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Archive for June, 2020

कोंगीके सर्वोच्च नेताओंकी एकाधिपत्यवाली मानसिकता

कोंगीके सर्वोच्च नेताओंकी एकाधिपत्यवाली मानसिकता

२५ जुन १९७५ दिवस भारतके जनतंत्रका एक आघात

नहेरुकी पुत्री इन्दिराने भारत पर आपत्काल लगाया और ६६००० लोगोंको बिना उनका अपराध, उनको कारावास अनियतकालके लिये रख दिया. इसके अतिरिक्त २००००० गिरफ्तार किये गये थे “मिसा”के अंतर्गत.  इनमें इन्दिराके कुकर्मोंका विरोध करने वाले सभी लोग थे चाहे वे समाजवादी हो, महात्मा गांधीवादी हो, निडर वर्तमानपत्र के संचालक हो … कोई भी हो, यदि २५ जुन १९७५से पहेले किसीने भी इन्दिरा सरकारके विरुद्ध बोला हो तो उसको कारावासमें जाना ही था. ये थी इन्दिराकी नीति. भारतीय संविधानकी प्रत्यक्ष हत्या थी.

emergency

कार्टूनीष्टका सुक्रिया

महात्मा गांधीकी मौत नहेरु या इन्दिरा के शासन में हो सकती थी?

महात्मा गांधीकी ईच्छा तो १२५ वर्ष जीनेकी थी. यदि महात्मा गांधीकी हत्या नहीं  हुई होती तो वे भी २५ जुन १९७५के दिनसे कारावासमें होते. उतना ही नहीं, उनकी मौत भी कारावासमें होना सुनिश्चित था. जैसे श्यामाप्रसाद मुखर्जीकी मौत हुई थी वैसी ही मौत, महात्मा गांधीकी होती, यदि नहेरु उनकी मौत न करते तो.

आप कहोगे ऐसा कैसे हो सकता है?

आप ऐसा भी कहोगे कि यह तो असंभव था. क्यों कि इन्दिराके पिता जवाहरलाल नहेरुको प्रधान मंत्री तो गांधीजीने ही तो बनाया था. नहेरुका नाम तो किसी भी प्रांतीय कोंग्रेस समितिने सूचित नहीं किया था. फिर भी १९४६में महात्मा गांधीने नहेरुको कोंग्रेसका प्रमुख पद दे दिया था. और इस कारणसे ही उनका प्रधान मंत्री बनना सुनिश्चित कर दिया था.

क्या इन्दिरा गांधी नमकहराम थीं?

अरे भैया, यह तो सियासत है. क्या नहेरुसे (इन्दिरासे अतिरिक्त)  नीतिमत्ताकी ऐसी तैसी करके  अधिक सियासत करने वाले ने जन्म लिया है भारतमें?

हम केवल जो लोग अपनेको जनतंत्रवादी कहेते है उनकी ही बात करते हैं. १९४६में सरदार पटेलको छोडके यदि प्रधान मंत्री पदके लिये योग्य व्यक्ति  था तो वे आंबेडकर थे. आंबेडकर सियासती नहीं थे. नहेरु सियासतमें प्रविण थे. नहेरुने आंबेडकरको पराजित कर दिया. यदि महात्मा गांधी विद्यमान होते तो नहेरु ऐसा नहीं कर सकते क्यों कि महात्मा गांधी नहेरुसे कहीं अधिक चालाक थे.

नहेरु, महात्मा गांधीकी भाषा समज़ना नहीं चाहते थे

हरेक व्यक्तिकी अपनी स्टाईल होती है. महात्मा गांधीको ज्ञात था कि नहेरु दंभी होने के साथ साथ एकाधिकारवादी है. नहेरुने अपना समाजवादी युथ, पक्षके अंदर ही बना दिया था, ता कि यदि कोंग्रेसका विभाजन हो जाय तो नहेरु अपने समाजवादी जुथ (पक्ष)के नेता होने के कारण, आम चूनावमें अपनी शक्ति दिखा सकें. १९२९मे मोतिलालकी ईच्छासे जवाहरलाल नहेरु, कोंग्रेसके प्रमुख बन पाये थे.

१९४६में कोंग्रेसका विभाजन न हो वह अत्यंत आवश्यक था. इसीलिये गांधीजीने सरदार पटेलसे कोंग्रेसको न तूटने देनेका वचन लेके नहेरुको कोंग्रेसके प्रमुख बनाये. इस परिस्थितिका वर्णन इसी ब्लोग साईट पर अन्यत्र विद्यमान है इसलिये इसका विगतसे वर्णन हम  नहीं करेंगे. किन्तु यह तथ्य अवश्य याद रखना है कि, नहेरु अपने युवा भक्तों द्वारा सरदार पटेलकी भर्त्सना करवा रहे थे. गांधीजीको ज्ञात था कि कोंग्रेसके संगठनमें नहेरु सशक्त नहीं थे. और सरदार पटेल संगठनमे सशक्त थे और शासन करनेमें भी सरदार पटेल सशक्त थे. इसलिये स्वतंत्रता मिलनेके पश्चात्‌, जब चूनाव होगा तो सरदार पटेल ही कोंग्रेसके नेता बनने वाले थे.

इसके अतिरिक्त, स्वतंत्रता मिलनेके बाद, गांधीजीने कोंग्रेसका विलय करनेका सूचित किया था, ताकि सरदार पटेल जो देशी राज्योंके भारतमें विलय करनेकी क्रियामें अत्यंत निपूणता दिखा रहे थे, वे पूर्वसे कहीं अधिक सशक्त बनके उभर रहे थे.

इसके अतिरिक्त महात्मा गांधीने क्या कहा था उसको याद करो.

महात्मा गांधीने कहा था;

“अब जवाहर मेरा उत्तरदियित्व निभायेगा.”

महात्मा गांधीका उत्तरदायित्व क्या था?

महात्मा गांधीने पदका और सत्ताका त्याग किया था. वे १९३३से  कोंग्रेसके सामान्य सदस्य भी नहीं थे. इसका मतलब स्पष्ट है कि जवाहरलाल नहेरुको सत्तात्याग करके सामाजिक कार्योंमें सक्रिय होना था. गांधीजीने यह भी कहा था कि अब जवाहर मेरी भाषा बोलेगा.

मेरा उत्तराधिकारी जवाहर है, और जवाहर मेरी भाषा बोलेगा … इन दोनोंको भीन्न भीन्न रखके या तो एक साथ रखके अर्थ निकाला जाय तो हर हालतमें गांधीजीका आदेश यही था कि जवाहरको सत्तासे विमुख बनना है.

क्या जवाहरलाल नहेरु गांधीजीके करीबी थे?

नहीं … वे गांधीजीके करीबी नहीं थे. उन दोनोंमें कई मतभेद थे. गांधीजीने कहा था कि मैं जवाहरको (मतलब की उसके मनको) समज़ सकता हूँ किन्तु उसके समाजवादको नहीं समज़ सकता.

गांधीजीने भारतीय संस्कृतिके अनुरुप एक “सर्वोदय” नामका पुस्तक लिखा है. इसकी चर्चा हम नहीं करेंगे. किन्तु उनका जवाहरलाल नहेरुको यह कहेना कि तुम मेरा काम करो. यह ही पुरा संदेश था, जवाहरलाल नहेरुके लिये और भारतकी जनताके लिये भी. किन्तु नहेरुने इस संदेशको दबा दिया.

आप एक और बात पर विचार करें

महात्मा गांधीका पट्ट शिष्य कौन था?

महात्मा गांधीका  पट्ट शिष्य था प्रथम सत्याग्रही विनोबा भावे. महात्मा गांधीने ऐसा क्यों नहीं कहा कि “मेरा उत्तरदायित्व विनोबा भावे निभायेगा और विनोबा भावे मेरी भाषा बोलेगा?”

“चूप कर” … “शाणपण रक्ख” … “पढने बैठ जा”  … “सच बोल” … ऐसा किसको कहा जा सकता है?

जो चूप ही है उसको कोई बोलेगा कि “चूप कर”?

जो शाणा है उसको कोई बोलेगा कि “शाणा बन”?

जो पढने बैठा ही है उसको कोई बोलेगा कि “पढने बैठ”?

जो सच ही बोलता है उसको कोई कहेगा कि “सच बोल”?

विनोबा भावेको महात्मा गांधीने कुछ भी कहा नहीं कि तुम मेरी भाषा बोलो … तुम मेरा काम करो …

महात्मा गांधीने विनाबोको ऐसा क्यों नहीं कहा? क्यों कि विनोबा भावे तो गांधीजीका काम करते ही थे. विनोबा भावे को कुछ कहेने कि आवश्यकता ही नथी.

जवाहरको ऐसा कहेना पडा कि तुम मेरा उत्तरदायित्व निभाओ और मेरा काम करो. क्यों कि जवाहरलाल गांधीजीके सिद्धांतोको नहीं मानते थे. इसलिये गांधीजीने अपनी भाषामें आदेश दिया कि जवाहरको क्या करना है.

इस पार्श्व भूमिमें हम देख सकते है कि नहेरु कैसे गांधीजीके सिद्धांसे विमुख थे. गांधीजीके  आदेशकी जवाहरलाल नहेरुने अवज्ञा की.

वैसे भी नहेरु व्यसनोंके आदि थे, मांसाहारी थे. मदिरा भी पीते थे. चीरुट पीते थी. जवाहरलालकी मूर्गीयोंको बदामके अतिरिक्त  कुछ खिलाया नहीं जाता था. और उनकी मूर्गीयोंको हमेशा ब्रांडीके अतिरिक्त कुछ पिलाया नहीं जाता था. अहिंसासे नहेरु कोसों दूर थे. उनका एक भी लक्षण महात्मा गांधीके सिद्धांतोके अनुरुप नहीं था.

ऐसे जवाहरलाल नहेरुकी पुत्री, इन्दिरा हमेशा अपने पिताके पास ही रहेती थीं (अपने पतिके पास नहीं). और वह अपने पिताका आदर करती थी. वह अपने पिताके पूर्णरुपसे परिचित थीं.

और हमने देखा कि इन्दिरा गांधीने २५ जून को क्या किया?

जनतंत्र की हत्या कि

जवाहरलाल नहेरुके जो गुण  इन्दिराको घरमें ही पिताजीके साथ चर्चाके समय दिखाई देते थे वे गुण इन्दिरामें अवतरित हुए थे. जवाहारके लिये तो अपने पदको चूनौति देने वाला १९६२ तक कोई नहीं था. जब मोरारजी देसाई नहेरुका प्रतिद्वंदी बना तो नहेरुने सीन्डीकेट बनायी और सीन्डीकेटका सहारा लेके अपने प्रतिद्वंदी मोरारजी देसाईको पराजित कर दिया.  

मान लिजीये कि गांधीजीकी हत्या न होती तो क्या होता?

यदि गांधीजी विद्यमान होते तो वे नहेरुके विरुद्ध होते. और यदि नहेरु सत्तामें होते तो गांधीजीको कारावासमें भेज देते.

आप पूछोगे ऐसा कैसे हो सकता है.

यह जाननेके लिये आप उसकी बेटी इन्दिराके वर्तनका अवलोकन करो.

उसकी बेटी, जो पर्याप्त रुपसे अग्रताक्रममें कनिष्ठ थी, न तो उसको कोई बडे  मंत्रीपदका अनुभव था, न तो उसमें प्रबंधन और प्रशासनिक अनुभव था, फिर भी उसको प्रधान मंत्री बनाया गया.

किनकी सहायतासे इन्दिराको प्रधान मंत्री बनाया गया?

उसी सीन्डीकेटके सदस्यों द्वारा, जिसकी रचना नहेरुने अपने विरोधीयोंको निरस्र करनेके लिये की थी. हाँ जी, ये सीन्डीकेटके सदस्य थे अतुल्य घोष, मोहनलाल सुखडीया, एस के पाटील, कमलापति त्रीपाठी, कामराज , ललितनारायण मीश्र …

और इन्दिराने ही इन सीन्डीकेटके सदस्योंको छीन्न भीन्न कर दिया.

जय प्रकाश नारायण तो गांधीवादी थे. उनको भी कारावासमे भेजा. जयप्रकाश नारायण जो नहेरुको भी खरी खरी सूना देते थे उन्होंने इन्दिरा गांधीको खारी खरी सूनाई.

जयप्रकाश नारायणको कारावासमें स्लो पोईज़न !

जय प्रकाश नारायण तो बिमार भी थे. उनके लिये तो खानेमें संतुलित और सुनिश्चित आहार ही देना चाहिये था.

लेकिन न तो कारावास भेजनेके समय इन्दिराने उनके स्वास्थ्य की जाँच करवाई, न तो उनका रीपोर्ट दिखवाया, न तो उनके लिये सुनिश्चित संयमित आहार की व्यवस्था करवायी, न तो जयप्रकाश  नारायणके लिये जिन खाद्यपदार्थोंका निषेध था उसकी ओर ध्यान दिया, न तो जयप्रकाशनारायणके स्वास्थ्यके उपर अवलोकन करने के लिये कोई व्यवस्था की.

जयप्रकाश नारायण के लिये भोजनमें नमक का निषेध था, लेकिन उनके आहारमें नमक रक्खा गया. उनके स्वास्थ्यकी स्थिति क्या है उसके उपर अनुश्रवणकी (मोनीटरींगकी) कोई व्यवस्था इन्दिराने  नही  की. इन्दिराने स्वयं ही कोई  पूछताछ करनेकी सद्‌वृत्ति न दिखाई.

इसके कारण जयप्रकाश नारायणके  दोनों गुर्दे फेल हो गये. वे मरणासन्न हो गये. इसके पूर्व जयप्रकाश नारायणने गत ओक्टोबर मासमें इस मतलबका कहा भी था भी की थी कि उनकी चिकित्सा ठीक तरहसे नहीं हो रही थी. उनके करीबी तारकुन्डे और  जेपी गोयल दोनोंको लगा था कि जयप्रकाश नारयणको स्लो-पोईज़न दिया जा रहा है. चिक्तित्सालयका कोई भी चिकित्सक तारकुन्डेजी और जेपी गोयलसे बात करनेको तयार नहीं था.

जय प्रकाश नारायण की मृत्यु सुनिश्चित लगती थी.

एक कोंगी नेतासे रहा नहीं गया. वह विनोबा भावे के पास गया और उनको एक चीठ्ठी दी जिसमें विनोबासे आग्रह किया था  कि विनोबा भावे, इन्दिरा गांधीको एक चीठ्ठी लिखें कि वह “जयप्रकाश नारायणको कारावाससे मुक्ति दें”.

विनोबा भावे ने “जयप्रकाश नारायणको कारावाससे मुक्ति दें” उन  शब्दोंके नीचे रेखा खींचीं. और उस पत्रको इन्दिराको भेज दिया.

तो फिर क्या हुआ?

इन्दिरा गांधीने उस कोंग्रेसीको बरखास्त कर दिया. और जय प्रकाश नारायणको कारावाससे मुक्त किया. उस समय जयप्रकाश नारायण मरणासन्नसे बेभान अवस्थामें  थे. कहते है कि एक कागजके उपर उनका अंगूठा (हस्ताक्षर)  ले लिया. शक्य है कि इन्दिरा गांधी समय आने पर उस पत्रको जयप्रकाश नारायणका पेरोलके लिये लिखा प्रार्थना पत्र घोषित कर सकें.

जब ऐसा लगने लगा कि जयप्रकाश नारायण अब किसी भी समय पर देवलोक जा सकते है तब इन्दिरा गांधीके समाचार माध्यमोंने समाचार  की शिर्ष रेखाएं चमकाई कि एक बिमारग्रस्त महापुरुषके योग्य अंत्येष्ठी का पूरा आयोजन सरकारने किया है.

यदि नहेरुने नहीं तो इन्दिराने १९७५-७६में १०८ वर्षके महात्मा गांधीको भी जयप्रकाश नारायण की तरह चीर निद्रामें पहूँचानेका प्रयत्न किया होता. इस तथ्य पर प्रश्न चिन्ह नहीं लग सकता.

नीतिमत्ताकी अवज्ञा और एकाधिकार किसको कह सकते हैं?

यदि आप अपने संबंधीयोंको बिना योग्यता देखें अग्रता क्रमकी अवहेलना करके  उच्च स्थान पर बैठा देते है … ,

यदि आप आपके संबंधीयोंको और चहितोंको आर्थिक लाभ करवा देतें है … ,

यदि आप अपने स्वार्थके कारण निर्णय लेनेमें प्रमाद करते हैं या अनिर्णायक अवस्थामें रहेते है … ,

यदि आप अपने स्वार्थके कारण दुसरोंको जिन्होंने आपका या देशका भी कुछ बिगाडा नहीं है, उनको उनके हक्क और लाभसे वंचित रखते है … ,

यदि आप अपने स्वार्थके कारण अन्योंको कष्ट पहोंचाते है … ,

यदि आप आपने ही बनाये हुए नियमोंका,  स्वयं और अपने चहितों द्वारा पालन नहीं करवाते है … ,

यदि आप अपने दिये हुए वचनोंका पालन नहीं करते है … ,

यदि आप अपने स्वार्थके कारण अन्योंको सुरक्षा नहीं देते है … ,

तो आप एकाधिकारवादी (ऑटोक्रेट = सरमुखत्यार)  है,

 कश्मिर समस्याको प्रलंबित रखनेवाला,

सहस्रों कश्मिरी हिंदुओंके नागरिक और प्राकृतिक हक्कोंसे हमेशाके लिये वंचित रखनेवाला,

शेख अब्दुल्लाको जम्मु-कश्मिर का प्रधान-मंत्री बनानेवाला,

लियाकत अली- नहेरु संधी पर हिन्दुओंकी सुरक्षा पर निगरानी न रखनेवाला,

चीनको केकवॉक वीक्टरी देनेवाला और भारतकी ९१००० चोरसमील भूमि गंवानेवाला,

संसदके समक्ष ली हुई प्रतिज्ञाको भूल जानेवाला,

धर्म तेजा के उपर अमीनजर रखनेवाला,

अग्रताक्रममें न होनेवाली अपनी पुत्रीको प्रधानमंत्री बनानेका आयोजन करनेवाला कौन था? नहेरु ही तो था.

और जिस सीन्डीकेटने  उनको प्रधान मंत्री बनाया उनको हरानेवाली,

स्वयंके लिये नियम बदलनेवाली,

अपने चहितोंको नियमभंग करने पर कोई कार्यवाही न करने वाली,

न्यायालयके आदेशसे विपरित काम करनेवाली,

आपात्काल घोषित करके अन्योंको अपार कष्ट देनेवाली,

और अपने स्वार्थके लिये निम्नस्तरकी कार्यवाही करनेवाली कौन थी?

इन्दिरा गांधी ही तो थीं.

इन्दिरा गांधी अनीतिमत्तासे प्लावित थीं.

सियास्तमें सातत्यसे जूठ बोलनेका प्रारंभ वैसे तो नहेरुने किया था ताकि आम जनताको वे भ्रम में रख सके.

जो लोग आज अपनी उम्रके ७५वर्षके पार कर गये है, उनमेंसे कई लोगोंको १९५०के दशकमें यह पता नहीं था कि कश्मिरमें १९४४ सालसे रह रहे दलित हिन्दु लोग अपने नागरिक हक्कोंसे वंचित रक्खे गये है … भारतकी जनताको यह ज्ञात नहीं था कि स्त्रीयोंको जम्मु-कश्मिर राज्यमें उनके नागरिक अधिकारमें कटौति है … भारतकी जनताको यह ज्ञात नही था कि जम्मु-कश्मिरका अलग संविधान है … भारतकी जनताको यह ज्ञात नहीं था कि नहेरु-लियाकत अली करारके उपर नहेरु और उनके फरजंदोंने कोई कारवाई न करके पाकिस्तान स्थित  हिन्दुओको असुरक्षित रक्खा है …

नहेरुने पाकिस्तान सरकारको हिन्दुओंका धर्मपरिवर्तन करनेकी और यातनाएं देने की पुरी अनुमति दे दी थी. यदि आप एक करार करते है और उस करारके प्रावधानों के आचरण पर निगरानी ही न रखते है तो उसका अर्थ यह ही होता है कि दुसरा पक्ष चाहे वह कर सकता है. समाचार माध्यम के उपर सरकारका अंकुश था.

यदि भारतमें जनतंत्रको जीवित रखनेका श्रेय किसीको जाता है तो वह भारतकी संस्कृति, भारतकी आम जनता और सर्वोदय नेता जय प्रकाश नारायणके गुटको जाता है. इनमें आर.एस.एस. और कुछ मूर्धन्य लोग भी संमिलित है इस तथ्यको नकारा नहीं जा सकता. १९४९के पश्चात्‌  कोंगीयोंका संस्कार ही नहीं रहा है कि वे जनतंत्रकी रक्षा करें.

शिरीष मोहनलाल दवे

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હિન્દુઓને બદનામ કોણ કરે છે?

હિન્દુઓને બદનામ કોણ કરે છે?

કેટલાક મીડીયા મૂર્ધ્નયો પોતાને તટસ્થતાના પ્રદર્શનની  ધૂનમાં હિન્દુઓની બુરાઈ કરતા હશે. પણ તેનો પ્રભાવ હિન્દુઓ પર કેટલો પડતો હશે એ સંશોધનનો વિષય છે. પણ જેઓ પોતાને સુજ્ઞ હિન્દુ માને છે તેમણે મોરારી બાપુના બચાવમાં આવવું જોઇએ જ.

આ વાત ઉપર આપણે ચર્ચા કરીએ તે પહેલાં આપણે સંસ્કૃતિ અને સંસ્કાર એ વિષે કેટલુંક વિચારીએ.

એક અમિબામાંથી કહેવાતા સજીવોની ઉત્ક્રાંતિ થઈ. ધીમે ધીમે ચોપગા સસ્તન ધારી પ્રાણીઓ થયા. અંતે આપણા મનુષ્યની ઉત્પત્તિ થઈ.

મનુષ્ય બીજા પ્રાણીઓથી કેમ જુદો પડે છે?

માણસનું મગજ (સ્મૃતિ સહિતનું) એક વધુ જટીલ અંગ છે. આમ તો બીજા પ્રાણીઓના મગજમાં પણ આગવી જટીલતા હશે. પણ મનુષ્ય વધુ પ્રમાણમાં સ્મૃતિનો સંચય કરી શકે છે, આંખ, કાન નાક, ચામડી, મોઢું, જીભ,  દ્વારા નવી સ્મૃતિઓ મેળવી શકે છે અને સંચિત થયેલી સ્મૃતિઓમાંથી સાનુકુળ સ્મૃતિઓને બોલાવી તેને  સરખાવી શકે છે અને તારવણીઓ કરી શકે છે. ટૂંકમાં મનુષ્ય વિચારો કરી શકે છે. આ વિચારોને પણ તે સંચિત કરી, તેને આવશ્યકતા અનુસાર  સુનિશ્ચિત સ્મૃતિઓને  બોલાવી વ્યુહ રચનાઓ કરી શકે છે.

બીજા પ્રાણીઓ આટલા પ્રમાણમાં આવું કરી શકતા નથી. સિંહ લાખો વર્ષ પહેલાં જે રીતે શિકાર કરતો હતો તે પ્રમાણે આજે પણ કરે છે. જુદા જુદા ભૌગોલિક વિસ્તારોમાં રહેતા સિંહોમાં નજીવો ફેર હોઈ શકે.

 આપણે હવે દાખલા માટે એક કૂતરાની વાત કરીએ

(કૂતરાભાઈ માફ કરે)

એક શેરીમાં (વિસ્તારમાં) રહેતા કૂતરાઓ  જો બીજી શેરીનો કૂતરો (કે કૂતરાઓ આવી ચડે તો આ કૂતરાઓ તેની સામે  ભસવાનું શરુ કરી દે છે. આક્રમણ કરવા પણ ધસી જાય છે. માત્ર બીજી શેરીનો, કૂતરો જ નહીં, કોઈ અજાણ્યું પ્રાણી પણ જો શેરીમાં આવે તો તેઓ ભસવાનું શરુ કરી દે છે. જો આ અજાણ્યું પ્રાણી નિર્બળ હોય તો તેની ઉપર આક્રમણ પણ કરી દે છે.

ધારો કે પાળેલું કૂતરું  છે અને  તેને કેળવ્યું પણ છે. અને તમે તેને લઈને ફરવા નિકળ્યા છો તો તમને આ અનુભવ થયો હશે. તમારું કૂતરું ભસશે નહીં. કારણ કે તે કેળવાયેલું છે.

જો શેરીમાં દાખલ થતું અજાણ્યું કૂતરું સશક્ત હશે અને એકલું હશે તો તેને શેરીના કુતરા ભસશે તો ખરા જ.. આ સશક્ત કૂતરું શેરીના કૂતરાઓ ઉપર આક્રમણ પણ કરશે. પોતાના ઉપર આક્રમણ થવાથી શેરીના કૂતરાઓ થોડી પીછે હઠ કરશે પણ ભસવાનું ચાલુ રાખશે. જ્યાં સુધી આ અજાણ્યું કૂતરું  દૃષ્ટિગોચર હશે ત્યાં સુધી ભસવાનું ચાલુ રાખશે.

બે નજીક નજીકના વિસ્તારના કુતરાઓ થાકે નહીં ત્યાં સુધી ઘણીવાર ભસ્યા કરતા હોય છે. આ ભસવાના કારણો પણ કૂતરા પાસે હોય છે. આપણે તેની ચર્ચા નહીં કરીએ.

માણસની ઉત્ક્રાંતિ

માણસ કૌટૂંબિક જુથમાં રહેતો. પછી કાળક્રમે  જંગલમાં  માણસોમાં નેતાગીરી વાળા જુથ ઉત્પન્ન થયા અને આ ગુટોમાં  પણ આવું જ બનતું. એકલ દોકલ માણસ જો અજાણ્યા વિસ્તારમાં જાય તો તેને મારી  નાખતા.  કાળ ક્રમે તેમની બુદ્ધિ વિકસી અને અનુભવે તેમણે જોયું કે  સલાહ સંપથી રહીયે સારું.

અજાણ્યા સામેનો વિરોધ અંતે વૈચારિક વિરોધમાં પરિણમ્યો. આમ સંસ્કૃતિ નો જન્મ થયો. બે સંસ્કૃતિઓ વચ્ચે લડાઈઓ થઈ.

જે સંસ્કૃતિઓનો વધુ વિકાસ થયો તે કંઈક અંશે સહિષ્ણુ બની.

આપણે એક દાખલો લઈએ

પશ્ચિમના દેશોમાં ધારો કે બે મોટરકાર વચ્ચે અકસ્માત થાય તો તેઓ પોલીસને બોલાવે છે. ભારતમાં જો બે મોટરકાર વચ્ચે અકસ્માત થાય તો બે કારના ડ્રાઈવરો અને તેના મુસાફરો પણ વાગ્‌યુદ્ધ અને અથવા મારામારી પર ઉતરી પડે.

આપણા દેશમાં જો વાહનવ્યવહાર સ્થગિત થઈ જાય તો કારના ડ્રાઈવરો હોર્ન ઉપર હોર્ન વગાડવા માંડે. પોતાની કાર કે બાઈક આગળ લઈ જવા માટે પણ હોર્ન વગાડવા માંડે. હોર્ન વગાડવા વાળાને ખબર હોય કે આગળ વાળા વાહન ચાલક માટે બાજુપર ખસી જવાની જગ્યા નથી, તો પણ પાછળની કારનો ચાલક હોર્ન વગાડ્યા જ કરે. આપણની પાછળની કાર વાળો કે બાઈકવાળો, એક મીટર આગળ જવા મળે તો પણ, આપણને ઓવરટેક કરે છે. આ શું દર્શાવે છે?

આવું શા માટે થાય છે?

 ભારતની જનતામાં સહિષ્ણુતા નથી, ભારતની જનતામાં અધીરાઈ છે, અજાણ્યા પ્રત્યે વર્તવાની સભ્યતા નથી. કૂતરું જેમ અજાણ્યાને જોઈને ભસે તેમ ભારતીયો અજાણ્યા સાથે “પોતે કંઈક છે” એ બતાવવાનો પ્રયત્ન કરે છે. આવું  વલણ અપનાવવામાં જનપ્રતિનિધિઓ પણ અપવાદરુપ નથી.

આપણો હિન્દુધર્મ સહિષ્ણુ છે તે માટે આમ જોઇએ તો હિન્દુધર્મનું તત્ત્વજ્ઞાન કારણભૂત છે. આ આપણો ઐતિહાસિક વારસો છે. હિન્દુઓએ આ વારસાને જાળવવો જોઇએ. આપણે આપણા ધર્મનું ઇસ્લામીકરણ કે ખ્રીસ્તીકરણ ન કરવું જોઇએ. ખ્રીસ્તીઓ પણ હવે તો સહિષ્ણુ થતા જાય છે. વોરાજીઓ અને ખોજાજીઓ જેવા મુસ્લિમો મહદ્‍ અંશે સહિષ્ણુ હોય છે. પણ તેઓ સક્રિય નથી.

હિન્દુધર્મનો મૂખ્ય સિદ્ધાંત શું છે

“ઈશાવાસ્યં ઈદમ્‌ સર્વમ્‌” એટલે ઈશ્વર સર્વવ્યાપી છે. અલ્લાહ માં પણ ઈશ્વર છે અને જીસસમાં પણ ઈશ્વર છે. ભગવાનમાં પણ ઈશ્વર છે.

કેટલાક હિન્દુઓ આળા છે. અને વાચાળ પણ છે. એવી જ રીતે કેટલાક બાબાઓ, ગુરુઓ, સ્વામીઓ અને ઓશો-ઓ … પોતે ધર્મના ભેખધારી હોવાથી, પુરાણોમાં, આરતીઓમાં, પોતાની કડીઓ ઉમેરે છે. તમને ખબર હશે કે શિવાનંદ સ્વામીએ અંબાજીની આરતી લખેલી. “ભણે શિવાનંદ સ્વામી …”  વાળી કડી થી આ આરતી પુરી થાય છે. પણ કેટલાક મહારાજ તેમાં પોતાની કડીઓ ઉમેરે છે અને પછી નવા જન્મેલાઓને આ કડીઓ પ્રક્ષેપિત હોવાની ખબર ન હોવાથી તેને આરતીનો હિસ્સો જ સમજે છે. સત્યનારાયણની કથા પુરી થયા પછી તેમની આરતીમાં કેટાલાક મહારાજ “જય કૃષ્ણ કાળા ….” એવી આરતી કરે છે.

આ કશું નવું નથી. પુરાણોમાં જે વિકૃતિઓ જોવા મળે છે તે પણ આવા જ કારણે છે. એટલે જ પુરાણોને અધિકૃત માનવામાં આવ્યા નથી. પુરાણ અને મહાકાવ્યો ઇતિહાસ તારવવા માટે છે અને મનોરંજન માટે છે. બોધાત્મક જ્યાં લાગે, તો ત્યાં વિવેકબુદ્ધિનો ઉપયોગ કરી લઈ લેવો.  

આપણા કેટલાક બાબાઓ, ગુરુઓ, સ્વામીઓ, ઓશો-ઓ અસંપ્રજ્ઞાતમનમાં ભૂલી જાય છે કે હિન્દુ ધર્મના તત્ત્વજ્ઞાનનું હાર્દ શું છે. તેઓ પોતે જુદા છે. તેઓ માને છે કે પોતાના શિષ્યો્એ આ ભીન્નતા સમજવી જોઇએ. પોતાનો મંત્ર જુદો છે.  હરિ ૐ … ૐ શાંતિ … રાધે રાધે …  આવા આવા મંત્રો તેઓ પોતાના શિષ્યોને આપે છે અને જ્યારે એકબીજાને મળે ત્યારે આવા મંત્રથી તેમનું સ્વાગત કરે છે જેથી બીજાને ખબર પડે કે આ લોકોના ગુરુ કોણ છે. પોતે સ્વાધ્યાયી છે … પોતે સત્સંગી છે … પોતે ગાયત્રી પરિવાર વાળા છે … પોતે બ્રહ્માકુમારી વાળા છે …

પોતે હિન્દુ નથી એવું સાબિત કરવા માટે કેટલાક બાવાઓ ન્યાયાલયના ચક્કર પણ લગાવી આવ્યા છે.

કોંગીઓ લાગ જોઈને જ બેઠા છે

કોંગીઓ તો લાગ જોઇને જ બેઠા છે કે અમને સત્તા કેમ મળે. ભલે એકવાર તો  દેશના ટૂકડા થઈ જાય. પણ આ હિન્દુઓને તો પાડી દેવા જ જોઇએ. હિન્દુઓને પાડવા  માટે હિન્દુઓના ટૂકડા પણ થવા જોઇએ. હે લિંગાયતો, તમે અમને સહયોગ આપો અમે તમને આરક્ષણનો લાભ આપીશું.  

મોરારી બાપુએ કશું ખોટું કર્યું નથી. કેટલાક મહાનુભાવોએ વિરોધ કર્યો છે અને તેમની કથાનો બહિષ્કાર કરવાના ફતવા બહાર પાડ્યા છે. આપણા હિન્દુ ધર્મમાં ધાર્મિક  ફતવાઓ બહાર પાડવાની પ્રણાલી નથી. આ પ્રણાલી કદાચ ઇસ્લામ ધર્મમાં હશે. તેઓ અવારનાવર હોર્ન વગાડ્યા કરે છે.

આપણને કેવા ફતવાઓ શોભે?

આપણે હિન્દુઓએ તો  દેશહિતના  ફતવાઓ જેવા કે “ચીની માલનો બહિષ્કાર કરો”, “ટૂકડે ટૂકડે ગેંગને જેલમાં નાખો”, “કોંગીમુક્ત ભારત કરો”, “ગદ્દરોને ઠાર કરો”, સ્વદેશી અપનાવો, “ગૃહ ઉદ્યોગોને પ્રાધાન્ય આપો” … વિગેરે વિગેરે જેવા ફતવા બહાર પાડવાના છે. આવું આપણને શોભશે

આપણે હિન્દુ ધર્મનું ઇસ્લામીકરણ કરવાની જરુર નથી. આમ તો મોટા ભાગના મુસ્લિમો પણ ક્યારેક હિન્દુ જ હતા. પણ તેઓ ત્યારે મુસ્લિમ થયા જ્યારે તેમને લાલચ આપવામાં આવી કે ડર બતાવવામાં આવ્યો. વળી તે વખતના બ્રાહ્મણોએ તેમને હિન્દુ ધર્મમાં પાછા ફરવાના રસ્તા જ બંધ કરી દીધા. તેથી તેઓ સમસમીને બેસી રહ્યા. પછી તો નવો મુસલમાન સાતવાર નમાજ પઢે તેવો હાલ થયો. તેઓ તેમના મુલ્લાઓએ જેવું શિખડાવ્યું તેવા થયા.

આપણે પેલા કુંભારની વાત સમજવી જોઇએ કે ચમત્કારિક ગધેડો પણ, આખરે તો ગધેડો જ છે  ને. અને પેલા વાણિયાની વાત પણ સમજવી જોઇએ કે “બાપુ” નો ધડો ન કરાય.

આપણા હિન્દુ ધર્મમાં મુખ્ય ત્રણ શબ્દોને વધુ મહત્ત્વ આપવામાં આવ્યું છે.

આનંદ, શિવ (કલ્યાણ)  અને શાંતિ.

કોઈને દુઃખી કર્યા વગર આનંદ કરો. જેની જે અપેક્ષા હોય, તે અપેક્ષા શ્રેયકર હોય, અને તમે તેની તે અપેક્ષા પુરી કરી શકો તેમ હો તો તમે તે પુરી કરો (એટલે કે તમે તમારી શક્તિ પ્રમાણે બીજાનું કલ્યાણ કરો). તો દુનિયામાં શાંતિ જ રહેશે.

શિરીષ મોહનલાલ દવે

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ફતવાની પ્રણાલી સનાતન ધર્મમાં લાવો … !!! (૨)

હાજી … પણ સુનીતિ અને આદર્શને સમજવા માટે તુલસીદાસનું રામાયણ સમાજ માટે અમૂલ્ય છે. 

“અરે પણ … આમ ભક્તિ કરવામાં અલ્લા મોલાને ઉમેરતા જઈશું તો તેનો અંત ક્યારે આવશે?

“હા જી. એ વિચારવા જેવું ખરું.

એક આડ વાત કરી લઈએ.

આચાર્ય રજનીશનું, નવનામાંકરણ, તેમણે “ભગવાન રજનીશ” કરેલું?

કેમ એમ કરેલું?

કોઈ પત્રકારે કે કોઈ અદકપાંસળાએ રજનીશને પૂછ્યું કે તમે તમારા નામની આગળ “આચાર્ય” શબ્દ કેમ લગાડો છે, તમે શું કોઈ આચાર્યની ડીગ્રી (દેશી) લીધી છે?

રજનીશે ઉત્તર આપ્યો કે “ના … ના … હું ફલાણી ફલાણી કોલેજમાં પ્રોફેસર હતો ને એટલે?”

પ્રશ્ન કર્તા એ પૂછ્યું “પણ પ્રોફેસરને તો પ્રાધ્યાપક (હેડ ઓફ ધ ડીપાર્ટમેન્ટ) કહેવાય. આચાર્ય તો પ્રીન્સીપાલને કહેવાય.

આમ આપણા ભાષણીયા અને પ્રાસાનુપ્રાસ ન હોય તો પણ સ્વરોના ઉમેરણ દ્વારા પ્રાસ લાવવાનુ જેમને ગોઠી ગયું છે તે રજનીશ ફસાઈ ગયા. અને ભગવાન થઈ ગયા. એટલે કે ભગવાન રજનીશ થઈ ગયા.

નવી પેઢીને ખબર ન પડે કે નવું શું અને જુનું શું?

ભગવાન કૃષ્ણ, ભગવાન રામ, ભગવાન બુદ્ધ, ભગવાન શંકરાચાર્ય … આવા બધા ભગવાનોની જેમ એક છબી મળી. નીચે લખેલું કે ભગવાન રજનીશ. અને આ છબી નવી પેઢીના એક બાબલાએ પૂજામાં મુકી દીધી.

ભગવાન સ્વામીનારાયણ ની છબી પૂજાના પાલખામાં હોય છે. અરે કેટલાક તો સાંઈબાબા અને સત્ય સાંઈબાબાની પણ છબી પૂજામાં રાખે છે. તો બાબલાને થયું આ રજનીશ પણ કોઈ ભગવાન હશે.

લો બોલો. આવું કંઈ ચાલતું હશે?

કેટલાક ભગવાનો એવા હોય છે કે તેમના જીવનમાંથી ચમત્કારોને બાદ કરી નાખો તો “શૂન્ય” બાકી રહે. ઘનશ્યામ મહારાજ ઉર્ફે ભગવાન સ્વામીનારાયણ ની કથા ચમત્કારોથી ભરપુર છે. પણ આ ઘનશ્યામ મહારાજમાંથી, ચમાત્કારોને કાઢી નાખીએ તો શૂન્ય થઈ જતા નથી. તેમણે અગણિત સારા કામો કર્યાં છે. સૌથી શ્રેષ્ઠ તો તેમણે તેમના ભક્તોને વ્યસનમુક્ત કર્યા છે. પણ સાંઈબાબા કે તેમના અન્ય અવતારો વિષે આપણે જાણતા નથી કે ચમત્કારો બાદ કરતાં તેમના જીવનમાં “શૂન્ય” સિવાય શું બાકી રહે છે?

જેમ દરેક વ્યક્તિને અમુક ઉંમરે (ખાસ કરી ને ૩૦વર્ષ થી ૪૫ વર્ષ ની વચ્ચે) એવો આભાસ થાય છે કે તેને બ્રહ્મ જ્ઞાન લાધી ગયું છે. અને હવે તે પોતાની ચાંચ કોઈપણ વિષયમાં ડુબાડી શકે તેમ છે.

બાવાઓને (બાપુઓને પણ ગણવા હોય તો ગણી લેવા) આ વાત ખાસ લાગુ પડે છે. રજનીશ પણ આવા હતા. રજનીશે પોતાનું નામ ઓશો રાખી દીધું.

જ્યાં સુધી તમે વિજ્ઞાનની વાત ન કરો ત્યાં સુધી તમે મોડર્ન બાબા ન કહેવાઓ.

યોગગુરુ રજનીશને તેમના એક શિષ્યે પ્રશ્ન કર્યો કે “શ્રેષ્ઠ આસન” કયુ કહેવાય?

રજનીશે કહ્યું કે શ્રેષ્ઠ આસન “દુગ્ધ દોહનાસન”.

શિષ્યે પૂછ્યું ; “દુગ્ધ દોહનાસન શા માટે?”

રજનીશે કહ્યું; “તમે ગાયને દોહતી વખતે તમારા બે પગના અંગુઠા ઉપર હો છો. તેથી ધરતી ઉપર તમારો ભાર ઓછામાં ઓછો હોય છે.”

રજનીશ ભાઈને કે એના શિષ્યને કદાચ કુંભાર ની વાત ખબર નહીં હોય.

એક કુંભાર ભાઈ તેમના ગધેડા ઉપર બેઠેલા હતા. તેણે વાસણનું પોટલું પોતાના માથા ઉપર રાખ્યું. ગધેડાને ભાર ન લાગે ને એટલે.

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સંત રજનીશમલ ને અનેક શિષ્યો હતા, જેમ ઓશો આસારામને અનેક શિષ્યો છે તેમ.

“તો હવે મોરારી બાપુનું શું કરવું? તેમણે જે અલ્લા મોલા ની ધૂન બોલાવી તેનું શું કરવું?

ઘણા લોકો કે જેઓને આ નથી ગમ્યું તેઓ કહે છે કે આમ તો મોરારી બાપુ પોતાને મોડર્ન કહેવાડે છે. મોરારી બાપુ વાસ્તુ શાસ્ત્રમાં માનતા નથી … જ્યોતિષમાં માનતા નથી … મરણોત્તર ક્રિયાઓમાં માનતા નથી … તેમણે તેમના પ્રાચીન સમયમાં લગ્નમાં લખલુટ ખર્ચો કર્યો હતો. ભલે તેઓ સાદા વસ્ત્રો પહેરતા હોય તેમની પાસે અઢળક સંપત્તિ છે. રામ કથા, ત્યાગ, લોકાપવાદ નો ભય … આ બધા ઉપદેશો એક દંભ છે. સાઉદીથી પણ તેમને પૈસા મળ્યા હશે/મળે છે/ મળે છે.

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એક ડોંગરે મહારાજ હતા. તેઓ ભાગવત કથા કહેતા. તેઓશ્રી “મારો લાલો … મારો લાલો … એવા બાલકૃષ્ણની વાત કરતાં કરતાં ગળગળા થઈ જતા હતા. કદાચ રાધાના વિરહમાં રહેલા કૃષ્ણના દુઃખના દુઃખથી આંસુડા પણ પાડતા હશે.

કેટલાક રાધાકૃષ્ણના દૈવી પ્રેમની વાતો કરતાં કરતાં ભાવસૃષ્ટિમાં ખોવાઈ જાય છે.

આ બધા આપણને ધત્તીંગ લાગે કારણ કે કૃષ્ણ ભગવાન ઐતિહાસિક રીતે સાચા હતા તે વાત ખરી છે.  પણ રાધાનું પાત્ર એક કલ્પિત પાત્ર છે. બાલકૃષ્ણની વાતો પણ કલ્પિત છે. તેને સાચી માનીને ભાવોદ્રેક થઈ જવું દયાને પાત્ર કે રમૂજ જેવું લાગે છે. જો કે નાટકનું પાત્ર ભજવતા હોય તો અલગ વાત છે. એમાં અઢળક અશ્રુપાત્‌ કરી શકાય.

“પણ અલ્લા મોલાની ધૂનનું શું કરીશું?

“અલ્લા તો સાતમા આસમાનની પણ ઉપર છે. તે અલ્લાની સરખામણી આપણા ઈશ્વર સાથે કેમ કરી જ શકાય?

હા … એ વાત પણ ખરી.

પણ ઈશ્વર તો બધે જ છે. જે વ્યક્ત છે તે પણ ઈશ્વર છે. અને જે અવ્યક્ત છે તે પણ ઈશ્વર છે. સુક્ષ્માતિસુક્ષ્મ પણ ઈશ્વર છે અને ચૌદ કોટી બ્રહ્માણ્ડોનો સમુચ્ચય પણ ઈશ્વરમાં સમાયેલા છે.  સુર, અસુર, માનવ, પર્વત, નદી, સમુદ્ર, પ્રાણી વનસ્પતિ માત્ર ઈશ્વર છે. કર્મ ઈશ્વર છે. કાર્ય ઈશ્વર છે, કરનાર ઈશ્વર છે અને જોનાર પણ ઈશ્વર છે. તો હવે ભલેને અલ્લા પણ ઈશ્વરમાં આવતા.

આપણા હેલ્પેશભાઈએ ન તો ડોંગરે મહારાજની કથા સાંભાળી છે, ન તો તેમણે મોરારી બાપુની કથા સાંભળી છે. કે ન તો હકલાની કોઈ ફિલમ જોઈ છે.

જો કોઈને આ બધું ન ગમતું હોય તો તેઓશ્રી માનવજાતમાં પ્રકૃતિએ ભરેલી વિવિધતાનો આનંદ માણી લે. બીજું તો આપણે શું કહી શકીએ?

ભૂવો ધુણાવીએ? તેને પૂછીએ?

કશુંક જાણી જોઇને ખોટું થતું હોય તો પૂણ્ય પ્રકોપ આ બાપુ ઉપર કરી લેવો. પછી ભૂલી જવું. સજ્જનોનો કોપ પણ ક્ષણ ભંગુર હોય છે. અથવા તો…

कुपितोऽपि गुणायैव गुणवान् भवति ध्रुवम्।
स्वभावमधुरं क्षीरं क्वथितं हि रसोत्तरम्॥

સજ્જન ગુસ્સે (ગરમ) થાય તો પણ તે લાભપ્રદ હોય છે. જેમ ગળ્યું દૂધ ગરમ થવાથી દૂધપાક થાય અને વધુ સ્વાદિષ્ટ લાગે છે.

શિરીષ મોહનલાલ દવે

ચમત્કૃતિઃ

અકબર પાસે એક કુંભાર આવ્યો. તેણે કહ્યું મારી પાસે આ એક ચમત્કારિક ગધેડો છે. વરસાદ આવવાનો હોય તો તે આગલે દિવસે જ તેના કાન ઉંચા કરી દે છે.એટલે આપણને ખબર પડી જાય કે આવતી કાલે વરસાદ આવશે.

કુંભારે ઠીક ઠીક કિમત વસુલ કરી અકબરને એ ગધેડો વેચી દીધો.

અકબર અને બીરબલ ચોમાસાના દિવસોમાં ફરવા નિકળ્યા. કારણકે આગલે દિવસે આ ચમત્કારિક ગધેડાએ કાન ઉંચા કર્યા ન હતા. અકબર અને બીરબલ નગરની બહાર નિકળ્યાને વરસાદ તૂટી પડ્યો. અકબર અને બીરબલ પલળી ગયા.

બીજે દિવસે સૈનિકોને હૂકમ કર્યો કે પેલા કુંભારને પકડી લાવો. સૈનિકોએ કુંભારને હાજર કર્યો. અકબરે કહ્યું તારા ગધેડાએ પરમ દિવસે કાન ઉંચા કર્યા ન હતા. અને ગઈકાલે અમે બહાર નિકળ્યા અને વરસાદ પડ્યો.     

કુંભાર કહે ; “જહાંપનાહ, એ તો સાવ ગધેડો જ છે ને !”

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દુકાન ઉપર વાણીયાનો દિકરો બેઠેલો. એક બાપુ (દરબાર) આવ્યા. તેમણે વાણીયાના દિકરાને ડોલચુ આપ્યું અને બશેર તેલ માગ્યું. વાણીયાનો દિકરો ડોલચાનો ધડો કરવા લાગ્યો. ત્યાં વાણિયો આવ્યો. “અરે મૂર્ખ, ધડો કાઢી નાખ … કાઢી નાખ, બાપુનો કંઈ ધડો થતો હશે. સીધે સીધું તેલ આપી દે.

બાપુ ખુશ થયા. મનમાં મલક્યા. “જોયું વટ છે ને આપણો. આપણો ધડો ન હોય હો”. બાપુએ  મુછે તાવ દીધો.

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બાપુ … ગુરુ … કે ગધુભાઈના કુંભાર … કોઈએ ભળતી ટોપી પહેરવી નહીં

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ફતવાની પ્રણાલી સનાતન ધર્મમાં લાવો … !!! (૧)

હિન્દુ ધર્મમાં ઉપદેશકોના જાતજાતના પ્રકારો હોય છે.

સાધુ (દાઢીવાળા, દાઢી વગરના) , બાવા, સંત, ઓશો, આચાર્ય, સ્વામી, ગુરુ, કથાકાર, કર્મકાંડ કરાવનાર, અને બીજા કેટલાક પીઠાધીશ. આ બધા મહાનુભાવોને આપણે એક સમાન નામે સંબોધવા હોય તો કયો શબ્દ વાપરી શકાય?

જો કે એક ગુણ આ બધામાં સમાન છે. તે ગુણ એ છે કે તેઓ સૌ આપણને બોધ આપવા કૃતનિશ્ચયી હોય છે. તેઓ આ માટે ઘણી મહેનત અને ચિંતન કરે છે. તેઓ શ્રુતવાન એટલે કે જ્ઞાતા હોય છે. આ ઉપરાંત તેઓને કાળનું બંધન હોતુ નથી. એટલે કે તેમના ઉચ્ચારણોમાં રહેલું સત્ય, બ્રહ્મ સત્યને સમકક્ષ હોય છે. અલબત્ત આવું કમસે કમ તેઓ અને તેમના શિષ્યો માને છે. મોટે ભાગે આવા ગુરુઓ પોતાને મોડર્ન પણ માનતા હોય છે. તેમની ચાંચ બધા ક્ષેત્રોમાં એટલે કે ખાસ કરીને વિજ્ઞાન (ભૌતિક શાસ્ત્ર) પણ ડૂબતી હોય છે. આમ હોય તો જ તેઓ મોડર્ન કહેવાયને …!!!

આ મહાનુભાવોને આપણે ગુરુ કહીશું.

જો કે એક પ્રશ્ન ઉઠશે. ગુરુ-શિષ્ય એ તો એક યુગ્મ છે. એટલે ગુરુ હોય તો શિષ્ય પણ જોઇએ જ. શિષ્યમાં શિષ્યો આવી જાય. તેમ જ શિષ્યમાં શિષ્યા પણ આવી જાય. ગુરુ-શિષ્ય પરંપરા એ સનાતન ધર્મની પરંપરા છે અને આ પરંપરા “એકઃ અહં‌ બહુસ્યામ્‌” એટલે કે મહા વિસ્ફોટ (બીગબેંગ) જેટલી જુની છે.

કેટલાક ગુરુઓ પોતે મોડર્ન છે એવું દર્શાવવા સમાજના બધા જ ક્ષેત્રોની વાતો કરી શકતા હોય છે. તેઓ શિષ્યો રાખતા નથી. ખાસ કરીને એમને તો અનુયાયીઓની જરુર હોય છે. શિષ્ય હોય તો વળી પ્રશ્ન કરે. વળી શિષ્ય જાહેરમાં પ્રશ્ન કરે અને તે પણ અઘરો પ્રશ્ન કરે તો ગુરુની રેવડી દાણાદાર થઈ જાય.

જો અનુયાયી હોય તો વાંધો નહીં. કારણ કે ગુરુ તેને અગાઉથી પઢાવેલા પ્રશ્નો જ પૂછવાનું શિખવાડી રાખે. આવું તો ઘણી જગ્યાએ હોય છે. પ્રશ્ન અને પ્રશ્નનું ક્ષેત્ર, પૂર્વ નિશ્ચિત ફક્ત મીડીયા-નેતા વચ્ચે નથી હોતું પણ સમાચાર પત્રોના કોલમોના લેખક અને ભૂતીયા વાચક વચ્ચે પણ હોય છે. આમાં લેખકશ્રી પાસે જવાબ પહેલાં હોય છે અને તે જવાબને અનુરુપ સવાલ બનાવી પૂછવામાં આવે છે. જો બધે આવું જ હોય તો ગુરુજીનો શો વાંક. આ બધું જવા દો.

મૂળવાત એમ છે કે હમણાં મોરારી બાપુ ઉપર પસ્તાળ પડી.

“કોણ છે આ મોરારી બાપુ?

“અરે ભાઈ, … આ મોરારી બાપુ અમારે મહુવા (ભાવનગર)ના તલગાજરડાનું ઉત્પાદન છે. તેઓ બહુ જ રસપ્રદ રીતે રામ-કથા કહે છે. એટલે કે રામ-કથાકાર છે. એમણે કોઈ જગ્યાએ અલ્લા મુલ્લા ને પણ ભજનમાં નાખી દીધા. અને ધૂન બોલાવી. એટલે અમુક લોકોના કાન ઉંચા થઈ ગયા. અને એમણે દેકારો મચાવ્યો.

“ ભારે કરી …. તો …  તો … જેમના કાન ઉંચા થઈ ગયા તેમણે તોડ ફોડ પણ કરી હશે?

“નારે ના … જેમના કાન ઉંચા થઈ ગયા તેઓ તો સભામાં ન હતા. પણ જ્યારે આ વાત તેમના  સાંભળવામાં આવી ત્યારે તેમના કાન ઉંચા થઈ ગયા.

“તો … તો … ઠીક …

“ અરે … તો તો ઠીક શું? રામ – કથાકાર શેના વળી અલ્લા મુલ્લા ની ધૂન બોલાવે? શું મુસલમાનો રામની ધૂન બોલાવે છે? મોરારી બાપુ શેના ઘેલા થઈને મુસલમાનોના ભગવાનની ધૂન બોલાવે?

“કેમ ! ગાંધીજી પણ એમની પ્રાર્થનામાં “અલ્લા ઈશ્વર તેરે નામ …” એવું એવું નહોતા ગવડાવતા?

 “આ ગાંધીજી એ જ દાટ વાળ્યો છે આપણા ભારતનો અને સનાતન ધર્મનો … આપણે હવે મોરારી બાપુનો બહિષ્કાર કરવો જોઇએ …

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મૂળ ધર્મ યહુદી છે (JUDAISM).

પણ યહુદીઓ ઈશુને પેગંબર કે ઈશ્વરનો પુત્ર  ન માને. એટલે ઈશુને ઈશ્વરનો પુત્ર માનવાવાળાનો એક ધર્મ ઉત્પન્ન કરવામાં આવ્યો. હવે થયું એવું કે મૂર્તિપૂજા બહુ વધી ગઈ. કર્મકાંડો વધી ગયા. એમ કહોને કે અતિરેક થયો. એટલે મહમદ સાહેબે તેનો વિરોધ કર્યો. અને ઇસ્લામ ધર્મને ઉત્પન્ન કરવામાં આવ્યો. પણ યહુદીઓ અને ખ્રીસ્તીઓને આ મંજુર ન હતું. તેઓ અળગા રહ્યા. ત્રણ ધર્મો ચાલુ થઈ ગયા.

ભારતમાં આવું ન થયું.

વેદકાળમાં અગ્નિદેવ મુખ્ય દેવ હતા. અગ્નિદેવ બ્ર્હ્મમાંથી આપમેળે ઉત્પન્ન થયેલા એટલે તેમને બ્રાહ્મણ કહેવાયા. આમ ભારતીયોનો  મૂળ ધર્મ બ્રાહ્મણ ધર્મ હતો. બધા દેવોને પ્રતિકાત્મ સ્વરુપ આપવામાં આવ્યું. અગ્નિદેવ રુદ્ર, વિશ્વદેવ, શિવ થયા. સૂર્યદેવ બ્રહ્મા વિષ્ણુ થયા. એમની પૂજા ચાલુ થઈ. પણ વેદ કાયમ રહ્યા. પૃથ્વિ ઉપર આપત્તિ આવી. અમુક સાધનો અને મનુષ્ય દ્વારા ઉદ્ધાર થયો. મત્સ્ય, કચ્છપ, વરાહ, નૃસિંહ, વામન, પરશુરામ, બલરામ, કૃષ્ણ,   અને કલ્કી (થનારો અવતાર). બલરામને કાઢીને રામને ઉમેર્યા. આ બધાની પૂજા ચાલુ થઈ. પણ જુના ભગવાનો પણ ચાલુ રહ્યા. બુદ્ધ નો ઉમેરો થયો. અવતારોની સંખ્યા ઓછી પડી તો પછી ૨૪ ઉપ અવતારો માનવામાં આવ્યા. જેમાં જૈનોના વૃષભ દેવને ઉમેર્યા.

આવી જાઓ બધા. વાંધો નહી. હિન્દુઓ હળી મળીને જ રહેતા. જેને જેમ માનવું હોય તેમ માને. કોઈએ તલવારો ન ખેંચી.

મુસ્લિમો આવ્યા. તેમાંના કેટલાક ને ભારતની વ્યવસ્થા ગમી. કેટલાકને ન પણ ગમી. ભારતનો પ્રાચીન કાળનો મનુષ્ય વધુ સહિષ્ણુ હતો.

યહુદીઓ, ખ્રીસ્તીઓ અને મુસ્લિમો આમ ભારતીય પરંપરાને હિસાબે અલગ ધર્મ કહેવાય જ નહીં. પણ તેઓ અલગ માને તો આપણે શું કરીએ? કારણ કે તેઓનો તો એવો ભૂતકાળ જ હતો. ભારતનો ભૂતકાળનો ઇતિહાસ ચર્ચા કરવાનો હતો.

પ્રવર્તમાન સમયમાં યહુદીઓ અને ખ્રીસ્તીઓ સંસ્કારી અને સહનશીલ થઈ ગયા છે. પણ અમુક પાદરીઓને અને મોટા ભાગના મૌલવીઓને સહનશીલ થવામાં વાર લાગશે.

શું ભારત ઉપર મુસ્લિમ ધર્મની અસર પડી નથી?

મુસ્લિમ ધર્મની અસર ભારતની ઉપર પડી છે.

એક ઈશ્વર, એક પુસ્તક અને એક ઈશ્વરે મોકલેલો માન્યતા પ્રાપ્ત છેલ્લો એક સંદેશ વાહક. અગાઉ બીજા સંદેશવાહક આવેલા પણ તેમણે જે કહ્યું તે તેના મૂળ સ્વરુપમાં નથી તેથી તેને માની ન શકાય. જે છેલ્લો સંદેશવાહક આવ્યો એ અદ્યતન છે તેથી તેણે જે કહ્યું તે જ માનવાનું.

જો કે આ આદેશ આમ તો અતાર્કિક હતો. પણ ગુરુ ગોવિંદ સિંહને થયુ કે હિન્દુઓએ કંઈક શિખવું જોઇએ. એટલે તેમણે ઉપદેશોનો સમન્વય કરી “ગુરુગ્રંથ સાહેબ” રચ્યો. અને કહ્યું આ ગ્રન્થને જ માનવાનું અને આ ગ્રંથની જ પૂજા કરવાની. જોકે તેમણે બીજાઓ ઉપર તલ્વાર ચલાવવાની વાત ન કરી. એમ હિન્દુઓમાં એક વધુ પંથ થયો.

હિન્દુઓમાં દેવતાઓ કરતાં પંથ વધુ છે.

હા જી.

બાર પુરબીયા અને તેર ચોકા (ચૂલા). કારણ કે એક પુરબીયો એવો હોય કે જે ચોકાને સવારે વાપર્યો હોય તેને તે સાંજે વાપરમાં ન માને.

એ રીતે અમુક વૈષ્ણવો બાલકૃષ્ણને જ માને. અને અમુક વૈષ્ણવો રણછોડરાયને માને. ભક્તિમાં ચર્ચાની જરુરત નહીં. ભક્તિ એ સમર્પણ છે.

આ પ્રમાણે મુસ્લિમ અને ખ્રીસ્તી લોકો ભક્તિ માર્ગી કહેવાય.

અંગ્રેજો આવ્યા પછી ઘણા ફેરફાર થયા. અંગ્રેજોના (યુરોપીયનો) ના ભક્તો ઉત્પન્ન થયા.

“સાલુ … આ હિન્દુ ધર્મ એ કંઈ ધર્મ છે. જેને જેમ ફાવે તેમ પૂજે. જાતજાતના દેવની જાત જાતની પૂજા. કોઈ ધણી ધોરી નહીં. જાત જાતના બાવાઓ. જાત જાતના તેમના લક્ષણો. વળી હિન્દુ ધર્મમાં કોઈ સ્થાપક નહીં.

“આ વિદેશીઓને જુઓ… એક જ સ્થાપક, એકજ પુસ્તક અને એક જ પદ્ધતિ. આને ધર્મ કહેવાય. હિન્દુ ધર્મને તો ધર્મ જ ન કહેવાય.

તમે કહેશો “અરે ભાઈ, ધર્મ એટલે કર્તવ્ય. તેમાં બધાં જ ક્ષેત્રો આવી જાય. તર્ક અને વિજ્ઞાન પણ આવી જાય. કોણે કોણે પોત પોતાના વલણને અનુરુપ શું કામ કરવું કે જેથી સમાજ આગળ વધી શકે. ભારતીય સંસ્કૃતિ એક લોકશાહી વાળી સંસ્કૃતિ છે. ચર્ચા કરવાની બંધી નથી. તમે જુઓને ભારતીયોએ વૈજ્ઞાનિક પદ્ધતિ જ અપનાવી છે. વિજ્ઞાનમાં કશું આખરી નથી.

આવું સાંભળી ધોળીયાઓનો ભક્ત કહેશે ; “ના … ના …  ના … ધર્મ, વિજ્ઞાન અને રાજકારણ જુદા છે. તેમને એકઠા કરાય જ નહીં.

હવે આ ભક્તો આગળ તર્ક ને સ્થાન નથી. છતાં પણ તેઓ તે સ્વિકારવા તૈયાર નથી. ભારતીય સંસ્કૃતિએ આવા લોકો માટે પહેલેથી જ ભક્તિ માર્ગ શોધ્યો છે. અંગ્રેજોએ અને સિખને જુદો પાડ્યો. પછી કોંગીઓએ જૈન અને બૌદ્ધને જુદા પાડ્યા. હમણા હમણાં કોંગીઓએ લિંગાયતને જુદો ધર્મ માનવાની ખતરી આપેલી.

ભારતીય સંસ્કૃતિમાં દરેક ક્ષેત્રના શાસ્ત્ર છે.

જેમાં તર્કને સ્થાન નથી તે ભક્તિ-શાસ્ત્ર છે.

આપણે મૂળ વાત પર આવીએ.

આપણા મોરારી બાપુએ અલ્લા મોલાની ધૂન બોલાવી એ યોગ્ય કહેવાય કે નહીં?

“મોરારી બાપુને રામ બહુ પસંદ છે, અને તેમાં પણ તુલસીદાસના રામ. તુલસીદાસના રામ અલગ જ છે. જેમ વાલ્મિકીના રામ, રઘુવંશના રામ અને અમુક પુરાણોના રામ અલગ છે તેમ આ રામ પણ અલગ છે. તુલસીદાસના રામ, એ રામ વિષેનું છેલ્લુ પ્રકાશન છે (?). ઐતિહાસિક દૃષ્ટિએ આ રામનું કશું મહત્ત્વ નથી. વાલ્મિકીના રામાયણમાં બનાવોનું અને ચમત્કારોનું પ્રક્ષેપણ થયેલું છે. તુલસીદાસનું રામાયણ તો પ્રક્ષેપણ અને ચમત્કારોથી ભરપુર છે. પણ સુનીતિ અને આદર્શને સમજવા માટે તુલસીદાસનું રામાયણ સમાજ માટે અમૂલ્ય છે.

(ક્રમશઃ)

શિરીષ મોહનલાલ દવે

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कोंगी और भूमि-पुत्र और धिक्कार

कोंगी और भूमि-पुत्र और धिक्कार

भूमि-पुत्र कौन है?

जिसने जहां जन्म लिया वह वहाँका भूमि-पुत्र है.

क्या यह पर्याप्त है?

नहीं  जी. जिसने जहाँ जन्म लिया, भूमि पुत्र बननेके लिये व्यक्ति को उस प्रदेशकी भाषा भी आनी  चाहिये, और यदि वह उस राज्यमें १५ साल से रहेता है, तो वह उस राज्यका भूमि-पुत्र माना जाना चाहिये. यदि वह अवैध (घुस पैठीया अर्थात्‌ विदेशी घुसपैठीया है) रुपसे रहता है तो यह बात राज्य और केन्द्र सरकार मिलके सुनिश्चित कर सकती है. यदि इसमें केन्द्र सरकार और राज्य सरकारमें भीन्नता है तो न्यायालयका अभिप्राय माना जायेगा.

भूमि-पुत्रकी समस्या किन स्थानों पर है?

सबसे अधिक भूमि-पुत्रकी समस्या जम्मु- कश्मिरमें और  ईशानके राज्योमें है.

जम्मु-काश्मिरकी समस्या कोंगीयोंने वहाँ के स्थानिक मुस्लिमोंके साथ मिलकर उत्पन्न की है. वहाँ तो हिन्दुओंको भी  भगा दिया है. ४४००० दलित कुटूंब, जो जम्मु-कश्मिरमें १९४४से रह रहे है  जब तक नरेन्द्र मोदी सरकारने अनुच्छेद ३७० और ३५ए दूर नहीं किया था तब तक उनको भूमि-पुत्र नहीं माना जाता था. जनतंत्रका अनादर इससे अधिक क्या हो सकता है?

अब वहाँ की स्थिति  परिवर्तन की कैसी दीशा पकडती है उस पर नयी स्थिति निर्भर है.

ईशानीय राज्योंमें भूमि-पुत्रकी क्या समस्या है?

विदेशी घुसपैठी मुस्लिम

विदेशी घुसपैठी हिन्दु

भारतके अन्य राज्योंके बंगाली, बिहारी, मारवाडी …

विदेशी घुसपैठीकी समस्या का समाधान तो केन्द्र सरकार करेगी.

लेकिन विदेशी घुसपैठी इनमें जो हिन्दु है उनका क्या किया जाय?

विदेशी घुसपैथीयोंमें बंग्लादेशी हिन्दु है.

दुसरे नंबर पर पश्चिम बेंगालके हिन्दु है. इन दोनोंमे कोई फर्क नहीं होता है.

पश्चिम बंगालसे जो हिन्दु आये है उन्होंने सरकारी नौकरीयों पर कब्जा कर रक्खा है. असमकी सरकारी नौकरीयोंमें  बेंगालीयोंका प्रभूत्व है.

असममें और ईशानमें भी,  पश्चिम बेंगालके लोग अपनी दुकानमें स्थानिक जनताको न रखके अपने बेंगालीयोंको रखते हैं. इस प्रकार राज्य की छोटी नौकरीयां भी स्थानिकोंको कम मिलतीं है.

भूमिगत निर्माण कार्योंमें भी, पर प्रांतके कोन्ट्राक्टर लोग, अपने राज्यमेंसें मज़दुरोंको लाते है. अपनी दुकानोंमें भी वे अपने राज्यके लोगोंको रखते है.

इसके कारण स्थानिकोंके लिये व्यवसाय कम हो जाते है. इस प्रकार स्थानिक जनतामें परप्रांतियोंके प्रति द्वेषभावना उत्पन्न होती है.

इस कारणसे क्षेत्रवाद जन्म लेता है,  दंगे भी होते है, आतंकवाद उत्पन्न होता, और सबसे अधिक भयावह बात है  यह वह है कि इन परिस्थितियोंका लाभ ख्रीस्ती मिशनरीलोग, स्थानिकोंमें अलगतावाद उत्पन्न करके उनका धर्म परिवर्तन करते है और फिर उनके प्रांतीय अलगतावाद और धार्मिक अलगता वादका सहारा लेके स्थानिकोंमें “हमें अलग देश चाहिये” इस भावनाको जन्म देते है.

मेघालयः

उदाहरणके लिये आप मेघालयको ले लिजीये. यह पूर्णरुपसे हिन्दु राज्य था. (नोर्थ-ईस्ट फ्रन्टीयर्स = ईशानके सीमागत)). ब्रीटीशका तो एजन्डा धर्म प्रचारका था ही.  किन्तु कोंगीने ब्रीटीशका एजन्डा चालु रक्खा. नहेरुमें आर्ष दृष्टि थी ही नहीं कि ब्रीटीशका एजन्डा आगे चलके गंभीर  समस्या बन सकता है. इन्दिराका काम तो केवल और केवल सत्ता लक्षी ही था. उसने  क्रीस्चीयन मीशनरीयोंको धर्मप्रचारसे रोका नहीं.

लिपि परिवर्तन

मेघालयकी स्थानिक भाषा “खासी” है. यह भाषा पूर्वकालमें बंगाली लिपिमें लिखी जाती थी. कोंगीके शासनमें ही वह रोमन लिपिमें लिखी जाने लगी. रोमन लिपिसे ज्ञात ही नहीं होता है कि वसुदेव लिखा है या वासुदेव लिखा है. ऐसी अपूर्ण रोमन लिपिको क्रीस्चीयन मीशनरीयोंने लागु करवा दी. ऐसा करनेसे खासी (मेघालयके स्थानिक)  लोगोंमें वे “भारतसे भीन्न है” भावना बलवत्तर बनी. ऐसी ही स्थिति अन्य राज्योंकी है. असमके लोगोंने अपनी लिपि नहीं बदली किन्तु अलगताकी भावना उनमें भी विकसित हुई. मूल कारण तो विकासका अभाव ही था.

एक काल था, जब यह ईशानका क्षेत्र संपत्तिवान था. कुबेर यहाँ का राजा था. आज भी इशानके राज्योंमें प्राकृतिक संपदा अधिक है, किन्तु  शीघ्रतासे कम हो रही है.. इन्दिरा नहेरुघान्डी कोंग्रेसने इन राज्योंका विकास ही नहीं किया. इसके अतिरिक्त कोंगीने अन्य समस्याओंको जन्म दिया और उन समस्याओंको विकसित होने दिया.

ईशानके राज्य आतंकवाद से लिप्त बने. ईशानके राज्योंमें परप्रांतीय भारतीयों पर हुए अत्याचारोंकी और नरसंहारकी अनेक कथाएं है. इनके उपर बडा पुस्तक लिखा जा सकता है.

सियासतका प्रभाव

भूमि-पुत्रकी समस्यामें जब सियासत घुसती है तो वह अधिक शीघ्रतासे बलवत्तर बनती है. जहाँ स्थानिक लोग शिक्षित होते है वे भी सियासतमें संमिलित हो जाते है.

मुंबई (महाराष्ट्र) ; १९५४-५५में नहेरुने कहा “यदि महाराष्ट्रीयन लोगोंको मुंबई मिलेगा तो मुझे खुशी होगी.” इस प्रकार नहेरुने मराठी लोगोंको संदेश दिया कि,” गुजराती लोग नहीं चाहते है कि  महाराष्ट्रको मुंबई मिले.” ऐसा बोलके नहेरुने मराठी और गुजरातीयोंके बीचमें वैमनस्य उत्पान्न किया.

वास्तवमें तो कोंग्रेसकी केन्द्रीय कारोबारीका पहेलेसे ही निर्णय था कि “गुजरात, महाराष्ट्र और मुंबई” ऐसे तीन राज्य बनाया जाय. किन्तु बिना ही यह निर्णयको बदले, नहेरुने ऐसा बता दिया कि गुजराती लोग चाहते नहीं है कि मुंबई, महाराष्ट्रको मिले.

मुंबईको बसाने वाले गुजराती ही थे. गुजरातीयोंमे कच्छी, काठीयावाडी (सौराष्ट्र), गुजराती बोलनेवाले मारवाडी, और गुजराती (पारसी सहित) लोग आते है. ९० प्रतिशत उद्योग इनके हाथमें था. स्थानिक संपत्तिमें ७० प्रतिशत उनका हिस्सा था. गुजरातीयोंने स्थानिक लोगोंको ही अवसर दिया था. गुजराती कवि लोगोंने शिवाजीका और अन्य मराठाओंका गुणगान गाया है. सेंकडों सालसे गुजराती और मराठी लोग एक साथ शांतिसे रह रहे थे. उनमें नहेरुने आग लगायी. मुंबई एक  व्यवसायोंका केन्द्र है. गुजराती लोग व्यवसाय देनेवाले है. गुजराती लोग व्यवसाय छीनने वाले नहीं है. यदी गुजराती लोग चाह्ते तो वडोदरा जो पेश्वाका राज था वहांसे मराठी लोगोंको भगा सकते थे. किन्तु गुजराती लोग शांति प्रिय है. उन्होंने ऐसा कुछ किया नहीं.

शिव सेना न तो शिवजीकी सेना है, न तो वह शिवाजीकी सेना है.

महाराष्ट्रकी  सियासती कोंग्रेसी नेताओंने मराठीयोंका एक पक्ष तैयार किया. उसका नाम रक्खा शिव सेना. जिनका उद्देश साठके दशकमें कर्मचारी मंडलोंमेंसे साम्यवादीयोंका प्रभूत्त्व खतम करनेका था, और साथ साथ महाराष्ट्र स्थित  केन्द्र सरकारके कार्यालयोंमेंसे दक्षिण भारतीयोंको हटानेका था. यह वही शिवसेना है जिसके स्थापकने इन्दिराको आपत्कालमें समर्थन दिया था. और आज भी यह शिवसेना सोनिया सेना बनके इन्दिरा नहेरुघांडीकी भाषा बोल रही है.

दक्षिण भारत

दक्षिणके राज्योंमे भाषाकी समस्या होनेसे उत्तरभारतीय वहाँ कम जाते है. लेकिन ये उत्तर भारतीय जिनमें राजस्थान, मध्यप्रदेश, ओरीस्सा, उत्तर प्रदेश, बिहार … वे गुजरात, मुंबई (महाराष्ट्र) में नौकरीके लिये अवश्य आते है. ये लोग अपने राज्यमें भूखे मरते है इसीलिये वे गुजरात में (और मुंबईमें भी) आके  कोई भी नौकरी व्यवसाय कर लेते है. इनकी वजह से गुजरात और मुंबईमें झोंपड पट्टी भी बढती  है. कोंगीने  और समाचार माध्यमोंने गुजरातमें भाषावाद पर लोगोंको बांटनेका २००१से  प्रयत्न किया था. एक “पाटीदार (पटेल)”को नेता बनाया था. उसने प्रथम तो आरक्षणके लिये आंदोलन किया था. वह लाईम लाईटमें आया था. कोंगीने परोक्षरुपसे उसका समर्थन भी किया था. शिवसेनाके उद्धव ठाकरेने उसको गुजरातका मुख्य  मंत्री बनानेका आश्वासन भी दिया था. कोंगीयोंने परोक्ष रुपसे गुजरातसे कुछ उत्तर भारतीयोंको भगानेका प्रयत्न भी किया था. कोंगीलोग गुजरातमें सफल नहीं हो पाये.

राहुल गांधीने दक्षिण भारतमें जाके ऐसी घोषणा की थी कि बीजेपी सरकार, दक्षिणभारतीय संस्कृतिकी रक्षा नहीं कर रही है. हम यदि सत्तामें आयेंगे तो दक्षिण भारतीय संस्कृतिकी पूर्णताके साथ रक्षा करेंगे. कोंगीयोंका क्षेत्रवाद और भाषावादके नाम पर भारतीय जनताको विभाजित करनेका यह भी एक प्रकार रहा है.

ईशान, बंगाल और कश्मिरके अतिरिक्त, क्वचित्‌ ही कोई राज्य होगा जहां पर यदि आप उस राज्यकी स्थानिक भाषा सिखलें तो आपको कोई पर प्रांतीय समज़ लें.

 भाषासे कोई महान है?

“गर्म हवा” फिल्ममें एक  घटना  और संवाद है.

परिस्थित ऐसी है कि एक मुस्लिम ने सरकारी टेन्डर भरा. बाकीके सब हिन्दु थे.

मुस्लिम के लिये यह टेन्डर लेना अत्यधिक आवश्यक था. लेकिन धर्मको देखते हुए असंभव था. उसके घरवालोंको लगा कि यह टेन्डर उसको मिलेगा ही नहीं. जब वह मुस्लिम घर पर आया तो घरवालोंने पूछा कि टेन्डर का क्या हुआ? उस मुस्लिमने बताया कि “धर्म से भी एक चीज महान है … वह है रिश्वत … मुझे वह टेन्डर मिल गया.”

 उसी प्रकार, भाषासे भी एक चीज़ महान है वह एक सियासत. सियासती परिबल किसी भी समस्याका हल है और वह है नेताओंकी जेब भर देना.

किन्तु यह रास्ता श्रेयकर नहीं है.

कौनसा रास्ता श्रेयकर है?

प्रत्येक राज्यके लोगोंकी अपनी संस्कृति होती है.

शासन में स्थानिकोंका योगदान आवश्यक है

स्थानिकोंका आदर करना आवश्यक है

स्थानिककोंकी भाषा हर कार्यालयमें होना आवश्यक है,

स्थानिकोंके रहन सहनका आदर और उसको अपनाना आवश्यक है,

स्थानिकोंके पर्व में योगदान देना आवश्यक है,

स्थानिकोकी कलाओंको आदर करना और अपनाना आवश्यक है,

ऐसा तब हो सकता है कि जब राज्यके शासनकी भाषा स्थानिक भाषा बनें.

ऐसी स्थिति की स्थापना करनेके लिये महात्मा गांधीने कोंग्रेसकी कारोबारी द्वारा भाषाके अनुसार राज्य नव रचना करना सूचित किया था. प्रत्येक राज्यका शासन उसकी स्थानिक भाषामें होने से प्रत्येक राज्यकी अस्मिता सुरक्षित रहेती है.

राज्य स्थित केन्द्रीय कार्यालयोंमें भी स्थानिक भाषा ही वहीवटी भाषा होना चाहिये.

पर प्रांतीय लोग, यदि स्थानिक लोगोंका आदर करनेके बदले उनको कोसेंगे तो वे लोग स्विकार्य नहीं होंगे. इसका अर्थ यह है कि वे स्थानीय जनताका एवं उनकी संस्कृतिका आदर करें और उनके उपर प्रभूत्त्व जमानेकी कोशिस न करें.

परप्रांतीय लोग यदि स्थानिक जनता की भाषा अपना लें तो, ६० प्रतिशत समस्याएं उत्पन्न ही नहीं होती हैं..  

क्या आप सोच सकतें है कि आप बिना फ्रेंचभाषा सिखें फ्रान्समें आरामसे रह सकते है?

क्या आप सोच सकते है कि आप बिना जापानी भाषा पढे जापानमें रह सकते है?

क्या आप सोच सकते है कि आप स्पेनीश भाषा पढें स्पेन और दक्षिण अमेरिकामें आरामसे रह सकते है?

भारत देश भी, वैविध्यतासे भरपूर है. वही भारतका सौंदर्य है.

७० प्रतिशत स्थानिक संस्कार स्विकृत करें. ३० प्रतिशत अपना मूल रक्खें.

कोंगीने कैसे अराजकता फैलायी?

कोंगीयोंका ध्येय ही, हर कदम पर, सियासती लाभ प्राप्त करना है. इसीलिये लोक नायक जय प्रकाश नारायणने १९७४में कहा था कि कोंगी अच्छा काम भी बुरी तरहसे करता है.

क्या कश्मिरमें शासनकी भाषा कश्मिरी भाषा है?

क्या हरियाणामें शासनकी भाषा हरियाणवी है?

क्या पंजाबमें शासनकी भाषा पंजाबी है?

क्या हिमाचलमें शासनकी भाषा गढवाली है,

क्या मेघालयमें शासनकी भाषा खासी है?

ऐसे कई राज्य है जिनमें राज्यकी स्थानिक भाषा,  शासनकी भाषा  नहीं है. यह है कोंगीयोंका कृतसंकल्प. कोंगीयोंने अपने शासनके  ७० वर्ष तक जनताके परम हितकी अवमानना करके अनिर्णायकता रक्खी.

शिरीष मो. दवे

चमत्कृतिः

भारतको  १९४७में स्वतंत्रता मिलने पर बडौदामें क्या हुआ?

बडौदा राज्यमें शासनकी भाषा बदली. गुजरातीके बदलेमें अंग्रेजी आयी.

वाह कोंगी स्वतंत्रता, तेरा कमाल ?

हाँजी बरोडाके गायकवाडके राज्यमें शासनकी भाषा (वहीवटी भाषा गुजराती थी)

लेकिन स्वतंत्रता आनेसे उसका मुंबई प्रान्तमें विलय हुआ. मुंबई प्रांतकी वहीवटी भाषा अंग्रेजी थी.

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