका पागलपन.

“वीर सावरकर”का कोंगीने “सावरकर” कर दिया यह है उसका पागलपन.

Savarakar

जब हम “कोंगी” बोलते है तो जिनका अभी तक कोंगीके प्रति भ्रम निरसन नहीं हुआ है और अभी भी उसको स्वातंत्र्यके युद्धमें योगदान देनेवाली कोंग्रेस  ही समज़ते, उनके द्वारा प्रचलित “कोंग्रेस” समज़ना है. जो लोग सत्यकी अवहेलना नही कर सकते और लोकतंत्रकी आत्माके अनुसार शब्दकी परिभाषामे मानते है उनके लिये यह कोंग्रेस पक्ष,  “इन्दिरा नहेरु कोंग्रेस” [कोंग्रेस (आई) = कोंगी = (आई.एन.सी.)] पक्ष है.

कोंगीकी अंत्येष्ठी क्रिया सुनिश्चित है.

“पक्ष” हमेशा एक विचार होता है. पक्षके विचारके अनुरुप उसका व्यवहार होता है. यदि कोई पक्षके विचार और आचार में द्यावा-भूमिका  अंतर बन जाता है तब, मूल पक्षकी मृत्यु होती है. कोंग्रेसकी मृत्यु १९५०में हो गयी थी. इसकी चर्चा हमने की है इसलिये हम उसका पूनरावर्तन नहीं करेंगे.

पक्ष कैसा भी हो, जनतंत्रमें जय पराजय तो होती ही रहेती है. किन्तु यदि पक्षके उच्च नेतागण भी आत्ममंथन न करे, तो उसकी अंन्त्येष्ठी सुनिश्चित है.

परिवर्तनशीलता आवकार्य है.

परिवर्तनशीलता अनिवार्य है और आवकार्य भी है. किन्तु यह परिवर्तनशीलता सिद्धांतोमें नहीं, किन्तु आचारकी प्रणालीयोंमें यानी कि, जो ध्येय प्राप्त करना है वह शिघ्रातिशिघ्र कैसे प्राप्त किया जाय? उसके लिये जो उपकरण है उनको कैसे लागु किया जाय? इनकी दिशा, श्रेयके प्रति होनी चाहिये. परिवर्तनशीलता सिद्धांतोसे विरुद्धकी दिशामें नहीं होनी चाहिये.

कोंगीका नैतिक अधःपतनः

नहेरुकालः

नीतिमत्ता वैसे तो सापेक्ष होती है. नहेरुका नाम पक्षके प्रमुखके पद पर किसी भी  प्रांतीय समितिने प्रस्तूत नहीं किया था. किन्तु नहेरु यदि प्रमुखपद न मिले तो वे कोंग्रेसका विभाजन तक करनेके लिये तयार हो गये थे. ऐसा महात्मा गांधीका मानना था. इस कारणसे महात्मा गांधीने सरदार पटेलसे स्वतंत्रता मिलने तक,  कोंग्रेस तूटे नहीं इसका वचन ले लिया था क्योंकि पाकिस्तान बने तो बने किन्तु शेष भारत अखंड रहे वह अत्यंत आवश्यकता.

जनतंत्रमें जनसमूह द्वारा स्थापित पक्ष सर्वोपरि होता है क्यों कि वह एक विचारको प्रस्तूत करता है. जनतंत्रकी केन्द्रीय और विभागीय समितियाँ  पक्षके सदस्योंकी ईच्छाको प्रतिबिंबित करती है. जब नहेरुको ज्ञात हुआ कि किसीने उनके नामका प्रस्ताव नहीं रक्खा है तो उनका नैतिक धर्म था कि वे अपना नाम वापस करें. किन्तु नहेरुने ऐसा नहीं किया. वे अन्यमनस्क चहेरा बनाके गांधीजीके कमरेसे निकल गये.

यह नहेरुका नैतिकताका प्रथम स्खलन या जनतंत्रके मूल्य पर प्रहार  था. तत्‌ पश्चात तो हमे अनेक उदाहरण देखने को मिले. जो नहेरु हमेशा जनतंत्रकी दुहाई दिया करते थे उन्होंने अपने मित्र शेख अब्दुल्लाको खुश रखने के लिये अलोकतांत्रिक प्रणालीसे अनुच्छेद ३७० और ३५ए को संविधानमें सामेल किया था और इससे जो जम्मु-कश्मिर, वैसे तो भारत जैसे जनतांत्रिक राष्ट्रका हिस्सा था, किन्तु वह स्वयं  अजनतांत्रिक बन गया.

आगे देखो. १९५४में जब पाकिस्तानके राष्ट्रपति  इस्कंदर मिर्ज़ाने, भारत और पाकिस्तानका फेडरल युनीयन बनानेका प्रस्ताव रक्खा तो नहेरुने उस प्रस्तावको बिना चर्चा किये, तूच्छता पूर्वक नकार दिया. उन्होंने कहा कि, भारत तो एक जनतांत्रिक देश है. एक जनतांत्रिक देशका, एक सरमुखत्यारीवाले देशके साथ युनीयन नहीं बन सकता. और उसी नहेरुने अनुच्छेद ३७० और अनुच्छेद ३५ए जैसा प्रावधान संविधानमें असंविधानिक तरिकेसे घुसाए दिये थे.

जन तंत्र चलानेमें क्षति होना संभव है. लेकिन यदि कोई आपको सचेत करे और फिर भी उसको आप न माने तो उस क्षतिको क्षति नहीं माना जाता, किन्तु उसको अपराध माना जाता है.

नहेरुने तीबट पर चीनका प्रभूत्त्व माना वह एक अपराध था. वैसे तो नहेरुका यह आचार और अपराध विवादास्पद नहीं है क्योंकि उसके लिखित प्रमाण है.

चीनकी सेना भारतीय सीमामें अतिक्रमण किया करें और संसदमें नहेरु उसको नकारते रहे यह भी एक अपराध था. इतना ही नहीं सीमाकी सुरक्षाको सातत्यतासे अवहेलना करे, वह भी एक अपराध है. नहेरुके ऐसे तो कई अपराध है.

इन्दिरा कालः

इन्दिरा गांधीने तो प्रत्येक क्षेत्रमें अपराध ही अपराध किये है. इन अपराधों पर तो महाभारतसे भी बडी पुस्तकें लिखी जा सकती है. १९७१में भारतीयसेनाने जो अभूतपूर्व  विजय पायी थी उसको इन्दिराने सिमला करार के अंतर्गत घोर पराजयमें परिवर्तित कर दिया था. वह एक घोर अपराध था. इतना ही नहीं लेकिन जो पी.ओ.के. की भूमि, सेनाने  प्राप्त की थी उसको भी   पाकिस्तानको वापस कर दी थी, यह भारतीय संविधानके विरुद्ध था. इन्दिरा गांधीने १९७१में जब तक पाकिस्तानने भारतकी हवाई-पट्टीयों पर आक्रमण नहीं किया तब तक आक्रमणका कोई आदेश नहीं दिया था. भारतीय सेनाके पास, पाकिस्तानके उपर प्रत्याघाती आक्रमण करनेके अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं था. यह बात कई स्वयंप्रमाणित विद्वान लोग समज़ नहीं पाते है.

राजिव युगः

राजिव गांधीका पीएम-पदको स्विकारना ही उसका नैतिक अधःपतन था. उसकी अनैतिकताका एक और प्रमाण उसके शासनकालमें सिद्ध हो गया. बोफोर्स घोटालेमें स्वीस-शासन शिघ्रकार्यवाही न करें ऐसी चीठ्ठी लेके सुरक्षा मंत्रीको स्वीट्झर्लेन्ड भेजा था. यही उसकी अनीतिमत्ताको सिद्ध करती है.

सोनिया-राहुल युगः

इसके उपर चर्चाकी कोई आवश्यकता ही नहीं है. ये लोग अपने साथीयोंके साथ जमानत पर है. जिस पक्षके शिर्ष नेतागण ही जमानत पर हो उसका क्या कहेना?

कोंगीका पागलपनः

पागलपन के लक्षण क्या है?

प्रथम हमे समज़ना आवश्यक है कि पागलपन क्या है.

पागलपन को संस्कृतमें उन्माद कहेते है. उन्मादका अर्थ है अप्राकृतिक आचरण.

अप्राकृतिक आचारण. यानी कि छोटी बातको बडी समज़ना और गुस्सा करना, असंदर्भतासे ही शोर मचाना, कपडोंका खयाल न करना, अपनेको ही हानि करना, गुस्सेमें ही रहेना, हर बात पे गुस्सा करना …. ये सब उन्मादके लक्षण है.

कोंगी भी ऐसे ही उम्नादमें मस्त है.

अनुच्छेद ३७० और ३५ए को रद करने की मोदी सरकारकी क्रिया पर भी कोंगीयोंका प्रतिभाव कुछ पागल जैसा ही रहा है.    

यदि कश्मिरमें अशांति हो जाती तो भी कोंगीनेतागण अपना उन्माद दिखाते. कश्मिरमें अशांति नहीं है तो भी वे कश्मिरीयत और जनतंत्र पर कुठराघात है ऐसा बोलते रहेते है. अरे भाई १९४४से कश्मिरमें आये हिन्दुओंको मताधिकार न देना, उनको उनकी जातिके आधार पर पहेचानना और उसीके आधार पर उनकी योग्यताको नकारके उनसे व्यवसायसे वंचित रखना और वह भी तीन तीन पीढी तक ऐसा करना यह कौनसी मानवता है? कोंगी और उसके सहयोगी दल इस बिन्दुपर चूप ही रहेते है.

खूनकी नदियाँ बहेगी

जो नेता लोग कश्मिरमें अनुच्छेद ३७० और ३५ए को हटाने पर खूनकी नदियाँ बहानेकी बातें करते थे और पाकिस्तानसे मिलजानेकी धमकी देते थे, उनको तो सरकार हाउस एरेस्ट करेगी ही. ये कोंगी और उसके सांस्कृतिक सहयोगी लोग जनतंत्रकी बात करने के काबिल ही नहीं है. यही लोग थे जो कश्मिरके हिन्दुओंकी कत्लेआममें परोक्ष और प्रत्यक्ष रुपसे शरिक थे. उनको तो मोदीने कारावास नहीं भेजा, इस बात पर कोंगीयोंको और उनके सहयोगीयोंको मोदीका  शुक्रिया अदा करना चाहिये.

सरदार पटेल वैसे तो नहेरुसे अधिक कदावर नेता थे. उनका स्वातंत्र्यकी लडाईमें और देशको अखंडित बनानेमें अधिक योगदान था. नहेरुने सरदार पटेलके योगदानको महत्त्व दिया नहीं. नहेरुवंशके शासनकालमें नहेरुवीयन फरजंदोंके नाम पर हजारों भूमि-चिन्ह (लेन्डमार्क), योजनाएं, पुरस्कार, संरचनाएं बनाए गयें. लेकिन सरदार पटेल के नाम पर क्या है वह ढूंढने पर भी मिलता नहीं है.

अब मोदी सराकार सरदार पटेलको उनके योगदानका अधिमूल्यन कर रही है तो कोंगी लोग मोदीकी कटू आलोचना कर रहे है. कोंगीयोंको शर्मसे डूब मरना चाहिये.

महात्मा गांधी तो नहेरुके लिये एक मत बटोरनेका उपकरण था. कोंगीयोंके लिये जब मत बटोरनेका परिबल और गांधीवादका परिबल आमने सामने सामने आये तब उन्होंने मत बटोरनेवाले परिबलको ही आलिंगन दिया है. शराब बंदी, जनतंत्रकी सुरक्षा, नीतिमत्ता, राष्ट्रीय अस्मिताकी सुरक्षा, गौवधबंदी … आदिको नकारने वाली या उनको अप्रभावी करनेवाली कोंगी ही रही है.

कोंगी की अपेक्षा नरेन्द्र मोदी की सरकार, गांधी विचार को अमली बनानेमें अधिक कष्ट कर रही है. कोंगीको यह पसंद नहीं.

कोंगी कहेता है

गरीबोंके बेंक खाते खोलनेसे गरीबी नष्ट नहीं होनेवाली है,

संडास बनानेसे लोगोंके पेट नहीं भरता,

स्वच्छता लाने से मूल्यवृद्धि का दर कम नहीं होता,

हेलमेट पहननेसे भी अकस्मात तो होते ही है,

कोंगी सरकारके लिये तो खूलेमें संडास जाना समस्या ही नहीं थी,

कोंगी सरकारके लिये तो एक के बदले दूसरेके हाथमें सरकारी मदद पहूंच जाय वह समस्या ही नहीं थी,

कोंगी सरकारके लिये तो अस्वच्छता समस्या ही नहीं थी,

कोंगीके सरकारके लिये तो कश्मिरी हिन्दुओंका कत्लेआम, हिन्दु औरतों पर अत्याचार, हिन्दुओंका लाखोंकी संख्यामें बेघर होना, कश्मिरी हिन्दुओंको मताधिकार एवं मानव अधिकारसे से वंचित होना समस्या ही नहीं थी, दशकों से भी अधिक कश्मिरी हिन्दु निराश्रित रहे, ये कोंगी और उनके सहयोगी सरकारोंके लिये समस्या ही नहीं थी, अमरनाथ यात्रीयोंपर आतंकी हमला हो जाय यह कोंगी और उसकी सहयोगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी, उनके हिसाबसे उनके शासनकालमें  तो कश्मिरमें शांति और खुशहाली थी,

आतंक वादमें हजारो लोग मरे, वह कोंगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी,

करोडों बंग्लादेशी और पाकिस्तानी आतंकवादीयोंकी घुसपैठ, कोंगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी,

कोंगी और उनके सहयोगीयोंके लिये भारतमें विभाजनवादी शक्तियां बलवत्तर बनें यही एजन्डा है. बीजेपीको कोमवादी कैसे घोषित करें, इस पर कोंगी अपना सर फोड रही है?

मध्य प्रदेशकी कोंगी सरकारने वीर सावरकरके नाममेंसे वीर हटा दिया.

वीर सावरकर आर एस एस वादी था. इस लिये वह गांधीजीकी हत्याके लिये जीम्मेवार था. वैसे तो वीर सावरकर उस आरोपसे बरी हो गये थे. और गोडसे तो आरएसएसका सदस्य भी नहीं था. न तो आर.एस.एस. का गांधीजीको मारनेका कोई एजन्डा था, न तो हिन्दुमहासभाका ऐसा कोई एजन्डा था. अंग्रेज सरकारने उसको कालापानीकी सज़ा दी थी. वीर सावरकरने कभी माफी नहीं मांगी. सावरकरने तो एक आवेदन पत्र दिया था कि वह माफी मांग सकता है यदि अंग्रेज सरकार अन्य स्वातंत्र्य सैनानीयोंको छोड दें और केवल अपने को ही कैदमें रक्खे. कालापानीकी सजा एक बेसुमार पीडादायक मौतके समान थी. कोंगीयोंको ऐसी मौत मिलना आवश्यक है.

वीर सावरकर महात्मा गांधीका हत्यारा है क्यों कि उसका आर.एस.एस.से संबंध था. या तो हिन्दुमहासभासे संबंध था. यदि यही कारण है तो कोंगी आतंकवादी है, क्यों कि गुजरातके दंगोंका मास्टर माईन्ड कोंग्रेससे संलग्न था. कोंगी नीतिमताहीन है क्यों कि उसके कई नेता जमानत पर है, कोगीके तो प्रत्येक नेता कहीं न कहीं दुराचारमे लिप्त है. क्या कोंगीको कालापानीकी सज़ा नहीं देना चाहिये. चाहे केस कभी भी चला लो.

आज अंग्रेजोंका न्यायालय भारत सरकारसे पूछता है कि यदि युके, ९००० करोड रुपयेका गफला करनेवाला माल्याका प्रत्यार्पण करें तो उसको कारावासमें कैसी सुविधाएं होगी? कोंगीयोंने दंभ की शिक्षा अंग्रेजोंसे ली है.

दो कौडीके राजिव गांधी और तीन कौडीकी इन्दिरा नहेरु-गांधीको, बे-जिज़क भारत रत्न देनेवाली कोंगीको वीर सावरकरको भारत रत्नका पुरष्कार मिले उसका विरोध है. यह भी एक विधिकी वक्रता है कि हमारे एक वार्धक्यसे पीडित मूर्धन्य का कोंगीको अनुमोदन है. यह एक दुर्भाग्य है.

वीर सावरकर एक श्रेष्ठ स्वातंत्र्य सेनानी थे. उनका त्याग और उनकी पीडा अकल्पनीय है. सावरकरकी महानताकी उपेक्षा सीयासती कारणोंके फर्जी आधार पर नहीं की जा सकती.

कोंगीके कई नेतागण पर न्यायालयमें मामला दर्ज है. उनको कठोरसे कठोर यानी कि, कालापानीकी १५ सालकी सज़ा करो फिर उनको पता चलेगा कि वे स्वयं कितने डरपोक है.

कोंगी लोग कितने निम्न कोटीके है कि वे सावरकरका त्याग और पीडा समज़ना ही नहीं चाहते. ऐसी उनकी मानसिकता दंडनीय बननी चाहिये है.  

हमारे उक्त मूर्धन्यने उसमें जातिवादी (वर्णवादी तथा कथित समीकरणोंका सियासती आधार लिया है)

“महाराष्ट्रमें सभी ब्राह्मण गांधीजी विरोधी थे और सभी मराठा (क्षत्रीय) कोंग्रेसी थे. पेश्वा ब्राह्मण थे और पेश्वाओंने मराठाओंसे शासन ले लिया था इसलिये मराठा, ब्राह्मणोंके विरोधी थे. अतः मराठी ब्राह्मण गांधीके भी विरोधी थे. विनोबा भावे और गोखले अपवाद थे. १९६०के बाद कोई भी ब्राह्मण महाराष्ट्रमें मुख्य मंत्री नहीं बन सका. साध्यम्‌ ईति सिद्धम्‌” मूर्धन्य उवाच

यदि यह सत्य है तो १९४७-१९६०के दशकमें ब्राह्मण मुख्य मंत्री कैसे बन पाये. वास्तवमें घाव तो उस समय ताज़ा था?

१८५७के संग्राममें हिन्दु और मुस्लिम दोनों सहयोग सहकारसे संमिलित हो कर बिना कटूता रखके अंग्रेजोंके सामने लड सकते थे. उसी प्रकार ब्राह्मण क्षत्रीयोंके बीच भी कडवाहट तो रह नहीं सकती. औरंगझेब के अनेक अत्याचार होते हुए भी शिवाजीकी सेनामें मुस्लिम सेनानी हो सकते थे तो मराठा और ब्राह्मणमें संघर्ष इतना जलद तो हो नहीं सकता.

“लेकिन हम वीर सावरकरको नीचा दिखाना चाह्ते है इसलिये हम इस ब्राह्मण क्षत्रीयके भेदको उजागर करना चाहते है”

स्वातंत्र्य सेनानीयोंके रास्ते भीन्न हो सकते थे. लेकिन कोंग्रेस और हिंसावादी सेनानीयोंमें एक अलिखित सहमति थी कि एक दुसरेके मार्गमें अवरोध उत्पन्न नहीं करना और कटूता नहीं रखना. यह बात उस समयके नेताओंको सुविदित थी. गांधीजी, भगतसिंघ, सावरकर, सुभाष, हेगडेवार, स्यामाप्रसाद मुखर्जी … आदि सबको अन्योन्य अत्यंत आदर था. अरे भाई हमारे अहमदाबादके महान गांधीवादी कृष्णवदन जोषी स्वयं भूगर्भवादी थे. हिंसा-अहिंसाके बीचमें कोई सुक्ष्म विभाजन रेखा नहीं थी. सारी जनता अपना योगदान देनेको उत्सुक थी.

हाँ जी, साम्यवादीयोंका कोई ठीकाना नहीं था. ये साम्यवादी लोग रुसके समर्थक रहे और अंग्रेजके विरोधी रहे. जैसे ही हीटलरने रुस पर हमला किया तो वे अंग्रेज  सरकारके समर्थक बन गये. यही तो साम्यवादीयोंकी पहेचान है. और यही पहेचान कोंगीयोंकी भी है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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हमे परिवर्तन नहीं चाहिये. “जैसे थे” वाली ही परिस्थिति रक्खो” मूर्धन्याः उचुः – २

कोई भी मनुष्य आम कोटिका हो सकता है, युग पुरुषसे ले कर वर्तमान शिर्ष नेता की संतान या तो खुद नेता भी आम कोटिका हो सकता है.

“आम कोटिका मनुष्य” की पहेचान क्या है?

clueless

(कार्टुनीस्टका धन्यवाद)

जो व्यक्ति आम विचार प्रवाहमें बह जाता है, या,

जो व्यक्ति पूर्वग्रह का त्याग नहीं कर सकता,

जो व्यक्ति विवेकशीलतासे सोच नहीं सकता,

जिस व्यक्तिमें प्रमाण सुनिश्चित करके तुलना करनेकी क्षमता नही,

जिस व्यक्तिमें संदर्भ समज़नेकी क्षमता नहीं,

जिस व्यक्तिमें सामाजिक बुराईयोंसे (अनीतिमत्तासे) लडनेकी क्षमता नहीं,

जिस व्यक्तिमें अनीतिमत्ताको समज़नेकी क्षमता नहीं.

इन सभी गुणोंको, यदि एक ही वाक्यमें कहेना है तो, जिसमें समाजके लिये सापेक्षमें क्या श्रेय है वह समज़ने की क्षमता नहीं वह आम कोटिका व्यक्ति है. जो व्यक्ति स्वयं अपनेको आम कोटिका समज़े वह आम कोटिसे थोडा उपर है. क्यों कि वह व्यक्ति जिस विषयमें उसका ज्ञान नहीं, उसमें वह चंचूपात नहीं करता है.

हमारे कई मूर्धन्य आम कोटिके है.

प्रवर्तन मान समयमें देशके मूर्धन्य तीन प्रकारमें विभाजित है.

(१) मोदीके पक्षमें

(२) मोदीके विरुद्ध

(३) तटस्थ.

मोदीके पक्षमें है वे लोग, यदि हम कहें कि वे देश हितमें सोच रहे है, तो वह प्रवर्तमान स्थितिमें, सही है. लेकिन बादमें इनमेंसे कई लोगोंको बदलना पडेगा. इनमें मुस्लिम-फोबिया पीडित लोग और महात्मा गांधी-फोबिया पीडित लोग आते है. इसकी चर्चा हम करेंगे नहीं. लेकिन इन लोगोंका लाभ कोंगी प्रचूर मात्रामें लेती है.

मोदी का प्रतिभाव

कोंगीनेतागण स्वकेन्द्री और भ्रष्ट है. यह बात स्वयं सिद्ध है. यदि किसीको शंका है तो अवश्य इस लेखका प्रतिभाव दें.

कोंगीको आप स्वातंत्र्यका आंदोलन चलानेवाली कोंग्रेस नहीं कह सकते. क्यों कि वह कोग्रेस साधन शुद्धिमें मानती थी. और १९४८के पश्चात्य कालकी कोंग्रेस (कोंगी) साधन शुद्धिमें तनिक भी मानती नहीं है. कोंगीके नेताओंकी कार्यसूचिके ऐतिहसिक दस्तावेज यही बोलते है.

आतंकवादके साथ कोंगीयोंका मेलमिलाप या तो सोफ्ट कोर्नर, कोंगीयोंका कोमवाद और जातिवादको उत्तेजन, मोदीके प्रति कोंगीयोंकी निम्न स्तरकी सोच, कोंगीयोंका मीथ्या वाणीविलास … ये सब दृष्यमान है. कुछ मुस्लिम नेताओंकी सोच जैसे हिन्दुके विरुद्ध है उसी प्रकार इन कोंगीयोंकी सोच भी खूले आम विकृत है.

कोंगीयोंको की तो हम अवगणना कर सकते है. क्यों कि यह कोई नयी बात नहीं है. लेकिन मूर्धन्य लोग जो अपनेको तटस्थ मानते है वे भी प्रमाणकी तुलना किये बिना केवल एक दिशामें ही लिखते है.

साध्वी प्रज्ञा के उपर कोंगी सरकारने जो असीम अत्याचार करवाया वे हर नापदंडसे और निरपेक्षतासे घृणास्पद है. उसको पढके हर सद्‌व्यक्ति का खून उबल सकता है. साध्वी प्रज्ञाके उपर किये गये अत्याचार किससे प्रेरित थे. इस बात पर एक विशेष जाँच टीमका गठन करना चाहिये. और संबंधित हर पूलिसका, अफसरका और सियासती नेताओंकी पूछताछ होनी चाहिये.

यदि ऐसा नहीं होगा तो इन्दिरा गांधीकी तरह हर कोंगी और उसके हर सांस्कृतिक पक्षका नेता सोचेगा कि हमें तो किसीको भी कुछ भी करने की छूट है, जैसे इन्दिरा गांधीने १९७५-१९७६में किया था.

हमारे मूर्धन्योंको देखो. एक भी माईका लाल निकला नहीं जिसने इस मुद्दे पर चर्चा की हो. हाँ, इससे विपरीत ऐसे कटारीया (कोलमीस्ट) अवश्य निकले जिसने साध्वी प्रज्ञाकी बुराई की. ऐसे कटारीया लेखक साध्वी प्रज्ञाकी शालिन भाषासे भी उसकी सांस्कृतिक उच्चताकी अनुभूति नही कर पाये.  और देखो कटारिया लेखककी विकृतिकी कल्पना शीलता देखो कि उसने तो अपनी कल्पनाका उपयोग करके “साध्वी प्रज्ञाने एन्टी टेररीस्ट स्क्वार्ड के हेड हेमंत करकरे जब वे कसाबको गोली मार रहे थे तो साध्वी प्रज्ञाने हेमंत करकरेको श्राप दिया कि उस मासुम आतंकवादीको क्यों मारा? अब तुम भी मरोगे.”  और हेमंत करकरे मारे गये.

sadvi pragya tortured

यह क्या मजाक है? कल्पना कटारीया की, कल्पना चढाई साध्वी प्रज्ञाके नाम. प्रज्ञा – कसाब बहेन भाई, कौन कब कहाँ मरा और किसने मारा … इसके बारेमें कटारियाका घोर अज्ञान और घालमेल. एक साध्वी प्रज्ञाके उपर पोलिस कस्टडीमें घोर अत्याचार हुआ. लंबे अरसे तक अत्याचार होता रहा, अत्याचारकी जांच के बदले, अत्याचारको “मस्जिदमें गीयो तो कौन” करके एक मजाकवाला लेख लिख दिया ये कटारिया भाईने.

जिस साध्वी प्रज्ञाको न्यायालय द्वारा क्लीन चीट मीली है,लेकिन इस बातसे तो उनके उपर हुए अत्याचार का मामला और अधिक गंभीर बनता है.  साध्वी प्रज्ञाने कभी कसाब को मारनेके कारण करकरे तो श्राप दिया ऐसा कभी सुना पढा नहीं. साध्वी प्रज्ञाने स्वयंके उपर करकरेके कहेनेसे हुई यातना से करकरे को श्राप दिया ऐसा सूना है. कसाबको तो न्यायालयमें केस चला और उसको फांसीकी सज़ा हुई. कसाबकी फांसीके जल्लाद करकरे नहीं थे. करकरे तो कसाबसे पहेले ही आतंकवादीयोंके साथ मुठभेडमें मर गये थे. कसाब को मृत्युदंड २१ नवेम्बर २०१२ हुआ. और करकरे मुठभेडमें मरा २६ नवेम्बर २००८.

हिन्दु आतंकवद एक फरेब

साध्वी प्रज्ञाके कथनोंको पतला करनेके लिये कटारीयाभाईने उसको एक मजाकका विषय बना दिया. यह है हमारे मूर्धन्योंकी मानसिकता. ऐसी भद्दी मजाक तो कोंगीप्रेमी ही कर सकते है. किन्तु इससे क्या कोंगीका पल्ला भारी होता है?

अरुण शौरी लो या शेखर गुप्ता लो या प्रीतीश नंदी लो या अपनके स्वयं प्रमाणित शशि थरुर लो. या तो गीता पढाओ या तो इनको डॉ. आईनस्टाईन एन्ड युनीवर्स पढाओ या तो उनको कहो कि आपका पृथ्वीपरका करतव्य पूरा हुआ है और आप अब मौन धारण करो.

एक तरफ मोदी है, जिसने कभी संपत्ति संचयका सोचा नहीं, जिसने अपने संबंधीयोंको भी दूर रक्खा, वह अपने परिश्रमसे आगे आया और वह देशके हितके अतिरिक्त कुछ सोचता नहीं,

दुसरी तरफ है (१) कोंगीके नहेरुवीयनसे प्रारंभ करके, यानी कि सोनिया, राहुल,  चिदंबरम, दिग्विजय सिंह, अभिषेक मनु सिंघवी, मोतीलाल वोरा, साम पित्रोडा जैसे नेतागण जो बैल पर है, (२) मुलायम, अखिलेश, मायावती जिनके उपर अवैध तरीकोंसे संपत्ति प्राप्तिके केस चल रहे है, (३) ममता और उसके साथीयोंके उपर शारदा ग्रुप चीट फंडके कौभान्डके केस चल रहे है, और ममताका नक्षलवादीयोंके साथकी सांठगांठके बारेमें कभी भी खुलासा हो सकता है, (४) लालु प्रसाद कारावासके शलाखेकी गीनती कर रहे है और उसके कुटुंबीजन अवैध संपतिके केस चल रहे है.

उपरोक्त लोगोंने जे.एन.यु. के विभाजन वादी टूकडे टूकडे गेंगका और अर्बन नक्षलीयोंका खुलकर समर्थन किया है जिसमें कश्मिरके विभाजनवादी तत्त्व भी संमिलित है. ये योग आतंकवादीयोंके मानव अधिकारका समर्थन करनेमें कूदकर आगे रहेते है, लेकिन हिन्दुओंकी कत्लेआम और विस्थापित होने पर मौन है. देश की सुरक्षा पर भी मौन है.

यह भेद क्रीस्टल क्लीयर है. इसमें कोई विवादकी शक्यता नहीं. तो भी हमारे मूर्धन्य कटारीयाओंकी कानोंमे जू तक नहीं रेंगती. दशको बीत जाते है लेकिन उनके मूँहसे कभी “उफ़” तक नहीं निकलता. और जब कोई बीजेपी/मोदी फोबिया पीडित नेता जैसा कि राहुल, पित्रोडा, प्रयंका, सोनिया, मणी अय्यर, आझम, दीग्विजय, चिदंबरं, शशि, माया, ममता आदि कोई कोमवादी या जातिवादी टीप्पणी करता है और बीजेपीके कोई नेता उसका उत्तर देता है तो वे सामान्यीकरण करके एन्टी-बीजेपी गेंगकी कोमवादी जातिवादी टीप्पणीको अति डाईल्युट कर देते है. “इस चूनावमें नेताओंका स्तर निम्न स्तर पर पहूँच गया है ऐसा लिखके अपनी पीठ थपथपाते है कि स्वयं कैसे तटस्थ है.

मूर्धन्योंकी ऐसी तटस्थता व्यंढ है और ऐसे मूर्धन्य भी व्यंढ है जो अपनी विवेकशीलतासे जो वास्तविकता क्रीस्टल क्लीयर है तो भी, उसको उजागर न कर सके. इतनी सीमा तक स्वार्थी तो कमसे कम मूर्धन्योंको नहीं बनना चाहिये.     

इसके अतिरिक्त कोम्युनीस्ट पार्टी और कट्टरवादी मुस्लिम पक्ष है जिनकी एलफेल बोलनेकी हिमत कोंगीयोंने बढायी है. इनकी चर्चा हम नहीं करेंगे.

“जैसे थे” वाली परिस्थिति मूर्धन्योंको क्यूँ चाहिये? 

क्यूँ कि हमें पीला पत्रकारित्व चाहिये, हमें मासुम/मायुस चहेरेवाले लचीले शासकके शासनमें हस्तक्षेप करना है. हमें हमारे हिसाबसे मंत्रीमंडलमें हमारा कुछ प्रभाव चाहिये, हम एजन्टका काम भी कर सकें, हमे सुरक्षा सौदोमें भी हिस्सा चाहिये ताकि हमारा चेनल/वर्तमानपत्र रुपी मुखकमल बंद रहे. अरे भाई, हमे पढने वाले लाखों है, तो हमारा भी तो महत्त्व होना ही चाहिये न?

स्वय‌म्‌ प्रमाणित महात्मा गांधीवादीयोंका और गांधी-संस्था-गत क्षेत्रमें महात्मा गांधीके विचारोंका प्रचार करने वाले अधिकतर महानुभावोंका क्या हाल है?

इनमेंसे अधिकतर महानुभाव लोग आर.एस.एस. फोबियासे पीडीत होनेके कारण, एक पूर्वग्रहसे भी पीडित है. आर.एस.एस.में तो आपको नरेन्द्र मोदी और उनके साथी और कई सारे लोग मिल जायेंगे जो महात्मा गांधीके प्रति आदरका भाव रखते है और उनका बहुमान करते है. महात्मा गांधी के विचारोंका प्रसार करनेका जो काम कोंगीने नहीं किया, वह काम बीजेपीकी सरकारोंने गुजरात और देशभरमें किया है. इस विषय पर महात्मा गांधीवादी महानुभावोने नरेन्द्र मोदीका अभिवादन या प्रशंसा नहीं किया. लेकिन ये पूर्वग्रहसे पीडित महानुभावोंने ऐसे प्रश्न उठाये वैसे प्रश्न कोंगी शासन कालमें कभी नही उठाये गये. जैसे कि “मोदीको अपने कामका प्रचार करनेकी क्या आवश्यकता है? वह प्रचार करता है वही अनावश्यक है. काम तो अपने आप बोलेगा ही. मोदी स्वयं अपने कामोंकी बाते करता है यही तो उसका कमीनापन है.” “ मोदीने अंबाणीसे प्रचूर मात्रामें पैसे लिये. ऐसे पैसोंसे वह जीतता है.” कोंगीयोंकी तरह ये लोग भी प्रमाण देना आवश्यक नहीं समज़ते.

मा, माटी और मानुष

हमारे कथित गांधीवादी (दिव्यभास्कर के गुजराती प्रकाशन के दिनांक १६-०५-२०१९) मूर्धन्यको ममताके “मा माटी” में भावनात्मक मानस दृष्टिगोचर होता है, चाहे ममता पश्चिम बंगालमें प्रचारके लिये आये अन्य भाषीयोंको, “बाहरी” घोषित करके देशकी जनताको विभाजित करे.

पूरी भारतकी जनता एक ही है और उसमें विभाजनको अनुमोदन देना और बढावा देना “अ-गांधीवाद” है. गांधीजी जब चंपारणमें गये थे, तब तो किसीने भी उनको बहारी नहीं कहा था. और अब ये कथित गांधीवादी, “बाहरी”वाली मानसिकता का गुणगान कर रहे है.

यदि नरेन्द्र मोदीने गुजरातमें ऐसा किया होता तो?

तब तो ये गांधीवादी उनके उपर तूट पडते.

अब आप देखो और तुलना करो… नरेन्द्र मोदीने कभी “अपन” और “बाहरी’ वाला मुद्दा बनाया नहीं. तो भी ये लोग २००१से, मोदी प्रांतवादको उजागर करता है ऐसा कहेते रहेते है. वास्तवमें मोदी तो परप्रांतियोंका गुजरातके विकासमें दिये हुये योगदानकी सराहना करते रहेते है. लेकिन इन तथा-कथित गांधीवादीयोंका मानस ही विकृत हो गया है. इन लोंगोंको पश्चिम बंगालकी टी.एम.सी. द्वारा प्रेरित आपखुदी, सांविधानिक प्रावधानोंकी उपेक्षा, और हिंसा नहीं दिखाई देती. तब तो वे शाहमृगकी तरह अपना शिर, भूमिगत कर देते हैं. उपरोक्त गांधीवादी महानुभाव लोगोंने विवेक दृष्टि खो दी है. ईश्वर उनको माफ नहीं करेगा, चाहे उनको ज्ञात हो या नहीं. उपरोक्त गांधीवादीयोंके लिये इस सीमा तक कहेना इस कालखंडकी विडंबना है. तथाकथित महात्मा गांधीवादीयोंके वैचारिक विनीपातसे, हमारे जैसे अपूर्ण गांधीवादी शर्मींदा है. १९६४-१९७७में तो इन्दिरा नहेरु कोंग्रेस (आई.एन.सी.)की गेंगसे देशकी जनताको सुरक्षा देने के लिये जयप्रकाश नारायण, मैदानमें आ गये थे, किन्तु प्रवर्तमान समयमें, ये जूठसे लिप्त और भ्रष्टाचारसे प्लवित कोंगी, और उसके सांस्कृतिक साथीयोंकी अनेकानेक गेंगसे बचाने के लिये कोई गांधीवादी बचा नहीं है और जो है वे अक्षम है. यह युद्ध जनता और बीजेपीको ही लडना है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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why we write

with a curtsy to the cartoonists

हमे परिवर्तन नहीं चाहिये. “जैसे थे” वाली ही परिस्थिति रक्खो” मूर्धन्याः उचुः

(मूर्धन्याः उचुः = विद्वान लोगोंने बोला)

परिवर्तन क्या है? और “जैसे थे” वाली परिस्थिति से क्या अर्थ है?

नरेन्द्र मोदी स्वयं परिवर्तन लाना चाहता है. यह बात तो सिद्ध है क्यों कि उसने जिन क्षेत्रोमें परिवर्तन लानेका संकल्प किया है उनके अनुसंधानमें उसने कई सारे काम किये है.

परिवर्तन क्या है. परिवर्तन तो प्रकृति भी करती है.

वास्तवमें परिवर्तनमें शिघ्रताकी आवश्यकता है. क्यों कि शिघ्रताके अभावमें जो परिवर्तन होता है उसको परिवर्तन नहीं कहा जाता. शिघ्रतासे हुए परिवर्तनको क्रांति भी बोलते है.

“होती है चलती है… पहले अपना हिस्सा सुनिश्चित करो …“

ऐसी मानसिकता रखके जो परिवर्तन होता है उसमें विलंबसे होता है और विलंबसे अनेक समस्या उत्पन्न होती है. वे समस्या प्राकृतिक भी होती है और मानव सर्जित भी होती है. और अति विलंबको परिवर्तन कहा ही नहीं जा सकता. वैसे तो प्रकृति स्वयं परिवर्तन करती है. ऐसे परिवर्तनसे ही मानव, पेडसे उतरकर कर भूमि पर आया था. पेडसे भूमि की यात्रा एक जनरेशन में नहीं होती है.  इस प्रकार अति विलंबसे होने वाले परिवर्तन को उत्क्रांति (ईवोल्युशन) कहा जाता है.

कोंगीयोंने भी परिवर्तन किया है. किन्तु उनका परिवर्तन उत्क्रांति (ईवोल्युशन) जैसा है.

(ईवोल्युशनमे कभी प्रजातियाँ या तत्त्व नष्ट भी हो जाते है.)

उदाहरण के लिये तो कई परिकल्पनाएं है (केवल गुजरातका ही हाल देखें).

(१) जैसे कि नर्मदा योजना (योजनाकी कल्पना वर्ष १९३६. योजनाका निर्धारित समाप्तिकाल २० वर्ष. वास्तविक निर्धारित समाप्ति वर्ष २०२२).

(२) मीटर गेज, नेरो गेज का ब्रोड गेजमें परिवर्तन (परिकल्पना की कल्पना १९५२)

वास्तविकताः महुवा-भावनगर नेरोगेज उखाड दिया, डूंगर – पोर्ट विक्टर उखाड दिया, राजुला रोड राजुला उखाड दिया, गोधरा- लुणावाडा उखाड दिया, चांपानेर रोड पावागढ उखाड दिया, मोटा दहिसरा – नवलखी उखाड दिया, जामनगर (कानालुस)  – सिक्का उखाड दिया. अब यह पता नहीं कि ये सब रेल्वे लाईन ब्रॉडगेजमें कब परिवर्तित होगी.

भावनगर-तारापुर, मशीन टुल्सका कारखाना ये कल्पना तो गत शतकके पंचम दशक की है. जिसमे स्लीपरका टेन्डर भी निकाला है ऐसे समाचार चूनावके समय पर समाचार पत्रोंमे आया था. दोनों इल्ले इल्ले. ममताके रेल मंत्री दिनेश त्रीवेदीने गत दशकमें रेल्वेबजटमें उल्लेख किया था. किन्तु बादमें इल्ले इल्ले.

परिवर्तनके क्षेत्र?

नरेन्द्र मोदीकी सरकारने काम हाथ पर तो लिया है, लेकिन कोंगीके शासकोंने जो ७० वर्षका विलंब किया है वह अक्षम्य है.

चीन १९४९में नया शासन बना. १४ वर्षमें वह भारत देश जैसे बडे देशको हरा सकनेमें सक्षम हो गया. आप कहोगे कि वहां तो सरमुखत्यारी (साम्यवादी) शासान था. वहां जनताके अभिप्रायोंकी गणना नहीं हो सकती. इसलिये वहां सबकुछ हो सकता है.

अरे भाई सुरक्षासे बढकर बडा कोई काम नहीं हो सकता. सुरक्षाका काम भी विकासका काम ही है. विकासके कामोंमे कभी भारतकी जनताने उस समय तो कोई विरोध करती नहीं थी. आज जरुर विकासके कामोंमें जनता टांग अडाती है. लेकिन इसमें सरकारी (कर्मचारीयोंका) भ्रष्टाचार और विपक्षकी सियासत अधिक है. ये सब कोंगीकी देन है. विकासके कामोसे ही रोजगार उत्पन्न होता है.   

मूलभूत संरचना का क्षेत्रः

इसमें मार्ग, यातायात संसाधन, जलसंसाधन,   विद्युत उत्पादन, उद्योग (ग्रामोद्योग भी इनमें समाविष्ट है). नरेन्द्र मोदीने इसमें काफि शिघ्रगतिसे काम किया है. इसके विवरणकी आवश्यकता नहीं है.

उत्पादन क्षेत्रः उद्योगोंके लिये भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया, यातायातकी सुविधा, विद्युतकी सुविधा, जल सुविधा और मानवीय कुशलता आवश्यक है.

कोंगीको तो मानव संसाधनके विषयमें खास ज्ञान ही नहीं था. उसने तो ब्रीटीश शिक्षा प्रणाली के अनुसार ही आगे बढना सोचा था. पीढीयोंकी पीढीयों तक जनताको निरक्षर रखा था. समय बरबाद किया.

नरेन्द्र मोदीने गुजरातमें प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य किया था. स्कील डेवेलोप्मेन्टकी संस्थाएं खोली. बेटी बचाओ, बेटी बढाओ अभियान छेडा.

न्याय का क्षेत्रः

कोंगीने तो न्यायिक प्रक्रीया ही इतनी जटील कर दी कि सामान्य स्थितिका आदमी न्याय पा ही न सके. नरेन्द्र मोदीने कई सारे (१५००) नियमोंको रद कर दिया है. इसमें और सुधार की आवश्यकता है.

शासन क्षेत्रः

भारतमें कोंगीका शासन एक ऐसा शासन था कि जिसमें साम्यवाद, परिवारवाद, सरमुखत्यार शाही और जनतंत्रका मिलावट थी. इससे हर वादकी हानि कारक तत्व भारतको मिले. और हर वादके लाभ कारक तत्त्व कोंगीके संबंधीयोंको मिले.

सामाजिक क्षेत्रः

कोंगीने   जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, आर्थिक स्थिति … आदिके आधार पर विभाजन कायम रक्खा. उतना ही नहीं उसको और गहरा किया. समाजको विभाजित करने वाले तत्त्वोंको महत्त्व दिया. लोगोंकी नैतिक मानसिकता तो इतनी कमजोर कर दी की सामान्य आदमी स्वकेन्द्री बन गया. उसके लिये देशका हित और देशका चारित्र्य का अस्तित्व रहा ही नहीं. आम जनताको गलत इतिहास पढाया और उसीके आधार पर देशकी जनताको और विभाजित किया.

कोंगीने यदि सबसे बडा राष्ट्रीय अपराध किया है तो वह है मूर्धन्योंकी मानसिकताका विनीपात.

मूर्धन्य कौन है?

वैसे तो हमे गुजरातीयोंको प्राथमिक विद्यालयमें पढाया गया था कि जिनका साहित्यमें योगदान होता है वे मूर्धन्य है. अर्वाचीन गुजरातके सभी लेखक गण मूर्धन्य है.

माध्यमिक विद्यालयमें पढाया गया कि जो भी लिखावट है वह साहित्यका हिस्सा है.

हमारे जयेन्द्र भाई त्रीवेदी जो हिन्दीके अध्यापक थे उन्होंने कहा कि जो समाजको प्रतिबिंबित करके बुद्धियुक्त लिखता है  वह मूर्धन्य है. तो इसमें सांप्रत विषयोंके लेखक, विवेचक, विश्लेषक, अन्वेषक, चिंतक, सुचारु संपादक, व्याख्याता … सब लोग मूर्धन्य है….

कोंगीने मूर्धन्योंका ऐसा विनीपात करने में क्या भूमिका अदा की है?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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कोंगी का नया दाव -३

“हमने कभी हमसे विरुद्ध अभिप्राय रखनेवालोंको देश द्रोही नहीं समज़े” अडवाणी उवाच.

अडवाणीके इस कथनको एन्टी-मोदी-गेंग उछालेगी.

“हमसे विरुद्ध अभिप्राय” इस कथनका कोई मूल्य नहीं है, जब तक आप इस कथनके संदर्भको गुप्त रखें. सिर्फ इस कथन पर चर्चा चलाना एक बेवकुफी है, जब आप इसका संदर्भ नहीं देतें.

Tometo and couliflower

मुज़े टमाटर पसंद है और आपको फुलगोभी. मेरे अभिप्रायसे टमाटर खाना अच्छा है. आपके अभिप्रायसे फुलगोभी अच्छी है. इसका समाधान हो सकता है. आरोग्यशास्त्रीको और कृषिवैज्ञानिकको बुलाओ और सुनिश्चित करो कि एक सुनिश्चित विस्तारकी भूमिमें सुनिश्चित धनसे और सुनिश्चित पानीकी उपलब्धतामें जो उत्पादन हुआ उसका आरोग्यको कितना लाभ-हानि है. यदि वैज्ञानिक ढंगसे देखा जाय तो इसका आकलन हो सकता है. मान लो कि फुलगोभीने मैदान मार लिया.

कोई कहेगा, आपने तो वैज्ञानिक ढंगसे तुलना की. लेकिन आपने दो परिबलों पर ध्यान नहीं दिया. एक परिबल है टमाटरसे मिलनेवाला आनंद और दुसरा परिबल है आरोग्यप्रदतामें जो कमी रही उसकी आपूर्ति करनेकी मेरी क्षमता. यदि मैं आपूर्ति करनेमें सक्षम हूँ तो?

अब आप यह सोचिये कि टमाटर पर पसंदगीका अभिप्राय रखने वाला कहे कि फुलगोभी वाला देशद्रोही है. तो आपको क्या कहेना है?

वास्तवमें अभिप्रायका संबंध तर्क से है. और दो विभिन्न अभिप्राय वालोंमे एक सत्यसे नजदिक होता है और दुसरा दूर. जो  दूर है वह भी शायद तीसरे अभिप्राय वाली व्यक्तिकी सापेक्षतासे सत्यसे समीप है.

तो समस्या क्या है?

उपरोक्त उदाहरणमें, मान लो कि, प्रथम व्यक्ति सत्यसे समीप है, दूसरा व्यक्ति सत्यसे प्रथम व्यक्तिकी सापेक्षतासे थोडा दूर है. लेकिन दुसरा व्यक्ति कहेता है कि यह जो दूरी है उसकी आपूर्तिके लिये मैं सक्षम हूँ. अब यदि तुलना करें तो तो दूसरा  व्यक्ति भी सत्यसे उतना ही समीप हो गया. और उसके पास रहा “आनंद” भी.

य.टमाटर+क्ष१.खर्च+य१.आरोग्य+झ.आनंद+आपूर्तिकी क्षमता = र.फुलगोभी+क्ष१.खर्च+य२.आरोग्य+झ.आनंद जहाँ  आनंद समान है बनाता है जब य१.आरोग्य +आपूर्तिकी क्षमता=  य२.आरोग्य होता है.

जब आपूर्तिकी क्षमता होती है तो दोनों सत्य है. या तो कहो कि दोनों श्रेय है.

लेकिन विद्वान लोग गफला कहाँ करते है?

आपूर्तिकी क्षमताको और आनंदकी अवगणनाको समज़नेमें गफला करते है.

कई कोंगी-गेंगोंके प्रेमीयोंने जे.एन.यु. के नारोंसे देशको क्या हानि होती है (हानि = ऋणात्मक आनंद) उसकी अवगणना की है. और उस क्षतिकी आपूर्तिकी क्षमताकी अवगणना की है. क्यों कि उनकी समज़से यह कोई अवयव है ही नहीं. उनकी प्रज्ञाकी सीमासे बाहर है.

जब दो भीन्न अभिप्रायोंका संदर्भ दिया तो पता चल गया कि इसको देश द्रोहसे कोई संबंध नहीं. और ऐसे कथनको यदि कोई अपने मनमाने और अकथित संदर्भमें ले ले तो यह सिर्फ सियासती कथन बन जाता है.

जे.एन.यु. के कुछ “तथा कथित विद्यार्थीयों”के नारोंसे देशका हित होता है क्या?

“मुज़से अलग मान्यता रखनेवालोंको मैंने देश द्रोही नही समज़ा” अडवाणीका यह कथन अन्योक्ति है, या अनावश्यक है या मीथ्या है.

कुछ लोग जे.एन.यु. कल्चरकी दुहाई क्यों देते हैं?

राहुल घांडी और केजरीवाल खुद उनके पास गये थे और उन्होंने जे.एन.यु.की टूकडे टूकडे गेंगको सहयोग देके बोला था कि, आप आगे बढो, हम आप लोगोंके साथ है. विद्वानोंने इस गेंगके  नारोंको बिना दुहराये इसके उपर तात्विक चर्चा की कि नारोंसे देशके टूकडे नहीं होते. नारे लगाना अभिव्यक्तिके स्वातंत्र्यके अंतर्गत आता है.

यदि अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताकी ही बात करें तो,  तो बीजेपी या अन्य लोग भी अपनी अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताके कारण इसकी टीका कर सकते हैं. यदि आप समज़ते है कि ऐसे प्रतिभाव देने वाले असहिष्णु है तो,  संविधानके अनुसार आप दोनों एक दुसरेके उपर कार्यवाही करनेके लिये मूक्त है.

क्या टूकडे टूकडे गेंग वालोंने और उनके समर्थकोंने इस असहिष्णुता पर केस दर्ज़ किया?  नारोंके विरोधीयोंके विरुद्ध नारे लगानेवालों  पर भी आप केस दर्ज करो न.

जिनको उपरोक्त  गेंगके नारे, देशद्रोही लगे वे तो न्यायालयमें गये. गेंगवाले भी अपनेसे विरुद्ध अभिप्राय रखनेवालोंके विरुद्ध न्यायालयमें जा सकते है. न्यायालयने तो, देशविरोधी नारे लगानेवाली गेंगके नेताओं पर प्रारंभिक फटकार लगाई.

जब देशके टूकडे टूकडे करनेके नारे वालोंको विपक्षोंका और समाचार माध्यमोंका खूलकर समर्थन मिला तो ऐसे नारे वाली घटनाएं अनेक जगह बनीं.

फिर भी एक चर्चा चल पडी कि अपने अभिप्रायसे भीन्न अधिकार रखनेवालोंको देश द्रोही समज़ना चाहिये या नहीं. बस हमारे आडवाणीने और मोदी विरोधियोंने यही शब्द पकड लिये. जनताको परोक्ष तरिकेसे गलत संदेश मिला.   

सेनाने सर्जीकल स्ट्राईक किया, सेनाने एर स्ट्राईक किया और उन्होंने ही उसकी घोषणा की. पाकिस्तानने तो अपनी आदतके अनुसार नकार दिया. कुछ विदेशी अखबारोंने अपने व्यापारिक हितोंकी रक्षाके लिये इनको अपने तरिकोंसे नकारा. लेकिन हमारी कोंगी-गेंगोंने भी नकारा.

यह क्या देशके हितमें है?

क्या इससे जो अबुध जनताके मानसको यानी कि देशको, जो नुकशान होता है उसकी आपूर्ति हो सकती है?

इसके पहेले विमुद्रीकरण वाले कदमके विरुद्ध भी यही लोग लगातार टीका करते रहे. “ फर्जी करन्सी नोटें राष्ट्रीयकृत बेंकोंके ए.टी.एम.मेंसे निकले, इस हद तक फर्जी करन्सी नोटोंकी व्यापकता हो” ऐसी स्थितिमें फर्जी करन्सी नोटोंको रोकनेका एक ही तरिका था और वह तरिका, विमुद्रीकरण ही था. और इसके पूर्व मोदीने पर्याप्त कदम भी उठाये थे. विमुद्रीकरण पर गरीबोंके नाम पर काले धनवालोंने अभूत पूर्व शोर मचाया था. लेकिन कोई माईका लाल, ऐसा मूर्धन्य, महानुभाव, प्रकान्ड अर्थशास्त्री निकला नहीं जो विकल्प बता सकें. विमुद्रीकरणकी टीका करनेवाले  सबके सब बडे नामके अंतर्गत छोटे व्यक्ति निकले.

 “चौकीदार चोर है” राहुल के सामने बीजेपीका “मैं भी चौकीदार हूँ”

यह भी समाचार पत्रोमें चला. मूर्धन्य कटारिया (कोलमीस्ट्स) लोग “चौकीदार” शब्दार्थकी, व्युत्पत्तिकी, समानार्थी शब्दोंकी, उन शब्दोंके अर्थकी,   चर्चा करनेमें अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करने लगे. प्रीतीश नंदी उसमें एक है. यह एक मीथ्या चर्चा है हम उसका विवरण नहीं करेंगे.

राहुलका अमेठीसे केरलके वायनाड जाना.

समाचार माध्यम इस मुद्देको भी उछाल रहे है. इसकी तुलना कोंगी-गेंगोंके सहायक लोग, २०१४में मोदीने दो बेठकोंके उपर चूनाव लडा था, उसके साथ कर रहे है.

वास्तवमें इसमें तो राहुल घांडी, अपने कोमवादी मानसको ही प्रदर्शित कर रहे है. जिस बैठक पर राहुल और उसके पूर्वज लगातार चूनाव लडते आये हैं और जितते आये हैं, उस बैठक पर भरोसा न होना या न रखना, और चूंकि, वायनाडमें  मुस्लिम और ख्रीस्ती समुदाय बहुमतमें है और चूं कि आपने (कोंगी वंशवादी फरजंदोंने) उनको आपका मतबेंक बनाया है, इसलिये आप (राहुल घांडी)ने वायनाड चूना, उसका मतलब क्या हो सकता है? कोंगी लोगोंको और उनको अनुमोदन करनेवालोंको या तो उनकी अघटित तुलना करनेवालोंको कमसे कम सत्यका आदर करना चाहिये. कोमवादीयोंको सहयोग देना नहीं चाहिये.

सत्य और श्रेय का आदर ही जनतंत्रकी परिभाषा है.

मोदीकी कार्यशैली पारदर्शी है. मोदीने अपने पदका गैरकानूनी लाभ नहीं लिया, मोदीने अपने संबंधीयोंको भी लाभ लेने नहीं दिया है, मोदीका मंत्री मंडल साफ सुथरा है, मोदीने संपत्तिसे जूडे नियमोंमें पर्याप्त सुधार किया है, मोदीने अक्षम लोगोंकी पर्याप्त सहायता की है, मोदीने अक्षम लोगोंको सक्षम बनानेके लिये पर्याप्त कदम उठाये है, मोदीने विकासके लिये अधिकतर काम किया है.

इसके कारण मोदीके सामने कोई टीक सकता, और कोई उसके काबिल नहीं है, तो भी कुछ मूर्धन्य लोग मोदी/बीजेपीके विरुद्ध क्यों पडे है?

मोदीने पत्रकारोंकी सुविधाएं खतम कर दी. कुछ मूर्धन्योंको महत्व देना बंद कर दिया. इससे इन मूर्धन्य कोलमीस्टोंके अहंकार को आघात हुआ है. सत्य यही है. जो सुविधाओंके गुलाम है, उनका असली चहेरा सामने आ गया. ये लोग स्वकेन्द्री थे और अपने व्यवसायको “देशके हितमें कामकरनेवाला दिखाते थे” ये लोग एक मुखौटा पहनके घुमते थे. यह बात अब सामने आ गयी. लेकिन  इन महानुभावोंको इस बातका पता नहीं है !

ये लोग समज़ते है कि वे शब्दोंकी जालमें किसीभी घटनाको और किसी भी मुद्देको, अपने शब्द-वाक्य-चातुर्यसे मोदीके विरुद्ध प्रस्तूत कर सकते है.

समाचार पत्रोंके मालिकोंका “चातूर्य” देखो. चातूर्य शब्द वैसे तो हास्यास्पद है, लेकिन कुछ उदाहरण देख लो.

अमित शाहने गांधीनगरसे चूनावमें प्रत्याषीके रुपमें आवेदन दिया.

इसके उपर दो पन्नेका मसाला दिया. निशान दो व्यक्ति है. एक है अडवाणी. दुसरे है राजनाथ सिंघ. अभी इसके उपर टीप्पणीयोंकी वर्षा  हो रही है. और अधिक होती रहेगी.

अडवाणीको बिना पूछे उनकी संसदीय क्षेत्रके उपर अमित शाहको टीकट दी. “यह अडवाणीका अपमान हुआ.”

हमारे राहुलबाबाने बोला कि “मोदीने जूते मारके अडवाणीको नीचे उतारा. क्या यह हिन्दु धर्म है?”-राहुल.

तो हमारे “डी.बी. (दिव्य भास्कर गुजराती प्रकाशन)भाईने सबसे विशाल अक्षरोमें प्रथम पृष्ठ पर, यह कथन छापा. और फिर स्वयं (डी.बी.भाई) तो तटस्थ है, वह दिखानेके लिये, छोटे अक्षरोंमें  लिखा कि “मोदीको मर्यादा सिखानेके चक्करमें खुद मर्यादा भूले”.

डी.बी. भाईको “मोदीने अडवाणीको जूते मारके नीची उतारा … क्या यह हिन्दु धर्म है? “ कथन अधिक प्रभावशाली बनानेका था. इस लिये इस कथनको अतिविशाल अक्षरोंमें छापा. राहुल तो केवल मर्यादा भूले. राहुलका “अपनी मर्यादा भूलना” महत्वका नहीं है. “जूता मारना” वास्तविक नहीं है. लेकिन राहुलने कहा है, और वैसे भी “जूता मारना” एक रोमांचक प्रक्रिया है न. इस कल्पनाका सहारा वाचकगण लें, तो ठीक रहेगा. यदि डी.बी.भाईने इससे उल्टा किया होता तो?

डी.बी. भाई यदि सबसे विशाल अक्षरोंमें छापते कि “मोदीको मर्यादा की दूहाई देनेवाले राहुल खुद मर्यादा भूले” और जो शाब्दिक असत्य है उसको छापते तो …? तो पूरा प्रकाशन राहुलके विरुद्ध जाता. जो राहुल के विरुद्ध है उसका विवरण अधिक देना पडता. मजेकी बात यही है कि डी.बी.भाई ने राहुलकी मर्यादा लुप्तताका कोई विवरण नहीं दिया. राहुलका “अडवाणीका टीकट और हिन्दु धर्मको जोडना” उसकी मानसिकता प्रकट करता है कि वह हर बातमें धर्मको लाना चाहता है. डी.बी. भाईने इस बातका भी विवरण नहीं किया.   

अडवाणीको टीकट न देना कोई मुद्दा ही नहीं है. जो व्यक्ति ९२ वर्ष होते हुए भी अपनी अनिच्छा प्रकट करने के बदले  मौन धारण करता है. फिर पक्षका एक वरिष्ठ होद्देदार उसके पास जा कर उसकी अनुमति लेता है कि उनको टीकट नहीं चाहिये. फिर भी, बातका बतंगड बनानेकी क्या आवश्यकता?

यही पत्राकार, मूर्धन्य, कोलमीस्ट लोग जब १९६८में इन्दिरा गांधीने कहा “मेरे पिताजीको तो बहूत कुछ करना था लेकिन ये बुढ्ढे लोग मेरे पिताजीको करने नहीं देते थे”. तब इन्ही लोंगोंने उछल उछल कर इन्दिराका समर्थन किया था. किसी भी माईके लालने इन्दिराको एक प्रश्न तक नहीं किया कि, “कौनसे काम आपके पिताजी करना चाहते थे जो इन बुढ्ढे लोगोंने नहीं करने दिया”.

यशवंत राव चवाणने खुल कर कहा था कि हम युवानोंके लिये सबकुछ करेंगे लेकिन बुढोंके लिये कुछ नहीं करेंगे. और इन्ही लोगोंने तालिया बजायी थीं. आज यही लोग बुढ्ढे हो गये या चल बसे, और भी “गरीबी रही”.

जिन समाचार पत्रोंको बातका बतंगड बनाना है और उसमें भी बीजेपीके विरुद्ध तो खासम खास ही, उनको कौन रोक सकता है?

पत्रकारित्व पहेलेसे ही अपना एजन्डा रखते आया है. ये लोग महात्मा गांधीकी बाते करेंगे लेकिन महात्मा गांधीका “सीधा समाचार”देनेके व्यवहारसे दूर ही रहेंगे. महात्मा गांधीकी ऐसी तैसी.

देश दो हिस्सेमें विभाजित हो गया है;

एक तरफ है विकास. जिसका रीपोर्ट कार्ड “ओन-लाईन” पर भी उपलब्ध है,

सबका साथ सबका विकास,

सुशासन, सुविधा और पारदर्शिता,

दुसरी तरफ है

वंशवादी, स्वकेन्द्री, भ्रष्टताके आरोपवाले नेतागण जिनके उपर न्यायालयमें केस चल रहे हैं और वे जमानत पर है, जूठ बोलनेवाले, “वदतः व्याघात्” वाले (अपनके खुदके कथनो पर विरोधाभाषी हो), जातिवाद, कोमवाद, क्षेत्रवाद आदि देशको विभाजित करने वाले पक्ष और उनके समर्थक, “जैसे थे परिस्थिति” को चाहने वाले. ये लोग देशके नुकशानकी आपूर्ति करनेमें बिलकुल असमर्थ है. इनका नारा है “मोदी हटाओ” और देशको सुरक्षा देनेवाले कानूनोंको हटाओ.

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इसमें क्या निहित है इसकी चर्चा कोई समाचार पत्र या टीवी चेनल नहीं करेगा क्यों कि वैसे भी यही लोग स्वस्थ चर्चामें मानते ही नहीं है.

 

स्वयं लूटो और अपनवालोंको भी लूटने  दो. जन तंत्रकी ऐसी तैसी… समाचार माध्यम भी यह सिद्ध करनेमें व्यस्त है कि बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिलनेवाला नहीं है और एक मजबुर सरकार बनने वाली है. यदि वह कोंगी-गेंगवाली सरकार बनती है, तो वेल एन्ड गुड. और यदि वह बीजेपीकी गठजोड वाली सरकार हो तो हमें तो उनकी बुराई करनेका मौका ही मौका है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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कोंगी गेंग की एक और चाल – १

कोंगी गेंग की एक और चाल – १

आप समज़ते होगे कि पुलवमामें एक आतंकी हमला करवानेमें भारतकी कोंगी-गेंग-संगठनने,  [जिसमें विपक्षी संगठनके साथ साथ, टूकडे टूकडॅ गेंग, कश्मिरकी विभाजनवादी गेंग सामिल है उसने, पाकिस्तान, आइ.एस.आइ., पाकिस्तानी सेना …] कुछ बडी गलती कर दी. आप यह भी सोचते होगे कि कोंगी गेंगको लगता होगा कि यह तो पासा उलटा पड गया.

इस घटनामें दो शक्यताएं है. या तो इस गेंग संगठनने विस्तृत आयोजन नहीं किया होगा या तो आतंकी गेंगको आतंकी हमला करना है, इतना ही सिर्फ निर्णय किया होगा. समयके बारेमें सुनिश्चित निर्णय लिया नहीं होगा.

समय को सुनिश्चित करनेमें कोंगी गेंग संगठनकी क्या कठिनाइयां हो सकती है?

कोंगीयोंको पहेलेसे ही मालुम नहीं पडा था कि चूनावकी घोषणा किस तारिखको होने वाली है.

वैसे तो, कोंगीके कई मददगार, सरकारके हर विभागमें डटके बैठे हुए है. यानी कि, प्रशासनमें, न्यायालयमें, चूनाव आयोगमें और सुरक्षा संस्थाओमें. क्यों कि सामान्यतः व्यक्ति सहायकके प्रति कृतज्ञ बना रहेता है. वह कृतघ्न नहीं बनता. कोंगी और उनके बीचमें लेनदेनका संबंध रहेता है. भीन्न भीन्न किस्सेमें कैसी लेन देन होगी, वह संशोधनका विषय है.

तो कोंगी गेंगकी कहाँ चूक हो गई?

ऐसा लगता है कि, नरेन्द्र मोदीके शासन व्यवस्था तंत्रमें, कोंगी अपने पालतु जासुसोंसे पक्की माहिति नहीं निकलवा पाया. या तो कोंगीको गलत माहिति मिली. क्यों कि इमानदार होना भी एक चीज़ है.

मोदी सरकारके पास इन पुट तो थे ही कि, यह कोंगी-गेंग-संगठन कुछ आतंकी हमला तो करवाने वाला है. और चूनावके पहेले कुछ अनहोनी होने वाली है. हो सकता है कश्मिरसे दूर दूर तक जैसे २००८में मुंबई मे ब्लास्ट करवाया था, ऐसा ब्लास्ट फिर एक बार करवा दे, और उससे कौमी-दंगे कमसे कम मुंबईमें/या तो सूचित शहर/शहरोमें तो हो ही जाय. स्थानिक बीजेपी सरकार उसके उपर नियंत्रण तो कर लें, लेकिन इस दरम्यान कोंगी-गेंग-संगठन कई अफवाहें फैला सकता है.

लेकिन हुआ यह कि आतंकवादी गेंगका धैर्य कम पडा या तो भारतके भीतरी भागमें आतंकी हमला करवाना और वह भी बीजेपी शासित राज्य/राज्योंमे  हमला करवाना उसके बसकी बात न रही. कश्मिरमें दो प्रकारके आतंकवादी है. सीमापारके और कोंगी शासन दरम्यान पैदा किये  कश्मिरके भीतरी आतंकवादी और उसके सहायक.

बीजेपीका तो “ओल आउट” अभियान जारी है. धर्मांधताकी और उनको हवा देनेवालोंकी यदि मिसाल चाहिये तो आप कश्मिरके कुछ नेताओंके कथनोंको देख लिजिये. उनको हवा देने वाले कोंगी और उनके सांस्कृतिक कश्मिरी सहयोगीयों के कथनोंको देख लिजिये. कश्मिरीके विभाजवादी और पाकिस्तान परस्त नेताओंके विरुद्ध कुछ नये कदम तो बीजेपीने उठाये है. कश्मिरमें आतंकवाद मरणासन्न किया है. आतंकवादके नाम पर मुस्लिमोंका वोट ईकठ्ठा करना अब कोंगी गेंगके लिये इतना आसान नही है.

अब कोंगी गेंग करेगी क्या?

कोंगी गेंग अपनी लडाई जारी रखेगी. जो पेइड मीडीया (प्रेस्टीट्युट) है उनके लेखकोंके भूगतानमें वृद्धि तो होगी ही. क्यों कि कोंगी-गेंगके सहयोगी इन मूर्धन्योंका काम थोडा और कठिन हो रहा है.

अब इन मूर्धन्योंका लक्ष्य है अर्ध दग्ध जनता और निरक्षर जनताको गुमराह करना.

इन अदाओंपर मीडीयाको आफ्रिन बनना है

निरक्षर जनतामें, जो मोदी शासन दरम्यान लाभान्वित है, वह जनता तो मोदी भक्त हो ही गई है. जो जनताका हिस्सा बच गया है, उनको पैसे, जातिवाद, प्रदेशवाद, भाषा वाद और धर्मके नाम पर बहेकाना है. हो सकता है कि कोंगी गेंग इनको असमंजसमें डालके उनको मतदानसे रोके या तो “नोटा-बटन” दबानेको प्रेरित करें. कोंगी गेंगकी मुराद तो बेलेट पेपर लाना था जिससे बुथ केप्चरींग आसान रहे.

कोंगी गेंग जो नरेन्द्र मोदी/बीजेपी के विरुद्ध हवा (माहोल) बनाना चाहती है, उसमें ये निरक्षर लोग कितने सहयोगी बनेंगे यह बात सुनिश्चित नहीं है.

लेकिन अर्धदग्ध लोगोंको असमंजस अवस्थामें लाना कोंगी गेंगके लिये अधिक आसान है.

वह कैसे?

बेकारीमें वृद्धि, महंगाई और किसानोंकी समस्या, इनके बारेमें जूठ फैलाना कोंगी गेंगके लिये आसान है. वैसे तो हमारे मित्र बंसीभाई पटेल कहेते है कि उनको ₹५००/- प्रतिदिन देने पर भी मज़दुर मिलते नहीं है. नये नये कोंट्राक्टर बने लोग फरियाद करते है कि हम बडी मुश्किलसे डूंगरपुर जाके एडवान्स किराया देके रोजमदार मज़दुर लाते है, वे पैसे लेके भाग जाते है. यह सत्य संबंधित लोगोंके लिये सुविदित है. लेकिन तो भी “बेकारीकी बाते चल जाती. एक समस्या यह भी है कि कुछ बेकार लोग ऐसे भी है जो अपने गाँव/शहरमें ही नौकरी चाहते है. यह समस्या गुजरात महाराष्ट्रमें ज्यादा है. गुजरातमें तो यदि किसी कर्मचारीका  तबादला दुसरे राज्यमें हो जाय तो भी उसको अपनी नानी याद आ जाती है.

बीजेपी के शासन दरम्यान महंगाई का वृद्धिदर कमसे कम है. वेतनवृद्धिका दर अधिक है. खाद्य पदार्थोंमेंसे अधिकतर खाद्य पदार्थ सस्ते हुए है. फिर भी महंगाईके नाम पर, आप जनताको, गुमराह करनेमें थोडे बहूत तो सफल हो ही सकते हो.

किसानोंकी समस्या तो अनिर्वचनीय लगती है. ५५ सालके अंतर्गत यदि किसान स्वयंका उद्धार नहीं कर पाया, तो खराबी उसके दिमागमें है. जो अपनी आदतोंसे टस और मस नहीं होना माँगता, उसको सिर्फ ईश्वर ही बचा सकता है. और ईश्वर भी उनको ही मदद कर सकता है, जो अपनी मदद खूदको करें.

हाँ जी, मोदीकी बुराई करनेमें आपको अरुण शौरी, चेतन भगत, यशवंत सिंहा जैसे भग्नहृदयी और  शशि थरुर (जिसके विरुद्ध एक क्रिमीनल केस चलता है), वैसे तो मिल ही जायेंगे. उनमें कुछ भग्न हृदयी स्थानिक लेखक गण भी तो होगे जो स्वयंको तटस्थ माननेका घमंड रखते है.

कोंगी गेंगके लिये सबसे बडे शस्त्र कौनसे है?

कोंगीवंशका एक और नया, मादा फरजंदको, चूनाव मैदानमें लाया गया है.

“मादा” (फीमेल)शब्दका क्यूँ उपयोग किया है?

उस मादाकी सामाजिक उपलब्धीयां शून्य होनेके कारण  उसका विवरण करना असंभव है. यदि कोई मीडीया मूर्धन्य उसका विवरण करें, तो उसको जूठ ही बोलना पडेगा. आप कहोगे कि कोंगी गेंगके पालतु मीडीयाके लिये तो जूठ बोलना एक शस्त्र के समान है तो फिर एक और परिमाणमें जूठ बोलनेमें क्या आपत्ति है? अरे भाई ये मीडीया वाले समज़ते है कि जूठ तो बोलो ही, लेकिन जूठका चयन ऐसा करो कि उस जूठको अति दीर्घ काल  तक विवादास्पद रख सको. ऐसा होने से आम जनता उस जूठको सत्य मान लेगी या तो असमंजसमे पड जायेगी.

जैसे कि;

बाजपाईने इन्दिरा घांडीको “दुर्गा” कहा था,

 बाजपाईने मोदीको “राजधर्म” निभानेकी बात कही थी,

मोदी ने हर देशवासीकी जेबमें १५लाख रुपये देनेकी बात कही थी,

कथित शब्दोंके भावार्थका स्पष्टीकरण, या इन्कारके बाद भी आप यह जूठ चला सकते है.

हमारा मूल विषय था कि, उस एक और मादा पात्रका, चूनावकी सियासतमें प्रवेश करवाना और उसके गुणगान के लिये, सातत्यसे रागदरबारी छेडना. सिर्फ इसलिये कि, उस मादा की योग्यता यह है कि, वह मादा  नहेरुवंशकी फरजंद है.

नहेरुवंशके फरजंदोंको “कालका बंधन नहीं है”, “ज्ञानका बंधन नहीं है” “तर्कका बंधन नहीं है” “सत्यका बंधन नहीं है”, “नीतिमत्ता”का बंधन नहीं है क्यों कि जबसे इन्दिरा गांधीने नहेरुवीयन कोंग्रेस ओफ ईन्डिया”को इन्दिरा नहेरुवीयन कोंग्रेस (आई.एन.सी) बनाके, कोंगीके लक्ष्मी-भंडारकी चाभी (Key) अपने हस्तक कर दी थी. इन्दिराने देशको बिना किसी भयसे, लूटनेकी आदत बना दी थी, तबसे कोंगीके लक्षी-भंडारके पास, कुबेर भी मूँह छीपा लेता है.

और आप तो जानते है कि

यस्यास्ति वित्तं, स नर कुलिनः स श्रुतवानः स च गुणज्ञः ।

स एव वक्ता स च दर्शनीय, सर्वे गुणाः कांचनं आश्रयन्ते॥

(जिसके पास धन है, वह कुलवान है, वह ज्ञानी है, और वह ही गुणोंको जाननेवाला है, वही अच्छा भाषण देनेवाला है, और वही दर्शन करनेके योग्य है, क्यों कि सभी गुण, धनके गुलाम है.)

 इन्दिरा गांधीने और उसके फरजंदोने देशको अधिकतम लूट लिया है, उनके पास अपार संपत्ति है.  इस लिये सभी गुण ही नहीं, किन्तु धनकी लालसा वाले सभी  नेतागण, कोंगीके बंधवा-दास है. समाचार माध्यमोंमे भी धन लालसा वाले या तो भग्न हृदयी मूर्धन्योंकी कमी नहीं.

अब इस नहेरुवंशी मादाकी भाटाई तो करनी ही पडेगी न?

इस मादाकी पार्श्वभूमिमें यदि कोई कारकीर्दि (रेप्युटेशन) न हो तो क्या हूआ ? उसके हर कथन को हम अतिशोभनीय बना सकते है ही न ? हम क्या कम चमत्कार करनेवाले है?

तो अब, हम समाचार माध्यम वाले, असली और नकली चर्चा चलायेंगे. क्यों कि;

दूसरा शस्त्र है चूनावी चर्चाएं,

चूनावी चर्चामें हमारे लिये निम्न लिखित विषय अछूत है,

(१) गुजरातके डाकू भूपतको पाकिस्तान भागा देना. उसके प्रत्यापर्णकी बात तक नहेरुने नहीं की, तो कार्यवाही तो बात ही भीन्न है.

(२) युद्धमें हारी हुई ७१००० चोरस मील भारतीय भूमिको, वापस लेनेकी हम नहेरुवीयनोंने संसदके समक्ष प्रतिज्ञा ली थी,

(३) हमारी आराध्या इन्दिराने एक करोड बांग्लादेशी बिहारी मुस्लिमसे जाने जानेवाली घुसपैठीयोंको वापस भेजनेकी प्रतिज्ञा ली थी,

(४) हमारी आराध्या इन्सिराने आपात्काल लागु किया था और जनतंत्रकी धज्जीयाँ उडाई थीं.,

(५) हमने भोपाल गेस कांडके आरोपी एन्डरसनको, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रीकी नीगरानीमें, बेधडक, और खूल्ले आम, देशसे भागजानेकी सुविधा प्राप्त करवाई थी. और उसको वापस लानेमें गुन्हाइत बेदरकारी दिखायी थी,

(६)  ओट्टावीयो क्वाट्रोची को ठीक उसी प्रकार देशसे भगाया था, ताकि उसपर न्यायिक कार्यवाही न हो सके. उसको वापस लाने की कुछ भी कार्यवाही हम वंशवादी कोंगीयोंने नहीं की थी,

(७) कोंगीके सहयोगी पीडीपीके शासनमें,  मंत्रीकी पूत्रीका आतंकवादीयोंने अपहरण (हरण) किया (करवाया) और उसके बदलेमें सात खूंखार आतंकवादीयोंको हम कोंगीयों और हमारे सहयोगीने मूक्त किया था. इसके उपर कोई चर्चा नहीं, कि यह घटना किसकी विफलता थी? या तो यह एक सोची समज़ी चाल थी? आज कोंगी, फारुख, ओमर, महेबुबा मुफ्ति आतंकवादीयों की भाषा बोलते है.

(८) कश्मिरमें खूल्ले आम कश्मिरी हिन्दुओंको धमकी दी कि इस्लाम कबुल करो या मरनेके लिये तयार रहो. फिर ३०००+ हिन्दुओंको कतल किया, १००००+ महिलाओंको रेप किया, ५०००००+ हिन्दुओंको निराश्रित किया. न कोई जाँच बैठी, न कोई एफ.आई.आर. दर्ज हुई, न किसीकी गिरफ्तारी हुई, न न्यायिक कार्यवाही हुई, न कोई समाचार प्रसिद्ध होने दिया, न कोई चर्चा होने दिया, और हम कोंगीयोंने  और हम कोंगीयोंके सहयोगी शासकोंने मौजसे दशकों तक शासन किया.

(९) दाउद को भगाया. हम कोंगीके पास दाउदका कोई भी डेटा उपलब्ध ही नहीं था. क्यों कि हम ऐसा रखनेमें मानते ही नहीं है. हमने कभी भी उसको वापस लानेकी कोई कार्यवाही नहीं की.

(१०) न्यायिक प्रणाली  कोंगीयोंने बनाई, दशकों तक क्षतियों पर ध्यान नहीं दिया, बेंकोने हजारो गफले किये. निषिद्ध फोन बेंकींग द्वारा माल्या, निरव मोदी, चौकसी जैसे फ्रॉड को हमने जन्म दिया.

मोदीने ५ वर्षमें ही प्रणालीयां बदली, कौभान्डोंको पकडा और जो कोंगी स्थापित प्रणालीयोंके कारण देश छोड कर भाग गये थे उनको वापस लानेकी तूरंत कार्यवाही की जो आज रंग ला रही है.

कोंगी लोग और उनका पीला पत्रकारित्व  ये सब चर्चा नहीं करेगा.     

चूनावी चर्चाएं हम वैसी करेंगे जिनमें हम फर्जी और विवादास्पद आधारोंपर मत विश्लेषण कर सकते है. जाति, धर्म आदि विभाजनवादी आधारों पर अपनी मान्यताओंको सत्य मान कर बीजेपीके विरुद्धमें जन मत जा रहा है ऐसी भविष्य वाणी कर सकते है. ऐसा तारतम्य पैदा करके कोंगी गेंगके अनुकुल, निचोड निकालना है. इसी कार्यमें अपना वाक्‌पटूता का प्रदर्शन करते रहेना. यह भी एक उपशस्त्र है.  

कोंगीवंशका नया आगंतुक, मादा फरजंदको, प्रसिद्धि देनेमें सभी मीडीया कर्मीयोंमे तो स्पर्धा चल रही है.

इस मादा फरजंदकी सामान्य उक्ति को भी बडे अक्षरोंमे प्रसिद्धि देने लगे है.

मिसाल के तौर पर,

“५५ साल कोंगीने कुछ नहीं किया ऐसी बातोंसे मोदीको बाज़ आना चाहिये. हरेक मुद्देकी एक एक्सपायरी डेट होती है.”

मीडीया बोला; “वाह क्या तीर छोडा है इस नेत्रीने …. इसकी तो हम समाचार प्रसिद्धिमें बडी शिर्ष रेखा बना सकते है.

अरे भाई जिसका असर, यदि देश भूगत रहा हो, उसकी एक्स्पायरी डेट यानी उसकी मृत्युतीथि तो तब ही आयेगी जब आपके चरित्रमें परिवर्तन आयेगा या तो वह असरकी मृत्यु होगी. आप ५५ साल तक गरीबी हटाओ बोलते रहे लेकिन कोई प्रभावी कदम नहीं उठा पाये, और मोदीने प्रभावी कदम उठाये और साथ साथ समय बद्धताकी सीमा भी सुनिश्चित की, तो आपके पेटमें उबलता हुआ तैल क्यों पडता है?

नहेरु की, चीनके साथ हिमालय जैसी बडी गलतीयां, इन्दिरा गांधीकी उतनी ही बडी गलतीयां, जिनमें सिमला समज़ौता, सेनाकी जीती हूई काश्मिरकी भूमि भी पाकिस्तानको परत करना, आतंकवादको बढावा देना, हिन्दुस्तानके भाषावाद, क्षेत्रवाद, धर्म के नाम पर सियासती विभाजनवादको प्रचूरमात्रामें बढावा देना … आदि बातें बीजेपी ही नहीं,  देश भी भूल नहीं पायेगा.

मीडीया मूर्धन्य पगला गये है …

मिसाल के तौर पर आजके डीबी (दिव्यभास्कर)भाईने एक फर्जी (कल्पित) चर्चा प्रकट की है. ऐसे समाचार माध्यमोंके लिये “तुलनात्म” चर्चा बाध्य है क्यों कि ऐसा करना उनके एजन्डामें आता नहीं है.

अब तक यह डीबीभाई अन्य मीडीया-भाईकी तरह ही “रा.घा. (राहुल घांडी)को, नरेन्द्र मोदीके समकक्ष मानते है. वैसे तो कोई भी मापदंडसे इन दोनोंकी तुलना शक्य है ही नहीं. लेकिन डीबीभाई बोले अरे भाई हम कहाँ महात्मा गांधी सूचित “समाचार माध्यमके चारित्र्यको (आचार संहिताको) मानते है? हमारा एजन्डा तो सिर्फ बीजेपी के विरुद्ध माहोल पैदा करना है. हम तो है कवि. हमें कवियोंकी तरह कोई सीमा, चाहे वह नीतिमत्ताकी ही क्यों न हो, बाध्य नहीं है.

डी.बी.भाई अब इस नहेरुवंशी मादा फरजंदको भी मोदी समकक्ष मानने लगे है. और इस मादाको भी फुल कवरेज दे रहे है.

एक कल्पित चर्चाके कुछ अंश देखो

वैसे तो बीजेपीने कई बार स्पष्ट किया है कि “राम मंदिर” न्यायालय के फैसलेके आधिन है, तब भी इसको इस मादाके मूँहसे बीजेपीको “पंच” मारा गया, कि आपको चूनाव के समय ही राम मंदिरकी याद क्यों आती है? चूनावके समय ही गंगाकी याद  क्यों  आती है?

वैसे तो मोदी इससे भी बडा पंच मार सकता है. लेकिन भाई, इस मादाकी रक्षा करना हमारा एजन्डा है.

इस मादा कहेती है, “मोदी तुमने इस देशकी सभी संस्थाओंको, चाहे वे आर.बी.आई. हो या सीबीआई हो, नष्ट कर दीया है.”

वैसे तो मोदी उत्तर दे सकता है कि “तुम सर्व प्रथम जनतंत्रमें संस्थाकी परिभाषा क्या होती है वह समज़ो. वाणी विलास मत करो.  न्यायालय, चूनाव आयोग, सुरक्षा दलें, शासन व्यवस्था, आर.बी.आई., सीबीआई ये सभी संस्थाएं बंद नहीं की गई है. जनतंत्रकी सभी संस्थाएं संविधानीय प्रावधानोंके अंतर्गत चल रही है. लेकिन जब आपका शासन था तब कमसे आपात्कालको याद करो. शाह पंचने क्या कहा था? अरे आपके गत शासनके कार्यकालमें ही न्यायालयने आपको आदेश दिया था कि कालाधन वापस लानेके लिये विशेष जांच समिति बनाओ लेकिन आपने वर्षों तक बनाया नहीं( यहां तक कि आपकी पराजय भी हो गयी),  जैसे आपको न्यायालयका आदेश बाध्य ही नहीं है. न्यायालयका खूदका कथन था कि आपने सीबीआईको पोपट बना दिया है.

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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साहिब (जोकर), बीबी (बहनोईकी) और गुलाम(गण)

जोकर, हुकम (ट्रम्प) और गुलाम [साहिब, बीबी (बहनोईकी) और गुलाम]

गुजरातीमें एक कहावत है “भेंस भागोळे, छास छागोळे, अने घेर धमाधम”

एक किसानका संयुक्त कुटुंब था. भैंस खरीदनेका विचार हुआ. एक सदस्य खरीदनेके लिये शहरमें गया. घरमें जोर शोर से चर्चा होने लगी कि भैंसके संबंधित कार्योंका वितरण कैसे होगा. कौन उसका चारा लायेगा, कौन चारा  डालेगा, कौन गोबर उठाएगा, कौन दूध निकालेगा, कौन दही करेगा, कौन छास बनाएगा, कौन  छासका मंथन करेगा ….? छासके मंथन पर चिल्लाहट वाला शोर मच गया. यह शोरगुल सूनकर, सब पडौशी दौडके आगये. जब उन्होंने पूछा कि भैंस कहाँ है? तो पता चला कि भैस तो अभी आयी नहीं है. शायद गोंदरे (भागोळ) तक पहूँची होगी या नहीं पता नही. … लेकिन छास का मंथन कौन करेगा इस पर विवाद है.

यहां इस कोंगीके नहेरुवीयन कुटुंबकवादी पक्षका फरजंदरुपी, भैंस तो अमेरिकामें है, और उसको कोंगी पक्षका एक होद्दा दे दिया है, तो अब उसका असर चूनावमें क्या पडेगा उसका मंथन मीडिया वाले और कोंगी सदस्य जोर शोरसे करने लगे हैं.

कोंगीलोग तो शोर करेंगे ही. लेकिन कोंगीनेतागण चाहते है कि वर्तमान पत्रोंके मालिकोकों समज़ना चाहिये कि, उनका एजन्डा क्या है! उनका एजन्डा भी कोंगीके एजन्डेके अनुसार होना चाहिये. जब हम कोंगी लोग जिस व्यक्तिको प्रभावशाली मानते है उसको समाचार माध्यमोंके मालिकोंको भी प्रभावशाली मानना चाहिये और उसी लाईन पर प्रकाशन और चर्चा होनी चाहिये.

कोंगी नेतागण मीडीया वालोंको समज़ाता है कि;

“हमने क्या क्या तुम्हारे लिये (इन समाचार माध्यमोंके लिये) नहीं किया? हमने तुमको मालदार बनाये. उदाहरणके लिये आप वेस्टलेन्ड हेलीकोप्टरका समज़ौता ही देख लो हमने ४० करोड रुपयेका वितरण किया था. सिर्फ इसलिये कि ये समा्चार माध्यम इस के विरुद्ध न लिखे. हमने जब जब विदेशी कंपनीयोंसे व्यापारी व्यवहार किया तो तुम लोगोंको तुम्हारा हिस्सा दिया था और दिया है. तुम लोगोंको कृतज्ञता दिखाना ही चाहिये.

हमारी इस भैसको कैसे ख्याति दोगे?

मीडीया मूर्धन्य बोलेः “कौन भैस? क्या भैंस? क्यों भैंस? ये सब क्या मामला है?

कोंगीयोंने आगे चलाया; “ अरे वाह भूल गये क्या ?हम कोंगी लोग तो साक्षात्‌ माधव है.

“मतलब?

“मा”से मतलब है लक्ष्मी. “धव”से मतलब है पति. माधव मतलब, लक्ष्मी के पति. यानी कि विष्णु भगवान. हम अपार धनवाले है. हम धनहीन हो ही नहीं सकता. इस धनके कारण हम क्या क्या कर सकते हैं यह बात आपको मालुम ही है?

नहिं तो?

मूकं कुर्मः वाचालं पंगुं लंगयामः गिरिं

अस्मत्‍ कृपया भवति सर्वं, अस्मभ्यं तु नमस्कुरु

[(अनुसंधानः मूकं करोति वाचालं, पंगुं लंगयते गिरिं । यत्कृ‌पा तं अहम्‌ वन्दे परमानंदं माधवं ॥ )

उस लक्ष्मीपति जो अपनी कृपासे  “मुका” को वाचाल बना सकता है और लंगडेको पर्वत पार करनेके काबिल बना देता है उस लक्ष्मी पतिको मैं नमन करता हूँ.]   

लेकिन यदि लक्ष्मीपतियोंको, खुदको ऐसा बोलना है तो वे ऐसा ही बोलेंगे कि हम अपनी कृपासे मुकोंको वाचाल बना सकते है और लंगडोंको पर्वत पार करवा सकते है, इस लिये (हे तूच्छ समाचार माध्यमवाला, हम इससे उलटा भी कर सकते हैं), हमें तू नमन करता रह. तू हमारी मदद करेगा तो हम तुम्हारी मदद करेंगे. धर्मः रक्षति रक्षितां.

भैंसको छा देना है अखबारोंमें

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आर्टीस्टका सौजन्य

वाह क्या शींग? वाह क्या अंग है? वाह क्या केश है? वाह क्या पूंछ है…? वाह क्या चाल है? वाह क्या दौड है? वाह क्या आवाज़ है? इस भैंसने तो “भागवत” पूरा आत्मसात्‌ किया ही होगा…!!!

“हे मीडीया वाले … चलो इसकी प्रशंसा करो…

और मीडीया वालोंने प्रशंसाके फुल ही नहीं फुलोंके गुलदस्तोंको बिखराना चालु कर दिया. अरे यह भैंस तो अद्दल (असल, न ज्यादा, न कम, जैसे दर्पणका प्रतिबिंब) उसके दादी जैसी ही है.  जब दिखनेमें दादी जैसी है तो अवश्य उसकी दादीके समान होशियार, बुद्धिमान, चालाक, निडर …. न जाने क्या क्या गुण थे इसकी दादीमें …. सभी गुण इस भैंसमें होगा ही. याद करो इस भैंसके पिता भैंषाको, जिसको, हमने ही तो “मीस्टर क्लीन” नामके विशेषणसे नवाज़ा था. हालाँ कि वह अलग बात है कि बोफोर्सके सौदेमें उसने अपने  हाथ काले किये. वैसे तो दादीने भी स्वकेन्द्री होने कि वजहसे आपात्काल घोषित करके विरोधीयोंको और महात्मा गांधीके अंतेवासीयोंको भी  कारावासमें डाल दिया था. इसीकी वजह से इसकी दादी खुद १९७७के चूनावमें हार गयी थी वह बात अलग है. और यह बात भी अलग है कि वह हर क्षेत्रमें विफल रही थीं. और आतंकवादीयोंको पुरस्कृत करनेके कारण वह १९८४में भी हारने वाली थी. यह बात अलग है कि वह खुदके पैदा किये हुए भष्मासुरसे मर गई और दुसरी हारसे बच गई.  

गुजराती भाषामें “बंदर” को “वांदरो” कहा जाता है.

लेकिन गुजरात राज्यके “गुजरात”के प्रदेशमें “वादरो”का उच्चारण “वोंदरो” और “वोदरो” ऐसा करते है. काफि गुजराती लोग “आ” का उच्चारण “ऑ” करते है. पाणी को पॉणी, राम को रॉम …. जैसे बेंगाली लोग जल का उच्चार जॉल, “शितल जल” का उच्चार “शितॉल जॉल” करते है. 

सौराष्ट्र (काठीयावाड) प्रदेशमें “वांदरो” शब्दका उच्चारण “वांईदरो” किया जाता है.

अंग्रेज लोग भी मुंबईके “वांदरा” रेल्वेस्टेशनको “बांड्रा” कहेते थे. मराठी लोग उसको बेंन्द्रे कहेते थे या कहेते है.

तो अब यह “वाड्रा” आखिरमें क्या है?

वांईदरा?  या वांद्रा?  या वोंदरा?

याद करो …

पुर तो एक ही है, जोधपुर. बाकी सब पुरबैयां

महापुरुषोंमें “गांधी” तो एक ही है, वह है महात्मा गांधी, बाकी सब घान्डीयां

हांजी, ऐसा ही है. अंग्रेजोंके जमानेसे पहेले, गुजरातमें गांधी एक व्यापारी सरनेम था. लेकिन अंग्रेज लोग जब यहां स्थायी हुए उनका साम्राज्य सुनिश्चित हो गया तब “हम हिन्दुसे भीन्न है” ऐसा मनवाने के लिये पारसी और कुछ मुस्लिमोंने अपना सरनेम “गांधी”का “घान्डी” कर दिया. वे बोले, हम “गांधी” नहीं है. हम तो “घान्डी” है. हम अलग है. लेकिन महात्मा गांधीने जब नाम कमाया, और दक्षिण आफ्रिकासे वापस आये, तो कालक्रममें  नहेरुने सोचा कि उसका दामात “घांडी”में से वापस गांधी बन जाय तो वह फायदएमंद रहेगा. तो इन्दिरा बनी इन्दिरा घान्डीमेंसे इन्दिरा गांधी. और चूनावमें उसने अपना नाम लिखा इन्दिरा नहेरु-गांधी.

तो प्रियन्का बनी प्रियंका वाड्रा (या वांईदरा, या वांदरा या वादरा या वाद्रे)मेंसे बनी प्रियंका वांइन्दरा गांधी या प्रियंका गांधीवांइन्दरा.

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आर्टीस्टका सौजन्य

हे समाचार माध्यमके प्रबंधको, तंत्री मंडलके सदस्यों, कोलमीस्टों, मूर्धन्यों, विश्लेषकों … आपको इस प्रियंका वांईदराको यानी प्रियंका गांधी-वांईदराको राईमेंसे पर्वत बना देनेका है. और हमारी तो आदत है कि हमारा आदेश जो लोग नहीं मानते है उनको हम “उनकी नानी याद दिला देतें है”. हमारे कई नेताओने इसकी मिसाल दी ही है. याद करो राजिव गांधीने “नानी याद दिला देनेकी बात कही थी … हमारे मनीष तीवारीने कहा था कि “बाबा रामदेव भ्राष्टाचारसे ग्रस्त है हम उसके धंधेकी जाँच करवायेंगे” दिग्वीजय सिंघने कहा था “सरसे पाँव तक अन्ना हजारे भ्रष्ट है हम उसकी संस्था की जांच करवाएंगे, किरन बेदीने एरोप्लेनकी टीकटोंमें भ्रष्टाचार किया है हम उसको जेलमें भेजेंगे”, मल्लिकार्जुन खडगेने कहा “ हम सत्तामें आयेंगे तो हर सीबीआई अफसरोंकी फाईल खोलेंगे और उसकी  नानी याद दिला देंगे, यदि उन्होने वाड्राकी संपत्तिकी जाँच की तो … हाँजी हम तो हमारे सामने आता है उसको चूर चूर कर देतें हैं. वीपी सिंह, मोरारजी देसाई, और अनगीनत महात्मागांधीवादीयोंको भी हमने बक्षा नहीं है, तो तुम लोग किस वाडीकी मूली हो. तुम्हे तुम्हारी नानी याद दिला देना तो हमारे बांये हाथका खेल है. सूनते हो या नहीं?

“तो आका, हमें क्या करना है?

तुम्हे प्रियंका वादरा गांधीका प्रचार करना है, उसका जुलुस दिखाना है, उसके उपर पुष्पमाला पहेलाना है वह दिखाना है, पूरे देशमें जनतामें खुशीकी लहर फैल गई है वह दिखाना है, उसकी बडी बडी रेलीयां दिखाना है, उसकी हाजरजवाबी दिखाना है, उसकी अदाएं दिखाना है, उसका इस्माईल (स्माईल) देखाना है, उसका गुस्सा दिखाना है, उसके भीन्न भीन्न वस्त्रापरिधान दिखाना है, उसका केशकलाप दिखाना है, उसके वस्त्रोंकी, अदाओंकी, चाल की, दौडकी स्टाईल दिखाना है और उसकी दादीसे वह हर मामलेमें कितनी मिलती जुलती है यह हर समय दिखाना है. समज़े … न … समज़े?

“हाँ, लेकिन आका! भैंस (सोरी … क्षमा करें महाराज) प्रियंका तो अभी अमेरिकामें है. हम यह सब कैसे बता सकते हैं?

“अरे बेवकुफों … तुम्हारे पास २०१३-१४की वीडीयो क्लीप्स और तस्विरें होंगी ही न … उनको ही दिखा देना. बार बार दिखा देना … दिखाते ही रहेना … यही तो काम है तुम्हारा … क्या तुम्हें सब कुछ समज़ाना पडेगा? वह अमेरिकासे आये उसकी राह दिखोगे क्या? तब तक तुम आराम करोगे क्या? तुम्हे तो मामला गरम रखना है … जब प्रियंका अमेरिकासे वापस आवें तब नया वीडीयो … नयी सभाएं … नयी रेलीयां … नया लोक मिलन… नया स्वागत …  ऐसी वीडीयो तयार कर लेना और उनको दिखाना. तब तक तो पुराना माल ही दिखाओ. क्या समज़े?

“हाँ जी, आका … आप कहोगे वैसा ही होगा … हमने आपका नमक खाया है …

और वैसा ही हुआ… प्रियंका गांधी आयी है नयी रोशनी लायी है …. वाह क्या अदाएं है … अब मोदीकी खैर नहीं ….

प्रियंका वादरा अखबारोंमें … टीवी चैनलोंमें … चर्चाओंमे ..,. तंत्रीयोंके अग्रलेखोंमें … मूर्धन्योंके लेखोंमें … कोलमीस्टोंके लेखोमें … विश्लेषणोंमें छाने लगी है …

प्रियंका वादराको ट्रम्प कार्ड माना गया है. वैसे तो यह ट्रम्प कार्ड २०१३-१४में चला नहीं था … वैसे तो उसकी दादी भी कहाँ चली थीं? वह भी तो हारी थी. वह स्वयं ५५००० मतोंसे हार गयी थी. वह तो १९८४में फिरसे भी हारने वाली थी … लेकिन मर गयी तो हारनेसे  बच गयी.

प्रियंका वांईदरा ट्रम्प कार्ड है. ट्रम्प कार्डको उत्तरभारतके लोग “हुकम” यानी की “काली” या कालीका ईक्का  केहते है. प्रियंका ट्रम्प कार्ड है. कोंगीके प्रमुख जोकर है. कोंगीके बाकी लोग और मीडीया गुलाम है.

साहिब यानी कोंगी पक्ष प्रमुख (यानी जोकर), (वांईदराकी) बीबी और दर्जनें गुलाम कैसा खेल खेलते है वह देखो.

“आँखमारु जोकर” गोवामें पूर्व सुरक्षामंत्री (पनीकर)से मिलने उनके घर गया था. उसने बोला कि “ … मैं पनीकरसे कल मिला. पनीकरने बताया कि राफेल सौदामें जो चेन्ज पीएम ने किया वह उसको दिखाया नहीं गया था.” ताज़ा जन्मा हुआ बच्चा भी कहेगा कि, इसका अर्थ यही होता है कि “जब रा.गा. पनीकरको मिलने गया तो पनीकरने बताया कि राफैल सौदामें जो चेन्ज किया वह पीएमने तत्कालिन रक्षा मंत्रीको दिखाया नहीं था.”

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आर्टीस्टका सौजन्य

ऐसा कहेना रा.गा.के चरित्रमें और कोंगी संस्कारमें आता ही है. रा.गा.के सलाहकारोंने रा.गा.को सीखाया ही है कि तुम ऐसे विवाद खडा करता ही रहो कि जिससे बीजेपी के कोई न कोई नेताके लिये बयान देना आवश्यक हो जाय. फिर हम ऐसा कहेगें कि हमारा मतलब तो यही था लेकिन बीजेपी वाले गलत अर्थमें बातोंको लेते हैं, और बातोंका बतंगड बनाते हैं. उसमें हम क्या करें? और देखो … मीडीया मूर्धन्य तो हमारे सपोर्टर है. उनमेंसे कई हमारे तर्क का अनुमोदन भी करेंगे. कुछ मूर्धन्य जो अपनेको तटस्थता प्रेमी मानते है वे बभम्‌ बभम्‌ लिखेंगे और इस घटनाका सामान्यीकरण कर देंगे. मीडीयाका कोई भी माईका लाल, रा.गा.के उपरोक्त दो अनुक्रमित वाक्योंको प्रस्तूत करके रा.गा.का खेल बतायेगा नहीं. 

कोंगीकी यह पुरानी आदत है कि एक जूठ निश्चित करो और लगातार बोलते ही रहो. तो वह सच ही हो जायेगा. १९६६ से १९७४ तक कोंगी लोग मोरारजी देसाईके पुत्रके बारेमें ऐसा ही बोला करते थे. इन्दिराका तो शासन था तो भी उसने जांच करवाई नहीं और उसने अपने भक्तोंको जूठ बोलने की अनुमति दे रक्खी थी. क्यों कि इन्दिरा गांधीका एजन्डा था कि मोरारजी देसाईको कमजोर करना. यही हाल उसने बादमें वीपी सिंघका किया कि, “वीपी सिंहका सेंटकीट्समें अवैध एकाउन्ट है”. “मोरारजी देसाई और पीलु मोदी आई.ए.एस. के एजन्ट” है….

ऐसे जूठोंका तो कोंगीनेताओंने भरपूर सहारा लिया है और जब वे जूठे सिद्ध होते है तो उनको कोई लज्जा भी नहीं आती. सत्य तो एक बार ही सामने आता है. लेकिन मीडीयावाले जो सत्य सामने आता है, उसको,  जैसे उन्होंनें असत्यको बार बार चलाया था वैसा बार बार चलाते नहीं. इसलिये सत्य गीने चूने यक्तियोंके तक ही पहूँचता है और असत्यतो अनगिनत व्यक्तियों तक फैल गया होता है. इस प्रकार असत्य कायम रहेता है. 

“समाचार माध्यम वाले हमारे गुलाम है. हम उनके आका है. हम उनके अन्नदाता है. ये लोग अतार्किक भले ही हो लेकिन आम जनताको गुमराह करने के काबिल है.

ये मूर्धन्य लोग स्वयंकी और उनके जैसे अन्योंकी धारणाओ पर आधारित चर्चाएं करेंगे.

जैसे की स.पा. और बस.पा का युपीका गठन एक प्रबळ जातिवादी गठबंधन है. हाँ जी … ये मूर्धन्य लोगोंका वैसे तो नैतिक कर्तव्य है कि जातिवाद पर समाजको बांटने वालोंका विरोध करें. लेकिन ये महाज्ञानी लोग इसके उपर नैतिकता पर आधारित तर्क नहीं रखेंगे. जैसे उन्होंने स्विकार लिया है कि “वंशवाद” (वैसे तो वंशवाद एक निम्न स्तरीय मानसिकता है) के विरुद्ध हम जगरुकता लाएंगे नहीं.

हम तो ऐसी ही बातें करेंगे कि वंशवाद तो सभी राजकीय दलोंमे है. हम कहां प्रमाणभान रखनेमें मानते है? बस इस आधार पर हम सापेक्ष प्रमाण की सदंतर अवगणना करेंगे. उसको चर्चाका विषय ही नहीं बनायेंगे. हमें तो वंशवादको पुरस्कृत ही करना है. वैसे ही जातिवादको भी सहयोग देना है. तो हम जातिवादके विरुद्ध क्यूँ बोले? हम तो बोलेंगे कि, स.पा. और ब.स.पा. के गठबंधनका असर प्रचंड असर जनतामें है.  ऐसी ही बातें करेंगे. फिर हम हमारे जैसी सांस्कृतिक मानसिकता रखनेवालोंके विश्लेषणका आधार ले के, ऐसी भविष्यवाणी करेंगे कि बीजेपी युपीमें ५ से ७ सीट पर ही सीमट जाय तो आश्चर्य नहीं.

यदि हमारी भविष्यवाणी खरी न उतरी, तो हम थोडे कम अक्ल सिद्ध होंगे? हमने तो जिन महा-मूर्धन्योंकी भविष्यवाणीका आधार लिया था वे ही गलत सिद्ध होंगे. हम तो हमारा बट (बटक buttock) उठाके चल देंगे.

प्रियंका वांईदरा-घांडी खूबसुरत है और खास करके उसकी नासिका इन्दिरा नहेरु-घांडीसे मिलती जुलती है. तो क्यों न हम इस खुबसुरतीका और नासिकाका सहारा लें? हाँ जी … प्रियंका इन्दिरा का रोल अदा कर सकती है.

“लेकिन इन्दिरा जैसी अक्ल कहाँसे आयेगी?

“अरे भाई, हमें कहां उसको अक्लमान सिद्ध करना है. हमें तो हवा पैदा करना है. देखो … इन्दिरा गांधी जब प्रधान मंत्री बनी, यानी कि, उसको प्रधान मंत्री बनाया गया तो वह कैसे छूई-मूई सी और गूंगी-गुडीया सी रहेती थी. लेकिन बादमें पता चला न कि वह कैसी होंशियार निकली. तो यहां पर भी प्रियंका, इन्दिरासे भी बढकर होशियार निकलेगी ऐसा प्रचार करना है तुम्हे. समज़ा न समज़ा?

“अरे भाई, लेकिन इन्दिरा तो १९४८से अपने पिताजीके साथा लगी रहती थी और अपने पिताजीके सारे दावपेंच जानती थी. उसने केरालामें आंदोलन करके नाम्बुद्रीपादकी सरकारको गीराया था. इन्दिरा तो एक सिद्ध नाटकबाज़ थी. प्रारंभमें जो वह, संसदमें  छूई-मूई सी रहती थी वह भी तो उसकी व्युहरचनाका एक हिस्सा था. सियासतमें प्रियंकाका योगदान ही कहाँ है?

“अरे बंधु,, हमे कहाँ उसका योगदान सिद्ध करना है. तुम तो जानते हो कि, जनताका बडा हिस्सा और कोलमीस्टोंका भी बडा हिस्सा १९४८ – १९७०के अंतरालमें, या तो पैदा ही नहीं हुआ था, या तो वह पेराम्बुलेटर ले के चलता था.

“लेकिन इतिहास तो इतिहास है. मूर्धन्योंको तो इतिहासका ज्ञान तो, होना ही चाहिये न ?

“नही रे, ऐसी कोई आवश्यकता नहीं. जनताका बडा हिस्सा कैसा है वह ही ध्यानमें रखना है. हमारे मूर्धन्य कोलमीस्टोंका टार्जेट आम जनता ही होना चाहिये. इतिहास जानने वाले तो अब अल्प ही बचे होगे. अरे वो बात छोडो. उस समयकी ही बात करो. राजिव गांधीको, तत्कालिन प्रेसीडेन्ट साहबने, बिना किसी बंधारणीय आधार, सरकार बनानेका न्योता दिया ही था न. और राजिव गांधीने भी बिना किसी हिचकसे वह न्योता स्विकार कर ही लिया था न? वैसे तो राजिवके लिये तो ऐसा आमंत्रण स्विकारना ही अनैतिक था न? तब हमने क्या किया था?  हमने तो “मीस्टर क्लीन आया” … “मीस्टर क्लीन आया” … ऐसा करके उसका स्वागत ही किया था न. और बादमें जब बोफोर्स का घोटाला हुआ तो हमने थोडी कोई जीम्मेवारी ली थी? ये सब आप क्यों नहीं समज़ रहे? हमे हमारे एजन्डा पर ही डटे रहेना है. हमें यह कहेना है कि प्रियंका होशियार है … प्रियंका होंशियार है … प्रियंकाके आनेसे बीजेपी हतःप्रभः हो गयी है. प्रियंकाने तो एस.पी. और बी.एस.पी. वालोंको भी अहेसास करवा दिया है कि उन्होंने गठबंधनमें जल्दबाजी की है. … और … दुसरा … जो बीजेपीके लोग, प्रियंकाके बाह्य स्वरुपका जिक्र करते हैं और हमारे आशास्वरुप प्रचारको निरस्र करनेका प्रयास कर रहे है … उनको “ नारी जातिका अपमान” कर रहे … है ऐसा प्रचार करना होगा. हमे यही ढूंढना होगा कि प्रियंकाके विरुद्ध होने वाले हरेक प्रचारमें हमें नारी जातिका अपमान ढूंढना होगा. समज़े … न समज़े?

कटाक्ष, चूटकले, ह्युमर किसीकी कोई शक्यता ही नहीं रखना है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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There is a difference between alliance against INC and against BJP

एक गठबंधन नहेरुवीयन कोंग्रेसके विरुद्ध  और एक गठबंधन बीजेपीके विरुद्ध -२

जो गठबंधन १९७०में हुआ और उस समय जो सियासती परिस्थितियां थी वह १९७२के बाद बदलने लगी थीं.

भारत पाकिस्तान संबंधः

१९७०में एक ऐसी परिस्थिति बनानेमें इन्दिरा गांधी सफल हुई थी, कि उसने जो भी किया वह देशके हितके लिये किया. उसके पिताजी देशके लिये बहुत कुछ करना चाहते थे लेकिन कोंग्रेसके (वयोवृद्ध नेतागण) उसको करने नहीं देते थे. और अब वह स्वयं, नहेरुका अधूरा काम पूरा करना चाहती है. विद्वानोने, विवेचकोंने, मूर्धन्योंने और बेशक समाचार माध्यमोंने यह बात, जैसे कि उनको आत्मसात्‌ हो गयी हो, ऐसे मान ली थी, और जनताको मनवा ली थी.

पूर्व पाकिस्तानमें बंग्लाभाषी कई सालोंसे आंदोलन कर रहे थे. पश्चिम पाकिस्तानी सेना हिन्दुओं पर और बंग्लाभाषी मुसलमानों पर आतंक फैला रही थी. उसके पहेले हिन्दीभाषीयोंसे बंगलाभाषी जनता नाराज थी. हिन्दीभाषी पूर्वपाकिस्तानवासीयोंकी और हिन्दुओंकी हिजरत लगातार चालु थी. वह संख्या एक करोडके उपर पहूंच चुकी थी. इन लोगोंको वापस भेजनाका वादा इन्दिरा गांधी कर रही थी.

भारतमें भी इन्दिरा गांधी पर सेनाका और खास करके जनताका दबाव बढ रहा था.  पाकिस्तानने सोचा कि यह एक अच्छा मौका है कि भारत पर आक्रमण करें. यह लंबी कहानी है.  १९७१में पाकिस्तानने भारत पर आक्रमण किया. भारतीय सेना तो तैयार ही थी. भारतकी सेनाके पास यह युद्ध जीतनेके सिवा कोई चारा ही नहीं था. और भारतने यह युद्ध प्रशंसनीय तरीकेसे जीत लिया. लेकिन इन्दिरा गांधीने सिमला समज़ौता अंतर्गत पराजयमें परिवर्तित कर दिया. या तो इन्दिरा गांधी बेवकुफ थी या ठग थी.

SIMLA

इस युद्धसे पहेले तो विधानसभाओंके चूनावको विलंबित करनेकी बातें इन्दिरा गांधी कर रही थी. लेकिन इस युद्धकी जीतके बात इन्दिरा गांधीने राज्योंकी विधान सभाओंका चूनाव भी कर डाला.

१९७2में राज्यों के विधान सभाके चूनाव भी इन्दिरा गांधीने जीत लिये. उसकी हिंमत बढ गयी थी. अब तो उसकी आदत बन गयी थी कि वह राज्योंमे अपनी स्वयंकी पसंदका नेता चूनें. इस प्रकार मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात … आदि सब राज्योंमें इन्दिराकी पसंदका नेता चूना गया यानी कि इन्दिराकी पसंदके मूख्य मंत्री बने.

गुजरातमें क्या हुआ?

वैसे तो १९७१ के लोकसभाके चूनावके बाद, देशके अन्य पक्षोंमें खास करके कोंग्रेस (ओ) में अफरातफरी मच गयी थी. बहुतेरे कोंग्रेस(ओ)के कोंग्रेसी चूहोंकी तरह इन्दिरा कोंग्रेसकी तरफ भाग रहे थे. कोंग्र्स(ओ)मेंसे बहुतसारे सभ्य इन्दिरा कोंग्रेसमें भाग गये थे. स्वतंत्र पक्ष तूट गया था.  हितेन्द्र देसाई की सरकार तूट चूकी थी. इन्दिरा गांधीने अपनी पसंदका मुख्य मंत्री घनश्याम भाई ओझा को मुख्य मंत्री बनाया. १९७२में गुजरात विधान सभाका चूनाव हुआ. इस चूनावमें मोरारजी देसाईका गढ तूट गया था. विधान सभामें इन्दिरा कोंग्रेसको विधान सभाकी कुल १६८ सीटोमेंसे १४० सीटें मिलीं.

युद्ध सेना जीतती है, सरकार तो सिर्फ युद्ध करनेका   या तो न करनेका निर्णय करती है. सेनाने युद्ध जीत लिया. इस जीतका लाभ भी इन्दिरा गांधीने १९७२के विधान सभा चूनावमें ले लिया. लेकिन युद्ध जीतना और चूनाव जीतना एक बात है. सरकार चलाना अलग बात है.

इन्दिरा गांधी पक्षमें सर्वोच्च थी क्यों कि उसको जनताका सपोर्ट था. पक्षमें वह मनचाहे निर्णय कर सकती थी. लेकिन सरकार चलाना अलग बात है. सरकार कायदेसे चलती है. सरकार चलानेमें अनेक परिबल होते है. इन परिबलोंको समज़नेमें कुशाग्र बुद्धि चाहिये, पूर्वानुमान करने की क्षमता चाहिये. आर्षदृष्टि चाहिये. विवेकशीलता चाहिये. इन सब क्षमताओंका इन्दिरा गांधीमें अभाव था.

गुजरातमें विधानसभा चूनावके बाद इन्दिराने अपने स्वयंके पसंद व्यक्तिको  (घनश्याम भाई ओझाको) मुख्य मंत्रीपद के लिये स्विकारने का आदेश दिया. गुजरातके चिमनभाई पटेलने इसका विरोध किया. इन्दिराने एक पर्यवेक्षक भेजा जिससे वह घनश्याम भाई ओझाकी स्विकृति करवा सके. लेकिन वह असफल रहा. गुजरातमें इन्दिरा गांधी की मरजी नहीं चली.

१९७३में परिस्थिति बदलने लगी. केन्द्र सरकारके पास बहुमत अवश्य था. लेकिन कार्यकुशता और दक्षता नहीं थी. युवा कोंग्रेसके लोग मनमानी कर रहे थे. देशमें हर जगह अराजकताकी अनुभूति होती थी. विरोध पक्षके कई सक्षम नेता थे लेकिन वे हार गये थे. अराजकता और शासन के अभावोंके परिणाम स्वरुप महंगाई बढने लगी थी. घटीया चीज़े मिलने लगी. वस्तुएं राशनमेंसे अदृष्य होने लगी. सीमेंट, लोहा, तो पहेले भी परमीटसे मिलते था अब तो गुड, लकडीका कोयला, दूध, शक्कर, चावल भी अदृष्य होने लागा.

१६८मेंसे १४० सीट जीतने वाली इन्दिरा कोंग्रेसका हारनेका श्री गणेश १९७२के एक उपचूनावसे ही हो गया. इन्दिरा कोंग्रेस १४० सीटें ले तो गई लेकिन उसमें जनता खुश नहीं थी.  लोकसभाकी सीट जो इन्दुलाल याज्ञिक (अपक्ष= इन्दिरा कोंग्रेस)   की मृत्यु से खाली पडी.

उस सीट पर पुरुषोत्तम गणेश मावलंकर, इन्दिरा कोंग्रेसके प्रत्यासीके उपर २००००+मतके मार्जिनसे जित गये. सभी पक्षोंका उनको समर्थन था.

Mavalankar

पुरुषोत्तम मावलंकर अहमदाबादके अध्यापक, पोलीटीकल विवेचक, बहुश्रुत विद्वान थे. वैसे तो वे भारतकी प्रथम लोकसभाके अध्यक्ष गणेशमावलंकरके पुत्र थे, लेकिन उनका खुदका व्यक्तित्व था.

गुजरातमें नवनिर्माण का आंदोलन

गुजरातमें नवनिर्माण का आंदोलन शुरु हुआ. लोगोंको भी लगा कि उसने गलत पक्षको जिताया है.  लेकिन इसका सामना करने के लिये इन्दिरा कोंग्रेसने जातिवाद को बढाने की कोशिस शुरु की. शहरमें उसका खास प्रभाव न पडा. गांवके प्रभावशील होनेका प्रारंभ हुआ. लेकिन आखिरमें १६८मेंसे १४० सीट लाने वाली इन्दिरा कोंग्रेसकी सरकार गीर गयी. चिमनभाई पटेलको इस्तिफा देना पडा. इन्दिराने फिर भी विधान सभाको विसर्जित नहीं किया. जनताको विसर्जनके सिवा कुछ और नहीं पसंद था. राष्ट्रपति शासन लदा. चूनावके लिये मोरारजी देसाईको आमरणांत उपवास पर बैठना पडा. परिणाम स्वरुप १९७५में चूनाव घोषित करना पडा. इन सभी प्रक्रियामें इन्दिराकी विलंब करने की नीति सामने आती थी.

अब सारे देशके नेताओंको लगा कि इन्दिरा हर बात पर विलंब कर रही है. तो विपक्षको एक होना ही पडेगा.

गुजरातमें विधानसभा चूनावमें  जनता फ्रंटका निर्माण हुआ. इसमें जनसंघ, कोंग्रेस(ओ), संयुक्त समाजवादी पार्टी, अन्य छोटे पक्ष और कुछ अपक्ष थे. चिमनभाई पटेलको इन्दिरा कोंग्रेसने बरखास्त किया था. उन्होंने अपना किमलोप (किसान, मज़दुर, लोक पक्ष) नामका नया पक्ष बनाया था.

चूनावमें १८२ सीटमेंसे

जनता मोरचाको   = ६९

जिनमें

कोंग्रेस (ओ) = ५६

जन संघ = १८

राष्ट्रीय मज़दुर पक्ष = १

भारतीय लोक दल =२

समाजवादी पक्ष = २

किसान मजदुर लोक पक्ष = १२

अपक्ष = १८

और

इन्दिरा कोंग्रेसको = ७५

अपक्षोंके उपर विश्वास नहीं कर सकते थे. इस लिये स्थाई सरकार बनानेके लिये जनता मोरचाने, किसान मजदुर लोक पक्षका सहारा लिया. और बाबुभाई जशभाई पटेल जो एक कदावर नेता थे उनकी सरकार बनी. हितेन्द्र देसाई ने चूनाव लडा नहीं था. और चिमनभाई पटेल चूनाव हार गये थे.

यह चूनाव एक गठबंधनका विजय था.

वैसे तो गुजरातकी तुलना अन्य राज्योंसे नहीं हो सकती, लेकिन जो देशमें होनेवाला है उसका प्रारंभ गुजरातसे होता है.

गुजरातमें इन्दिरा गांधीके कोंग्रेसकी हारके कारण देश भरमें जयप्रकाशनारायण की नेतागीरीमें आंदोलन शुरु हुआ. वैसे भी जब नवनिर्माणका आंदोलन चलता था तो सर्वोदयके कई नेता आते जाते रहेते थे.

सर्व सेवा संघमें अघोषित विभाजन

सर्वोदय मंडल दो भागमें विभक्त हो गया था. एक भाग मानता था कि जयप्रकाश नारायण जो संघर्ष कर रहे है उनको सक्रिय साथ देना चाहिये. दुसरा भाग मानता था कि, इससे सर्वोदय को कोई फायदा नहीं होने वाला है. यदि फायदा होना है तो राजकीय पक्षोंको ही होने वाला है. इसलिये हमें किसी पक्षको फायदा पहोंचे ऐसे संघर्षमें भाग लेना नहीं चाहिये.

लेकिन शांतिसेना तो जयप्रकाश नारायणको ही मानती थी. शांतिसेनाके सदस्योंकी संख्या बहुत बढ गयी थी. और वह सक्रिय भी रही.

कुछ समयके बाद इन्दिराके सामने उसके चूनावको रद करनेका जो केस चल रहा था उसका निर्णय आया. इन्दिरा गांधी को दोषी करार दिया और उसको ६ सालके लिये चूनाव के लिये अयोग्य घोषित किया.

मनका विचार आचरणमें आया

DEMOCRACY WAS ATTACKED

emergency

जो बात नहेरुके मनमें विरोधीयोंको कैसे बेरहेमीसे नीपटना चाहिये, जो गुह्य रुपसे निहित थी लेकिन खुल कर कही जा सकती नहीं थीं. क्यों कि स्वातंत्र्यके अहिंसक संग्राममें नहेरु, पेट भर जनतंत्रकी वकालत कर रहे थे. उनके लिये अब कोयला खाना मुश्किल था.

इन्दिरा गांधी अपने पिताके साथ ही हर हमेश रहेती थी इसलिये उनको तो अपने पिताजीकी ये मानसिकता अवगत ही थी.

वैसे भी नहेरु और गांधीके बीचमें ऐसे कोई एक दुसरेके प्रति मानसिक आदर नहीं था.  यह बात नहेरुने केनेडाके एक राजनयिक (डीप्लोमेट)को, जो बादमें केनेडाके प्रधान मंत्री बने, उनके साथ भारतमें एक मुलाकात में उजागर की थी. नहेरुने गांधीजीको ढोंगी और दंभी और नाटकबाज बताया था. इस बात सुनकर वह राज नयिक चकित और आहत हो गया था. इसके बारेमें इस ब्लोग साईट पर ही विवरण दिया है. गांधीजीने भी नहेरुके बारे में कहा था कि जवाहरको तो मैं समज़ सकता हूँ, लेकिन उनके समाजवादको नहीं समज़ सकता. वे खुदभी समज़ते है मैं मान नहीं सकता.

इन्दिराको सब बातें मालुम थीं.

गांधीजीने यह भी कहा था कि “अब जवाहर मेरा काम करेगा और मेरी भाषा बोलेगा.” इसका अर्थ यही था कि नहेरुको सत्ता प्राप्तिसे विमुख रहेना चाहिये और बिना सत्ता ही जन जागृतिका काम करना चाहिये. गांधीजीने इसलिये कोंग्रेसका विलय करने का भी आदेश दिया था.

यदि जवाहर स्वयं, गांधीजीका काम करते, तो उनको यह बात कहेने कि आवश्यकता न पडती. गांधीजीने कभी विनोबा भावेके बारेमें तो ऐसा नहीं किया कि “अब विनोबा मेरी भाषा बोलेंगे और मेरा काम करेंगे”. क्यों कि ऐसा कहनेकी उनको आवश्यकता ही नहीं थी. विनोबा भावे तो गांधीजीका काम करते ही थे.

यह सब बातोंसे इन्दिरा गांधी अज्ञात तो हो ही नही सकती. इस लिये नहेरुके मनमें जो राक्षस गुस्सेसे उबल रहा था, वह राक्षस इन्दिराके अंदर विरासतमें आया था. चूं कि इन्दिरा गांधीका, स्वातंत्र्य संग्राममें कोई योगदान नहीं था, इस लिये उसको अनियंत्रित सरमुखत्यार बनने की बात त्याज्य नहीं थी. “गुजरातीमें एक मूँहावरा है कि नंगेको नाहना क्या और निचोडना क्या?”

जनतंत्रकी रक्षा

PM rules out pre emergency days

कुछ फर्जी या स्वयं द्वारा प्रमाणित विद्वान लोग बोलते है कि भारतमें जो जनतंत्र है वह नहेरुवीयन कोंग्रेस के कारण विद्यमान है. वास्तवमें जनतंत्रके अस्तित्व लिये नहेरुवीयन कोंग्रेसको श्रेय देना एक जूठको प्रचारित करना है. नहेरुवीयन कोंग्रेसने तो जनतंत्रको आहत करने की भरपूर कोशिस की है.

वास्तवमें यदि जनतंत्रको जीवित रखनेका श्रेय किसीको भी जाता है तो भारतकी जनताको ही जाता है. दुसरा श्रेय यदि किसीको जाता है तो गांधीजीके सब अंतेवासी और कोंग्रेस(ओ)के कुछ नेताओंको जाता है और उस समयके कुछ विपक्षीनेताओंको जाता है जो इन्दिरा गांधीके विरोध करनेमें दृढ रहे.

नहेरुवीयन फरजंदकी सरमुखत्यारी और दीशाहीनता

i order poverty to quit india

आपातकालमें क्या हुआ वह सबको ज्ञात है. लाखों लोगोंको बिना कारण बाताये कारावासमें अनिश्चित कालके लिये रखना, समाचार पर अंधकार पट, सरकार द्वारा अफवाहें फैलाना, न्यायालयके निर्णयों पर भी निषेध, भय फैलाना…. अदि जो भी सरकारके मनमें आया वह करना. यह आपात्कालकी परिभाषा थी.

Judiciary afraid

जो भारतके नागरिक विदेशमें थे वे भी विरोध करनेसे डर रहे थे. क्यों कि उनको डर था कि कहीं उनका पासपोर्ट रद न हो जाय. क्यों कि सरकारके कोई भी आचार, सिर्फ मनमानीसे चलता था. इसमें अपना उल्लु सिधा करनेवालोंको भी नकार नहीं सकते.

लेकिन सरकार कैसी भी हो, जब वह अकुशल हो तो वह अपना माना हुए ध्येय क्षमतासे नहीं प्राप्त कर सकती. गुजरातमें “जनता समाचार” और “जनता छापुं” ये दो भूगर्भ पत्रिकाएं चलती थीं. गुजरातमें बाबुभाई पटेलकी सरकार थी तब तक ये दोनों चले. इन्दिरा गांधीने कुछ विधान सभ्योंको भयभित करके पक्षपलटा करवाया और सरकारको गिराया. और ये भूगर्भ पत्रिका वालोंको कारावासमें भेज दिया.

जनता तो डरी हई थी. प्रारंभमें तो कुछ मूर्धन्यों द्वारा आपातकालका अनुमोदन हुआ या तो करवाया. लेकिन बादमें सच सामने आने लगा. आपात्काल, अपने बोज़से ही समास्याएं उलज़ाने की अक्षमताके कारण थकने लगा.

इन्दिरा आपात्काल के समय में डरी हुई रहेती थी. घरमें जरा भी आहटसे वह चौंक जाती थीं ऐसे समाचार भूगर्भ पत्रिकाओंमे आते रहे थे.  इन्दिरा गांधी, वास्तवमें सही विश्वसनीय परिस्थित क्या थी यह जाननेमें वह असमर्थन बनी थी.

साम्यवादी लोग, इस आपात्कालको क्रांतिका एक शस्त्र बनाने के लिये उत्सुक थे. लेकिन क्रांति क्या होती है और साम्यवादीयोंकी सलाह कहां तक माननी चाहिये, उनकी बातों पर इन्दिराको विश्वास नहीं था. उनके कई संपर्क उद्योगपतियोंसे थे. इन्दिरा गांधी स्वयं अपने बेटे संजयसे कार बनवाना चाहती थी. उसके सिद्धांत में कोई मनमेल नहीं था. वह दीशाहीन थी और उसके भक्त भी दीशा हीन थे.

एक और साहस

परिस्थिति हाथसे चली जाय, उसके पहेले वह फिरसे प्रधान मंत्री बनना चाहती थी ताकि वह आरामसे सोच सकें.   ऐसा चूनावी साहस उसने १९७१में लिया था और उसको विजय मिली थी. उसने आपात्काल चालु रखके ही चूनावकी घोषणा की.

कुछ लोग समज़ते है कि, इन्दिरा गांधीने आपात्काल हटा लिया था और फिर चूनाव घोषित किया था. यह बात वास्तवमें जूठ है.

जब वह खूद हार गयी तो उसने सेना प्रमुखको सत्ता हाथमें ले लेनेका प्रस्ताव दिया था. लेकिन सेनाने उसको नकार दिया था. तब इन्दिरा गांधीने आपात्कालको उठा लिया और यह निवेदन दिया कि, मैंने तो जरुरी था इसलिये आपात्काल घोषित किया था. अब यदि आपको लगे कि मैं सत्य बोलती थीं तो आप फिरसे आपात्काल लगा सकते हैं.

वास्तवमें उसको आपात्काल चालु रखके ही सत्ताका हस्तांतरण करना चाहिये था. यदि आने वाली सरकारको आपात्काल आवश्यक न लगे तो वह आपात्कालको उठा सकती थी. यह भी तो एक वैचारिक विकल्प था. लेकिन इन्दिरा गांधी ऐसा साहस लेना चाहती नहीं थीं. क्यों कि उसको डर था कि विपक्ष आपात्कालका आधार लेके उनको ही गिरफ्तार करके कारावास में भेज दें तो?

जो लोग कारावासमें थे वे सब एक हो गये. और इस प्रकार विपक्षका एक संगठन बना.

विपक्षके कोई भी नेताके नाम पर कोई कालीमा नहीं थी. सबके सब सिर्फ जनतंत्र पर विश्वास करने वाले थे. उनकी कार्यरीति (परफोर्मन्स)में कोई कमी नहीं थी. न तो उन्होने पैसे बनाये थे न तो उन्होंने कोई असामाजीक काम किया था, न तो कोई विवाद था उनकी प्रतिष्ठा पर.

मोरारजी देसाई, ज्योर्ज फर्नान्डीस, मधु दन्डवते, पीलु मोदी, मीनु मसाणी, दांडेकर, मधु लिमये,  राजनारायण, बहुगुणा, अजीत सिंह … ये सब इन्दिरा विरोधी थे. जब कोम्युनीस्टोंने देखा कि इन्दिरा कोंग्रेसका सहयोग करनेसे उनको अब कोई लाभ नहीं तो वे भी जनता मोरचाका समर्थन करने लगे.

आपात्कालसे डरी हुई  शिवसेना भी सियासती लाभ लेनेके लिये जनता मोरचाको सहयोग देनेके लिये आगे आयी. आंबेडकरका दलित पक्ष भी जनता मोरचाके समर्थनमें आगे आया. जगजीवन राम भी इन्दिराको छोड कर जनता मोरचामें सामिल हो गये.

हाँ जी. यह संगठनका नाम जनता मोरचा था. उसके सभी प्रत्याषी जनता दलके चूनाव चिन्ह पर चूनाव लडे थे.

जनता फ्रंटको भारी बहुमत मिला.

janata from ministry

प्रधान मंत्री बननेके लिये थोडा विवाद अवश्य हुआ.

जय प्रकाश नारायणकी मध्यस्थतामें सभी निर्णय लिये गये और उनके निर्णयको सभीने मान्य भी रखा. सबसे वरिष्ठ, उज्ज्वल और निडर कार्यरीतिके प्रदर्शन वाले मोरारजी देसाईको प्रधान मंत्री बनाया गया. वह भी सर्वसंमतिसे बनाया गया. जयप्रकाश नारायणने इन सबकी शपथ विधि भी राजघाट संपन्न करवाई.

इस प्रधान मंडलमें कोई कमी नहीं थी. मन भी साफ था ऐसा लगता था.

गठबंधनवाली सभी पार्टीयोंका जनता पार्टीमें विलय हुआ.

जनता पार्टीने क्या किया?

(१) सर्व प्रथम इस गठबंधनवाली सरकारने फिरसे कोई सरमुखत्यारी मानसिकता वाला प्रधान मंत्री आपात्काल देश के उपर लाद न सके उसका प्रावधान किया.

(२) उत्पादनकी इकाईयों उपरके अनिच्छनीय प्रतिबंध रद किया. जिसका परिणाम १९८०से बाद मिला.

(३) नोटबंदी लागु की जिसमें ₹ १००० ₹ ५००० और ₹ १०००० नोंटे रद की गयी.

(४) आपात्कालके समयमें जो अतिरेक हुआ था, उसके उपर जाँच कमीटी बैठायी.

१९७७के चूनाव परिणामके पश्चात यशवंतराव चवाणने इन्दिरा कोंग्रेससे अलग हो कर अपना नया पक्ष एन.सी.पी. बनाया.

जगजीवन राम तो चूनावसे पहेले ही जनता पार्टीमें आ गये थे.

अब गठबंधनका जो एक पार्टीके रुपमें था तो भी उसका क्या हुआ?

चौधरी चरण सिंहमें धैर्यका अभाव था. उनको शिघ्र ही प्रधान मंत्री बनना था.

उनकी व्युह रचना मोरारजी देसाई जान गये, और उन्होंने चौधरीको रुखसद दे दी. उस समय यदि जनसंघके नेता बाजपाई बीचमें न आते तो चरण सिंहके साथ अधिक संख्या बल न होने से उनके साथ २० से २५ ही सदस्य जाते.

मोरारजीने बाजपाई की बात मानली. यह उनकी गलती साबित हुई. क्यों कि चरण सिंह तो सुधरे नहीं थे. और वे कृतघ्न ही बने.

इन्दिराने इसका लाभ लिया. यशवंत राव चवाणने उसका साथ दिया. थोडे समयके अंदर चरण सिंहने अपने होद्देके कारण कुछ ज्यादा संख्या बल बनाया. और तीनोंने मिलकर मोरारजी देसाईकी सरकारको गीरा दी.

मोरारजी देसाईने प्रधान मंत्रीके पदसे त्याग पत्र दे दिया. लेकिन संसदके नेता पदसे त्याग पत्र नहीं दिया. यदि उन्होने त्याग पत्र दिया होता तो शायद सरकार बच जाती. लेकिन जगजीवन राम प्रधान मंत्री बननेको तयार हो गये. चरण सिंह और जगजीवन राममें बनती नहीं थी. इस लिये उन्होने नहेरुने जैसा जीन्ना के बारेमें कहा था उसके समकक्ष बोल दिया कि, मैं उस चमार को तो कभी भी प्रधानमंत्री बनने नहीं दुंगा.

जब ये नेता नहेरुवीयन कोंग्रेसमें थे तो उनके प्रधान मंत्री बननेकी शक्यताओंको नहेरुवीयनोंने निरस्त्र कर दिया था. वे सब इसी कारणसे नहेरुवीयन कोंग्रेससे अलग हुए थे या तो अलग कर दिया था.

उपरोक्त संगठन वरीष्ठ नेताओंका प्रधान मंत्री बननेकी इच्छाका भी एक परिमाण था. प्रधान मंत्री बननेकी इच्छा रखना बुरी बात नहीं. लेकिन अयोग्य तरीकोंसे प्रधान मंत्री बनना ठीक बात नहीं है.

प्रवर्तमान गठबंधनका प्रयास

अभी तक इन सभी नेताओं की संतान नहेरुवीयन कोंग्रेसको शोभायमान कर रही थीं. उनको महेसुस हो गया कि अब प्रधान मंत्री बनने के बजाय यदि प्रधान पद भी मिल जाय तो भी चलेगा.

इसलिये चरण सिंघ, जगजीवन राम, वीपी सींघ, बहुगुणा, गुजराल, एन.टी. रामाराव,  … आदि की संतान नहेरुवीयन कोंग्रेसको सपोर्ट देनेको तत्पर है. लेकिन जब नहेरुवीयन कोंग्रेस भी डूब गयी और उनका संख्या बल कम हो गया तो इनकी संतानोंमें फिरसे उनके अग्रजोंकी तरह वह सुसुप्त इच्छाएं जागृत हुई है.

यदि २०१९में ये सरकार चले भी तो उनका कारण देशको लूटनेमें सहयोग की वजहसे चलेगी. जैसे मनमोहन सिंघकी सरकार १० साल चली थी क्यों कि मनमोहन सिंघने सबको अपने अपने मंत्रालयमें जो चाहे वह करने की छूट दे रक्खी थी. शीला दिक्षित, ए. राजा, चिदंबरम आदि अनेक के कारनामे इसकी मिसाल है. इन लोगोंको यथेच्छ मनमानी करने की छूट दे दी थी. जब न्यायालय स्वयं विवादसे परे न हो तो इन लोगोंको कौन सज़ा दे सकता है?

आप देख लो सोनिया, माया, मुल्लायम, लालु, शरद पवार, जया, शशिकला, फारुख, ममता आदि सभी नेता पर एक या दुसरे कौभान्ड के आरोप है. कुछ लोग तो सजा काट रहे है, कुछ लोग बेल पर है और बाकी नेता न्यायालयमें सुनवाई पर है.

किसी भी मुंबई वालेको पूछोगे तो वह शिवसेना को नीतिमत्ताका प्रमाण पत्र देगा नहीं. महाराष्ट्रके मुख्यमंत्रीने उनके पर काट लिया है इस लिये वह भी अब ये नया गठबंधनमें सामिल होने जा रहा है.

गठ बंधनका  कोई भी नेता, नरेन्द्र मोदी के पैंगडेमें पैर रखनेके काबिल नहीं है.

अब जो विद्वान और मोदी-फोबियासे पीडित है वे और सर्वोदय वादी या गांधीवादी बचे है वे न तो गांधीवादी है न तो सर्वोदयवादी है. वे सब खत-पतवार (वीड) है. वे लोग सिर्फ अपने नामकी ख्याति के लिये मिथ्या आलाप कर रहे हैं.  

२०१९का चूनाव, भारतमें विवेचकोंकी, विद्वानोंकी और  मूर्धन्योंकी विवेक शक्तिकी एक परीक्षा स्वरुप है. १९७७में तो जयप्रकाश और मोरारजी देसाई जैसे गांधी वादी विद्यमान थे. इससे शर्मके मारे ये लोग जनतंत्रकी रक्षाके लिये बाहर आये. किन्तु अब ये लोग अपना कौनसा फरेबी रोल अदा करते हैं वह इतिहास देखेगा.

शिरीष मोहनलाल दवे

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