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Posts Tagged ‘शास्त्रीनगर’

किसी भी नगरको/ग्रामको बदसूरत और गंदा कैसे किया जाय ….

हमने समज़ लिया कि, शास्त्री नगर जो एक ठीक तरहके आयोजनसे बनाया हुआ टाउनशीप था उसको अहमदाबादकी म्युनीसीपल कमीश्नरकी गेंगने एक ही दशकमें कैसे बदसूरत कर दिया.

कौनसे परिबल है जो कोई भी नगरको या क्षेत्रको बदसूरत कर सकते है?

कमीश्नर और उसकी सेनामें निम्न लिखित गुण होते हैं

अभिनव विचारोंका अभाव (ईनोवेटीव आईडीया),

आर्षदृष्टिका अभाव,

कुछ नया करके दिखावेंवाली सोचका अभाव,

नगरके प्रति अपनापन रखनेका अभाव (बीलोंगींगनेसका अभाव),

भविष्यदृष्टिका अभाव,

कनिष्ठ और क्षतिपूर्ण आयोजन,

क्षतिपूर्ण विशेष विवरण और आकृति, (स्पेसीफीकेशन और डीज़ाईन), यानी कि डिज़ाईन ऐसी हो कि रखरखाव कमसे कम हो

काममें क्षतिपूर्ण गुणवत्ता,

मरम्मतमें विलंब, और मरम्मतकी गति, क्षतिग्रस्त बननेकी गति से कम होना,

स्वच्छताका निम्नस्तरवाली मानसिकता,

नीति नियमोंमे क्षतियां, और उनमे सुधार करनेकी मानसिकता अभाव,

संनिर्माणके और रखरखावके कर्मचारीमें प्रशिक्षणका अभाव,

संनिर्माण और रखरखावके अयोग्य उपकरण.

अब हमगोदरेज गार्डन सीटीकी चर्चा करेंगे.

यह एक ऐसा नगरक्षेत्र है जो गोदरेज प्रोपर्टीज़ नामकी कंपनीने आयोजन करके  संनिर्माण  किया है. बीएचके, बीएचके, . बीएचके, बीएचके, . बीएचके (२२ मंजिला) आदि के १२ मज़िला के भवनसमूह (ब्लोक क्लस्टर) है. ये सब मध्यम वर्गकी सुविधाओंके लिये उपयुक्त बनवाया है.

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इसमें सुव्यवस्थित आयोजन है. आंतरिक मार्ग, मुख्य मार्ग और राज मार्ग की रचना का आयोजन, अहमदाबादकी तुलनामें महानगर आयुक्त (म्युनीसीपल कमीश्नर)के आयोजनसे हजार गुना अधिक अच्छा है.

दो भवन समूहके बीच पर्याप्त अंतर है,

प्रत्येक खंडमेंसे आकाश दिखाई देता है,

प्रत्येक खंडमें सूर्यकी प्रकाश आती है,

विद्युतजलप्रबधन और आनुसंगी साधन और उपसाधनक़ी गुणवत्ता सही है और व्यवस्थित है,

हरेक भवनमें पेसेजकी चौडाई सही है,

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सुरक्षाका प्रबंध सुचारु रुपसे है.

सुचारु अग्निशामक व्यवस्था                                   

रखरखाव का कारोबार व्यवस्थित है,

वाहन पार्कींगकी व्यवस्था अव्यवस्थित नहीं है और अभी तो कोई क्षतियां दृष्टिगोचर नहीं होती है.

प्रत्येक प्रकारके भवनके जुथमें प्रर्यप्त वृक्ष और पुष्प पौधे है. उद्यानमें घांस भी है,

मार्गोंके दोनो दिशामें पर्याप्त वृक्ष और पौधे है.

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महामार्ग पर सायकिलके लिये अतिरिक्त लेन है. चलनेके लिये भी पर्याप्त चौडी फुटपाथ है, गेस, विद्युत और पानीके लिये सुनिश्चित मार्ग (रुट) है,

छोटे बच्चोंके लिये क्रीडांगण है, युवाओंके लिये भी अतिरिक्त क्रीडांगण है,

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टहेलने के लिये और जॉगींग़के लिये पर्याप्त मार्ग है,

व्यायाम गृह (जीम) और स्नानागार है,

वाचनालय है,

आराम गृह है,

क्लब है,

कोम्युनीटी ईतर प्रवृत्तियोंके लिये गृह है,

कोम्युनीटी भोज गृह है,

शोपींग सेंटर और डीपार्टमेंटल स्टोर्स है,

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रखरखाव के लिये कार्यालय है जो शिकायतें लेते है और उसका निर्मूलन करते है,

सुव्यवस्थित कर्मचारीगण जो शिष्ट तरिके से संवाद करता है और शिघ्रतासे कार्य करते है.

विद्यालय है,

सीटी बसकी सुविधा है.

ऑटोरीक्षा स्टेंड है.

रास्ते पर दिशा सूचन करने वाले बॉर्ड है,

क्या क्या नहीं है यह बात नगरके आयुक्त (कमिश्नर) के दिमागके उपरकी बात है. यदि नगर आयुक्त (सीटी कमीश्नर) चाहता तो, जो अहमदाबादके जो क्षेत्र १९५२के बाद विकसित हुए, उनको गोदरेज गार्डन सीटी के समकक्ष कर सकता था. लेकिन ऐसी मानसिकता म्युनीसीपल कमीश्नरमे कहां हो सकती है.

स्थित तो ऐसी है कि सर्व प्रथम जनताको अनुभूति होती है किहमें फलाँ फलाँ समस्या है”. तत्पश्चात समाचार पत्रोंको अवगत होता है. ये समाचर पत्र अपने सीयासती एजंडाके आधार पर उसको प्रसिद्धि देते हैं. जब प्रश्न नगरसेवककी सभामें उठता है, तब कहीं नगरके आयुक्तको पता चलता है. कभी कभी तो नगरके आयुक्तको न्यायालय आदेश देता है तब नगर आयुक्त अपनी सेना को आदेश देता है. फिर काम होता है या तो नहीं होता है या तो आंशिक होता है या तो दोषपूर्ण काम होता है जो थोडे ही समयमें पूर्ववत स्थिति उत्पन्न करता है. फिर वही चक्र फिरसे चालु होता है.

तो क्या गोदरेज गार्डन सीटी गंदा और बदसुरत बन सकने के काबिल है?

क्रमशः

शिरीष मोहनलाल दवे

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किसी भी नगरको/ग्रामको बदसूरत और गंदा कैसे किया जाय …. १

हाँ जी, नगर, ग्राममें आयोजित विस्तार, देहात, टाउनशीप, निवासीय या संकीर्ण मकान या मकानोंके समूह आदि सब कुछ आ जाता है. इसको कैसे बदसूरत और गंदा किया जा सकता है, उसकी हम चर्चा करेंगे.

अहमदाबाद स्थित शास्त्रीनगर कैसे बदसूरत और गंदा किया गया, हम इसका  उदाहरण लेंगे.

कोई भी विस्तारमें यदि एक वसाहतका निर्माण करना है तो सर्व प्रथम उसका आयोजन करना पडता है. प्राचीन भारतमें यह परंपरा थी. प्राचीन भारतमें एक शास्त्र था (वैसे तो वह शास्त्र आज भी उपलब्ध है. लेकिन इसकी बात हम नहीं करेंगे. हम स्वतंत्र भारतकी बात करेंगे. १९४७के बादके समयकी चर्चा करेंगे.

अहमदाबादमें एक संस्था है. यह संस्था सरकार द्वारा नियंत्रित है. इसका नाम है गुजरात हाउसींग बोर्ड. इसने आयोजन पूर्वक अनेक वसाहतोंका निर्माण किया है.

शास्त्रीनगर वसाहतका आयोजन कब हुआ था वह हमें ज्ञात नहीं. लेकिन इसका निर्माण कार्य १९७१में आरंभ हुआ था.

आयोजनमें क्या होता है?

(१) जी+३ के मध्यम वर्ग (एम-४, ऍम-५) उच्च कनिष्ठ वर्ग (एल-४), कनिष्ठ वर्ग(एल-५) के बील्डींग ब्लोकोंका निर्माण करना.

(२) सुचारु चौडाई वाले पक्के मार्गका प्रावधान रखना, चलने वालोंके लिये और विकलांगोंकी और अशक्त लोगोंकी व्हीलचेरके लिये योग्य चौडाई वाली फुटपाथ बनाना

(३) र्शोपींग सेन्टरका प्रावधान रखना,

(४) बीजली – पानीका आयोजन करना,

(५) भूमिके विषयमें

(५.१) विद्यालयका प्रावधान रखना

(५.२) उद्यानके लिये प्रावधान रखना

(५.३) हवा और प्रकाश रहे इस प्रकार भूमिका उपयोग करना,

(५.४) कोम्युनीटी हॉलके लिये प्रावधान रखना,

(५.५) क्रीडांगणके लिये प्रावधान रखना,

(६) बाय-लॉज़ द्वारा वसाहतको नियंत्रित करना,

(७) सामान्य सुविधाएं यानीकी बीजली, पानी देना.

(८) कुडे कचरेके निकालके लिये योग्य तरीकोंसे प्रबंधन करना

 आयोजनमें क्या कमीयाँ थीं?

(१) जी+३ के मकान तो बनवायें लेकिन प्लानरको मालुम नहीं था कि जनतामें विकलांग और वृद्ध लोग भी होते है. इस कारण उन्होंने यह समाधान निकाला कि जिसके कूटुंबमे वृद्ध होय उनको यदि आबंटनके बाद ग्राऊन्ड फ्लोरका आवास बचा है तो उनको चेन्ज ओफ निवास किया दिया जायेगा.  आपको आश्चर्य होगा कि सरकार द्वारा निर्मित आवासोंका मूल्य तो कम होता है तो ग्राउन्ड फ्लोरका आवास बचेगा कैसे? शायद सरकारने सोचा होगा कि, आज जो युवा है वे यावदचंद्र दिवाकरौ युवा ही रहेंगे या तो युवा अवस्थामें ही ईश्वरके पास पहूँच जायेंगे.

हाँ जी, आपकी बात तो सही है. लेकिन यहां पर आवासकी किमत मार्केट रेटसे कमसे कम ४०% अधिक रक्खी थी. ग्राउन्ड फ्लोरके निवास और तीसरी मंजीलके निवासकी किमत भी समान रक्खी थी.

वैसे तो “लोन”की सुवाधा खुद हाउसींग बोर्डने रक्खी थी, इस लोनकी सुविधाके कारण लोअर ईन्कम ग्रुप वालोंने मासिक हप्ते  ज्यादा होते हुए भी और लोनका भुगतान करनेकी मर्यादा सिर्फ दश सालकी होते हुए भी, अरजी पत्र भरा और मूल्यका २०% सरकारमें जमा किया.

समस्या एम-५ और एम-४ के आबंटनमें आयी. क्यों कि उसका मूल्य ५५००० रुपये रक्खा था और मासिक हप्ता ₹ ६००+ रक्खा था. उस समय कनिष्ठ कक्षाके अधिकारीयोंका “होमटेक  वेतन” भी बडी मुश्किलसे रु. ९००/- से अधिक नहीं था. इस कारणसे ९५% निवास खाली पडे रहे. उतना ही नहीं उसी  विस्तारमें आपको उसी किमतमें डाउन पेमेंट पर स्वतंत्र बंगलो मिल सकता था. स्टेम्प ड्युटी भी १२.५ प्रतिशत थी. मतलब कि, आपको एम-४ और एम-५ टाईपका निवास करीब ६५०००/- रुपयेमें पडता था. 

राष्ट्रीयकृत बेंकोंकी लोन प्रक्रिया भी इतनी लंबी थी कि सामान्य आदमीके बसकी बात नहीं थी.  

सरकारी समाधानः

सरकारने ऐसा समाधान निकाला कि, यदि आवास निर्माण संस्था सरकारी निर्माण संस्था है तो ऐसी संस्था द्वारा दिये गये “आबंटन पत्र” प्रस्तूत करने पर ही लोनको मंजूर कर देनेका.

मासिक आयकी जो सीमा रक्खी थी वह रद कर दी,

कई सारे निवास सरकारके विभागोंने, अपने कर्मचारीयोंके सरकारी आवास के लिये खरीद लिये.

लोनके कार्य कालकी सीमा दश सालके बदले बीस साल कर दिया.

निर्माणका काम अधूरा था तो भी सबको पज़ेशन पत्र दे दिये क्यों कि कोंट्राक्टरको दंड वसुलीसे बचा शकें.

(२) शास्त्रीनगरका आयोजन तो उस समयके हिसाब से अच्छा था. समय चलते महानगर पालिकाने नगरके मार्गोंको आंशिक चौडाईमें पक्का भी कर दिया.

प्रारंभके वर्षोंमें वर्षा ऋतुमें बस पकडने के लिये आधा किलोमीटर चलके जाना पडता था. सरकारका चरित्र है कि कोई काम ढंगसे नहीं करनेका. पक्के मार्ग आंशिक रुपसे ही पक्के थे. इससे कीचडकी परेशानी बनती थी. दोनों तरफकी भूमिको तो कच्चा ही रक्खा रक्खा जाता था. फूटपाथ बनानेका संस्कार नगर पालिकाके अधिकारीयोंको नहीं था (न तो आज भी है).

(३) हाउसींगबोर्डने शोपींग सेन्टर तो अच्छा बनाया था. एम-४ टाऊप आवासोंके ग्राउन्ड फ्लोर पर दुकानें बनी थीं.

(४) बीजली पानीका प्रबंध उस जमानेके अनुसार अच्छा था.

(५.१) स्कुलके लिये भूमि तो आरक्षित थी. लेकिन आज पर्यंत स्कुल क्युं नहीं बना यह संशोधनका (अन्वेषणका) विषय है.

(५.२) उद्यान नहीं बनवाया,

(५.३) कोम्युनीटी सेन्टर नहीं बनवाया

(५.४) क्रिडांगणका मतलब यही किया गया कि भूमिको खुल्ला छोड देना.

(६) शास्त्रीनगरके सुचारु रखरखावके लिये सरकारने बाय-लॉज़ तो अच्छे बनाये थे. लेकिन सरकारी कर्मचारी-अधिकारीगण तो आखिर नहेरुवीयन कोंग्रेसके संस्कार प्रभावित सरकारी ही होते है. इन सरकारी अधिकारीयोंको काम करना और दिमाग चलाना पसंद नहीं होता है. “यह काम हमारा नहीं है” ऐसा तो आपने कई बार सूना होगा. यदि कोई काम उनका नही है तो जिस सरकारी विभागका वह काम हो उसको ज्ञात कर देनेका काम सरकारी कर्मचारी/अधिकारीके कार्यक्षेत्रमें है ऐसा इनको पढाया नहीं जाता है.

(६.१) हाउसींग बोर्डने शीघ्राति शीघ्र निवास स्थानोंका वहीवट पांच से सात ब्लॉकोंकी सोसाईटीयां बनाके इन सोसाईटींयोंको दे दिया.

(६.२) भारतके लोग अधिकतर स्वकेन्द्री है और आलसी होते है. स्वकेन्द्री होने के कारण जो लोग ग्राउन्ड फ्लोर पर रहेते थे उन्होने एपार्टमेन्टके आगेकी १० फीट भूमि पर कबजा कर लिया. सार्वजनिक जगह यदि सुप्राप्य है तो उसके उपर कबज़ा जमाना भरतीयोंका संस्कार है खास करके उत्तरभारतीयोंका जिनमें गुजराती लोग भी इस क्षेत्रमें आ जाते हैं. उनके उपर रहेने वालोंने विरोध किया तो झगडे होने लगे. सात ब्लॉकोंकी जगह हर ब्लॉक की एक सोसाईटी बन गई. एक ब्लोकके अंदर भी ग्राउन्ड फ्लोर और उपरके फ्लोर वाले झगडने लगे.

(६.३) ज्यों ज्यों अतिक्रमण बढता गया त्यों त्यों शास्त्रीनगरकी शोभा घटने लगी. शास्त्रीनगर एक कुरुप वसाहतके रुपमें तेज़ीसे आगे बढने लगा था.

(६.४) जब अतिक्रमणकी फरियादें बढ गयी तो सरकारने सबको छूट्टी देदी.

(६.५) अब शास्त्रीनगरका कोई भी निवासी दश फीट तक अपना रुम या गेलेरी आगे खींच सकता था. उसको सिर्फ एक हजार रुपये हाउसींग बॉर्डमें जमा करवाने पडते थे.

(६.६) एक हजार रुपया हाउसींग बॉर्डमें जमा करने के बाद, न तो कोई सोसाईटीके पारित विधेयककी नकल प्रस्तूत करना आवश्यक था, न तो कोई विधेयक जरुरी था, न तो कोई विज्ञापन देना आवश्यक था, न तो पडौशीका “नो ओब्जेक्सन” आवश्यक था, न कोई प्लान एप्रुव करवाना आवश्यक था, न तो किसीका कोई निरीक्षण होना आवश्यक माना गया. कुछ निवास्थान वालोंने तो तीनो दिशामें दश दश फीट अपना एपार्टमेन्ट बढा दिया.

(६.७) यदि शास्त्रीनगरके निवासी ऐसी छूटका लाभ ले, तो हाउसींग बोर्ड स्वयं क्यों पीछे रहे?

(६.८) हाउसींग बोर्डने शास्त्रीनगरकी चारो दिशामें, जी+२ के कई सारे मकान बना दिये. सभी मकानोंके ग्राउन्ड फ्लोर वालोंने ग्राउन्ड फ्लोर पर दुकाने बना दी. हाउसींग बोर्डने भी ऐसा ही किया. अब ऐसा हुआ कि जो भी ग्राउन्ड फ्लोर वाले थे उनमेंसे अधिकतर लोगोंने अपना रोड-फेसींग रुमोंको दुकानमें परिवर्तित कर दिया.

(६.९) मुख्य मार्ग पर वाहनोंका यातायात बढ गया. फूटपाथकी तो बात ही छोड दो, मार्गपर चलनेका भी कठीन हो गया.

हाउसींग बोर्डके कर्मचारीयोंकी और अधिकारीयोंकी कामचोरी और अकुशलताके बावजुद १९७६ से १९७९ तक शास्त्रीनगर एक सुंदर और अहमदाबादकी श्रेष्ठ वसाहत था. लेकिन धीरे धीरे उसमें सरकारी कर्मचारी-अधिकारी, गुन्डे, व्यापारी और हॉकर्सकी मिलीभगतसे  अतिक्रमण बढता गया.

(७) बीजली सप्लाय तो अहमदाबाद ईलेक्ट्रीसीटी कंपनीका था इससे उसमें कमी नहीं आयी. लेकिन जो पानीकी सप्लाय थी वह तो अतिक्रमण-रहित आयोजन के हिसाबसे था. इस कारण पानीकी कमी पडने लगी.

(८) कुडा कचरा को नीपटानेका प्रबंधन तो पहेलेसे ही नहीं था. क्यों कि नहेरुवीयन कोंग्रेस गंदकीको समस्या मानती नहीं है.

(९) कई सालोंसे शास्त्रीनगर प्रारंभिक अवस्थाकी तुलनामें दोज़ख बन गया है. कई लोग अन्यत्र चले गये है.

हाउसींग बॉर्डके लिये गीचताकी समस्या कोई समस्या ही नहीं थी.  हाउसींग बोर्डने मुख्यमंत्री आवास योजनाके अंतर्गत अंकूरसे रन्नापार्कके रोड पर नारणपुरा-टेलीफोन एक्सचेन्जके सामनेवाली अपनी ज़मीनके उपर आठ दश नये अतिरिक्त दश मंजीला मकानकी योजना पूर्ण कर दी है. इसमें भी कई सारी दुकानें बनायी है. वाहनोंके पार्कींगके लिये कोई सुविधा भी नहीं रक्खी है. इश्तिहारमें पार्कींग की सुविधाका जिक्र था. लेकिन हाउसींग बोर्डके अधिकारी/कोंट्राक्टरोंकी तबियत गुदगुदायी तो पार्कींग भूल गये.

(१०) यह विस्तार पहेलेसे ही गीचतापूर्ण है. इस बातका खयाल किये बिना ही हमारे सरकारी अधिकारीयोंने इस विस्तारको और गंदा करने की सोच ली है और वे इसके लिये सक्रीय है.

इस समस्याका समाधान क्या है?

(१) हाउसींग बॉर्डमें और नगर निगममें जो भी सरकारी अधिकारी जीवित है उनका उत्तरदायीत्व माना जाय और उनके उपर कार्यवाही करके उनकी पेन्शनको रोका जाय. उनकी संपत्ति पर जाँच बैठायी जाय ताकि अन्य कर्मचारीयोंको लगे कि गैर कानूनी मार्गोंसे पैसे बनानानेके बारेमें कानून के हाथ लंबे है और कानूनसे कोई बच नहीं सकता. जो भी कमीश्नर अभी भी सेवामें है उनको निलंबित कर देना चाहिये और उनके उपर कार्यवाही करनी चाहिये.

(२) केवल कमीश्नर उपर ही कार्यवाही क्यों?

(२.१) कमीश्नर अकेला नहीं होता है. उसके पास आयोजन करने वाली, निर्माण पर निगरानी रखनेवाली, रखरखाव और अतिक्रमण करनेवाले पर कार्यवाही करने के लिये पूरी टीम होती है. यह बात सही है कि कमीश्नर ये सभी कार्य स्वयं नहीं कर सकता. किन्तु उसका कर्तव्य है कि वह अपनी टीमों के कर्मचारी/अफसरोंका उत्तरदाइत्व सुनिश्चिते करें.

यदि कोई जनप्रतिनिधिने उसके पर दबाव लाया है तो वह उसका नाम घोषित करे. वह अपने उपर आये हुए टेलीफोन संवादोंका रेकोर्डींग करें और ऐसे जन प्रतिनिधियों को प्रकाशमें लावें. वैसे तो इन अधिकारीयोंका मंडल भी होता है. वे अपने हक्कोंके  लिये लडते भी है. किन्तु उनको स्वयंके सेवा धर्मके लिये भी लडना चाहिये. जो नीतिमान आई.ए.एस अधिकारी है वह अवश्य लड सकता है. यदि उसको अपने तबादलेका भय है तो वह न्यायालयमें जा सकता है. वह अपने उपर आये हुए टेलीफोन संवादोंका रेकोर्डींग न्यायालयके सामने रख सकता है.

(३) लेकिन ये आई.ए.एस अधिकारीगण ऐसा नहीं करेंगे. क्यों कि उनकी जनप्रतिनिधियोंके साथ, अपने कर्मचारीयोंके साथ, कोन्ट्राक्टरोंके साथ और बील्डरोंके साथ मिलीभगत होती है. जिनके साथ ऐसा नहीं होता है वे लोग ही दंडित होते है.

(३.१) बेज़मेंटमें कानूनी हिसाबसे आप गोडाउन नहीं बना सकते. यह प्रावधान “फायर प्रीवेन्शन एक्ट के अंतर्गत है. ऐसे गोडाउनमें आग भी लगी है और नगरपालिकाके अग्निशामक दलने ऐसी आगोंका शमन ही किया है. लेकिन ऐसे गोडाऊन आग लगनेके बाद भी चालु रहे है. बेज़मेन्टमें कभी दुकाने नहीं हो सकती. क्यों कि दुकानमें भी सामान होता है. उसके उपर भी “फायर प्रीवेन्शन एक्ट लागु पड सकता है. लेकिन नगर पालिका के मुखीया (कमीश्नर)की तबीयत नहीं गुदगुदाती कि वे ऐसी दुकानों पर कार्यवाही करें.

(३.२) अनधिकृत निर्माण, कर्मचारी/अफसरोंकी लापरवाही, भ्रष्टता, न्यायालयके हुकमोंका अनादर, न्यायालयमें नगरपालिकाकी तरफसे केवीएट दाखिल करने की मनोवृत्तिका अभाव, न्यायालयके हूकमोंमें क्षतियां आदि विषयके समर्थनमें के कई मिसाले हैं कि जिनमें सरकारी (न्यायालय सहित) अधिकारीयोंकी जिम्मेवारी बन सकती है और वे दंडके काबिल होते है.

(३.३) अब यह दुराचार इतना व्यापक है कि न्यायालयमें केस दाखिल नहीं हो सकता. लेकिन विद्यमान सरकारी अफसरों (केवल कमीश्नरों) पर कार्यवाही हो सकती है. इन लोगोंको सर्व प्रथम निलंबित किया जाय, और आरामसे उनके उपर कार्यवाही चलती रहे.

(४) कमीश्नर फुलप्रुफ शासन प्रणाली बनवाने के काबिल है. यदि आप उनके लिये बनाये गये गोपनीय रीपोर्टकी फॉर्मेटके प्रावधानोंको पढें, तो उनकी जिम्मेवारी फिक्स हो सकती है. उनके लिये यह अनिवार्य है कि वे नीतिमान हो, उनकी नीतिमत्ता शंकासे बाहर हो, वे आर्षदृष्टा हो, वे स्थितप्रज्ञ हो, कार्यकुशल हो, कठिन समयमें अपनी कुशलता दिखानेके काबिल हो, सहयोग करने वाले हो, उनके पास कुशल संवादशीलता हो, आदि …

(५) एफ.एस.आई. कम कर देना चाहिये.

(५.१) आज अहमदाबदमें एफ.एस.आई १.८ है. भावनगरके महाराजाके कार्यकालमें भावनगरमें एफ.एस.आई. ०.३ के करीब था. मतलब की आपके पास ३०० चोरस मीटरका प्लॉट है तो आप १०० चोरस मीटरमें ही मकानका निर्माण कर सकते है. उस समय भावनगर एक अति सुंदर नगर था. हर तरफ हरियाली थी. आप जैसे ही “वरतेज” में प्रवेश करते थे वैसे ही आपको थंडी हवाका अहेसास होता था.

(५.२) नहेरुवीयन कोंग्रेसने एफ.एस.आई. बढा दिया. १९७८के बाद भावनगरका विनीपात हो गया. आज वह भी न सुधर सकनेवाला नगर हो गया है. भारतके हर नगरका ऐसा ही हाल है.  

(६) ऐतिहासिक धरोहरवाले मकानोंको छोडके, अन्य विस्तारोंका री-डेवलपमेन्ट (नवसंरचना) कराया जाय. इस प्रकारकी नव संरचनाके के नीतिनियम और प्रक्रिया इसी ब्लोग-साईट पर अन्यत्र विस्तारसे विवरण दिया है.

(७) आई.ए.एस. अधिकारीयों की नियुक्ति बंद कर देना चाहिये. क्यों कि इनमें ९९.९ अधिकारी अकुशल और भ्रष्ट है. इनकी नियुक्तिमें गोलमाल होती है. कैसी गोलमाल होती है उसके बारेमें प्रत्यक्ष और परोक्ष अनेक सबूत है. हम इनकी चर्चा नहीं करेंगे.

(८) कमीश्नरोंकी नियुक्ति ५ सालके कोन्ट्राक्ट पर होनी चाहिये. उनकी नियुक्तिके पूर्व और कार्यकाल समाप्त होने के पश्चात उनकी संपत्तिकी जांच होनी चाहिये.

(९) स्मार्ट सीटीकी परिभाषा निम्न कक्षाकी है. यह परिभाषा व्यापक होना चाहिये. “यदि गुन्हा किया तो १०० प्रतिशत पकडा गया और दंड होगा ही” ऐसा सीस्टम होना चाहिये. और यह बात  असंभव नहीं है.

 “नगर रचना कैसी होनी चाहिये” इसके बारेमें यदि किसीको शिख लेनी है तो वह “गोदरेज गार्डन सीटी, जगतपुर, अहमदाबाद-३८२४७०”की मुलाकात लें.

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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