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Archive for November, 2019

हम कैसे वितंडावादीको परिलक्षित (आइडेन्टीफाय) करें?

हम कैसे वितंडावादीको परिलक्षित (आइडेन्टीफाय) करें?

वितंडावाद क्या है?

यदि कोई, चर्चाके विषय पर असंबद्ध, प्रमाणहीन और स्वयंसिद्ध विधिसे चर्चा प्रस्तूत करें, इसको वितंडावाद कहा जाता है. वितंडावादका प्रयोजन वैसे तो पूर्वग्रह भी हो सकता है. किन्तु क्वचित ऐसा भी होता है कि, स्वयंमें कोई पूर्वग्रह है या नहीं वह लेखक स्वयंको ज्ञात होता नहीं है.

यदि लेखकको ज्ञात होता है कि, अपना पक्ष सही नहीं है तत्‌ पश्चात्‌ भी वह वितंडावाद करता है तो उसका प्रयोजन वह किसी सांस्कृतिक समूहके ध्येय पर वह काम कर रहा है. लेखक उस समूहका सदस्य हो सकता है. कोई एक समूहका सदस्य होनेके कारणसे वह उस समूहके ध्येय के अनुसार लिखता है. तात्पर्य यह है कि लेखक जो विवरण उसके ध्येयके अनुरुप नहीं है उसको प्रकट नहीं करता है और जो ध्येयको अनुरुप है उसको किसी भी प्रकार प्रकट किया करता है.

वितंडावादी को कैसे परिलक्षित (पहेचाने) करे?

कोमन मेन

जैसे कि, कोई एक समय “जे.एन.यु.” में देशविरोधी सूत्रोच्चार किया गया. इस घटनाका विवरण किन किन वैचारिक जूथोंने कैसे किया था? याद करो.

सर्व प्रथम सूत्रोच्चारोंसे अवगत हो

“भारत तेरे टूकडे होगे, इन्शाल्ला इन्शाल्ला

“कश्मिरको चाहिये आज़ादी … आज़ादी …  छीनके लेंगे आज़ादी … आज़ादी … लडके लेंगे आज़ादी … आज़ादी…

“अफज़ल हम शर्मींदा है … तेरे कातिल जिन्दा है …

“कितने अफज़ल मारोगे हर घरसे अफज़ल निकलेगा …

इन सूत्रोंसे संदेश क्या मिलता है?

संदेश तो यह है कि इन लोगोंको “भारतको तोडना है”,

सूत्रोच्चार करनेवाले देशहितके विरोधी है,

सूत्रोच्चार करनेवाले देशविरोधी वातावरण बनानेका प्रयत्न कर रहे है,

सूत्रोच्चार करनेवाले जनतंत्रमें मानते नहीं है,

सूत्रोच्चार करनेवाले संविधानमें मानते नहीं है,

सूत्रोच्चार करनेवाले अहिंसामें मानते नहीं है, पर्याप्त जनाधार न होनेके कारण इन्होंने हिंसा नहीं की किन्तु हिंसाके लिये प्रचार अवश्य किया.

हिंसाका साक्ष्य नहीं

कुछ मूर्धन्य लोग, इस घटनामें  प्रत्यक्ष हिंसाका साक्ष्य (एवीडन्स) नहीं होने से,  इन सूत्रोंच्चार करनेवालोंको अहिंसक मानते है और ऐसी ही एक प्रणाली स्थापित करना चाहते हैं,

चूकि इसमें प्रत्यक्ष हिंसाका साक्ष्य नहीं है इसको लोकतंत्रके अधिकारके रुपमें देखते है,

यह विद्यार्थीगण, जे.एन.यु.में शिक्षा प्राप्त करनेके लिये आते है और इन सूत्रोच्चारोंको शिक्षाके एक  परिमाणके रुपमें समज़ते है और स्थापित करना चाहते हैं. यानी कि ऐसा करना शिक्षाका एक भाग है.

इस घटनाके संबंधित बिन्दु (टोपिक) क्या है?

ये सभी सूत्र घटनाकी चर्चाके  बिन्दु ही तो हैं. इनके उपर चर्चा हो सकती है.

प्राथमिकता किन किन बिन्दुओंको दी जाय?

(१) सूत्रोंको  प्राथमिकता देना आवश्यक है,

(२) सूत्रोंका पूर्वनियोजित रीतिसे समूह द्वारा उच्चारण करवाना इनमें विद्यार्थीयोंका ध्येय तो निहित है, तो इन विद्यार्थीओं पर कार्यवाही किस प्रमाण-प्रज्ञाने होना आवश्यक है, तो इनके उपर चर्चा की जाय.

(३) इन विद्यार्थीयोंकी पार्श्वभूमि क्या है उसका भी अन्वेषण होना आवश्यक है इसके उपर चर्चा होना आवश्य्क है,

(४) इन विद्यार्थीयोंने क्या और कैसे आयोजन किया था उसके उपर अन्वेषण होना आवश्यक है इसके उपर भी चर्चा हो सकती है,

(५) यह घटना देशके लिये श्रेय है या नहीं इसके उपर चर्चा हो सकती है,

(६) इन विद्यार्थीयों पर कार्यवाही करके कितना दंड देना आवश्यक है इसके उपर चर्चा हो सकती है,

(७) इन विद्यार्थीयोंके बाह्य सहयोगी कौन कौन है और उनका कार्यक्षेत्र क्या है उसके उपर अन्वेषण होना आवश्यक है इसके उपर चर्चा आवश्यक है.

किन्तु यदि आप बीजेपी शासनके विरोधी है तो आप क्या करोगे?

तो आप सूत्रोंका उल्लेख ही विवरणमें करोगे नहीं.

कुछ समाचार माध्यमके विश्लेषकोंने “सूत्रों”का उल्लेख ही उचित नहीं माना, यानी कि “सूत्रों”के अर्थका कोई महत्त्व ही नहीं है. इन महानुभावोंने “सूत्रों”को उपेक्षित ही किया.

उनका कहेना है  शासनके विरुद्ध अहिंसक विद्रोह करना संविधानिक अधिकार है … सूत्रोंसे देशको हानि नहीं होती … कई राजकीय पक्षोंके नेता और समाचार माध्यमोंके संवादक इन विद्यार्थी नेताओंका साक्षात्कार करनेके लिये तत्पर बने और उनका साक्षात्कार भी किया. राहुल गांधी जैसे मूर्ख नेताओंने तो इन नेताओंको कह भी दिया कि “ … तूम आगे बढो … हम तुम्हारे साथ है …”

मूर्धन्योंके, नेताओंके और समाचार माध्यमोंके इस प्रकारके प्रचारसे क्या होता है?

ऐसी घटनाओंका पुनरावर्तन होता है. 

अन्य कोमवादी मानसिकता रखनेवाली शिक्षा-संस्थाओंके विद्यार्थीओंने जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंके समर्थनमें प्रदर्शन किये. इनसे जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंके मनोबलमें असीम वृद्धि हुई.

बीजेपी शासनने जे.एन.यु. के नियमोंमें कुछ संशोधन किया.

क्यों संशोधन किया?

“अरे भाई, हम तो दोघलापन दिखानेवाले है ही नहीं. जो अन्य सरकार संचालित संस्थाएं है उसमें जो शिक्षण फीस और अन्य शुल्क शिक्षार्थीयोंसे लिये जाते है उसके साथ जे.एन.यु. के फीस और शुल्क तुलनात्मक होना आवश्यक है. यह आवश्यक नहीं है कि यदि कोई न्यायालयमें जाके न्याय मांगे और न्यायालय आदेश करें तभी हम फीस और शुल्कमें तुलनात्मकतासे परिवर्तन करें. सरकारी अन्य संस्थाएं, जे.एन.यु.से, प्रतिविद्यार्थी दशगुना खर्च करती है. यह सरकार पक्षपात्‌ नहीं कर सकती. पक्षपात्‌ करना भारतीय संविधानके विरुद्ध है.

“लेकिन जे.एन.यु. एक विशिष्ठ संस्था है …

“देशमें कई संस्थाएं विशिष्ठ है … वीजेटीआई, खरगपुरकी आई.टी.आइ. रुडकी आई.टी.आई. …

जी हाँ … सरकारने जेएनयुमें फीस और शुल्कमें वृद्धि की. अब इस वृद्धिका विवरण हम करेंगे नहीं. क्यों कि ये सब विवरण “ऑन-लाईन” पर उपलब्ध है.

किन्तु अब आप देखो मूर्धन्योंका वितंडावाद.

किस मूर्धन्यकी हम बात करेंगें?

प्रीतीश नंदीकी बात हम करेंगे.

डीबीभाईने [(दिव्य भास्कर दैनिक दिनांक २०-११-२०१९) गुजराती प्रकाशन ] प्रीतीशका लेख

यह प्रीतीशभाई, “जे.एन.यु. घटना”की सद्य घटित घटना जिसमें  फीस-शुल्क वृद्धिके अतिरिक्त कुछ विशेष भी संमिलित है उन बातोंको पतला-दुर्बल करनेके लिये नक्षलवादके जन्म तक पहूँच जाते है. और विवरणका प्रारंभ वहाँसे करते है.

“विद्यार्थी तो पहेलेसे ही विद्रोही होता है,

 “मैं जब महाविद्यालयमें था …. मुज़े पता चला कि कुछ अदृष्य हुए विद्यार्थी क्या कर रहे थे !!! अरे वे तो किसान और भूमिहीनोंकी लडाई लडनेके लिये देहातोंमें गये थे. वे तो संघर्ष करते थे. और कुछ तो उसमें शहिद भी हो गये. … अरे ये विद्रोही विद्यार्थीयोंमें कई लोग तो धनवान माता-पिताकी संतान थे … ये विद्यार्थी लोग सुविधाजनक जिंदगीसे उब चूके थे …” वगैरा वगैरा … तत्त्वज्ञान और त्याग … की बातें हमारे प्रीतीशभाईने लिख डाली. क्यों कि उनको जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंकी असाधारणता और उत्कृष्टता सिद्ध करनेके लिये ऐसी एक भूमिका बनानी है. चाहे उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुपसे भी सीधा या टेढा-मेढा संबंध भी न हो, तो भी.

जैसे कि

“हालके नोबेल पुरस्कारके विजेता के पिता भी हमारे महाविद्यालयमें हमारे अध्यापक थे.”

भला ! यह भी कोई तर्क है?

फिर हमारे प्रीतीशभाई, इन कुछ विद्यार्थीयोंकी तथा कथित “जीवनकी सार्थकताकी शोधकी तालाशामें थे” इस बातका जीक्र करते है.

“उस समयकी कविताएं, नाट्यगृहके नाटक, मूवीज़, शानदार वार्ताएं … आदि, उनकी निरस जीवनको पडकार दे रही थीं. … ये लोग तो समाजको एक कदम आगे ले गये थे … लेकिन समाजको बदलनेका उनके स्वप्नको किसीने भी सहयोग नहीं दिया … कोंग्रेस ने भी … (हंसना मना है)

फिर हमारे प्रीतीशभाई फ्रांस, जर्मनी, युरोपके देशों की बाते करते है. उन देशोंके तथा कथित हिरोका नाम लेते है. चाल्स द गॉल के विरुद्ध युवानोंने अभियान चलाया इस बातका भी उल्लेख करते है.

शायद प्रीतीशभाई पचास या साठके दशककी बातें कर रहे है.

“विद्यार्थी तो विद्यार्थी है, उसको तो पढाईमें ध्यान देना चाहिये”. इस बातको प्रीतीशभाई नकारते है. और उसी तर्क का आवर्तन करते है कि सूत्रोच्चार करने के लिये विद्यार्थीयोंको “टूकडे टूकडे गेंग” और “देश द्रोही” के आरोपी बनाये जाता है. प्रीतीशभाई यह भी लिखते है कि “विद्यार्थी विरोध नहीं करेगा तो कौन विरोध करेगा?” प्रीतीशभाई इस के समर्थनमें लिखते है कि अमेरिकाके  विद्यार्थीयोंने विएटनाम युद्धका विरोध किया था, ब्रीटनके विद्यार्थीयोंने  ब्रेक्ज़िटका विरोध किया था तो किसीने भी उनको “देशद्रोह”का लेबल नहीं लगाया था, तो यदि “जे.एन.यु. घटना” पर जे.एन.यु.के विद्यार्थीयों पर देशद्रोहका आरोप क्यों?

प्रीतीशभाईने  “वादोंका” भी जीक्र भी करते है.

१०० प्रतिशत लेख इन असंबंध विवरणोंसे भरा है.

क्या हमारे मूर्धन्य लोग सीधी बात नहीं कर सकते?

लोकशाहीमें सूत्रों को पूकारे जाते हैं किन्तु उसकी एक प्रक्रिया होती है. केवल सूत्र पूकारना एक गंदी सियासत है. आओ चर्चा करें…

आपके विश्वविद्यालयमें ही आपसे भीन्न विचारधारा रखनेवालोंसे  चर्चा सभा आयोजित करो. वियेतनाम युद्ध या चाल्स द गॉल या ब्रेक्ज़िट और अफज़लको फांसी   आदि ये तुलनात्मक विषय नहीं है. कमसे कम भारतके मूर्धन्यों की प्रज्ञानेमें यह भ्रम नहीं होना चाहिये.

प्रीतीश भाई कहेते है कि;

“ जे.एन.यु. के विद्यार्थीयोंका अनुरोध (डीमान्ड) न तो विश्वविद्यालय की फीसमें वृद्धि के विरोधमें है, न तो शुक्ल वृद्धिके विरोधमें है, न तो नियमोंमें किये गये परिवर्तनके विरोधमें है, न तो उपाहार गृह ११ बजे तक ही खूला रहेगा उसके विरोधमें है … वास्तवमें उनका विरोध वे उस जगतका विरोध कर रहे है जिसमें वे है, जिस दुनिया उनकी सरलता, निरापराधताकी परीक्षा ले रही है…..

इन विद्यार्थीयोंको (जिनके नेताविद्यार्थीगण २६ वर्षसे ४१ वर्षके है) उनको नियमबद्ध करना और भयभित करना बंद करो …. क्यों कि ऐसा करनेसे हमारे ये विद्यार्थी, वाहियात कायदाओंको मानने वाले हमारे जैसे स्वप्नहीन और बिनादिमागवाले बन जायेंगे … आदि आदि आदि “.

भाई मेरे प्रीतीश, क्या तत्त्वज्ञान चलाया है आपने, जिसमें कोई सुनिर्देशित मुद्दा ही नहीं है. प्रीतीशभाई का लेख एक ऐसे असंबंद्ध अनिश्चित बातोंसे पूर्ण होता है.

पढनेके पश्चात्‌ हमे लगता है कि हम कोई मूर्धन्यका लेख पढ रहे है या  कोई स्वयं प्रमाणित, स्वयंप्रमाणित सर्वतत्त्वज्ञ संत रजनीश मल जैसे बाबाका लेख?

लोकशाहीमें विरोध आवश्यक है. चर्चा आवश्यक है.  यह बात तो नरेन्द्र मोदी भी कहेते है. किन्तु विरोध करने की भी रीत होती है.

महात्मा गांधीको पढो.

कमसे कम उनका “मेरा स्वप्नका भारत” पढो और विरोध कैसे किया जाना चाहिये उनके उपर भी उन्होंने स्पष्ट रुपसे लिखा है. यदि आप शास्त्र पढनेमें मानते नहीं है और आप जिसको आपका हक्क समज़ते है और वही हक्क दुसरोंका नहीं होना चाहिये ऐसा ही मानते है तो सरकार अपनी दंड संहितासे आपको दंडित करेगा.

किन्तु दुःखकी बात यह है कि भारतके मूर्धन्य भी पूर्वग्रह से पीडित है और वे स्वयं वितंडावाद में ग्रस्त है.

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

अविज्ञातप्रबंधस्य वचः वाचस्पतिः इव I

व्रजति अफलतां एव नयत्युह इव अहितम्‌ II

बृहस्पतिकी वाणी जैसी उक्ति भी यदि संदर्भहीन हो तो, वह भी अन्याय करने वाले मनुष्यकी तरह निरर्थक है.

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ભારતમાં લોકશાહીને સુરક્ષિત રાખવાનું દે ધનાધન

ભારતમાં લોકશાહીને સુરક્ષિત રાખવાનું દે ધનાધન

ભારતમાં લોકશાહીને સુરક્ષિત કોણે રાખી?

ભારતરત્ન

શું આ સળગતી સમસ્યા છે?

“ના જી. આ સળગતી સમસ્યા નથી. અરે સમસ્યા પણ નથી.

“હા પણ કોંગીઓ માટે, જો નહેરુને, આ માટે નહેરુના યોગદાનને, માન્યતા ન આપીએ તો કોંગીઓનો, એકમાત્ર હકારાત્મક મુદ્દો, (ભલે તો વિવાદાસ્પદ હોય) નષ્ટ પામી જાય.

પણ આપણને શો ફેર પડે?

“હા ભાઈ, અમને ફેર પડે કારણ કે અમે કોંગીને મૂળ કોંગ્રેસ માનીએ છીએ. મૂળ કોંગ્રેસ એટલે કે જે કોંગ્રેસે સ્વાતંત્ર્યની ચળવળમાં પોતાની જાતને હોમી દીધી હતી. જવાહર લાલ નહેરુએ પણ કોંગ્રેસની અંદર રહીને પોતાની જાતને હોમી દીધી હતી. ઇન્દિરા, રાજીવ, સોનિયા, રાહુલ, પ્રિયંકા … નહેરુ સાથે પ્રાણીશાસ્ત્ર પ્રમાણે સંબંધિત છે, તેથી કોંગ્રેસ પણ મૂળ કોંગ્રેસ છે. સાધ્યં ઇતિ સિદ્ધમ્‌.

“પણ મૂળ કોંગ્રેસમાં તો બીજા લોકો પણ હતા. અને આ બીજા લોકોએ પણ પોતાની જાતને સ્વાતંત્ર્યની ચળવળમાં હોમી દીધી હતી, તેનું શું? જેમ કે લોહિયા, જયપ્રકાશ નારાયણ, મોરારજી દેસાઈ, રાજ ગોપાલાચારી, વિનોબા ભાવે … આવા અસંખ્ય મહાનુભાવો છે.

“ અરે ભાઈ …, તેઓ કોંગ્રેસમાંથી નિકળી ગયેલા. તેઓ એ તો પોતાની કોંગ્રેસ સ્થાપેલી… જેમકે કોંગ્રેસ રીયલ, કોંગ્રેસ સંસ્થા … એટલે તેમને નહીં ગણવાના … પછી ભલે તેમણે નહેરુના દાવપેચને કારણે કે વંશવાદને કારણે કે સિદ્ધાંતોને કારણે કોંગ્રેસ છોડી હોય. તેમનું લોકશાહી માટેનું યોગદાન શૂન્ય ગણવાનું અને લોકશાહીને જીવતી રાખવાનું શ્રેય, નહેરુને જ આપવાનું. કારણ કે સત્તા તો તેમની પાસે હતી ને? જે સત્તાના શિર્ષ સ્થાન ઉપર હોય, તેને જ બધા શ્રેય આપવાના અને જે દુષણો/ક્ષતિઓ હોય તે જે તે ખાતાના મંત્રીઓને આપાવાના. હા ભાઈ હા, જમવામાં જગલો અને કૂટાવામાં ભગલો. ખબર નથી તમને? ઇતિ.

 “ભારતમાં લોકશાહી ક્યા કારણોસર સ્થપાઈ અને કયા કારણોસર ચાલુ રહી? શા માટે આપણા પડોશી દેશોમાં લોકશાહી ચાલુ ન રહી શકી? આપણા પાડોશી દેશોમાં ચાલુ ન રહી શકી, અને આપણા દેશમાં ચાલુ રહી, તે માટે આપણે કોને તો શ્રેય આપવું જોઇએ? નહેરુને શા માટે આ શ્રેય ન આપવું?

જો દેશના મૂર્ધન્યો અમુક બારીઓ ખુલ્લી ન રાખે તો ભલે તેઓ કોઈ પણ ઉંમરે પહોંચે તો પણ તેમની માન્યતા ન બદલી શકે.

પૂર્વગ્રહ વાસ્તવમાં છે શું?

ધારો કે આપણને એક કોટડીમાં રાખ્યા છે, કે આપણે જાતે તેમાં ગયા છીએ, અને તેમાં રહીએ છીએ… આપણે અંદર ગયા છીએ એટલે એક બારણું તો હોવું જ જોઇએ… એટલે ત્યાંથી તો પવન અને પ્રકાશ આવે … પવન એટલે બહારનું વાતાવરણ. અને પ્રકાશ એટલે અજવાળું.

આ “કોટાડી”ને તમે એક વૈચારિક કોટડી સમજી લો … આ કોટડીને ગોળાકાર કોટડી સમજી લો.

બારીઓ વિષે શું છે?

બધી બારીઓ વિષે તમે જાણતા નથી, અથવા

ક્યાં ક્યાં બારીઓ છે તે તમે જાણો છો પણ અમુક જ બારીઓ તમારે ખોલવી છે. અથવા,

બીજી બારીઓ તમારે બંધ રાખવી છે.

બારીઓમાંથી માહિતિઓ આવે છે.

દરેક ખૂલ્લી રાખલી બારીમાં તમે ડોકીયું કરી શકો છો અને જે તે બારીમાંથી તમને બહારની ભીન્ન ભીન્ન પરિસ્થિતિનો ક્યાસ તમને મળે છએ અથાવા તો તમે તે ક્યાસ મેળવવા સક્ષમ છો.

હા જી. લોકશાહી ચાલુ રહી તે તો આપણી માનસિક વિકાસની પારાશીશી છે. તો હવે તેનું શ્રેય કોને આપીશું? આ શ્રેય જો તમારે ઓળઘોર કરીને જ કોઈને આપવું હોય તો તમે ગમે તેને આપી શકો છો. રાજિવ ગાંધીને “ભારતરત્ન”નો ખિતાબ આપેલો જ છે ને!

કોંગ્રેસ અને કોંગી એ બેની વચ્ચેનો જે વૈચારિક અને કાર્યશૈલી વચ્ચેનો ભેદ છે તે જેઓ સમજ્યા નથી, કે સમજવા માગતા નથી કે સમજવા માટે તૈયાર નથી તેઓ કોઈપણ રીતે કે રીત વગર આ ચાલુ રહેલી લોકશાહીનો યશ નહેરુને આપવા માગે છે.

આ એક ફરેબી વાત છે.

દેશ, રાષ્ટ્ર, લોકશાહી, જનતંત્ર અને ગુલામી … આ બધી વ્યવસ્થા ભીન્ન ભીન્ન છે.

“દેશ” એ એક રાજકીય વિસ્તાર છે. રાષ્ટ્ર એ એક સાંસ્કૃતિક વિસ્તાર છે.

ભારત દેશ, બ્રીટીશ સામ્રાજ્યમાં હોવા છતાં પણ બ્રીટીશ હિન્દના તાબાના પ્રદેશોમાં ચૂંટણી થતી હતી. તેના જનપ્રતિનિધિઓ હતા. જ્યાં દેશી રાજ્યો હતા ત્યાં દેશી રાજાઓનું રાજ હતું. જોકે અંતિમ નિર્ણય બ્રીટીશ સામ્રાટનો ગણાતો. પણ કાયદાનું રાજ્ય હતું.

તે વખતે મૂર્ધન્યોની માનસિકતા કેવી હતી?

“દેખ બિચારી બકરીનો પણ કોઈ ન પકડે જાતાં કાન,

એ ઉપકાર ગણી ઈશ્વરનો, હરખ હવે તું હિંદુસ્તાન” (કવિ દલપત રામ)

પણ આમાં કવિ દલપતરામનો વાંક ન હતો. તેમણે પેશ્વાના રાજને પણ જોએલું. તેમના સમયની અરાજકતા તેમણે અનુભવેલી કે સાંભળેલી. અને તે પછી કાયદાના રાજવાળું બ્રીટીશ શાસન તેમણે અનુભવેલું. ભારત દેશ ગુલામ હોવા છતાં પણ પેશ્વાના રાજ કરતાં વધુ સ્વતંત્ર હતો કારણ કે કાયદાનું રાજ હતું. અન્યાય ઓછો હતો.

વળી ભારત “વસુધૈવ કુટૂંબકમ્‌” ની ભાવના વાળો હતો એટલે પીંઢારા અને પેશ્વાના સુબેદારો ના શાસન કરતાં અંગ્રેજોને સારા ગણતો હતો. સામાન્ય રીતે અંગ્રેજો સારા હતા અને તેઓ કાયદાને માન આપતા હતા. ખામી ફક્ત એ હતી કે કાયદો બદલવાનો હક્ક ભારતીયોને ન હતો અને કાયદો ત્યારે જ બદલાતો જ્યારે બ્રીટીશ ક્રાઉન નો સીક્કો વાગતો. બ્રીટીશ ક્રાઉનનો સીક્કો ત્યારે જ વાગતઓ જ્યારે બ્રીટીશ સંસદ જે તે ઠરાવને મંજૂરી આપતી.

આ એક સુક્ષ્મ ભેદ હતો.

આવા બ્રીટીશ રાજ્ય સામે ભારતની નેતાગીરીને વિદ્રોહ માટે તૈયાર કરવી એ ઘણું અઘરું કામ હતું.

૧૮૫૭ના સ્વાતંત્ર્ય સંગ્રામ નિસ્ફળ જવાના કારણો વિષે, ઘણા નેતાઓએ મનોમંથન અને આત્મ મંથન કર્યું હતું અને કરતા રહ્યા હતા. આ નેતાઓમાં બે પ્રકારના નેતાઓ હતા. એક દેશપ્રેમી અને બીજા રાષ્ટ્રપ્રેમી.

દેશપ્રેમી લોકોમાંના મોટા ભાગના બ્રીટીશ શિક્ષણનું ઉત્પાદન હતા. અને રાષ્ટ્રપ્રેમી નેતાઓ સામાન્ય રીતે સંસ્કૃતભાષાના પંડિતો હતા. રાજા રામમોહન રોય, બ્રીટીશ શિક્ષણનું ઉત્પાદન હતા. દયાનંદ સરસ્વતી સંસ્કૃત ભાષાનું ઉત્પાદન હતા.

ભારત રાષ્ટ્રની નેતાગીરી, શાસ્ત્રો ઉપર અને તેમના ગૌરવ ઉપર પ્રચ્છન્ન રીતે આધારિત હતી. ભારતદેશની નેતાગીરી બ્રીટીશ રાજના શિક્ષણ અને કાયદાઓ ઉપર આધારિત હતી. કેટલાક દેશપ્રેમીઓનો ભ્રમ વિવેકાનંદના આવ્યા પછી ભાંગવા માંડ્યો હતો. બાલ ગંગાધર ટીળકનો ભ્રમ તૂટ્યો. રૉલેટ એક્ટ આવ્યા પછી અને જલીયાવાલા બાગની ઘટના પછી ગાંધીજીનો પણ ભ્રમ તૂટી ગયો. આ બંને નેતાઓ ભારતદેશના નેતાઓ હતા. (ભારત રાષ્ટ્રના નહીં). ૧૯૧૬માં ગાંધીજી ભારતમાં આવ્યા અને કાલાંતરે ચંપારણનો સત્યાગ્રહ કર્યો, આ અંતરાલમાં ગાંધીજી “ભારતરાષ્ટ્ર”ના નેતા બની ગયા. ગાંધીજીને ખ્યાલ આવી ગયો કે ભારતદેશ કરતાં ભારતરાષ્ટ્ર વધુ સુસંસ્કૃત છે અને ઉચ્ચ છે. ભારતની સમાજવ્યવસ્થા અંગ્રેજ સરકારની સમાજ વ્યવસ્થા કરતાં વધુ ઉચ્ચ અને વધુ શ્રેય છે. ભારતની જનતા માટે ભારતરાષ્ટ્રની શાસ્ત્રીય વ્યવસ્થા ભારતની જનતા માટે વધુ ગ્રાહ્ય છે. ગાંધીજીને એ વાતની અનુભૂતિ થઈ કે ભારતમાં વ્યાપ્ત સનાતન ધર્મ વ્યવસ્થાને કારણે જ ભારતમાં સનાતન ધર્મ, સેંકડો આક્રમણો છતાં ટકી રહ્યો. ઈટાલી, ગ્રીસ, ઈજીપ્ત, અને મેક્સીકોની સંસ્કૃતિઓ પણ સુવિકસિત સંસ્કૃતિઓ હતી, પણ તે સંસ્કૃતિઓ આંગળીના વેઢે ગણી શકાય એટલા દશકાઓમાં વિદેશી આક્રમણોથી પરાજિત થઈ ગઈ હતી અને તેના ધર્મો, સો ટકા નષ્ટ પામી ગયા. બીજી બાજુ ભારતની સંસ્કૃતિ હજારો વર્ષ જુની હોવા છતાં, અને  સૈકાઓ લાંબા વિદેશી આક્રમણોથી પરાજિત થવાં છતાં, પોતાની રાષ્ટ્રીય સંસ્કૃતિ જાળવી રાખી શકી છે. શું આને તમે નહેરુનું યોગદાન ગણશો?

ભારત દેશ કદાચ શહેરોમાં થોડો ઘણો જીવતો હશે. પણ ભારતરાષ્ટ્ર, ગ્રામ્ય ભારતમાં જીવે છે. અંગ્રેજો આવ્યા ત્યારે ભારતરાષ્ટ્ર શહેરોમાં પણ જીવતું હતું. તે વખતે શહેરોમાં (તાલુકાઓ સહિત) ભારતીય પાઠશાળાઓ હતી. બંગાળમાં જ બ્રીટન કરતાં વધુ પાઠશાળાઓ હતી.

અંગ્રેજોના બે ધ્યેય હતા.

(૧) ભારતને ગરીબ બનાવી દેવો. (૨) જેઓ અંગ્રેજી શિક્ષણ વ્યવસ્થાને સ્વિકારે તેને જ નોકરી આપવી.

આ માટે અંગ્રેજોએ કેવા પગલાઓ લીધાં તે આપણે જાણીએ છીએ. એટલે તેને વિષે ચર્ચા નહીં કરીએ.

ગાંધીજી અંગ્રેજોની અમલમાં મુકેલી વ્યવસ્થાને સમજી ગયેલા.

ગાંધીજીએ “સ્વદેશી નો પ્રચાર અને વિદેશી માલનો બહિષ્કાર” ની ચળવળ ચલાવી. જો કે ભલભલા ખેરખાં એવા નેતાઓએ, આ બાબતમાં ગાંધીજીની ટીકા કરેલ. કેટલાકે તો સવિનય કાનૂનભંગની લડતનો પણ વિરોધ કરેલ. આ બધાના નામ આપી શકાય તેમ છે. પણ આપણું ધ્યેય કોઈની ટીકા કરવાનું નથી. તેથી આની ચર્ચા નહીં કરીએ.

ભારત રાષ્ટ્રનો સમાજ એક ખૂલ્લો સમાજ છે.

અંગ્રેજોના શાસનકાળમાં તે થોડોક બંધિયાર થઈ ગયેલ. તેનું કારણ ગરીબી હતી. લાચારી હતી. સાયણાચાર્યે મુસ્લિમ યુગમાં, સાતવળેકરે અને દયાનંદ સરસ્વતીએ બ્રીટીશ યુગમાં વેદોની અંદર રહેલા જ્ઞાનને ઉજાગર કર્યું. વિવેકાનન્દ પણ આ જ્ઞાન સામાન્ય કક્ષાની જનતા પાસે લઈ ગયા અને ભારત રાષ્ટ્રનો મહિમા સમજાવ્યો.

ગાંધીજી પણ સમજી ગયા હતા કે વેદોમાં રહેલું જ્ઞાન ઉત્કૃષ્ટ છે. રાષ્ટ્રપ્રેમ જાગૃત કર્યા વગર સ્વતંત્રતા મળશે નહીં.

ન્યુટન – આઈન્સ્ટાઈન અને પાદરી.મુલ્લાં.સંત – ગાંધીજી

પદાર્થની ગતિમાં ફેરફાર પદાર્થ ઉપર લાગતા બળના પ્રમાણ અને બળની દિશામાં હોય છે. આ ન્યુટનનો નિયમ હતો.

આઇન્સ્ટાઈન નો નિયમ હતો કે પદાર્થની આસપાસ ફીલ્ડ (ક્ષેત્ર) હોય છે. ફિલ્ડને દિશા અને શક્તિ હોય છે. એટલે પદાર્થની ગતિનો ફેરફાર ફીલ્ડ ની શક્તિ અને ફિલ્ડની દિશાને કારણે હોય છે.

આપણે બધા ભૌતિક વિશ્વમાં જ રહીએ છીએ. આપણો વિચાર એ એક ફીલ્ડ છે. આચાર એ ગતિ છે. પાદરી.મુલ્લા.સંતો વ્યક્તિને પકડે છે અને વ્યક્તિના વિચારમાં પરિવર્તન લાવવાનું કામ કરે છે. (જો કે બધા સંતોને આ વાત લાગુ પડતી નથી).

ગાંધીજી વિચારને ફિલ્ડ સમજ્યા અને તેને બળવત્તર કરવા અને અનુભૂતિ કરાવવા તેને અનુરુપ સામુહિક કાર્યક્રમો આપ્યા. એટલે સામુહિક ફિલ્ડની એક શક્તિ ઉત્પન્ન થઈ. દરેક વ્યક્તિને લાગ્યું કે તે સ્વાતંત્ર્યની ચળવળનો એક સૈનિક છે. આમ વ્યક્તિ એક વ્યક્તિ ન રહેતાં એક સમૂહ બની ગયો. આમ સામુહિકરીતે સ્વદેશી પ્રચાર અને સામુહિક રીતે વિદેશી માલનો બહિષ્કાર એ સરકારની સામે એક મોટું શસ્ત્ર બની ગયું.

પ્રાર્થના સભા, પ્રભાતફેરી, સ્વદેશીનો સામુહિક રીતે પ્રચાર, વિદેશી માલના બહિષ્કારના સામુહિક કાર્યક્રમો … આ બધાનો ફાયદો એ થયો કે આમ જનતામાં સંવાદ વધ્યો અને વૈચારિક જાગૃતિ માટેના માધ્યમો ટાંચા હોવા છતાં પણ વૈચારિક જાગૃતિ ઝડપથી આવી અને ઝડપથી પ્રસરી.

કાર્લ માર્ક્સે જો કશું સત્ય કહ્યું હોય તો તે એજ કે સમાજમાં માલનું ઉત્પાદન કેવીરીતે  થાય છે અને માલનું વિતરણ કેવીરીતે થાય છે, આ વ્યવસ્થાઓ  સમાજનું ચારિત્ર્ય ઘડે છે.

ગાંધીજીએ આ નિયમનો પૂરો લાભ લીધો.

રાજસત્તાનું વિકેન્દ્રીકરણ અને જનપ્રતિનિધિત્વની વ્યવસ્થા એ એક રીતે એકબીજાના પર્યાય છે.

લોકશાહીને કોણે જીવતી રાખી?

ભારતમાં લોકશાહીના મૂળ ઉંડા છે. ભારતમાં લોકશાહીના મૂળ ઉંડા છે તે ઉજાગર કરવાનું કરવાનું કામ ગાંધીજી કરતા હતા. જો કે આપણા દેશપ્રેમી બધા નેતાઓ અને કેટલાક રાષ્ટ્રપ્રેમી નેતાઓ આ વાત સમજી શકતા ન હતા. કારણ કે દેશપ્રેમીઓ માનસિક રીતે અંગ્રેજોના અથવા તો પાશ્ચાત્ય સભ્યતાના વૈચારિક ગુલામ હતા, જ્યારે કેટલાક રાષ્ટ્રપ્રેમી નેતાઓમાં માનસિક વિકાસનો અભાવ હતો, એટલે કે તેઓ પોતાની વિચાર શક્તિના અભાવમાં ગાંધીજીના વિરોધી હતા.

લોકશાહીની વ્યાખ્યા શી?

પાશ્ચાત્ય વિદ્વાનોએ કહ્યું લોકો થકી લોકો માટે અને લોકો દ્વારા ચાલતું શાસન એટલે લોકશાહી. પણ લોકો એટલે શું?

આનો સીધો અર્થ બહુમતિ જ થાય.

આ બહુમતિને બદલવાના ઘણા શસ્ત્રો ઉપલબ્ધ હોય છે. બહુમતિના માનસિક સ્તર પર બહુમતિની કાર્યશૈલી અવલંબે છે.

પુરુષોત્તમ માવળંકરે એવી વ્યાખ્યા કરેલી

“જ્યાં સત્યનો આદર થાય તે લોકશાહી”

પણ સત્ય સમજવા માટે જનતાનું માનસ સક્ષમ હોવું જોઇએ.       

એટલે કે જો જનતા સાક્ષર હોય તો લોકશાહી યોગ્ય છે.

પણ સાક્ષર એટલે શું?

નારાયણભાઈ દેસાઈએ “સાક્ષર”ની વ્યાખ્યા “જે સમસ્યાને જાણે છે અને સમસ્યાને સમજે છે” તે સાક્ષર. એટલે કે જાગૃત નાગરિક.

તો પછી નાગરિકને જાગૃત કોણ કરે?

આ માટે ભારતમાં ઋષિમુનીઓ હતા અને તેમણે શાસ્ત્રો લખેલા. આ શાસ્ત્રોને સમજવાવાળા આચાર્યો હતા. આચાર્યો ઉત્પન્ન કરવા માટે વિદ્યાપીઠો હતી. આ આચાર્યો નિડર હતા.

નિડર એટલે શું?

નારાયણભાઈ દેસાઈએ નિડરની વ્યાખ્યા કરેલ

“ સત્ય (શ્રેય)ની સ્થાપના માટે જે કોઈથી ડરે નહી, અને જેનાથી કોઈ ડરે નહીં તે”.

કૌટીલ્ય, શંકરાચાર્ય, સાયણાચાર્ય, સાતવળેકર, દયાનંદ સરસ્વતી જેવા અનેક આચાર્યો ભારતમાં હતા અને છે. હાલમાં પણ એવા આચાર્યો છે જેઓ વિદ્વાન અને વિચારક છે અને નિષ્કામ રીતે કર્મ કરે છે. તેઓ કોઈ હોદ્દો ભોગવવામાં માનતા ન હતા. ધન અને સંપત્તિના તેઓ દાસ ન હતા.

૧૯૩૩ પછી ગાંધીજીએ ઋષિત્ત્વ ગુણ આત્મસાત કર્યો. તેમણે ધન સંપત્તિનો ત્યાગ તો ઘણા સમય પહેલાં કર્યો હતો. તેમણે પદનો પણ ત્યાગ કર્યો. જેથી તેમના અભિપ્રાય ઉપર મૂક્ત ચર્ચા થઈ શકે.

પણ જો સત્તા ઉપર બેઠેલો વ્યક્તિ ઋષિ કે આચાર્ય ન હોય અને પોતે ક્રાંતિકારી (એટલે કે સમાજ ઉપર પોતાના મનગઢંત વૈચારિક ફેરફારનું આરોપણ કરનારો ) થઈ જાય તો તે સમાજ માટે ભયજનક બની શકે છે. જેમકે નહેરુ અને ઇન્દિરા ગાંધી કે જેમણે તેમના આચારો દ્વારા દેશના જનમાનસને, નૈતિક રીતે પાયમાલ કર્યું.

નરેન્દ્ર મોદીની માનસિકતા શું છે?

નરેન્દ્ર મોદી હોદ્દો ધરાવે છે … ક્રાંતિકારી વિચારો ધરાવે છે … અને કેટલાક લોકો તેનાથી ડરે પણ છે …

સમાજ જે સ્તર ઉપર છે તેને કારણે નરેન્દ્ર મોદીને સુરક્ષા આપવી આવશ્યક છે.

નરેન્દ્ર મોદી સગાંવ્હાલાં અને મિત્રોને ફાયદો કરી દેવાની વૃત્તિ અને આચાર રાખતો નથી.

તમે સંસ્કૃત શ્લોકને યાદ કરો …

પરદાર પરદ્રવ્ય પરદ્રોહ પરાઙ્ગ મુખઃ

ગંગા બૃતે કદાગત્ય મામયં પાવયિષ્યતિ

 ગંગા કહે છે કે પરસ્ત્રી, બીજાનું ધન અને બીજાએ કરેલું અપમાન એ બધાથી વિરક્ત વ્યક્તિ ક્યારે આવીને મને પવિત્ર કરશે?

બીજાની સ્ત્રી પરત્વે વિરક્તિ રાખવી એ પ્રથમ પાદ છે.

તેનાથી અઘરું કામ બીજાના ધનથી વિરક્ત રહેવું એ દ્વિતીય પાદ છે.

બીજાએ કરેલા અપમાનથી (સ્વાર્થહીન) વિરક્તિ રાખવી તે તૃતીય પાદ છે.

નરેન્દ્ર મોદીએ આ ત્રણેય ગુણો કેળવ્યા છે.

નરેન્દ્ર મોદી તો પરસ્પરની સંમતિથી પોતાની પત્નીથી પણ દૂર રહ્યો છે.   

નરેન્દ્ર મોદીને તેના હોદ્દાની રુએ જે ભેટ સોગાદો મળે છે અને તેના જે વસ્ત્રો છે, તેની તે હરાજી કરી, સ્ત્રીઓના ઉત્કર્ષ માટે દાનમાં આપી દે છે. બીજાના ધન ઉપર પોતાના માટે  કુદૃષ્ટિ કરવાની તો વાત જ નથી.

અમેરિકાએ તેને વીસા ન આપ્યા. આ વિસા માટેની અરજી આમ તો સરકારી વિસા માટેની અરજી હતી અને ગવર્નમેંટ ઓફ ઈન્ડિયાએ અનુરોધ સાથે મોકલેલી. અને તેનો અનાદર કરવો એ ભારતનું અપમાન હતું. આનાથી પણ વિશેષ ભારતના અપમાનો ૧૯૬૯-૭૧ના અમેરિકાના તત્કાલિન પ્રમુખ નિક્સને કરેલ. પણ તત્કાલિન ભારતીય સરકારે અમેરિકા સાથેના રાજદ્વારી સંબંધો તોડી નાખેલ નહીં. આ બધાં એક લોકશાહી વ્યવસ્થાવાળી સરકારે કરેલાં આચારો હતા.

નરેન્દ્ર મોદી ભારતના હિતમાં આ બધાં અપમાનો ગળી જાય છે.

જો કે કેટલાક લોકો અફવા ફેલાવે છે કે મોદી નિક્સનને મળ્યો હતો. કેટલાક આવી વાતોમાં કેવી રીતે આવી જાય છે તે સ્મજાતું નથી.

રીચાર્ડ નિક્સન ૧૯૬૯ થી ૧૯૭૪ સુધી યુએસનો પ્રેસીડેન્ટ હતો. આ નિક્સન ૧૯૧૩માં જન્મ્યો હતો અને ૧૯૯૪માં મરી ગયો હતો. જો મોદી મળ્યો હોય તો તેને ક્યારે મળ્યો તેની ચોખવટ મોદી વિરોધીઓ કરતા નથી. આમ તો સુભાષબાબુ પણ હીટલરને મળ્યા હતા. ગાંધીજી પણ ભારતના ઘોર વિરોધી ચર્ચીલને મળવા માગતા હતા. પણ ચર્ચીલે મળવાની ના પાડી હતી. ગાંધીજી અને સુભાષબાબુ આ બંનેના હેતુ ભારતદેશને નુકશાન કરવાના ન હતા.

નરેન્દ્ર મોદીનો હેતુ પણ ભારતને નુકશાન કરવાનો ન હોઈ શકે. નરેન્દ્ર મોદી તેમને ૧૯૭૫ પછી મળ્યા હોય તો પણ. ૨૦૦૧ સુધી નરેન્દ્ર મોદી એવા કોઈ મહત્ત્વના વ્યક્તિ ન હતા કે યુએસ પ્રમુખ તેમને મળે. સંશોધનનો વિષય છે.

મોદી વિરોધીઓનું કહેવું છે કે બંગ્લાદેશની ચળવળમાં પાકિસ્તાની સેનાએ બંગ્લાદેશમાં ૪૦ લાખ લોકોને મારી નાખેલા અને તેમાં ૩૦ લાખ બંગ્લાભાષી હિન્દુઓ હતા અને ૧૦ લાખ બંગ્લાભાષી મુસલમાનો હતા. નિક્સને આ કતલના સમાચારો દુનિયાથી દબાવેલા.

ભારતમાં જ્યારે લાખોની સંખ્યામાં બંગ્લાદેશી નિર્વાસિતો ઘુસી આવ્યા હોય અને આપણી પ્રધાન મંત્રી કે એના મંત્રીમંડળને કે એની ઈન્ટેલીજન્સ એજન્સીને ખબર ન હોય એટલી હદ સુધી અમેરિકાના નિક્સનની પહોંચ હોય કે તે આવા લાખ્ખોની કતલના સમાચારોને દાયકાઓ નહીં તો વર્ષો સુધી દબાવી રાખી શકે એ વાત માન્યામાં આવી શકે તેવી નથી.

બંગ્લાદેશમાં મુજીબુર રહેમાનનુ શાસન આવ્યા પછી પણ આ નરસંહારની કોઈ તપાસ થઈ શકી નહીં. મુજીબુરને મારીને લશ્કરી શાસન આવી ગયું. ઈન્ટર્નેશનલ ક્રાઇમ ટ્રીબ્યુનલ એક્ટ ૧૯૭૩ બનાવ્યો હતો. પણ ૧૯૭૫માં વિવાદોની વચ્ચે રદ થયો. ૨૦૦૮માં અવામી લીગ સત્તા ઉપર ૨/૩ બહુમતિથી આવી. તેણે તપાસ શરુ કરી અને લગભગ દોઢ હજાર વ્યક્તિઓ ઓળખાઈ અને તેમની ઉપર કાર્યવાહી શરુ થઈ.

અમેરિકામાં કત્લેઆમ થઈ હોય અને તેનું શાસન તેને છૂપાવી શકે તે કદાચ માની લેવાય કારણ કે ૧૯૮૯-૯૦માં હિન્દુઓની કશ્મિરમાં થયેલી કત્લેઆમ અને આતંકને ભારતનીકોંગી અને તેના સમાચાર માધ્યમ સહિતના સાંસ્કૃતિક સાથીઓએ ઠીક ઠીક છૂપાવી હતી.

હવે જો આપણે ૧૯૬૯ થી ૧૯૭૩ સુધી નેશનલ સીક્યોરીટી એડ્વાઇઝર હોવાને નાતે હેન્રી કીસીંન્જરને વાંકમાં લેવો હોય તો પણ નીક્સન તેના વાંકમાંથી છટકી શકે નહીં. વળી હેન્રી કીસીન્જર ૧૯૭૩માં યુએસનો સેક્રેટરી ઓફ સ્ટેટ બન્યો. એના નામની “નોબેલ પ્રાઈસ ફોર પીસ” ભલામણ પણ થઈ. તો વાંક તો આખા યુએસનો જ કહેવાય. એટલું જ નહીં આને ઇન્દિરાની વિદેશનીતિની ભયંકર નિસ્ફળતા કહેવાય. ઇન્દિરા, નહેરુ કરતાં તો વધુ મૂર્ખ હતી જ તેને માટે આજ દાખલો પુરતો છે.

 પ્રમાણભાનની પ્રજ્ઞા, સંદર્ભની પ્રજ્ઞા અને પ્રાથમિકતાની પ્રજ્ઞાની આખી દુનિયામાં ખોટ હોય છે. જો મહાપુરુષોમાં આ સ્થિતિ દૃષ્ટિગોચર થાય તો તેને માટે કાંતો કહેવાતા મહાપુરુષોના “અમુક બારીઓ બંધ રાખવાના” પૂર્વગ્રહ જવાબદાર હોય છે અથવા તો તેના રાજકીય કારણો હોય છે. પાશ્ચાત્ય દેશો અને આપણો દેશ એમાં અપવાદ નથી. બીજાઓની વાત જવા દો. 

સૌથી અઘરી વાત પોતાનું અંગત અપમાન દેશ-હિત ખાતર ગળી જવું તે છે, કે જેની ગંગા રાહ જુએ છે.

શિરીષ મોહનલાલ મહાશંકર દવે

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दायें पप्पु, बांये पप्पु, आगे पप्पु, पीछे पप्पु बोले कितने पप्पु?

दायें पप्पु, बांये पप्पु, आगे पप्पु, पीछे पप्पु बोले कितने पप्पु?

पप्पु पप्पु और पप्पु

पप्पुयुगका पिता वैसे तो मोतीलाल नहेरु है, लेकिन उनको तो शायद मालुम ही नहीं होगा कि वे एक नये पप्पु-युगकी नींव रख रहे है.

पहेला पप्प कौन?

आदि पप्पु यानी कि रा.गा. (राहुल गांधी) ही है किन्तु पप्पु युगका निर्माण तो नहेरुने ही किया. नहेरु ही प्रथम पप्पु है. यानी कि पप्पु-वंश तो नहेरुसे ही प्रारंभ हुआ.

क्या नहेरु पप्पु थे?

सोच लो. यदि आपने किसीको अमुक काम करनेसे मना किया. और इतिहासका हवाला भी दिया. भयस्थान भी बताये. फिर भी यदि आप वो काम करते हो तो लोग आपको पप्पु नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे.

(१) जी हाँ, नहेरुने ऐसा ही किया था. सप्टेंबर १९४९में तिबट पर चीन ने आक्रमण किया, तो नहेरुने सरदार पटेलके पटेलके संकेत और चेतावनी को नकारा और कहा कि चीनने उसको आश्वासन दिया है कि वह तिबटके साथ शांतिसे नीपटेगा. यह तो कहेता बी दिवाना और सूनता भी दिवाना जैसी बात थी.  और १९५१ आते आते चीनने तिबट पर कबजा कर दिया. इस अनादर पर भी नहेरुने दुर्लक्ष्य दिया. और चीनसे घनिष्ठ मैत्री संबंध (पंचशील) का  अनुबंध किया.

(२) तिबटको अब छोडो. पंचशीलके बाद भी चीनकी सेनाका अतिक्रमण प्रारंभ हो गया और जब वह बार बार होने लगा तो संसदमें प्रश्न भी उठे. नहेरुने संसदमें जूठ बोला. आचार्य क्रिपलानीने इसके उपर ठीक ठीक लिखा है.

(३) चीनकी घुस खोरीको अब छोडो. १९४७में नहेरुको गांधीजीने बताया कि शेख अब्दुल्ला पर सरदार पटेल विश्वास करते नहीं है. और लियाकत अली कश्मिरके राजाको स्वतंत्र रहेनेको समज़ा रहे है. काश्मिर न तो पाकिस्तानमें जा सकता है, न तो वह स्वतंत्र रह सकता है. काश्मिरको तो भारतके साथ ही रहेना चाहिये. लेकिन नहेरुने महात्मा गांधीकी बात न मानी और शेख अब्दुल्ला पर विश्वास किया.

(४) नहेरु इतने आपखुद थे कि राजाओंकी तरह उनके उपर कोई नियम या सिद्धांत चलता नहीं था. एक तरफ वे लोकशाहीका गुणगान करते थे और दुसरी तरफ उन्होंने शेख अब्दुलाको खुश करनेके लिये बिनलोकशाहीवादी अनुच्छेद ३७०/३५ए अ-जनतांत्रिक तरीकेसे संविधानमें सामेल किया. अस्थायी होते हुए भी जब तक वे जिन्दा रहे तब तक उसको छेडा नहीं, और १९४४से कश्मिरमें स्थायी हुए हिन्दुओंको ज्ञातिके आधार पर और मुस्लिम स्त्रीयोंको लिंगको आधार बनाके मानवीय और जनतांत्रिक अधिकारोंसे वंचित रक्खा.

इसको आप पप्पु नहीं कहोगे तो क्या कहोगे?

क्या इन्दिरा गांधी पप्पु थी?

१९७१की इन्डो-पाक युद्धमें भारतकी विजयका श्रेय इन्दिराको दिया जाता है. यह एक लंबी चर्चाका विषय है. किन्तु जरा ये परिस्थिति पर सोचो कि पाकिस्तान किस परिस्थितिमें युद्ध कर रहा था और बंग्लादेशकी मुक्ति-वाहिनी (जिसको भारतकी सहाय थी) किस परिस्थितिमें युद्ध कर रही थीं. भारतीय सेनाको यह युद्ध जीतना ही था उसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था. और सेनाने तो अपना धर्म श्रेष्ठता पूर्वक निभाया.

किन्तु इन्दिरा यदि पप्पु नहीं थी तो उसने अपना धर्म निभाया? नहीं जी. जरा भी नहीं. जो परिस्थिति उस समय पाकिस्तानकी थी और जो परिस्थिति भारतकी थी, यदि इन्दिरामें थोडी भी अक्ल होती तो वह कमसे कम पाकिस्तान अधिकृत कश्मिर तो वह ले ही सकती थी. यदि ऐसा किया होता तो भारतने जो अन्य जीती हुई पाकिस्तानकी भूमि, और पाकिस्तानी युद्धकैदीयोंको परत किया उसको क्षम्य मान सकते थे. पाकिस्तानके उपर पेनल्टी नहीं लगायी, खर्चा वसुल नहीं किया उसको भी लोग भूल जाते.

बंग्लादेशमें ३० लाख हिन्दुओंकी कत्ल किसने छूपाया?

बंग्लादेशके अंदर पाकिस्तानकी सेनाने  ४०लाख लोगोंकी हत्या की थी इनमें ३० लाख हिन्दु थे १० लाख मुस्लिम थे. इन्दिरा गांधी जब भूट्टोके साथ सिमलामें बैठी थी तब क्या उसको इस तथ्य ज्ञात नहीं था? वास्तवमें उसको सबकुछ मालुम था. तो भी उसने न तो बंग्लादेशके साथ कोई भारतके श्रेय में कोई अनुबंध (एग्रीमेन्ट) किया न तो पाकिस्तानके साथ कोई भारतीय हितमें कोई अनुबंध किया. इतना ही नहीं, एक करोड निर्वाश्रित जो भारतमें आ गये थे उनको वापस भेजनेके बारेमें प्रावधानवाला कोई भी अनुबंध किसीके साथ नहीं किया.

उस समय आतंकवाद भारतमें तो नहीं था. भारतके बाहर तो था ही. प्रधानमंत्री होनेके नाते और “भारतीय गुप्तचर सेवा” के आधार पर भारतके बाहर तो अति उग्रतावाली आतंकी गतिविधियां  अस्तित्वमें थीं ही. वे प्रवृत्तियां कहाँ कहाँ अपना विस्तार बढा सकती है वह भी प्रधानमंत्रीको अपने बुद्धिमान परामर्शदाताओंसे (एड्वाईज़रोंसे)   मिलती ही रहेती है. यह तो आम बात है. किन्तु इन्दिराने भारतके हितकी उपेक्षा करके भूट्टो की यह बात मान ली “यदि मैं पाकिस्तान अधिकृत काश्मिरकी समस्या आपके साथ हल कर दूं और तत्‌ पश्चात्‍ मेरी यदि हत्या हो जाय तो उस डील का क्या मतलब.” फिर इन्दिराने “इस मसलेको आपसमें वार्ता द्वारा ही हल करना” ऐसा अनुबंध मान लिया. इसका भी क्या लाभ हुआ. पाकिस्तानने आतंकीओ द्वारा और कई समस्याएं उत्पन्न की. सिमला अनुबंधन तो पप्पु ही मान्य कर सकता है.  

 राजिव गांधी ने पीएम पदका स्विकार करके, श्री लंकाके आंतरिक हस्तक्षेप करके और शाहबानो न्यायिक निर्णयको निरस्त्र किया यह बात ही उसका पप्पुत्त्व सिद्ध किया.

सोनिया, राहुल और प्रियंका का पप्पुत्त्व सिद्ध करनेकी आवश्यकता नहीं.

यह पप्पुत्त्वकी महामारी ममता, मुलायम, लालु, शरद पवार … आदि कोंगीके सहयोगी पक्षोमें ही नहीं लेकिन बीजेपीके सहयोगी शिवसेनामें भी फैली है.

शिवसेनाका पप्पुत्व तो शिवसेना अपने सहयोगी बीजेपी के विरुद्ध निवेदन करके सिद्ध करता ही रहेता है.

उद्धव ठाकरेका क्या योगदान है? भारतके हितमें उसमें क्या किया है? यह उद्धव ठाकरे अपने फरजंद आदित्यको आगे करता है. आदित्यका क्या योगदान है? उसका अनुभव क्या है? क्या किसीने कहा भी है कि वह आदित्य के कारण चूनाव जीता है? शिवसेना स्वयं अपने कुकर्मोंके कारण मरणासन्न है किन्तु वह भी कोंगीकी तरह पगला गया है. चूनावमें शिवसेनाकी सफलता  अधिकतम ४५ प्रतिशत है. जब की बीजेपीकी सफलता ६५ प्रतिशत है.

“५०:५०” का रहस्य क्या है?

५० % मंत्री पद बीजेपीके पास और ५०% मंत्री पद शिवसेनाके पास रहेगा यदि दोनोंको समान बैठक मिली. किन्तु शिवसेनाको तो बीजेपीसे आधी से भी कम बैठकें मिली. और फिर भी उसको चाहिये मुख्य मंत्रीपद. यह तो “कहेता भी दिवाना और सूनता भी दिवाना” जैसी बात हुई. गठ बंधनको जो घाटा हुआ उसमें शिवसेना जीम्मेवार है. उसका हक्क तो १/३ मंत्री पद पर भी नहीं बनता है.

शिवसेना के विरुद्ध क्या क्या मुद्दे जाते है.

शिवसेनाका साफल्य केवल ४० प्रतिशत है. मतलब वह तृतीय कक्षामें पास हुआ है.

बीजेपीका साफल्य ६५% है. मतलब विशिष्ठ योग्यताके समकक्ष है.

बीजेपी उसको ५० प्रतिशत मंत्रीपद देनेको तयार है. लेकिन शिवसेना को तो इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री पद भी चाहिये.

मतलब की तृतीय कक्षामें पास होनेवाला आचार्य बनना चाहता है.

इतना ही नहीं किन्तु शिवसेना अपने पक्षके वंशवादी प्रमुखकी संतान को आचार्य बनाना चाह्ता है.

पप्पुके आगे पप्पु, पप्पुके पीछे पप्पु बोले कितने   पप्पु?

पप्पुको डीरेक्ट हिरो बना दो

क्या किया जाय?

शिवसेना के आदित्य को मुख्य मंत्री के बनानेके लिये = शिवसेना+कोंगी+एनसीपी

शिवसैनी पप्पुको पप्पुकी कोंगीका और शरदकी कोंगीका सहयोग लेके मुख्य मंत्री और सरकार बनाने दो. शिवसैनी पप्पुको भी पता चल जायेगा कितनी बार वीस मिलानेसे एक सौ बनता है (गुजरातीमें मूँहावरा है “केटला वीसे सो थाय” तेनी खबर पडशे.)

शिरीष मोहनलाल दवे

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नया पप्पुका उदय या तीनो पक्षोंकी अन्त्येष्टी का प्रारंभ

हाँ जी यह वार्ता है महाराष्ट्रकी

महाराष्ट्रमें भी यह वार्ता है, कि शिवसेना पक्ष, राष्ट्रवादी कोंग्रेस पक्ष (एन.सी.पी.) और कोंगी पक्ष (इन्दिरा नहेरु कोंग्रेस (आइ.एन,सी.) एक गठबंधन बना रहे हैं.

शिवसेना अपने न्युसन्स के लिये कुख्यात है.

एनसीपी अपने असामजिक तत्वोंके संबंधोंसे कुख्यात है.

कोंगीका तो कहेना ही क्या? उसने तो १९५० से २०१९के अंतरालमें हर प्रकारके कुकर्मोंकी सीमा का उलंघन किया है. और सारे विश्वमें कुख्यात है.

ये तीनों पक्ष वंशवादी है.

पप्पुएं पैदा करनेकी आदत

pappus are multiplying

पक्षमें यदि सत्ता मिले तो सत्ताका नंबर वन पद इनके स्थापकके फरजंदको ही मिलना है यह सुनिश्चित किया हुआ होता है.

कोंगीने उल्टे मूँहकी खाई, तो भी इन पक्षोंमें कोई आत्ममंथन नहीं है. समाचार माध्यम भी अपने स्वार्थ के कारण कभी भी इन पक्षोंके वंशवाद पर चर्चा करते नहीं है. आवश्यकता पडी तो इनके नेताओंके कथनोंको व्यापक प्रसिद्धि दे कर बीजेपीकी समस्याओंको उजागर अवश्य करते है. वास्तवमें ये समास्याएं कपोल कल्पित भी हो सकती है. किन्तु इससे इन समाचार माध्यमोंको कोई आपत्ति नहीं होती है. क्योंकि ऐसा करना उनका धर्म है. धर्म वही है जो बीजेपीको क्षति पहूँचाये.

न शिवजी न शिवाजी

जैसे कोंगीको और उसके नेताओंको, “स्वातंत्र्य संग्राममें अपना योगदान देनेवाली कोंग्रेस”से कोई संबंध नहीं है, जैसे “राष्ट्रवादी” कोंग्रेस पक्षको “राष्ट्रवाद” से कोई संबंध नहीं है, वैसे ही शिवसेना को न तो शिवजीसे संबंध है न तो शिवाजीसे संबंध है.

शिवसेना स्वयंको शिवाजीकी सेना मानता है(!!!). किन्तु उसमें शिवाजीके एक भी गुण नहीं है. शिवाजी महाराजके पुत्र तो हिन्दु धर्मके लिये शहिद हो गये थे.

किन्तु शिवसेनाके शिर्ष नेता स्वयंने क्या किया था?

चलो यह भी देखलें

भारतका गौरव किससे है?

भारतका गौरव उसकी प्राचीन संस्कृतिकी उच्चतासे है. भारतका गौरव उसके जनतंत्रसे है.

भारतके जनतंत्र पर घातक प्रहार कब हुआ था?

भारतके जनतंत्र पर घातक प्रहार १९७५में हुआ था जब कोंगी पक्षकी इन्दिराने भारतके जनतंत्र पर आपात्‌कालके शस्त्रसे प्रहार किया था. देशके गौरवको सुरक्षित रखनेकी आवश्यकता आ पडी थी. आपातकालके विरुद्ध  स्वयंका  देशप्रेम और देशहित दिखानेका मौका था. दशहरेके दिन ही शिवसेनाका घोडा दौडा नहीं. और ऐसा तो बारबार लगातार हुआ. शिवसेनाने आपात्‌कालका समर्थन किया था.

इन नेताओंने कारवासके डरके कारण आपात्‌कालका समर्थन किया था. तत्कालिन एसएसपी, कोंग्रेस (संस्था), आर.एस.एस., सर्वोदय संगठनोंने  ही नहीं, कोंगीके भी कुछ सदस्योंनें इस आपात्कालका विरोध किया था. इन सबको इन्दिराने कारावासमें भेज दिया था. ६६०००+ व्यक्तियोंको बिना सूने, बिना प्रयोजन बताएं, और प्रयोजनका अभाव होते हुए भी कारावासमें भेज दिया था.

शिवसेनाके नेताओंके कानमें और उसके सदस्योंके कानमें जू तक नहीं रेंगी थी. क्यों कि वे विरोध क्यों करे? और मौन भी क्यों रहे? उनको तो कारावाससे बचना था.

१९९३में क्या हुआ?

बाबरी मस्जिद जब ध्वस्त की गई तो सार्वत्रिक बीजेपीके विरुद्ध वातावरण बनाया जा रहा था. बीजेपीके मूख्यमंत्रीको जाना पडा. वैसे तो बाबरी मस्जिद, हिन्दु मंदिरको ध्वस्त करके बनाया था. किन्तु इस तथ्यको उपेक्षित करके इस दुर्घटना पर अधिकाधिक सियासत हुई. बाबरी मस्जिद ध्वस्त करनेमें शिवसैनिकोंका कोई योगदान नहीं था, इसलिये शिवसेनाके सुप्रीमोने कह दिया कि हमने तोडा है. क्यों कि ऐसा कहेनेमें उनको कोई आपत्ति नहीं थी. क्यों कि वे तो मुंबईमें थे.

वि.हि.प.ने और उसके सहयोगी सांस्कृतिक संगठनोंने तो कह दिया कि राम मंदिर तो हम वहीं बनायेंगे जो परापूर्वसे रामजन्मभूमि माना जाता है.

शिवसेनाके सुप्रिमोने कह दिया कि न तो वहां मंदिर बनना चाहिये, न तो वहां मस्जिद बनना चाहिये. वहां एक चिकित्सालय  बनना चाहिये.

यह है शिवसेनाकी मानसिकता.

वंशवादी पक्षके कोई सिद्धांत होते नहीं है. उनको तो अपना उल्लु जो सत्ता और धन का है वही सीधा करना होता है. चाहे देश रसाताल क्यों न हो जाय!!

योग्यता क्या चिज़ है?

उच्च पदोंकी प्राप्तिके विषयमें, वंशवादीयोंके लिये कोई योग्यता की आवश्यकता नहीं है. क्यों कि उनकी योग्यता सिर्फ उनका वंशीय जन्म है.

उद्धव ठाकरे की शैक्षणित योग्यता किसीको ज्ञात नहीं. लोग यह ही जानते है कि वह बाला साहेब  ठाकरेकी संतान है. और वह अब अपनी संतानको मुख्यमंत्री बनानेकी मनशा रखता है. यह संतान  हाईस्कुल पास है.

श्वेत रबडीदेवी और ब्राउन रबडीदेवीः

यह संभव है कि उद्धव ठाकरे सोचता हो, कि जब श्वेत राबडी प्रधान मंत्रीकी पत्नी होनेके कारण नंबर वन बन सकती है. और (ब्राउन) रबडीदेवी, लालु प्रसादकी पत्नी होनेके नाते अंगुठा मार होते हुए भी, मुख्यमंत्री  बन सकती है. तो मेरा बेटा तो हाईस्कुल पास है, वह भी तो मुख्य मंत्री बन सकता है.

सोनिया अपना बहुमत पत्र ले कर राष्ट्रपति के पास प्रधानमंत्री पदकी शपथ की उत्सुकता दिखाने को गयीं थीं. हालाँ कि यह बात अलग है कि उसका लीन (lien = ग्रहणाधिकार) विदेशी नागरिकतासे जूडा हुआ है, तो उस कारणसे तत्कालिन राष्ट्रप्रमुखने (अब्दुल कलामने)  कुछ प्रश्न किये थे. ये प्रश्न सोनियाजीके दिमागके बाहरके थे, अतः वह लौट आयी. तत्‌ पश्चात्‌, यह बात भी अलग है, कि कोंगीको सोनियाके त्याग का फरेबी ड्रामा करना पडा. वास्तवमें भारतीय संविधानके प्रावधान के अनुसार “विदेशी नागरिकताका अधिकार”वाला व्यक्ति प्रधानमंत्रीके पदके लिये योग्य नहीं माना जाता.

फिर कोंगीके वकिलोंने एन.ए.सी. (नेशनल अड्वाईज़री काउन्सील)का गठन किया और सोनियाको उसका प्रमुख पद दिया. ये सब असंवैधानिक था. मंत्रीमंडल एक संवैधानिक संगठन है. और उसमें गुप्तता निहित है.

उद्धव ठाकरे और उसकी संतान ऐसे असंवैधानिक गठन करके शासन करे तो भविष्यमें न्यायालयको उत्तर देना पडता. इस समस्याका न तो उद्धव ठाकरे झेल सकता है न तो उसका मुखपत्र “सामना”.

इस लिये उद्धव ठाकरेने, अपनी संतान को संवैधानिकताके अनुसार नंबर वन बनाना आवश्यक समज़ा.  चाहे हाईस्कुल पास ही क्यों न हो. पप्पु भले ही हो.

अभी ये तीनो वंशवादी पक्ष आपसमें चर्चा कर रहे है अपने तीनोंके अंदर अंदर यह चोरीके क्षेत्र कैसे वितरित किया जाय !!

पप्पुओंमें कोई भीन्नता नहीं होती

इन्दिराके पप्पु (राजिव गांधी), सोनियाके पप्पु (पप्पु याने राहुल) और लालु-ब्राउन रबडीदेवी के पप्पु तेजस्वी यादव, और अब है उद्धव ठाकरे के पप्पु. पप्पु तो पप्पु ही रहेंगे, चाहे उनका नाम लक्ष्मी (इन्दिरा), या हाथी या नीलकमल (राजीव), या स्वर्णमयी (सोनिया) या पप्पु राहुल या पप्पु (आदित्य) हो.

इन सभी पप्पुओंकी अपनी अपनी कहानियां और पराक्रम है. कोई भी नीतिमान नहीं है. नीतिमान होते शिघ्र ही कह देते कि मुझे छोड दो. मेरे अतिरिक्त कईगुने अधिक कुशल और अनुभवी नेतागण हमारे पक्षमें है. मेरे बदले उप मुख्य मंत्री या मुख्यमंत्री के पदके लिये  उनको प्रस्तूत करो.

बडा भाई बन गया छोटा भाई

पूर्वकालमें महाराष्ट्रमें शिवसेनाके जनप्रतिनिधि, बीजेपी के जनप्रतिनिधियोंसे विधानसभामें अधिक थे. इस लिये शिवसेना अपनेको बीजेपीका  बडाभाई मानती थी.

बडाभाई –  छोटा भाई का नामांकरण जनप्रतिनिधियोंकी संख्याके आधार पर था. लेकिन जनतंत्रमें तो यह संख्या बदल भी जाती है. तो कमसे कम २०१४से तो बीजेपी बडा भाई हो गया. राजनीतिमें तो यह सामान्य स्थिति है. लेकिन पूर्वकालिन बडेभाई की प्रज्ञामें यह बात बैठती नहीं. शिवसेनाके शिर्षनेता मानता है कि वे “यावत्‌ चंद्र दिवाकरौ” बडेभाई ही है.

हिन्दीके ख्यातनाम लेखक प्रेमचंदजी ने “बडे भाईसा’ब” में एक संवाद लिखा है.

बडेभाई छोटे भाईसे बोलते है “ तू शायद पढनेकी श्रेणीमें मेरे साथ ही हो जाय. और शायद मुज़से आगे भी निकल जाय, लेकिन एक बाद याद रख, कि तु मुज़से बडा कभी भी हो नहीं सकता. अरे स्वयं ब्रह्मा भी तुज़े, मुझसे बडा करनेमें असमर्थ है.

तो अब देखिये, शिवसेना क्या चिज़ है? और पप्पुभाई लोग क्या चिज़ है?

यह तो राजनीति है, वहां बडा और छोटा, जनप्रतिनिधियोंकी और सदस्योंकी संख्यासे होता है. कोई कोई तो छोटा तो क्या, शून्य भी हो जाता है. जग्गु दादाका पक्ष, जिसका नाम उन्होंने रीयल कोंग्रेस था. वह शून्य है.

जब कोई भी पक्ष वंशवादी होता है तो पप्पु ही उत्पन्न होते है. और उस पक्षमेंसे सक्षम लोग एक एक करके निकल जाते है और अन्ततः पप्पु जैसे लोग ही शेष  रहेते है.     

देशको पप्पुओंसे बचाओ

शिरीष मोहनलाल दवे

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