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दायें पप्पु, बांये पप्पु, आगे पप्पु, पीछे पप्पु बोले कितने पप्पु?

दायें पप्पु, बांये पप्पु, आगे पप्पु, पीछे पप्पु बोले कितने पप्पु?

पप्पु पप्पु और पप्पु

पप्पुयुगका पिता वैसे तो मोतीलाल नहेरु है, लेकिन उनको तो शायद मालुम ही नहीं होगा कि वे एक नये पप्पु-युगकी नींव रख रहे है.

पहेला पप्प कौन?

आदि पप्पु यानी कि रा.गा. (राहुल गांधी) ही है किन्तु पप्पु युगका निर्माण तो नहेरुने ही किया. नहेरु ही प्रथम पप्पु है. यानी कि पप्पु-वंश तो नहेरुसे ही प्रारंभ हुआ.

क्या नहेरु पप्पु थे?

सोच लो. यदि आपने किसीको अमुक काम करनेसे मना किया. और इतिहासका हवाला भी दिया. भयस्थान भी बताये. फिर भी यदि आप वो काम करते हो तो लोग आपको पप्पु नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे.

(१) जी हाँ, नहेरुने ऐसा ही किया था. सप्टेंबर १९४९में तिबट पर चीन ने आक्रमण किया, तो नहेरुने सरदार पटेलके पटेलके संकेत और चेतावनी को नकारा और कहा कि चीनने उसको आश्वासन दिया है कि वह तिबटके साथ शांतिसे नीपटेगा. यह तो कहेता बी दिवाना और सूनता भी दिवाना जैसी बात थी.  और १९५१ आते आते चीनने तिबट पर कबजा कर दिया. इस अनादर पर भी नहेरुने दुर्लक्ष्य दिया. और चीनसे घनिष्ठ मैत्री संबंध (पंचशील) का  अनुबंध किया.

(२) तिबटको अब छोडो. पंचशीलके बाद भी चीनकी सेनाका अतिक्रमण प्रारंभ हो गया और जब वह बार बार होने लगा तो संसदमें प्रश्न भी उठे. नहेरुने संसदमें जूठ बोला. आचार्य क्रिपलानीने इसके उपर ठीक ठीक लिखा है.

(३) चीनकी घुस खोरीको अब छोडो. १९४७में नहेरुको गांधीजीने बताया कि शेख अब्दुल्ला पर सरदार पटेल विश्वास करते नहीं है. और लियाकत अली कश्मिरके राजाको स्वतंत्र रहेनेको समज़ा रहे है. काश्मिर न तो पाकिस्तानमें जा सकता है, न तो वह स्वतंत्र रह सकता है. काश्मिरको तो भारतके साथ ही रहेना चाहिये. लेकिन नहेरुने महात्मा गांधीकी बात न मानी और शेख अब्दुल्ला पर विश्वास किया.

(४) नहेरु इतने आपखुद थे कि राजाओंकी तरह उनके उपर कोई नियम या सिद्धांत चलता नहीं था. एक तरफ वे लोकशाहीका गुणगान करते थे और दुसरी तरफ उन्होंने शेख अब्दुलाको खुश करनेके लिये बिनलोकशाहीवादी अनुच्छेद ३७०/३५ए अ-जनतांत्रिक तरीकेसे संविधानमें सामेल किया. अस्थायी होते हुए भी जब तक वे जिन्दा रहे तब तक उसको छेडा नहीं, और १९४४से कश्मिरमें स्थायी हुए हिन्दुओंको ज्ञातिके आधार पर और मुस्लिम स्त्रीयोंको लिंगको आधार बनाके मानवीय और जनतांत्रिक अधिकारोंसे वंचित रक्खा.

इसको आप पप्पु नहीं कहोगे तो क्या कहोगे?

क्या इन्दिरा गांधी पप्पु थी?

१९७१की इन्डो-पाक युद्धमें भारतकी विजयका श्रेय इन्दिराको दिया जाता है. यह एक लंबी चर्चाका विषय है. किन्तु जरा ये परिस्थिति पर सोचो कि पाकिस्तान किस परिस्थितिमें युद्ध कर रहा था और बंग्लादेशकी मुक्ति-वाहिनी (जिसको भारतकी सहाय थी) किस परिस्थितिमें युद्ध कर रही थीं. भारतीय सेनाको यह युद्ध जीतना ही था उसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था. और सेनाने तो अपना धर्म श्रेष्ठता पूर्वक निभाया.

किन्तु इन्दिरा यदि पप्पु नहीं थी तो उसने अपना धर्म निभाया? नहीं जी. जरा भी नहीं. जो परिस्थिति उस समय पाकिस्तानकी थी और जो परिस्थिति भारतकी थी, यदि इन्दिरामें थोडी भी अक्ल होती तो वह कमसे कम पाकिस्तान अधिकृत कश्मिर तो वह ले ही सकती थी. यदि ऐसा किया होता तो भारतने जो अन्य जीती हुई पाकिस्तानकी भूमि, और पाकिस्तानी युद्धकैदीयोंको परत किया उसको क्षम्य मान सकते थे. पाकिस्तानके उपर पेनल्टी नहीं लगायी, खर्चा वसुल नहीं किया उसको भी लोग भूल जाते.

बंग्लादेशमें ३० लाख हिन्दुओंकी कत्ल किसने छूपाया?

बंग्लादेशके अंदर पाकिस्तानकी सेनाने  ४०लाख लोगोंकी हत्या की थी इनमें ३० लाख हिन्दु थे १० लाख मुस्लिम थे. इन्दिरा गांधी जब भूट्टोके साथ सिमलामें बैठी थी तब क्या उसको इस तथ्य ज्ञात नहीं था? वास्तवमें उसको सबकुछ मालुम था. तो भी उसने न तो बंग्लादेशके साथ कोई भारतके श्रेय में कोई अनुबंध (एग्रीमेन्ट) किया न तो पाकिस्तानके साथ कोई भारतीय हितमें कोई अनुबंध किया. इतना ही नहीं, एक करोड निर्वाश्रित जो भारतमें आ गये थे उनको वापस भेजनेके बारेमें प्रावधानवाला कोई भी अनुबंध किसीके साथ नहीं किया.

उस समय आतंकवाद भारतमें तो नहीं था. भारतके बाहर तो था ही. प्रधानमंत्री होनेके नाते और “भारतीय गुप्तचर सेवा” के आधार पर भारतके बाहर तो अति उग्रतावाली आतंकी गतिविधियां  अस्तित्वमें थीं ही. वे प्रवृत्तियां कहाँ कहाँ अपना विस्तार बढा सकती है वह भी प्रधानमंत्रीको अपने बुद्धिमान परामर्शदाताओंसे (एड्वाईज़रोंसे)   मिलती ही रहेती है. यह तो आम बात है. किन्तु इन्दिराने भारतके हितकी उपेक्षा करके भूट्टो की यह बात मान ली “यदि मैं पाकिस्तान अधिकृत काश्मिरकी समस्या आपके साथ हल कर दूं और तत्‌ पश्चात्‍ मेरी यदि हत्या हो जाय तो उस डील का क्या मतलब.” फिर इन्दिराने “इस मसलेको आपसमें वार्ता द्वारा ही हल करना” ऐसा अनुबंध मान लिया. इसका भी क्या लाभ हुआ. पाकिस्तानने आतंकीओ द्वारा और कई समस्याएं उत्पन्न की. सिमला अनुबंधन तो पप्पु ही मान्य कर सकता है.  

 राजिव गांधी ने पीएम पदका स्विकार करके, श्री लंकाके आंतरिक हस्तक्षेप करके और शाहबानो न्यायिक निर्णयको निरस्त्र किया यह बात ही उसका पप्पुत्त्व सिद्ध किया.

सोनिया, राहुल और प्रियंका का पप्पुत्त्व सिद्ध करनेकी आवश्यकता नहीं.

यह पप्पुत्त्वकी महामारी ममता, मुलायम, लालु, शरद पवार … आदि कोंगीके सहयोगी पक्षोमें ही नहीं लेकिन बीजेपीके सहयोगी शिवसेनामें भी फैली है.

शिवसेनाका पप्पुत्व तो शिवसेना अपने सहयोगी बीजेपी के विरुद्ध निवेदन करके सिद्ध करता ही रहेता है.

उद्धव ठाकरेका क्या योगदान है? भारतके हितमें उसमें क्या किया है? यह उद्धव ठाकरे अपने फरजंद आदित्यको आगे करता है. आदित्यका क्या योगदान है? उसका अनुभव क्या है? क्या किसीने कहा भी है कि वह आदित्य के कारण चूनाव जीता है? शिवसेना स्वयं अपने कुकर्मोंके कारण मरणासन्न है किन्तु वह भी कोंगीकी तरह पगला गया है. चूनावमें शिवसेनाकी सफलता  अधिकतम ४५ प्रतिशत है. जब की बीजेपीकी सफलता ६५ प्रतिशत है.

“५०:५०” का रहस्य क्या है?

५० % मंत्री पद बीजेपीके पास और ५०% मंत्री पद शिवसेनाके पास रहेगा यदि दोनोंको समान बैठक मिली. किन्तु शिवसेनाको तो बीजेपीसे आधी से भी कम बैठकें मिली. और फिर भी उसको चाहिये मुख्य मंत्रीपद. यह तो “कहेता भी दिवाना और सूनता भी दिवाना” जैसी बात हुई. गठ बंधनको जो घाटा हुआ उसमें शिवसेना जीम्मेवार है. उसका हक्क तो १/३ मंत्री पद पर भी नहीं बनता है.

शिवसेना के विरुद्ध क्या क्या मुद्दे जाते है.

शिवसेनाका साफल्य केवल ४० प्रतिशत है. मतलब वह तृतीय कक्षामें पास हुआ है.

बीजेपीका साफल्य ६५% है. मतलब विशिष्ठ योग्यताके समकक्ष है.

बीजेपी उसको ५० प्रतिशत मंत्रीपद देनेको तयार है. लेकिन शिवसेना को तो इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री पद भी चाहिये.

मतलब की तृतीय कक्षामें पास होनेवाला आचार्य बनना चाहता है.

इतना ही नहीं किन्तु शिवसेना अपने पक्षके वंशवादी प्रमुखकी संतान को आचार्य बनाना चाह्ता है.

पप्पुके आगे पप्पु, पप्पुके पीछे पप्पु बोले कितने   पप्पु?

पप्पुको डीरेक्ट हिरो बना दो

क्या किया जाय?

शिवसेना के आदित्य को मुख्य मंत्री के बनानेके लिये = शिवसेना+कोंगी+एनसीपी

शिवसैनी पप्पुको पप्पुकी कोंगीका और शरदकी कोंगीका सहयोग लेके मुख्य मंत्री और सरकार बनाने दो. शिवसैनी पप्पुको भी पता चल जायेगा कितनी बार वीस मिलानेसे एक सौ बनता है (गुजरातीमें मूँहावरा है “केटला वीसे सो थाय” तेनी खबर पडशे.)

शिरीष मोहनलाल दवे

https://www.treenetram.wordpress.com

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मीडीया वंशवादको बढवा देता है

मीडीया वंशवादको बढवा देता है

बीजेपीका शस्त्रः

राष्ट्रवादी होने के कारण बीजेपीका,  विपक्षके विरुद्ध सबसे बडा आक्रमणकारी शस्त्र, वंशवादका विरोध था और होना भी आवश्यक है. वंशवादने भारतीय अर्थतंत्रको और नैतिकताको अधिकतम हानि की है.

वंशवाद क्या है?

हम केवल राजकारणीय वंशवादकी ही चर्चा करेंगे.

अधिकतर लोग वंशवादके प्रकारोंके भेदको अधिगत नहीं कर सकते.

पिताके गुण उसकी संतानोंमे अवतरित होते है. सभी गुण संतानमें अवतरित होनेकी शक्यता समान रुपसे नहीं होती है. वास्तवमें तो माता-पिताके डीएनएकी प्राकृतिक अभिधृति (टेन्डेन्सी) ही संतानमें अधिकतर अवतरित होती है. अधिकतर गुण तो संतान कैसे सामाजिक और प्राकृतिक वातावरणमें वयस्क हुआ उसके उपर निर्भर है. उनमें आर्थिक स्थिति, खानपान, शिक्षा, पठन, चिंतन, चिंतनके विषय, मित्र और मित्र-मंडल, दुश्मन, रोग, प्राकृतिक घटनाएं आदि अधिक प्रभावशाली होता है.

माता-पिताकी संपत्ति का वारस तो संतान बनती ही है, किन्तु, पढाई, आगंतुक विषयोंके प्रकारोंका चयन और उनके उपरके  चिंतन और प्रमाण, नैतिकता और श्रेयके प्रमाण की प्रज्ञा आदिको  तो संतानको स्वयं के अपने श्रम से विकसित करना पडता है.

स्थावर-जंगम संपत्ति तो संतानको प्राप्त हो जाती है. इसमें व्यवसाय भी संमिलित है, लेकिन व्यवसायको अधिक उच्चस्तर पर ले जानेका जो कौशल्य है उसके लिये तो संतानको स्वयं कष्ट उठाना पडता है.

“संतानको पिताके राजकीय पदका वारस बनाना” इस प्रणालीको पुरस्कृत करनेवालोंको हम वंशवादी कहेंगे और उनकी चर्चा करेंगे.

वंशवादकी प्रणालीको पुरस्कृत किसने किया?

नहेरुने वंशवादकी प्रणालीका प्रारंभ किया. वैसे तो मोतीलाल नहेरुने वंशवाद का आरंभ किया था. १९१९में मोतीलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रमुख बने थे. किन्तु १९२०में जवाहरलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रमुख बन नहीं पाये थे. तत्‍ पश्चात्‌, १९२८में भी मोतीलाल नहेरु कोंग्रेस पक्षके प्रमुख बने थे. १९२९में जवाहरलाल नहेरु कोंग्रेसके अस्थायी प्रमुख बने थे. १९३६में पुनः अस्थायी प्रमुख बने और १९३७में बने. १९४६में महात्मा गांधीके सूचनसे फिरसे हंगामी प्रमुख बने. फिर १९५१से सातत्य रुपसे १९५४ तक जवाहरलाल नहेरु कोंग्रेसके प्रमुख बने रहे.

इसके अंतर्गत कालमें नहेरु (जवाहरलाल)ने कोंग्रेसके प्रमुखपदकी सत्ता पर्याप्तरुपसे अशक्त कर दी थी. नहेरुने अपनी दुहिता (इन्दिरा) को भी कोंग्रेस पक्ष की प्रमुख बना डाला था. इस अंतरालमें कोंग्रेसमें क्रमांक – एकका पद प्रधान मंत्रीका हो गया था.

प्रच्छन्न और अप्रच्छन्न गुणः

भारतके उपर चीनकी अतिसरल विजयके बाद शिघ्र ही नहेरुने सीन्डीकेटकी रचना कर दी थी. इससे १९६५में लाल बहादुर शास्त्रीजीकी मृत्युके बाद इन्दिराको (शोक कालके पश्चात्‌)  नहेरुकी वारसाई (दहेजरुप) में  प्रधान पद मिला.

कौशल्य और अनुभवमें इन्दिरा गांधी अग्रता क्रममें कहीं भी आती नहीं थी. फिर भी उसको प्रथम क्रमांक दे दिया. जो दुर्गुण नहेरुमें प्रच्छन्न रुपसे पडे हुए थे वे सभी दुर्गुण  इन्दिरामें प्रकट रुपसे प्रदर्शित हुए. नहेरुकी पार्श्व भूमिकामें स्वातंत्र्यका आंदोलन का उनका योगदान था. इस कारणसे नहेरु प्रकट रुपसे स्वकेन्द्री नहीं बन पाये. किन्तु इन्दिरा गांधीके लिये तो “नंगेको नहाना क्या और निचोडना क्या”. वह तो कोई भी निम्न स्तर पर जा सकती थी. इन्दिराका स्वातंत्र्यके आंदोलनमें ऐसा कोई योगदान ही नहीं था कि उसको स्वकेन्द्रीय बननेमें कुछ भी लज्जास्पद लगें.

नहेरु और वंशवाद

नहेरुने कई काले कर्म किये थे इस लिये उनके काले कर्मोंको अधिक प्रसिद्धि न मिले या तो उनको गुह्य रख सकें, इस लिये नहेरुका अनुगामी नहेरुकी ही संतान हो यह अति आवश्यक था. इन्दिराकी वार्ता भी ऐसी ही है. संजय गांधी राजकारणमें था. संजय गांधीकी अकालमृत्यु हो गई.

वंशवादसे यदि पिताके/माताके सत्तापदकी प्राप्ति की जाती है तो सामाजिक चारित्र्यका पतन भी होता है और देशको हानि भी होती है.

ZERO TO MAKE HERO

इन्दिरा गांधीको नहेरुका सत्तापद मिलनेसे जो लोग इन्दिरासे कहीं अधिक वरिष्ठक्रमांकमें थे, उनकी सेवा देशको मिल नहीं सकी. जगजिवनराम, आचार्य क्रिपलानी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, मोररजी देसाई, राममनोहर लोहिया … आदि वैसे तो कभी न कभी कोंग्रेसमें ही थे. किन्तु उनका अनादर हुआ तो उनको पक्षसे भीन्न होना पडा. वंशवादके कारण, पक्षमें कुशल व्यक्तित्व वालोंकी अवहेलना होती ही रहेती है. इसके कारण पक्षके अंदरके प्रथम क्र्मांककी संतानको छोड कर अन्य किसीको, चाहे वह कितनाही कुशल और अनुभवी क्यूँ न हो, उसको सर्वोच्च पदकी कामना नहीं करना है. इसके कारण पक्षके अन्य  नेता या तो पक्ष छोड देते है, या तो पक्षमें रहकर, अपनी सीमित लोकप्रियताका प्रभाव प्रदर्शित करते रहेते है और इसी मार्गसे धनप्राप्ति करते रहेते है. नैतिकताका पतन ऐसे ही जन्म लेता है.

कोंग्रेसमें अनैतिकताका प्रवेश कैसे हुआ?

नहेरुने “सेनाकी जीपोंके क्रयन (खरीदारीमें)” सुरक्षा मंत्रीको आदेश जाँचका आदेश न दिया. तो ऐसी प्रणाली ही स्थापित हो गई. इन्दिरा गांधीने सोचा की ऐसा तो होता ही रहेता है. तो इन्दिरा गांघीने सरकारी गीफ्टमें मिला मींककोट अपने पास रख लिया. तत्‌ पश्चात्‌ ऐसा आचार सर्वमान्य हो गया. नेतागण स्वयको मिला सरकारी आवास ही छोडते नहीं है. दो दो तीन तीन सरकारी आवास रख लेते है और किराये पर भी दे देते है. यदि सरकार खाली करवायें तो स्नानागारके उपकरण, टाईल्स, एसी, कारपेट, फर्नीचर … उठाके ले जाते हैं. फिर सरकारी कर्मचारीयोंमें भी यही गुण अवतरित होता है. वे लोग सरकारी वाहनका अपनी संतानोंके लिये, पत्नीके नीजी कामोंके लिये उपयोग किया करते है.

प्रतिभा पाटिल जो भारतकी राष्ट्रप्रमुख रही वह अपना कार्यकाल समाप्त होने पर १० टनके १४ मालवाहक भरके संपत्ति अपने साथ ले गयीं थीं. और शिवसेनाके सर्वोच्च नेता बाला साहेब ठाकरेने जो स्वयं अपनेको धर्मके रक्षक के रुपमें प्रस्तूत करते है उन्होंने अपने पक्षके जनप्रतिनिधियोंको आदेश दिया था कि राष्ट्रप्रमुख पदके चूनावमें प्रतिभा पाटिलको, प्रतिभा पाटील, मराठी होनेके कारण  उनका अनुमोदन करें. नीतिमत्ता क्या भाषावाद और क्षेत्रवाद से अधिक है? नीतिमत्ताको कौन पूछताहै!!

शिवसेना भी वंशवादी है. बालासाहेब के बाद, उसके बेटे उद्धव ठाकरेको पक्षका प्रमुख बनाया. अब उद्धव ठाकरेने अपनी ही संतानको मुख्य मंत्री बनानेका संकल्प किया है. क्या शिवसेनामें कुशल नेताओंका अभाव है? यदि ६० वर्षकी शिवसेनाके पास वंशीय नेताकी संतानके अतिरिक्त  प्रभावी और वरिष्ठ नेता ही नहीं है तो ऐसे पक्षको तो जीवित रहेनेका हक्क ही नहीं है.

एन.सी.पी. के शरद पवार भी वंशवादी है. ममता बेनर्जी भी वंशवादी है. मायावती, शेखाब्दुला, मुफ्ती मोहम्मद सईद, मुलायम सिंघ … ये सब वंशवादी है और इन सभीके पक्षोंके नेताओंने वर्जित स्रोतोंसे अधिकाधिक संपत्ति बनायी है. इन लोगोंकी अन्योन्य मैत्री भी अधिक है. इन लोगोंके पक्षोंका अन्योन्य विलय नहीं होता है. क्यों कि उनको लगता है कि भीन्न पक्ष बनाके रहकर हम  सत्तामें प्रथम क्रमांक प्राप्त करें ऐसी शक्यता अधिक है. जब तक प्रथम क्रमांक का मौका नहीं मिलता, तब तक पैसा बनाते रहेंगे. यही हमारे लिये श्रेय है.

वंशवाद पर समाचार माध्यमोंका प्रतिभावः

वंशवादी पक्ष जब चूनावमें सफल होता है और सरकार बनानेमें जब वह  प्रभावशाली भूमिका प्रस्तूत कर सकता है तब मोदी-विरोधी ग्रुपवाले समाचार माध्यम, वंशवादी पक्षके गुणगान करने लगते है. जो समाचार माध्यम मोदी-विरोधी नहीं है वे भी असमंजसकी स्थितिमें आ जाते है.

भारतीय जनता पार्टी वंशवादसे विरुद्ध है. उनका यह विचार उनके लिये एक शस्त्र है. जो लोग मोदीके विरुद्ध है, वे लोग बीजेपीके इस शस्त्र को निस्क्रीय करना चाहते है.

इन समाचार माध्यमोंको देशहितकी अपेक्षा, निर्बल और अस्थिर सरकार अधिक प्रिय है. ये लोग वंशवादकी भर्त्सना नहीं करते है. वे कभी उद्धवकी संतानकी कुशलता की चर्चा नहीं करेंगे. ये समाचार माध्यम, बीजेपीकी कष्टदायक स्थितिका अधिकाधिक विवरण देंगे. उस विवरणमें अतिशयोक्ति भी करेंगे. क्यों कि चमत्कृति और रसप्रदीय रम्यता तो उसमें ही है न!!

यदि पिता/माताकी संतानको सत्तापदका वारस बनानेवाली प्रणाली को नष्ट करना है तो सभी समाचार माध्यमोंको पुरस्कृत वारसकी और उसी पक्षके अन्यनेताओंकी बौद्धिक शक्ति और अनुभव शक्ति की तुलना करनेकी चर्चा करना चाहिये और वंशवादीसे पुरस्कृत संतानकी भर्त्सना करना  चाहिये.

व्युहरचना कुछ भीन्न है

समाचार माध्यमोंका धर्म है कि वे या तो केवल समाचार ही प्रस्तूत करें या तो जनसाधारणको सुशिक्षित करें.

किन्तु हमारे देशके कई समाचार माध्यम के संचालक देश हितको त्यागकर, समाचारोंके द्वारा अपना उल्लु सीधा करने पर तुले हुए है. “भारत तेरे टूकडे होगे”, “कसाबको चीकन बीर्यानी खिलानेवाले”, “हिन्दुओंके मौतके जीम्मेवारों”, गुन्डों और आतंकीयोंको और उनके सहायकों … आदिके जनतांत्रिक अधिकार एवं उनके मानवाधिकारोंकी रक्षा यही उनका एजन्डा है. इनकी प्रज्ञामें भला देश हित कैसे घुस सकें?

सत्ता क्या चोरीका माल है?

ये लोग चाहते है कि शिवसेना के सबसे कनिष्ठ, अनुभवहीन और वरीष्ठता क्रममें कहीं भी न आनेवाले उद्धव ठाकरेके लडकेको सीधा ही मुख्यमंत्री बनाया जाय. यदि बीजेपी उसको उपमंत्री पद  दे तो भी यह व्यवस्था उचित नहीं है. क्यों कि विपक्षको तो मौका मिलजायेगा कि देखो बीजेपी भी वंशवादमें मानती है और वंशवादमें माननेवाले पक्षका सहयोग ले रही है.

बीजेपी को भी सोचना चाहिये कि यह  शिवसेना, एनसीपी और कोंगीकी चाल भी हो सकती है कि अब बीजेपी वंशवादके विरुद्ध न बोल सके. श्रेय तो यही होगा कि बीजेपी, शिवसेना को स्पष्ट शब्दोंमें कहे दे कि मंत्रीपद, योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर ही मिलेगा. यह कोई लूट का माल नहीं है कि ५०:५० के प्रमाणसे वितरण किया जाय.

शिवसेना अल्पमात्रामें भी विश्वसनीय नहीं है. इनके नेता, बीजेपीके उपर दबाव बनानेका एक भी अवसर छोडते नहीं है. और परोक्षरुपसे कोंगी आदि विपक्षको ही सहाय करते है.

याद करो ये वही शिवसेना है जिसके शिर्षनेता और स्थापक बालासाहेब ठाकरेने, जब बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुई तो कहा था कि ये भूमि पर न तो मस्जिद बने न तो मंदिर बने. इस पर अब चिकीत्सालय बनना चाहिये.

यही शिवसेना के नेतागण यह कहेनेका अवसर चूकते नहीं कि बीजेपी मंदिर निर्माणमें विलंब कर रहा है.

ईन लोगोंसे सावधान,

शिरीष मोहनलाल दवे

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सोमनाथका मंदिर कैसे तोडा जाय? भाग-२

सोमनाथका मंदिर कैसे तोडा जाय? भाग-२

असत्यवाणी नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंका धर्म है

यह कोई नई बात नहीं है. नहेरुने खुदने चीनी सेनाके भारतीय भूमिके अतिक्रमणको नकारा था. तत्पश्चात्‌ भारतने ९२००० चोरसवार भूमि, चीनको भोजन-पात्र पर देदी थी. ईन्दिरा गांधी, राजिव गांधी आदिकी बातें हम २५ जूनको करेंगे. किन्तु नहेरुवीयन कोंग्रेस अलगतावादी मुस्लिम नेताओंसे पीछे नहीं है.

नहेरुवीयन कोंग्रेस अपने सांस्कृतिक फरजंदोंसे सिखती भी है.

यह कौनसी सिख है?

शिवसेना नहेरुवीयन कोंग्रेसका फरज़ंद है.

जैनोंके पर्युषणके पर्व पर मांसकी विक्री पर कुछ दिनोंके लिये रोक लगाई तो शिवसेनाके कार्यकर सडक पर उतर आये. और उन्होंने इस आदेशके विरोधमें मांसकी विक्री सडक पर की. (यदि वेश्यागमन पर शासन निषेध लाता तो क्या शिवसेनावाले सडक पर आके वेश्यागमन करते?)

गाय-बछडेका चूनाव चिन्हवाली नहेरुवीयन कोंग्रेसने शिवसेनासे क्या सिखा?

नहेरुवीयन कोंग्रेसको शिवसेनासे प्रेरणा मिली.

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यह बात नहेरुवीयन कोंग्रेसके संस्कारके अनुरुप है. नहेरुवीयन कोंग्रेसने चिंतन किया. निष्कर्ष निकाला कि गौवध-बिक्री-नियमन वाला विषय उपर प्रतिकार करना यह मुस्लिमोंको और ख्रीस्तीयोंको आनंदित करनेका अतिसुंदर अवसर है.

केन्द्र सरकारने तो गौ-वंशकी यत्किंचित प्रजातियोंकी विक्रीके नियमोंको सुग्रथित किया और नहेरुवीयन कोंग्रेसकी यथेच्छ रक्खी क्षतियोंको दूर किया ताकि स्वस्थ और  युवापशुओंकी हत्या न हो सके.

अद्यपर्यंत ऐसा होता था कि कतलखाने वाले, पशुबिक्रीके मेलोंमेंसे, बडी मात्रामें  पशुओंका क्रयन करते थे. और स्वयंके निश्चित चिकित्सकोंका प्रमाणपत्र लेके हत्या कर देते थे.

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आदित्यनाथने अवैध कतलखानोंको बंद करवाया तो नहेरुवीयन कोंग्रेसवालोंने और उनके सांस्कृतिक साथीयोंने कोलाहल मचा दिया और न्यायालयमें भी मामला ले गये कि शासक, कौन क्या खाये उसके उपर अपना नियंत्रण रखना चाहता है. अधिकतर समाचार माध्यमोंने भी अपना ऐसा ही सूर निकाला.

बीजेपीने गौ-वंशकी यत्किंचित प्रजातियोंकी विक्रीके नियमोंको सुग्रथित करनेवाला जो अध्यादेश जारी किया तो नहेरुवीयन कोंग्रेसको लगा कि कोमवाद फैलानेका यह अत्याधिक सुंदर अवसर है.

केरलमें नहेरुवीयन कोंग्रेसके कई सदस्य सडक पर आ गये. एक बछडा भी लाये. नहेरुवीयन कोंग्रेसके सदस्योंने बछडेको सरे आम काटा भी. नहेरुवीयन कोंग्रेसके सदस्योंने बछडेके मांसको सडक पर ही एक चूल्हा बनाके अग्निपर पकाया भी. नहेरुवीयन कोंग्रेसके सदस्योंने इस मांसको बडे आनंदपूर्वक खाया भी.

भोजनका भोजन विरोधका विरोध

अपने चरित्रके अनुरुप नहेरुवीयन कोंग्रेस केवल जूठ ही बोलती है और जूठके सिवा और कुछ नहीं बोलती. तो अन्य प्रदेशके नहेरुवीयन नेताओंने तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है और बीजेपी व्यर्थ ही नहेरुवीयन कोंग्रेसको बदनाम कर रही है ऐसे कथन पर ही अडे रहे. लेकिन जब यह घटनाकी वीडीयो क्लीप सामाजिक माध्यमों पर और समाचार माध्यमों पर चलने लगी तो उन्होंने बडी चतुराईसे शब्द प्रयोग किये कि “केरलमें जो घटना घटी उसकी हम निंदा करते है. ऐसी घटना घटित होना अच्छी बात नहीं है चाहे ऐसी घटना बीजेपीके कारण घटी हो या अन्योंके कारण. हमारे पक्षने ऐसे सदस्योंको निलंबित किया है.” नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेतागण घटनाका विवरण करनेसे वे बचते रहे. एक नेताने कहा कि हमने सदस्योंको निलंबित किया है. अन्य एक नेताने कहा कि हमने निष्कासित किया है. क्या नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेतागण अनपढ है? क्या वे सही शब्दप्रयोग नहीं कर सकते?

मस्जिदमें गयो तो ज कोन

केरलकी सरकार भी तो साम्यवादीयोंकी गठबंधनवाली सरकार है. सरकारने कहा कि “हमने कुछ  व्यक्तियोंपर धार्मिकभावना भडकानेवाला केस दर्ज किया है.

साम्यवादी पक्षके गठबंधनवाली सरकार भी नहेरुवीयन कोंग्रेससे कम नहीं है. वास्तवमें यह किस्सा केवल धार्मिक भावना भडकानेवाला नहीं है. केरलकी सरकारके आचार पर कई प्रश्नचिन्ह उठते है.

कौन व्यक्ति पशुकी हत्या कर सकता है?

क्या कोई भी व्यक्ति पशु की हत्या कर सकता है?

क्या कोई भी व्यक्ति कोई भी स्थान पर पशुकी हत्या कर सकता है?

क्या कोई भी व्यक्ति किसी भी अस्त्रसे पशुकी हत्या कर सकता है?

क्या कोई भी व्यक्ति कहीं भी चुल्हा जला सकता है?

क्या कोई भी व्यक्ति कहीं भी खाना पका सकता है?

वास्तवमें पशुओंको काटनेकी आचार संहिता है. यह आचार संहिता कतलखानोंके नियमोंके अंतर्गत निर्दिष्ट है.

नहेरुवीयन कोंग्रेस एक, ठग-संगठन है. जनतंत्रमें अहिंसक विरोध प्रदर्शित करना एक अधिकार है. किन्तु कानूनभंगका अधिकार नहीं है. सविनय कानूनभंग करना एक रीति है. किन्तु उसमें आपको शासनको एक प्रार्थनापत्र द्वारा अवगत कराना पडता है कि आप निश्चित दिवस पर, निश्चित समयपर, निश्चित व्यक्तिओं द्वारा, निश्चित नियमका, भंग करनेवाले है. नियमभंगका कारणका विवरण भी देना पडता है. और इन सबके पहेले शासनके अधिकृत व्यक्ति/व्यक्तियोंसे चर्चा करनी पडती है. उन विचारविमर्शके अंतर्गत आपने यह अनुभूति हुई कि शासनके पास कोई उत्तर नहीं है, तभी आप सविनय नियमभंग कर सकते है. जब नहेरुवीयन कोंग्रेसके शिर्षनेताओंको भी महात्मागांधीके सविनय कानूनभंगकी प्रक्रिया अवगत नहीं है तो इनके सिपोय-सपरोंको क्या खाक अवगत होगा? केरलकी घटना तो एक उदाहरण है. ऐसे तो अगणित उदाहरण आपको मिल जायेंगे.

नहेरुवीयन कोंग्रेस करनेवाली है मानवभ्रूणका भोजन-समारंभ

नहेरुवीयन कोंग्रेसको मानवभ्रुणके मांसके भोजन के लिये भी आगे आना चाहिये. साम्यवादी लोग, नहेरुवीयन कोंग्रेसको अवश्य सहयोग करेंगे, क्यों कि, चीनमें मानवभ्रुणका मांस खाया जाता है. साम्यवादी लोगोंका कर्तव्य है कि वे लोग चीन जैसे शक्तिशाली देशकी आचार संहिताका पालन करें वह भी मुख्यतः जिन पर भारतमें निषेध है. और नहेरुवीयन कोंग्रेस तो साम्यवादीयोंकी सांस्कृतिक सहयोगी है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसके प्रेरणास्रोत

तैमुर, महम्मद गझनवी, महम्मद घोरी, अल्लौदीन खीलजी, आदि मुसलमान राजा तो मुसलमानोंके प्रेरणास्रोत है. ऐसे मुसलमान कोई सामान्य कक्षाके नहीं है. आप यह प्रश्न मत उठाओ कि तैमुर, महम्मद गझनवी, महम्मद घोरी, अल्लौदीन खीलजी, आदि मुसलमान राजाओंने तो हमारे मुसलमान भाईओंके पूर्वजोंका कत्ल किया था. किन्तु यह बात स्वाभाविक है जब आप मुसलमान बनते है तो आपके कोई भारतीय पूर्वज नहीं होते, या तो आप आसमानसे उतरे है या तो आप अरबी है या तो आप अपने पूर्वजोंकी संतान नहीं है. इसी लिये तैमुर, महम्मद गझनवी, महम्मद घोरी, अल्लौदीन खीलजी, आदि मुसलमान राजा आपके प्रेरणास्रोत बनते है. यदि आप सीधे आसमानसे उतरे हैं तो यह तो एक चमत्कार है. किन्तु मोहम्मद साहब तो चमत्कारके विरुद्ध थे. तो आप समज़ लो कि आप कौन है. किन्तु इस विवादको छोड दो. ख्रीस्ती लोग भी मुसलमान है. क्यों कि मुसलमान भी ईसा को मसिहा मानते है. या तो मुसलमान, ख्रीस्ती है, या तो ख्रीस्ती, मुसलमान है. जैसे वैष्णव लोग और स्वामीनारयण लोग हिन्दु है.

नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक साथीयोंको मुसलमानोंका अपूर्ण कार्यको, पूर्ण करना है, इस लिये उनका कर्तव्य बनता है कि जो कार्य मुसलमानोंने भूतकालमें किया उसीको नहेरुवीयन कोंग्रेस आगे बढावे. मुसलमानोंने सोमनाथके मंदिरको बार बार तोडा है. हिन्दुओंने उसको बार बार बनाया है. तो अब नहेरुवीयन कोंग्रेसका धर्म बनता है कि वे पूनर्स्थापित सोमनाथ मंदिरको भी ध्वस्त करें.

देशको तो तैमुर, महम्मद गझनवी, महम्मद घोरी, अल्लौदीन खीलजी, आदि मुसलमानोंने लूटा था. अंग्रेजोने भी लूटा था. नहेरुवीयन कोंग्रेस ६० वर्षों तक लूटती ही रही है, किन्तु नहेरुवीयन कोंग्रेसने अभीतक सोमनाथ मंदिर तोडा नहीं है. तो अब नहेरुवीयन कोंग्रेस वह भी तोडके बता दें कि वह अल्पसंख्यकोंके प्रति कितनी प्रतिबद्ध है.

शिरीष मोहनलाल दवे

 

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