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कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता – ३

कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता – ३

गांधीका खूनी कोंगी है

शाहीन बाग पदर्शनकारीयोंका संचालन करनेवाली गेंग है वह अपनेको महात्मा गांधीवादी समज़ती है. कोंगी लोग और उनके सांस्कृतिक समर्थक भी यही समज़ते है.. इन समर्थकोमें समाचार माध्यम और उनके कटारलेखकगण ( कोलमीस्ट्स) भी आ जाते है.

ये लोग कहते है, “आपको प्रदर्शन करना है? क्या लोक शाही अधिकृत मार्गसे प्रदर्शन करना  है? तो गांधीका नाम लो … गांधीका फोटो अपने हाथमें प्रदर्शन करनेके वख्त रक्खो… बस हो गये आप गांधीवादी. ”

कोंगी यानी नहेरुवीयन कोंग्रेस [इन्दिरा नहेरुघांडी कोंग्रेस I.N.C.)] और उनके सांस्कृतिक साथीयोंकी गेंगें यह समज़ती है कि गांधीकी फोटो रक्खो रखनेसे आप गांधीजीके समर्थक और उनके मार्ग पर चलनेवाले बन जाते है. आपको गांधीजी के सिद्धांतोको पढने की आवश्यकता नहीं.

गांघीजीके नाम पर कुछ भी करो, केवल हिंसा मत करो, और अपनेको गांधी मार्ग द्वारा  शासन का प्रतिकार करनेवाला मान लो. यदि आपके पास शस्त्र नहीं है और बिना शस्त्र ही प्रतिकार कर रहे है तो आप महात्मा गांधीके उसुलों पर चलने वाले हैं मतलब कि आप गांधीवादी है.

देशके प्रच्छन्न दुश्मन भी यही समज़ते है.

हिंसक शस्त्र मत रक्खो. किन्तु आपके प्रदर्शन क्षेत्रमें यदि कोई अन्य व्यक्ति आता है तो आप लोग अपने बाहुओंका बल प्रयोग करके उनको आनेसे रोक सकते हो. यदि ऐसा करनेमें उसको प्रहार भी हो जाय तो कोई बात नहीं. उसका कारण आप नहीं हो. जिम्मेवार आपके क्षेत्रमें आने वाला व्यक्ति स्वयं है. आपका हेतु उसको प्रहार करनेका नहीं था. आपके मनाकरने पर भी, उस व्यक्तिने  आपके क्षेत्रमें आनेका प्रयत्न किया तो जरा लग गया. आपका उसको हताहत करनेका हेतु तो था ही नहीं. वास्तवमें तो हेतु ही मुख्य होता है न? बात तो यही है न? हम क्या करें?

शाहीन बागके प्रदर्शनकारीयोंको क्या कहा जाय?

लोकशाहीके रक्षक कहा जाय?

अहिंसक मार्ग द्वारा प्रदर्शन करने वाले कहा जाय?

निःशस्त्र क्रांतिकारी प्रदर्शनकारी कहा जाय?

गांधीवादी कहा जाय?

लोकशाहीके रक्षक तो ये लोग नहीं है.

इन प्रदर्शनकारीयोंका विरोध “नया नागरिक नियम”के सामने है.

इन प्रदर्शनकारीयोंका विरोध राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (रजीस्टर) बनानेके प्रति है.

इन प्रदर्शन कारीयोंका विरोध राष्ट्रीय जनगणना पंजिका बनानेके प्रति है.

ये प्रदर्शनकारी और कई मूर्धन्य लोग भी मानते है कि प्रदर्शन करना जनताका संविधानीय अधिकार है. और ये सब लोकशाहीके अनुरुप और गांधीवादी है. क्यों कि प्रदर्शनकारीयोंके पास शस्त्र नहीं है इसलिये ये अहिंसक है. अहिंसक है इसलिये ये महात्मा गांधीके सिद्धांतोके अनुरुप है.

इन प्रदर्शन कारीयोंमें महिलाएं भी है, बच्चे भी है. शिशु भी है. क्यों कि इन सबको विरोध करनेका अधिकार है.

इन विरोधीयोंके समर्थक बोलते है कि यह प्रदर्शन दिखाते है कि अब महिलाएं जागृत हो गई हैं. अब महिलायें सक्रिय हो गई हैं, बच्चोंका भी प्रदर्शन करनेका अधिकार है. इन सबकी आप उपेक्षा नहीं कर सकते. ये प्रदर्शन कारीयों के हाथमें भारतीय संविधानकी प्रत है, गांधीजीकी फोटो है, इन प्रदर्शनकारीयोंके हाथमें अपनी मांगोंके पोस्टर भी है. इनसे विशेष आपको क्या चाहिये?

वैसे तो भारतकी उपरोक्त गेंग कई बातें छीपाती है.

ये लोग मोदी-शाहको गोली मारने के भी सूत्रोच्चार करते है, गज़वाहे हिंदके सूत्रोच्चार भी करते है,      

यदि उपरोक्त बात सही है तो हमें कहेना होगा कि ये लोग या तो शठ है या तो अनपढ है. और इनका हेतु कोई और ही है.

निःशस्त्र और सत्याग्रह

निःशस्त्र विरोध और सत्याग्रहमें बडा भेद है. यह भेद न तो यह गेंग समज़ती है, न तो यह गेंग समज़ना चाहती है.

(१) निःशस्त्र विरोधमें जिसके/जिनके प्रति विरोध है उनके प्रति प्रेम नहीं होता है.

(२) निःशस्त्र विरोध हिंसक विरोधकी पूर्व तैयारीके रुपमें होता है. कश्मिरमें १९८९-९०में हिन्दुओंके विरोधमें सूत्रोच्चार किया गया था. जब तक किसी हिन्दु की हत्या नहीं हुई तब तक तो वह विरोध भी अहिंसक ही था. मस्जिदोंसे जो कहा जाता था उससे किसीकी मौत नहीं हुई थी. वे सूत्रोच्चार भी अहिंसक ही थे. वे सब गांधीवादी सत्याग्रही ही तो थे.

(३) सत्याग्रहमें जिनके सामने विरोध हो रहा है उसमें उनको या अन्यको दुःख देना नहीं होता है.

(४) सत्याग्रह जन जागृति के लिये होता है और किसीके साथ भी संवाद के लिये सत्याग्रहीको तयार रहेनेका होता है.

(५) सत्याग्रही प्रदर्शनमें सर्वप्रथम सरकारके साथ संवाद होता है. इसके लिये सरकारको लिखित रुपसे और पारदर्शिता के साथ सूचित किया जाता है. यदि सरकारने संवाद किया और सत्याग्रहीके तर्कपूर्ण चर्चाके मुद्दों पर   यदि सरकार उत्तर नहीं दे पायी, तभी सत्याग्रहका आरंभ सूचित किया जा सकता है.

(६) सत्याग्रह कालके अंतर्गत भी सत्याग्रहीको संवादके लिये तयार रहना अनिवार्य है.

(७) यदि संविधानके अंतर्गत मुद्दा न्यायालयके आधिन होता है तो सत्याग्रह नहीं हो सकता.

(८) जो जनहितमें सक्रिय है उनको संवादमें भाग लेना आवश्यक है.

शाहीन बाग या अन्य क्षेत्रोंमे हो रहे विरोधकी स्थिति क्या है?

(१) प्रदर्शनकारीयोंमे जो औरतें है उनको किसीसे बात करनेकी अनुमति नहीं. क्यों कि जो गेंग, इनका संचालन कर रहा है, उसने या तो इन प्रदर्शनकारीयोंको समस्यासे अवगत नहीं कराया, या गेंग स्वयं नहीं जानती है कि समस्या क्या है? या गेंगको स्वयंमें आत्मविश्वासका अभाव है. वे समस्याको ठीक प्रकारसे समज़े है या तो वे समज़नेके लिये अक्षम है.

(२) प्रदर्शनकारी और उनके पीछे रही संचालक गेंग जरा भी पारदर्शी नहीं है.

(३) प्रदर्शनकारीयोंको और उनके पीछे रही संचालक गेंग को सरकारके प्रति प्रेम नहीं है, वे तो गोली और डंडा मारनेकी भी बातें करते हैं.

(४) प्रदर्शनकारीयोंको और उनके पीछे रही संचालक गेंगको गांधीजीके सत्याग्रह के नियम का प्राथमिक ज्ञान भी नहीं है, इसीलिये न तो वे सरकारको कोई प्रार्थना पत्र देते है न तो समाचार माध्यमके समक्ष अपना पक्ष रखते है.

(५) समस्याके विषयमें एक जनहितकी अर्जी की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालयमें है ही, किन्तु ये प्रदर्शनकारीयोंको और उनके संचालक गेंगोंको न्यायालय पर भरोसा नहीं है. उनको केवल प्रदर्शन करना है. न तो इनमें धैर्य है न तो कोई आदर है.

(६) कुछ प्रदर्शनकारी अपना मूँह छीपाके रखते है. इससे यह सिद्ध होता है कि वे अपने कामको अपराधयुक्त मानते है, अपनी अनन्यता (आईडेन्टीटी) गोपित रखना चाहते है ताकि वे न्यायिक दंडसे बच सकें. ऐसा करना भी गांधीजीके सत्याग्रहके नियमके विरुद्ध है. सत्याग्रही को तो कारावासके लिये तयार रहेना चाहिये. और कारावास उसके लिये आत्म-चिंतनका स्थान बनना चाहिये.

(७) इन प्रदर्शनकारीयोंको अन्य लोगोंकी असुविधा और कष्टकी चिंता नहीं. उन्होंने जो आमजनताके मर्गोंका अवैध कब्जा कर रक्खा है और अन्योंके लिये बंद करके रक्खा है यह एक गंभीर अपराध है. दिल्लीकी सरकार जो इसके उपर मौन है यह बात उसकी विफलता है या तो वह समज़ती है कि उसके लिये लाभदायक है. यह पूरी घटना जनतंत्रकी हत्या है.

(८) सी.ए.ए., एन.सी.आर. और एन.पी.आर. इन तीनोंका जनतंत्रमें होना स्वाभाविक है इस मुद्दे पर तो हमने पार्ट-१ में देखा ही है. वास्तवमें प्रदर्शनकारीयोंका कहेना यही निकलता है कि जो मुस्लिम घुसपैठी है उनको खूला समर्थन दो और उनको भी खूली नागरिकता दो. यानी कि, पडौशी देश जो अपने संविधानसे मुस्लिम देश है, और अपने यहां बसे अल्पसंख्यकोंको धर्मके आधार पर प्रताडित करते है और उनकी सुरक्षा नहेरु-लियाकत करार होते हुए भी नहीं करते है और उनको भगा देते है. यदि पडौशी देशद्वारा भगाये गये इन बिन-मुस्लिमोंको भारतकी सरकार नागरिकत्त्व दे तो यह बात हम भारतीय मुस्लिमोंको ग्राह्य नहीं है.

मतलब कि भारत सरकारको यह महेच्छा रखनी नहीं चाहिये कि पाकिस्तान, नहेरु-लियाकत अली करारनामा का पाकिस्तानमें पालन करें.

हाँ एक बात अवश्य जरुरी है कि भारतको तो इस करारनामाका पालन मुस्लिम हितोंके कारण करना ही चाहिये. क्यों कि भारत तो धर्म निरपेक्ष है.

“हो सकता है हमारे पडौशी देशने हमसे करार किया हो कि, वह वहांके अल्पसंख्यकोंके हित और अधिकारोंकी रक्षा करेगा, चाहे वह स्वयं इस्लामिक देश ही क्यों न हो. लेकिन यदि हमारे पडौशी देशने इस करारका पालन नहीं किया. तो क्या हुआ? इस्लामका तो आदेश ही है कि दुश्मनको दगा देना मुसलमानोंका कर्तव्य है.

“यदि भारत सरकार कहेती है कि भारत तो ‘नहेरु-लियाकत अली करार’ जो कि उसकी आत्मा है उसका आदर करते है. इसी लिये हमने सी.ए.ए. बनाया है. लेकिन हम मुस्लिम, और हमारे कई सारे समर्थक मानते है कि ये सब बकवास है.

“कोई भी “करार” (एग्रीमेन्ट) का आदर करना या तो कोई भी न्यायालयके आदेशका पालन करना है तो सर्व प्रथम भारत सरकार को यह देख लेना चाहिये कि इस कानूनसे हमारे पडौशी देशके हमारे मुस्लिम बंधुओंकी ईच्छासे यह विपरित तो नहीं है न ! यदि हमारे पडौशी देशके हमारे मुस्लिम बंधुओंको भारतमें घुसनेके लिये और फिर भारतकी नागरिकता पानेके लिये अन्य प्रावधानोंके अनुसार प्रक्रिया करनी पडती है तो ये तो सरासर अन्याय है.

“हमारे पडौशी देश, यदि अपने संविधानके  विपरित या तो करारके विपरित आचार करें तो भारत भी उन प्रावधानोंका पालन न करें, ऐसा नहीं होना चाहिये. चाहे हमारे उन मुस्लिम पडौशी देशोंके मुस्लिमोंकी ईच्छा भारतको नुकशान करनेवाली हो तो भी हमारी सरकारको पडौशी देशके मुस्लिमोंका खयाल रखना चाहिये.

“भारत सरकारने, जम्मु – कश्मिर राज्यमें  कश्मिरी हिन्दुओंको जो लोकशाही्के आधार पर नागरिक अधिकार दिया. यह सरासर हम मुस्लिमों पर अन्याय है. आपको कश्मिरी हिन्दुओंसे क्या मतलब है?

“हमारा पडौशी देश यदि अपने देशमें धर्मके आधार पर कुछ भी करता है तो वह तो हमारे मुल्लाओंका आदेश है. मुल्ला है तो इस्लाम है. मतलब कि यह तो इस्लामका ही आदेश है.

भारतने पाकिस्तान से आये धर्मके आधार पर पीडित बीन मुस्लिमोंको नागरिक  अधिकार दिया उससे हम मुस्लिम खुश नहीं. क्यों कि भारत सरकारने हमारे पडौशी मुस्लिम देशके मुस्लिमोंको तो नागरिक अधिकार नहीं दिया है. भारत सरकारने  लोकशाहीका खून किया है. हम हमारे पडौशी देशके मुस्लिमोंको भारतकी नागरिकता दिलानेके लिये अपनी जान तक कुरबान कर देंगे. “अभी अभी ही आपने देखा है कि हमने एक शिशुका बलिदान दे दिया है. हम बलिदान देनेमें पीछे नहीं हठेंगे. हमारे धर्मका आदेश है कि इस्लामके लिये जान कुरबान कर देनेसे जन्नत मिलता है. “हम तो मृत्युके बादकी जिंदगीमें विश्वास रखते है. हमें वहा सोलह सोलह हम उम्रकी  हुरें (परीयाँ) मिलेगी. वाह क्या मज़ा आयेगा उस वख्त! अल्लाह बडा कदरदान है.

“अय… बीजेपी वालों और अय … बीजेपीके समर्थकों, अब भी वख्त है. तुम सुधर जाओ. अल्लाह बडा दयावान है. तुम नेक बनो. और हमारी बात सूनो. नहीं तो अल्लाह तुम्हे बक्षेगा नहीं.

“अय!  बीजेपीवालो और अय … बीजेपीके समर्थकों, हमें मालुम है कि तुम सुधरने वाले नहीं है. अल्लाह का यह सब खेल है. वह जिनको दंडित करना चाहता है उनको वह गुमराह करता है. “लेकिन फिर भी हम तुम्हें आगाह करना चाहते है कि तुम सुधर जाओ. ता कि, जब कयामतके दिन अल्लाह हमें पूछे कि अय इमान वाले, तुम भी तो वहां थे … तुमने क्या किया …? क्या तुम्हारा भी कुछ फर्ज था … वह फर्ज़ तुमने मेहसुस नहीं किया… ?

“तब हम भारतके मुस्लिम बडे गर्वसे अल्लाह को कहेंगे अय परवरदिगार, हमने तो अपना फर्ज खूब निभाया था. हमने तो कई बार उनको आगाह किया था कि अब भी वखत है सुधर जाओ … लेकिन क्या करें …

“अय खुदा … तुम हमारा इम्तिहान मत लो.  जब तुमने ही उनको गुमराह करना ठान लिया था… तो तुमसे बढ कर तो हम कैसे हो सकते? या अल्लाह … हम पर रहम कर … हम कुरबानीसे पीछे नहीं हठे. और अय खुदा … हमने तो केवल आपको खुश करने के लिये कश्मिर और अन्यत्र भी इन हिन्दुओंकी कैसी कत्लेआम की थी और आतंक फैलाके उनको उनके ही मुल्कमें बेघर किया था और उनकी औरतोंकी आबरु निलाम की थी … तुमसे कुछ भी छीपा नहीं है…

“ … अय खुदा ! ये सब बातें तो तुम्हें मालुम ही है. ये कोंगी लोगोंने अपने शासनके वख्त कई अपहरणोंका नाटक करके हमारे कई जेहादीयोंको रिहा करवाया था. यही कोंगीयोंने, हिन्दुओंके उपर, हमारा खौफ कायम रखनेके लिये, निर्वासित हिन्दुओंका पुनर्‌वास नहीं किया था. अय खुदा उनको भी तुम खुश रख. वैसे तो उन्होंने कुछ कुरबानियां तो नहीं दी है [सिर्फ लूटमार ही किया है], लेकिन उन्होंने हमे बहूत मदद की है.

“अय खुदा … तुम उनको १६ हुरें तो नहीं दे सकता लेकिन कमसे कम ८ हुरें तो दे ही सकता है. गुस्ताखी माफ. अय खुदा मुज़से गलती हो गई, हमने तो गलतीमें ही कह दिया कि तुम इन कोंगीयोंको १६ हुरे नहीं दे सकता. तुम तो सर्व शक्तिमान हो… तुम्हारे लिये कुछ भी अशक्य नहीं. हमें माफ कर दें. हमने तो सिर्फ हमसे ज्यादा हुरें इन कोंगीयोंको न मिले इस लिये ही तुम्हारा ध्यान खींचा था. ८ हुरोंसे इन कोंगीयोंको कम हुरें भी मत देना क्यों कि ४/५ हुरें तो उनके पास पृथ्वी पर भी थी. ४/५ हुरोंसे यदि उनको कम हुरें मिली तो उनका इस्लामके जन्नतसे विश्वास उठ जायेगा. ये कोंगी लोग बडे चालु है. अय खुदा, तुम्हे क्या कहेना! तुम तो सबकुछ जानते हो. अल्ला हु अकबर.

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

एक कोंगी नेताने मोदीको बडा घुसपैठी कहा. क्यों कि मोदी गुजरातसे दिल्ली आया. मतलब कि गुजरात भारत देशके बाहर है.

एक दुसरे कोंगी नेताने कहा कि मोदी तो गोडसे है. गोडसेने भी गांधीकी हत्या करनेसे पहेले उनको प्रणाम किया था. और मोदीने भी संविधानकी हत्या करनेसे पहेले संसदको प्रणाम किया था.

शिर्ष नेता सोनिया, रा.गा. और प्री.वा.  तो मोदी मौतका सौदागर है, मोदी चोर है इसका नारा ही लगाते और लगवाते है वह भी बच्चोंसे.

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कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता? (भाग-१)

कहीं भी, कुछ भी कहेनेकी सातत्यपूर्ण स्वतंत्रता? (भाग-१)

“स्वतंत्रता” शब्द पर अत्याचार

paise pe paisa

हमारा काम केवल प्रदर्शन करना है चर्चा नहीं

हमें चाहिये आज़ादी केवल प्रदर्शन के लिये 

कोंगी तो कोमवादी और उन्मादी (पागल) है. साम्यवादीयोंकी तो १९४२से ऐसी परिस्थिति है. किन्तु इन दोनोंमें भेद यह है कि साम्यवादी लोग तो १९४२के पहेलेसे उन्मादी है. उनके कोई सिद्धांत नहीं होते है. वे तो अपनी चूनावी कार्यप्रणालीमें प्रकट रुपसे कहेते है कि यदि आप सत्तामें नहीं है, तो  जनताको विभाजित करो, अराजकता पैदा करो, लोगोंमें  भ्रामक प्रचार द्वारा भ्रम फैलाओ, उनको असंजसमें डालो, और जनतंत्रके नाम पर जनतंत्रके संविधानके प्रावधानोंका भरपूर लाभ लो और तर्कको स्पर्ष तक मत करो. यदि आप सत्तामें है तो असंबद्ध और फर्जी मुद्दे उठाके जनतामें  अत्यधिक ट्रोल करो और  स्वयंने किये हुए निर्णय कितने महत्त्वके है वह जनताको दिखाके भ्रम फैलाओ. पारदर्शिता तो साम्यवादीयोंके लहुमें नहीं है. उनकी दुनियानें तो सब कुछ “नेशनल सीक्रेट” बन जाता है. समाचार माध्यमोंको तो साम्यवादी सरकार भेद और दंडसे अपने नियंत्रणमें रखती है. “भयादोहन (ब्लेक मेल)” करना और वह भी विवादास्पद बातोंको हवा देना आम बात है.

उन्नीसवी शताब्दीके उत्तरार्धमें और बीसवीं शातब्दीके पूर्वार्धमें युवावर्गमें “समाजवादी होना” फैशन था. युवा वर्गको अति आसानीसे पथभ्रष्ट किया जा सकता है. उनके शौक, आदतें बदली जा सकती है. उनको आसानीसे  प्रलोभित किया जा सकता है.

युवा वर्ग आसानीसे मोडा जा सकता है

आज आप देख रहे है कि सारी दुनियाके युवावर्गने दाढी रखना चालु कर दिया है. (वैसे तो नरेन्द्र मोदी भी दाढी रखते है. किन्तु वे तो ४० वर्ष पूर्वसे ही दाढी रखते है). बीस सालसे नरेन्द्र मोदी प्रख्यात है. किन्तु युवावर्गने दाढी रखनेकी फैशन तो दो वर्षसे चालु की है. और दाढीकी फैशन महामारीसे भी अधिक त्वरासे  फैल गयी है. सारे विश्वके युवा वर्ग दाढीकी फैशनके दास बन गये है. यही बात प्रदर्शित करती है कि युवा वर्ग कितनी त्वरासे फैशनका दासत्व स्विकार कर लेता है.

उसको लगता है कि वे यदि फैशनकी दासताका स्विकार नहीं करेगा तो वह अस्विकृतिके संकटमें पड जाएगा. ऐसी मानसिकताको “क्राईसीस ऑफ आडेन्टीफीकेशन” कहा जाता है.

छोडो यह बात. इनकी चर्चा हम किसी और समय करेंगे.

हमारे नहेरुजी भी समाजवाद (साम्यवाद)के समर्थक थे और साम्यवादीयोंके भक्त थे.

नहेरु न तो महात्मा गांधीके सर्वोदय-वादको समज़ पानेमें सक्षम थे न तो वे अपना समाजवाद महात्मा गांधीको समज़ानेके लिये सक्षम थे. गांधीजीने स्वयं इस विषयमें कहा था कि उनको जवाहरका समाजवाद समज़में नहीं आता है. नहेरु वास्तवमें अनिर्णायकता के कैदी  थे. जब प्रज्ञा सक्षम नहीं होती है, स्वार्थ अधिक होता है तो व्यक्ति तर्कसे दूर रहेता है. वह केवल अपना निराधार तारतम्य ही बताता है. नहेरु कोई निर्णय नहीं कर सकते थे क्यों कि उनकी विवेकशीलतासे कठोर समस्याको समज़ना उनके लिये प्राथमिकता नहीं थी. इस लिये वे पूर्वदर्शी नहीं थे. निर्णायकतासे अनेक समस्याएं उत्पन्न होती है. कोई भी एक समस्यामें जब प्रलंबित अनिर्णायकता रहती है तब उसको दूर करना असंभवसा बन जाता है.

नहेरुकी अनिर्णायक्तासे कितनी समस्या पैदा हूई?

कश्मिर, अनुच्छेद ३७०/३५ए को हंगामी के नाम पर संविधानमें असंविधानिक रीतिसे समावेश करना और फिर “हंगामी”शब्द को दूर भी नहीं करना और इसके विरुद्ध का काम भी नहीं करना, यह स्थिति नहेरुकी  घोर अनिर्णायकताका उदाहरण है. कश्मिरमें जनतंत्रको लागु करनेका काम ही नहीं करना, यह कैसी विडंबना थी? नहेरुने इस समस्याको सुलज़ाया ही नही.

अनुच्छेद ३७० कश्मिरको (जम्मु कश्मिर राज्यको) विशेष स्थिति देता है. किन्तु कश्मिरकी वह विशिष्ठ स्थिति क्या जनतंत्र के अनुरुप है?

नहीं जी. इस विशिष्ठ स्थिति जनतंत्रसे सर्वथा विपरित है. अनुछेद ३७० और ३५ए को मिलाके देखा जाय तो यह स्थिति जन तंत्रके मानवीय अधिकारोंका सातत्यपूर्वक हनन है. १९४४में ४४०००+ दलित  कुटुंबोको सफाई कामके लिये उत्तर-पश्चिम भारतसे बुलाया गया था. १९४७से पहेले तो कश्मिरमें जनतंत्र था ही नहीं. १९४७के बाद इस जत्थेको राज्यकी  नागरिकता न मिली. उतना ही नहीं उसकी पहेचान उसके धर्म और वर्णसे ही की जाने लगी. तात्पर्य यह है कि वे दलित (अछूत) ही माने जाने लगे. और उसका काम सिर्फ सफाई करनेका ही माना गया. क्यों कि वे हिन्दु थे. और तथा कथित हिन्दु प्रणालीके अनुसार उनका काम सिर्फ सफाई करना ही था. वैसे तो गांधीजीने इनका लगातार विरोध किया था और उनके पहेले कई संतोंने किसीको दलित नहीं माननेकी विचारधाराको पुरष्कृत किया था. ब्रीटीश इन्डियामें भी दलितको पूरे मानवीय अधिकार थे. लेकिन कश्मिरमें और वह भी स्वतंत्रत भारतके कश्मिरमें उनको जनतंत्रके संविधानके आधार पर दलित माने गये. यदि वह दलित कितना ही पढ ले और कोई भी डीग्री प्राप्त करले तो भी वह भारत और कश्मिरके जनतंत्रके संविधानके आधार पर वह दलित ही रहेगा, वह सफाईके अलावा कोई भी व्यवसायके लिये योग्य नहीं माना जाएगा. इन दलितोंकी संतान चाहे वह कश्मिरमें ही जन्मी क्यों न हो, उनको काश्मिरकी नागरिकतासे, जनतंत्रके संविधानके आधार पर ही सदाकालके लिये  वंचित ही रक्खा जायेगा.

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागको अन्यसे भीन्न समज़ सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागको वंशवादी पहेचान दे सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागके उपर उनकी जाति ठोप सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागके उपर केवल उन विभागके लिये ही भीन्न और अन्यायकारी प्रावधान रख सकता है?

क्या जनतंत्रका संविधान अपनी ही प्रजाके एक विभागके लोगोंको और उनकी संतानोंको मताधिकार से वंचित रख सकता है.

यदि आप जनतंत्रके समर्थक है और आप “तड और फड” (बेबाक और बिना डरे) बोलने वाले है  तो आप क्या कहेंगे?

क्या आप यह कहेंगे कि कश्मिरमें अनुच्छेद ३७०/३५ए हटानेसे कश्मिर में जनतंत्र पर आघात्‌ हुआ है?

यदि कोई विदेशी संस्था भी भारत द्वारा कश्मिरमें “अनुच्छेद ३७०/३५ए” की हटानेकी बातको “जनतंत्र पर आघात” मानती है तो आप उस विदेशी संस्थाके लिये क्या कहोगे?

चाहे आप व्याक्यार्ध (वृद्धावस्था)से पीडित हो, तो क्या हुआ? यदि आप युवावस्थाकी छटपटाहतसे लिप्त हो, तो क्या हुआ? जनतंत्रके सिद्धांत तो आपके लिये बदलनेवाले नहीं है.

यदि आप जनतंत्रवादी है, तो आप अवश्य कहेंगे कि भारतने जो अनुच्छेद ३७०/३५ए हटानेका काम किया है वह जनतंत्रकी सही भावनाको पुरष्कृत करता है और कश्मिरमें वास्तविक जनतंत्रकी स्थापना करता है. काश्मिरको गांधीजीके जनतंत्रके सिद्धांतोंसे  समीप ले जाता है. नहेरुकी प्रलंबित रक्खी समस्याका निःरसन करता है. भारतके जनतंत्र के उपर लगी कालिमाको दूर करता है. जो भी व्यक्ति जनतंत्रके ह्रार्दसे ज्ञात है, वह ऐसा ही कहेगा.

यदि वह इससे विपरित कहेता है, तो वह या तो अनपढ है, या तो उसका हेतु (एजन्डा) ही केवल स्वकेद्री राजकारण है या तो वह मूढ या घमंडी है. उसके लिये इनके अतिरिक्त कोई विशेषणीय विकल्प नहीं है.

दीर्घसूत्री विनश्यति (प्रलंबित अनिर्णायकता विनाश है)

लेकिन कुछ लोग पाकिस्तानकी भाषा बोलते है. इनमें समाचार माध्यम भी संमिलित है. कश्मिर समस्या के विषयमें यु.नो.को घसीटनेकी आवश्यकता नहीं. यु.नो.को जो करना था वह कर दिया. उस समय जो उसके कार्यक्षेत्रमें आता था वह कर दिया. युनोका तो पारित प्रस्ताव था कि, पाकिस्तान काश्मिरके देशी राज्यके अपने कब्जेवाला हिस्सा खाली करें और भारतके हवाले कर दें. उस हिस्सेमें कोई सेनाकी गतिविधि न करें … तब भारत उसमें जनमत संग्रह करें. पाकिस्तानने कुछ किया नहीं. नहेरुने पाकिस्तानके उपर दबाव भी डाला नहीं. भारत सरकारने भारत अधिकृत काश्मिरके साथ जो अन्य देशी राज्योंके साथ किया था वही किया. केवल पाकिस्तान अधिकृत कश्मिरका हिस्सा छूट गया. नहेरुने इस समस्याको अपनी आदतके अनुसार प्रलंबित  रक्खा. आज हो रहे “हल्ला गुल्ला” की जड, नहेरुकी दीर्घसूत्री कार्यशैली है.

पाकिस्तानका जन्मः

पाकिस्तान का जन्म बहुमत मुस्लिम क्षेत्रके आधार पर हुआ वह अर्ध-सत्य है. जो मुस्लिम मानते थे कि वे बहुमत हिन्दु धर्म वाली जनताके शासनमें अपने हित की रक्षा नहीं कर सकते, उनके लिये बहुमत मुस्लिम समुदायवाले क्षेत्रका पाकिस्तान बनाया जाय. इन क्षेत्रोंको भारतसे अलग किया. जो मुस्लिम लोग उपरोक्त मान्यतावाले थे, वे वहां यानी कि पाकिस्तान चले गये. जो ऐसा नहीं मानते थे, वे भारतमें रहे. पाकिस्तानमें रहेनेवाले बीन-मुस्लिमोंको भारत आने की छूट थी. १९५० तक देशकी सीमाको स्थानांतरके लिये खुला छोड दिया था.

पाकिस्तानमें बीन-मुस्लिम जनताका उत्पीडन १९४७ और १९५०के बाद भी चालु रहा. इसके अतिरिक्त भी कई समस्यायें थी. गांधीजीने कहा था कि हम किसीको भी अपना देश छोडनेके लिये बाध्य नहीं कर सकते. पाकिस्तानमें जो अल्पसंख्यक रह रहे है उनकी सुरक्षाका उत्तरदायित्व पाकिस्तानकी सरकारका है. यदि पाकिस्तान की सरकार विफल रही तो, भारत उसके उपर चढाई करेगा.

नहेरु – लियाकत अली करार नामा

इसके अनुसार १९५४में दोनो देशोंके बीच एक समज़ौताका दस्तावेज बना. जिनमें दोनों देशोंने अपने देशमें रह रहे अल्पसंख्यकोके हित की सुरक्षाके लिये प्रतिबद्धता जतायी. 

नहेरुने लियाकत अलीसे पाकिस्तानसे पाकिस्तानवासी हिन्दुओंकी सुरक्षाके लिये सहमति का (अनुबंध) करारनामा किया.

किन्तु तत्‌ पश्चात्‌ नहेरुने उस अनुबंधका पालन होता है या नहीं इस बातको उपेक्षित किया. पाकिस्तान द्वारा पालन न होने पर भी पाकिस्तानके उपर आगेकी कार्यवाही नहीं की, और न तो नहेरुने इसके उपर जाँच करनेकी कोई प्रणाली बनाई.

नहेरु-लियाकत अली करारनामा के अनुसंधानमें सी.ए.ए. की आवश्यकताको देखना, तर्क बद्ध है और अत्यंत आवश्यक भी है.

नहेरुने अपनी आदत के अनुसार पाकिस्तानसे प्रताडित हिन्दुओंकी सुरक्षाको सोचा तक नहीं. जैसे कि कश्मिर देशी राज्य पर पाकिस्तानके आक्रमणके विरुद्ध यु.नो. मे प्रस्ताव पास करवा दिया. बस अब सब कुछ हो गया. अब कुछ भी करना आवश्यक नहीं. वैसे ही लियाकत अलीसे साथ समज़ौताका करारनामा हो गया. तो समज़ लो समस्या सुलज़ गयी. अब कुछ करना धरना नहीं है.   

भारतदेश  इन्डो-चायना युद्धमें ९२००० चोरसमील भूमि हार गया. तो कर लो एक प्रतिज्ञा संसदके समक्ष. नहेरुने लेली एक प्रतिज्ञा कि जब तक हम खोई हुई भूमि वापस नहीं लेंगे तब तक चैनसे बैठेंगे नहीं. संसद समक्ष प्रतिज्ञा लेली, तो मानो भूमि भी वापस कर ली.

इन्दिरा घांडी भी नहेरुसे कम नहीं थी.

इन्दिराने भी १९७१के युद्ध के पूर्व आये  एक करोड बंग्लादेशी निर्वासितोंकों वापस भेजनेकी प्रतिज्ञा ली थी, इस प्रतिज्ञाके बाद इन्दिराने इस दिशामें कोई प्रयास किया नहीं. और इस कारण और भी घुसपैठ आते रहे. समस्याओंको  प्रलंबित करके समस्याओंको बडा और गंभीर होने दिया. यहाँ तककी उसके बेटे राजिवने १९८४में एक संविदा पर प्रतिज्ञा ली के देश इन घुसपैठीयोंको कैसे सुनिश्चित करेगा. पर इसके उपर कुछ भी कार्यवाही न की. १९८९-९०में कश्मिरमें कश्मिरस्थ मुस्लिमों द्वारा, हजारों हिन्दुओंका संहार होने दिया, हजारों हिन्दु  स्त्रीयोंका शील भंग होने दिया,  लाखों हिन्दुओं को खूल्ले आम, कहा गया कि इस्लाम अंगीकार करो या मौतके लिये तयार रहो या घर छोड कर भाग जाओ. इस प्रकार उनको बेघर कर होने दिया. इसके उपर न तो जांच बैठाई, न तो किसीको गिरफ्तार किया, न तो किसीको कारावासमें भेजा.

इतने प्रताडनके बाद भी किसी भी हिन्दुने हथियार नहीं उठाया, न तो एक अरब हिन्दुओंमेंसे कोई आतंक वादी बना.

तो कोंगीयोंने क्या किया?

कोंगीयोंने इस बात पर मुस्लिमोंकी आतंक वादी घटनाओंको “हिन्दु आतंकवाद” की पहेचान देनेकी भरपुर कोशिस की. जूठ बोलनेकी भी सीमा होती है. किन्तु साम्यवादीयोंके लिये और उन्ही के संस्कारवाले कोंगीयोंके लिये जूठकी कोई सीमा नहीं होती.

सी.ए.ए. के विरोधमें आंदोलनः

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

अनुसंधान (गुजराती लेख)

https://treenetram.wordpress.com/2017/02/05/સુજ્ઞ-લોકોની-કાશ્મિર-વિષ/

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एक गठबंधन नहेरुवीयन कोंग्रेसके विरुद्ध  और एक गठबंधन बीजेपीके विरुद्ध

केन्द्रीय स्तर पर गठ बंधन सर्व प्रथम १९७१में हुआ.

१९६७के  पहेले मोरारजी देसाई के पास कोई पद नहीं था. लाल बहादुर शास्त्रीके अवसानके बाद लोकसभाके नेताका चूनाव हूआ. मोरारजी देसाईकेे पास  कोई मंत्रालय नहीं था.  उन्होने प्रधानमंत्रीके प्रत्याषी के लिये आवेदन दिया और वे १६९ मत ले आये. इससे केन्द्रीय कारोबारी चकित हो गयी. केन्द्रीय कारोबारी तो उनको अधिकसे अधिक ६९ मत मिलेंगे ऐसा मानती थी. उस समय कोंग्रेस संसदमें एक विराट पक्ष था. १९६७के चूनावमें कोंग्रेस संसदमें काफि कमजोर हो गई थी. मोरारजी देसाई एक सशक्त नेता थे. तो उनको मंत्री बनाना जरुरी था.

१९६७ के चूनावके बाद  विपक्ष का गठबंधनका विचार सर्व प्रथम डॉ. राममनोहर लोहियाको आया था. उन्होनें कहा कि (नहेरुवीयन) कोंग्रेस तब तक राज करकर सकती है जब तक विपक्ष चाहे. इसका अर्थ यह था कि विपक्ष यदि चाहे तो एक जूट होकर कोंग्रेसको हरा सकता है. क्यों कि, कोंग्रेसको ४२% के अंदर मत मिले थे. और जो गठबंधन कर सके ऐसे पक्ष और वैसे ही कुछ अपक्ष मिल जाय तो (साम्यवादी पक्षोंको छोड कर भी) विपक्षको ४२% से अधिक मत मिल सकते है. विपक्ष एकजूट न होनेके कारण कोंग्रेसको बहुमत मिलता है. १९६७के चूनावमें विरोध पक्ष विभक्त होने के कारण और ४२%से कम प्रतिशत मत मिलने पर भी  कोंग्रेस बहुमत सीटें २८३   प्राप्त कर ली थी. वैसे ये संख्या  बहुमतसे थोडी ही अधिक थी. विपक्षको २३७ सीटें मिली थी जिसमें जिसमेंसे साम्यवादीयोंकी ४२ सीटें को यदि छोड दें तो १९५ सीटें बनती थी.

जब १९६९में नहेरुवीयन कोंग्रेसका विभाजन हुआ तो कोंग्रेस (ओ) की ६५ सीटें विपक्षमें आ गई. और नहेरुवीयन कोंग्रेसकी सीटें २८३-६५=२१८ हो गई.  लेकिन इन्दिरा गांधीने साम्यवादी पक्षोंका, कुछ पीएसपी के संसद सदस्योंका, अकालीदल, डीएमके, रिपब्लीकन, अपक्ष आदि पक्काषोंके सदस्योंका सहारा लेके बहुमत जारी रक्खा. लेकिन यह गठबंधन अधिक चलनेवाला नहीं था. इसलिये १९७१में चूनाव घोषित किया. लेकिन ये दो वर्षके अंतरर्गत कोंग्रेस(ओ)मेंसे आधे लोग इन्दिराके गुटमें आगये थे.

ग्रान्ड एलायन्स

१९७१के चूनावमें विपक्षका गठबंधन हुआ, जिसको अखबार वालोंने ग्रान्ड एलायन्स नाम दिया. इसमें कोंग्रेस (ओ), जनसंघ, स्वतंत्र पक्ष, पीएसपी, संयुक्त समाजवादी पक्ष समाविष्ट थे. ये लोग छोटे छोटे कई पक्षोंको गठबंधनमें सामील होनेको मना नहीं सकें.

इस चूनावमें सबसे महत्त्वकी भूमिका अखबारवालोंने निभायी. जो लगातार बेंकोका राष्ट्रीय करण, महाराजाओंके प्रीवीपर्सकी नाबुदीको और पक्षमें सीन्डीकेटके वर्चस्वको इन्दिरा गांधीने कैसे नष्ट किया और अपने प्रत्याषीको राष्ट्रप्रमुखके चूनावमें कैसे सिफत पूर्वक हराया  … इन सब बातोंकोआवश्यकतासे कहीं अधिक ही प्रसिद्धि दे रहे थे. वैसे तो कोंग्रेसके प्रत्याषीके विरुद्ध प्रचार करनेमें इन्दिराके ईशारे पर कई सारी बिभत्स बातों वाले पेम्फ्लेट बांटे गये थे, उसका विवरण हम अभी नहीं करेंगे.  थोडा जातिवाद भी था. 

इनबातोंको छोड देवें और १९७१के गठबंधन की बात करें तो मीडीया प्रचारके कारण इन्दिरा कोंग्रेसकी जीत हुई.

इन सबको मिलाके इन्दिरा गांधीकी कोंग्रेसको ४४ % मत मिले.

गठबंधनको २४% मत मिले.  और गठबंधनके सभी पक्षोंकी सीटें कम हो गई. बडा लाभ इन्दिरा कोंग्रेसको हुआ और कुछ फायदा छोटे छोटे पक्षोंको हुआ.

इन्दिरा कोंग्रेसको  ३५२ सीटें मिलीं

गठबंधनको ५१ सीटें मिलीं

साम्यवादीयोंको ४८   सीटें मिलीं

(साम्यवादीयोंने जहां पर खुदका प्रत्याशी नहीं था वहा पर इन्दिरा कोंग्रेसका समर्थन किया था)

छोटे छोटे प्रादेशिक पक्ष और अपक्षोंको ६७  सीटें मिलीं.

विपक्षकी हारका कारण क्या था?

(१) क्या विपक्ष लोकप्रिय नहीं था?

विपक्ष अतिलोकप्रिय था. उनके प्रवचनको लोग आदर पूर्वक सूनते थे.

(२) क्या विपक्षमें उच्च कोटीके नेता नहीं थे?

विपक्षके नेता अत्यंत उच्च कोटीके थे. स्वातंत्र्य संग्राम में उनका बडा योगदान रहा था. उनकी अपेक्षामें इन्दिरा गांधीका योगदान, न के बराबर था. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, कामराज, कमलापती त्रीपाठी, मोरारजी देसाई, मनुभाई शाह, अतुल्य घोष, पटनायक, एच.एम.पटेल, सादोबा पाटिल, मधु दन्डवते, जोर्ज फर्नन्डीस, मधु लिमये, दांडॅकर आदि कई बडे नाम वाले विपक्षी नेता थे.

(३) क्या विपक्ष स्वकेद्री था?

कोई भी विपक्षी नेता किसी भी प्रकारसे स्वकेन्द्री नहीं थे.

(४) क्या विपक्ष सत्ताका लालची था?

मोरारजी देसाईको और सीन्डीकेटके नेताओं पर इन्दिरा कोंग्रेसवाले ऐसा आरोप लगाते थे. लेकिन उन्होंने कभी गैरकानूनी तरीके अपनाये नहीं थे. संयुक्त कोंग्रेसके समयमें केन्द्रस्थ कारोबारी बहुमतसे निर्णय लेती थीं. यह प्रणाली कोंग्रेसके संविधान और जनतंत्रके अनुरुप थी.

अन्य नेताओंके बारेमें यदि कुछ कहें तो सत्ता तो उनको  कभी मिली ही नहीं थी. और उनका ऐसा कोई व्यवहार नहीं था कि उनके उपर ऐसा अरोप लग सके.

(५) क्या विपक्ष वंशवादी था?

स्वातंत्र्य संग्रामके नेतागण इस समय विद्यमान थे. इसलिये ऐसा कोई प्रश्न ही नहीं उठता था.

(६) क्या विपक्षने गैर कानूनी तरीके अपनाये थे?

विपक्ष संपूर्ण रीतसे कानूनका आदर करता था. वास्तवमें ऐसे आरोप तो इन्दिराके उपर और उसकी कोंग्रेसके नेता पर लग रहे थे.

(७) क्या विपक्षके नेताओंकी भूतकालकी कार्यवाही कलंकित थी?

विपक्षके नेताओंका भूतकाल उज्वल था. और सब लोगोंने एक या दुसरे समयमें गांधीजीके साथ काम किया था और अन्य विपक्षी नेता आई.सी.एस. अफसर रह चूके थे.

(८) क्या विपक्षके नेताओंका समाजके प्रति कोई योगदान नहीं था?

आम जनताके हितमें और देशके हितमें वे सब संसदमें सक्रीय रहेते थे. जो लोग अविभक्त कोंग्रेसमें थे उनका अपने विभागके प्रति अच्छा योगदान रहा था. यदि खराब और विवादास्पद रहा हो तो वह नहेरुका खुदके मंत्रालयका कार्य और उनके मित्र वी.के. मेननके संरक्षण मंत्रालयका काम कमजोर रहा था जिनकी विदेश नीति और संरक्षण नीतिके कारण  आज भी भारतको भूगतना पड रहा है.

तो फिर इन्दिरा गांधी जीती कैसे?

(१) जब अविभक्त कोंग्रेसका विभाजन हुआ तो जो कोंग्रेसके जो संगठन कार्यालय थे उनके अधिकतर कर्मचारी और अन्य नेता इन्दिरा गांधीके समर्थनमें रहे.

इसमें अपवाद था   गुजरात. क्यों कि गुजरातमें मोरारजी देसाई का संगठन सक्षम रहा था. अन्य सब जगह जो क्षेत्रीय नेतागण थे वे कोंग्रेसके नामपर ही चूनाव जीतते थे.

(२) देशके युवा वर्गने  कभी ऐसा उच्चस्तरीय सियासती विखवाद देखा ही नहीं था.

(३) इन्दिरा गांधीका कहेना था कि मेरे पिता तो देशके लिये बहूत कुछ करना चाहते थे लेकिन ये बुढे लोग उनको करने नहीं देते थे. वैसे तो किसी समाचार माध्यमने या तो विवेचकोंने इसका विवरण इन्दिरा गांधीसे पूछने योग्य समज़ा नहीं. और समाचार माध्यम भी संरक्षणकी क्षतियोंको भी कोंग्रेस(ओ)की क्षति मानता था और मनवाता था क्यों कि केन्द्रीय  मंत्रीमंडलका निर्णय सामुहिक होता है.

(४) अविभक्त कोंग्रेसको जो आर्थिक दान मिलता था वह प्रान्तीय (राज्यका) सर्वोच्च नेता द्वारा संचित होता था और उसका वहीवट भी प्रान्तका सर्वोच्च नेता ही करता था. लेकिन इन्दिरा गांधीने उस दान और वहीवटको अपने हाथमें ले लिया.

(५) बेंकोंका जो राष्ट्रीयकरण हुआ तो इससे इन्दिरा कोंग्रेसके स्थानिक और कनिष्ठ नेताओंकी सिफारिस पर निम्नस्तरके लोगोंको ऋण मिलना चालु हो गया, और उसमें भी स्थानिक कनिष्ठ नेता अपना कमीशन रखके करजदारको कहेता था कि यह कर्ज परत करना आवश्यक नहीं है. और इस प्रकार शासक पक्षका बेंकोंके वहीवटमें हस्तक्षेप बढ गया और बढता ही गया. और यह बात एक प्रणाली बन गया. जो अभी अभी जनता बेंकोके  एन.पी.ए.के विषयमें जो कौभाण्ड के किस्से से अवगत हो रही है, उनके बीज और उनकी जडें १९६८में शुरु होई. फर्जी नामवाला सीलसीला भी चालु हो गया था.

(६) नहेरुने आम जनताको शिक्षित बनानेमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं ली थी. इसलिये आम जनता, ईन्दिरा-प्रवाहमें आ जाती थी.  

(७) इन्दिरा गांधी सत्ता पर थी और उस समय सरकारी अफसर गवर्नमेंटको कमीटेड रहेते थे क्यों कि नेताओमें और खास करके उच्च स्तरके नेताओमें भ्रष्टाचार व्यापक रुपसे नहीं था.   

(८) इस इन्दिरा-प्रवाहको  प्रवाह किसने बनाया?  राष्ट्रप्रमुखके चूनावमें अविभक्त कोंग्रेसके सूचित प्रत्याषी संजीव रेड्डीके विरुद्ध इन्दिराके सूचित प्रत्याषी वीवी गिरीके विजयकी भारतके विद्वानोंने और विवेचकोंने, प्रशंसा की थी इस कारणसे जनताको इन्दिरा गांधी सही लगी. कुछ लोग अन्यमनस्क भी हो गये.

परिणाम स्वरुप क्या हुआ? विधिकी वक्रता

सबकुछ मिलाके इन्दिरा गांधीके पक्षकी विजय हुई.

सीन्डीकेटकी हार हुई. कोंग्रेस (ओ) की सिर्फ मोरारजी देसाईके गुजरातमें जित हुई वह भी सीमित जीत हुई. अन्य पक्ष भी सिकुडकर रह गये.

अपने पक्षके प्रत्याषीको मत न दे के, अन्य पक्षके प्रत्याषीको मत देना दिलवाना, अपने स्वार्थको ही देखना, पक्षांतर करना “आया राम गया राम”, पैसोंकी हेराफेरी करना, हवामें बात करना, जूठे आरोप लगाना, अफवाहें फैलाना, कुछ भी बोल देना और अंतमें “जो जीता वह सिकंदर” … ऐसी अनीतियोंको  विद्वानोंने और विवेचकोंने स्विकृति दी और प्रमाणित भी कर दी. यह एक विधिकी वक्रता थी.

बीना कोई सबूत अपने पिताके सहयोगीयों पर बे बुनियाद आरोप लगाना, पूर्व पाकिस्तानसे आये हिन्दीभाषी मुस्लिमोंको वापस भेजनेकी समस्याको निलंबित करना, राजकीय मूल्योंकी अवमानना करना, भ्रष्टाचारको निम्नस्तरके लोगों तक प्रसारित करना, व्हाईट कोलर मज़दुर संगठनोंको सीमासे बाहर का महत्व देना, कर्मचारीयोंमे अनुशासन को खत्म करना … यह सब परिबळोंका विकास होना शुरु हो गया था. इन्दिराको, नहेरुके साथ रहेनेसे एक  कोट भेंट मिला था. उस मींक कॉटको सरकारमें जमा करवाने के बदले इन्दिरा गांधीने अपने कब्जेमें रख लिया था, यह बात आचार संहिताके विरुद्ध थी,  लेकिन ये सब इन्दिरा गांधीके ऋणात्म कार्यों को (अल्पदृष्टा) विद्वानोंने और समाचार माध्यमोंने अनदेखा किया.

इन्दिरा गांधीका एक ही सूत्र था कि गरीबी हटाओ.

क्रमशः

शिरीष मोहनलाल दवे

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भारतकी विभाजनवादी शक्तिओंको पराजित करनेके लिये बीजेपीकी व्युह रचना

भारतकी विभाजनवादी शक्तिओंको पराजित करनेके लिये बीजेपीकी व्युह रचना

व्युह रचना हमारे उद्देश्य पर निर्भर है.

हमारा उद्देश्य नरेन्द्र मोदी/बीजेपी को निरपेक्ष बहुमतसे जीताना है. इसका अर्थ यह भी है कि हमे विभाजनवादी पक्षोंको पराजित करना है.

हम शर्मिन्दा है

 विभाजनवादी शक्तियां …….. सीक्केकी एक बाजु

भारतमाता, हम शर्मिंदा है ….,  तेरे द्रोही जिन्दा है

हमारी समस्याएं क्या है?

() समाचार माध्यम समस्या है. क्यों कि अधिकतर समाचार माध्यम विभाजनवादी शक्तियोंके पास है. इसलिये विपक्ष के नेताओंके सुनिश्चित उच्चारणोंको अधिकाधिक प्रसिद्धि मिलती है. और बीजेपीके नेताओंकी एवं बीजेपीके समर्थक नेताओंके उच्चारणोंको विकृत करके प्रसारित किया जाता है या तो कम प्रसिद्धि मिलती है या तो प्रसिद्धि ही नहीं मिलती है.

() समस्याओंकी प्राथमिकता

() मुद्दोंका चयन और उनकी संदर्भकी आवश्यकता

() विपक्षकी व्युहरचनाको समज़नेकी या तो उसका विश्लेषण करनेकी अक्षमता.

() विपक्ष पर प्रहार करनेकी बौद्धिक अक्षमता

() अपने ही मतदाताओंको बांटने पर सक्रीय रहेना और अपने ही नेताओंकी आलोचना करना, चाहे विपक्षकी ही क्षति या  उनका ही फरेब क्यूँ न हो,

() सोसीयल मीडीयाकी शक्तिका भरपूर उपयोग करना

() अधिकतर समाचार माध्यम चाहे विपक्षके पास हो, फिर भी हम उसके उपर आक्रमण करके हमारे हस्तगत समाचार माध्यमोंसे मुकाबला कर सकते है. उतना ही नहीं हम विपक्षके समाचार माध्यमोंमें भी प्रतिक्रियाएं दे कर कुछ प्रतिकार तो कर ही सकते हैं. सोसीयल मीडीया भी एक सशक्त शस्त्र है, हम उसका भरपुर उपयोग कर सकते है.

() भारतीय मतदाता, अशिक्षण, सुशिक्षण का अभाव और गरीबीके कारण, धर्म, जाति, विस्तार, भाषा के आधार पर विभाजित है. वास्तवमें, इसके मूलमें नहेरुवीयन कोंग्रेसका लंबा कुशासन और उसके नेताओंकी स्वकेन्द्री वृत्ति और आचार है.

विकास

नरेन्द्र मोदी/बीजेपीने विकासको प्राथमिकता दी है. वह सही है.

विकास हर क्षेत्रमें होना है. इस लिये विकासमें शिक्षणका विकास भी निहित है. प्राकृतिक स्रोतों और मानवीय स्रोतोंका और शिक्षाके समन्वयसे विकास हो ही रहा है. और इस विकासको जनताके समक्ष लाना है और यह काम बीजेपी के प्रचारक कर ही रहे है. राष्ट्रवादीयोंको भी इसमें अपना योगदान देना चाहिये.

प्राचीन इतिहास

दुसरा मुद्दा है इतिहास. इस इतिहासको जो पढाया है उसको विस्मृत करना. खास करके प्राचीन कालका इतिहास. इस इतिहासने भारतको उत्तर और दक्षिणमें विभाजित किया है. यह काम अति कठिन है क्योंकी कई विद्वान लोग इसमें स्थित विरोधाभाष होते होए भी उसको छोडनेमें संकोच रखते है और छोडना नहीं चाहते. और जो विभाजन वादी लोग है वे लोग सच्चा इतिहास पढाने के प्रचारको धर्मके साथ जोड देतें हैं. “इतिहासका भगवाकरणऐसा प्रचार करते है.

मध्ययुगी इतिहासः

जातिवादः

जातिवादकी समस्याका मूल मध्ययुगी इतिहास में है. जातिवाद इस समय में जड बना. किन्तु इसी समयमें कई सवर्ण जातिके लोगोंने जातिवादका विरोध किया उसका इतिहास साक्षी है. इन लोगोंके बारेमें दलितोंको विस्तारसे समज़ाना चाहिये. सोसीयल मीडीया पर भी जिन्होंने जातिवादका विरोध किया उनका सक्षमताके साथ विस्तारसे वर्णन करना चाहिये.

इस्लाम

इसमें भी कई बातें है. किन्तु अधिकतर बातें विवादास्पद है. इसको केवल इतिहासकारों पर ही छोड दो. इसमें खास करके हिन्दु, मुस्लिम के बीचकी बाते है. इन बातोंको इस समय चर्चा करना घातक है.

अर्वाचीन इतिहास

ईसाई धर्मप्रचार की कई हिंसात्मक बातें गुह्य रक्खी गई है. इन बातोंको अकटूता पूर्वक उजागर करना चाहिये.

() विभाजनवादी परिबलमें कौन कौन आते हैं?

OTHER SIDE OF THECOIN

                       सीक्केकी दुसरी बाजु

सभी विपक्षी दल और कोमवादी दल विभाजन वादी ही हैं. वैसे तो विपक्षी दल पूरा कोमवादी है. लेकिन इस जगह पर हम कोमवादी दल उसको ही कहेते हैं जिनमें उस कोमके सिवा अन्य धार्मिक व्यक्तिका प्रवेश निषेध है.  इन सबका चरित्र और संस्कार समान होनेके कारण नहेरुवीयन कोंग्रेस पर किया हुआ प्रहार सबको लागु पडेगा.

सबसे प्रथम है नहेरुवीयन कोंग्रेस. नहेरुवीयन कोंग्रेसको कमजोर करनेवाला सबसे ज्यादा सशक्त मुद्दे क्या है?

देशके लिये विघातक और विभाजनवादी नीति, आतंकवादका समर्थन, वंशवाद, जनतंत्रका हनन, तानाशाही, प्रतिशोधवाली मानसिकता और आचरण, अतिविलंबकारी विकास, यथावत गरीबी, अशिक्षास्वकेन्द्री मानसिकता, ६५ वर्ष लंबा शासन, भ्रष्टाचार, अफवाहें फैलाना और चारित्र हनन करना. इन सभी मुद्दोंको आप उजाकर कर सकते है.

जब भी कोई मुद्दा ये विभाजनवादी एवं कोमवादी घुमाते हुए प्रसारित करते है, उसीके उपर आपको कडा प्रहार करना है. अन्यथा भी हमें कोई मुद्देको उठाके उनके उपर सशक्त प्रहार करना है.

 () विपक्षकी व्युह रचना क्या है?

विपक्षकी व्युह रचनामें लघुमतियोंकी वोट बैंक बनाना है. वोट बेंकका मतलब यह है कि जिस वर्गमें अधिकतर लोग अशिक्षित (समास्याको नहीं समज़ सकनेवाले), अनपढ, गरीब और अल्पबुद्धि है उनको गुमराह करना. यह काम उसी वर्गके स्वकेन्द्री और भ्रष्टनेताओंको ये लोग पथभ्रष्ट करके उनके द्वारा करवाते है. और ये नेता अन्यवर्गके बारेमें धिक्कार फैलाते है.

अभी एक आदमी सोसीयल मीडीया पर बोलता हुआ ट्रोल हुआ है किःयदि आपके विस्तारमें कोई भी ब्राह्मण, क्षत्रीय या वैश्य खडा हो तो उसके सामने जो एक दलित खडा है, वह चाहे कैसा भी हो, तो भी उसको ही वोट दो. हमे इसमें दुसरा कुछ भी सोचना नहीं है. इन सवर्णोंने हम पर बहुत अत्याचार किया है हमे बरबाद कर दिया है.” मायावती क्या कहेती है? “तिलक तराजु और तल्वार, इनको मारो जूते चार”. नहेरुवीयन कोंग्रेसकी भाषा भी ऐसा ही संदेश देनेवाली भाषा है. शब्द प्रयोग भीन्न है.

यदि मायावतीकी बात सवर्ण सूनेगा तो उसके मनमें दलितोंके प्रति धिक्कार पैदा होगा. इस कारण यदि कोई दलित जो बीजेपीके पक्षमें खडा है तो वह सवर्ण व्यक्ति मतदानसे अलग रहेगा. लेकिन हमे बीजेपी के ऐसे सवर्ण मतदाताओंको चाहे बीजेपीका प्रत्याषी दलित हो तो भी मतदानके लिये उत्साहित करना है.

हमें दलितोंको अवगत कराना है किभूतकालमें यदि कभी दलितोंके उपर अत्याचार किया गया था तो वे अत्याचार करनेवाले तो मर भी गये. और वे तो आप नहीं थे. अभी ऐसी भूतकालकी बातोंसे क्यों चिपके रहेना?

हम तो सब जानते है कि दलितोंका उद्धार करनेकी बातोंका प्रारंभ तो सवर्णोंने ही किया है. बाबा साहेब आंबेडकरको पढाने वाले और विदेश भेजने वाले भी वडोदराके महाराजा ही थे. सब सवर्णोंने ही तो बाबा साहेब आंबेडकरसे अधिकृत किया हुआ हमारा संविधान मान्य रक्खा है. संविधानके अंतर्गत तो कोई भेद नहीं हैयद्यपि यदि अभी भी दलितके उपर अत्याचार होते है तो वहां राज्य की सरकारका उत्तरदायित्व बनता है. यदि अत्याचार व्यापक है तो केन्द्र सरकारका उत्तरदायित्व बनता है. समस्या दीर्घकलिन है तो जिसने ७० साल तक एक चक्री शासन किया है वह नहेरुवीयन कोंग्रेस ही कारणभूत है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासन और यह बीजेपीके शासन में फर्क यह है कि नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासनमें जब कभी दलितों पर अत्याचार होता था तो उस समाचारको दबा दिया जाता था, और कार्यवाही भी नहीं होती थी.

बीजेपीके शासनमें यदि कभी अत्याचार होता है तो शिघ्र ही कार्यवाही होती है. और ये नहेरुवीयन कोंग्रेसवाले कार्यवाहीकी बात करने के स्थान पर अत्याचारकी ही बात किया करते है…. आदि.  

विपक्षने देखा है कि यदि हिन्दु सब एक हो गये तो चूनाव जितना अशक्य है. इसलिये हिन्दुओंमे फूट पाडनेकी कोशिस करते है.. फूट पाडने के लिये दलित पर होते यहां तहां की छूट पूट घटनाओंको उजागर करते है और सातत्य पूर्वक उसको प्रसारित किया करते है.. इस बातका साहित्यओन लाईनपर उपलब्ध है. इसका राष्ट्रवादीयोंको भरपूर लाभ लेना चाहिये.

नहेरुवीयन कोंग्रेस, मुस्लिम और ईसाईयोंमें भी हिन्दुओंके प्रति धिक्कार फैला रही है. ख्रीस्ती धर्म की पादरी गेंग तो नहेरुवीयन कोंग्रेसकी तरह अफवाहें फैलाने में कुशल है. मुस्लिम मुल्ला भी कम नहीं. सामान्य मुस्लिम और सामान्य ख्रीस्ती व्यक्ति तो हिलमिलके रहेना चाहता है. किन्तु ये मुल्ला, पादरी और नेतागण उनको बहेकाना चाहता है. इस लिये वे छूटपूट घटनाओंको कोमवादी स्वरुप देता है और उसको लगातार फैलाता रहता है. इनमें बनावटी और विकृति भी अवश्य होती है.

उदाहरण के लिये, आजकी तारिखमें कठुआ की घटना ट्रोल हो रही है.

गेंगके लिये उनके समर्थक महानुभावोंनेहम शरमिन्दा है कि हम हिन्दु हैऐसे प्लेकार्ड ले कर प्रदर्शन किया. यदि वे सत्यके पक्षमें होते तो हिन्दु और शिखोंकी अनेक कत्लेआम के विरोधमें भी प्रदर्शन करते. लेकिन इनकी कार्य सूचिमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुपमें बीजेपीका ही  विरोध करना है.

वै से तो अंतमें हिन्दुविरोधी घटना जूठ साबित होगी लेकिन, इससे जो नुकशान करना था  वह तो कर ही दिया होता है. आम हिन्दु जनता भूल जाति है, किन्तु इससे उत्पन्न हुआ ॠणात्मक वातावरण कायम रहता है, क्यों कि इसके बाद शिघ्र ही नयी घटना का ट्रोल होना प्रारंभ हो जाता है. चाहे आम जनता ऐसी घटनाओंको भूल जाय, किन्तु हम राष्ट्रवादीयोंको ये घटनाएं भूलना नहीं है. हमें अपने लेपटोपमें विभागी करण करके यह सब स्टोर करना है और जब भी मौका मिले तब देशके इन दुश्मनोंके उपर टूट पडना है.

() कपिल सिब्बल, रा.गा., सोनिया, चिदंभरम (चिदु), रणवीर सुरजेवाले, मलिक खर्गे, अभिषेक सींघवी, एहमद पटेल, एमएमएस, गुलाम नबी आज़ाद, फरुख अब्दुल्ला, ओमर अब्दुल्ला, मणीसंकर अय्यर, शशि थरुर, आदि कई नेता अनाप शनाप बोलते रहते है.

इनको हमें छोडना नहीं.

इन सब लोगोंकी ॠणात्मक कथाएंओन लाईनपर उपलब्ध है.

यदि आपको ज्ञात नहीं है तो राष्ट्रवादीयोंमेंसे किसी एक का संपर्क करें. जब भी इनमेंसे कोई भी नेता कुछ भी बोले तो समाचार माध्यम की चेनल उपर, फेस बुक पर, ट्वीटर पर और वर्तमान पत्रकेओनलईनसंस्करण पर अवश्य आघात्मक प्रहार करें. उस प्रहारमें उनके उपर उनकी ॠणात्मक बात/बातो का अवश्य उल्लेख करें.

() १८५७का युद्ध ब्रीटनसे मुक्ति पानेका युद्ध था. उस युद्ध में हिन्दु मुस्लिम एकजूट हो कर लडे थे. मुस्लिमोंने और मुगलोंने जुल्म किया होगा. किन्तु उसका असर १८५० आते आते मीट गया था. उसके कई ऐतिहासिक कारण है. इसकी चर्चा हम नहीं करेंगे. परंतु १८५७में हिन्दु और मुस्लिम एक जूट होकर लडनेको तयार हो गये थे. यदि उस युद्धमें हमारी विजय होती तो मुगल साम्राज्यका पुनरोदय होता. यह एक हिन्दुमुस्लिम एकताका देश बनता और तो हमे पश्चिमाभिमुख एवं गलत इतिहास पढाया जाता, और तो हम विभक्त होते. ब्रह्म देश, इन्डोनेशिया, तीबट, अफघानीस्तान, आदि कई देश हिन्दुस्तानका हिस्सा होता.   हमारा हिन्दुस्तान क्रमशः एक युनाईटेड नेशन्स या तो युनाईटेड स्टेस्टस ओफ हिन्दुस्तान यानी कि जम्बुद्वीप बनता और वह गणतंत्र भी होता. १८५७के कालमें मुगल बादशाह बहादुरशाह जफरके राज्य की सीमा लाल किले तक ही मर्यादित थी इसलिये उस राजाकी आपखुद बननेकी कोई शक्यता थी.

लेकिन वह युद्ध हम हार गये.

इस बात पर ब्रीटन पार्लामेन्टमें चर्चा हुई. ब्रीटन एक लोकशाही देश था. तो हिन्दुस्तानमें धार्मिक बातों पर दखल देना ऐसा प्रस्ताव पास किया. और सियासती तरीकेमें हिन्दु मुस्लिममें विभाजन करवाना एक दीर्घ कालिन ध्येय बनाया. ख्रीस्ती प्रचार के लिये भी घनिष्ठ आयोजन किया गया. इस प्रकार हिन्दुओंमेंसे एक हिस्सा काटनेका प्रपंच किया गया.

इसीलिये राष्ट्रवादीयोंका कर्तव्य है कि इस संकट के समय हिन्दुओंका मत विभाजन हो.

मुस्लिमोंको राष्ट्रवादी विचार धारामें लाना राष्ट्रवादीयोंका दुसरा कर्तव्य है.

ब्रीटीश राजने और उसके बाद नहेरुवीयन कोंग्रेसने मुस्लिमोंको, हिन्दुओंके प्रति धिक्कार फैलाके इतना दूर कर दिया है कि उनको राष्ट्रवादी विचारधारामें लाना कई लोगोंको अशक्य लगता है.

अपनेको राष्ट्रवादी समज़ने वाले कुछ लोग इस बातका घनिष्ठताके प्रचार करते है कि जब मुसलमानोंको पाकिस्तान बनाके दिया है तो उनको अब पाकिस्तान चले जाना चाहिये. यदि नहीं जाते है तो उनको खदेड देना चाहिये. (कैसे? इस बात पर ये लोग मौन है). इन बातोंको छोडो. ये सिर्फ वाणीविलास है. ऐसा वाणी विलास नहेरुवीयन कोंग्रेस पक्ष, उसके सांस्कृतिक सहयोगी पक्षोंकी गेंग और आतंकवादी भी करते है

हिन्दु और मुस्लिम दो राष्ट्र है ऐसी मान्यताको ब्रीटीश राज्यने जन्म दिया है. और नहेरुवीयन कोंग्रेसने उनको अधिक ही मात्रामें आगे बढा दिया है. वास्तविकतासे यह “दो राष्ट्र” वाली मान्यता दूर है.

दुनियामें कहीं भी मुस्लिमफिर चाहे वह बहुमतमें हो या शत प्रतिशत हो, वह हमेशा अपने देशकी धरोहरसे भीन्न नहीं रहा हैमिस्र के मुस्लिम मिस्रकी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर पर गर्वकी अनुभूति करते हैईरानके मुस्लिमईरान की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर पर गर्वकी अनुभूति करते हैइन्डोनेसिया के मुस्लिम इन्डोनेसिया की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व की अनुभूति करते हैलेकिन भारतके मुस्लिम अपनेको आरब संस्कृतिसे  जोडते है. लेकिन  आरब इनको अपना समज़ते नहीं हैक्यों कि वे वास्तवमें अरब नहीं हैइसका कारण यह है कि हि-न्दुस्तानके मुस्लिम ९० प्रतिशत हिन्दुमेंसे मुस्लिम बने हैऔर कई मुस्लिम यह कबुल भी करते हैवोराजी और खोजाजी इसके उदहरण स्वरुप हैखुद जिन्नाने यह बात कबुल की है.

तोअब ऐसे मुस्लिमोंके प्रति धिक्कार करने कि क्या आवश्यकता हैहिन्दु धर्ममें किसी भी दैवी शक्तिको किसी भी स्वरुपमें पूजो या तो पूजो तो भी उसके उपर प्रतिबंध नहीं हैआप कर्मकांड करो तो भी सही करो तो भी सहीईश्वरमें या वेदोंमे मानो तोभी सही मानो तो भी सहीअनिवार्यता यह है कि आप दुसरोंकी हानि  करो.

मुस्लिम यदि कुछ भी माने, और यदि वे अन्यकी मान्यताओंको नुकशान न करे और अन्यका नुकशान न करें तो हिन्दुओंको मुस्लिमोंसे कोई आपत्ति नहीं. एक बात आवश्यक है कि हमें सच्चा इतिहास पढाया जाय.

मुस्लिमोंमे प्रगतिशील मुस्लिमोंकी कमी नहीं है. लेकिन प्रगतिशील मुस्लिम. किन्तु वे मौन रहेते हैं. वे मुस्लिमोंके अंतर्गत लघुमतिमें है. उनके उपर मुल्लाओंका दबाव रहेता है. और साथ साथ हिन्दुओंका एक कट्टरवादी वर्ग, मुस्लिम मात्रकी विरुद्ध बाते करता है. वैसे तो यह कट्टर हिन्दु अति लघुमतिमें है. लेकिन इस बातका मुस्लिमोंको पता नहीं. या तो उनको इसका अहेसास नहीं. यदि मुस्लिम लोग यह सोचे, कि हिन्दु कट्टरवादी और हिन्दु राष्ट्रवादी लोग भीन्न भीन्न है और वे एक दुसरेके पर्याय नहीं है तो वे लोग राष्ट्रवादी के प्रवाहमें आ सकते है.

किसी भी कोमको यदि अपनी दीशामें खींचना है तो यह काम आप उसको गालीयां देके और उसके उपर विवादास्पद आरोप लगाके नहीं कर सकते.

नरेन्द्र मोदीने एक अच्छा सुत्र दिया है कि सबका साथ सबका विकास. इसमें दलित, सवर्ण, मुस्लिम, ख्रीस्ती आदि सर्वप्रकारके लोग आ जाते है. इस सुत्रको लघुमतियोंको आत्मसात करना चाहिये.

कानूनका ही राज रहेगा. इसमें कोई समाधान नहीं.

कानूनके राज करनेकी जीम्मेवारी सरकारी अफसरोंकी है. जहां बीजेपीका शासन है वहां राष्ट्रवादीयोंको सरकारी अफसरोंके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिये, नहीं कि बीजेपीके विरुद्ध.

जो लोग कानून हाथमें लेते है उनको, और उनकी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सहायता करनेवालोंको, उन सबके उपर बिना दया बताये न्यायिक कार्यवाही करनेसे मुस्लिम नेता गण, जैसे कि फारुख अब्दुला, ओमर अब्दुल्ला, यासीन मलिक गुलाम नबी आज़ाद, मुस्लिम मुल्ला, उनके असामाजिक तत्त्व और उसी प्रकार ख्रीस्ती पादरी और उनके असामाजिक तत्त्वका दिमाग ठिकाने पर आ जायेगा. और उस धर्म के आम मनुष्यको लगेगा कि, स्वातंत्र्यका अधिकार स्वच्छंदतासे भीन्न है. उनको भी बीजेपीमें ही सुरक्षा दिखायी देगी.    

एक हिन्दुराष्ट्रवादी कट्टरवादी हो सकता है लेकिन हरेक हिन्दुराष्ट्रवादी, कट्टरवादी नहीं है. जो मुस्लिमोंको देश छोडने की बात करते हैं वे हिन्दु कट्टारवादी है. ये लोग अतिअल्पमात्रामें है. तककी उनका तुष्टिकरण करनेके लिये उन्होनें लघुमतिके लिये अलग नागरिक कोड बना दिया है और यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि लघुमतिके हित रक्षक उनके पक्षकी विचार धारा है. ऐसा करनेमें नहेरुवीयन कोंग्रेसने हिन्दुओंको अन्याय भी किया है.

मुस्लिम जनता, हिन्दुओंसे बिलकुल भीन्न है ऐसा भारतके मुस्लिम और कुछ हिन्दु भी मानते है. 

मुस्लिम यदि कुछ भी माने, और यदि वे अन्यकी मान्यताओंको नुकशान करे और अन्यका नुकशान करें तो हिन्दुओंको मुस्लिमोंसे कोई आपत्ति नहीं. एक बात आवश्यक है कि हमें सच्चा इतिहास पढाया जाय.

मुस्लिमोंमे प्रगतिशील मुस्लिमोंकी कमी नहीं है. लेकिन प्रगतिशील मुस्लिम. किन्तु वे मौन रहेते हैं. वे मुस्लिमोंके अंतर्गत लघुमतिमें है. उनके उपर मुल्लाओंका दबाव रहेता है. और साथ साथ हिन्दुओंका एक कट्टरवादी वर्ग, मुस्लिम मात्रकी विरुद्ध बाते करता है. वैसे तो यह कट्टर हिन्दु अति लघुमतिमें है. लेकिन इस बातका मुस्लिमोंको पता नहीं. या तो उनको इसका अहेसास नहीं. यदि मुस्लिम लोग यह सोचे, कि हिन्दु कट्टरवादी और हिन्दु राष्ट्रवादी लोग भीन्न भीन्न है और वे एक दुसरेके पर्याय नहीं है तो वे लोग राष्ट्रवादी के प्रवाहमें सकते है.

 

कानूनके राज करनेकी जीम्मेवारी सरकारी अफसरोंकी है. जहां बीजेपीका शासन है वहां राष्ट्रवादीयोंको सरकारी अफसरोंके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिये, नहीं कि बीजेपीके विरुद्ध.

जो लोग कानून हाथमें लेते है उनको, और उनकी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सहायता करनेवालोंको, उन सबके उपर बिना दया बताये न्यायिक कार्यवाही करनेसे मुस्लिम नेता गण, जैसे कि फारुख अब्दुला, ओमर अब्दुल्ला, यासीन मलिक गुलाम नबी आज़ाद, मुस्लिम मुल्ला, उनके असामाजिक तत्त्व और उसी प्रकार ख्रीस्ती पादरी और उनके असामाजिक तत्त्वका दिमाग ठिकाने पर जायेगा. और उस धर्म के आम मनुष्यको लगेगा कि, स्वातंत्र्यका अधिकार स्वच्छंदतासे भीन्न है. उनको भी बीजेपीमें ही सुरक्षा दिखायी देगी.    

एक हिन्दुराष्ट्रवादी कट्टरवादी हो सकता है लेकिन हरेक हिन्दुराष्ट्रवादी, कट्टरवादी नहीं है. जो मुस्लिमोंको देश छोडने की बात करते हैं वे हिन्दु कट्टारवादी है. ये लोग अतिअल्पमात्रामें है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसके लिये यह शर्मकी बात है

जो हिन्दु और जो मुस्लिम दो भीन्न भीन्न संस्कृतिमें मानता है वे दोनों कट्टरवादी है. कोंग्रेस (नहेरुवीयन कोंग्रेस नहीं), और कई मुस्लिम नेतागण (जो कोंग्रेसके सदस्य थे) “दो राष्ट्रमें नहीं  मानते थे. पख्तून नेता खान अब्दुल गफारखाँ भी दो राष्ट्रकी विचारधारामें नहीं मानते थे.

महात्मा गांधी भी दो राष्ट्रके सिद्धांतमें मानते नहीं थे. “दो राष्ट्रकी परिकल्पना ब्रीटीश प्रायोजितआर्यन इन्वेज़न परिक्ल्पनाकी तरह एक जूठके आधार पर बनी परिकल्पना थी.

यह विधिकी वक्रता है कि स्वयंको मूल कोंग्रेस मानने वाली नहेरुवीयन कोंग्रेस आज दोराष्ट्रकी परिकल्पनाको सिर्फ सियासती लाभके लिये बढावा देती है. उसको शर्म आनी चाहिये.

जिन्ना नेदो राष्ट्रकी परिकल्पना इसलिये पुरस्कृत की कि, नहेरुने उसका तिरस्कार किया था. नहेरुने स्वयं घोषित किया था कि, वे जिन्ना को अपनी ऑफिसमें चपरासी देखनेको तयार नहीं थे. तो ऐसे हालातमें जिन्नाने अपनी श्रेष्ठता दिखानेके ममतमेंदोराष्ट्रपरिकल्पना आगे की.

ब्रीटीश सरकारने तोबहुराष्ट्रकी परिकल्पना भी की थी. और वे दलितीस्थान, ख्रीस्ती बहुमत वाले उत्तरपूर्वी राज्योंसे बना हुआ नेफा,.  द्रविडीस्तानवाला दक्षिण भारत, पंजाबका खालिस्तान, और कई देशी राज्य. ऐसा भारत, काल्पनिक गज़वाहे हिन्दके करिब था. और इस प्रस्तावमें अशक्त केन्द्र था और कई सारे सशक्त राज्य थे.

लेकिन अब, यह नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांकृतिक साथी अपनी सियासती व्युहरचनाके अनुसार वे देशके एक और विभाजनके प्रति गति कर रहे है.

यदि हम राष्ट्रवादी लोग, दलितोंका, मुस्लिमोंका और ईसाईयोंका सहयोग लेना चाहते है तो हमें हिन्दुओंके हितका ध्यान रखना पडेगा. नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासनकालमें कश्मिरमें कई मंदिर ध्वस्त हुए है.

हिन्दुओंके मतोंका विभाजन होनेकी शक्यता देखकर वंशवादी और कोमवादी पक्ष इकठ्ठे हो रहे है. इनको पराजित तब ही कर सकते है जब हिन्दु मत का विभाजन हो.

हिन्दु जनता कैसे विभाजित होती है?

राष्ट्रवादीयोंका ध्येय है कि नरेन्द्र मोदी/बीजेपी २०१९का चूनाव निरपेक्ष बहुमतसे जिते. राष्ट्रवादीयोंका कर्तव्य है कि वे आपसमें विवाद करें. आपसके विभीन्न मुद्दोंमे जिनमें विचार विभीन्नता है ऐसे मुद्दोंको प्रकाशित करें और तो उनको उछाले.

जैसे कि

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हिन्दु राष्ट्रकी घोषणा,

वेदिक शिक्षा प्रणाली,

भारतके विभाजनके लिये जिम्मेवार कौन,

महात्मा गांधी फेक महात्मा,

महात्मा गांधीकी भूलें और मुस्लिमोंका तूष्टीकरण,

जीन्नाकी छवी,

हमें स्वतंत्रता किसने दिलायी पर वृथा चर्चा,

महात्मा गांधी और शहिद भगत सिंह आमने सामने,

अहिंसा एक मीथ्या आचार,

महात्मा गांधीने नहेरुको प्रधान मंत्री क्यों बनाया इस बात पर महात्मा गांधीकी भर्त्सना,

महात्मा गांधी और नहेरुके मतभेदको छिपाना,

नहेरुवीयन कोंग्रेसको मूल कोंग्रेस समज़ना,

नहेरुका धर्म क्या था,

फिरोज़ गांधी मुस्लिम था,

हिन्दु धर्मकी व्याख्या,

राम मंदिर, (जो मामला न्यायालयके आधिन है),

इतिहास बदलने की अधीरता,

मुगलोंका और मुसलमानोंका मध्य युगमें हिन्दुओंके उपर अत्याचार,

नहेरुवीयन कोंगीयोंने जिन घटनाओंको ट्रोल किया हो उनका प्रचार.

मुस्लिम मात्रसे और ख्रीस्ती मात्रसे नफरत फैलाना,

नरेन्द्र मोदीको सलाह सूचन,

बीजेपी नेताओंकी कार्यवाही पर असंतोष व्यक्त करना और उनके साथ जो विचार भेद है उसमें वे गलत है ऐसे ब्लोग बनाना,

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राष्ट्रवादीयोंका कर्तव्य है कि वे यह समज़ें कि उपरोक्त मुद्दे विवादास्पद है.

इनमेंसे;

कई मुद्देके विषयमें निर्णय पर आनेके लिये पूर्वाभ्यास करना आवश्यक है,

कई मुद्दे अस्पष्ट है,

कई मुद्दे फिलहाल प्राथमिकतामें लाना वैचारिक संकट पैदा कर सकते है,

कई मुद्दे न्यायालयाधिन है और बीजेपी सरकारके विचाराधिन है,

कई मुद्दे ठीक है तो भी वर्तमान समय उनकी स्विकृतिके लिये परिपक्त नहीं है.

ऐसे मुद्दे निरपेक्ष बहुमत होनेके कारण, देश विरोधी शक्तियां अफवाहें फैलाके जनताको गुमराह कर सकती है, और भारतके जनतंत्रको विदेशोंमे बदनाम कर सकती है. फिलहाल चर्चा करना भी ठीक नहीं.

हम, मुस्लिमोंके वर्तमान (१९४६से शुरु) या प्रवर्तमान कत्लेआम और आतंकको मुस्लिम नेताओंके नाम या और जुथोंको प्रकट करके, उन पर कटू और प्रहारात्मक आलोचना अवश्य कर सकते है. क्यों कि इन बातोंको वे नकार सकते नहीं. हमने इन बातोंसे पूरी मुस्लिम जनताको तो कुछ कहा नहीं है. इसलिये वे इन कत्लेआमको अपने सर पर तो ले सकते नही है.

दलित और सवर्ण एकता कैसे बनायें?

वैसे तो यह समस्या सियासती है. फिर भी विपक्षके फरेबी प्रचारके कारण इसकी चर्चा करनी पडेगी.

विपक्षका प्रयास रहा है. विपक्षी शक्तियां, सवर्ण को भी अनामतके आधार पर क्षत्रीय, जाट, यादव, जैन, बनीया, भाषा और विस्तारके विशिष्ठ दरज्जाके आधार पर लोगोंको विभाजित किया जाय.

इनके विभाजनको रोकनेके लिये बीजेपीको, लेखकों, कवियों, हिन्दु धर्मगुरुओंको और महानुभावोंको (सेलीब्रीटीज़को) भी आगे करना पडेगा. इन लोगोंको समज़ाना पडेगा कि अनामतके लिये विभाजित होना ठीक नहीं है क्यों कि अनामत ४९ प्रतिशतसे अधिक नहीं हो सकता. और वैसे भी अनामतकी आवश्यकता तब पडती है जब आबंटनकी संख्या कम हो और ईच्छुक अधिक हो. यह समस्या वैसे भी विकाससे हल होने वाली ही है.

विपक्ष हिन्दुओंके मतोंको निस्क्रिय करके उनका असर मत विभाजनके समकक्ष बनाता है. विपक्षका यह एक तरिका है, सामान्य कक्षाके हिन्दुओंको निस्क्रिय करना. आम मनुष्य हमेशा हवाकी दीशामें चलता है. यदि विपक्ष, बीजेपी के लिये ॠणात्मक हवा बनानेमें सफल होता है तो सामान्य कक्षाका मनुष्य निराश होकर निस्क्रिय हो जाता है और वह मतदान करनेके लिये जाता नहीं है.

नहेरुवीयन कोंगी की सहयोगी मीडीया बीजेपीका नकारात्मक प्रचार करती है और उसके लिये ॠणात्मक वातावरण पैदा करनेका काम करती है.

 शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासन कालमें बभम बभम ही चलाता था. और बाबा राम देवकी सत्याग्रहकी  छावनी रातको पोलिसने छापा मारा था, नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासनकालमें, अभिषेक मनु सिंघवी याद करो जिनके, तथा कथित ड्राइवरने उनकी एक लेडी वकिलके साथ रेपके संबंधित  वीडीयो बनाई थी और वह सोसीयल मीडीया पर  भी चली थी. यह तो “दंड-संहिता” के अंतर्गत वाला मामला था. लेकिन न तो नहेरुवीयन कोंग्रेसकी सरकारने न तो अभिषेक मनु संघवीके उपर कोई कदम उठाया न तो इस महाशयने ड्राईवर के उपर कोई दंड-संहिताका मामला दर्ज़ किया. आपस आपस में सब कुछ जो निश्चित करना था वह कर लिया.

और ऐसा जिसका शासन था, वह अभिषेक मनु सिंघवी इस बीजेपीके शासनकालको अघोषित आपात्‌ काल कहेता है. जिसमें सारा विपक्ष असंस्कारी भाषामें बीजेपीके नेताओंको उछल उछल कर गाली देता है. ये नहेरुवीयन कोंग्रेस नेता गणके शब्द कोषमें शब्दकोषकी परिभाषा  ही अलग है. जयप्रकाश नारायणने १९७४में  इस नहेरुवीयन कोंग्रेसकी आराध्या के बारेमें कहा था कि उसका ही शब्द कोष “हम्टी-डम्टी” का शब्द कोष जैसा है.  और आज भी नहेरुवीयन कोंग्रेसका शब्द कोष वही रहा है. 

रेप चाहे लेडी वकील पर करो या भाषा पर करो, नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताको क्या फर्क है?

abhisek singhvi

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तितलीयां कौन उडाते है?

butterflies

समाचार माध्यमोंके लिये अभी कई सारे ट्रोल विद्यमान (जिन्दा) है. खास करके बीजेपी-नरेन्द्र मोदी विरोधीयोंके लिये कई ट्रोल विद्यमान है. ट्रोलसे प्रयोजन है. समग्रतया दृष्टिसे देखा जाय तो कोई एक, जो वास्तवमें छोटा है, तथापि उसको बडा कर दो. और उसकी लगातार चर्चा किया करो. वह ट्रोल बन जाता है. ऐसी भी कई घटना घटती है जो वास्तवमें अधिक प्रभावशाली होती है किन्तु वह यदि हमारे निश्चित एजन्डाके लिये उचित नहीं है तो उनको अनदेखा करो.

ट्रोल चलाना नहेरुवीयन कोंग्रेसकी आदत है

ट्रोल चलाना वैसे तो राजकीय पक्षोंकी आदत है. लेकिन नहेरुवीयन कोंग्रेस पक्ष उनमें खास है.  खास करके जब, प्रतिस्पर्धी पार्टीकी बुराई करनी होती है तो ऐसे सुसर्जित ट्रोल मददगार सिद्ध होते है, ऐसा ये लोग मानते है.

जैसे कि अखलाक एक ट्रोल था. नहेरुवीयन कोंग्रेस पक्षके एक सहयोगी शासित राज्यमें “गौ-मांस” संबंधित घटनाको उछाला गया था. कन्हैया एक ट्रोल था जिसने जवाहर नहेरु युनीवर्सीटीमें देश विरोधी नारे लगवाये थे, खालेद एक ट्रोल था, जिसने अपने साथीयोंके साथ कन्हैयाके सहयोगसे उपरोक्त नारे लगाये थे. गुजरातके उना नामके गांवके समिप  “गौ-मांस” संबंधित तथा कथित घटना को लगातार उछाला गया था. वह व्यक्ति दलित था और गांवमें घटी एक घटनाका पीडित था. उसको एक ट्रोल बना दिया था, कश्मिरमें सुरक्षा दलोंने, जीपके हुड पर बंधा हुआ पत्थरबाज व्यक्तिको ट्रोल बनाया गया था, एक लडकी थी, गुर महेर कौर, जिसने कहा “मेरे पिताजी जो सैनिक थे, उनको पाकिस्तानने नहीं मारा था, उनको तो गोलीने मारा था”, गौरी लंकेशको एक ट्रोल बनाया गया था. वह एक पत्रकार थी. और ऐसी हवा फैलायी गयी कि उसको बीजेपीने मारा. वह कर्नाटकमें थी और वहां भी नहेरुवीयन कोंग्रेसका शासन था. यदि नहेरुवीयन कोंग्रेसका शासन है या तो उनके सहयोगी पक्ष/पक्षोंका शासन है तो, बीजेपी या बीजेपीके सहयोगी लोग उस राज्य में हिंसा फैलाते है ऐसी हवा फैलाना.

यदि बीजेपीका शासन है और ऐसे किसीका खून होता है तो ऐसी हवा फैलाना की शासक खुद ऐसी हिंसा फैलाता है. ऐसे सियासती खूनसे तो नहेरुवीयन कोंगी [नहेरुवीयन कोंग्रेस (ईन्दिरा) पक्ष] और उनके सहयोगी साम्यवादीयोंके हाथको खूनी पंजा भी कहा जाता है. केरलमें ऐसे सियासती खूनोंकी गिनती कर लो.

रा.गा. (राहुल गांधी) भी एक ट्रोल है

वैसे तो रा.गा. (राहुल गांधी) भी समाचार माध्यमोंके लिये एक ट्रोल है. लेकिन आज हम ट्रोलकी बातें नहीं करेंगे. आज हम तितलीयोंकी बाते करेंगे.

“तितलीयां उडाना” शायद हिन्दी भाषामें मूँहावरा नहीं है. अंग्रेजीमें “बटरफ्लाई” एक ऐसा शब्द प्रयोग है. यदि आपके पास किसीके निर्णयको क्षतिपूर्ण सिद्ध करना है, किन्तु आपके पास कोई तर्क नहीं है और फिर भी आपको उसकी मजाक करना है तो आप बटरफ्लाय जैसे सुशोभित शब्दोंका उपयोग करके लोगोंका ध्यान आकर्षित कर सकते हैं.

बटरफ्लाय मतलब तितली. तितली कैसी होती है?

तितली रंगबेरंगी होती है. फुलोंकी पत्तीयां जैसे उनके पंख होते हैं. या उससे भी अधिक सुंदर होते हैं. पंख ही उनकी पहेचान है. वास्तवमें तितलीयोंकी प्रजातियां कमजोर होती है. किन्तु कमज़ोर होना मुख्य बात नहीं है. उनकी सुंदरता ही आकर्षण है. लोग उनसे ईसी कारणसे प्रसन्न होते हैं. यदि हमारी बातसे लोग प्रसन्न है होते हैं तो वे शायद ज्यादा सोचेंगे नहीं और हमारी बातोंको स्विकृति दे देंगे.

यदि आपके पास तर्क नहीं है, फिर भी आप किसी नापसंद व्यक्तिकी बुराई करना चाहते हो, और उसको मजाकका पात्र बनाना चाहते हो, या तो उसने जो निर्णय लिये है उन निर्णयोंकी मजाक उडाना चाहते हो, तो आप तितलीयाँ जैसे खूबसुरत शब्दोंका चयन करें, और उनका प्रयोग करें. शब्दोंके प्रासमें सौंदर्य होता है. वैसे तो तितली-प्रयोगके पीछे एक विचार या तर्क भी होना चाहिये. लेकिन तर्क होना अनिवार्य नहीं है.

तितलीयां ही सिर्फ नहीं उडायी जाती, किटककी प्रजातिके ही अन्य इन्सेक्ट जैसे कोकरॉच, फुद्दा, मक्खीयां भी उडायी जा सकती हैं. मक्खीयोंका ज्यादा प्रचलन नहीं है, लेकिन जो लोग मक्खीयां मारते है वे तितलीयां और फुद्दे (फुद्दा एक ऐसा किटक प्रजातिका जीव है जो आकर्षक नहीं होता किन्तु आपको हानिकारक होनेकी भ्रमणा दे सकता है) भी उडाते है.  

मान लिजीये आपको नरेन्द्र मोदी पसंद नहीं है.

आप क्यों नरेन्द्र मोदीको पसंद नहीं करते हैं उसके अनेकानेक कारण हो सकते हैं.

तितलीयां या और फुद्दे कब उडाये जाते हैं?

यदि आप नरेन्द्र मोदीको आपका प्रतिस्पर्धी मानते हो. तो आपको नरेन्द्र मोदी पसंद नहीं पड सकता है. क्यों कि आगे बढनेकी स्पर्धामें उसने आपको पीछे छोड दिया, या तो आपसे वह आगे निकल गया, या तो नरेन्द्र मोदीकी बातें आपको आपके डी.एन.ए. के कारण या तो कोई अन्य कारणसे स्विकार्य नहीं है तो आप तितलीयोंका सहारा ले सकते है.

तितलीयां उडाने वाले अपने पक्षके बाहर होते है ऐसा आवश्यक नहीं है.

बीजेपीकी केन्द्रीय कारोबारीने २०१४के लोकसभा चूनावके लिये, अडवाणीना पत्ता काट दिया तो अडवाणीने भी कई तितलियां उडाई थी कि “नंबर – १ चूनावप्रचारक धीर गंभीर होना चाहिये.”

अभी थोडे समय पूर्व ही भूतपूर्व मंत्री यशवंत सिंहाने कुछ तितलीयां उडायी थीं.

“पहेले इन्डिया को बनाओ, फिर इन्डियामे बनानेकी बात करो” (फर्स्ट मेक इन्डिया धेन टॉक ओफ मेक ईन इण्डिया)

भारतीय अर्थतंत्र घुमरी खाके गीर रहा है.

इसका अर्थ समज़ना जरुरी है. यदि आप गुरुत्वाकर्षणके सिद्धांतको जानते है तो गुरुत्वके क्षेत्रमें पदार्थ प्रवेगित गतिसे गीरता है. लेकिन यदि वह पदार्थ गतिमान है तो चक्राकार गोलगोल घुमता हुआ गिरता है. क्यों कि गुरुत्वके क्षेत्रमें अवकाश वक्रीभूत होता है. हमारा अर्थ तंत्र भी गोलगोल घुमता हूआ हर क्षण गीरनेके बढते हुए वेगसे गिर रहा है.

“जीडीपी में जो वृद्धि देखाई जाती है वह तो नयी फोर्म्युलाके मापदंड पर आधारित है. पहेलेकी फोर्म्युलाके मापदंडसे तो वह दो अंक और कम है. इसके लिये विमूद्रीकरण और जीएसटी कारणभूत है.” वैसे तो यशवंत सिंहाने कश्मिर पोलीसी, गौ हत्या बंधीके बारेमें “कुछ लोगोंका प्रशासनके नियमोंको अपने हाथमें लेना” ईन सभी पर अपने विचार प्रकट किये. यशवंत सिंहाने अपने शासनकालमें प्लानींग कमीशनके विरुद्ध और उसकी कमजोरीके बारेमें कठोर अभिप्राय दिया था. लेकिन जब नरेन्द्र मोदीने प्लानींग कमीशनको नष्ट किया तो उन्होनें उतनी ही कठोरतासे नरेन्द्र मोदीके निर्णय पर टीप्पणी की.

वित्तमंत्री अरुण जेटलीने जब यशवंत सिन्हाको अंकोके आधार पर सविस्तर उत्तर दिया तो यशवंत सिंहाने बोला कि “मैं अंकोमें विश्वास नहीं रखता”. एक व्यक्ति अंकोंके आधार पर अन्यकी बुराई करता है वही जब अंकोंके सहारे दिये गये तर्कका हवाई इन्कार करता है, इस व्यक्तिके लक्षणको संस्कृतभाषामें “वदतः व्याघात” कहेते है. इसका हिन्दी अर्थ है “अभी बोले अभी फोक”.

नहेरुवीयन कोंग्रेसके युवराज तो तितलीयां ही उडाते है. क्यों कि वे समज़ते है कि यदि हम चूनाव बार बार हार जावें तोभी चूनाव जितनेका यही तरिका है. “लगे रहो पप्पुभाई” के सिवा इस युवराजको हम क्या कह सकते है?

जी.एस.टी.के बारेमें सरकारकी बुराई करना क्या नहेरुवीयन कोंग्रेसके लिये योग्य है?

जी.एस.टी. किस पक्षके दिमागकी उपज है इस बातको जाने दो. जी.एस.टी.का पूर्वालेख (ड्राफ्ट) और प्रस्ताव नहेरुवीयन कोंग्रेसने भी रक्खा था. वह पूर्वालेख क्षतिपूर्ण था. उसको लागु करनेकी प्रणालीयां भी क्षतिपूर्ण थीं. उतना ही नहीं किन्तु, नहेरुवीयन कोंग्रेसमें उतनी संकलन शक्ति भी नहीं थी कि वह सभी राज्योंकी ईच्छाओंका आकलन कर सके, जी.एस.टी.का कोई अर्थपूर्ण पूर्वालेख में संशोधन कर सके, और उसको कार्यान्वित करनेकी प्रणालीयोंमें संशोधन कर सके. बीजेपीके नेतृत्ववाली सरकारने यह सक्षमता दिखायी है, और उतना ही नहीं उसने, सभी राज्योंके प्रतिनिधियोंसे बनी, एक जी.एस.टी.-परिषद भी बनायी है, जो हर सत्रके अंतमें जी.एस.टी.में आवश्यक संशोधन करती रहती है. बीजेपीकी सरकारका जो जी.एस.टी.का प्रस्ताव था वह नहेरुवीयन कोंग्रेसका प्रतिबिंबित (कार्बन कॉपी) पूर्वालेख नहीं है. जिस जी.एस.टी.के प्रावधानोंको सभी पक्षोंने मान्य रक्खा है उसीका अंध विरोध करना तो कोई नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताओंसे ही सिखें.

नहेरुवीयन कोंग्रेसकी उडाई हुई तितलीयां कैसी है?

Tods

“जी.एस.टी. तो गब्बर सिंह टेक्स है.” रा.गा. उवाच …

ईस तितली पर क्या हम चर्चा कर सकते हैं? क्या यह कोई तर्क है? यह खचित्‌ वाणी विलास है या तो अधिक कठोर शब्दोंमें कहें, तो वाणी पर दुष्कर्म है.

“जी.एस.टी. और नोट बंदीने सुनामी सर्जी है” रा.गा. उवाच.

लगता है कि रा.गा. को सुनामी शब्द पसंद पड गया है. क्यों कि नकल करना उसकी आदत है. “चाय पे चर्चा” के विरुद्ध उसने “खाट पे चर्चा”का आयोजन किया था. २०१४के संसदके चूनावमें बीजेपीके नेताओंने कहा था कि “मोदीका प्रवाह” नहीं लेकिन “मोदी नामकी सुनामी” है. तो रा.गा.जी को यह सुनामी शब्द पसंद पड गया लगता है. तो उन्होंने बोल दिया कि “जी.एस.टी.” और “नोट बंदी” तो सुनामी है.

फर्जी नोटोंका मुद्रण, उनका भारत-प्रवेश और उनका वितरण पाकिस्तानमेंसे होता था. यह समस्या इतनी व्यापक थी कि, राष्ट्रीय कृत बेंक-संचालित एटीएम यंत्रोंसे भी फर्जी नोटें निकलती थीं, नहेरुवीयन कोंग्रेसने और उनके अमेरिकी ग्रीनकार्ड होल्डर आर.बी.आई. के गवर्नरने कभी न तो इसका उपाय किया, न तो उपाय बताया. क्यों कि, या तो इसका उपाय, उनके दिमागसे परे था, या तो फर्जी नोटोंके कारोबारमें उनका स्वहित निहित था. उनका नोट-बंधीका विरोध तो केवल व्यंढ ही था और है.

“आर.एस.एस. की सभामें लडकियाँ शोर्ट्स क्यों नहीं पहनती?” रा.गा. उवाच …

रा.गा.जी समज़ते हैं कि यदि बीजेपीवाले मुस्लिमोंके बुर्केके विरोधमें है तो हिन्दु लडकियोंके “देशी-ड्रेस”का भी विरोध करना चाहिये. उनका तात्पर्य यह कि कुर्ता पायजामा, चणीया-चोली-ऑढणी, साडीयाँ, सभी देशी ड्रेस व मटीरीयल को अपनाना बुर्केको अपनानाके समकक्ष है. यदि आरएसएसवाले अपने को प्रगतिशील मानते हैं तो उनकी सभामें लडकियोंको शोर्ट्स परिधान करनेकी आदत डालनी चाहिये. तो हे मुसलमान लोग, आप हमें यानी कि नहेरुवीयन कोंग्रेसको समज़ो, कि हम आर.एस.एस. वालोंकी कैसे मजाक उडाते हैं.

“महात्मा गांधी, एन.आर.आई. थे.” रा.गा. उवाच.

आप रा.गा.के कथनोंका कहाँ कहाँ विश्लेषण करते रहोगे. वह वास्तवमें विश्लेषणके योग्य है ही नहीं. जैसे “मौतका सौदागर”जैसी मीथ्या और अपरिपक्व दिमागवाली उसकी मम्मी वैसा ही उसकी संतान (फरजंद).

तो क्या नहेरुवीयन कोंग्रेसमें कोई उत्तर देने योग्य नेता बचा ही नहीं है?   

अभी तक तो दूर दूर क्षितिजमें भी ऐसा नेता दिखाई नहीं देता.

अपने प्रमाणपत्रोंके आधारसे लब्धप्रतिष्ठ स्वपक्ष प्रमाणित मनमोहन सिंहको देख लो. उन्होंने एक नमूनेदार सीयासती नेता जैसा बयान दिया था कि मुस्लिमोंका इस देश पर ज्यादा अधिकार है.

यही कोंग्रेसके एक नेताने पाकिस्तानी टीवी चेनलके वार्तालापके अंतर्गत कहा कि “आपको मोदीको हटाना होगा तभी तो पाकिस्तान और भारतके बीच संबंध सुधर सकते है.” इस उक्तिके अनेक मतलब निकल सकते है.

“कश्मिरके हिन्दुओंकी हकालपट्टीकी घटना आरएसएसके एजन्डाके अनुसार थी.” शशि थरुर उवाच

भारतके मुस्लिमोंकी वोटबेंक बनाये रखने के लिये एक नहेरुवीयन कोंग्रेसीने पाकिस्तानकी टीवी चेनल पर चलते वार्तालापमें अपना सूर पूराया था कि, “कश्मिरके हिन्दुओंकी हकालपट्टीकी घटना आरएसएसके एजन्डाके अनुसार थी.”

अभी आप यह देखिये कि नहेरुवीयन कोंग्रेसके सुज्ञ और वैज्ञानिक (टेक्नीकल सलाहकार) जो स्वयं सफेद टोपी पहन सकते है वे क्या कहेते है.

“जीन्स पहेनके, स्कॉच (व्हीस्की) पीके भी आप गांधी विचारोंको अपना सकते हो.” पित्रोडा उवाच …

हाँ जी यह साम पित्रोडाजीका कथन है. ये पित्रोडाजी नहेरुवीयन कोंग्रेस और समाचार माध्यम द्वारा प्रमाणित दूरसंचार तकनिकीके स्थापक और प्रवर्तक है.

पहेले तो यह बात अवगत होनी चाहिये कि दूरसंचार तकनिकीकी स्थापना ये पित्रोडाजीने नहीं की थी. इसके बीज बोनेकी कल्पना या तो बीजका बोने वाला हेमवतीनंदन बहुगुणा था. १९७२में उन्होंने शरीन कमीटी बिठाई थी और बहुगुणाजीको अनुभूति हुई थी कि “दूर संचार समस्याका समाधान करना ही होगा”. उन्होंनें एड्वान्स लेवल टेलीकोम ट्रेनींग सेंटरका निर्माण करवाया था. किन्तु उनसे गलती यह हो गयी कि स्वयंके कार्योंका श्रेय वे स्वयं हि लेने लगे थे. यह बात इन्दिरा नहेरु-गांधी (इन्दिरा नहेरु-गांधी मतलब इन्दिरा गांधी) स्थापित प्रणालीके विरुद्ध थी.  इन्दिराजी को बहुगुणा पसंद नहीं पडा. और उनको बरखास्त कर दिया था. कालक्रमसे इन्दिरा-कोंग्रेसकी १९७७में पराजय हुई. समाजवादी गांधीवादी नेता श्री ज्योर्ज फर्नान्डीस दूर संचार मंत्री बने थे तो उन्होने “डीजीटल ईलेक्ट्रोनिक दूरसंचार प्रणालीके टेक्नोलोजी ट्रान्स्फरके साथ” वाला वैश्विक निविदा (टेन्डर) फ्लोट करवाया था. उनकी सरकार गिर गयी. इन्दिराकी सरकारने फ्रान्सकी अल्काटेल कंपनीके टेन्डरको मान्य रक्खा. और ओर्डर भी दिये. १९८२-८३में भारतसे चार टीम, इन्स्टोलेशन और मेन्टेनन्सके प्रशिक्षणके लिये फ्रान्स गयी थी. सर्वप्रथम २०००० टेलीफोन लाईनकी क्षमता वाले डीजीटल ईलेक्ट्रोनिक्स टेलीफोन एक्सचेन्जके इन्स्टोलेशनका काम फ्रेन्च टीमने १९८३में ही शुरु कर दिया था. उसके बाद कफपरेड, कुपरेज, अंधेरी, घाटकोपर के डीजीटल ईलेक्ट्रोनिक्स टेलीफोन एक्सचेन्जके इन्स्टोलेशनका काम भारतीय टीमने शुरु कर दिया था. उस समय साम पीत्रोडाजी दूर दूर क्षितिज पर भी दिखाई नहीं देते थे.

इन्दिरा गांधीकी मृत्युके बाद जब राजिव गांधीजीका राज्याभिषेक हुआ तब कुछ समयके बाद  पित्रोडाजी  भारत आये. अलबत्त, वे “सी-डॉट” नामका एक छोटा १२८ से ५१२ लाईनकी क्षमतावाला टेलीफोन एक्सचेन्ज बना रहे थे. ऐसे टेलीफोन एक्सचेन्जका भी भारतके ग्राम्य विस्तारके लिये महत्त्व तो था ही. लेकिन १९८६में परिस्थिति ऐसी थी कि टेलीफोन कनेक्सनकी प्रतिक्षा यादी १० सालकी थी उसको आगामी छह सालमें खतम करना था. यदि नरसिंह राव नामका नोन-नहेरुवंशी प्रधानमंत्री नहीं आता तो पता नहीं नहेरुवीयन कोंग्रेस प्रगतिका अर्थ समज़ती या नहीं. अभी अभी यह प्रश्न तो विद्यमान ही है.

मूल विषय पर आवें तो पित्रोडाजीने गांधीजी को पढा नहीं है. गांधीजीने कहा था कि वे सरमुखत्यार बननेके पक्षमें नहीं है, लेकिन यदि उनको एक “मुद्रा-उछाल”समयके लिये सरमुखत्यार बनना भी पडे, तो वे उस समयमें शराब-बंदी कर दें. १९६०के दशकमें महाराष्ट्रमें नहेरुवीयन कोंग्रेसी मुख्य मंत्रीने शराब बंदीको नरम कर दिया. होटेल रेस्टोराँ वालोंको छूट देदी कि, वे विदेशीको शराब दे शकते है. रेस्टोरां वालेको ग्राहकको पूछनेका था कि आप विदेशी है? ग्राहक बोलेगा “हाँ”. “लो. ले जाओ शराब”. भला,  ग्राहक कभी जूठ बोल सकता है?

यदि आपको शराब घरपे ले जाना है, तो डोक्टरका सर्टीफीकेट चाहिये. फिर आप शराब को घरपे ले जाके पी सकते है. महेफिल भी कर सकते हैं. पैसे फैंको सर्टीफीकेट लेलो … शराब लेलो … गांधीजीका कहेनेका था कि जब शराबकी बात आती है तो मैं उन गरीब कूटुंबोंको देखता हूँ जिनका पूरा घर तूट पडता है. खादी के बारेमें गांधीजीने कहा था कि जब मैं खादीकी बात करता हूँ तो मेरे सामने भारतकी गरीब जनता दिखाई देती है जिनको मैं क्या काम दे सकता हूँ.

“नियम बनाओ. लेकिन वे नियम सिर्फ सुशोभनकारी ही होना चाहिये. उन नियमोंके अमलकी बात मत करो.” ऐसी संस्कृति नहेरुवीयन कोंग्रेसके सत्ताकालमें पैदा हुई है, और उस समयसे ही सर्वव्यापक बनी. लेकिन हमारे पित्रोडाजी गरीब, गांधी, स्कॉच (व्हीस्की) का त्रीवेणी संगम करने की बात कर सकते है, यह नहेरुवीयन कोंग्रेसकी पहेचान है.

समाचार माध्यमवाले क्या तितलीयां उडाते हैं?

trend changed

समाचार माध्यमोंके मालिकोंका तो यह धंधा है. उनसे तो शायद सियासती नेताओंने शिखा होगा. डीबीभाईके (दिव्य भास्कर भाईके) तंत्रीमंडलके सदस्य तो हमेशा यही चिंतामें रहते है कि हस्तस्थ घटनाको कैसे हृदयको अधिकसे अधिक चोट पहूँचावे ईस प्रकार संरचित करें.

डीबीभाईके एक कटारीया भाईने (कोलमीस्ट)ने लिखा की “गुजराती साहित्य परिषद”के प्रमुख पदके चूनावमें लाख प्रयत्न करने पर भी बीजेपी हार गया है. तीन नये युवानेताओंने बीजेपीकी विरुद्ध जो हवा बनायी है उसका प्रभाव हो सकता है.”

तो हमने उनको लिखाकी अब तो गुजरातके चूनावमें नहेरुवीयन कोंग्रेसकी जित सुनिश्चित है. गुजराती साहित्य परिषद साक्षरोंकी परिषद है. और गुजरातमें साक्षरता ८० प्रतिशत है.

वैसे तो यह कटारीयाभाई महात्मा गांधीके नाम या विचारमंचके निकटवर्ती माने जाते है लेकिन उन्होंने उपरोक्त तीन युवा नेताके बारेमें उनकी मांगकी यथार्थता और या योग्यताके बारेमें    

कभी चर्चा करना अनिवार्य नहीं समज़ा. उपरोक्त ये युवानेता कौन है? ये युवा नेता, जातिवादको उकसाके पटेलोंके लिये और क्षत्रियोंके लिये आरक्षणका आंदोलन चला रहे हैं. समाचार माध्यम वाले ऐसे विभाजनवादी नेताओंके आंदोलनोंको फूंक मार मार के प्रज्वलित रक्खा करते है. और समाचार माध्यमके ये कटारीया भाईलोग भारतीय समाजके विभाजनवादी नेताओंको उत्साहित करते है.  गुजरात साहित्य परिषदके प्रमुख पदके चूनावमें बीजेपीकी हारमें इन तीन नेताओंका योगदान रहा है. यदि गांधीजी जिन्दा होते तो वे एतद्‌ कथित अपने मानस पुत्रोंकी मानसिकतासे शायद आत्म हत्या कर लेते.

चूनाव आयुक्तको भी लेखक महाशयने एक “पंच” (गुजराती-काठीयावाडीमें हम पंचको गोदा मारना कहेते हैं) मार दिया है कि, ६५ सालमें प्रथम ऐसी घटना घटी है कि, चूनाव आयुक्तने सरकारकी नीली झंडीकी प्रतिक्षा की. वैसे तो ये महाशय जब नहेरु और इन्दिरा गांधीका शासन था तब उस शासनकालमें पेराम्बुलेटर नहीं चला रहे थे. तो उनको याद होना चाहिये कि उनके जमानेमें तो चूनाव आयुक्तका स्थान चपरासीके बराबर ही था. चूनावके नियमोंको दृढतासे लागुकरनेका काम और चूनाव आयुक्तको नियम बद्ध कठोरतासे कैसे काम करना चाहिये इसका प्रारंभ तो शेषनने ही किया है.

उपरोक्त तीन युवा नेताओंको बीजेपीवाले बरसाती मेंढक मानते है.

“बरसाती मेंढक” या तो कोई “घटना” है, या कोई नेता बरसाती मेंढक बनके सामने आ जाता है, या तो समाचार माध्यम बरसाती मेंढककी खोज में रहेता है.

जबसे इन्दिरा गांधीने चूनावकी शीड्युलको छीन्नभीन्न कर दिया तबसे कोईन कोई राज्यमें बरसात होती ही है. और चूँकि, देश प्रजातंत्र है, पूरे देशमें बरसाती ऋतु है ऐसा लगता है.

विकासनो वरख 

प्रगतिकी पन्नी (गुजरातीमें इन्होंनें “तितली शब्द प्रयोग”के लिये  “विकासनो वरख” कहा है) यह तितली भी उडती है.

“विकास पागल हुआ है” इस तितलीमें अब दम नहीं रहा. क्यों कि बीजेपीने उत्तर दिया कि पागलका विकास तो देशने उनके कौभाण्डोसे देख ही लिया है. जैसे कि कोमनवेल्थ गेम स्केम, २-जी स्केम, कोलगेट स्केम, नहेरुवीयनोंके अनेकानेक स्केम जिसमें नहेरुवीयन्स स्वयं जमानत पर है.

याद करो महात्मा गांधी कई बार जेल गये लेकिन कभी उन्होने जमानत नहीं ली. ये नहेरुवीयन लोग, गांधीजीको अपनी धरोहर मानते है और जमानत पर भी जाते है.  

वैसे तो डीबीभाईके सभी कटारीया लेखकगण ऐसे नहीं है. लेकिन ज्यादातर ऐसे ही है. क्यों कि यदि युद्धमें अन्य पक्ष बराबरीके स्थान पर न हो तो वह युध्धमें मज़ा कहाँ.

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्ज़ः

चमत्कृतिः

राहुल को पूछे गये प्रश्नोंका राहुल जवाब नहीं देता है. उसका चमच भनीस तीहारी या द्ग्गीदीन या सींघवी देता है.

(१) टमाटर फल है या सब्जी ?

(2) गुलाबजामुन में गुलाब के महत्व का वर्णन कीजिये |
(3)
अनु मालिक और हिमेश रेशमिया , दोनों में से कौनबेहतरीन गायक हैं ?
(4)
जस्टिन बाईबर क्या हैंमर्द, औरत या गे ?
(5)
दिग्विजय सिंह एक इंसानहैं , उदाहरण सहित साबित करे |
(6)
पहले मुर्गी आई या अंडा ?
(7)
काटजू साहब के हिसाब से 90% लोग मुर्खहैं , तो बाकी 10% कौन हैंबुद्धिमान या महामूर्ख ?
(8) Tsunami
और psychology में “T” और “P” साइलेंट क्या होता हैं और जब इन्हें बोलना ही नहीं तो फिर लिखते क्यों हैं ?
(9)
राहुल राय और राहुल महाजन , दोनों में से कौन ज्यादा टैलेंटेडहैं और क्यों ?
(10)
राहुल गाँधी खुद की पांच विशेषता बतलातेहुए खुद को युवा साबित करे |

 

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सोमनाथका मंदिर कैसे तोडा जाय? भाग-२

सोमनाथका मंदिर कैसे तोडा जाय? भाग-२

असत्यवाणी नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंका धर्म है

यह कोई नई बात नहीं है. नहेरुने खुदने चीनी सेनाके भारतीय भूमिके अतिक्रमणको नकारा था. तत्पश्चात्‌ भारतने ९२००० चोरसवार भूमि, चीनको भोजन-पात्र पर देदी थी. ईन्दिरा गांधी, राजिव गांधी आदिकी बातें हम २५ जूनको करेंगे. किन्तु नहेरुवीयन कोंग्रेस अलगतावादी मुस्लिम नेताओंसे पीछे नहीं है.

नहेरुवीयन कोंग्रेस अपने सांस्कृतिक फरजंदोंसे सिखती भी है.

यह कौनसी सिख है?

शिवसेना नहेरुवीयन कोंग्रेसका फरज़ंद है.

जैनोंके पर्युषणके पर्व पर मांसकी विक्री पर कुछ दिनोंके लिये रोक लगाई तो शिवसेनाके कार्यकर सडक पर उतर आये. और उन्होंने इस आदेशके विरोधमें मांसकी विक्री सडक पर की. (यदि वेश्यागमन पर शासन निषेध लाता तो क्या शिवसेनावाले सडक पर आके वेश्यागमन करते?)

गाय-बछडेका चूनाव चिन्हवाली नहेरुवीयन कोंग्रेसने शिवसेनासे क्या सिखा?

नहेरुवीयन कोंग्रेसको शिवसेनासे प्रेरणा मिली.

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यह बात नहेरुवीयन कोंग्रेसके संस्कारके अनुरुप है. नहेरुवीयन कोंग्रेसने चिंतन किया. निष्कर्ष निकाला कि गौवध-बिक्री-नियमन वाला विषय उपर प्रतिकार करना यह मुस्लिमोंको और ख्रीस्तीयोंको आनंदित करनेका अतिसुंदर अवसर है.

केन्द्र सरकारने तो गौ-वंशकी यत्किंचित प्रजातियोंकी विक्रीके नियमोंको सुग्रथित किया और नहेरुवीयन कोंग्रेसकी यथेच्छ रक्खी क्षतियोंको दूर किया ताकि स्वस्थ और  युवापशुओंकी हत्या न हो सके.

अद्यपर्यंत ऐसा होता था कि कतलखाने वाले, पशुबिक्रीके मेलोंमेंसे, बडी मात्रामें  पशुओंका क्रयन करते थे. और स्वयंके निश्चित चिकित्सकोंका प्रमाणपत्र लेके हत्या कर देते थे.

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आदित्यनाथने अवैध कतलखानोंको बंद करवाया तो नहेरुवीयन कोंग्रेसवालोंने और उनके सांस्कृतिक साथीयोंने कोलाहल मचा दिया और न्यायालयमें भी मामला ले गये कि शासक, कौन क्या खाये उसके उपर अपना नियंत्रण रखना चाहता है. अधिकतर समाचार माध्यमोंने भी अपना ऐसा ही सूर निकाला.

बीजेपीने गौ-वंशकी यत्किंचित प्रजातियोंकी विक्रीके नियमोंको सुग्रथित करनेवाला जो अध्यादेश जारी किया तो नहेरुवीयन कोंग्रेसको लगा कि कोमवाद फैलानेका यह अत्याधिक सुंदर अवसर है.

केरलमें नहेरुवीयन कोंग्रेसके कई सदस्य सडक पर आ गये. एक बछडा भी लाये. नहेरुवीयन कोंग्रेसके सदस्योंने बछडेको सरे आम काटा भी. नहेरुवीयन कोंग्रेसके सदस्योंने बछडेके मांसको सडक पर ही एक चूल्हा बनाके अग्निपर पकाया भी. नहेरुवीयन कोंग्रेसके सदस्योंने इस मांसको बडे आनंदपूर्वक खाया भी.

भोजनका भोजन विरोधका विरोध

अपने चरित्रके अनुरुप नहेरुवीयन कोंग्रेस केवल जूठ ही बोलती है और जूठके सिवा और कुछ नहीं बोलती. तो अन्य प्रदेशके नहेरुवीयन नेताओंने तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है और बीजेपी व्यर्थ ही नहेरुवीयन कोंग्रेसको बदनाम कर रही है ऐसे कथन पर ही अडे रहे. लेकिन जब यह घटनाकी वीडीयो क्लीप सामाजिक माध्यमों पर और समाचार माध्यमों पर चलने लगी तो उन्होंने बडी चतुराईसे शब्द प्रयोग किये कि “केरलमें जो घटना घटी उसकी हम निंदा करते है. ऐसी घटना घटित होना अच्छी बात नहीं है चाहे ऐसी घटना बीजेपीके कारण घटी हो या अन्योंके कारण. हमारे पक्षने ऐसे सदस्योंको निलंबित किया है.” नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेतागण घटनाका विवरण करनेसे वे बचते रहे. एक नेताने कहा कि हमने सदस्योंको निलंबित किया है. अन्य एक नेताने कहा कि हमने निष्कासित किया है. क्या नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेतागण अनपढ है? क्या वे सही शब्दप्रयोग नहीं कर सकते?

मस्जिदमें गयो तो ज कोन

केरलकी सरकार भी तो साम्यवादीयोंकी गठबंधनवाली सरकार है. सरकारने कहा कि “हमने कुछ  व्यक्तियोंपर धार्मिकभावना भडकानेवाला केस दर्ज किया है.

साम्यवादी पक्षके गठबंधनवाली सरकार भी नहेरुवीयन कोंग्रेससे कम नहीं है. वास्तवमें यह किस्सा केवल धार्मिक भावना भडकानेवाला नहीं है. केरलकी सरकारके आचार पर कई प्रश्नचिन्ह उठते है.

कौन व्यक्ति पशुकी हत्या कर सकता है?

क्या कोई भी व्यक्ति पशु की हत्या कर सकता है?

क्या कोई भी व्यक्ति कोई भी स्थान पर पशुकी हत्या कर सकता है?

क्या कोई भी व्यक्ति किसी भी अस्त्रसे पशुकी हत्या कर सकता है?

क्या कोई भी व्यक्ति कहीं भी चुल्हा जला सकता है?

क्या कोई भी व्यक्ति कहीं भी खाना पका सकता है?

वास्तवमें पशुओंको काटनेकी आचार संहिता है. यह आचार संहिता कतलखानोंके नियमोंके अंतर्गत निर्दिष्ट है.

नहेरुवीयन कोंग्रेस एक, ठग-संगठन है. जनतंत्रमें अहिंसक विरोध प्रदर्शित करना एक अधिकार है. किन्तु कानूनभंगका अधिकार नहीं है. सविनय कानूनभंग करना एक रीति है. किन्तु उसमें आपको शासनको एक प्रार्थनापत्र द्वारा अवगत कराना पडता है कि आप निश्चित दिवस पर, निश्चित समयपर, निश्चित व्यक्तिओं द्वारा, निश्चित नियमका, भंग करनेवाले है. नियमभंगका कारणका विवरण भी देना पडता है. और इन सबके पहेले शासनके अधिकृत व्यक्ति/व्यक्तियोंसे चर्चा करनी पडती है. उन विचारविमर्शके अंतर्गत आपने यह अनुभूति हुई कि शासनके पास कोई उत्तर नहीं है, तभी आप सविनय नियमभंग कर सकते है. जब नहेरुवीयन कोंग्रेसके शिर्षनेताओंको भी महात्मागांधीके सविनय कानूनभंगकी प्रक्रिया अवगत नहीं है तो इनके सिपोय-सपरोंको क्या खाक अवगत होगा? केरलकी घटना तो एक उदाहरण है. ऐसे तो अगणित उदाहरण आपको मिल जायेंगे.

नहेरुवीयन कोंग्रेस करनेवाली है मानवभ्रूणका भोजन-समारंभ

नहेरुवीयन कोंग्रेसको मानवभ्रुणके मांसके भोजन के लिये भी आगे आना चाहिये. साम्यवादी लोग, नहेरुवीयन कोंग्रेसको अवश्य सहयोग करेंगे, क्यों कि, चीनमें मानवभ्रुणका मांस खाया जाता है. साम्यवादी लोगोंका कर्तव्य है कि वे लोग चीन जैसे शक्तिशाली देशकी आचार संहिताका पालन करें वह भी मुख्यतः जिन पर भारतमें निषेध है. और नहेरुवीयन कोंग्रेस तो साम्यवादीयोंकी सांस्कृतिक सहयोगी है.

नहेरुवीयन कोंग्रेसके प्रेरणास्रोत

तैमुर, महम्मद गझनवी, महम्मद घोरी, अल्लौदीन खीलजी, आदि मुसलमान राजा तो मुसलमानोंके प्रेरणास्रोत है. ऐसे मुसलमान कोई सामान्य कक्षाके नहीं है. आप यह प्रश्न मत उठाओ कि तैमुर, महम्मद गझनवी, महम्मद घोरी, अल्लौदीन खीलजी, आदि मुसलमान राजाओंने तो हमारे मुसलमान भाईओंके पूर्वजोंका कत्ल किया था. किन्तु यह बात स्वाभाविक है जब आप मुसलमान बनते है तो आपके कोई भारतीय पूर्वज नहीं होते, या तो आप आसमानसे उतरे है या तो आप अरबी है या तो आप अपने पूर्वजोंकी संतान नहीं है. इसी लिये तैमुर, महम्मद गझनवी, महम्मद घोरी, अल्लौदीन खीलजी, आदि मुसलमान राजा आपके प्रेरणास्रोत बनते है. यदि आप सीधे आसमानसे उतरे हैं तो यह तो एक चमत्कार है. किन्तु मोहम्मद साहब तो चमत्कारके विरुद्ध थे. तो आप समज़ लो कि आप कौन है. किन्तु इस विवादको छोड दो. ख्रीस्ती लोग भी मुसलमान है. क्यों कि मुसलमान भी ईसा को मसिहा मानते है. या तो मुसलमान, ख्रीस्ती है, या तो ख्रीस्ती, मुसलमान है. जैसे वैष्णव लोग और स्वामीनारयण लोग हिन्दु है.

नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक साथीयोंको मुसलमानोंका अपूर्ण कार्यको, पूर्ण करना है, इस लिये उनका कर्तव्य बनता है कि जो कार्य मुसलमानोंने भूतकालमें किया उसीको नहेरुवीयन कोंग्रेस आगे बढावे. मुसलमानोंने सोमनाथके मंदिरको बार बार तोडा है. हिन्दुओंने उसको बार बार बनाया है. तो अब नहेरुवीयन कोंग्रेसका धर्म बनता है कि वे पूनर्स्थापित सोमनाथ मंदिरको भी ध्वस्त करें.

देशको तो तैमुर, महम्मद गझनवी, महम्मद घोरी, अल्लौदीन खीलजी, आदि मुसलमानोंने लूटा था. अंग्रेजोने भी लूटा था. नहेरुवीयन कोंग्रेस ६० वर्षों तक लूटती ही रही है, किन्तु नहेरुवीयन कोंग्रेसने अभीतक सोमनाथ मंदिर तोडा नहीं है. तो अब नहेरुवीयन कोंग्रेस वह भी तोडके बता दें कि वह अल्पसंख्यकोंके प्रति कितनी प्रतिबद्ध है.

शिरीष मोहनलाल दवे

 

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My blood is boiling on the episode of Jinna Nehru University (JNU), and the reaction of Pseudo-s which includes Nehruvian Congress and its culturally associates gangs inclusive of some of the media. These people are trying to present this case to make it political and as a conflict between two parties viz. BJP and Anti-BJPs. These people are illogical and talks without material or they talk with misinterpreted material. Expose these traitors. Hit them back very hard. Ask the Government to arrest them and to prosecute them.

जे.एन.यु. जीन्ना नहेरु युनीवर्सीटी, मार दिया जाय, न कि, छोड दिया जाय. पार्ट – ३

मेरा रक्त उबल जाता है, जब जीन्ना नहेरु विश्वविद्यालय की घटना पर दंभी और ठग लोगोंकी प्रतिक्रिया और चापलुसी देखता हूँ.
ये सब लोग कुछ वकीलोंके लॉ हाथमें लेनेकी घटना पर अत्याधिक कवरेज देते हैं. और देश विरोधी सुत्रोंको न्यायलयके अर्थघटनके हवाले छोड देते हैं.

क्या उनका शाश्वत ऐसा चरित्र रहा है?

वे कहेते हैं कि वकीलोंका काम न्यायालय के द्वारा न्याय दिलाना है, और यहां पर वकील स्वयं न्याय देने बैठ गये.

तथा कथित महानुभावोंका यह तर्क आंशिक रुपसे सही है.

लेकिन सभी वकीलोंको आप मात्र ही मात्र वकीलके रुपमें नहीं देख सकतें. वकील भी शाश्वत वकील नहीं होता है. वह भी आवेशमें आ जाता है. देशप्रेम एक ऐसी संवेदनशील अभिव्यक्ति है कि, कोई भी देशप्रेमी आवेशमें आजा सकता है. याद करो, सुभाषचंद्र बोस, अपनी बिमार मां को छोडके देशप्रेमके कारण निकल पडे थे.

एक और जो कदाचित कुछ लोगोंको अप्रस्तूत लगे तो भी इसको समज़े.

वकीलोंको कभी आपने स्ट्राईक जाते देखा है?

हाँ अवश्य देखा है.

वकीलोंका काम न्यायालय के द्वारा न्याय दिलाना है, और यहां पर वकील स्वयं न्याय देने बैठ गये. क्या वे स्वयंको न्याय दिला नहीं सकते हैं? यदि ऐसा ही है तो वे वकील बने ही क्यों? लिकिन मैंने देखा है कि कोई वर्तमान पत्रने वकीलोंकी ट्राईकके बारेमें ऐसी टीका की नहीं.
तब ये उपरोक्त महानुभावोंका तर्क “वकीलोंका काम न्यायालय के द्वारा न्याय दिलाना है” कहां गायब हो जाता है?
याद रक्खो, इसमें आक्रमक वकीलका कोई स्वार्थ नहीं था.
वकीलकी पतियाला कॉर्टकी घटनाको उसके परिपेक्ष्यमें लेनी चाहिये और सीमा के बाहर जाके महत्व देना नहीं चाहिये. क्राउडकी आवेशकी अभिव्यक्ति और प्रतिक्रिया भीन्न होती है इस बातको बहुश्रुत विद्वानोंको समज़ना चाहिये.

आप कहोगे कि यह तर्क जे.एन.यु. के छात्र समूहको क्यों लागु करना नहीं चाहिये?

आप घटनाक्रम देखिये और प्रमाणभानकी प्रज्ञा और प्राथमिकता की प्रज्ञाका उपयोग किजीये.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रमाणित एक आतंकवादीको सज़ा दी.
आप कहोगे कि क्या सर्वोच्च न्यायालयके दिये हुए न्याय के विरुद्ध बोलनेकी आज़ादी नहीं है?

हां न्यायालयके दिये हुए न्याय के विरुद्ध बोलनेकी आज़ादी है.

लेकिन सभी आज़ादी असीमित नहीं है. न्याय मात्र, माहिति, तर्क और घटनाचक्रसे संलग्न होता है. यदि आतंकीको न्याय दिलाने के लिये कन्हैया और उसके साथीयोंके पास कुछ और, माहिति थी तो आतंकीको बचाने के लिये उन्होंने उस माहितिको, न्यायालयके सामने प्रस्तूत क्यूँ नहीं किया?

कन्हैया और उसके साथीयोंका उत्तरदायित्व

कन्हैया और उसके साथीयोंका सर्वप्रथम यह उत्तरदायित्व बनता है कि इस बातको समज़ाएं. दुसरी बात यह है कि यदि उनके पास जो माहिति और तर्क है उससे वे जनता को समज़ावें कि कैसे वह आतंकी निर्दोष था. सुत्रोच्चार करनेसे सत्य सिद्ध नहीं हो जाता है.

विश्वविद्यालय एक शिक्षण संस्था है. शिक्षण संस्था और न्यायालय दोनोंका क्षेत्र भीन्न भीन्न है. शिक्षण संस्थाका उपयोग कन्हैया और उसके साथीयोंने जो किया इससे शिक्षण संस्थाके कार्यमें बाधा पडती है. शिक्षाका अधिकार भी मानव अधिकार है. इसका हनन करना मानव अधिकारका हनन है. यदि यह शिक्षा संस्था सरकारी है तो सरकारी सेवामें बाधा डाली है ऐसा अर्थघटन भी अवश्य हो सकता है. उतना ही नहीं एक संस्था जिस कार्यके लिये है उसके बदले उसका उपयोग जबरदस्तीसे दूसरे कार्यमें किया गया वह भी गुनाह बनता है.

जनतंत्र संवादसे चलाता है

बिना तर्क, और वह भी देशके विरुद्ध और देशका विभाजन, देशके समाजका विभाजन और विघातक बातोंको फैलाके जनताको गुमराह करना जघन्य अपराध ही बनता है. बिना तर्क, बिना तथ्य और देशके विरुद्ध बात करनेकी आज़ादी किसीको नहीं दी जा सकती. जनतंत्र संवादसे चलाता है, सूत्रोंसे और महाध्वनिसे नहीं.
न्यायके लिये न्यायालय है. न्यायालयके सुनिश्चित प्रणालीयोंके द्वारा ही न्याय लेना तर्कसंगत है. यदि ऐसा नहीं हुआ तो अराजकता फैल जायेगी. यदि कोई अराजकता फैलानेकी दिशामें प्रयत्न करता है तो उसको देशद्रोह ही समज़ना पडेगा.

Coterie Dance of Nehruvian Congress of India Private Limited(Curtsy of the Cartoonists)

वितंडावादी पत्रकारित्व और अफवाहें

एक समाचार पत्रके कटारीयाभाईने (केतन भगतभाईने) जे.एन.यु. की घटनाकी प्रतिक्रियाको बीजेपी और एन्टी-बीजेपीका मामला बताया. कुछ समाचार पत्रोंने इस प्रतिक्रियाको “बीजेपीका दांव निस्फळ” ऐसा सिद्ध करने की कोशिस की.

एक समाचार पत्रने एक ऐसा तर्क दिया कि “गांधीवादी साहित्य यदि किसीके पाससे मिले तो वह गांधीवादी नहीं हो जाता है, उसी तरह यदि किसीके पाससे आतंकवादी साहित्य मिले तो वह आतंकवादी नहीं बन जाता”.

आमकक्षाके व्यक्तिको इसमें तथ्य दिखाई दे यह संभव है.

किन्तु सूत्रोंका अर्थघटन, उनको अलिप्त (आईसोलेटेड) रखकर, घटनाका अर्थघटन, घटनाको अलिप्त रखकर, वास्तविक सत्यको समज़ा नहीं जा सकता.

निम्न लिखित एक घटनाको समज़ो.

एक अश्वेत अपने घरमें बैठा था. इतनेमें खीडकी खूली और एक श्वेत शक्ख्स दिखाई दिया. तो अश्वेतने उसको गोली मार दी.
अब अश्वेत पर मुकद्दमा चला. न्यायाधीशने पूरी बातें सूनके अश्वेतको निर्दोष बताया. यदि न्यायाधीश इस घटनाको आईसोलेशनमें देखता तो?

किन्तु न्यायाधीशने इस घटनाका संदर्भ और माहोल देखा. वह जो माहोल था उसके आधार पर न्यायाधीशने उसको छोड दिया. वह क्या माहोल था? उस देशमें श्वेत और अश्वेत आमने सामने आगये थे. श्वेत लोगोंने हाहाकार मचा दिया था. श्वेत लोग, अश्वेतको देखते ही गोली मारने लगे थे. इसमें अफवाहें भी हो सकती है.

माहोल ऐसा था. वह अश्वेत अपने घरमें बैठा था. खीडकी खूली और एक श्वेत शक्ख्स दिखाई दिया. तो अश्वेत बहूत गभरा गया. अश्वेतको लगा कि वह श्वेत उसको गोली मार देगा. अश्वेतके पास बंदूक थी उसने गोली मार दी. वास्त्वमें वह श्वेत तो एक सीधा सादा निर्दोष श्वेत था.

कश्मिरमें हिन्दुओंके साथ क्या हुआ?

नहेरुवीयन कोंग्रेसके नहेरुवीयन फरजंद राजीव गांधीकी केन्द्रमें सरकार थी. उसकी सहयोगी सरकार कश्मिरमें थी. हिन्दुओं पर यातनाएं बढ रही थीं. १९८७से मुस्लिमोंने आतंककी सभी सीमाए पार कर दी. मस्जीदोंसे लाउड स्पीकर बोलने लगे. दिवारोंपर पोस्टर चिपकने लगे, समाचार पत्रोंमे चेतावनी छपने लगी, लाउड स्पीकरके साथ घुमने वाले वाहनोंमेसे लगातार आवाज़ निकलने लगी कि ऑ! हिन्दुओ ईस्लाम कबुल करो या तो कश्मिर छोडके भाग जाओ. यदि ऐसा नहीं किया तो मौतके लिये तैयार रहो. कश्मिर सिर्फ मुस्लिमोंका है. मुस्लिम लोग इश्तिहारमें कट-ऑफ डेट भी बताते थे.

नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक साथी पक्षोंने भारतकी जनताको अनभिज्ञ रक्खा.

समाचार माध्यम मौन रहे.

कश्मिरकी सरकार निस्क्रीय रही.

सुरक्षा दल निस्क्रीय रहा. ३०००+ हिन्दुओंकी खुल्ले आम कत्ल हुई. ५०००००+ हिन्दुओंको भगाया.

अपने ही देशमें हिन्दु निर्वासित हो गये वे भी आज तक २५ साल तक.

न कोई गिरफ्तारी हुई,

न कोई एफ.आई.आर. दर्ज हुई,

न कोई जांच एजन्सी बैठी,

न कोई मानव अधिकारकी बात हुई,

न कोई इस्तिफा मांगा गया,

न तो हिन्दुओंकी तरफसे कोई प्रतिकार हुआ.

न कोई फिलम बनीं,

न कोई वार्ता लिखी गयी,

न किसीने मुस्लिम असहिष्णुता पर चंद्रक वापिस किये,

वास्तवमें हर कत्ल और हर निर्वासितके पीछे एक बडी दुःखद कहानी है

ऐसे कश्मिरके कुछ लोग जे.एन.यु. में आये और उन्होंने आजादीके सुत्रोच्चार किया. भारतको टूकडे टूकडे करनेकी बात की, और हमारे दंभी मूर्धन्य विश्लेषक महानुभाव इन सुत्रोंको आईसोलेशनमें रखकर अर्थघटन करके बोलते है कि कोई गद्दारीका केस नहीं बनता.

वास्तवमें तो जो आज़ादीकी बाते करते हैं उनको दुसरोंके यानी कि, कश्मिरी हिन्दुओंके मानव अधिकारोंकी रक्षा करना चाहिये. जो दुसरोंके मानव अधिकारोंका हक्क छीन लेते हैं और दशकों तक उनको वंचित रखते हैं. ऐसे लोगोंका आज़ादीकी बात करनेका हक्क बनता नहीं है. और वैसे भी उनको कौनसी आज़ादी चाहिये और किससे आज़ादी चाहिये? कौनसा संविधान चाहिये? कश्मिर तो भारतीय संस्कृतिका अभीन्न अंग है. वहां उनकी ही त सरकार है.

महात्मा गांधी और आतंकी का फर्क समज़ो

“गांधी साहित्य घरमें रखनेसे कोई गांधीवादी माना नहीं जा सकता” इसका हम विश्लेषण करें

गांधीवादी साहित्य एक विचार है. उसमें तर्क है. गांधीवादी बनना एक लंबी प्रक्रिया है.

आतंकवाद एक आवेश है आतंकवाद एक संकूचित आचार है.

आतंकवाद विभाजनवादी है और विघातक है. आतंकवादीका मनोविष्लेषण करना एक शैक्षणिक वृत्ति हो सकती है.

चूंकि गांधी साहित्य और आतंकवादी साहित्य एक दुसरेसे विरुद्ध है, जिनके पास आतंकवादी साहित्य होता है उसको सिद्ध करना होता है कि उसका आतंकवादसे कोई संबंध नहीं है. आतंकवाद प्रस्थापित न्यायप्रणाली और जनतंत्र के विरोधमें है इस लिये वह समाजके लिये घातक भी है. जिन लोगोंके पाससे ऐसा साहित्य मिलता है, उसकी प्रश्नोत्तरी होती है, उसके साथीयोंकी, संबंधीयोंकी, रिस्तेदारोंकी भी प्रश्नोत्तरी होती है. यदि उसमें विरोधाभास मिले तो उसका आतंकवादीयोंसे संबंध सिद्ध हो जाता है.

डरपोक नारेबाज़

एक सूत्रोच्चारी भगौडेके पिताश्रीने कहा कि उसका पुत्र देशद्रोही नहीं है. जब उसके पुत्र द्वारा किये गये देशविरोधी सुत्रोच्चारके बारेमें उससे प्रश्न पूछा गया, तो उसने कहा कि उसका निर्णय अदालत को करने दो. जो दिखाई देता है वह उसको देखना नहीं है. आज़ादीके नारे लगानेवाला खुदके लिये सुरक्षाकी मांग करता है. वह भूल जाता है कि आज़ादीकी लडत तो निडर लोगोंका काम है. क्या गांधीजी और शहिद भगत सिंहने कभी ब्रीटीश सरकारसे सुरक्षाकी मांग की थी?
अराजकताका माहोल बनाना चाहते हैं

कई दंभी समाचार माध्यम समाजके विघातक परिबलोंको उत्तेजित करते है. अनामत उसका उत्तम उदाहरण है. ये समाचार माध्यमके लोग इसकी तात्विक और तार्किक चर्चा कतई नहीं करते. जाटों और पाटीदारोंके अनरेस्टके समाचारोंको बेहद कवरेज देतें हैं ताकि उनका उत्साह बढे. ये लोग ऐसा माहोल बनाते है कि सरकार उनकी समस्यामें बराबर फंसी है. समाचार माध्यम सरकारकी निस्फलता पर तालीयां बजाता है. समाजके इन वर्गोंकी विघातक प्रवृत्तियोंको समाचार माध्यम उजागर नहीं करता और न हि उसकी बुराई करता है. मार्ग यातायात रोक देना, रेलको उखाड देना, रेल रोकना, रेलरुटोंकों रद करनेके कारण रेलको नुकशान होना, बस स्टोपोंको जला देना, पूलिस चौकीको जला देना, आदिकी निंदा ये समाचार माध्यम कभी नहीं करता. लेकिन पूलिस एक्सन पर इन्क्वायरी की मांगको और पूलिस एक्सेसीस की मांगको उजागर करते हैं और उसको ही कवरेज दिया करते है. जाट और पाटीदार के समाचार साथ साथ देते हैं ताकि पाटीदारोंका उत्साह बढे और फिरसे जोरदार आंदोलन करें ताकि समाज जीवन अस्तव्यस्त हो जाय. और वे जनता को बतादें कि देखो बीजेपीके राजमें कैसी अराजकता फैल गयी है.

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्ज़ः जे.एन.यु. , जीन्ना नहेरु युनीवर्सीटी, मेरा रक्त, वकील, न्यायालय, न्याय, सुभास चंद्र बोस, वकीलोंकी स्ट्राईक, पतियाला कॉर्ट, तर्क, माहिति, घटनाचक्र, माहोल, आईसोलेशन, विश्वविद्यालय शिक्षण संस्था, सरकारी सेवामें बाधा, अर्थघटन, आतंकवाद विघातक, वितंडावादी पत्रकारित्व, कश्मिरी हिन्दुओंके मानव अधिकार, ३०००+ कश्मिरी हिन्दुओंकी कत्ल, गांधी साहित्य, आतंकवादी साहित्य, मनोविश्लेषण, समाचार माध्यम, अराजकता

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जो भय था वह वास्तविकता बना (बिहारका परिणाम) भाग

दाद्रीकी घटानाको उछालके यह महाठग महाधूर्त महागठबंधन काफी सफल रहा.

सफल होनेका श्रेय, समाचार माध्यम, नहेरुवीयन कोंग्रेस, महा गठबंधन और कुछ दंभी धर्मनिरपेक्ष गेंग, ये चारों चंडाल चौकडीने मिलके जो महाठग बंधन करके जो रणनीति बनायी थी उसको जाता है.

महागठबंधन और महागठबंधनमें क्या भेद है?

महागठबंधन नहेरुवीयन कोंग्रेस, आरजेडी और जेडीयु इन तीनोंने मिलकर एक चूनावी और सत्तामें भागीदारी करने के लिये एक गठबंधन बनाया है वह है. महाठग गठबंधन एक ऐसा गठबंधन है जिनका एक मात्र हेतु बीजेपीको चूनावमें हराना है. और अपने धंधे चालु रखना है. उनके अनेक धंधेमें सत्ताकी प्रत्यक्ष और परोक्ष भागबटाइ, अयोग्य रीतीयोंसे पैसे कमाना और देशकी आम जनताको गुमराह करके गरीबी कायम रखना ताकि आम जनता विभाजित और गरीब ही रहे

महाठगगठबंधनकी पूर्व निश्चित प्रपंचकारी और विघातक योजना

बीजेपीने विकासके मुद्दे पर ही अपना एजन्डा बनाया था. किन्तु यदि परपक्ष, यानी उपरोक्त महाठगोंका गठबंधन, कोमवादका मुद्दा उठावे तो उसको कैसे निपटा जाय, उसके लिये बीजेपी संपूर्ण रीतसे सज्ज  नहीं था. महाठगगठबंधन, दाद्रीकी घटनाको, मीडीया और दंभी धर्मनिरपेक्ष गेंग के सहारे कोमवाद पर ले गया.

जब भी चूनाव आता है और जब हवा नहेरुवीयन कोंग्रेसकी विरुद्धमें होती है तो कोमी भावना भडकाना नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासनमें और उसके सांस्कृतिक पक्षके शासनमें एक आम बात है.

आरएस एस, वीएचपी और कुछ बीजेपी नेता भी बेवकुफ बनकर, समाचार माध्यमोंकी हवामें आके उसको हिन्दुमान्यताके परिपेक्ष्यमें आक्रमक बनके प्रत्याघात देने गतें हैं. वास्तवमें बीजेपीको गौवध वाले कोमवादी उस मुद्देको तर्क और अप्रस्तूतताके आधार पर लेजाके उसका खंडन करनेका था. बीजेपी नेतागण उपरोक्त महाठग बंधनी पूर्व निश्चित चाल नहीं समझ पाये. बीजेपी नेतागण को समझना चाहिये कि नहेरुवीयन कोंग्रेस चूनावकी रणनीति बनानेमें उस्ताद है. इसी कारण वह महाभ्रष्ट होनेके बावजूद, भारत जैसी महान और प्राचीन धरोहरवाले देश पर ६० वर्ष जैसे सुदीर्घ समयका शासन कर पाई.

शत्रु को कभी निर्बल समझना नहीं चाहिये.

आरएसएस और वीएचपीमें बेवकूफोंकी कमी नहीं है. ये लोग कई बार सोसीयल मीडीयामें वैसे भी फालतु, असंबद्ध और आधारहीन वार्ताएं लिखा करते हैं, जिससे बीजेपीकी भी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाते है.

जनताके कई पढे लिखे लोग यह नहीं समझ सकते की आरएसएस और वीएचपी के लोग सिर्फ मतदाता है. यह बात सही कि, वे बीजेपीके निश्चित मतदाता है. हर सुनिश्चित मतदाता अपने मनपसंद पक्षका प्रचार करता है ऐसा नहीं है. इसका अर्थ यह नहीं कि हर सुनिश्चित मान्यतावाला मतदाता अपने पक्षका प्रचार करे ही नहीं. क्यों कि किसी मतदाताको आप प्रचार करनेमेंसे रोक नहीं सकते. यदि वह अपने पक्षका प्रचार करे या तो परपक्षके उठाये गये प्रश्नोंका उत्तर दें तो यह मानना नहीं चाहिये कि उसका अभिप्राय वह पक्षकी विचारधारा है. यदि महाठग गठबंधन आरएसएस या वीएचपी के उच्चारणोंको बीजेपीकी विचारधारा मानता है तो

कोमवादी और आतंकवादी मुस्लिम जो कुछ भी बोले वह युपीएकी विचारधारा है 

जैसे अधिकतर मुसलमान और कुछ अन्य जुथ नहेरुवीयन कोंग्रेस या तो उसके सांस्क्रुतिक पक्षके सुनिश्चित मतदाता है. वे कई बातें अनापसनाप बोलते हैं और कुतर्क भी करते हैं. उनकी बातें भी तो  नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्क्रुतिक साथीयोंकी विचारधारा है समज़नी चाहिये. समाचार माध्यमको ऐसा ही समज़ना चाहिये. वे दोहरा मापदंड क्यों चलाते है? अकबरुद्दीन ओवैसी, फारुख, ओमर, गीलानी, आजमखान, लालु, पप्पु, अरुन्धती, तित्सा, मेधा, आदि आदि जो भी कोमवादको बढावा देनेवाले उच्चारण करते है वे सब नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके सांस्कृतिक साथी है वे जो कुछभी बोले वह नहेरुवीयन कोंग्रेसकी ही विचार धारा है.

विडंबना और कुतर्क तो यह है कि, नहेरुवीयन कोंग्रेस तो उसके प्रवक्ताओंके भी कई उच्चारणोंको उनकी निजी मान्यता है ऐसा बताती है. यहां तक कि यदि नहेरुवीयन कोंग्रेसका उप प्रमुख, नहेरुवीयन कोंग्रेसके मंत्री मंडलने पारित प्रस्ताव विधेयक को फाडके फैंक तो भी वह इस घटनाका उल्लेख पक्षके  उपप्रमुखका नीजी अभिप्राय बताता है. बादमें उसी प्रस्तावमें संशोधन करता है. वैसा ही इस नहेरुवीयन कोंग्रेसने कोमवादी नेताओंके विरोधी प्रतिभावोंके चलते शाहबानो की न्यायिक घटनाके विषय पर संविधानमें संशोधन किया था. तात्पर्य यह है कि ऐसे सुनिश्चित मतदाता जुथोंके मंतव्य, वास्तविक रुपसे नहेरुवीयन कोंग्रेसकी विचारधारा होती ही है. नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताओंका स्थान आजिवन कारावासमें या फांसीका फंदा ही है. आरएसएस या वीएचपी के लोग तो बीजेपीके शासनके सहयोगी भी नहीं है. दोनोंकी प्राथमिकताए और मान्यताएं भीन्न भीन्न है. तो इनके भी बयान बीजेपीका सरकारी बयान नहीं माने जा सकते.

बिहारमें दंभी धर्मनिरपेक्षोंका विभाजनवादी नग्न नृत्य

बीजेपी एक राष्ट्रीय पक्ष है. अमित शाह, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, आदि सब भारतके नागरिक है.

महाठगगठबंधनके नेताओं की विभाजनवादी  मानसिकताका अधमाधम प्रदर्शन देखो.

बिहारमेंसे बाहरीको भगाओ

अमित शाह, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, स्मृति ईरानी, आदि को नीतीशकुमार और उसके साथी बाहरी मानते है. ऐसे बाहरी लोगोंको बिहारमें प्रचारके लिये नहीं आना चाहिये. बिहारमें केवल बिहारी नेताओंको ही चूनाव प्रचारके लिये आना चाहिये.

इसी मानसिकतासे नीतीशकुमार अपनी चूनाव प्रचार सभामें जनताको कहेते थे कि आपको चूनाव प्रचारमें कौन चाहिये, बिहारी या बाहरी?

तात्पर्य यह है कि, बिहारमें चूनाव प्रचारका अधिकार केवल बिहारीयोंका ही है. बाहरी लोगोंका कोई अधिकार मान्य करना नहीं चाहिये. महाठगगठबंधनके किसी नेताने नीतीशकी ये विभाजन वादी मानसिकताका विरोध नहीं किया. इतना ही महाठगगठबंधनके लोगोंने तालीयां बजायी. समाचार माध्यमके विश्लेषकोंने भी इसका विभाजनवादी भयस्थानको उजागर नहीं किया क्यों कि वे हर हालतमें बीजेपीको परास्त करना चाहते थे. महाठगगठबंधनके नेताओंका यह चरित्र है कि देशकी जनता विभाजित हो जाय और देश कभी आबाद बने और वे सत्तामें बने रहें और मालदार बनें.

नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक साथीयोंका ध्येय रहा है कि, देशकी जनता विभाजित होती ही रहे और खुदका हित बना रहे.

बाहरी और बिहारीसे क्या निष्कर्ष निकलता है?

महागठबंधन बिहारकी जनताको यह संदेश देना चाह्ता है कि बिहारमें हमे चूनाव प्रचारमें भी बाहरी लोग नहीं चाहिये. यदि चूनाव प्रचारमें भी बाहरी और बिहारीका भेद करना है तो व्यवसाय और नौकरीमें तो रहेगा ही. जो लोग केवल चूनाव प्रचारके लिये आते है वे तो बिहारीयोंको कोई नुकशान नहीं करते. वे लोग तो उनको भूका मारते है तो उनकी नौकरीकी तकमें कमी करते हैं, नतो उनकी व्यवसायकी तकोंमें कमी करते है तो उनके आवासकी तकोंमे कमी करते हैं, तो भी महाठगगठबंधन बाहरी लोगोंके प्रति एक तिरस्कारकी भावना बिहारी जनतामें स्थापित करनेका भरपूर प्रचार करता है.

बिहारीबाहरी द्वंद्वका क्या असर पड सकता है. यदि बिहारमें बाहरी आवकार्य नहीं है तो जो बिहारके लोग बाहर और वह भी खास करके मुंबई, गुजरात आदि राज्योंमे जाके वहांके लोगोंकी नौकरीकी तकोंमें कमी करते हैं, वहांके लोगोंकी व्यवसायी तकोंमें कमी करते हैं और वहां जाके झोंपडपट्टी बनाके असामाजिक तत्वोंको बढावा देते हैं वहां पर महाठगगठबंधनका यही संदेश जाता है कि बिहारी लोग आपके केवल चूनाव प्रचार करनेके लिये आने वाले चाहे वह देशका प्रधान मंत्री क्यों हो, उसको बहारी समज़ते है और अस्विकार्य बनते है. महाराष्ट्रके नीतिन गडकरी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, नरेन्द्र मोदी बाहरी है ऐसा थापा, बिहारकी जनता मारती है, तो बिहारके लोग भी गुजरात, महाराष्ट्र, मुंबई आदिमें बाहरी ही है. ये बिहारके बाहरी लोगोंको नौकरी और व्यवसाय आदिके लिये अस्विकार्य बनाओ. महाठगगठबंधनके नेताओंने यही संदेश दिया है, इस लिये यदि महाराष्ट्र, गुजरात और युपीके लोग बिहारीयोंको बाह्य समज़के उसको नौकरी, व्यवसाय, सेवा आदिके लिये अस्विकार्य करें तो इस आचारकी भर्त्सना करना अब तो बिहारीयोंका हक्क है नतो महाठगगठबंधनके लोगोंका हक्क है.

महाठगगठबंधनने अपने स्वार्थ लिये देशकी जनताको एक विनाशकारी संदेश दिया है, उसके लिये उसमें संमिलित तत्वोंके उपर न्यायिक कार्यवाही होनी चाहिये. उनकी संस्थाकी या और उनके स्थान होद्देकी जो भी बंधारणीय मान्यता हो उसको तत्काल निलंबित करना चाहिये और न्यायिक कार्यवाहीके फलस्वरुप मान्यता रद होनी चाहिये.

यदि ऐसा नहीं होगा तो एक विनाशक प्रणाली स्थापित होगी जो देशकी एकता पर वज्राघात करेगी.

शिरीष मोहनलाल दवे.

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राहुल गांधीकी घरवापसी या मूंहदिखाई या राहुलवर्सन – n+1

मूंह दिखाई

मीडीया धन्य हो गया.

यदि आपको मीडीयाका निम्नसे निम्न स्तर देखना हो तो भारतके समाचार माध्यमोंको देख लिजीये.

यदि आप भारतकी प्रज्ञा पर गर्व करते हैं, तो भारतीय समाचार माध्यमों का स्तर देखके आप लज्जासे नतमस्तक हो जाओ.

वैसे तो आप नतमस्तक हो जाओ, ऐसी कई घटनाएं है, जिसमें नहेरुवीयन कोंग्रेसी संस्कार पर चलनेवाली मुस्लिम नेतागीरी भी संमिलित है, जो सतत हिन्दुओंके मानव अधिकारोंका हनन किया करती है. ये लोग तो सिद्ध देशद्रोही है, उनके विषय पर क्या चर्चा करें ! आम जनताको धीरे धीरे सबकुछ ज्ञात हो गया है.

नहेरुका जूठ

नहेरुने स्वातंत्र्यके प्रथम दशकमें कई जूठ फैलायें थे.

उस समय मीडीया माध्यम को यह ज्ञात नहीं था कि सत्य और असत्य, श्रेय और अश्रेय क्या होता है. क्यों कि उनको ऐसी प्रशिक्षा नहीं दी गयी थी. वैसे तो १९४७के पूर्व समय, स्वातंत्र्य सेनानीयोंके द्वारा संचालित कई उत्कृष्ट समाचार पत्र थे जिनसे वे बोध ले सकते थे. लेकिन भय के कारण वे अंग्रेज सल्तनत के विरुद्ध लिखना नहीं चाहते थे. हो सकता कि वे लोग शिशु अवस्थामें हो. मीडीयामें परिपक्वता नहीं आयी थी.

किन्तु यदि २८ वर्षके बाद भी मीडीया पंडित परिपक्व नहीं बन सकते है तो कारण कुछ और ही हो सकता है.

इन मीडीया मूर्धन्योंको १९७५१९७६ के अंतर्गत, नहेरुवीयन फरजंद इन्दिराने झुकनेको कहा था. किन्तु इन मीडीया मूर्धन्योंने इन्दिरा संचालित सेन्सरशीप को साष्टांग दंडवत प्रणाम करके, उसके शासन द्वारा संचालित अफवाहें फैलानेमें और शासनके भाट बननेमें कोई शर्म नहीं रक्खी.

मीडीयाकी यह अपरिपक्वता कहां तक रहेगी?

मीडीयाका एजन्डा कुछ और ही है.

मीडीयाको क्या लिखना है, कैसे लिखना है, कितना लिखना है, ये सब पूर्व निश्चित है.

वैसे तो आदर्श मीडीया का धर्म है कि, वह जनताको माहिति प्रदान करे. जनताको सुशिक्षित करें. जनताके हितमें लिखे. सत्य लिखे, प्रमाणभान रखकर लिखें, सच्चे संदर्भमें लिखें, विवेकशीलतासे लिखें और निडरतासे लिखें.

नरेन्द्र मोदीने एक बार अपने वक्तव्यमें कहा कि समाचार माध्यम अपना वाचकगण और दर्शकगण बढानेके चक्करमें उत्तेजित शब्द प्रयोग करते है. ऐसा करनेमें ये समाचार माध्यम के पंडित लो यह नहीं देखते कि समाजमें नकारात्मक वातावरण फैलता है या सकारात्मक वातावरण फैलता है? जनताको सत्य अधिगत होता है या असत्य अधिगत होता है?   

सकारात्मक समाचारकी अखबारी परिभाषाः

एक ख्यातनाम समाचार पत्रने नरेन्द्र मोदीको लिखा कि वह, सप्ताहमें एक दिन सिर्फ सकारात्मक समाचार ही छापेगा. वैसे तो उस समाचार पत्रकी इस प्रकारकी घोषणा ही उसकी मानसिकता प्रदर्शित करती थी. क्यों कि वैसे तो प्रत्येक समाचार पत्रको हमेशा सकारात्मक समाचार ही प्रसिद्ध करना चाहिये.

लेकिन सकारात्मक समाचार की परिभाषा उस समाचार पत्र की अलग ही थी.

खून हुआ, दंगा हुआ, मारपीट हुआ, चोरी हुई, डकैती हुई, परिणित स्त्रीके साथ दुष्कर्म हुआ, सगिराके साथ दुष्कर्म हुआ, बच्चेके साथ दुष्कर्म हुआ, शिशुके साथ दुष्कर्म हुआ, विदेशीके साथ दुष्कर्म हुआ, कौनसी हिन्दु जाति द्वारा दुष्कर्म हुआ, ठगाई हुई, अकस्मात हुआ, किसीने गाली दी, कोंगीने प्रदर्शन किया, क्या क्या बोला आदि आदि ही नकारात्मक घटनाएं है.

वास्तवमें नकारात्म समाचार क्या है?

समझ लो. कोई भी घटना जब घटती है और जब वह जनमानसके दिमाग पर पडती है तब उसका असर भीन्न भीन्न प्रकारकी व्यक्ति के उपर भीन्न भीन्न होता है.

एक व्यक्ति है जो चोर है उसको यदि चोरीके समाचारसे पता चलता है कि फलां जगह पर इस प्रकारसे चोरी हुई, तो उसको चोरीका एक और तरिका मालुम हो जाता है.

जिसकी जातीय वृत्ति असंतुष्ट है उसको भी जब दुष्कर्म का समाचार मिलता है तो उसको पता चलता है कि इन इन व्यक्तियों पर ऐसे ऐसे प्रकारसे दुष्कर्म किया जा सकता है. दुसरे लोग करते है तो हम भी क्यों करें !

यदि कोई फिल्मी हिरो कहेता है कि यदि मैं सिग्रेट मूंहमें रखकर अपनी अदा बताउं तो मैं सोचनेका अभिनय कैसे करु? कोई हिरी (हिरो का स्त्रीलिंग), कहेगी मेरा शरीर मेरा है. मेरी जिंदगी मेरी है, मैं उसका जो चाहे वह करुं. … (फिर वह हिरोईन, आगे बहूत कुछ कहेती है जो समाजकी तंदुरस्तीके लिये विवादका विषय है, इसलिये यहां नहीं लिखा जा सकता).

ऐसे समाचारोंको ज्योंका त्यों और बार बार प्रसिद्ध करनेसे और ऐसे समाचारोंको ज्यादा महत्व देनेसे, वे नकारात्मक बन जाते है. यदि समाचार माध्यम, समाचारोंमे विवेकशीलता रखके समाचारको प्रसारित करता है और वह स्वयं तटस्थ बनकर पूर्व पक्ष और प्रतिपक्ष का मुद्दोंपर प्रतिक्रिया प्रकट करता है तब वे ही समाचार सकारात्मक बन जाते हैं.

एक समाचारपत्रकी मानसिकता देखो

“दिव्यभास्कर” गुजरातका एक ख्यात नाम समाचार पत्र है. वह नरेन्द्र मोदीके विदेश-प्रवासके वर्णन और विदेशप्रवासकी उपलब्धियां, केवल एक अष्टमांश पन्ने पर, और वे भी सातवें या नवमे या ग्यारवें पन्ने जो भितरके पन्ने है उनमेंसे कोई एक पन्ने पर ही प्रकट करता था.

वास्तवमे ऐसे समाचार भारतके भविष्य के विकास पर सर्वाधिक प्रभावशाली माने जाते है. तो भी हमारा यह समाचार पत्र इसको महत्व देना नहीं चाह्ता था. क्यों कि, बीजेपीके विषयमें सकारात्मक समाचार प्रकट करना, नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके सांस्कृतिक साथीयोंके लिये नकारात्मक बन जाता है.

एक हंगामेका समाचार

“आवास योजनाके एक प्रकल्प के लिये बीजेपीकी सरकारने गुजरातके एक नगरमें शिलान्यासका आयोजन किया. इस प्रसंगमें कुछ लोगोंने हंगामा किया. मंडपको तोडा, कुर्सीयां तोडी, टेबल उलट दिये. पूरे समाचार पढने पर भी आपको ऐसा कोई विवरण नहीं मिलता है कि, ऐसा क्यूं हुआ? समाचार माध्यमके लिये हेतु प्रसारित करना महत्व का नहीं. जो हंगामा हुआ उसका वर्णन ही महत्वका है क्यों कि हंगामा बीजेपी द्वारा शासित राज्यमें हुआ है. बीजेपीके लिये नकारात्मक बनता है. और यही समाचार कोंगीके लिये सकारात्मक बनता है. समाचार माध्यमकी हेतुसूचिके अनुसार, समाचार हमेशा सकारात्मक (कोंगीके लिये) होना आवश्यक है.

अभी भूकंप के बारेमें बीजेपी सरकारकी कार्यवाही प्रसंशनीय बन रही है.

कुछ नकारात्मक तो ढूंढना पडेगा.

एक रुग्णालयमें भूकंप पीडित व्यक्तियों के कपोल पर “भूकंप” का लेबल लगाया गया. कर्मचारीका हेतू केवल भूकंप पीडितोंकी पहेचान का था. क्यों कि उनकी चिकित्सा निशुल्क करनी है. समाचार माध्यमोंने हंगामा खडा कर दिया.

“रुग्णालयका अमानवीय कृत्य”. हमारे डीबीने (दिव्यभास्करने) इस समाचारको प्रथम पन्ने पर विशाल अक्षरोंमे मुद्रित किया. हांजी, नरेन्द्र मोदीकी विदेशयात्राका विवरण और उपलब्धियां देशके लिये महत्वपूर्ण नहीं है. किन्तु एक गांवके रुग्णालयके कर्मचारीका “भूकंप”का लेबल लगाना कई गुना ज्यादा सकारात्मक है.

कोंगी साथी नेता उवाच

एक नहेरुवीयन कोंगके साथी नेताने बोला “नरेन्द्र मोदी भूकंपमें भूतानीयों पर और विदेशीयों पर  ज्यादा ध्यान केन्द्रित करता है”. इस नेताने न तो कोई विवरण दिया न तो मीडीयाने कोई विवरण मांगा. नरेन्द्र मोदी सभी भूकंप पीडितोंको मनुष्य माने उसमें समाचार माध्यमोंको और कोंगी और उसके साथीयोंको आपत्ति है. उनका संस्कार है कि सभी मनुष्योंको आपत्तिके समय पर भी भीन्नतासे देखना चाहिये.        

जिन समाचारोंके प्रकट करनेके पीछेस्वार्थरहता है वे नकारात्मक होते है. क्योंकिस्वार्थनामका अखबारी तत्व सत्यको ढक देता है.

हिरण्मयेन पात्रेण, सत्यस्य अपिहितं मुखं.

स्वर्ण पात्रसे (पीले चमकिले और आकर्षक शब्दोंसें ये पीले पत्रकारत्ववाले समाचारमाध्यम के पंडितोंसे) सत्य ढक जाता है

कुछ नेताओंकी व्यक्तिओंकी ऐसी प्रकृति ही होती है.  इनमें फिल्मी हिरोहिरोईन, राजकीय पक्ष के नेता खास करके जो नये नये है या पुराने है लेकिन सत्तासे हाथ धो बैठे है, वे ऐसे मौके ढूंढते है कि उनको प्रसिद्धि मिले. ऐसे लोग पैसे देके भी समाचार प्रसिद्ध करवाते है. समाचार माध्यमको और क्या चाहिये? समाचार माध्यमको तो पैसा और वाचक वर्ग चाहिये.

मजाक करना मना है?

बीजेपी के एक नेताने कहा कि नहेरुवीयन कोंग्रेसको चमडीके कलरसे कोंप्लेक्ष (ग्रंथी) है. यदि राजिव गांधीने नाईजिरीयाकी लडकीसे (श्यामा लडकीसे) शादी कि होती तो क्या वे उसको कोंग्रेस प्रमुख बनाते?

यह तो एक प्रश्न था. जो औरत श्वेत है उसको श्वेत कहा गया. यह बात कोई बुराई तो है नहीं. नाईजिरीयाकी लडकीयोंको ( कोई व्यक्ति विशेषको श्याम कहा गया) श्याम कहा गया. यह भी कोई बडी बात तो है नहीं. वैसे तो “ब्लेक इझ ब्युटीफुल” कहा जाता है.

वैसे भी, नहेरुको श्वेत रंग के लोग ज्यादा पसंद थे. नहेरुने विदेशोंकी एम्बेसीयोंमें मूलकश्मिरीयोंकी बिना योग्यता देखें ज्यादा ही भर्ती कर दी थी. उसके कारण भारतको लज्जास्पद स्थितिमें आना पडता था. ऐसे तो कई उदाहरण है.

कमसे कम श्वेत स्त्रीको परोक्ष या प्रत्यक्ष रुपसे श्वेत कहेना, उसकी बुराई तो नहीं है. रही बात श्यामा की. लेकिन यह तो सामान्यीकरण है. यह कोई व्यक्ति विशेषकी बात नहीं है. किन्तु नहेरुवीयनोंने तो नाईजिरीया तक यह बात पहूंचा दी.

प्रमाणभान हीनता

जो कुछ भी हो. श्वेत श्यामकी इस बातको उछालना, उसके उपर टीवीमें चर्चाएं रखना, कोंगी और उसके साथीयों द्वारा संसदकी कार्यवाहीको स्थगित कर देना क्या आवश्यक है?

मीडीया का क्या यही एजंडा है? अन्य कुछ तो नहीं?

क्या यह श्याम-श्वेत” की चर्चा भारतके लिये जिवनमृत्युकी समस्या है?

क्या इस कारण किसी नेतानेत्रीने आत्महत्या कर ली है?

क्या इस बातसे कोई नेता नेत्री बिमार पड या हैं?

संवेदनशीलताका मिथ्या प्रदर्शन या हास्यवृत्तिका अभाव

एक समय महात्मा गांधीने कोई एक महाकविके संदर्भमें कहा था कियदि दूध देने वाली गैया, लात मारे तो भी सहन कर लेना चाहिये.”

उस समय तो वह महाकविके भक्तोंने या वह महाकवि खूदने कोई कोलाहल नहीं किया था.

हांजी, महाकविने यह तो अवश्य कहा किमैं गैया नहीं हूं, मैं तो सांढ हूं”. बात खतम.

लेकिन यहां पर तो सोनियाने भी यह प्रदर्शित किया कि वह कोई संवेदनहीन नहीं है, लेकिन वह उच्चकोटीकी होनेकी वजहसे, निम्नकोटीकी व्यक्तिसे की गई अभिव्यक्ति पर कोई टीका नहीं करेगी. इस प्रकर, स्वयंको उच्चस्तरकी माननेवाली व्यक्तिने अन्यको निम्न कक्षाकी दिखाने की मानसिकता प्रदर्शित तो कर ही दी. (अभी बोला अभी फोक).

यह वही सोनिया गांधी है, जिसने खूदने, गुजरातकी जनताको गोडसे कहा था और नरेन्द्र मोदीको मौतका सौदागर कहा था. और उसके पक्षके लोगोंने नरेन्द्र मोदीको जगतके हर आततायीयोंके नामसे नवाजा था और हर निम्नकक्षाके माने जाने वाले प्राणीयोंके नामसे भी नवाजा था. उस समय इन नहेरुवीयन नेताओं की और सोनीयाकी संवेदनशीलता कहां गई थी? इसको कहेते है “सौ चूहे मारके बिल्ली हज करने चली.”

मीडीया पंडितोंने कोई चर्चा नहीं चलायी

एक और नहेरुवीयन फरजंद है जो नहेरुइन्दिराकी मिक्ष्ड स्टाईल मारता है. संसदके एक सवालके उत्तरमें नहेरुने कहा थायुनोमें लाईन ऑफ कन्ट्रोलकी परिभाषा नहीं है”.

घटना कुछ इस प्रकार थी. नहेरु चीनके चाहक थे. चीनका सैन्य लाईन ऑफ कन्ट्रोलका उलंघन करता रहेता था. महात्मागांधीके अंतेवासी जेबी क्रीपलानीने सवाल उठाया, कि, भारत सरकार चीनी घुस पैठके विषय पर क्या कदम उठा रही है?

तब नहेरुने ऐसी घटनाको ही नकार दिया.

वास्तवमें हमारे सुरक्षा दलके अधिकारीगण, चीनके साथ नियमित रुपसे होनेवाली बैठकोंमें यह मुद्दा उठा ही रहेते थे. और तब चीनी अधिकारी, नहेरुके कथनोंका हवाला देके घुसपैठको नकारते थे.

लेकिन जब चीनी लश्करकी घुसपैठ, हदसे ज्यादा बढ गयी, तो संसदमें जे बी क्रिपलानीजीने सूचित किया कि हम लाईन ओफ कन्ट्रोलका उलंघन करने वालों पर निगरानी करनेके लिये, लाईन ओफ कन्ट्रोल पर अधिक सुरक्षा व्यवस्था रक्खें और युनोमें केस दर्ज करें. तब नहेरुने कहा कि एल..सी. की कोई परिभाषा युनोके पास नहीं है. और युनोने अभी तक कोई समस्या हल नहीं की है.

क्रीपलानी ने कहा कि तो हम युद्ध करें.

तो नहेरुने कहा कि युद्धसे कोई समस्या हल नहीं होती.

इस प्रकार नहेरुके पास हरेक समस्याका उत्तर फिलोसोफीकल था. उसका यह प्रपोता भी ऐसा लुझ टोकींग करता है. “गरीबी एक मानसिकता है

यह नहेरुवीयन फरजंदके कितने वर्सन (अवतार) है?

राहुल ? अहो रुपं अहो ध्वनि?

राहुल वर्सन०१

बिहारमें राहुलकी नेतागीरीमें चूनाव लडा जायेगा ऐसा घोषित हुआ. मीडीयाने अहो रुपं अहो ध्वनिचलाया. वह था उसका अवतार वर्सन०१. फिर क्या हुआ? नहेरुवीयन कोंग्रेस पीट गयी.

ऐसा क्यों हुआ? नहेरुवीयन नेतागण बोले अरे भाई उसने अपना फर्ज निभाया लेकिन कार्यकर्ता लोग असफल रहें.

राहुल वर्सन०२

कोंगी बोली, अब राहुलजी एक बडी जेम्मेवारी लेने वाले है. वे युपी एसेम्ब्ली चूनावमें प्रभारीकी जिम्मेवारी ले रहे है.

मीडीयाने राहुलका वहीअहो रुपं अहो ध्वनिचलाया”. उसमें भी नहेरुवीयन कोंग्रेस पीट गयी. वर्सन०२ समाप्त.

लेकिन अब तो वे एक बहोत बडी जिम्मेवारी अदा करने वाले है…. ऐसा करके उनके कई वर्सन निकले.

फिर उनको महामंत्री बनाया. फिर उनका पक्षके उपप्रमुखका वर्सन आया. सबमें उसका पक्ष पीट गया.

फिर क्या हुआ?

प्रोडीगल सन क्या घर छोडके भाग गया?

या वालिया लुटेरा तप करनेके नाम पर ब्लेक मनी को ईधर उधर करने चला गया?

या जिम्बो कोई और बेनाम जगह चला गया?

रोबिन हुड …  खेल खेलने बेनाम जगह चला गया?

पूरे दो मास बिना कुछ काम किये गुमनाम हो गया. के सेवकोंने बताया वह छूट्टी पर गया है.

वैसे तो संसद सदस्यको सरकारी व्यक्ति मानना चाहिये. क्यों कि उसको जननिधि (पब्लीक फंड)मेंसे वेतन मिलता है. और उसका निवृत्ति वेतन भी सुनिश्चित है.

राहुलके लिये नैतिक धर्म बनता है कि वह क्यों जाता है, कहां जाता है और उसके अवकाशके समयका पता क्या है ये सभी माहिति संसदके स्पीकरको बतावें. ऐसा नहीं करनेसे उसको निलंबित किया जा सकता है. यदि कोई सर्वोच न्यायालयमें जनयाचिका प्रस्तूत करे तो सभी संसदोंको जनसेवक (पब्लिक सर्वन्ट) घोषित किया जा सकता है. इसके अतिरिक्त भी राहुलका नैतिक धर्म बनता है.

खास करके इन्दिरा गांधीकी स्थापित प्रणालीके अनुसार गुप्तता रखना नहेरुवीयनोंका संस्कार बना है. सोनिया गांधीकी चिकित्सा जननिधि (पब्लिक फंड)में से हुई और वह भी विदेशमें हुई. क्या चिकित्सा? कौनसे रोगकी चिकित्सा? कौनसे रग्णालयमें चिकित्सा हुई? ये सब माहिति गोपनीय रक्खी गयी.

समाचार माध्यमोंने भी इसबात पर आपत्ति नहीं जताई.

राहुलके अज्ञातवासका अंत. उसके आगमनको कैसे प्रदर्शित किया जाय?

क्या कोई युद्ध जिता? नहीं तो.

क्या कोई अभूतपूर्व सेवाका काम किया? नहीं तो.

स्वागत तो अभूतपूर्व करना ही पडेगा !

दिये जलाओ, पटाखे फोडो, अब तो आनंद मंगल हो गया.    

मानो झीम्बो कम्स टु टाऊन.

मूंह दिखाई की रसममें सब उमट पडे. मीडीया भी उमट पडा.

वह जो कुछ भी हो, हमारे समाचार माध्यमोंने हेड लाईन दिया

राहुलने नरेन्द्र मोदीको आडे हाथ लिया. “शुट बुट की सरकार”, “किसानसे छीनके उद्योगपतियोंको जमीन देनेवाली सरकार”, “किसानको जमीनके बदलेमें कुछ भी नहीं देनेवाली सरकार”, “किसानोका खेतीका अधिकार छीना” … “राहुल है आत्मविश्वाससे भरपूर”.

शुट बुट की सरकारसे क्या मतलब है?

क्या राहुके पिता और प्रपिता, दादी, वे सब, महात्मा गांधीकी तरह सिर्फ दो कपडेके टूकडे लपेटके घुमा करते थे? क्या वे शुटबुट पहेनते नहीं थे? क्या अन्य नेता भी महात्मा गांधी की तरह कपडा लपेटके घुमते थे और घुमते है?

राहुलको खूदके पूर्वजोंके चरित्रको याद करना चाहिये

ईन्दिरा गांधीको नहेरुकी गद्दी विरासतमें लेनेकी थी, इसलिये वे नहेरुके साथ ही रहा करती थीं. उनके साथ विदेश भी जाती थीं. एक बार उनको सरकारी विदेशी डीग्नीटरी होनेके नाते, मींक कोट जिसकी किमत ३००००० रुपये होती है, भेटमें मिला.

सरकारी नियम अनुसार उनको, या तो उसकी किमत जनकोषमें जमा करा देनी चाहिये, या तो वह प्रधानमंत्रीके वस्तुभंडारमें जमा करवा देना चाहिये. इन्दिरा गांधीने उस भेटको अपने पास ही रख लिया.

राम मनोहर लोहियाने कुछ साल बाद यह प्रश्न संसदमें उठाया कि, वह मींक कोट कहां गया? संसदमें हंगामा हुआ. तब जाके इन्दिराने उस कोटको राष्ट्रीय कोषमें जमा किया.

अब आप तुलना करो. नरेन्द्र मोदीने क्या करते है?

उनको जो भेट मिलती है वह एक बार, भेट देनेवाले के मानके लिये पहन लेते है. फिर उस भेटका निलाम कर देते हैं और भेटकी वास्तविक किमतसे कई गुना ज्यादा मूल्य प्राप्त करके जनकोषमें रकम जमा करवाते है.

किन्तु नहेरुवीयनोंमे ऐसी विचार धारा और प्रज्ञा कहां हो सकती है?    

भूमि अधिग्रहणकी चर्चाएं

मीडीयाने तो चर्चा बहूत चलाई, मीडीयाने कई बातें अनदेखी भी की.

जिजाजी वाढेराने जो भूमि अधिग्रहण किया तो कितना पैसा किसानको मिला?

यदि किसानकी हालत दयनीय है तो अभी ६० सालतक नहेरुवीयन कोंग्रेसने किसानके लिये क्या किया कि किसानको आज भी आत्म हत्या करनी पडती है?

किन्तु समाचार माध्यमने ऐसे प्रश्न नहीं उठाये.

भूमिअधिग्रहण विधेयकको निजी उद्योगसे कोई संबंध नहीं तो भी इसकी चर्चा होती रहेती है और कोंगी वक्ता बिना कोई आधार असंबद्ध बाते बिना रुके करता रहेता है और समय पसार करता है. मीडीया कोंगीयोंको ऐसी बाते करने देता है.

मीडीयाको भी असंबद्ध बातोंको हवा देनेका ज्यादा शौक है.

राहुलका अब कौनसे नंबरका अवतार चलता है? तो मीडीयाको पता है, तो राहुल को पता है. तो फिर राहुल का नया अवतार…. राहुलका नया अवतार …. ऐसा कहेते रहो …. वही पर्याप्त है.

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः मूंह दिखाई, सकारात्मक, नकारात्मक, निम्न स्तर, समाचार माध्यम, मीडीया, पंडित, अपरिपक्व, कार्यसूचि, पूर्व निश्चित, हंगामा, एजंडा, नहेरु, इन्दिरा, नहेरुवीयन कोंग्रेस, सांस्कृतिक साथी, प्रभावशाली

 

 

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नरेन्द्र मोदीको क्या बनना चाहिये? कौटिल्य अथवा पृथ्वीराज चौहाण?

कौटिल्यकी विशेषता क्या थी और पृथ्वीराज की विशेषता क्या थी?

Narendra Modi has to decide
कौटिल्यः
कौटिल्यमें दुश्मनको पहेचानने की प्रज्ञा थी.
कौटिल्य दुश्मनको कभी छोटा मानता नहीं था,
पडौसी देश दुश्मन बने ऐसी शक्यता अधिक होती है इस लिये उसकी गतिविधियों दृष्टि रखनी चाहिये क्योंकि वह प्रथम कक्षाका दुश्मन बननेके काबिल होता है.
दुश्मनको कभी माफ करना नहीं चाहिये,
ऐसा क्यों?
क्योंकि राष्ट्रहित सर्वोपरी है.

पृथ्वीराज चौहाण
पृथ्वीराज चौहाण भी एक देशप्रेमी राजा था. लेकिन वह दुश्मनके चरित्रको समझ नहीं पाया. उसने मुहम्मद घोरीको फेली बार तो हरा दिया, किन्तु बिना ही उसके चरित्रकी जांच किये भारतीय प्रणालीको अनुसरा और उसको क्षमा प्रदान की. वही मुहम्मद घोरीने फिरसे आक्रमण किया और पृथ्वीराज चौहानको हराया और उसका कत्ल किया. अगर पृथ्वीराज चौहाणने मुहम्मद घोरीको माफ किया न होता तो भारतका इतिहास अलग होता.
कौटिल्यने क्या किया था.
पोरस राजा देश प्रेमी था. उसने सिकंदरसे युद्ध किया. कुछ लोग ऐसा बताते है कि सिकंदरने पोरस को पराजित किया था. और सिकंदरने पोरसकी वीरताको देखके उसए संधि की थी. लेकिन यह बात तथ्यहीन है. वीरताकोई भारतका एकआधिर नही था. वीर योद्धा हरेक देशमें होते है. सिकंदर अनेकोंको जितता आया था लेकिन जो राजा हारे थे उनके साथ और उनकी जनताके साथ, उसका हमेशा आतंकित व्यवहार रहा था. पोरसने सिकंदरको संधिके लिये विवश किया था.और सिकंदरको हतप्रभः किया था.
सिकंदरके बाद सेल्युकस निकेतर सिकंदरकी तरह ही विश्वविजय करनेको निकला था. उस समय पोरसके बदले उसका भतिजा गद्दी पर था. उसने बीना युद्ध किये सेल्युकसको भारतमें घुसनेका रास्ता दे दिया. सिकंदर तो धननंदकी विशाल सेनासे ही भयभित हो गया था. लेकिन सेल्युकसने मगध पर आक्रमण कर दिया. जो सम्राट विश्वविजयी बनके आया था वह मगधके चन्दगुप्त मौर्यके सामने बुरी तरह पराजित हो गया. किन्तु ये सब बातें छोड देतें है.
कौटिल्यने क्या किया. पोरसके भतीजेको हराया. उसने लाख क्षमाएं मांगी लेकिन कौटिल्यने उसको क्षमा नहीं किया और उसको हाथीके पैरके नीचे कुचलवा दिया. पोरसका भतिजा तो जवान था, वीर था, उसके सामने पूरी जिंदगी पडी थी. वह देशप्रेमी पोरस राजाकी संतानके बराबर था, अगर कौटिल्य चाहता तो उसको क्षमा कर सकता था किन्तु कौटिल्यने उसको क्षमा नहीं किया. क्यो कि जो देशके साथ गद्दारी करता है उसको कभी माफ किया नही जा सकता.

यदि आप इतिहासको भूल जाते है तो उसका पुनरावर्तन होता है.
साम्राट अकबरको आते आते तो भारतके मुस्लिम हिन्दुओंसे हिलमिल गये थे. जैसे हुण, शक, पहलव, गुज्जर हिन्दुओंसे मील गये थे. भारतके मुस्लिम भी उसी स्थितिमें आ गये थे. कोई लाख नकारे तो भी यह एक सत्य है कि मुघलयुग भारतका एक स्वर्णयुग था. इसमें औरंगझेब जैसा कट्टर मुस्लिम भी लंबे समय तक अपनी कट्टरताका असर रख पाया नहीं था.
मुघल बहादुरशाह जफर जिसके राज्यकी सीमा सिर्फ लालकिलेकी दिवारें थी उसके नेतृत्वमें हिन्दुओंने और मुस्लिमोंने १८५७का विप्लव किया. पूरे भारतके हिन्दु और मुस्लिम राजाएं उसका सार्वभौमत्व स्विकारने के लिये कृतनिश्चयी थे.
ऐसा क्यों था?
क्यों कि हिन्दुओंके लिये धर्म तो एक ही था जो मानव धर्म था. आप ईश्वरकी मन चाहे तरिकोंसे उपासना करें या न भी करें तो भी हिन्दुओंको कोई फर्क पडता नहीं था. (हिन्दु यह भी समझते हैं कि ईश्वरको भी कोई फर्क पडता नहीं है).
मुस्लिम लोग भी परधर्म समभाव ऐसा ही समझ रहे थे. आज भी देखो, ओमानका सुल्तान काबुस सच्चे अर्थमें हिन्दुओं जैसा ही धर्म निरपेक्ष है. हां एक बात जरुर है कि वह विदेशीयोंको अपने देशकी नागरिकता नहीं देता है. चाहे वह हिन्दु हो या मुस्लिम. क्यों कि देशका हित तो सर्वोपरी होना ही चाहिये. जो लोग ओमानमें पहेलेसे ही बसे हुए हैं वहांके नागरिक है उसमें हिन्दु भी है और मुस्लिम भी है. इस लिये ऐसा मानना आवश्यक नहीं कि, सारे विश्वकी मुस्लिम जमात अक्षम्य है.

लेकिन भारतमें क्या हुआ?

अंग्रेजोंने खुदके देशके हितके लिये हिन्दु मुस्लिमोंमें भेद किये. सियासती तौर पर जीन्नाको उकसाया. नहेरुका भी कसुर था. नहेरु सियासती चालबाजीमें कुछ अधिक ही माहिर थे.
महात्मा गांधी के पास सबसे ज्यादा जनाधार था.

महात्मा गांधी के पास निम्न लिखित विकल्प थे
(१) अभी स्वतंत्रताको विलंबित करो, पहेले देशको और नेताओंको व्यवस्थित करो.
किन्तु यह किसीको भी स्विकार्य नहीं था. क्यो कि कोमी हिंसा ऐसी भडक उठी थी कि
नजदिकके भविष्यमें वह बीना विभाज किये शक्य ही नहीं थी.
(२) देशको फेडरल युनीयनमें विभाजीत करो जिसमें होगा पाकिस्तान, हिन्दुस्तान. ये दो देश संरक्षण और विदेशी मामलेके सिवा हर क्षेत्रमें स्वतंत्र होंगे. फेडरल युनीयन का हेड कोई भी हो.
नहेरुको यह स्विकार्य नहीं था क्यों कि उनको जीन्नाको चपरासी के स्थान पर रखना भी स्विकार्य नहीं था.
सरदार पटेलको और महात्मा गांधी इसके पक्षमें नहीं थे क्यों कि यह बडा पेचिदा मामला था. बहुत सारे स्थानिक राजाएं अपनी स्वायत्तता एक अलग देश की तरह ही रखना चाहते थे. ऐसी परिस्थितिमें देशमें अनेक जटिल समस्याएं उत्पन्न हो सकती है जो सदीयों तक उलझ नहीं सकती थी.
(३) फेडरल युनीयन हो लेकिन उसका नंबर वन पोस्ट पर जीन्ना हो.
नहेरुको यह स्विकार्य नहीं था. वे इस हालतमें देशके टुकडे टुकडे करने को भी तैयार थे.
(४) एक दुसरेसे बिलकुल स्वतंत्र हो वैसे देशके दो टुकडे स्वतंत्र हो. हिन्दुस्तान और पाकिस्तान. जनता अपनी ईच्छाद्वारा पसंद करें कि अपने प्रदेशको कहां रखना है ! हिन्दुस्तानमें या पाकिस्तान में?

नहेरुको यह चौथा विकल्प पसंद था. नहेरुने अपनी व्युह रचना तैयार रक्खी थी.

चौथे विकल्पको स्विकारनेमें नहेरुको कोई आपत्ति नहीं थी. हिन्दुस्तानमें नंम्बर वन बनना नहेरुके लिये बायें हाथका खेल तो नहीं था लेकिन अशक्य भी नहीं था. उन्होंने कोंग्रेसमें अपना सोसीयालिस्टीक ग्रुप बना ही लिया था.

नहेरुने गांधी और सरदारको प्रच्छन्न रुपसे दो विकल्प दिया.

या तो मुझे नंबर वन पोस्ट दो. नहीं तो मैं कोंग्रेसको विभाजित करके बचे हुए देशमेंसे अपना हिस्सा ले लुंगा और उसके बाद बचे हुए हिस्सेमें भी आग लगाके जाउंगा कि दुसरे नेता जाति आदि लोग अपना हिस्सा भी मांगे.

पक्षके नेताके रुपमें नहेरुका समर्थन किसी भी प्रांतीय समितिने किया नहीं था तो भी नहेरु अपने आवेदन पर अडग रहे.

महात्मा गांधीको नहेरुकी व्युह रचना समझमें आगयी थी.
महात्मा गांधीने कोंग्रेसको विलय करके उसको लोकसेवा संघमें परिवर्तन करने का निश्चय कर लिया. उन्होने सरदार पटेलको विश्वासमें ले लिया कि वे जब तक स्थानिक समस्याएं हल न हो जाय तब तक वे कोंग्रेसको विभाजित होने नहीं देंगे.
गांधीजीको मालुम हो गया था कि खुदकी जान कभी भी जा सकती है.

इसलिये महात्मा गांधीने २७वीं जनवरी १९४८में ही आदेश दे दिया की कोंग्रेसको एक राजकीय पक्षके स्थान पर अपना अस्तित्व समाप्त करना है. उन्होने इस दरम्यान लोकसेवा संघका संविधान भी बना दिय था.

नरेन्द्र मोदीको चाणक्य बनना है या पृथ्वीराज

अगर नरेन्द्र मोदीको चाणक्य बनना है या पृथ्वीराज चौहाण, इस बातकी चर्चा करते समय हमें कोंग्रेस और नहेरु की बातें क्यों करें?
भारतमे हमने और हमारे नेताओंने अंतिम सौ सालमें जो क्षतिपूर्ण व्यवहार किया, या जो क्षतिपूर्ण व्यावहार हो गया या करवाया गया उनको हमें याद रखके आगे बढना है.

यदि हम याद नहीं रक्खेंगे तो वैसी या उससे भी अधिक गंभीर क्षतियोंका पुनरावर्तन होगा, और भावी जनता हमे क्षमा नहीं करेंगी.

अंग्रेजोंकी नीतियां और उनका पढाया हुआ क्षतियुक्त इतिहासः
अंग्रेज तो चले गये, किन्तु उनकी विचारधारा के आधारपर उन्होने जो तीकडं बाजी चलायी और हमारे बुद्धिजिवीयोंने जो स्विकार कर लिया, ऐसे तथ्योंको हमे उजागर करना पडेगा. इतिहासके पन्नोंसे उनको निकालना नही है लेकिन उसको एक मान्यताके आधार पर उसके कदके अनुसार काट देना है. हमारे भारतीय शास्त्रोंके आधार पर तर्कपूर्ण रीतिसे इतिहास पढाना है.
इसका एक मानसशास्त्रीय असर यह भी होगा कि भारतमें जो विभाजनवादी तत्व है वे विरोध करने के लिये गालीप्रदानके साथ आगे आजायेंगे. उनको पहेचानना है और उनको सियासती क्षेत्रसे निकालना है. वे तर्क हीन होनेके कारण ध्वस्त ही हो जायेंगें. भारतमें एक हकारात्मक युग का प्रारंभ होगा.
https://www.youtube.com/watch?v=x4Vh0cBVPdU ancient scientific knowledge of India: A lecture delivered by CSIR scientist in IIT Chennai
https://www.youtube.com/watch?v=6YG6pXE8aDs Ancient Indian Scientists were all Rishis with High Spiritual Powers (Technology of Spirituality)
मुहम्मद घोरी क्षमाके पात्र नहीं है, किन्तु मुहम्मद घोरी कौन कौन है? और जयचंद कौन है.
मुहम्मद घोरी है; नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेतागण, उनके साथीगण, कश्मिरके नेतागण और दंभी सेक्युलर समाचार माध्यम के पंडितगण.

यह है कभी न माफ करनेवाली सांस्कृतिक गेंग
इनलोगोमें सामान्य बात यह है कि वे बीजेपीकी एक भी क्षति कभी माफ नहीं करेंगे. उसके उपरांत ये लोग विवादास्पद तथ्यों पर और घटनाओं पर पूर्वग्रह रखकर उनको बीजेपीके और नरेन्द्र मोदीके विरुद्ध उजागर करेगे. इनके लिये समय कि कोई सीमा नहीम है.
(१) १९४२में कोई अन्य बाजपाई नामक व्यक्तिने क्षमा-पत्र देकर पेरोल पर उतर गया था तो इन नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंने २००३-४ के चूनाव अंतर्गत भी इस बातको अटल बिहारी बाजपाई के विरुद्ध उछाला था.
(२) कोई दो पुलीस अफसरोंके बीच, कोई पिताकी प्रार्थना पर उसकी पुत्रीके साथ कोई अनहोनी न हो जाय इसके लिये निगरानी रखनेकी बात हो रही थी और उसमें सफेद दाढीवाले और काली दाढीवाले नेताका संदर्भ बोला गया था तो नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेता मनमोहन और उसके मंत्रीमंडलने स्पेसीयल बैठक बुलाके एक जांच कमिटी बैठा दी थी.
(३) एक लडकी कोई आतंकी संगठन के युवकोंके साथ मिलकर अपने मातापिताको बीना बतायें गुजरातकी और निकल गयी थी और तत्कालिन केन्द्रीय खुफियातंत्रने ही माहिति दी थी कि वे नरेन्द्र मोदीको मारने के अनुसंधानमें आ रहे है तो गुजरातकी पुलीसने उनको सशस्त्र होनेके कारण खतम कर दिया तो इन्ही नहेरुवीयन कोंगी नेतागण और उनके साथीयोंने शोर मचा दिया था.
(४) ऐसे कई पुलिस अफसरोंके खिलाफ ही नहीं किन्तु गुजरातके गृहमंत्री तकको लपेटमें ले के उनको कारवासमें भेज दिया था. मतलब कि, फर्जी केस बनाकर भी इन लोगोंको बीजेपीको लपेटमें लेके अपना उल्लु सीधा करनेमें जरा भी शर्म नहीं आती है. ये लोग तो मुहम्मद घोरीसे भी कमीने है.
(५) नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताओंके इससे भी बढकर काले करतुतोंसे इतिहास भरा पडा है. इन्दिरा घांडीसे लेकर मनमोहन सोनीया तक. इसमें कोई कमी नहीं.
इन गद्दारोंको कैसे पीटा जाय?
(क्रमशः)
शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः पडौसी, राष्ट्रहित, पोरस, सिकंदर, सेल्युकस, चंद्रगुप्त मौर्य, सुल्तान काबुस, ओमान,चाणक्य, कौटिल्य, पृथ्वीराज चौहाण, मुहम्मद घोरी, नहेरुवीयन कोंग्रेस, नेतागण, बीजेपी, गृहमंत्री, पुलिस, अफसर, कारावास, समाचार माध्यम, पंडित, आतंकवादी, इतिहास, प्राचीन, भारत

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