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जो भय था वह वास्तविकता बना (बिहारका परिणाम) भाग – २
Posted in માનવીય સમસ્યાઓ, tagged अमित शाह, अस्विकार्य, आवास, उछाल, कोमवाद, गजेन्द्र गडकरी, गठबंधन, गुजरात, गौ, घटना, चूनाव, दंभी, दाद्री, धर्मनिरपेक्ष, नरेन्द्र मोदी, नहेरुवीयन कोंग्रेस, नौकरी, बिहार, बिहारी, बीजेपी, महाठग, युपी, राजनाथ सिंह, विकास, विचारधारा, विभाजन, व्यवसाय, संदेश, संविधान, समाचार माध्यम, सुनिश्चित मतदाता on November 13, 2015| Leave a Comment »
जो भय था वह वास्तविकता बना (बिहारका परिणाम) भाग – २
दाद्रीकी घटानाको उछालके यह महाठग महाधूर्त महागठबंधन काफी सफल रहा.
सफल होनेका श्रेय, समाचार माध्यम, नहेरुवीयन कोंग्रेस, महा गठबंधन और कुछ दंभी धर्मनिरपेक्ष गेंग, ये चारों चंडाल चौकडीने मिलके जो महाठग बंधन करके जो रणनीति बनायी थी उसको जाता है.
महागठबंधन और महागठबंधनमें क्या भेद है?
महागठबंधन नहेरुवीयन कोंग्रेस, आरजेडी और जेडीयु इन तीनोंने मिलकर एक चूनावी और सत्तामें भागीदारी करने के लिये एक गठबंधन बनाया है वह है. महाठग गठबंधन एक ऐसा गठबंधन है जिनका एक मात्र हेतु बीजेपीको चूनावमें हराना है. और अपने धंधे चालु रखना है. उनके अनेक धंधेमें सत्ताकी प्रत्यक्ष और परोक्ष भागबटाइ, अयोग्य रीतीयोंसे पैसे कमाना और देशकी आम जनताको गुमराह करके गरीबी कायम रखना ताकि आम जनता विभाजित और गरीब ही रहे.
महाठग–गठबंधनकी पूर्व निश्चित प्रपंचकारी और विघातक योजना
बीजेपीने विकासके मुद्दे पर ही अपना एजन्डा बनाया था. किन्तु यदि परपक्ष, यानी उपरोक्त महाठगोंका गठबंधन, कोमवादका मुद्दा उठावे तो उसको कैसे निपटा जाय, उसके लिये बीजेपी संपूर्ण रीतसे सज्ज नहीं था. महाठग–गठबंधन, दाद्रीकी घटनाको, मीडीया और दंभी धर्मनिरपेक्ष गेंग के सहारे कोमवाद पर ले गया.
जब भी चूनाव आता है और जब हवा नहेरुवीयन कोंग्रेसकी विरुद्धमें होती है तो कोमी भावना भडकाना नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासनमें और उसके सांस्कृतिक पक्षके शासनमें एक आम बात है.
आरएस एस, वीएचपी और कुछ बीजेपी नेता भी बेवकुफ बनकर, समाचार माध्यमोंकी हवामें आके उसको हिन्दुमान्यताके परिपेक्ष्यमें आक्रमक बनके प्रत्याघात देने लगतें हैं. वास्तवमें बीजेपीको गौ–वध वाले कोमवादी उस मुद्देको तर्क और अप्रस्तूतताके आधार पर लेजाके उसका खंडन करनेका था. बीजेपी नेतागण उपरोक्त महाठग बंधनी पूर्व निश्चित चाल नहीं समझ पाये. बीजेपी नेतागण को समझना चाहिये कि नहेरुवीयन कोंग्रेस चूनावकी रणनीति बनानेमें उस्ताद है. इसी कारण वह महाभ्रष्ट होनेके बावजूद, भारत जैसी महान और प्राचीन धरोहरवाले देश पर ६० वर्ष जैसे सुदीर्घ समयका शासन कर पाई.
शत्रु को कभी निर्बल समझना नहीं चाहिये.
आरएसएस और वीएचपीमें बेवकूफोंकी कमी नहीं है. ये लोग कई बार सोसीयल मीडीयामें वैसे भी फालतु, असंबद्ध और आधारहीन वार्ताएं लिखा करते हैं, जिससे बीजेपीकी भी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाते है.
जनताके कई पढे लिखे लोग यह नहीं समझ सकते की आरएसएस और वीएचपी के लोग सिर्फ मतदाता है. यह बात सही कि, वे बीजेपीके निश्चित मतदाता है. हर सुनिश्चित मतदाता अपने मनपसंद पक्षका प्रचार करता है ऐसा नहीं है. इसका अर्थ यह नहीं कि हर सुनिश्चित मान्यतावाला मतदाता अपने पक्षका प्रचार करे ही नहीं. क्यों कि किसी मतदाताको आप प्रचार करनेमेंसे रोक नहीं सकते. यदि वह अपने पक्षका प्रचार करे या तो पर–पक्षके उठाये गये प्रश्नोंका उत्तर दें तो यह मानना नहीं चाहिये कि उसका अभिप्राय वह पक्षकी विचारधारा है. यदि महाठग गठबंधन आरएसएस या वीएचपी के उच्चारणोंको बीजेपीकी विचारधारा मानता है तो …
कोमवादी और आतंकवादी मुस्लिम जो कुछ भी बोले वह युपीएकी विचारधारा है
जैसे अधिकतर मुसलमान और कुछ अन्य जुथ नहेरुवीयन कोंग्रेस या तो उसके सांस्क्रुतिक पक्षके सुनिश्चित मतदाता है. वे कई बातें अनापसनाप बोलते हैं और कुतर्क भी करते हैं. उनकी बातें भी तो नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्क्रुतिक साथीयोंकी विचारधारा है समज़नी चाहिये. समाचार माध्यमको ऐसा ही समज़ना चाहिये. वे दोहरा मापदंड क्यों चलाते है? अकबरुद्दीन ओवैसी, फारुख, ओमर, गीलानी, आजमखान, लालु, पप्पु, अरुन्धती, तित्सा, मेधा, आदि आदि जो भी कोमवादको बढावा देनेवाले उच्चारण करते है वे सब नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके सांस्कृतिक साथी है वे जो कुछभी बोले वह नहेरुवीयन कोंग्रेसकी ही विचार धारा है.
विडंबना और कुतर्क तो यह है कि, नहेरुवीयन कोंग्रेस तो उसके प्रवक्ताओंके भी कई उच्चारणोंको उनकी निजी मान्यता है ऐसा बताती है. यहां तक कि यदि नहेरुवीयन कोंग्रेसका उप प्रमुख, नहेरुवीयन कोंग्रेसके मंत्री मंडलने पारित प्रस्ताव विधेयक को फाडके फैंक तो भी वह इस घटनाका उल्लेख पक्षके उपप्रमुखका नीजी अभिप्राय बताता है. बादमें उसी प्रस्तावमें संशोधन करता है. वैसा ही इस नहेरुवीयन कोंग्रेसने कोमवादी नेताओंके विरोधी प्रतिभावोंके चलते शाहबानो की न्यायिक घटनाके विषय पर संविधानमें संशोधन किया था. तात्पर्य यह है कि ऐसे सुनिश्चित मतदाता जुथोंके मंतव्य, वास्तविक रुपसे नहेरुवीयन कोंग्रेसकी विचारधारा होती ही है. नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताओंका स्थान आजिवन कारावासमें या फांसीका फंदा ही है. आरएसएस या वीएचपी के लोग तो बीजेपीके शासनके सहयोगी भी नहीं है. दोनोंकी प्राथमिकताए और मान्यताएं भीन्न भीन्न है. तो इनके भी बयान बीजेपीका सरकारी बयान नहीं माने जा सकते.
बिहारमें दंभी धर्मनिरपेक्षोंका विभाजनवादी नग्न नृत्य
बीजेपी एक राष्ट्रीय पक्ष है. अमित शाह, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, आदि सब भारतके नागरिक है.
महाठग–गठबंधनके नेताओं की विभाजनवादी मानसिकताका अधमाधम प्रदर्शन देखो.
बिहारमेंसे बाहरीको भगाओ
अमित शाह, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, स्मृति ईरानी, आदि को नीतीशकुमार और उसके साथी बाहरी मानते है. ऐसे बाहरी लोगोंको बिहारमें प्रचारके लिये नहीं आना चाहिये. बिहारमें केवल बिहारी नेताओंको ही चूनाव प्रचारके लिये आना चाहिये.
इसी मानसिकतासे नीतीशकुमार अपनी चूनाव प्रचार सभामें जनताको कहेते थे कि आपको चूनाव प्रचारमें कौन चाहिये, बिहारी या बाहरी?
तात्पर्य यह है कि, बिहारमें चूनाव प्रचारका अधिकार केवल बिहारीयोंका ही है. बाहरी लोगोंका कोई अधिकार मान्य करना नहीं चाहिये. महाठग–गठबंधनके किसी नेताने नीतीशकी ये विभाजन वादी मानसिकताका विरोध नहीं किया. इतना ही महाठग–गठबंधनके लोगोंने तालीयां बजायी. समाचार माध्यमके विश्लेषकोंने भी इसका विभाजनवादी भयस्थानको उजागर नहीं किया क्यों कि वे हर हालतमें बीजेपीको परास्त करना चाहते थे. महाठग–गठबंधनके नेताओंका यह चरित्र है कि देशकी जनता विभाजित हो जाय और देश कभी आबाद न बने और वे सत्तामें बने रहें और मालदार बनें.
नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक साथीयोंका ध्येय रहा है कि, देशकी जनता विभाजित होती ही रहे और खुदका हित बना रहे.
बाहरी और बिहारीसे क्या निष्कर्ष निकलता है?
महागठबंधन बिहारकी जनताको यह संदेश देना चाह्ता है कि बिहारमें हमे चूनाव प्रचारमें भी बाहरी लोग नहीं चाहिये. यदि चूनाव प्रचारमें भी बाहरी और बिहारीका भेद करना है तो व्यवसाय और नौकरीमें तो रहेगा ही. जो लोग केवल चूनाव प्रचारके लिये आते है वे तो बिहारीयोंको कोई नुकशान नहीं करते. वे लोग न तो उनको भूका मारते है न तो उनकी नौकरीकी तकमें कमी करते हैं, नतो उनकी व्यवसायकी तकोंमें कमी करते है न तो उनके आवासकी तकोंमे कमी करते हैं, तो भी महाठग–गठबंधन बाहरी लोगोंके प्रति एक तिरस्कारकी भावना बिहारी जनतामें स्थापित करनेका भरपूर प्रचार करता है.
बिहारी–बाहरी द्वंद्वका क्या असर पड सकता है. यदि बिहारमें बाहरी आवकार्य नहीं है तो जो बिहारके लोग बाहर और वह भी खास करके मुंबई, गुजरात आदि राज्योंमे जाके वहांके लोगोंकी नौकरीकी तकोंमें कमी करते हैं, वहांके लोगोंकी व्यवसायी तकोंमें कमी करते हैं और वहां जाके झोंपडपट्टी बनाके असामाजिक तत्वोंको बढावा देते हैं वहां पर महाठग–गठबंधनका यही संदेश जाता है कि बिहारी लोग आपके केवल चूनाव प्रचार करनेके लिये आने वाले चाहे वह देशका प्रधान मंत्री क्यों न हो, उसको बहारी समज़ते है और अस्विकार्य बनते है. महाराष्ट्रके नीतिन गडकरी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, नरेन्द्र मोदी बाहरी है ऐसा थापा, बिहारकी जनता मारती है, तो बिहारके लोग भी गुजरात, महाराष्ट्र, मुंबई आदिमें बाहरी ही है. ये बिहारके बाहरी लोगोंको नौकरी और व्यवसाय आदिके लिये अस्विकार्य बनाओ. महाठग–गठबंधनके नेताओंने यही संदेश दिया है, इस लिये यदि महाराष्ट्र, गुजरात और युपीके लोग बिहारीयोंको बाह्य समज़के उसको नौकरी, व्यवसाय, सेवा आदिके लिये अस्विकार्य करें तो इस आचारकी भर्त्सना करना अब न तो बिहारीयोंका हक्क है नतो महाठग–गठबंधनके लोगोंका हक्क है.
महाठग–गठबंधनने अपने स्वार्थ लिये देशकी जनताको एक विनाशकारी संदेश दिया है, उसके लिये उसमें संमिलित तत्वोंके उपर न्यायिक कार्यवाही होनी चाहिये. उनकी संस्थाकी या और उनके स्थान होद्देकी जो भी बंधारणीय मान्यता हो उसको तत्काल निलंबित करना चाहिये और न्यायिक कार्यवाहीके फलस्वरुप मान्यता रद होनी चाहिये.
यदि ऐसा नहीं होगा तो एक विनाशक प्रणाली स्थापित होगी जो देशकी एकता पर वज्राघात करेगी.
शिरीष मोहनलाल दवे.
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नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासनकी परिभाषा है आतंकवाद और हत्याओंकी शृंखला
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नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासनकी परिभाषा है आतंकवाद और हत्याओंकी शृंखला
साभार आर के लक्ष्मणका कटाक्ष चित्र
जून मास वैसे तो नहेरुवीयनोंकी और उनके पक्षकी निम्नस्तरीय और आततायी मानसिकताको याद करनेका समय है. सन् १९७५में नहेरुवीयन कोंग्रेसकी यह मानसिकता नग्न बनकर प्रत्यक्ष आयी. २५मार्च का दिन भारतके इतिहाससे, नष्ट न होनेवाली कालीमाका जन्म दिन है. नहेरुवीयन कोंग्रेसके काले करतूतोंकी जितनी ही भर्त्सना करो, कम ही है. यह कलंक एक वज्रलेप है.
आपातकाल १९९५ से १९७७.
आप कहोगे कि यह तो भूतकालकी वार्ता है. आज इसका क्या संदर्भ है? आज इसका क्या प्रास्तुत्य है?
इसका उत्तर है
यह नहेरुवीयन कोंग्रेस आज भी जीवित है. वह प्रभावशाली है. उसके पास अकल्पनीय मात्रामें धन है. अधिकतर समाचार माध्यम उसके पक्षमें है. इस पक्षकी और इस पक्षके नेताओंकी मानसिकतामें कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है. याद करो. १९७७में हार कर यही नहेरुवीयन कोंग्रेस सत्ता पर आयी थी.
कलंकोसे भरपूर नहेरु शासनः
१९६२ के युद्ध में हुई भारतकी घोर पराजयके कारण, नहेरुने मन बना लिया था. स्वयंके सिंहासन रक्षा तो उन्होंने करली. किन्तु वह पर्याप्त नहीं है.
नहेरुने अपने १९४७से १९६२के कार्यकालमें अनेकानेक कलंकात्मक कार्य किये थे. इतिहास उसको क्षमा करनेवाला नहीं था.
कौभाण्डोंकी यदि उपेक्षा करें, तो भी, ऐसी कई घटनाएं भूगर्भमें थी कि जिनसे, नहेरुका नाम निरपेक्षतासे लज्जास्पदोंकी सूचीमें आजाना निश्चित था.
सुभाष–विवाद, चीनकी विस्तारवादी नीति, सीमा सुरक्षाकी उपेक्षा, सीमा सुरक्षा सैनिको सुसज्ज करनेके विषयोंकी अवहेलना, व्यंढ समाजादवाद, दंभी धर्म निरपेक्षता और स्वकेन्द्री नीति के कारण नहेरुको अपयश मिलनेवाला था.
नहेरुने क्या विचारा?
यदि कुछ दशकों पर्यंत उसकी संतान इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री बन जाय, तो नहेरुके काले कारनामों पर पर्दा पड सकता था. इस हेतुसे नहेरुने चीनके आक्रमण के पश्चात अपने पक्षके प्रतिस्पर्धीयोंको सत्तासे विमुख रखनेकी व्यूह रचाना बनायी. कुछ “जैसे थे वादी”योंका मंडल नहेरुने बनाया. नहेरुने उनको समझाया. नहेरुने अपनी मृत्यु शैयासे इन “जैसे थे वादीयों”से वचन लिया कि वे इन्दिराको ही प्रधान मंत्री बनायेंगे. ये “जैसे थे वादीयोंका” समूह “सीन्डीकेट” नामसे ख्यात था.
नहेरुवीयन फरजंद, जो बिना किसी योग्यता, केवल नहेरुकी फरजंद होनेके नाते, “जैसे थे वादीयों”की कृपासे १९६६में प्रधान मंत्री बन गयी थी. उस समय कई सारे वरिष्ठ और कार्य कुशल नेता थे. वे प्रधान मंत्री पदके लिये योग्य भी थे और उत्सुक भी थे. इनमें गुलजारीलाल नंदा और मोरारजी देसाई मुख्य थे.
समाचार माध्यम को नहेरु पसंद थे. क्यों कि स्वातंत्र्य संग्राममें वे एक प्रमुख “वस्त्र परिधान और प्रदर्शन शैलीके युवामूर्ति” (आईकोन) थे. समृद्ध व्यक्तियोंको आम कोंगी नेताओंकी सादगीवाली मानसिकता स्विकृत नहीं थी. समाचार माध्यमने नहेरुकी सभी क्षतियां गोपित रक्खी थी. समाचार माध्यम, नहेरुके लिये, शाश्वत “अहो रुपं अहो ध्वनि” किया करता था, जैसे कि आज सोनिया और राहुलकी प्रशंसा किया करता है.
इन्दिरा गांधी एक सामान्य कक्षाकी औरत थी.
इन्दिरा गांधीको सत्ता मिल गई. उसको सहायकगण भी मिल गया. इनमें साम्यवादी और कुछ नीतिभ्रष्ट युवा भी थे. नहेरुवीयनोंका गुरु था रुस. गुरु साम्यवादी था. साम्यवादी नेता कपट नीतिमें निपूण होते है. विरोधीयोंमें भेद कैसे उत्पन्न करना, अफवाह कैसे प्रसारित करना, जनसमुदायको विचारोंसे पथभ्रष्ट कैसे करना, निर्धनोंको निर्धन ही कैसे रखना, गुप्तचरोंसे विरोधीयोंके विषयमें कैसे विवाद उत्पन्न करना इन सर्व परिबलोंका उपयोग कैसे करना इस विषय पर रुस, नहेरुवीयनोंको पर्याप्त सहयोग करता रहा.
किन्तु रुसको भारतकी जन संस्कृतिका परिपूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता था. इस लिये १९७३ के पश्चातकालमें इन्दिराको सर्व क्षेत्रीय विफलता मिलने लगी. वह अपने पिताकी तरह आपखुद भी थी. दोनों संसदोंमे निरपेक्ष बहुमत और अधिकतम राज्योंमें अपने खुदने प्रस्थापित मुख्य मंत्री होते हुए भी, इन्दिराको सर्वक्षेत्रीय विफलता मिली. सर्व क्षेत्रीय विफलताके कारण समाचार माध्यम उसके हाथसे जा सकते थे. इसका प्रारंभ हो गया था. जन आंदोलनका भी प्रारंभ हो गया था. नियमका शासन मृतप्राय हो रहा था. यदि इन्दिराके हाथसे सत्ता गई तो नहेरुवीयन कोंग्रेसकी मृत्यु निश्चित थी. तीन कार्य अतिआवश्यक थे. विरोधीयोंकी प्रवृत्तियों पर संपूर्ण प्रतिबंध, समाचार माध्यम पर संपूर्ण नियंत्रण और धनप्राप्ति.
भारतके संविधानमें आपात्कालका प्रावधान कैसे हुआ था?
१८५७के जनविद्रोहको असफल करने के पश्चात अंग्रेज शासनने भारतकी आपराधिक संहितामें संशोधन किया. नागरिक अधिकारोंको स्थगित करना और उस अंतर्गत न्यायिक प्रक्रियाको निलंबित करना. इस प्रकार अंग्रेज शासनने, भारतमें आपातकाल घोषित करनेका प्रावधान रक्खा था.
आपातकालमें ऐसे प्रावधानोंसे क्या क्या हो सकता था?
भारतके मानव अधिकारोंको विलंबित किया जा सकता था.
शासन, किसी भी व्यक्तिको गिरफ्तार कर सकती थी.
गिरफ्तार करनेके समय और बादमें भी, गिरफ्तार करनेका आधार बताना आवश्यक नहीं है.
गिरफ्तार व्यक्तिको सरकार अनियतकाल पर्यंत कारावासमें रख सकती है.
गिरफ्तार की हुई व्यक्तिपर न्यायिक कार्यवाही करना अनिवार्य नहीं है.
व्यक्तियोंके संविधानीय अधिकारोंको विलंबित किया जाता है. तात्पर्य यह है कि कोई समूह बना नहीं सकते, चर्चा नहीं कर सकते. प्रवचन नहीं कर सकते. यदि ऐसा करना है तो शासनसे अनुमति लेनी पडेगी. शासन अपना प्रतिनिधि भेजेगा और उसकी उपस्थितिमें संवाद हो सकेगा.
समाचार माध्यम शासनके विरुद्ध नहीं लिख सकते, यत् किंचित भी करना है उसके लिये शासनकी अनुमति लेना अनिवार्य था.
इन्दिराने गणतंत्रकी हत्या क्यों कि?
१२ जुन १९७५ को नहेरुवीयन कोंग्रेसकी लज्जास्पद पराजय हुई. यह वही नहेरुवीयन कोंग्रेसथी जिसके पास ३ साल पहेले किये गये चूनावमें १८३ मेंसे १४० बैठकें जित गयी थीं.
१३ जुनको ईलाहाबाद उच्च न्यायालयने ईन्दिरा गांधीका चूनाव रद किया. इतना ही नहीं उसको संसद सदस्यके पदके लिये ६ सालके लिये अयोग्य घोषित किया. यदि वह संसद सदस्यता के लिये भी योग्य नहीं रही, तो प्रधान मंत्री पदके लिये भी अयोग्य बन जाती है.
१८ जुनको गुजरातमें जनता मोरचा की सरकार बनी.
बिहारने नारा दिया “गुजरातकी जित हमारी है अब बिहारकी बारी है.
देशव्यापी आंदोलन होने वाला था.
इन्दिरा गांधीने आंतरिक आपातकाल घोषित किया.
नहेरु भी ऐसी परिस्थितिमें ऐसा ही करते. किन्तु वह स्थिति आनेसे पहेले वे चल बसे.
किन्तु आपातकाल की वार्ता करनेसे पहेले हम इस कथांशको अधिगत कर कि, नहेरु इस प्रकार प्रधान मंत्री बने थे?
जब भारतका स्वातंत्र्य निश्चित हुआ तो प्रधान मंत्री किसको बनाना वह प्रश्न सामने आया.
नहेरु बडे नेता अवश्य थे किन्तु सबसे बडे नेता नहीं थे.
उस समय भारतमें कोंग्रेस पक्षका संगठन व्यापक था. कन्याकुमारीसे लदाख और बलुचिस्तानसे अरुणाचल तक कोंग्रेस पक्ष फैला हुआ था. प्रत्येक ग्राम, नगर, तहेसील, जिला और प्रांतमें कोंग्रेसकी समितियां थी. हरेक प्रांतका संचालन प्रांतीय समिति करती थी. प्रधान मंत्रीके पदके लिये प्रधान मंत्री पदके लिये सुझाव मंगवाये गये थे. एक भी समितिने जवाहरलाल नहेरुका सुझाव नहीं दिया.
नहेरुने अपना आवेदन पत्र दिया था. महात्मा गांधीने नहेरुको बुलया. उनको कहा कि आपका नामका सुझाव एक भी प्रांतीय समितिने नहीं भेजा है. इससे यह निष्पन्न होता था कि, नहेरु नंबर वन से अतिदूर थे. नहेरु यदि लोकतंत्रमें श्रद्धा रखते होते तो उनको अपना आवेदन पत्र वापस लेना अनिवार्य था. किन्तु नहेरु लोक तंत्र में मानते ही नहीं थे. लोकतंत्रकी गाथा करना, केवल उनकी व्यूह रचना का भाग था.
नहेरुको प्रारंभसे ही अवगत था कि, जनतामें वे सर्व स्विकार्य नहीं थे. युवावर्गमें भी उनका क्रम सुभाषसे पीछे था. इस लिये वे १९३९के कोंग्रेसके प्रमुख पदके चूनावमें सुभाषके सामने पदके लिये आवेदनपत्र नहीं भरा. सुभाष के कोंग्रेसके छोडनेके बाद भी लोकप्रियतामें कई नेता नहेरुसे आगे थे. इस कारणसे नहेरुने एक समाजवादी गुट कंग्रेसमें ही बना दिया था. लेकिन सामान्य कोंग्रेसीको तथा अन्य वरिष्ठ नेताओंको तथा कथित समाजवादमें रुचि नहीं थी. इस लिये कंग्रेसके संगठन पर नहेरुका इतना प्रभाव नहीं था कि वे प्रधानमंत्री बन सके.
नहेरुने अपनी व्यूह रचना मनमें रक्खी थी. उन्होंने अपना उत्पात मूल्यको (न्युसन्स वेल्युको) कार्यरत करने का निश्चय किया. नहेरुने कंग्रेसका विभाजन करने का विचार किया. कंग्रेसके अंदर उनका समाजवादी गुट तो था ही. उतना ही नहीं कोंग्रेसके बाहर भी एक समाजवादी पक्ष था. यदि आवश्यकता पडे तो साम्यवादी पक्ष कि सहायता ली जा सकती थी. इन सबको मिलाके एक प्रभावशाली पक्ष बन सकता था.
महात्मा गांधीने नहेरुको प्रज्ञापित किया. प्रधान मंत्रीके पदके लिये एक भी प्रांतीय समितिने आपके (नहेरुके) नामका सुझाव नहीं दिया है. इस पर नहेरुकी क्या प्रतिक्रिया थी? नहेरुको क्या करना योग्य था? तब नहेरुको अपना आवेदन पत्र वापस ले लेना चाहिये था. किन्तु अपना आवेदन पत्र वापस लेनेके स्थान पर, नहेरु खिन्नतायुक्त अन्यमनस्क मूंह बनाके चल दिये.
गांधीजीको विश्वास हो गया कि नहेरु कोई पराक्रम करनेवाले है. यह पराक्रम था कोंग्रेसका विभाजन करनेका. उस समय भारतके सामने अन्य कई समस्याएं थीं, जिनमें भारतको अविभाजित रखना मुख्य था. कई राजा स्वतंत्र रुपमें रहेना चाहते थे. द्रविडीस्तान, दलितीस्तान, सिखीस्तान की मांगे भी हो रही थी. यदि उसी समय कोंग्रेसका विभाजन हो जाय तो कोंग्रेस निर्बल हो जाय और देशकी एकता के लिये एक बडा संकट पैदा हो जाय. गांधीजीको अवगत था कि, यदि पाकिस्तान भारतसे भीन्न बनने के अतिरिक्त, भारत ज्यादा विभाजित होनेसे बचाना ही प्राथमिकता होनी आवश्यक है. संविधान आनेके बाद, चूनावमें तो नहेरुको सरलतासे प्रभावहीन किया जा सकता है. महात्मा गांधीने सरदार पटेलको मना लिया और वचन ले लिया कि वे देशके हितमें सहायता करेंगे और कोंग्रेसको विभाजित नहीं होने देंगे. सरदार पटेल ने वचन दिया.
इस पार्श्व भूमिकामें नहेरु प्रधान मंत्री बने.
नहेरु प्रधान मंत्री बन गये तो, तत्पश्चात उन्होंने अपने एक एक करके सभीको विरोधीयोंको कोंग्रेस छोडने पर निरुपाय किया. जब तक यह लोकतंत्र, स्वयंके लिये वास्तविक रुपमें आपत्तिजनक नहीं बना तत् पर्यंत नहेरुने लोकतंत्रको आनंद–प्रमोदके स्वरुपमें चालु रक्खा,. जब भी लोकतंत्र आपत्तिजनक बना तब उन्होने ऐसी व्युहरचनाएं बनाई जो लोकतंत्रके सिद्धांतोंसे विरुद्ध थी और अशुद्ध भी थी.
इन्दिरा गांधी, नहेरुकी तरह व्युह रचनामें और मानवव्यवहारमें निपूण नहीं थी. इन्दिराको अपने पद पर लगे रहेने के लिये कंग्रेसको तोडना पडा. और १९७५में अपने पद पर लगे रहेने के लिये मानव अधिकारों पर और संविधानीय अधिकारों पर प्रहार करना पडा.
आपतकाल घोषित करनेसे क्या हुआ?
हजारों लोग कारावासमें बंद हुए. उनके कुटूंबीजनोंको या तो उनके मित्रोंने संम्हाला यातो उनको अति कठिन परिस्थितियोंसे पसार होना पडा. अनेक लोग रोगग्रस्त भी हुए.
नागरिक अधिकारोंकी सुरक्षाके लिये न्यायालय अर्थ हीन बना.
सरकारी गुप्तचर संस्थासे लोग भयग्रस्त हुए.
इतना ही नहीं सुरक्षा कर्मचारी किसी भी व्यवसाय करने वालेको भय दिखाने लगा कि तुम यद्वा तद्वा असामाजिक कार्य कर रहे हो ऐसा मैं शासनमें सूचन कर दुंगा. ऐसा मैं न करुं, इस लिये तुम मुझे इतनी रिश्वत दे दो.
सभा प्रदर्शन पर निषेध था. शासनके विषय पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रुपसे भी कुछ नहीं लिख सकते. क्यों कि आपने जो लिखा उसका मनस्वी अर्थघटन शासनका नियंत्रक अधिकारी करेगा.
आपतकालमें अनधिकृत धन राशी का कितना स्थानांतर और हस्तांतरण हुआ इसके लिये एक महाभारत से भी बडा ग्रंथ लिखा जा सकता है. आपातकालके अत्याचार, शासकीय अतिरेक, मानव अधिकारका हनन इन सबके अन्वेषण शाह आयोग द्वारा किया गया. शाह आयोगने, एक मालवाहक भर जाय इतना बडा विवरण दिया है.
इन्दिरा गांधीने यह क्यूं नहीं सोचा कि इससे भारतकी गरिमाको हानि पहूंचेगी?
भारत एक महान देश क्यूं माना जाता है?
क्यों कि उसकी संस्कृति सिर्फ पूरानी ही नहीं किन्तु सुग्रथित, वैभवशाली, वैज्ञानिक विचार धारासे प्लावित, पारदर्शी और लयबद्ध है. भारतमें धर्मका प्रणालिगत अर्थघटन नहीं है. भारतमें विरोधी विचार आवकार्य है. चार्वाक भी है और मधुस्छंदा भी है. ६००० सालसे अधिक प्राचीन वेद आज भी उतने ही मान्य और आदरीणीय है, जितना वे पहेले थे. तत्वज्ञान जो है वह शाश्वत है. और जिवनके सभी घटक प्रणालीयोंमे एक सूत्रित है. यतः भारत विश्वका एक मात्र ऐसा देश है जो अतिप्राचीन समयसे विभीन्न, विघटित, प्रकिर्ण, भौगोलिकतामें अति विस्तीर्ण होने पर भी एक देशके नामसे प्रख्यात है. इसका उल्लेख वेद पुराणोंमें भी विस्तारसे है. उसने अपनी संस्कृतिको जीवित रक्खा.
ऐसे भारतने १५० सालसे चलनेवाले एक सुसज्ज, सुग्रथित और नियमसे चलनेवाले विदेशी शासनका, अहिंसाके शस्त्रसे अंत किया. प्राचीन कालसे अर्वाचीन काल तक विश्वमें कहीं भी ऐसा मुक्तिसंग्राम नहीं हुआ. अहिसा आधारित संग्राम बलिदान देनेमें पीछे नहीं है. अहिंसा में भीरुता नहीं किन्तु शाश्वत निडरता रहती है. यह बात भारतने ही सिद्ध की. इस भारतके अहिंसक स्वातंत्र्य संग्रामसे अन्य कई देशोंने बोध लिया.
ऐसे देशकी प्रतिष्ठाको इन्दिरा गांधीने सिर्फ अपने स्वार्थ के लिये धूलमें मिला दीया.
जो जगजिवनराम अंग्रेजोंकी गोलीसे नहीं डरते थे वे कारावास और अपमृत्युसे डरने लगे. जो यशवंतराव चवाण स्वयंको शिवाजी–२, प्रदर्शित करते थे वे भी कारावाससे डरने लगे.
गुरुता लघुता पुरुषकी आश्रयवस ते होय, वृन्दमें करि विंध्य सो, दर्पनमें लघु होय.
इसका अर्थ है, व्यक्तिकी उच्चता व्यक्ति जिसके साथ है उसके पर अवलंबित है. यदि व्यक्ति निम्न कोटीके साथ है तो आप भी निम्न कोटीके बन जाता है.
अहो सज्जन संसर्ग कस्योन्नति न कारक, पुष्पमालाप्रसंगेन सुत्रं शिरसि धार्यते.
यदि व्यक्ति उच्च कोटीके संसर्गमें रहेता है तो उसकी कोटी भी उन्नत बन जाती है. जैसे पुष्पमाला मस्तिष्क पर चढती है तो साथमें सुत्र (धागा) भी मस्तिष्क पर चढ जाता है.
इन्दिरा गांधीने आपातकालके विषय पर अपने पक्षमें यह कहा कि, वह आवश्यक था. उसने कई कारण भी दिये. हम उसकी चर्चा नहीं करेंगे.
किन्तु जब स्वयं इन्दिरा चूनावमें ५५००० मतोंसे हार गयी तो उसने आपातकालका अंत घोषित कर दिया. उसने आपातकालके अंतर्गत ही चूनाव करवाया ताकि जनतामें भय कायम रहे.
इसका अर्थ तो यही हुआ कि आपातकालका कारण वह स्वयं थी. यदि शासकीय व्यवस्था अस्तव्यस्त थी तो उसकी स्वयंकी पराजयकी दुसरी क्षणसे वह व्यवस्था स्वस्थ तो नहीं हो जा सकती?
यदि इन्दिराकी दृष्टिमें और नीतिमें आपातकाल आवश्यक था और यदि वह स्वयंसे प्रस्थापित सिद्धांतोमें सत्यकी अनुभूति करती थी, स्वयंके निर्णयोंमें दृढताकी आग्रही थी, तो उसको स्वयंकी पराजय के पश्चात भी आपातकाल को चालु ही रखना चाहिये था. आपातकाल चालु रखना या उसका अंत करना, अनुगामी शासक पर छोड देना चाहिये था. किन्तु उसने ऐसा नहीं किया क्यों कि वह भीरु थी और अनुगामी सरकारसे भयभीत थी. वह भीरु थी उसका दुसरा उदाहरण यह था कि उसको शाह आयोग के प्रत्यक्ष स्वयं को प्रस्तूत करने कि निर्भयता नहीं दिखायी. यदि इन्दिरा स्वयंको प्रस्तूत करती तो …?
नहेरु और इन्दिरामें कोई वास्तविक भीन्नता नहीं थी.
दोनों नीतिहीन थे. नहेरु अपनी व्यूहरचनासे और उत्पात मूल्यसे प्रधान मंत्री बने और छल कपटवाली कूटनीतिसे प्रधान मंत्री बने रहे. इन्दिरा गांधी, अपने पिताके कारण प्रधानमंत्री बनी. फिर नीति हीनतासे और जनतंत्र को अस्तव्यस्त करके वह प्रधान मंत्रीके पद पर चालु रही.
इन्दिरा गांधी, जो स्वयं, इतिहासके दस्तावेजों पर सत्तालोलुपथी, और अपनी सत्ताकी रक्षाके लिये सारे देशको कारावास ग्रस्त करती थी, वह विपक्षके नेताओंको जो कारावासमें बंद थे उनको सत्ता लालची कहा करती थी. वह खुद, विपक्षके नेतांओंके प्रदर्शनको, शासनमें विघ्नकारी घोषित कहा करती थी, उसके स्वयं के नेतागण, चूं कि नहेरुवीयन कोंग्रेस गुजरातमें विपक्षमें था, सातत्यतासे बाबुभाई जशभाई पटेल की जनता पार्टीके शासनकी विरुद्ध प्रदर्शन, धरणा, व्याख्यान, निवेदन, आवेदन और गालीप्रदान किया करते थे. और जनता पार्टी के विरुद्ध बोलनेमें कोई निषेध नहीं था. आपातकालमें निषेध था तो वह नहेरुवीयन कोंग्रेसके विरुद्धमें नहीं बोलनेका.
सौजन्य आरके लक्ष्मण का कटाक्ष चित्र
आतंकवाद और कपटपूर्ण हत्याः
यदि कोई कहे कि नहेरु और इन्दिरा आतंक वादी थे और कपटयुक्त हत्या (फेक एन्काउन्टर) करनेवाले थे तो?
खुदको क्षति करके अन्यका भला करो यह सज्जनका लक्षण है.
अपने विरोधीको नष्ट करके स्वयं को और अपने मित्रको लाभ करो उसको आप क्या कहोगे?
श्यामप्रसाद मुखर्जीका कश्मिरमें क्या हुआ? शेख अब्दुल्ला किसका मित्र था? शेख अब्दुल्लाके लिये नहेरुने क्या क्या नहीं किया?
समाजवादके नाम पर नहेरुने चीन से स्नेह किया. सीमा पर सैन्य सुसज्ज नहीं रखा. जब चीनने खुल्ला आक्रमण किया तो सैन्यके पास कपडे नहीं थे, जूते नहीं थे, शस्त्र नहीं थे…. और ऐसे जवानोंको कहा कि जाओ युद्ध करो. इसको आप क्या कहोगे? आतंक कहोगे या फेक एनकाउन्टर?
१९७१में भारतीय सैन्य वीरतासे लडा. कश्मिरका जो भूभाग पाकिस्तानके पास था उसमेंसे भी, कुछ भाग हमारे सैन्यने ले लिया. हमारे सैन्यने ९२००० दुश्मनके सैनिकोंको गिरफ्तार भी किया. पूर्वपाकिस्तानको स्वतंत्र करवाया. हमारे कई सैनिकोंने बलिदान भी दिया. और भारतकी इस विजयका पूरा श्रेय इन्दिराने लिया.
इस युद्धके पूर्व इन्दिराने घोषणा की थी इस समय हम जिता हुआ भू भाग वापस नहीं देंगे, दुश्मनसे हानि वसुलीका दंड करेंगे. ९२००० पाक सैनिकोकों एक वर्ष तक खिलाया पिलाया उसका मूल्य वसुल करेंगे, एक कोटीसे ज्यादा बांग्लादेशी घुसपैठोंको वापस भेजेंगे, इनका भी हानिवसुलीका दंड देंगे. एक परिपूर्ण ऐसी संधि करेंगे कि पाकिस्तान कभी हमसे आंख उंची करके देख न सके.
किन्तु इन्दिराने, सिमला संधिके अंतर्गत परिपूर्ण विजयको घोर पराजय में परिवर्तित कर दिया. भारतको “विशाल शून्य” प्राप्त हुआ. पाकिस्तानका जो भी भूभाग पराभूत हुआ था वह सब उसको मिल गया. कश्मिरका जो भूभाग पाकिस्तानके पास था उसमेंसे भी कुछ भाग हमारे सैन्यने ले लिया वह भी इन्दिराने पाकिस्तानको दे दिया. इन्दिराने ९२००० पाकिस्तानी सैनिकोंको मुक्त कर दिया. पाकिस्तान ने हमारे ४०० सैनिकोंको मुक्त नहीं किया. कोई बांग्लादेशी वापस नहीं भेजा. और अधिक बांग्लादेशी घुसखोर आये. इतना ही नहीं बांग्लादेशने हिन्दुओंको भयभित करके बांग्लादेश त्यागने पर विवश किया.
आप भारतीय सैनिकोंके बलिदानको क्या कहोगे? क्या उनके बलिदान का ध्येय यह था कि अपना देश पराजित देशके सामने नतमस्तक हो जाय? यदि उनका ध्येय यह नहीं था तो इन भारतीय सैनिकोंकी मृत्युको आप फेक एनकाउन्टर नहीं कहोगे क्या कहोगे?
जय प्रकाश नारायण की हत्या
इन्दिरा गांधीने आपतकाल अंतर्गत महात्मा गांधीके अंतेवासी जयप्रकाश नारायणको कारावासमें, चिक्तित्सा न की और उनको मरणासन्न कर दिया. यह एक हत्या ही थी.
इन्दिरा गांधीने युनीयन कार्बाईडका संविद अनुबंध (कोन्ट्राक्ट डील) किया, किन्तु वह क्षतिपूर्ण था. आकस्मिक विपत्ति का प्रावधान इतना क्षतिपूर्ण था कि भोपालके गेस पीडितोंका जीवन अस्तव्यस्त हो गया. इतना ही नहीं, जो युनीयन कार्बाईडका प्रमुख एन्डरसन था, उनको भाग जानेमें मुख्य मंत्री और कोंगी फरजंद राजीव गांधीने मदद की.
इन निर्दोंषोंकी पायमाली को आप क्या कहोगे? यह आतंक नहीं है तो और क्या है?
लिखित और अलिखित, घोषित और अघोषित आपतकाल केवल और केवल नहेरुवीयनोंने ही लगाया था और लगाते रहे है. रामलीला मैदान मे रावण लीला जैसे अनेका अनेक उदाहरण आपको मिल सकते है.
क्या आपातकालके समय अडवाणी शिशु थे?
नहेरुवीयन शासनके समय अडवाणी पेराम्बुलेटर (बालगाडी) ले के नहीं चलते थे. उस समय अडवाणी ५०+ के वयस्क थे. १९७७–१९७९ के अंतर्गत अडवाणी उच्च कक्षाके मंत्री भी थे. उस समय भविष्यमें कोई सत्तालोलुप प्रधान मंत्री आपातकाल घिषित करके मानव अधिकारोंको निर्मूलन न कर सके, इस विषय पर पर्याप्त चर्चा विचारणाके बाद एक विधेयक बनाया था और उसको संसदसे अनुमोदित करवाया था. उस समय तो अडवाणी ने स्वयंकी तरफसे प्रस्तूत विधेयके प्रारुप लेखमें रुप परिवर्तनके लिये कोई संशोधन प्रस्तूत नहीं किया था. क्या वे कोई शुभ समय की प्रतिक्षामें थे?
प्रतिक्षा करो … चौधरी चरण सिंघका आत्मा ….
क्रमशः
शिरीष मोहनलाल दवे.
टेग्झः
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गोब्बेल्स अन्यत्र ही नहीं भारतमें भी जिवित है
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गोब्बेल्स अन्यत्र ही नहीं भारतमें भी जिवित है.
रामायण में ऐसा उल्लेख है कि रावणने राम के मृत्युकी अफवाह फैलायी थी. किन्तु सभी रामकाथाओंमें ऐसा उलेख नहीं है. रावणने अफवाह फैलायी थी ऐसी भी एक अफवाह मानी जाती है. सर्वप्रथम विश्वसनीयन अफवाहका उल्लेख महाभारतके युद्धके समय मिलता है, जब भीमसेन एक अफवाह फैलाता है कि “अश्वस्थामा मर गया”. यह बात अश्वस्थामाके पिता द्रोणके पास जाती है. किन्तु द्रोणके मंतव्यके अनुसार, भीमसेन विश्वसनीय नहीं है. द्रोण इस घटनाकी सत्यताके विषय पर सत्यवादी युधिष्ठिरसे प्रूच्छा करते है. युधिष्ठिर उच्चरते है “नरः वा कुंजरः वा (नरो वा कुंजरो वा)”. लेकिन नरः शब्द उंचे स्वरमें बोलते है और कुंजरः (हाथी) धीरेसे बोलते है जो द्रोणके लिये श्रव्य सीमा से बाहर था. तो इस प्रकार पांण्डव पक्ष, अफवाह फैलाके द्रोण जैसे महारथी को मार देता है.
अर्वाचिन युगमें गोब्बेल्स नाम अफवाहें फैलानेवालोंमे अति प्रख्यात है. ऐसा कहा जाता है कि, उसने अफवाहें फैलाके शत्रुसेनाके सेनापतियोंको असमंजसमें डाल दिया था.
अफवाह की परिभाषा क्या है?
अफवाहको संस्कृतभाषामें जनश्रुति कहेते है. जनश्रुति का अर्थ है एक ऐसी घटना जिसके घटनेकी सत्यताका कोई प्रमाण नहीं होता है. इसके अतिरिक्त इस घटनाको सत्यके रुपमें पुरष्कृत किया जाता है या तो उसका अनुमोदन किया जाता है. और इस अनुमोदनमें भी किया गया तर्क शुद्ध नहीं होता है. एक अफवाहकी सत्यताको सिद्ध करने के लिये दुसरी अफवाह फैलायी जाती है. और ऐसी अफवाहोंकी कभी एक लंबी शृंखला बनायी जाती है कभी उसकी माला भी बनायी जाती है.
अफवाह उत्पन्न करो और प्रसार करो
कई बार अफवाह फैलाने वाला दोषित नहीं होता है. वह मंदबुद्धि अवश्य होता है. जिन्होंने अफवाहका जनन किया है वे लोग, ऐसे मंदबुद्धि लोगोंका एक प्रसारण उपकरण (टुल्स), के रुपमें उपयोग करते है. ऐसा भी होता है कि ऐसे प्रसार–माध्यम–व्यक्ति अपने स्वार्थके कारण या अहंकारके कारण अफवाह को सत्य मान लेता है और प्रसारके लिये सहायभूत हो जाता है.
अफवाहें फैलानेमें पाश्चात्य संस्कृतियां का कोई उत्तर नहीं.
वास्तवमें तो स्वर्ग, नर्क, सेतान, देवदूत, क्रोधित होनेवाला ईश्वर, प्रसन्न होनेवाला ईश्वर, कुछ लोगोंको “ ये तो अपनवाले है” और दुसरोंकों “पराये” कहेने वाला ईश्वर, यही धर्म श्रेष्ठ है, इसी धर्मका पालन करनेसे ईश्वरकी प्राप्ति हो सकती है, इस धर्मको स्विकारोगे तो तुम्हारा पाप यह देवदूत ले लेगा, ये सभी कथाएं और मान्यताएं भी अफवाह ही तो है.
कामदेव, विष्णु भगवानका पुत्र था. “काम”का यदि प्रतिकात्मक अर्थ करें तो नर–मादामें परस्पर समागमकी वृत्ति को काम कहा जाता है.
भारतीय संस्कृतिमें तत्वज्ञानको प्रतिकात्मक करके, काव्य के रुपमें उसको लोकभोग्य बनानेकी एक प्रणाली है. इस तरहसे जन समुदायको तत्वज्ञान अवगत करानेकी परंपरा बनायी है.
काम भी एक देव है. देवसे प्रयोजित है शक्ति या बल.
कामातुर जिवकी कामेच्छा कब मर जाती है?
जब कामातुर व्यक्तिको अग्निकी ज्वालाका स्पर्ष हो जाता है, तब उसकी कामेच्छा मर जाती है. लेकिन काम मरता नहीं है. इस प्राकृतिक घटनाको प्रतिकात्मक रुपमें इस प्रकार अवतरण किया कि रुद्रने (अग्निने) कामको भष्म कर दिया. किन्तु देव तो कभी मर नहीं सकता. अब क्या किया जाय? तो तत् पश्चात् इश्वरने उसको सजिवोंमे स्थापित कर दिया. बोध है कि कामदेव सजिवमें विद्यमान है.
“जनश्रुति” यानीकी अफवाह भी जनसमुदायोंमे जिवित है. हांजी, प्रमाण कितना है वह चर्चा का विषय है.
इतिहासमें जनश्रुति (अफवाहें रुमर);
पाश्चात्य इतिहासकारोंने भारतके पूरे पौराणिक साहित्यको अफवाह घोषित कर दिया. पुराणोमें देवोंकी और ईश्वरकी जो प्रतिकात्मक या मनोरंजनकी कथायें थी उनकी प्रतिकात्मकताको इन पाश्चात्य इतिहासकारोंने समझा नही या तो समझनेकी उनकी ईच्छा नहीं थी क्योंकि उनका ध्येय अन्य था. उनको उनकी ध्येय–सूची (एजन्डा)के अनुसार, कुछ अन्य ही सिद्ध करनेका था. उस ध्येय सूचि के अनुसार उन्होंने इन सब प्रतिकात्मक ईश्वरीय कथाओंको मिथ्या घोषित कर दिया. और उनको आधार बनाके भारतमें भारतवासीयोंके लिखे इस इतिहासको अफवाह घोषित कर दिया.
भारत पर आर्योंका आक्रमणः
पराजित देशकी जनताको सांस्कृतिक पराजय देना उनकी ध्येय–सूची थी. अत्र तत्र से कुछ प्रकिर्ण वार्ताएं उद्धृत करके उसमें कालगणना. भाषाकी प्रणाली, जन सामान्यकी तत्कालिन प्रणालीयां, प्रक्षेपनकी शक्यता, आदि को उपेक्षित कर दिया.
आर्य, अनार्य, वनवासी, आदि जातियोंमें भारतकी जनताको विभाजित करके भारतीय संस्कृतिको भारतीय लोगोंके लिये गौरवहीन कर दिया. ऐसी तो कई बातें हैं जो हम जानते ही है.
ऐसा करना उनके लिये नाविन्य नहीं था. ऐसी ही अफवाहें फैलाके उन्होने अमेरिकाकी माया संस्कृतिको और इजिप्तकी महान संस्कृतिको नष्ट कर दिया था. पश्चिम एशियाकी संस्कृतियां भी अपवाद नहीं रही है.
आप कहोगे कि इन सब बातोंका आज क्या संदर्भ है?
संदर्भ अवश्य है. भारतीय संस्कृतिकी प्रत्येक प्रणालीयोंमें इसका संदर्भ है और उसका प्रास्तूत्य भी है.
अफवाहें फैलाके दुश्मनोंमें विभाजन करना, दुश्मनोंकी सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट करना, दुश्मनोंकी प्रणालीयोंको निम्नस्तरीय सिद्ध करना और उसका आनंद लेना ये सब उनके संस्कार है. आज भी आपको यह दृष्टिगोचर होता है.
भारतमें इन अफवाहोंके कारण क्या हुआ?
भारतकी जनतामें विभाजन हुआ. उत्तर, दक्षिण, पूर्वोत्तर, हिन्दु, मुस्लिम, ख्रीस्ती, भाषा, आर्य, अनार्य, ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शुद्र, वनवासी, पर्वतवासी, अंग्रेजीके ज्ञाता, अंग्रेजीके अज्ञाता आदि आदि… इनमें सबसे भयंकर भेद धर्म, जाति और ज्ञाति.
मुस्लिमोंमें यह अफवाह फैलायी कि वे तो भारतके शासक थे. उन्होने भारतके उपर १२०० साल शासन किया है. उन्होंने ही भारतीयोंको सुसंस्कृत किया है. भारतकी अफलातुन इमारतें आपने ही तो बनायी. भारतके पास तो कुछ नहीं था. भारत तो हमेशा दुश्मनों से २५०० सालोंसे हारता ही आया है. सिकंदरसे लेके बाबर तक भारत हारते ही आया है.
ख्रीस्ती और मुसलमानोंने भारतके निम्न वर्णको यह बताया कि आपके उपर उच्च वर्णके लोगोंने अमानवीय अत्याचार किया है. दक्षिण भारतकी अ–ब्राह्मण जनताको भी ऐसा ही बताया गया. इन कोई भी बातोंमे सत्यका अभाव था.
सबल लोग, निर्बल लोगोंका शोषण करे ऐसी प्रणाली पूरे विश्वमें चली है और आज भी चलती है. केवल सबल और निर्बलके नाम बदल जाते है. भारतमें शोषण, अन्य देशोंके प्रमाणसे अति अल्प था. जो ज्ञातियां थी वे व्यवसाय के आधार पर थी. और पूरा भारतीय समाज सहयोगसे चलता था.
धार्मिक अफवाहेः
धर्मकी परिभाषा जो पाश्च्यात देशोंने बानायी है, वह भारतके सनातन धर्म को लागु नहीं पड सकती. किन्तु यह समझनेकी पाश्चात्य देशोंकी वृत्ति नहीं है या तो उनकी समझसे बाहर है.
भारतके अंग्रेजी–ज्ञाताओंकी मानसिकता पराधिन है. इतिहास, धरोहर, प्रणालीयां, तत्वज्ञान, वैश्विक भावना, आदिको एक सुत्रमें गुंथन करके भारतीय विद्वानोंने भारतकी संस्कृतिमें सामाजिक लयता स्थापित की है. लयता और सहयोग शाश्वत रहे इस कारण उन्होंने स्थिति–स्थापकता भी रक्खी है.
किन्तु इन तथ्योंको समझना और आत्मसात् करना पाश्चात्य विद्वानोंके मस्तिष्कसे बाहर की बात है. इस लिये उन्होंने ऐसी अफवाहें फैलायी कि, हिन्दु देवदेवीयां तो बिभत्स है. उनके उपासना मंत्र और पुस्तकें भी बिभत्स है. वे लोग जननेन्द्रीयकी पूजा करते है. उनके देव लडते भी रहेते है और मूर्ख भी होते है. भला, देव कभी ऐसे हो सकते हैं? पाश्चात्य भाषी इस प्रकार हिन्दु धर्मकी निंदा करके खुश होते हैं.
वेदोंमे और कुछ मान्य उपनिषदोंमे नीहित तत्वज्ञानका अर्क जो गीतामें है उनको आत्मसात तो क्या किन्तु समझनेकी इन लोगोंमें क्षमता नहीं है.
शास्त्र क्या है? इतिहास क्या है? समाज क्या है? कार्य क्या है? इश्वर क्या है? आत्मा क्या है? शरीर सुरक्षा क्या है? आदि में प्रमाणभूत क्या है, इन बातोंको समझनेकी भी इन विद्वानोंमे क्षमता नहीं है. तो ये लोग इनके तथ्योंको आत्मसात् तो करेंगे ही कैसे?
राजकीय अफवाहेः
दुसरों पर अधिकार जमाना यह पाश्चात्य संस्कृतिकी देन है.
भारतमें गुरु परंपरा रही है. गुरु उपदेश और सूचना देता है. हरेक राजाके गुरु होते थे. राजाका काम सिर्फ गुरुनिर्देशित और सामाजिक मान्यता प्राप्त प्रणालियोंके आधार पर शासन करना था. भारतका जनतंत्र एक निरपेक्ष जनतंत्र था. गणतंत्र राज्य थे. राजाशाही भी थी. तद्यपि जनताकी बात सूनाई देती थी. यह बात केवल महात्मा गांधी ही आत्मसात कर सके थे.
भारतकी यथा कथित जनतंत्रको अधिगत करनेकी नहेरुमें क्षमता नहीं थी. नहेरुको भारतीय संस्कृति और संस्कारसे कोई लेना देना नहीं था. उन्होंनें तो कहा भी था कि “मैं (केवल) जन्मसे (ही) हिन्दु हूं. मैं कर्मसे मुस्लिम हूं और धर्मसे ख्रीस्ती हूं. नहेरुको महात्मा गांधी ढोंगी लगते थे. किन्तु यह मान्यता उन्होंने गांधीजीके मरनेके सात वर्षके पश्चात्, केनेडाके एक राजद्वारी व्यक्तिके सामने प्रदर्शित की थी.
नहेरुकी अपनी प्राथमिकता थी, हिन्दुओंकी निंदा. नहेरुने हिन्दुओंकी निंदा करनेकी बात, आचारमें तभी लाया, जब वे एक विजयी प्रधान मंत्री बन गये.
हिन्दु महासभा को नष्ट करनेमें नहेरुका भारी योगदान था.
वंदे मातरम् और राष्ट्रध्वजमें चरखाका चिन्ह को हटानेमें उनका भारी योगदान था. गौ रक्षा और संस्कृतभाषाकी अवहेलना करना, मद्य निषेध न करना, समाजको अहिंसाकी दिशामें न ले जाना, अंग्रेजीको अनियत कालके लिये राष्ट्रभाषा स्थापित करके रखना, समाजवादी (साम्यवादी) समाज रचना आदि सब आचारोंमे नहेरुका सिक्का चला. उन्होंने तथा कथित समाजवाद, हिन्दी चीनी भाई भाई, स्व कथित और स्व परिभाषित “धर्म निरपेक्षता”की अफवाहें फैलायी. इन सभी अफवाहोंको अंग्रेजी ज्ञाता–जुथोंने स्वकीय स्वार्थके कारण अनुमोदन भी किया.
जनतंत्र पर जो प्रहार नहेरु नहीं कर पाये, वे सब प्रहार इन्दिरा गांधीने किया.
इन्दिरा गांधी, अफवाहें फैलानेमें प्रथम क्रम पर आज भी है.
इन्दिरा गांधीने जितनी अफवाहें फेलायी थी उसका रेकॉर्ड कोई तोड नहीं सकता. क्यों कि अब भारतमें आपात् काल घोषित करना संविधानके प्रावधानोंके अनुसार असंभव है.
सुनो, ऑल इन्डिया रेडियो क्या बोलता था?
एक वयोवृद्ध नेता, सेनाको और कर्मचारीयोंको विद्रोहके लिये उद्युत कर रहा है. (संदर्भः जय प्रकाश नारायणने कहा था कि सभी सरकारी कर्मचारी संविधानके नियमोंसे बद्ध है. इसलिये उनको हमेशा उन नियमोंके अनुसार कार्य करना है. यदि उनका उच्च अधिकारी या मंत्री नियमहीन आज्ञा दें तो उनको वह आदेश लेखित रुपमें मांगना आवश्यक है.) किन्तु उपरोक्त समाचार ‘एक वयोवृद्ध नेता, सेनाको और कर्मचारीयोंको विद्रोहके लिये उद्युत कर रहा है” सातत्य पूर्वक चलता रहा.
उसी प्रकार “आपातकाल अनुशासन है”का अफवाहयुक्त अर्थघटन यह किया गया कि, “आपातकाल एक आवश्यक और निर्दोष कदम है और विनोबा भावे इस कदमसे सहमत है.”
विनोबा भावेने खुदने इस अयोग्य कदमके विषय पर स्पष्टता की थी, “यदि वास्तवमें देशके उपर कठोर आपत्ति है तो यह, एक शासककी समस्या नहीं है, यह तो पुरे देशवासीयोंकी समस्या है. इस लिये देशको कैसे चलाया जाय इस बात पर सिर्फ (सत्ताहीन) आचार्योंकी सूचना अनुसार शासन होना चाहिये. क्योंकि आचार्योंका शासन ही अनुशासन है. “आचार्योंका अनुशासन होता है. सत्ताधारीयोंका शासन होता है.”
विनोबा भावे का स्पष्टीकरण दबा दिया गया. सत्यको दबा देना भी तो अफवाहका हिस्सा है.
“एक वयोवृद्ध नेता (मोरारजी देसाई) के लिये प्रतिदिन २० कीलोग्राम फल का खर्च होता है.” यह भी एक अफवाह इन्दिरा गांधीने फैलायी थी. मोरारजी देसाईने कहा कि यदि मैं प्रतिदिन २० कीलोग्राम फल खाउं तो मैं मर ही जाउं.
ऐसी तो सहस्रों अफवायें फैलायी जाती थी. अफवाहोंके अतिरिक्त कुछ चलता ही नहीं था.
समाचार माध्यमों द्वारा प्रसारित अफवाहें
आज दंभी धर्मनिरपेक्षताके पुरस्कर्ताओंने समाचार पत्रों और विजाणुंमाध्यमों द्वारा अफवाहें फैलानेका ठेका नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंके पक्षमें ले लिया है.
मोदी–फोबीयासे पीडित नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके साथीयोंके द्वारा कथित उच्चारणोंसे नरेन्द्र मोदी कौनसा जानवर है या वह कौनसा दैत्य है, या वह कौनसा आततायी है, इन बातों को छोड दो. यह तो गाली प्रदान है. ऐसे संस्कारवालोंने (नहेरुवीयनोंने) इन लोगोंका नाम बडा किया है.
किन्तु भूमि अधिग्रहण विधेयक, आतंकवाद विरोधी विधेयक, उद्योग नीति, परिकल्पनाएं, विशेष विनिधान परिक्षेत्र (स्पेश्यल इन्वेस्टमेंट झोन), आदि विकास निर्धारित योजनाओं के विषय पर अनेक अफवाहें ये लोग फैलाते हैं. इसके विषय पर एक पुस्तक लिखा जा सकता है.
उदाहरण के तौर पर, भूमिअधिग्रहणमें वनकी भूमि नहीं है तो भी वनवासीयोंको अपने अधिकार से वंचित किया है, ऐसी अफवाह फैलायी जाती है. कृषकोंको अपनी भूमिसे वंचित करनेका यह एक सडयंत्र है. यह भी एक अफवाह है. क्यों कि उसको चार गुना प्रतिकर मिलता है जिससे वह पहेलेसे भी ज्यादा भूमि कहींसे भी क्रय कर सकते है.
आतंकवाद विरुद्ध हिन्दु और भारत समाज सुरक्षाः
कश्मिरके हिन्दुओंने तो कुछ भी नहीं किया था.
तो भी, १९८९–९० में कश्मिरी हिन्दुओंको खुल्ले आम, अखबारोंमें, दिवारों पर, मस्जिदके लाउड स्पीकरों द्वारा धमकियां दी गयी कि, “इस्लाम कबुल करो या तो कश्मिर छोड दो. यदि ऐसा नहीं करना है तो मौतके लिये तयार रहो.” फिर ३००० से भी अधिक हिन्दुओंकी कत्ल कर दी. और उनके उपर हर प्रकारका आतंक फैलाया. ५–७ लाख हिन्दुओंको अपना घर छोडना पडा. उनको अपने प्रदेशके बाहर, तंबूओंमे आश्रय लेना पडा. उनका जिवन तहस नहस हो गया है.
ऐसे आतंकके विरुद्ध दंभी धर्मनिरपेक्ष जमात मौन रही, नहेरुवीयन कोंग्रेसनेतागण मौन रहा, कश्मिरी नेतागण मौन रहा, समाचार माध्यम मौन रहा, मानव अधिकार सुरक्षा संस्थाएं मौन रहीं, समाचार पत्र मौन रहें, दूरदर्शन चेनलें मौन रहीं, सर्वोदयवादी मौन रहें… ये केवल मौन ही नहीं निरपेक्ष रीतिसे निष्क्रीय भी रहे. जिनको मानवोंके अधिकारकी सुरक्षाके लिये कर–प्रणाली द्वारा दिये जन–निधिमेंसे वेतन मिलता है वे भी मौन और निष्क्रीय रहे. यह तो ठंडे कलेजेसे चलता नरसंहार ही था और यह एक सातत्यपूर्वक चलता आतंक ही है जब तक इन आतंकवादग्रस्त हिन्दुओंको सम्मानपूर्वक पुनर्वासित नहीं किया जाता.
एक नहेरुवीयन कोंग्रेस पदस्थ नेताने आयोजन पूर्वक २००२ में गोधरा रेल्वे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेसका डीब्बा जलाकर ५९ स्त्री, पुरुष बच्चोंको जिन्दा जला दिया. ऐसा शर्मनाक आतंक, गुजरातमें प्रथम हुआ.
गुजरात भारतका एक भाग है. वह कोई संतोंका मुल्क नहीं है, न तो वह भारत में, संतोंका एक टापु बन सकता है. यदि कोई ऐसी अपेक्षा रक्खे तो वह मूर्ख ही है.
५९ हिन्दुओंको जिन्दा जलाया तो हिन्दुओंकी प्रतिक्रिया हुई. दंगे भडक उठे. तीन दिन दंगे चले. शासनने ३ दिनमें नियंत्रण पा लिया. जो निर्वासित हो गये थे उनका पुनर्वसन भी कर दिया. इनमें हिन्दु भी थे और मुसलमान भी थे. मुसलमान अधिक थे. ३ से ६ मासमें, स्थिति पूर्ववत् कर दी गयी.
तो भी गुजरातके शासन और शासककी भरपुर निंदा कर दी गयी और वह आज भी चालु है.
मुस्लिमोंने जो सहन किया उसके उपर जांच आयोग बैठे,
विशेष जांच आयोग बैठे,
सेंकडोंको जेलमें बंद किया,
न्यायालयोंमें केस चले.
सजाएं दी गयी.
इसके अतिरिक्त इसके उपर पुस्तकें लिखी गयीं,
पुस्तकोंके विमोचन समारंभ हुए,
घटनाके विषय को ले के हिन्दुओंके विरुद्ध चलचित्र बने,
अनेक चलचित्रोंमें इन दंगोंका हिन्दुओंके विरुद्ध और शासनके विरुद्ध प्रसार हुआ. इसके वार्षिक दिन मनाये जाने लगें.
२००२ के दंगोमें क्या हुआ था?
२००० से कम हुई मौत/हत्या जिनमें पुलीस गोलीबारीसे हुई मौत भी निहित है.
इसमें हिन्दु अधिक थे. ११४००० लोगोंको तंबुमें जाना पडा जिनमें १/३ से ज्यादा हिन्दु भी थे
३ से ६ महीनेमें सब लोगोंका पुनर्वसन कर दिया गया.
इनके सामने तुलना करो कश्मिरका हत्याकांड १९८९–९०
हिन्दुओंने कुछ भी नहीं किया था.
३०००+ मौत हुई केवल हिन्दुओंकी.
५०००००–७००००० निर्वासित हुए. सिर्फ हिन्दुओंको निर्वासित किया गया था.
शून्य पोलीस गोलीबारी
शून्य मुस्लिम मौत
शून्य पुलीस या अन्य रीपोर्ट
शून्य न्यायालय केस
शून्य गिरफ्तारी
शून्य दंड विधान
शून्य सरकारी नियंत्रण
शून्य पुस्तक
शून्य चलचित्र
शून्य दूरदर्शन प्रदर्शन
शून्य उल्लेख अन्यत्र माध्यम
शून्य सरकारी कार्यवायी
शून्य मानवाधिकारी संस्थाओंकी कार्यवाही
यदि हिन्दुओंका यही हाल है और फिर भी उनके बारेमें कहा जाता है कि, “मुस्लिम आतंकवादकी तुलनामें हिन्दु आतंकवाद से देशको अधिक भय है” ऐसा जब नहेरुवीयन कोंग्रेसका अग्रतम नेता एक विदेशीको कहेता है तो इसको अफवाह नहीं कहोगे तो क्या कहोगे?
अघटित को घटित बताना, संदर्भहीन घटनाको अधिक प्रभावशाली दिखाना, असत्य अर्थघटन करना, प्रमाणभान नहीं रखना, संदर्भयुक्त घटनाओंको गोपित रखना, निष्क्रीय रहना, अपना कर्तव्य नहीं निभाना … ये सब बातें अफवाहोंके समकक्ष है. इनके विरुद्ध दंडका प्रावधान होना आवश्यक है.
और कौन अफवाहें फैलाते हैं?
लोगोंमें भी भीन्न भीन्न फोबिया होता है.
मोदी और बीजेपी या आएसएस फोबीया केवल दंभी धर्मनिरपेक्ष पंडितोमें होता है ऐसा नहीं है, यह फोबीया सामान्य मुस्लिमोंमें और पाश्चात्य संस्कृति से अभिभूत व्यक्तिओमें भी होता है. ऐसा ही फोबीया महात्मा गांधी के लिये भी कुछ लोगोंका होता है. कुछ लोगोंको मुस्लिम फोबिया होता है. कुछ लोगोंको क्रिश्चीयन लोगोंसे फोबीया होता है. कुछ लोगोंको श्वेत लोगोंकी संस्कृतिसे या श्वेत लोगोंसे फोबिया होता है. वे भी अपनी आत्मतूष्टिके लिये अफवाहें फैलाते है. ये सब लोग केवल तारतम्य वाले कथनों द्वारा अपना अभिप्राय व्यक्त करके उसके उपर स्थिर रहते हैं.
शिरीष मोहनलाल दवे
नरेन्द्र मोदी जब प्रधान मंत्री बन जाय, तब भारतीय जनता उनसे क्या अपेक्षा रखती है? – २
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