“आगसे खेल” मुल्लायम और उसके सांस्कृतिक साथीयोंका
यदि कोई जनताको धर्म, जाति और और क्षेत्रके नाम पर विभाजन करें और वॉट मांगे उसको गद्दार ही कहेना पडेगा. अब तो इस बातका समर्थन और आदेश सर्वोच्च न्यायालयने और चूनाव आयुक्तने भी परोक्ष तरिकेसे कर दिया है.
मुल्लायम, अखिलेश और उनके साथीयोंने युपीके चूनावमें बीजेपी के विरुद्ध आंदोलन छेड दिया है. ये लोग बीजेपी के नेतागण चूनाव प्रचारके लिये भी न आवें क्यों कि वे युपीके नहीं हैं. आप समझलो कि ये मुल्लायम, अखिलेश आदि नेता लोग, स्थानिक लोगके अलावा, अन्य भारतीय नागरिकके वाणी स्वातंत्र्यके हक्कको भी युपीमें मान्य नहीं रखना चाहते हैं. उनके लिये युपी-बिहारमें नौकरी देनेकी तो बात ही छोड दो. ये लोग तो क्षेत्रवादमें अन्य राज्योंके क्षेत्रवादसे एक कदम आगे हैं. वे ऐसा प्रचार कर रहे है कि, स्थानिक नेताओंको छोडकर अन्य नेता युपीमें चूनाव प्रचार भी न करें. युपी-बिहारमें तो स्थानिक पक्ष (सिर्फ हिन्दीभाषी) ही होना चाहिये.
१९५७के चूनावमें पराजयसे बचने के लिये कोंग्रेसके नहेरुने मुम्बईमें भाषावाद को जन्म दिया था.
नहेरु है वॉटबेंक सियासत की जड
वॉटबेंककी सियासत करने वालोंमें नहेरुवंशी कोंग्रेसका प्रथम क्रम है. नहेरु वंशवाद का यह संस्कारकी जड नहेरु ही है.
नहेरुने सर्व प्रथम गुजराती और मराठीको विभाजित करनेवाले उच्चारण किये थे.
नहेरुने कहा कि यदि महाराष्ट्रको मुंबई मिलेगा तो वे स्वयं खुश होंगे.
नहेरुका यह उच्चारण मुंबईके लिये बेवजह था. गुजरातने कभी भी मुंबई पर अपना दावा रक्खा ही नहीं था. वैसे तो मुंबईको विकसित करनेमें गुजरातीयोंका योगदान अधिकतम था. लेकिन उन्होने कभी मुंबई को गुजरातके लिये मांगा नहीं था और आज भी है.
गुजराती और मराठी लोग हजारों सालोंसे मिलजुल कर रहेते थे. स्वातंत्र्य पूर्वके कालमें कोंग्रेसकी यह नीति थी कि भाषाके अनुसार राज्योंका पुनर्गठन किया जाय और जैसे प्रादेशिक कोंग्रेस समितियां है उस प्रकारसे राज्य बनाया जाय. इस प्रकार मुंबईकी “मुंबई प्रदेश कोंग्रेस समिति” थी तो मुंबईका अलग राज्य बनें.
लेकिन महाराष्ट्र क्षेत्रमें भाषाके नाम पर एक पक्ष बना. उस समय सौराष्ट्र, कच्छ और मुंबई ईलाका था. मुंबई इलाकेमें राजस्थानका कुछ हिस्सा, गुजरात, महाराष्ट्र था, और कर्नाटकका कुछ हिस्सा आता था. १९५७के चूनावके बाद ऐसी परिस्थिति बनी की महाराष्ट्र क्षेत्रमें नहेरुवीयन कोंग्रेस अल्पमतमें आ गयी. यदि उस समय नहेरु भाषाके आधार पर महाराष्ट्रकी रचना करते तो महाराष्ट्रमें उसकी सत्ता जानेवाली थी. इस लिये नहेरुने द्विभाषी राज्यकी रचना की, जिसमें सौराष्ट्र, कच्छ, गुजरात, मुंबई और महाराष्ट्र मिलाके एक राज्य बनाया और अपना बहुमत बना लिया.
महाराष्ट्रमें विपक्षको तोडके १९६०में गुजरात और महाराष्ट्र अलग अलग राज्य बनाये.
जातिवादका जन्म
डॉ. आंबेडकर तो मार्यादित समयके लिये, और वह भी केवल अछूतोंके लिये ही आरक्षण मांग रहे थे. गांधीजी तो किसी भी प्रकारके आरक्षण के विरुद्ध थे. क्यों कि महात्मा गांधी समज़ते थे कि आरक्षणसे वर्ग विग्रह हो सकता है.
नहेरुने पचासके दशकमें आरक्षण को सामेल किया. अछूत के अतिरिक्त और जातियोंने भी आरक्षणकी मांग की.
नहेरुवीयन कोंग्रेसको लगा कि विकासके बदले वॉट-बेंक बनानेका यह तरिका अच्छा है. सत्ताका आनंद लो, पैसा बनाओ और सत्ता कायम रखनेके लिये जातियोंके आधार पर जनताको विभाजित करके नीच जातियोंमें ऐसा विश्वास पैदा करो कि एक मात्र कोंग्रेस ही उनका भला कर सकती है.
नहेरुने विदेश और संरक्षण नीतिमें कई मूर्खतापूर्ण काम किये थे, इस लिये उन्होंने अपनी किर्तीको बचाने के लिये इन्दिरा ही अनुगामी बने ऐसी व्यवस्था की. ईन्दिरा भी सहर्ष बडे चावसे अपने वंशीय चरित्रके अनुसार प्रधान मंत्री बनी. लेकिन उसमें वहीवटी क्षमता न होने के कारण १९६७ के चूनावमें नहेरुवीयन कोंग्रेसकी बहुमतमें काफी कमी आयी.
हिन्दु-मुस्लिम के दंगे
जनताको गुमराह करने के लिये इन्दिराने कुछ विवादास्पद कदम उठाये. खास करके साम्यवादीयोंको अहेसास दिलाया की वह समाजवादी है. वैसे तो जो नीतिमत्तावाला और अपने नामसे जो समाजवादी पक्ष संयुक्त समाजवादी पक्ष (डॉ. राममनोहर लोहियाका) था वह इन्दिराकी ठग विद्याको जानता था. वह इन्दिराकी जालमें फंसा नहीं. इस कारण इन्दिराको लगा की एक बडे वॉट-बेंककी जरुरत है. इन्दिराके मूख्य प्रतिस्पर्धी मोरारजी देसाई थे. इन्दिराके लिये मोरारजी देसाईको कमजोर करना जरुरी था. इसलिये उसने १९६९में गुजरातमें हिन्दु-मुस्लिम के दंगे करवाये, इस बातको आप नकार नहीं सकते.
नहेरुवीयन कोंग्रेसकी संस्कृतिका असर
वॉट बेंक बनानेकी आदत वाला एक और पक्ष कांशीरामने पैदा किया. सत्ताके लिये यदि ऐसी वॉट बेंक मददरुप होती है तो बीजेपी (जनसंघ)को छोड कर, अपना अपना वॉट बेंक यानी की लघुमति, आदिवासी, अपनी जातिका, अपना क्षेत्र वाद, अपना भाषावाद आदिके आधार पर अन्य पक्ष भी वॉट बेंक बनाने लगे. यह बहूत लंबी बात है और इसी ब्लोग साईट पर अन्यत्र लिखी गयी है.
आज भारतमें, वॉट बेंकका समर्थन करनेमें, भाषा वादवाले (शिव सेना, एमएनएस, ममता), जातिवाद वाले (लालु, नीतीश, अखिलेश, मुल्लायम, ममता, नहेरुवीयन कोंग्रेस, चरण सिंहका फरजंद अजित सिंह, मायावती, डीएमके, एडीएमके, सीपीआईएम आदि), धर्मवादके नाम पर वॉट बटोरने वाले(मुस्लिम पेंपरींग करनेवाले नेतागण जैसे कि मनमोहन सिंह, सोनिया, उनका फरजंद रा.गा., ममता, अकबरुद्दीन ओवैसी, आझम खान, अखिलेश, मुल्लायम, केज्री, फारुख अब्दुल्ला, उनका फरजंद ओमर, जूटे हुए हैं.
पीला पत्रकारित्व (यलो जर्नालीझम)
पीला पत्रकारित्व (यलो जर्नालीझम) भी वॉट बेंकोके समर्थनमें है और ऐसे समाचारोंसे आवृत्त समाचार रुपी अग्निको फूंक मार मार कर प्रज्वलित करनेमें जूटा हुआ है. आपने देखा होगा कि, ये पीला पत्रकारित्व, जिसकी राष्ट्रीय योगदानमें कोई प्रोफाईल नहीं और न कोई पार्श्व भूमिका है, ऐसे निम्न कक्षाके, पटेल, जट, यादव, ठाकुर, नक्षलवादी, देशके टूकडे करनेकी बात करने वाले नेताओंके कथनोंको समाचार पत्रोंमें और चेनलों पर बढावा दे रहा है.
भारतमें नहेरुसे लेकर रा.गा. (रा.गा.का पूरा नाम प्रदर्शित करना मैं चाहता नहीं हूं. वह इसके काबिल नहीं है) तकके नहेरुवीयन कोंग्रेसके सभी नेतागण और उसके सांस्कृतिक नेतागणने बिहारके चूनावमें क्षेत्रवादको भी उत्तेजित किया था. इसके परिणाम स्वरुप बिहारमें नरेन्द्र मोदीके विकास वादकी पराजय हूयी. अर्थात् वॉट-बेंक वालोंको बिहारमें भव्य विजय मिली.
क्षेत्रवाद क्या है?
क्षेत्रवादके आधार पर नहेरुवीन कोंग्रेस और एन.सी. पी. की क्रमानुसार स्थापित शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनी है.
“हम भी कुछ कम नहीं” नीतीश-लालु चरित्र
नीतीश कुमारने सत्ता पानेके लिये “बाहरी” और “बिहारी” (स्थानिक), शब्दोंको प्रचलित करके बिहारमें बहुमत हांसिल किया. समाचार माध्यमोंने भी “बाहरी” और “स्थानिक” शब्दोंमें पल रही देशको पायमाल करने वाली वैचारिक अग्निको अनदेखा किया.
यदि क्षेत्रवादकी अग्निको हवा दी जाय तो देश और भी पायमाल हो सकता है.
गुजरातमें क्या हो सकता है?
गुजरातमें सरकारी नौकरीयोंमे खास करके राज्यपत्रित उच्च नौकरीयोंमें बिन-गुजरातीयोंकी बडी भारी संख्या है.
कंपनीयोंमें वॉचमेन, मज़दुर कर्मचारी ज्यादातर बिन-गुजराती होते है, सरकारी कामके और कंपनीयोंके ठेकेदार अधिकतर बिन-गुजराती होते है. और ये बिन-गुजराती ठेकेदार और उनके सामान्य कर्मचारी और श्रमजीवी कर्मचारी गण भारी मात्रामें बिन-गुजराती होते हैं. शहेरोंमें राजकाम (मेशनरीकाम), रंगकाम, सुतारीकाम, इत्यादि काम करने वाले कारीगर, बिन-गुजराती होते है. और केन्द्र सरकारकी नौकरीयोंमें तो चतुर्थ वर्गमें सिर्फ युपी बिहार वाले ही होते है. प्रथम वर्गमें भी उनकी संख्या अधिकतम ही होती है. द्वितीय वर्गमें भी वे ठीक ठीक मात्रामें होते हैं. इतना ही नहीं, हॉकर्स, लारीवाले, अनधिकृत ज़मीन पर कब्जा जमानेवालोंमे और कबाडीका व्यवसाय करनेवालोंमे, सबमें भी, अधिकतर बिन-गुजराती होते है. चोरी चपाटी, नशीले पदार्थोंके उत्पादन-वितरणके धंधा उनके हाथमें है. अनधिकृत झोंपड पट्टीयोंमें बिन गुजराती होते हैं.ये सब होते हुए भी गुजरातके सीएम कभी “बाहरी-स्थानिक”का विवाद पैदा नहीं होने देते. उतना ही नहीं लेकिन उनके कानुनी व्यवसायोंकी प्रशंसा करते हुए कहेते है कि गुजरातकी तरक्कीमें, बिन-गुजरातीयोंके योगदान के लिये गुजरात उनका आभारी है. पीले पत्रकारित्वने कभी भी गुजरातकी इस भावनाकी कद्र नहीं की. इसके बदले गुजरातीयोंकी निंदा करनेमें अग्रसर रहे. यहां तक कि नीतीशने बिहारकी प्राकृतिक आपदाके समय गुजरातकी आर्थिक मददको नकारा था. बहेतर था कि नीतीश गुजरातमें बसे बिहारीयोंको वापस बुला लेता.
यदि गुजरातमेंसे बिनगुजरातीयोंको नौकरीयोंमेंसे और असामाजिक प्रवृत्ति करनेवाले बिनगुजरातीयोंको निकाला जाय तो गुजरातमें बेकारीकी और गंदकीकी कोई समस्या ही न रहे. इतना ही नहीं भ्रष्टाचार भी ९५% कम हो जाय. गुजरात बिना कुछ किये ही यु.के. के समकक्ष हो जायेगा.
नीतीशलालु और अब मुल्लायम फरजंदका आग फैलाने वाला खेल
नीतीश कुमार और उसके सांस्कृतिक साथीगण को मालुम नहीं है कि गुजरातकी जनता वास्तवमें यदि चाहे तो नीतीशकुमारके जैसा “बाहरी और बिहारी” संस्कार अपनाके बिहारीयोंको और युपीवालोंको निकालके युपी और बिहारको बेहाल कर सकता है.
यदि समाचार माध्यम वास्तव में तटस्थ होते तो नीतीशकुमारके “बाहरी – बिहारी” प्राचारमें छीपा क्षेत्रवाद को उछाल कर, बीजेपीके विकासवादको पुरस्कृत कर सकता था. लेकिन समाचार माध्यमोंको बीजेपीका विकासवाद पसंद ही नहीं था. उनको तो “जैसे थे” वाद पसंद था. ताकि, वे नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंकी तरह, और उनके सांस्कृतिक साथीयोंकी तरह, पैसे बना सके. इसलिये उन्होंने बिहारको असामाजिक तत्वोंके भरोसे छोड दिया.
अन्य राज्योंमे बिन-स्थानिकोंका नौकरीयोंमें क्या हाल है?
बेंगालमें आपको राज्यकी नौकरीयोंमें बिन-बंगाली मिलेगा ही नहीं.
युपी-बिहारमें थोडे बंगाली मिलेंगे क्योंकि वे वहां सदीयोंसे रहेते है.
कश्मिरमें तो काश्मिरी हिन्दु मात्रको मारके निकाल दिया है.
पूर्वोत्तर राज्योंमें बिन-स्थानिकोंके प्रति अत्याचार होते है. आसाममें नब्बेके दशकमें सरकारी दफ्तरोंके एकाउन्ट ओफीसरोंको, आतंकवादीयोंको मासिक हप्ता देना पडता था. नागालेन्ड, त्रीपुरामें भी यही हाल था. मेघालयमें बिहारीयोंका, बंगालीयोंका और मारवाडीयोंका आतंकवादीयों द्वारा गला काट दिया जाता था.
केराला, तामीलनाडु और हैदराबादमें तो आप बिना उनकी भाषा जाने कुछ नहीं कर सकते. बिन-स्थानिकोंको नौकरी देना वहांके लोगोंके सोचसे बाहर है. कर्नाटकमें आई.टी. सेक्टरको छोडके ज्यादातर ऐसा ही हाल है.
मुंबईमें बिन-मराठीयोंका क्या हाल है?
मुंबईका तो विकास ही गुजरातीयोंने किया है. मुंबईमें गुजराती लोग स्थानिक लोगोंको नौकरीयां देते है. नौकरीयोंमे अपना हिस्सा मांगने के बदले गुजराती लोग स्थानिकोंके लिये बहुत सारी नौकरीयां पैदा करते हैं. इसके बावजुद भी राज्यसरकारकी नौकरीयोंमें गुजरातीयोंका प्रमाण नहींवत है. नब्बेके दशकमें मैंने देखा था कि, ओमानकी मीनीस्ट्री ऑफ टेलीकोम्युनीकेशनमें जितने गुजराती कर्मचारी थे उससे कम, मुंबईके प्रभादेवीके संचार भवनमें गुजराती कर्मचारी थे. मराठी लोगोंकी गुजरातीयोंके प्रति खास कोई शिकायत नहीं है इसके बावजुद भी यह हाल है..
मुंबईमें शिवसेना और एमएन एस है. उनके नेता उत्तर भारतीयोंके प्रति धिक्कार युक्त भावना फैलाते है. और उनके उपर कभी कभी आक्रमक भी बनते है.
चूनाव आयुक्त को मुल्लायम, अखिलेश, नहेरुवीयन कोंग्रेसको सबक सिखाना चाहिये. युपीकी जनताको भी समझना चाहिये कि मुल्लायम, अखिलेश, और उसके साथ सांस्कृतिक दुर्गुणोंसे जुडे नहेरुवीयन कोंग्रेसके नेताओंके विरुद्ध चूनाव आयुक्तसे शिकायत करें. भारतमें यह आगका खेल पूरे देशको जला सकता है.
स्वातंत्र्यके संग्राममें हरेक नेता “देशका नेता” माना जाता था. लेकिन अब छह दशकोंके नहेरुवीयन शासनने ऐसी परिस्थिति बनायी है कि नीतीश, लालु, मुल्लायम, अखिलेश, ममता, माया, फारुख, ओमर, करुणा आदि सब क्षेत्रवादकी नीति खेलते हैं.
शिरीष मोहनलाल दवे
टेग्झः आगसे खेल, मुल्लायम और उनके सांस्कृतिक साथी, नहेरुवीयन कोंग्रेस और उसके सांस्कृतिक साथी, सर्वोच्च
न्यायालय, चूनाव आयुक्त, १९५७के चूनाव, नहेरु, मुंबईमें भाषावाद, वॉटबेंक सियासत, नहेरुका वंशवाद, विभाजित,
महाराष्ट्रको मुंबई, राज्योंका पुनर्गठन, जातिवादका जन्म, सत्ताका आनंद, इन्दिरा, जनताको गुमराह, नहेरुवीयन कोंग्रेसकी संस्कृतिका असर, लालु, नीतीश, अखिलेश, ममता, नहेरुवीयन कोंग्रेस, चरण सिंहका फरजंद अजित सिंह, मायावती, डीएमके, एडीएमके, सीपीआईएम, अकबरुद्दीन ओवैसी, आझम खान, अखिलेश, मुल्लायम, केज्री, फारुख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्लाका फरजंद ओमर, पीला पत्रकारित्व (यलो जर्नालीझम), राष्ट्रीय योगदानमें कोई प्रोफाईल, देशके टूकडे करनेकी बात करने वाले नेता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, “बाहरी” और “बिहारी” (स्थानिक), बाहरी और युपीवाले, असामाजिक तत्वोंके भरोसे,