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“वीर सावरकर”का कोंगीने “सावरकर” कर दिया यह है उसका पागलपन.

“वीर सावरकर”का कोंगीने “सावरकर” कर दिया यह है उसका पागलपन.

Savarakar

जब हम “कोंगी” बोलते है तो जिनका अभी तक कोंगीके प्रति भ्रम निरसन नहीं हुआ है और अभी भी उसको स्वातंत्र्यके युद्धमें योगदान देनेवाली कोंग्रेस  ही समज़ते, उनके द्वारा प्रचलित “कोंग्रेस” समज़ना है. जो लोग सत्यकी अवहेलना नही कर सकते और लोकतंत्रकी आत्माके अनुसार शब्दकी परिभाषामे मानते है उनके लिये यह कोंग्रेस पक्ष,  “इन्दिरा नहेरु कोंग्रेस” [कोंग्रेस (आई) = कोंगी = (आई.एन.सी.)] पक्ष है.

कोंगीकी अंत्येष्ठी क्रिया सुनिश्चित है.

“पक्ष” हमेशा एक विचार होता है. पक्षके विचारके अनुरुप उसका व्यवहार होता है. यदि कोई पक्षके विचार और आचार में द्यावा-भूमिका  अंतर बन जाता है तब, मूल पक्षकी मृत्यु होती है. कोंग्रेसकी मृत्यु १९५०में हो गयी थी. इसकी चर्चा हमने की है इसलिये हम उसका पूनरावर्तन नहीं करेंगे.

पक्ष कैसा भी हो, जनतंत्रमें जय पराजय तो होती ही रहेती है. किन्तु यदि पक्षके उच्च नेतागण भी आत्ममंथन न करे, तो उसकी अंन्त्येष्ठी सुनिश्चित है.

परिवर्तनशीलता आवकार्य है.

परिवर्तनशीलता अनिवार्य है और आवकार्य भी है. किन्तु यह परिवर्तनशीलता सिद्धांतोमें नहीं, किन्तु आचारकी प्रणालीयोंमें यानी कि, जो ध्येय प्राप्त करना है वह शिघ्रातिशिघ्र कैसे प्राप्त किया जाय? उसके लिये जो उपकरण है उनको कैसे लागु किया जाय? इनकी दिशा, श्रेयके प्रति होनी चाहिये. परिवर्तनशीलता सिद्धांतोसे विरुद्धकी दिशामें नहीं होनी चाहिये.

कोंगीका नैतिक अधःपतनः

नहेरुकालः

नीतिमत्ता वैसे तो सापेक्ष होती है. नहेरुका नाम पक्षके प्रमुखके पद पर किसी भी  प्रांतीय समितिने प्रस्तूत नहीं किया था. किन्तु नहेरु यदि प्रमुखपद न मिले तो वे कोंग्रेसका विभाजन तक करनेके लिये तयार हो गये थे. ऐसा महात्मा गांधीका मानना था. इस कारणसे महात्मा गांधीने सरदार पटेलसे स्वतंत्रता मिलने तक,  कोंग्रेस तूटे नहीं इसका वचन ले लिया था क्योंकि पाकिस्तान बने तो बने किन्तु शेष भारत अखंड रहे वह अत्यंत आवश्यकता.

जनतंत्रमें जनसमूह द्वारा स्थापित पक्ष सर्वोपरि होता है क्यों कि वह एक विचारको प्रस्तूत करता है. जनतंत्रकी केन्द्रीय और विभागीय समितियाँ  पक्षके सदस्योंकी ईच्छाको प्रतिबिंबित करती है. जब नहेरुको ज्ञात हुआ कि किसीने उनके नामका प्रस्ताव नहीं रक्खा है तो उनका नैतिक धर्म था कि वे अपना नाम वापस करें. किन्तु नहेरुने ऐसा नहीं किया. वे अन्यमनस्क चहेरा बनाके गांधीजीके कमरेसे निकल गये.

यह नहेरुका नैतिकताका प्रथम स्खलन या जनतंत्रके मूल्य पर प्रहार  था. तत्‌ पश्चात तो हमे अनेक उदाहरण देखने को मिले. जो नहेरु हमेशा जनतंत्रकी दुहाई दिया करते थे उन्होंने अपने मित्र शेख अब्दुल्लाको खुश रखने के लिये अलोकतांत्रिक प्रणालीसे अनुच्छेद ३७० और ३५ए को संविधानमें सामेल किया था और इससे जो जम्मु-कश्मिर, वैसे तो भारत जैसे जनतांत्रिक राष्ट्रका हिस्सा था, किन्तु वह स्वयं  अजनतांत्रिक बन गया.

आगे देखो. १९५४में जब पाकिस्तानके राष्ट्रपति  इस्कंदर मिर्ज़ाने, भारत और पाकिस्तानका फेडरल युनीयन बनानेका प्रस्ताव रक्खा तो नहेरुने उस प्रस्तावको बिना चर्चा किये, तूच्छता पूर्वक नकार दिया. उन्होंने कहा कि, भारत तो एक जनतांत्रिक देश है. एक जनतांत्रिक देशका, एक सरमुखत्यारीवाले देशके साथ युनीयन नहीं बन सकता. और उसी नहेरुने अनुच्छेद ३७० और अनुच्छेद ३५ए जैसा प्रावधान संविधानमें असंविधानिक तरिकेसे घुसाए दिये थे.

जन तंत्र चलानेमें क्षति होना संभव है. लेकिन यदि कोई आपको सचेत करे और फिर भी उसको आप न माने तो उस क्षतिको क्षति नहीं माना जाता, किन्तु उसको अपराध माना जाता है.

नहेरुने तीबट पर चीनका प्रभूत्त्व माना वह एक अपराध था. वैसे तो नहेरुका यह आचार और अपराध विवादास्पद नहीं है क्योंकि उसके लिखित प्रमाण है.

चीनकी सेना भारतीय सीमामें अतिक्रमण किया करें और संसदमें नहेरु उसको नकारते रहे यह भी एक अपराध था. इतना ही नहीं सीमाकी सुरक्षाको सातत्यतासे अवहेलना करे, वह भी एक अपराध है. नहेरुके ऐसे तो कई अपराध है.

इन्दिरा कालः

इन्दिरा गांधीने तो प्रत्येक क्षेत्रमें अपराध ही अपराध किये है. इन अपराधों पर तो महाभारतसे भी बडी पुस्तकें लिखी जा सकती है. १९७१में भारतीयसेनाने जो अभूतपूर्व  विजय पायी थी उसको इन्दिराने सिमला करार के अंतर्गत घोर पराजयमें परिवर्तित कर दिया था. वह एक घोर अपराध था. इतना ही नहीं लेकिन जो पी.ओ.के. की भूमि, सेनाने  प्राप्त की थी उसको भी   पाकिस्तानको वापस कर दी थी, यह भारतीय संविधानके विरुद्ध था. इन्दिरा गांधीने १९७१में जब तक पाकिस्तानने भारतकी हवाई-पट्टीयों पर आक्रमण नहीं किया तब तक आक्रमणका कोई आदेश नहीं दिया था. भारतीय सेनाके पास, पाकिस्तानके उपर प्रत्याघाती आक्रमण करनेके अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं था. यह बात कई स्वयंप्रमाणित विद्वान लोग समज़ नहीं पाते है.

राजिव युगः

राजिव गांधीका पीएम-पदको स्विकारना ही उसका नैतिक अधःपतन था. उसकी अनैतिकताका एक और प्रमाण उसके शासनकालमें सिद्ध हो गया. बोफोर्स घोटालेमें स्वीस-शासन शिघ्रकार्यवाही न करें ऐसी चीठ्ठी लेके सुरक्षा मंत्रीको स्वीट्झर्लेन्ड भेजा था. यही उसकी अनीतिमत्ताको सिद्ध करती है.

सोनिया-राहुल युगः

इसके उपर चर्चाकी कोई आवश्यकता ही नहीं है. ये लोग अपने साथीयोंके साथ जमानत पर है. जिस पक्षके शिर्ष नेतागण ही जमानत पर हो उसका क्या कहेना?

कोंगीका पागलपनः

पागलपन के लक्षण क्या है?

प्रथम हमे समज़ना आवश्यक है कि पागलपन क्या है.

पागलपन को संस्कृतमें उन्माद कहेते है. उन्मादका अर्थ है अप्राकृतिक आचरण.

अप्राकृतिक आचारण. यानी कि छोटी बातको बडी समज़ना और गुस्सा करना, असंदर्भतासे ही शोर मचाना, कपडोंका खयाल न करना, अपनेको ही हानि करना, गुस्सेमें ही रहेना, हर बात पे गुस्सा करना …. ये सब उन्मादके लक्षण है.

कोंगी भी ऐसे ही उम्नादमें मस्त है.

अनुच्छेद ३७० और ३५ए को रद करने की मोदी सरकारकी क्रिया पर भी कोंगीयोंका प्रतिभाव कुछ पागल जैसा ही रहा है.    

यदि कश्मिरमें अशांति हो जाती तो भी कोंगीनेतागण अपना उन्माद दिखाते. कश्मिरमें अशांति नहीं है तो भी वे कश्मिरीयत और जनतंत्र पर कुठराघात है ऐसा बोलते रहेते है. अरे भाई १९४४से कश्मिरमें आये हिन्दुओंको मताधिकार न देना, उनको उनकी जातिके आधार पर पहेचानना और उसीके आधार पर उनकी योग्यताको नकारके उनसे व्यवसायसे वंचित रखना और वह भी तीन तीन पीढी तक ऐसा करना यह कौनसी मानवता है? कोंगी और उसके सहयोगी दल इस बिन्दुपर चूप ही रहेते है.

खूनकी नदियाँ बहेगी

जो नेता लोग कश्मिरमें अनुच्छेद ३७० और ३५ए को हटाने पर खूनकी नदियाँ बहानेकी बातें करते थे और पाकिस्तानसे मिलजानेकी धमकी देते थे, उनको तो सरकार हाउस एरेस्ट करेगी ही. ये कोंगी और उसके सांस्कृतिक सहयोगी लोग जनतंत्रकी बात करने के काबिल ही नहीं है. यही लोग थे जो कश्मिरके हिन्दुओंकी कत्लेआममें परोक्ष और प्रत्यक्ष रुपसे शरिक थे. उनको तो मोदीने कारावास नहीं भेजा, इस बात पर कोंगीयोंको और उनके सहयोगीयोंको मोदीका  शुक्रिया अदा करना चाहिये.

सरदार पटेल वैसे तो नहेरुसे अधिक कदावर नेता थे. उनका स्वातंत्र्यकी लडाईमें और देशको अखंडित बनानेमें अधिक योगदान था. नहेरुने सरदार पटेलके योगदानको महत्त्व दिया नहीं. नहेरुवंशके शासनकालमें नहेरुवीयन फरजंदोंके नाम पर हजारों भूमि-चिन्ह (लेन्डमार्क), योजनाएं, पुरस्कार, संरचनाएं बनाए गयें. लेकिन सरदार पटेल के नाम पर क्या है वह ढूंढने पर भी मिलता नहीं है.

अब मोदी सराकार सरदार पटेलको उनके योगदानका अधिमूल्यन कर रही है तो कोंगी लोग मोदीकी कटू आलोचना कर रहे है. कोंगीयोंको शर्मसे डूब मरना चाहिये.

महात्मा गांधी तो नहेरुके लिये एक मत बटोरनेका उपकरण था. कोंगीयोंके लिये जब मत बटोरनेका परिबल और गांधीवादका परिबल आमने सामने सामने आये तब उन्होंने मत बटोरनेवाले परिबलको ही आलिंगन दिया है. शराब बंदी, जनतंत्रकी सुरक्षा, नीतिमत्ता, राष्ट्रीय अस्मिताकी सुरक्षा, गौवधबंदी … आदिको नकारने वाली या उनको अप्रभावी करनेवाली कोंगी ही रही है.

कोंगी की अपेक्षा नरेन्द्र मोदी की सरकार, गांधी विचार को अमली बनानेमें अधिक कष्ट कर रही है. कोंगीको यह पसंद नहीं.

कोंगी कहेता है

गरीबोंके बेंक खाते खोलनेसे गरीबी नष्ट नहीं होनेवाली है,

संडास बनानेसे लोगोंके पेट नहीं भरता,

स्वच्छता लाने से मूल्यवृद्धि का दर कम नहीं होता,

हेलमेट पहननेसे भी अकस्मात तो होते ही है,

कोंगी सरकारके लिये तो खूलेमें संडास जाना समस्या ही नहीं थी,

कोंगी सरकारके लिये तो एक के बदले दूसरेके हाथमें सरकारी मदद पहूंच जाय वह समस्या ही नहीं थी,

कोंगी सरकारके लिये तो अस्वच्छता समस्या ही नहीं थी,

कोंगीके सरकारके लिये तो कश्मिरी हिन्दुओंका कत्लेआम, हिन्दु औरतों पर अत्याचार, हिन्दुओंका लाखोंकी संख्यामें बेघर होना, कश्मिरी हिन्दुओंको मताधिकार एवं मानव अधिकारसे से वंचित होना समस्या ही नहीं थी, दशकों से भी अधिक कश्मिरी हिन्दु निराश्रित रहे, ये कोंगी और उनके सहयोगी सरकारोंके लिये समस्या ही नहीं थी, अमरनाथ यात्रीयोंपर आतंकी हमला हो जाय यह कोंगी और उसकी सहयोगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी, उनके हिसाबसे उनके शासनकालमें  तो कश्मिरमें शांति और खुशहाली थी,

आतंक वादमें हजारो लोग मरे, वह कोंगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी,

करोडों बंग्लादेशी और पाकिस्तानी आतंकवादीयोंकी घुसपैठ, कोंगी सरकारोंके लिये समस्या नहीं थी,

कोंगी और उनके सहयोगीयोंके लिये भारतमें विभाजनवादी शक्तियां बलवत्तर बनें यही एजन्डा है. बीजेपीको कोमवादी कैसे घोषित करें, इस पर कोंगी अपना सर फोड रही है?

मध्य प्रदेशकी कोंगी सरकारने वीर सावरकरके नाममेंसे वीर हटा दिया.

वीर सावरकर आर एस एस वादी था. इस लिये वह गांधीजीकी हत्याके लिये जीम्मेवार था. वैसे तो वीर सावरकर उस आरोपसे बरी हो गये थे. और गोडसे तो आरएसएसका सदस्य भी नहीं था. न तो आर.एस.एस. का गांधीजीको मारनेका कोई एजन्डा था, न तो हिन्दुमहासभाका ऐसा कोई एजन्डा था. अंग्रेज सरकारने उसको कालापानीकी सज़ा दी थी. वीर सावरकरने कभी माफी नहीं मांगी. सावरकरने तो एक आवेदन पत्र दिया था कि वह माफी मांग सकता है यदि अंग्रेज सरकार अन्य स्वातंत्र्य सैनानीयोंको छोड दें और केवल अपने को ही कैदमें रक्खे. कालापानीकी सजा एक बेसुमार पीडादायक मौतके समान थी. कोंगीयोंको ऐसी मौत मिलना आवश्यक है.

वीर सावरकर महात्मा गांधीका हत्यारा है क्यों कि उसका आर.एस.एस.से संबंध था. या तो हिन्दुमहासभासे संबंध था. यदि यही कारण है तो कोंगी आतंकवादी है, क्यों कि गुजरातके दंगोंका मास्टर माईन्ड कोंग्रेससे संलग्न था. कोंगी नीतिमताहीन है क्यों कि उसके कई नेता जमानत पर है, कोगीके तो प्रत्येक नेता कहीं न कहीं दुराचारमे लिप्त है. क्या कोंगीको कालापानीकी सज़ा नहीं देना चाहिये. चाहे केस कभी भी चला लो.

आज अंग्रेजोंका न्यायालय भारत सरकारसे पूछता है कि यदि युके, ९००० करोड रुपयेका गफला करनेवाला माल्याका प्रत्यार्पण करें तो उसको कारावासमें कैसी सुविधाएं होगी? कोंगीयोंने दंभ की शिक्षा अंग्रेजोंसे ली है.

दो कौडीके राजिव गांधी और तीन कौडीकी इन्दिरा नहेरु-गांधीको, बे-जिज़क भारत रत्न देनेवाली कोंगीको वीर सावरकरको भारत रत्नका पुरष्कार मिले उसका विरोध है. यह भी एक विधिकी वक्रता है कि हमारे एक वार्धक्यसे पीडित मूर्धन्य का कोंगीको अनुमोदन है. यह एक दुर्भाग्य है.

वीर सावरकर एक श्रेष्ठ स्वातंत्र्य सेनानी थे. उनका त्याग और उनकी पीडा अकल्पनीय है. सावरकरकी महानताकी उपेक्षा सीयासती कारणोंके फर्जी आधार पर नहीं की जा सकती.

कोंगीके कई नेतागण पर न्यायालयमें मामला दर्ज है. उनको कठोरसे कठोर यानी कि, कालापानीकी १५ सालकी सज़ा करो फिर उनको पता चलेगा कि वे स्वयं कितने डरपोक है.

कोंगी लोग कितने निम्न कोटीके है कि वे सावरकरका त्याग और पीडा समज़ना ही नहीं चाहते. ऐसी उनकी मानसिकता दंडनीय बननी चाहिये है.  

हमारे उक्त मूर्धन्यने उसमें जातिवादी (वर्णवादी तथा कथित समीकरणोंका सियासती आधार लिया है)

“महाराष्ट्रमें सभी ब्राह्मण गांधीजी विरोधी थे और सभी मराठा (क्षत्रीय) कोंग्रेसी थे. पेश्वा ब्राह्मण थे और पेश्वाओंने मराठाओंसे शासन ले लिया था इसलिये मराठा, ब्राह्मणोंके विरोधी थे. अतः मराठी ब्राह्मण गांधीके भी विरोधी थे. विनोबा भावे और गोखले अपवाद थे. १९६०के बाद कोई भी ब्राह्मण महाराष्ट्रमें मुख्य मंत्री नहीं बन सका. साध्यम्‌ ईति सिद्धम्‌” मूर्धन्य उवाच

यदि यह सत्य है तो १९४७-१९६०के दशकमें ब्राह्मण मुख्य मंत्री कैसे बन पाये. वास्तवमें घाव तो उस समय ताज़ा था?

१८५७के संग्राममें हिन्दु और मुस्लिम दोनों सहयोग सहकारसे संमिलित हो कर बिना कटूता रखके अंग्रेजोंके सामने लड सकते थे. उसी प्रकार ब्राह्मण क्षत्रीयोंके बीच भी कडवाहट तो रह नहीं सकती. औरंगझेब के अनेक अत्याचार होते हुए भी शिवाजीकी सेनामें मुस्लिम सेनानी हो सकते थे तो मराठा और ब्राह्मणमें संघर्ष इतना जलद तो हो नहीं सकता.

“लेकिन हम वीर सावरकरको नीचा दिखाना चाह्ते है इसलिये हम इस ब्राह्मण क्षत्रीयके भेदको उजागर करना चाहते है”

स्वातंत्र्य सेनानीयोंके रास्ते भीन्न हो सकते थे. लेकिन कोंग्रेस और हिंसावादी सेनानीयोंमें एक अलिखित सहमति थी कि एक दुसरेके मार्गमें अवरोध उत्पन्न नहीं करना और कटूता नहीं रखना. यह बात उस समयके नेताओंको सुविदित थी. गांधीजी, भगतसिंघ, सावरकर, सुभाष, हेगडेवार, स्यामाप्रसाद मुखर्जी … आदि सबको अन्योन्य अत्यंत आदर था. अरे भाई हमारे अहमदाबादके महान गांधीवादी कृष्णवदन जोषी स्वयं भूगर्भवादी थे. हिंसा-अहिंसाके बीचमें कोई सुक्ष्म विभाजन रेखा नहीं थी. सारी जनता अपना योगदान देनेको उत्सुक थी.

हाँ जी, साम्यवादीयोंका कोई ठीकाना नहीं था. ये साम्यवादी लोग रुसके समर्थक रहे और अंग्रेजके विरोधी रहे. जैसे ही हीटलरने रुस पर हमला किया तो वे अंग्रेज  सरकारके समर्थक बन गये. यही तो साम्यवादीयोंकी पहेचान है. और यही पहेचान कोंगीयोंकी भी है.

शिरीष मोहनलाल दवे

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अनीतियोंसे परहेज (त्यागवृत्ति) क्यों? जो जिता वह सिकंदर

जब टीम अन्नाने केन्द्रीय मंत्री के समक्ष “जन लोकायुक्त” के विधेयकका प्रारुप (ड्राफ्ट) बनाके प्रस्तूत किया तो मंत्रीने कहा कि आप कौन है हमे यह कहेने वाले कि आप जनताका प्रतिनिधित्व करते है? हमारा उत्तरदायित्व आपसे नहीं है. जनताके वास्तविक प्रतिनिधि तो हम है. इसलिये हम ही लोकायुक्तका विधेयक बनायेंगे. जनताने हमे चूना है. जनताने आपको चूना नहीं है.

अनाधिकार चेष्टाः

प्रसार माध्यमोंकी परोक्ष धारणा और संदेश या प्रयास और नहेरुवीयन कोंग्रेसके आचारणसे  मानो कि, ऐसा ही लगता है यह कोंग्रेस चूनाव जितती ही आयी है इसलिये वह जनप्रतिनिधित्व करती है.

एक बात सही है कि टीम अन्ना संविधानके अंतर्गत चूना हुआ प्रतिनिधित्व नहीं रखती. लेकिन शासक के पास ऐसा मनमानी करनेका अधिकार नहीं है. खासकरके लोकायुक्त के प्रारुपसे संबंध है, टीम अन्ना और शासक (नहेरुवीयन कोंग्रेस) एक समान या तो एक कक्षा पर है या तो टीम अन्ना शासकसे उच्च स्तर पर है. क्युं कि, टीम अन्नाने तो अपना लोकायुक्त-विधेयकका प्रारुप जनताके समक्ष रख दिया था. नहेरुवीयन कोंग्रेसने चूनावके प्रचार के समय अपने विधेयकका प्रारुप कभी भी जनताके सामने रक्खा नहीं था. इसीलिये नहेरुवीयन कोंग्रेसके पास ऐसा कोई अधिकार बनता नहीं है कि वह लोकायुक्त या कोई भी विधेयकके प्रारुपके बारेमें यह सिद्ध कर सके कि उसके पास इस बात पर जनप्रतिनिधित्व है.

दूसरी बात यह है, कि नहेरुवीयन कोंग्रेस वैसे भी पूर्ण बहुमतमें नहीं है. और साथी पक्षोंके साथ मिल कर उसने चूनावके पूर्व ऐसा कोई विधेयकका प्रारुप बनाया नहीं था, न तो किसीने उसको जनतासे उसीके आधार पर मत मांगे थे. इसलिये नहेरुवीयन कोंग्रेस जो बहुमतकी बात करती है वह एक भ्रामक तर्क है. जब जनताके साथ विधेयकके बारेमें पारदर्शिता  ही नहीं है तो काहेका प्रतिनिधित्व हो सकता है?

भ्रष्ट प्रतिनिधित्वः

चूनावमें जो अभ्यर्थी (केन्डीडॅट) है उसके प्रचार के खर्चकी एक सीमा है. यह  सीमा बीसलाख रुपये है.

२० लाख रुपये, एक अत्यधिक रकम है. तो भी जो लोग जानते है वे कहते है कि इससे ज्यादा ही खर्च किया जाता है. अगर देशमें ६६ प्रतिशत लोग गरीबीकी रेखामें आते है तो चूनावमें २०लाख रुपयेका खर्च करने वाला व्यक्ति, जनप्रतिनिधि कैसे हो सकता है? अगर चूनावमें प्रचारके लिये २० लाख रुपयेकी जरुरत पडती है तो २० लाख रुपयेका खर्च करनेवाला अभ्यर्थी जनताके अभिप्रायको कैसे प्रतिबिंबित कर सकता है? इतना ही नहीं इस अभ्यर्थीके पास न तो कोई प्रक्रिया है न तो उसने कभी ऐसी प्रक्रिया स्थापित की होती है कि वह जन अभिप्रायको परिमाणित (क्वान्टीफाय) कर सके और अपना प्रतिनिधित्व सिद्ध कर सके.

इन सब भ्रष्ट प्रावधानोंके बावजुद, नहेरुवीयन कोंग्रेसने कभी लिखित चूनाव प्रावधानोंके अनुसार सुघडतासे  चूनाव जिता नहीं है.

१९५२ का चूनावः

उस समय प्रमुख राजकीय पक्ष जनसंघ, समाजवादी, किसान, रामराज्य, हिन्दुमहासभा और कोंग्रेस (जो उस समय नहेरुवीयन कोंग्रेस बन चुकी थी.) थे.

हर पक्षके लिये अलग अलग मतपेटी रखी जाती थी. बुथ अधिकारीसे एक मत पत्रक ले के बुथके कमरेमें जाके अपना मतपत्र अपने मान्य अभ्यर्थीकी (केन्डीडेटकी) मतपेटीमें डालनेका होता था.

यह एक अत्यंत क्षति युक्त प्रक्रिया थी.

१.      मतदारने अपना मतपत्रक मतकक्षमें रक्खी मतपेटीमें डाला या नहीं वह जाना नहीं जा सकता था. ग्राम्य विस्तारमें और गरीब विस्तारमें कोंग्रेसी लोग मतदारको समझा देते थे कि तुम बिना मतपत्र डाले ही मतकक्षसे बाहर आ जाओ. और हमे वह मतपत्र देदो. हम तुम्हें कुछ दे देंगे. इस प्रकार कोंग्रेसी लोग ऐसे मतपत्रक अपने विश्वासु मतदाताके द्वारा अपनी मत पेटीमें डलवा देते थे.

२.      कस्बे और शहेरी विस्तार जहां लोग कुछ समझदार थे वहां पर वह दुसरे पक्षके अभ्यर्थीकी मतपेटी गूम कर देते थे. मत पेटीयोंका हिसाब नहीं रक्खा जाता था. कई जगह पायखानोंमेंसे और कुडेमेंसे मत पत्रमिले थे.

३.      चूनाव और उसके परिणामकी घोषणा एक साथ नहीं होती थी. जहांपर कोंग्रेसकी जित ज्यादा संभव थी वहां प्रथम चूनाव करके उसके परिणामकी घोषणा कि जाती थी. ता कि, उसका असर दुसरी जगह पड सके.

४.      ऐसी व्यापक शिकायत थी कि, जिस अभ्यर्थी की हवा थी उसके विपरित अभ्यार्थी चूनाव जितते थे.

५.      ४५ प्रतिशत मतदान हुआ था और उसमें भी कोंग्रेसको ४५ प्रतिशतका भी ४५ प्रतिशत मतलब कि २० प्रतिशत मत मिले थे जिसमें फर्जी मत भी सामील थे जो जो अन्य पक्षोंके थे.

६.      कई सारे अपक्ष प्रत्यासी के कारण कोंग्रेसके विरुद्धके मत बिखर जाते थे. ब्रीटीश सरकारके समयमें किये गये स्थानिक सरकारमें कोंग्रेसको हमेशा ७५ प्रतिशतसे ज्यादा मत मिलते थे. यह ४५ प्रतिशत जिसमें ज्यादातर फर्जी मत भी संमिलित थे तो भी उस समय तकके यह मत सबसे कम मत थे.

७.      ऐसी परिस्थितिके कारण कोंग्रेसको ४८९ मेंसे ३६४ बैठक मिली थीं.

 

१९५७ का चूनावः

नहेरुको छोडकर कोंग्रेसके अन्य नेता गांधीवादके ज्यादा नजदीक थे. उन्होने अच्छा काम किया था. बडी बडी नहेर योजनायें बनी थी. इसके कारण ग्राम्यप्रजा कोंग्रेसके साथ रही. लेकिन शहरोमें वही बेईमानी चली जो १९५२में चली थी. भाषावार प्रांतरचनामें नहेरुने खुद भाषावादके भूतको जन्म दिया था. यह सर्वप्रथम “जनताको विभाजित करो और चूनाव जितो” का प्रयोग था. अपि तु नहेरु हमेशा जनसंघ और हिन्दुमहासभाके विरुद्ध प्रचार करते थे.

मतदान ५५ प्रतिशत हुआ था. और कोंग्रेसको ४८ प्रतिशत मतके साथ ३७१ बैठकें मिली थीं. कुल ४९४ बैठके थीं.

कोंग्रेसने केराला खोया था. मुंबई (गुजरात, महराष्ट्र, कर्नाटक संयुक्त होनेके कारण ) खोया नहीं था.

 १९६२का चूनावः

चीनके साथ युद्ध होना बाकी था. चीनकी घुसपैठके कारण नहेरु बदनाम होते रहेते थे. लेकिन मीडीया नहेरुका गुणगान करता था. ओल ईन्डीया रेडियो कोंग्रेसका ही था.

मुस्लिम लीगके साथ समझोता करके कोंग्रेसने मुस्लिमोंमें कोमवादके बीज बो दिये थे.

१९५८ -१९६० के अंतर्गत, कोंग्रेस ने भाषावार प्रांतरचना करके कई राज्योंको खुश भी किया था.

१९६२में दीव, दमण और गोवा उपर आक्रमण करके उसको जित लिया था.

कई बैठकों के उपर, कोंग्रेसने साम्यवादीयोंका सहारा लिया था.

उद्योग बढे थे. राज्योंकी सरकारोंने अच्छा काम किया था.

मतदान ५५ प्रतिशत हुआ था. कोंग्रेसको ४५ प्रतिशत मत मिले थे. ३६१ बैठकें मिली थीं. कुल बैठक ४९४ थीं.

अगर मीडीयाने चीनका मामला दबाया नहीं होता और नहेरुके विरोधीयोंको बदनाम किया नहीं होता तो चित्र अलग बन सकता था. मीडीया उस समय पढे लिखे लोगोंको भ्रमित करती थी. अनपढ लोग देहातोंमे काफि थे. उनको आतंर्‌ राष्ट्रीय बातोंसे कोई संबंध नहीं था. पंचायती राजने देहातोंके लोगोंको अपने अपने स्वकीय हितवाले राजकारणमें घसीट लिया था. देशकी निरक्षरताने कोंग्रेसको पर्याप्त लाभ किया था.

१९६२- १९६७ का समयः

कोंग्रेसके खिलाफ जनमत जागृत हो गया था. नहेरुकी बेवकुफ नीतियोंका भांडा फूट चूका था. नहेरुने जो चालाकीसे विरोधीयोंको निरस्त्र करनेके दाव खेले थे वे उजागर होने लगे थे. विदेशनीतिकी खास करके चीनके साथ पंचशील करार वाली विफल विदेश नीति जनताको मालुम हो गई थी. नहेरुको शायद मालुम था कि, अगर उनके बाद अपनी बेटीने देशकी लगाम हाथ न ली तो उनके द्वारा कि गई हिमालय जैसी बडी मूर्खता जनता जान ही जायेगी. और इसके कारण उनका नाम इतिहासमें काले अक्षरोंसे लिखा जायेगा. अपनी बेटी इन्दीराको देशकी धूरा सोंपने के लिये उन्होने सीन्डीकेट बनायी थी.

इस सीन्डीकेटने नहेरुको वादा किया था कि अगर हम दूबेंगे तो साथमें डूबेंगे और पार कर जायेंगे तो साथमें तैरके पार कर जायेंगे. नहेरुवीयन कोंग्रेसकी एक प्रणाली है, कि जब भी गंभीर समस्या आती है तब आमजनताका ध्यान मूलभूत समस्यासे हटानेके लिये तत्वज्ञान की भाषाका उपयोग करके नौटंकी करना.

“संस्थाको मजबूत करो” यह नारा बनाया और मोरारजी देसाईको मंत्रीमंडलसे हटाया. मोरारजी देसाईको गवर्नन्स को सुधारने के लिये एक वहीवटी-सुधारणा पंच बनवाके उसका अध्यक्ष बना दिया. इसप्रकार मोरारजी देसाईको उन्होने कामराजप्लानके अंतरगत खतम कर दिया था. इसमें मीडीयाने पूरा साथ दिया था. चीनके साथ जो शर्मनाक पराजय हुई उसको मीडीयाने इस प्रकार भूला दिया. जैसे आज केजरीवालको मीडीया चमकाने लगी है और कोंग्रेसकी राज्योंमें हुई घोर पराजयोंको पार्श्व भूमिमें रखवा  दिया है.

दुसरा उन्होने यह किया कि समाजवादी पक्षको “समाजवाद”के नाम पर अपनेमें समा दिया.

तो भी जो चीनके साथके युद्धमें जो बदनामी हुई थी वह पूर्ण रुपसे नष्ट नहीं हुई. और नहेरुकी १९६४में वृद्धावस्था जल्द आजानेसे मृत्य हो गई. उस समय राष्ट्रपति बेवकुफ राष्ट्रपति नहीं थे इस लिये शिघ्रतासे ईन्दीरा गांधीका राज्याभिषेक नहीं हो पाया. लालबहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री करना पडा.

नहेरुवीयन प्रधान मंत्रीसे अ-नहेरुवीयन प्रधान मंत्री हमेशा अधिक दक्षतापूर्ण होता है यह बात शास्त्रीने सबसे पहेले सिद्ध की. लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि, पाकिस्तानको डर लगने लगा. और उसने अपने यहांसे हिन्दुओंको भगाने का काम चालु किया. जैसा भारतमें कोंग्रेसका चरित्र है, वैसा पाकिस्तानमें उसके शासकोंका चरित्र है. पश्चिम पाकिस्तानमें सिंधी, पंजाबी, बलुची, मुजाहिदों के बिच राजकीय आंतरविग्रह चलता था. तो वहांके सैनिक शासकोंने भारत पर हमला कर दिया. पाकिस्तानको शायद ऐसा खयाल था कि चीनके सामने भारत हार गया है तो हमारे साथ भी हार जायेगा. वास्तवमें यदि नहेरुने भारतकी चीनके साथ लगी सीमाको निरस्त्र नहीं रखी होती तो चीनके साथ भी युद्धमें भारत हारता नहीं,

पाकिस्तानके युद्धमें दोनों देशोंने एक दुसरेकी जमीन पर कब्जा किया था. लेकिन भारतने जो कब्जा किया था वह पाकिस्तानके लिये अधिक महत्वपूर्ण था. इसलिये ऐसा लगता था कि, भारतका हाथ उपर है. और अब पाकिस्तान को ऐसा सबक मिलेगा कि, वह कभी भी गुस्ताखी करनेका नाम लेगा नहीं. लेकिन रशिया और अमेरिकाने मिलके तास्कंदमें भारतके प्रधान मंत्रीपर ऐसा दबाव डाला कि, करार के अनुसार दोनोंकों अपनी अपनी भूमि वापस मिले. ऐसा माना जाता है कि, शास्त्रीजीका आकस्मिक निधन इसी वजहसे हुआ. और यह बात आज तक रहस्यमय है. शास्त्रीजीके दक्षता पूर्ण शासन और निधनसे कोंग्रेसका तश्कंदका लगा कलंक तो पार्श्वभूमिमें चला गया.

सीन्डीकेटने इन्दीरा गांधीको प्रधानमंत्री बना दिया. जैसे आज नरेन्द्र मोदीके हरेक वक्तव्योंकी बालकी खाल निकालते है ठीक उसी तरह प्रसारमाध्यमोंने भी सीन्डीकेटको समर्थन दिया और मोरारजी देसाईके वक्तव्योंकी बालकी खाल निकाली.

इन्दीरा गांधी एक सामान्य औरत थी, जैसा आज राहुल गांधी है.

१९६७ का चूनाव

गुजरातमें स्वतंत्रपक्ष उभर रहा था.  अन्य राज्योंमें भी स्थानिक या राष्ट्रीय पक्ष उभरने लगे थे. इसमें संयुक्त समाजवादी पक्ष, साम्यवादी पक्ष, जनसंघ मूख्य थे. कोंग्रेसकी नाव डूब रही थी. लेकिन विपक्ष संयुक्त न होने की वजहसे और कोंग्रेस अविभाजित थी और उसका संस्थागत प्रभूत्व ग्राम्यस्तर तक फैला हुआ था, इसलिये उसको केन्द्रमें सुक्ष्म तो सुक्ष्म, लेकिन बहुमत तो मिल ही गया.

इस चूनावमें ६१ प्रतिशत मतदान हुआ. कोंग्रेसको ४१ प्रतिशत मत मिले थे. और उसको ५२० मेंसे २८३ बैठकें मिलीं. विपक्षको विभाजित होने के कारण २३७ बैठकें मिली. कई राज्योंमें कोंग्रेसने शासानसे हाथ धोये.

सीन्डीकेटको भी पता चला कि, मोरारजी देसाई जैसे दक्षता पूर्ण व्यक्ति मंत्रीमंडळमें नहीं होनेकी वजहसे पक्षको घाटा तो हुआ ही है. अगर कमजोर प्रधान मंत्री रहेंगे तो भविष्यमें कोंग्रेस नामशेष हो सकती है. सिन्डीकेटने मोरारजी देसाईको, इन्दीरा गांधीकी नामरजी होते हुए भी, मंत्री मंडलमें सामिल करवाया.  

ऐसा माना जाता हैअ कि, अब ईन्दीरा गांधीने राजकीय मूल्योंको बदल देनेका प्रारंभ किया वह भी विदेशी सलाहकारोंके द्वारा.

क्रमशः

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः  १९५२, १९५७, १९६२, १९६७, चूनाव, मतदान, मतदाता, मतपत्र, मतपेटी, मतकक्ष, कोंग्रेस अविभाजित, जनसंघ, हिन्दुमहासभा, मुस्लिम लीग, साम्यवादी, भ्रष्ट, सीन्डीकेट, नहेरुवीयन, मोरारजी, पारदर्शिता, जनप्रतिनिधित्व, जन, लोकपाल, विधेयक, प्रारुप, अभ्यर्थी

 

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