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Archive for October, 2021

दुरात्मा गांधी और विनाशपुरुष मोदी – ४

गत ब्लोगसे चालु;

बच्चेने अपने चाचुसे बोलाः “ और दूसरी खास बात, गांधीजीके राजकीय क्षेत्रके योगदान को छोड कर, उनका और क्या योगदान था? इसके बारेमें आप क्या जानते है वह मुज़े बताओ …

“चल हट, बच्चू … !! तेरे साथ बात करना बेकार है.

“चाचू, आप ने शायद श्री दिनकर जोषीजीकी “जीन्ना” पर लिखी किताब भी नहीं पढी है. जीन्ना की गांधीजीके विरोधकी भाषा और शैलीसे भी बढकर, आजके कोंगीनेताओंकी और उनके सांस्कृतिक सहयोगी लुट्येन गेंगके नेताओंकी नरेंद्र मोदीके विरुद्ध भाषा और शैली है.

“कौन दिनकर जोषी?

“लो बस… कर लो बात. यदि आपने ‘दिनकर जोषीजी’को पढा नहीं और गांधीजीके विरुद्ध बोलते हो तो सब आपकी महेनत बेकार गयी. सोरी सोरी … आपने तो महेनत तो की ही नहीं है. इधर उधर के कुछ गांधी विरोधीयोंके या भारतकी संस्कृतिसे अज्ञ विदेशी लेखकों द्वारा लिखे, छूट पूट कथनोंमेंसे, आपके अनुकुल कथनोंको उठाकर, उनको ही ब्रह्म वाक्य मानकर, आप तो, गांधीकी कटू आलोचना कर देते है.

“बच्चू, तेरे कहेना मतलब क्या है? कोई मिसाल है?

“मिसाल के तौर पर एक लेखक एलन अक्षेलरोड ने लिखा है कि गांधीजी शाकाहारी इसलिये थे कि उनके एक मित्र जैन थे. जैन लोग शाकाहारी होते है.

“तो इसमें गलत क्या है?

“ ‘वैष्णव बनिये’ क्या कम शाकाहारी होते है? ब्राह्मण तो हड्डीको, पींछे को छूते तक नहीं. मावजीभाई दवे तो उनके कौटुंबिक सलाहकार थे.

“तो क्या हुआ? उसने जो सोचा वह लिख दिया. तूम तो बालकी खाल निकालते हो …!!!

“बात यह नहीं है कि वह गलत था. बात यह है कि मानव समाजका, एक व्यक्तिके उपर क्या प्रभाव है. बडे परिवर्तनके लिये कभी कोई एक ही परिबल प्रभावक नहीं हो सकता. ‘एलन अक्षेलरोड’ ने तो गांधीजीकी प्रबंधन निपूणता का असाधारण विश्लेषण किया है. गांधीजीकी नेतृत्व करने की क्षमताका भी खुबसूरत विश्लेषण किया है. जो बात तत्कालिन समाजसे संबंधित नहीं थी या तो कम प्रभावित थी, ऐसी बातोंका निरुपण, विदेशी विश्लेषक अच्छी तरह कर सकता है. लेकिन हिंदु समाजका विश्लेषण या उनसे संलग्न घटनाओंका विश्लेषण करना है तो हिंदुओंके साथ दो दशकके लिये जीना पडता है.

ईंग्लेंडमें गांधीकी प्रवृत्ति, साउथ आफ्रिकामें गांधीजीकी प्रवृत्ति, भारतमें मुस्लिमोंके साथ गांधीजीकी प्रवृत्ति, भारतमें अंग्रेज सरकारके साथ गांधीजीकी प्रवृत्ति, हिंदु समाजके साथ गांधीजीकी प्रवृत्ति, भारतकी अर्थव्यवस्थाके साथ गांधीजीकी प्रवृत्ति, हिंदु धर्मके साथ गांधीजीकी प्रवृत्ति …. इन सबके बारेमें विश्लेषण करना है तो भीन्न भीन्न क्षेत्रके ज्ञाता चाहिये. एक क्षेत्रका ज्ञाता लिख नहीं सकता.

एक विदेशी महिला इतिहासकार (?) संभव है वह रोमिला थापर की शिष्या हो, उसने लिखा, प्राचीन भारतके लोग, केवल कुत्तेको ही पहेचानते थे. बाकी सब प्राणीयोंको वे अश्व कहेते थे. कुत्तेको ‘श्व’ कहेते थे और बाकी प्राणीयोंको “अ-श्व” कहेते थे. (अ = नहीं. श्व= कुत्ता. अश्व = कुत्ता नहीं. कुत्तेसे भीन्न प्राणी = अश्व). रोमिला थापर का उल्लेख इस लिये किया है कि उसके कहेनेके अनुसार मुस्लिमों द्वारा मूर्त्ति तोडना और हिंदु राजा द्वारा मूर्त्ति को उठाके ले जाना एक ही बात है.

“तू कहेना क्या चाहता है, बच्चू?” चाचू उवाच.

“यही की ‘हम सत्य प्रिय है’ वाली कुछ लोगोंकी प्रणाली ऐसे ही चालु रहेगी और तथा कथित महानुभाव लोग, ठीक ठीक पढनेका कष्ट उठाने के बदले, सिंहावलोकन करके “ ‘वाणीविलास’ करनेमें अधिक परिश्रम करेंगे और छूटपूट कथनोंका सहारा लेके , अपने द्वारा पूर्वनिर्धारित तारतम्य निकालते रहेंगे, तो सौ सालके बाद, हमे क्या पढनेको मिल सकता है मालुम है !!!

“तुम बोलो तो हम भी सूने” चाचू उवाच.

“ तो चाचू सूनो … ई.स. २१२१ का यह भविष्यकालका लेख पढो;

नरेंद्र मोदीने सन १९८९ -९० में काश्मिरमें १००००+ हिंदुओंका नरसंहास करवाया. हजारों हिंदु औरतोंका गेंग रेप करवाया और पूर्व आयोजित तरिकेसे लाखों हिंदुओंका पलायन करवाया. इस बात पर, पाकिस्तान की एक चेलन पर चर्चा हो रही थी, तब शशि थरुरने अनुमोदन किया. नरेंद्र मोदीने कभी भी इस बातको नकारा नहीं. आर. एस. एस. के कोई भी नेताने भी इस बातको नकारा नहीं. आप जानते होगे कि नरेंद्र मोदी उस समय आर एस एस द्वारा संचालित बीजेपीका महामंत्री था.

मुस्लिमोंका तूष्टीकरण करनेमें नरेंद्र मोदी अग्रेसर था. इनके तो हजारों उदाहरण है. उसने कश्मिरमें सबसे अधिक प्रोजेक्ट डाले. उसने जम्मुको अन्याय करना चालु रक्खा. वह बोलता रहेता था कि सबका विकास सबका विश्वास. सबका विश्वास शब्द से सूचित था मुस्लिमोंका विश्वास.

मोदी देशके लूटनेवालोंसे मिला हुआ था. इन लुटनेवालोंको उस समयका मीडीया लुट्येन गेंगसे पहेचाना जाता था. ये लुट्येन गेंगवाले पाकिस्तान और चीन परस्त थे. ममताके सामने नरेंद्र मोदीने बीजेपीको हराया. लेकिन अपने प्लानको छीपाने के लिये केवल ममताको ही हराया. जो मुख्य मंत्रीको हरा सकता है वह क्या ममताकी पार्टीके आम प्रत्याशीयोंको नहीं हरा सकता क्या? नरेंद्र मोदीने मूंह छीपानेके लिये केवल दो डीजीटमें बीजेपीकी सीटें जीता. मोदीके मुस्लिम तुष्टीकरणकी नीतिस, कई लोग बीजेपीको छोड कर भागने लगे थे. बीजेपीका पुराना साथी “शिव सेना” भी मोदीकी मुस्लिम तुष्टीकरणकी नीतिके कारण बीजेपीसे अलग हो गया था.

सुब्रह्मनीयन स्वामी नामका बीजेपीका एक महान एवं होनहार नेता था. उसने राममंदिरका केस लडा था, रामसेतूका केस भी लडा था. दोनो केस जितवाये थे. इस नेताने लुट्येनगेंगके कई नेताओंको न्यायालय में मुकद्दमा लडके कारावासमें भेजा था. नरेंद्र मोदीने इस स्वामीको कभी भी एक छोटासा मंत्री भी नहीं बनाया.

नरेंद्र मोदी को केवल वाह वाह चाहिये थी. उसको लोग फेंकू भी कहेते थे. लेकिन वह अपनी गोदी मीडीया द्वारा अपनी प्रसिद्धि करवाता था. वह सत्ताका लालची था. वह प्रच्छन्न रुपसे इंदिरा नहेरु गांधीका प्रशंसक था और जब आवश्यक्ता पडने पर इन तीनों की प्रशंसा कर लेता था.

उसने बाजपायी जैसे कदावर नेताको ब्लेक मेल करके, खुदको गुजरातका मुख्य मंत्री बनवाया था. और गुजरातका मुख्यमंत्री बननेके बाद वह देशका प्रधान मंत्री बननेका स्वप्न देखा करता था.

अष्टम पष्टम करके वह देशका प्रधान मंत्री भी बन गया था.

यह नरेंद्र मोदी अपने बारेमें कहा करता था कि वह १८ घंटा काम करता है लेकिन वास्तवमें उसको आंखे खुला रखके सोनेकी आदत थी.

उसको अपने भाई, बहन, पत्नीसे बनती नहीं थी. वह अपनी अतिवृद्ध मांका भी खयाल नही रखता था.

नरेंद्र मोदी एक अत्यंत कामी पुरुष था. दुसरा गांधी ही समज़ लो.

महिलाओंका उपभोग करनेका आदि था. जब वह मुख्य मंत्री था तबसे वह महिलाओंके लिये योजनाएं बनाता था ताकि ज्यादासे ज्यादा महिलाओंका वह उपभोग कर सके. सखी-मंडल, मा, आशावर्कर … ३३ % महिला आरक्षण ये सब क्या था?

वास्तवमें नरेंद्र मोदी मोहनदास गांधीका अवतार था. उसने अपने “मोहनदास गांधी” के अवतारमें कोई सत्ताधारी पद का उपभोग किया नहीं, क्यों कि वह जीम्मेवारी लेना नहीं चाहता था.

लेकिन उसके बाद उसने अपने नरेंद्र मोदीके अवतारमें नहेरु, इंदिरा, संजय, राजिव, सोनिया के ७० सालके शासनसे सिख लिया कि अपनी सत्तासे कुछ गीनेचूने खरबपतियोंको मालामाल करते रहो और अपनी वाह वाह करवाते रहो तो “खेला” आपकी पकडमें ही रहेगा. यदि आवश्यकता पडे तो जैसे इंदिराने कहा था कि “मेरे पिताजीको तो बहूत कुछ काम करना था लेकिन ये सींडीकेटके नेतालोग मेरे पिताजीको काम करने नहीं देते थे”. कोई भी बहाना बता दो. बात खतम. संस्कृतमें एक श्लोक है कि;

यस्यास्ति वित्तं स नर कुलिनः, स श्रुतवान स च गुणज्ञः ।

स एव वक्ता, सच दर्शनीय, सर्वे गुणा कांचनमाश्रयन्ते ॥

जिस व्यक्तिके पास धन है, वह ही उच्चकुलका है, वही वेद ज्ञाता है, वही गुणोंको जाननेवाला है, वही अच्छा बोलनेवाला है, और वही सुंदर है (जैसेकी शाहरुख खान), सभी सद्गुण पैसेके गुलाम है.

ऐसे तो कई वीडीयो, लेख, समाचार आदि आपको १०० सालके बाद मिलेंगे. क्यूं कि उत्तर देनेवाला नरेंद्र मोदी तो होगा नहीं. जैसे आज महात्मा गांधी नहीं है.

“अरे बच्चू तू तो है, उत्तर देनेवाला गांधीके बदले.

“मैं तो हूंँ. लेकिन मेरी बात तो लोग नकार दे सकते है. मुज़से कई अधिक संख्यामें और अधिक शोर करने वाले वाजिंत्र, और लोगोंके पास है. मैं तो गांधीजीका अंतेवासी हूंँ नहीं. और जो गांधीजीके उपर कहेनेमें विश्वसनीय माने जाते है वे तो बोलेंगे नहीं. क्यों कि वे तो समज़ते है कि गांधीजी तो एक सूर्य है. सूर्यके सामने थूकनेसे सूर्यको कोई हानि होती नहीं है. गांधीजी के अनुयायीयोंकी यही मानसिकता है. आपने कभी गांधीवादी संस्था चलानेवालोंका गांधीका बचाव करते पढा है. वैसा ही हाल नरेंद्र मोदीका होगा.

“लेकिन तू तो गांधीजीका बचाव करने पर उतर आता है. इसका क्या?

“आपने ‘नकली किला’ काव्य पढा है?

“नहीं तो …!!

“तो पढ लो.

आज भी चित्तौरका सून नाम कुछ जादूभरा, चमक जाती चंचलासी चित्तमें करके त्त्वरा  … “

   …………….

राणाने  अपनी प्रतिज्ञाका तात्कालिक पालन करनेके लिये  बूंदीका नकली किला बना दिया (जैसे आज कुछ लोग अपने मनसे एक नकली  कपोल कल्पित  गांधी बना देते है, फिर उसको  ….) और  उसको  तोडने के लिये सज्ज हो जाता है. 
 
ऐसा क्यूंँ करता है वह  राजा? 
क्यूंँ  कि उसने   आवेशमें  आके  प्रतिज्ञा ली  कि “दूर्ग बूंंदीको तोडे बिना ही अब कहीं, ग्रहण अन्नोदक करुं तो मैं प्राकृतिक क्षत्रीय नहीं”
लेकिन  बूंदीके दूर्गको तोडना तो आसान नहीं था. और बिना खाये पीये कैसे जिंदा रहा जा सकता है. “ईष्ट सिद्धि कहांँ रही जब न साधन   (जिवन) ही  रहा!!!” 
 
तो नकली किला बनाया जाता है.
 
नकली किला तोडनेके लिये  राणा सज्ज हो जाता  है. ….
 
(अब आप वह कविता ही पढो. दिलको छूने वाली है)

 

 

शिरीष मोहनलाल दवे

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It is a matter of research as to what objection, Mr. Amit Bhaduri has, to the usage of “Transfer of power”?

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Let us discuss;

-:(I):-

Suppose;

(1) Country A is a democratic country. i.e. The Government of Country A, is controlled by the peoples representatives of country A.

(2) Country B is also having peoples representatives.

(3) But the peoples representatives of country B, have no full power. They have to act under the instructions of the Government A.

(4) The country A, is ruling the country B.

(5) Now suppose a Government A wants to go away from Country B with certain conditions.

(6) Such conditions have been agreed by both the country A and country B.

(7) The peoples representatives of Country B had been empowered to take decisions as per the then prevailing law.

The conditions were;

(7.1) Because the Government A has to secure the interest of minority communities of Country B, it will hand over the full charge of the Government A pertaining to Country B, it would divide the country B in different parts.

(7.2) Till these divided parts frame a constitution of their own, passed by their representative body, the parts will have to take the final approval of the head of the Country A.

(7.3) Once a part which has become a country, frames its constitution then it will enjoy the full liberty to make changes in any law, rules and regulations at its will. No further approval of Country A, would be needed once its constitution came in force.

(8) Country A had sent a mission. Its name was Cabinet Mission. The work entrusted to this mission by the Government A, is to decide how to divide the country B in how many parts, What should be the criteria of land and boundaries, What should be the base …

(9) Now suppose, both the countries viz. A and B has agreed to the conditions of partitions and independence, then what should be the way of granting independence other then the transfer of power agreement? Either Mr. Amit is confused or knowingly or unknowingly has objection with the word “transfer of power” from Government A to part B1 and Government A to part B2. Let Mr. Amit may define as to what way it should have been processed and how the aforesaid adopted way, differs from what his (would be proposed) way of independence which he feels proper.

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-:(II):-

At moment from the narratives of Mr. Amit, it appears that;

(1) Partition, transfer of power, independence and elected members of 1946 were fake and not proper.

(2) Partition is not independence. i.e. If India is divided in parts, the parts cannot be said to be independents even if they frame and pass their separate constitution. i.e. according to Mr. Amit, the a part which has been made independent from the crown, even if that part has been empowered to frame its own constitution and allowed absolutely to be administered, cannot be termed as independent.

(3) Because it was only the transfer of power and not independence.

(4) And transfer of power is not independence, because it was peaceful.

(5) And no peaceful transfer of power can be termed as independence, even though a part (the new nation) has got its own constitution.

(6) i.e. According to Mr. Amit, it is not the constitution that decides the independence but it is the violent way of snatching the power from the previous government e.g. Government A, by the people of the Country B, can be said to have become independent.

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-:(III);-

(1) One fact must not be forgotten that Cabinet Mission came to India in March 1946.

(2) When the commission put forward a condition that they have to take care of the minorities of India. Hence partition would be the inevitable condition. Gandhi had said that “the partition would be on my dead body”. He had presumed that he would get public support in course of time.

(3) Gandhiji said to Cabinet Mission; “First of all you (British) quit India. How to maintain the interest of our minorities, is our problem. It is not your problem. We are capable to solve it, and we will solve it by any means. If needed, we will solve it by sward. You British, leave us to our fate. You please quit.

(4) When the Cabinet Mission stick to its pre-condition, Gandhiji resigned from the representative of presenting Indian side and he said “I cannot be a party to a Mission who is determined to divide India.”

(5) Gandhiji asked Congress to Boycott Cabinet Mission. But Congress leaders had no courage to boycott Cabinet Mission. However they continued negotiation.

(6) A stage had come when the partition issue was likely to be replaced under the negotiation with the proposal of “ federal Union”.

(7) This proposal was acceptable to Cabinet Mission, Congress and Muslim League, at a moment of time. But Nehru had rejected it with his own ground. Sardar Patel also had rejected it, because it was much more complicated. It required much more time to workout conditions among all the Federal parts inclusive of the factor of Princely States. India was likely to be divided in 10 to 20 (?) parts. Nehru bluntly said, “In my office, I cannot give even a post of the peon to Mr. Jinna.

(8) Gandhi who had once agreed privately for Federal Union, because he was not in hurry to get independence. Ultimately Gandhiji changed his mind because of the massacre conducted by Muslims under the call “Direct Action” given by Jinna in August 1946.

(9) Gandhiji said; “ I am not able to control this massacre. Are you able to control?”

It is not only mischievous action to pass blame on Gandhiji for partition, but it is a criminal lie. Gandhiji went to Noakhali in November 1946, to stop genocide being conducted by Muslims on Hindus. More than 5000 Hindus were murdered. Muslims were murdered only in few numbers. Gandhi went there as a “one man army”. He went on fast. Many accompanied him. Despite of this, many leaders suffering from Anti-Gandhi phobia, say, Gandhi was responsible for killing Hindus in Noakhali, hence it was ok when Godse killed him.

HOW MUCH THANKLESS WE ARE !!!

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Shirish M. Dave

If you have any pointwise reply, write me at smadave1940@yahoo.com

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दुरात्मा गांधी और विनाशपुरुष मोदी – ३

चाचा – भतीजा संवाद गत ब्लोगसे चालु …

“ तेरी भली थाय … तू मुज़े पढाता है बच्चू …!! तू पहेचानता नहीं है मुज़े … कि, मैं कौन हूँ? मैं तो बारबार टीवी के वार्तालापमें आता हूँ. अखबारोंमे मेरी कोलमें चलती है, मुज़े लोग प्रवचन करने बुलाते हैं. मेरे लेख वर्तमान पत्रोमें छपते है, मेरी स्वयं की एक चेनल भी है, मेरी वेबसाईट भी है … मेरे पर आन्टीयाँ मरती है … हमारी सहयोगी महिलाओंके उपर भी कई अंकल मरते होगे …

“तो चाचू, आपकी दाल ईतनी काली क्यूँ है? चाचू, आप विषय मत बदलीये. आप क्या क्या है, आप क्या क्या कर रहे है या किनके उपर कौन कौन मरता है या आपके उपर कौन कौन मरता है, यह चर्चाका विषय नहीं है. चर्चाका विषय है तथा कथित दुरात्मा पुरुष और विनाश पुरुष की निंदा करना. आपको इस बातका भी पता नहीं कि साहित्यमें “पिता”का क्या क्या अर्थ होते है. आपने जो कहा, इससे तो आपका अज्ञान उजागर होता है. आप अपना अज्ञान स्विकारनेके स्थान पर विषयांतर कर देते है, या तो सामने वाले पर आप अंगत आक्षेप करने लगते है. इस बातसे तो आप अपनी असंस्कारिताका भी प्रदर्शन कर देते है. आप ऐसा क्य़ूँ करते है वह मैं दादुसे पूछुं?

“कौन है तेरा दादु?

“यह तो मेरा सीक्रेट है. मैं आपको क्य़ूँ बताउं? मैं मेरे दादुको स्पीकर पर रखुंगा. आप भी श्रवण कर पाओगे.

(अतः बच्चू-दाद्वोः संवादः)

“दादू !! मैं यह सोचता हूंँ कि, कुछ चाचूओंकी और आंटी / बुआओंकी दाल काली क्यों होती है? वैसे तो वे कभी कभी महान विद्यालयोंकी डीग्री धारक होते है. तो भी उनकी दाल काली क्यों होती है?

“मेरे खयालसे तुम्हारा कहेना यह है कि कुछ लोग तर्क करनेमें और समज़नेमें अक्षम होते हुए भी महानुभाव कैसे बन जाते है?

“जी हांँ, दादुजी, कुछ आम कक्षाके लोग और कभी कभी तो आम कक्षासे भी कनिष्ठ, स्वयंको महानुभाव कैसे समज़ने लगते है?

“मेरे खयालसे तू, ख्याति प्राप्त लोगोंको महानुभाव समज़ता है !!

“बिलकुल तो ऐसा नहीं, लेकिन सामान्यतः, ख्याति प्राप्त लोगोंको महानुभाव समज़ा जाता है. खास करके समाचार माध्यम द्वारा. क्यूँ कि ख्याति प्राप्त लोग समाचारमें आने से वाचक वर्गमें वृद्धि होती है ऐसा समज़ा जाता है.

“ बेटा, ख्याति, महानता और महानुभाव ये शब्द भीन्न भीन्न अर्थवाले है. और इसमें सामान्यकक्षाका व्यक्ति असंजसमें पड जाता है. यह बात आम समस्या है. जैसे की जवाहरलाल नहेरु, मोतिलालकी संतान थे और मोतिलाल, जवाहरलालको आगे लाना चाहते थे तो जवाहरकी तर्कशक्ति सामान्य कक्षाकी होते हुए भी ख्याति प्राप्त कर सके. फिर तो उसको पद भी मिल गया. तो पदके कारण भी महानुभाव बन गये. वैसा ही उनके वंशजोके बारेमें समज़ो.

“लेकिन दादू, डी.एन.ए. के कारण महानुभावकी संतान महान बननेमें सक्षम नहीं होती है क्या? जैसे की आम तौर पर माता-पिताकी आयु संतानोमें आती है वैसे ही डी.एन.ए.की वजहसे महानुभावत्त्व संतानोमें नहीं आ सकता क्या?

“जैसे भौतिक संपत्ति वारसागत मिलती है क्योंकी वह शरीरके बाहर होती है, और वह भौतिक है. लेकिन शरीरके अंदरकी संपत्ति जिसे हम बौद्धिक संपत्ति कहें तो वास्तव में वह “टेंडेंसी” (झुकाव) होती है. लेकिन मस्तिष्क के विकासके लिये कई और परिबल भी अति प्रभावक और बदलाव कारक है. जैसे कि परिपालन, वाचन, विचार, कर्म, मित्रमंडल, खानपान, स्मृति-शक्ति और आसपास बनती घटनाएं … हैं. स्मृतिको सक्षम बनानेके लिये बारबार रटना आवश्यक है. जो झुकाव है वह तो मातृपक्ष एवं पितृपक्ष के संबंधीयोंमेंसे कहींसे भी आ सकता है. वह तो मिश्रण है. इस प्रकार महानुभावकी संतान, माहानुभावत्त्व के लिये सक्षम नहीं होती है.

“ … तो दादू, कुछ लोग स्वयंको महानुभाव कैसे मानते है?

“पद मिलनेके कारण व्यक्तिको ख्याति मिलती है. पक्षका प्रमूख पद, पक्षका प्रवक्ता पद, प्रधानपद, शिक्षकपद, समाचार पत्र या टीवी-चेनलोंके मालिकोंसे पहेचान, पैसा, अभिनयकला, या अभिनयक्षेत्रको चलानेवालोंके साथ संबंध, … और शक्यताके सिद्धांत के अनुसार भी कभी कभी प्रसिद्धि मिल जाती है. और वह व्यक्ति अपनेको महानुभाव समज़ने लगता है.

“तो दादू … ऐसे व्यक्तिकी पहेचान क्या है?

“जब तक चलता है तब तक चलता है, लेकिन जब उसके सामने तर्कका मामला आ जाता है तब उसकी खुला पड जानेकी शक्यता बढ जाती है. जब ऐसा होता है तब, वह व्यक्ति या तो विषय बदलनेकी कोशिस करता है, या तो असंबद्ध बातें/तुलना करता है या तो सामनेवाले पर शाब्दिक हमला कर देता है. तू, टीवी चेनल पर चलती चर्चाओंमें देख सकता है कि कोंगीके कोई नेता या तो उनके सांस्कृतिक सहयोगी पक्षोंके कोई नेता, उनको पूछे हुए प्रश्नके उत्तर देने के बजाय बीजेपी पर आक्षेप करने पर उतर आते है.

“सही कहा दादू … कुछ लोग आज भी महात्मा गांधीके फोबीयासे पीडित है. और ऐसे लोग अपनेको देशभक्त सिद्ध करनेके लिये बेतूकी बातें करते है. गोडसेने महात्मा गाधीका खून किया तो वे इस घटनाको अच्छी दिखानेके लिये इस घटनाका “गांधी-वध” नामांकरण करते है. जैसे “पिता” (राष्ट्रपिता वाला “पिता” शब्द) शब्द प्रयोगमें क्षति की, वैसे ही “वध” शब्द प्रयोगमें क्षति की. उन्होंने सोचा कि, जैसे दुरात्मा शिशुपाल, जयद्रथ, कंस, … है वैसे दुरात्मा गांधी भी है. जैसे शिशुपाल-वध, जयद्रथ-वध, कंस-वध, … हुआ, वैसे ही गाँधी-वध हुआ … इसमें क्या गलत है !!! हमारे कथित सुज्ञ लोग जो वास्तवमें अज्ञ है वे “शब्दोंका वाणी-विलास” करते करते भाषा-देवी पर दुष्कर्म करने लगे. जब उनके समक्ष यह तथ्य लाया गया तो उन्होंने एक असंबद्ध अनुसंधान लीन्क दिया और कहा “देख इसमें मैंने कहांँ “वध” शब्द प्रयोजित किया है?

“सही कहा बेटे तुमने … ऐसे लोग जो होते है आम कक्षाके या तो उससे भी निम्न कक्षाके, वे ऐसा ही करते है. “मूंँह बचाव” की स्थितिमेंसे भागनेके के लिये वे तुम्हारे पर अतार्किक तारतम्य निकालके चर्चासे भाग जाते है.

“यही हुआ दादु … वैसे तो मैंने गांधी-फोबियासे पीडित लोगोंको आहवाहन किया है कि “आप केवल एक ही बात ऐसी बताओ कि जिसके लिये केवल गांधी ही सबसे अधिक जीम्मेवार है और आपके हिसाबसे देशको महत्तम हानि हुई हो.” गुजरातके एक वाचाल व्यक्तिने कहा “मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतिके जन्म दाता गांधीजी थे.” मैंने उनको अनुसंधान देके बताया कि ऐसा नहीं है.

उन्होने कहा गांधीजी मुस्लिमोंसे डरते थे. मैंने उस प्रसंगका गांधीजीके खूदके शब्दोमें दिखाया कि गांधीजीकी क्या प्रतिक्रिया थी और अनुसंधान भी दिया.

उन्होने फिर खिलाफतका मुद्दा उठाया. मैंने गांधीजीके कथनका संदर्भ दिया.

बात तो लंबी है. अंतमें फिर उन्होंने अपना इंदिराई संस्कार दिखाया और उल्टी ही बात की. [ईंदिराई कल्चर यह है कि कोई आपको जूठा कहे उसके पहेले आप उसको जूठा कह दो]. मैंने गांधीजीने खुदने क्या कहा था उसका अनुसंधान हर मुद्दे पर दिया था, और ये महाशयने एक भी संदर्भ नहीं दिया था, तो भी उन्होंने जरा भी शर्म रक्खे बिना लिख दिया कि मैंने कोई संदर्भ नहीं दिया और उन्होंने हर बात का संदर्भ दिया. इन्होंने बिलकुल अपना इंदिरा-नहेरुगांधी कल्चर दिखा दिया.

“बच्चू … ऐसा तो होना ही था. बडे नाममें कई बार छोटा व्यक्ति बैठा हुआ होता है. सियासती और वंशवादी पक्षोंमें ऐसा होना आम बात है. और कुछ कहेना है?

“जी हांँ दादु … एक व्यक्तिने तो कह दिया कि “यदि किसीने लाखोंका खून किया हो तो उसको मार देना चाहिये या नहीं. मुज़े सीधा उत्तर चाहिये.” मैंने कहा संदर्भ बताओ या तो पूरी कहानी सूनाओ. लेकिन वह तयार नहीं हुआ. और गाली देके भाग गया.

[स्पीकर और फोन बंद हुआ]

“ तो चाचू आपने सब सूना. चाचू आप जानते हो कि गांधीजीने सत्याग्रहके कुछ नियम बनाये थे. यदि आप जानते है तो मुज़े कहो. गांधीजी की अहिंसाकी परिभाषा क्या थी? सविनय कानून भंग कौन कर सकता है?

और दूसरी खास बात, गांधीजीके राजकीय क्षेत्रके योगदान को छोड कर उनका और क्या योगदान था? इसके बारेमें आप क्या जानते है वह मुज़े बताओ …

“चल हट, बच्चू … !! तेरे साथ बात करना बेकार है.

“चाचू, आप ने शायद श्री दिनकर जोषीजीकी “जीन्ना” पर लिखी किताब भी नहीं पढी है. जीन्ना की गांधीजीके विरोधकी भाषा और शैलीसे बढकर आजके कोंगीनेताओंकी और उनके सांस्कृतिक सहयोगी लुट्येन गेंगके नेताओंकी भाषा और शैली है.

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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दुरात्मा गांधी और विनाशपुरुष मोदी – २

“गांधीके बचपन के बारेमें हम कोई और बुराई नहीं कर सकते?

“ कर सकते है न, क्यूँ नहीं कर सकते?  गांधी कामातुर था. उसने अपने पिताको उत्कृष्ट उपचार न करवाके मरने दिया था. अरे उसने तो अपनी औरतको ऐसे ही मरने दिया था.

“लेकिन जब हम गांधीकी फर्स्ट हेंन्ड पुस्तक पढते है, तो ऐसा तो हमे, जैसा आप कहेते है वैसा, तो कुछ भी लगता नहीं है.

“अरे बच्चु, तू एक बात याद रक्ख. कोई गांधीको पढता नहीं है. हमें केवल घटना का अस्तित्त्व है या नहीं, उसका ही खयाल रखना है. फिर विवरण और तारतम्य तो हमें ही देना है न ! प्रियंका वांईदरा क्या करती है वह मालुम है न ! वह बच्चोंसे क्या बुलवाती थी?

“यही कि, चौकीदार चोर है.”

“चौकीदार कौन है?

“नरेंद्र मोदी अपनेको चौकीदार कहेता है.

“तो फिर चौर कौन ठहेरा?

“नरेंद्र मोदी.”

“बस तो यही काम हमें करना है. मोदी भ्रष्टाचार हटाना चाहता है, तो हमे उन्हे ही “चोकीदार चोर है” ऐसा सूत्र बनाके, उसने भ्रष्टाचारके विरुद्ध जो भी कदम उठाए, उनको अविश्वसनीय कर देना है.

“लेकिन चाचु, गांधीने तो स्वदेशी अपनानेकी और स्वदेशीका प्रचार करनेकी बात कही थी, उसमें क्या बुरा था? इस बातमें हम, भारतकी जनताको कैसे असमंजसमें डालेंगे ?

“इसमें क्या है? स्वदेशीको अपनानेकी बात तो सर्वप्रथम सावरकरने कही थी. “स्वदेशी”का प्रचारका हक्कदार तो सावरकर थे. गांधी तो बडा चालु था. उसने सावरकरकी इस स्वदेशीकी बात “हाईजेक” कर ली, और अपने नाम कर दी. ऐसा घीनौना काम तो बेशर्म गांधी ही कर सकता है न?

“लेकिन चाचू, गांधीने ही तो, चरखा केंद्र स्थापना, हस्तबुनाईके केंद्र स्थापना, वितरण केंद्र स्थापना, … समग्र व्यवस्था और तंत्र प्रस्थापित करना और चलाना, उनके नियम बनाना … ये सब तो गांधीने ही किया था न ! जैसे कि जीवदया, प्रेम, अहिंसा परमोधर्मकी बातें, ये सब तो वेद के कालसे चली आती है, लेकिन इन सबके साथ बुद्ध और महावीर का नाम लिया जाता है. तो “स्वदेशी” आंदोलनसे गांधीका नाम जोडनेमें बुराई क्या है?

“अरे बच्चु. तू कब सुधरेगा? जो बात हमारे एजंडाके विरुद्ध जाने वाली है, उन बातोंको हमें स्पर्श ही नहीं करनेका. समज़े न समज़े? जब हम कहेंगे तभी तो जनताको पता चलेगा न !! ऐसी बातें तो हमे जनतासे छीपाना है.

“लेकिन चाचू !! गांधीने तो, जो कोंग्रेस मालेतुजार और बुद्धि-जीवीयोंकी संस्था थी, उसको आम गरीब के लिये भी खुला कर दिया और दूर सुदूर के गांवों तक कोंग्रेसको फैला दिया उसका क्या … !!!

“ अबे बच्चू, तू कब समज़ेगा? हमे ऐसी बाते करना ही नहीं है.

“ तो … और … हम क्या क्या कर सकते है?

“ हमारे पास तो कहेनेके लिये  बहूत कुछ है. जिन जिन मुद्दोंपर गांधीको श्रेय मिलता है उन  सबको, हमें विवादास्पद बनाके और वितंडावाद करके नष्ट करना. जैसे कि, ‘राष्ट्रपिता’, ‘महात्मा’, ‘स्वातंत्र्य दिलाने वाला’ …

“चाचू … !!! ‘राष्ट्रपिता’ किसे कहेते है? ‘स्वातंत्र्य’ किसे कहेते है? ‘महात्मा’, किसे कहेते है?

“देख बच्चू !! मेरी परीक्षा तू मत ले. तू मेरा चाचा है कि मैं तेरा चाचा हूँ ? तू मेरा भतीजा है तो भतीजा बनके ही रहे. मेरा चाचा बननेकी कोशिस मत कर. राष्ट्रपिता मतलब राष्ट्रपिता, स्वातंत्र्य मतलब स्वातंत्र्य, महात्मा मतलब महात्मा, …

“लेकिन चाचू … !! कोई पूछेगा तो क्या कहोगे?

“देख बच्चू !! हमारा राष्ट्र तो ५००० सालसे भी अधिक पुराना है. क्या इ.स. १८६९में पैदा होनेवाला गांधी, हमारे राष्ट्रका बाप हो सकता है? स्वातंत्र्य मतलब अंग्रेजी सत्ताका खातमा. महात्मा मतलब महान आदमी.

“नहीं चाचू ऐसा नहीं है. जो सोचनेकी सीस्टम बदल देता है वह नयी सीस्टमका पिता कहेलाता है. जैसे “आईन स्टाईन”ने भौतिक विश्वको समज़नेकी सोच बदल दी तो वह आधुनिक भौतिकशास्त्रका पिता कहा जाता है. “फेरेडे”ने वीजचूंबत्त्वको समज़नेकी सोच बदलदी तो वह वीज-चूंबकत्त्वका पिता कहेलाता है. “गेलेलियो”ने प्रयोगोंद्वारा सिद्धकरनेकी प्रणाली लागु की तो वह अर्वाचिन विज्ञानका पिता कहेलाता है …

“ तेरी भली थाय … तू मुज़े पढाता है बच्चू …!! तू पहेचानता नहीं है मुज़े… मैं कौन हूँ? मैं तो बारबार टीवी के वार्तालापमें आता हूँ. अखबारोंमें मेरी कोलमें चलती है, मुज़े लोग प्रवचन करने बुलाते हैं. मेरे लेख वर्तमान पत्रोमें छपते है, मेरी स्वयं की एक चेनल भी है, मेरी वेबसाईट भी है … मेरे पर आन्टीयाँ मरती है … हमारी सहयोगी  महिलाओंके उपर अंकल मरते है …

“तो चाचू, आपकी दाल ईतनी काली क्यूँ है?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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दुरात्मा गांधी और विनाशपुरुष मोदी – १

गत दो ओक्टोबरको सोसीयल मीडीया एवं यु-ट्युब पर महात्मा गांधीके विरुद्ध कई लोग तूट पडे थे.

गांधीजीका जन्म दो ओक्टोबर १८६९ को हुआ था. उनकी मृत्यु ३० जनवरीको हुई थी. ये दो दिन गांधीके विरोधीयोंके लिये एक पर्व के समान है जिसमें उनकी प्रच्छन्न मनीषा स्वयंका सत्यके प्रति एवं देशके प्रति कितना प्रेम और आदर है कि वे गांधीको भी छोडते नहीं है.

“ तो चलो हम भी पीछे क्यूं रहे. हम भी उनकी ही भाषा बोलेंगे चाहे वह “लुज़ टोकींग” और “तर्कहीन”

“ तो बोलो कहांसे प्रारंभ करेंगे?

“ बचपन से ही तो… !!!

“ गांधी जब छोटा था तब बेडमें पेशाब करता था ऐसा लिखेंगे क्या?

“ अरे भैया, वे तो सभी बच्चे जब कुछ मासके होते है तब बेडमें ही पेशाब और मलोत्सर्जन है. उसमें नया क्या है?

“ किंतु हम गांधीकी उम्र नहीं लिखेंगे तो औसा सिद्ध हो जायेगा न कि वह बचपनसे ही असंस्कृत था !!

“ किंतु ऐसा कहीं लिखा है?  हमारा काम राईका पर्वत बनाना है, लेकिन उसके लिये राई तो होना चाहिये न?

“ तो हम क्या ऐसा लिखेंगे कि वह मांसाहारी था?

“ हां यह बात सही है. उसने खुदने लिखा है कि वह सशक्त होने के लिये चूपके चूपके मांस खाता था. वह बीडी भी पीता था. चोरी करता था. सुवर्णकी चोरी भी करता था. वैसे तो उसने पछतावा किया था और पिताको चीठ्ठी लिखके स्वयंको दंडित करनेको भी बोला था. किंतु हम चीठ्ठीवाली, “दंडित”करनेकी गुजरीश करनेवाली और पछतावा करने वाली बात छीपायेंगे.

“ यह हम कैसे लिखेंगे?

“ वह मांसाहारका आदि हो गया था, वह जूठ भी बोलता था. वह इतना मांसाहार करता था कि वह माताका बनाया हुआ सामका (सायंकालका)  खाना भी “मुज़े भूख नहीं  है, या पेटमें दर्द है ….“ ऐसा जूठ बोलके खाता नहीं था. जूठ बोलनेकी तो उसकी आदत थी. बीडी पीनेकी भी उसकी आदत पड गयी थी. उसको अपने चाचाकी बीडी तो क्या घरके नौकरकी भी बीडी चूरानेमें कभी शर्म नहीं आती थी. अरे वह तो नौकरकी जेबसे भी पैसोंकी चोरी करता था. जब पैसे कम पडते तो वह गहने भी चूराता था.

“ लेकिन बादमें तो वह शाकाहारी हो गया था …

“ अरे ये सब बकवास है. जो आदमी जूठ बोल सकता है वह जूठ लिख भी सकता है न? उसने शाकाहारके बारेमें क्या पढा और क्या लिखा वह सब हमें छीपाना है.

“उसकी कामेच्छाके बारेमें क्या लिखेंगे?

“अरे वाह, इसमें तो हम एक पुस्तक लिख सकते है. उसके पिता बिमार रहेते थे. उनको अपने पुत्रकी सेवा और सुश्रुषाकी अत्यंत आवश्यकता थी. उसके पिता अपने पुत्रकी उपस्थिति चाहते थे. लेकिन यह कमीना अपनी औरतके साथ रंगरेलीया मनाता था. वह अपनी औरत पर अत्याचार भी करता था. वह अपनी औरतको मायके तक नहीं जाने देता था. अरे जब उसके पिताके अंतिम सांस चल रहे थे तब भी वह अपनी औरतके साथ अपनी कामतृप्ति कर रहा था और बुलाने पर भी नहीं जाता था. पितृसेवाके धर्मकी तो बात ही छोडो.

“ लेकिन गांधीने तो बह्मचर्यके गुणगान गाये है न !! सत्य, अहिंसा, सादगी और ब्रह्मचर्य तो उसके मुख्य सिद्धांत थे न!!

“ अरे सब बकवास है. वह पूरा दंभी था. वह तो बचपनसे ही वेश्या गामी था. उसके आश्रममें उसने कई कडे नियम बनाये थे. कोई भी आश्रमवासी अपनी औरतके साथ भी सो नहीं सकता था. लेकिन गांधीको कोई बंधन नहीं था. वह कोई भी औरतके साथ सो सकता था और सोता था. गांधी बडा ही कामी और कामातुर था. वह तो नहेरुके साथ भी चालु था. गांधीकी औरत जिंदा थी तब भी वह किसीभी औरतको छोडता नहीं था, चाहे वह विवाहित हो, अविवाहित हो, या बच्ची हो, या चाहे वह अपने घनीष्ठ मित्रकी नज़दीकी संबंधी ही क्यूं न हो. वह तो पागलकी तरह पत्रव्यवहार भी किया करता था. इस आदमीकी कामातुरता मरते दम तक रही.

सावधान. इस लेखका हेतु न तो गांधीके विरोधमें लिखनेका है न तो मोदीके विरोधमें लिखनेका है.हमारा हेतु पवित्र है. और सत्यको प्रकाशित करना है.

हमसे कई बातें गुह्य रखी गई है.

किंतु एक कथन है कि आप यदि इतिहासको विस्मृतिकी गर्ता में दबाके रखते हो तो वह पुनर्जन्म लेके आपको (”आपको” से सूचित है आपके देशको) पुनः दंश दे के नष्ट करता है. हमारा भारतवर्ष ऐसे अनृत (असत्य) इतिहासकी शिक्षाके कारण पुनः पुनः नष्ट होता रहा है.

पूर्वकाल १८५७ में  अंग्रेज शासन के सामने विद्रोह हुआ था. कैसे भी करके, अंग्रेज लोग उस विद्रोह को परास्त करनेमें सफल और विजयी हुए.

उनको एक ऐसी विद्वत्तापूर्ण सेना तयार करनेका विचार आया कि भारतीयोंको अपने गर्वशाली इतिहाससे विमुख करके, अपने द्वारा वर्णित इतिहासको पढाना पडेगा. और पूराणों द्वारा वर्णित इतिहासको उनमें लिखित चमत्कारोंके कारण असत्य सिद्ध करना पडेगा. उनका कहेना था, भला ऐसे कभी इतिहास लिखा जा सकता है क्या !! इतिहास तो केवल इतिहास होना चाहिये. पुराण तो सब गप्पे बाजी है.

अंग्रेजोंने लोकभोग्य मनोरंजनवाला इतिहास मूलसे ही नकार दिया. अंग्रेजोने ऐसी सेना सुसज्ज की, कि जो स्वयं को और अपने देशके भूतकालको असभ्य और निम्न स्तरका समज़े. और इस तरह भारतमें अर्वाचिन युगका निर्माण हुआ. डॉक्टर ह्युमने कोंग्रेसकी स्थापना की. उसके पूर्वकालमें कुछ दशक पूर्व, लॉर्ड र्बेंटिकने विश्वविद्यालयोंकी स्थापना की थी, उसका भरपुर लाभ लिया गया.

“श्वेत लोग ही उच्च कक्षाके है और वे ही अपने देश पर शासन करने के योग्य है”  ऐसी घनिष्ठ मान्यता सभी विद्वानोंके मनमें ठोसकर भर दी.

राजा राममोहन रॉय, फिरोजशाह महेता, गणेश वासुदेव, दिनशा वाछा, बहेरामजी मलबारी, जीके पील्लाई, पी. आर. नायडु …. ये सब लोग अंग्रेज सरकारसे अभिभूत थे. ये लोग, आम जनता और अंग्रेज सरकारके बीचमें एक सेतूके रुपमें प्रस्थापित किये गये थे. समयांतरमें गोपाल कृष्ण गोखले, बालगंगाधर टीळख, मोतिलाल नहेरु आदि लोग आये. ये सब लोग भी अंग्रेज सरकारको भारत पर शासन करनेके लिये ईश्वर दत्त, योग्य शासक मानते थे. क्यूंकि इन सभीको इसी प्रकारकी शिक्षा दी गयी थी. गांधीभी इसी शिक्षाकी संतान थे.

अंग्रेज सरकारने गांधीमें अपने सर्वोत्तम भक्त को देखा. और उन्होंने इस गांधीको दक्षिण आफ्रिकामें प्रसिद्ध किया. गांधीकी प्रसिद्धिके कुछ बूंद भारत पर भी पडे. गांधीने दक्षिण आफ्रिकामें क्या किया, या उसको क्या सफलता मिली, उसकी कब कब पीटाई हुई, उसके दांत किसने, कैसे, क्यूं तोडे, वैसी बातें हम नहीं करेंगे. क्यों कि हमें केवल उसकी बुराई ही करना है.

गांधी महिलाको संपत्ति और दासी मानता था.

दक्षिण आफ्रिकामें जब वह था, तब उसने आधी रातको अपनी पत्नीको घरसे निकाल दिया था. उसने यह भी नहीं सोचा कि विदेशमें आधी रातको वह औरत कहां कैसे जायेगी? गांधी ऐसा तो नराधम था.

हां, एक बात सही है कि ऐसी उसकी इन सब बातोंका पता, हमें उसकी ही आत्मकथासे चलता है. यदि उसने यह सब बातें नहीं लिखी होती, तो हमे पता तक नहीं चलता. किंतु हमें उनको सत्यवादी नहीं कहेना है क्योंकि हमारा एजंडा उसकी केवल बुराई करना है. हम उसकी कही बातें भी बढा चढाके ही कहेंगे.

अरे भैया बढा चढाके कहेना भी तो एक कला है. यह भी तो अलंकारका हिस्सा है साहित्यके क्षेत्रमें.

तो यह नराधम और दुरात्मा गांधी, हार कर दक्षिण आफ्रिकासे भारत लौटा. लेकिन अंग्रेजोंने उसकी कार्यशैलीको विजयके रुपमें प्रस्तूत की. और भारतमें हिरो बनाके भेजा.

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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“ગુજરાતના અગ્રણી લેબર કોન્ટ્રાક્ટર પિંગરાજ એન્ટરપ્રાઇઝના પીન્ટુ પટેલે જણાવ્યું કે હાર્ડવર્ક કરવામાં ગુજરાતીઓ પાછા પડે છે તેની સામે યુપી, બિહાર, ઓરિસ્સાના કામદારો હાર્ડવર્ક કરવામાં માહેર છે. તેઓ ગુજરાતી કરતા વધુ મહેનતુ છે, 10-12 કલાકથી વધુ સમય કામ કરવાની ક્ષમતા ધરાવે છે. “કામકાજની શિસ્ત, કૌશલ્યનો અભાવ, … પરિબળોના કારણે ઔદ્યોગિક એકમોમાં ગુજરાતના કામદારોનો હિસ્સો નહિવત છે.”સાણંદ જીઆઇડીસી એસોસિએશ”

ચાલો વાસ્તવમાં શું છે તે તપાસીએ.

જ્યારે કોઈ રાજ્યમાં પરપ્રાંતના કર્મચારીઓ અત્યંત બહુમતિમાં આવી જાય ત્યારે પરપ્રાંતિઓમાં એવું કહેવાની ફેશન બની જાય છે કે લોકલ લોકો હાર્ડ વર્ક કરતા નથી, લોકલ લોકો આળસુ છે, કુશળતા વાળા નથી … વિગેરે વિગેરે.

પહેલાં એક વાત સમજી લેવી જોઇએ કે કામના પ્રકારો હોય છે;

મહેનતનું કામઃ મહેનતના કામો પણ અનેક પ્રકાર હોય છે. જમીન ખોદવાનું, પત્થર તોડવાનું, તગારા ઉચકવાનું, હાથ ગંદા થાય તેવા કામ, સફાઈનું કામ, સંડાસ સાફ કરવાનું કામ, સુતારને મદદ કરવાનું કામ, કલર કામ, …

હવે જે સ્થાનિક મજુર વર્ગ છે તેને જુદું કામ કરવું ગમતું નથી. એટલે કે, જે સફાઈ કામ કરતા હોય તેમને મોટે ભાગે જમીન ખોદવાનું કામ કરવું ગમતું નથી. તેમને સફાઈકામ મળી જતું હોય છે. જો તેમને સફાઈકામ ન મળે તો તેઓ જમીન ખોદવાનું કામ કરવા તૈયાર થાય છે.

દરેક કામ માં થોડી ઘણી કુશળતા હોવી જરુરી હોય છે. અનુભવી જમીન ખોદનારો, નવા સવા જમીન ખોદનાર કરતાં વધુ ઘનફુટ જમીન ખોદી શકે છે. હવે ખાનગી કંપનીમાં તો મુકાદમ પણ એક નાનો કોંટ્રાક્ટર હોય છે. તેને તો સમયસર કામ પુરું કરવાનું હોય છે. જો કામ વહેલું પુરું કરે તો વહેલા પૈસા મળે અને તેથી નવું કામ વહેલું હાથ પર લેવાય. તેથી સામાન્ય રીતે તેે નવા સવા મજુરને કામે રાખવો પસંદ ન કરે, જ્યાં સુધી અનુભવી મજુર ઉપલબ્ધ હોય.

પ્રશ્ન ઉભો થશે કે અનુભવી મજુરો બીન ગુજરાતી શા માટે હોય છે? કોઈ અનુભવ લઈને તો જન્મતું નથી.

ગુજરાત બહાર ના રાજ્યોમાં શું સ્થિતિ છે?

પોતાના રાજ્યમાં ભૂખે મરો. કે રાજ્ય બહાર જાઓ અને જીવતા રહો. એટલે રાજસ્થાન, મધ્ય પ્રદેશ, યુપી, બિહાર, ઓરીસ્સા … આ બધા રાજ્યના મજુરોએ તેમના ગુજરાત/મુંબઈમાં કામ કરતા મિત્રો/સગાંઓ/ઓળખીતાઓને કહી રાખ્યું જ હોય છે કે “મારા માટે કામ જોતા રહેજો.” પરપ્રાંતના આ સંબંધીઓ પણ તક મળે ત્યારે તેમને બોલાવી લેતા હોય છે. આ બધા મોટે ભાગે “છડે છડા હોય છે એટલે કે તેમની પત્નીઓ તેમના પ્રાંતમાં ‘પ્રોષિતભર્તૃકાઓ’ હોય છે. એટલે તેમના પતિઓ અહીં એક રુમમાં કે ઝુંપડીઓમાં એક સાથે રહેતા હોય છે. જો મુકાદમ કે સાહયોગી મજુર પોતાના પ્રાંતનો હોય તો, તે તેને જાળવી લે છે. પછી તો કામ કામને શિખવે છે. અરે કલર જેમાં કંઈક અંશે કુશળતા જરુરી હોય છે, તેવા કામમાં પણ તેનો સંબંધી તેને જાળવી લે છે. ડઝનેક લોકોના કામ બગાડી તે અનુભવી બની જાય છે.

ગુજરાતના મજુરોનું એવું હોય છે, કે સુરેંદ્રનગરના મજુરો જ્યાં સુધી સુરેન્દ્ર નગરમાં કામ મળતું હોય ત્યાં સુધી કામ માટે વિરમગામને પણ ક્રોસ ન કરે. પણ ડુંગરપુરીયા મજુરો તો દ્વારકા સુધી કામ માટે જાય. કારણકે તેમને ભૂખે મરવું નથી.

બીજી એક ખાસ વાત. તમે કેટલીક સરકારી ઓફીસોમાં પણ અમુક કેટેગરીમાં બિનગુજરાતીઓ જુઓ છો.

આવું શા માટે?

જેમકે લાઈન મેન તમને મોટે ભાગે ભૈયાજી (યુપી, બિહાર, એમ.પી., રાજસ્થાન) જોવા મળશે. રેલ્વેમાં પણ મજુર, ભૈયાજી જોવા મળશે.

લાઈનમેન માં ભૈયાજી વધુ શામાટે હોય છે તે હું જાણું છું.

પોસ્ટ એન્ડ ટેલીગ્રાફ ડીપાર્ટમેંટ હતું. આમાં મરાઠી અને કન્નડ લોકો બહુમતિમાં હતા. મરાઠીલોકો ગુજરાતીઓની જેમ સ્થાનિક ભાષા શિખી જાય. ગુજરાતીઓને ગુજરાતમાં નોકરી મળી રહેતી. સંખ્યાની દૃષ્ટિએ મરાઠી લોકોમાં શિક્ષણ વધું હતું તેથી અને વડોદરા રાજ્ય ના રાજા મરાઠી હોવાના નાતે મરાઠીઓને નોકરી મળી જતી. કન્નડ લોકો મહારાષ્ટ્ર નજીક હોવાને કારણે મરાઠી જાણતા હતા હતા એટલે તેમને પણ નોકરી મળી જતી. એટલે ઓપરેટર કેડરમાં પણ મરાઠીઓને નોકરી મળી જતી.

તે વખતે પી એન્ડ ટીમાં વિકાસ જેવું કશું હતું નહીં. આખા ગુજરાતમાં (કચ્છ સૌરાષ્ટ્ર સહિત) ૧૯૬૦ સુધી ચાર ડીવીઝન હતા. એટલે ક્લાસ – ૧ ના ચાર અધિકારીઓ હતા. ગુજરાતમાં અમદાવાદમાં એક પોસ્ટ માસ્ટર જનરલ અને તેની નીચે એક ડાઈરેક્ટર પોસ્ટ નો અને એક ડાઈરેક્ટર ટેલીગ્રાફ નો રહેતો. આમ જુનીઅર એડમીનીસ્ટ્રેટીવ ઓફીસર (ઇંડીઅન સર્વીસીસ જે ડિવીઝનલ ઓફીસર ની ઉપરની કેડર હોય છે) તે ત્રણ જ હતા.

અમદાવાદ અર્બન અને મુંબઈ અર્બન બોમ્બે ટેલીફોન ફેક્ટરી ની અંડરર્માં હતું અને અમદાવદમાં એક ડીવીઝન એંજીનીયર ફોન્સ રહેતો.

મૂળવાત ઉપર આવીએ તો લાઈન મેનની ભરતી સબ ડીવીઝન ઓફીસર (ક્લાસ – ૨) પાસે રહેતી. લાઈનમેન નું ક્વાલીફીકેશન એકવર્ષનો કેજ્યુઅલ લેબર તરીકે નો અનુભવ રહેતો.

આ માટેના રેકોર્ડના કોઈ નીતિ-નિયમો ન હતા. યુપીનો કોઈ સબ ડીવીઝનલ ઓફીસર ટેલીગ્રાફ્સ, સરકારી કાગળ ઉપર લખી આપે કે ફલાં ફલાં નામ વાળાને એક વર્ષનો અનુભવ છે, એટલે પત્યું. તે સબ ડીવીઝન ઓફીસર ટેલીગ્રાફ્સ પૈસા લઈને કે મિત્રને મદદના હેતુથી આવું સર્ટીફીકેટ લખી આપે. અને અહી મુંબઈ રાજ્યમાં સબ ડીવીઝન ઓફીસર ટેલીગ્રાફ્સ પૈસા ચરકાવીને નોકરીએ રાખી લે. પ્રેક્ટીકલ ટેસ્ટમાં વ્યક્તિએ ટેલીફોનનો થાંભલો ચડી જવાનો. એટલે લાઈનમેન યોગ્યતામાં પાસ. પછી તો કામ કામને શિખવે.

કારકુની કર્મચારીઃ

એવી એક અફવા ફેલાવી છે અને તેમાં પણ અમુક પ્રકારના ગુજરાતીઓનું પણ યોગદાન છે કે ગુજરાતીઓને અંગ્રેજી બરાબર કે જરાપણ આવડતું નથી. જોકે વડોદરા અને આણંદની કોલેજો અંગ્રેજી માધ્યમમાં ભણાવતી હતી. છતાં પણ ગુજરાતી એટલે મગન માધ્યમ એવું મુંબઈમાં પણ કહેવાતું. હવે જો ૧૯૯૧ના અરસામાં જોઇએ તો મુંબઈના પ્રભાદેવીમાં આવેલી કોર્પોરેટ ઓફીસમાં જેટલા ગુજરાતી કર્મચારીઓ હતા તેના કરતાં, ઓમાનની મીનીસ્ટ્રી ઑફ ટેલીકોમ્યુનીકેશન ની ઓફીસમાં વધુ ગુજરાતી કર્મચારીઓ મને જોવા મળેલ.

છાપામાં સમાચાર હતા કે મુંબઈ ટેલીફોંસમાં ૪૦ સ્ટેનો ટાઈપીસ્ટની જગ્યાઓ ભરવાની હતી. તે માટે ૩૯ મલયાલી (કેરેલાઈટ્સ)ને સીલેક્ટ કરવામાં આવ્યા. ગુજરાતીઓમાંથી તો કોઈ માઈનો પૂત ન મળ્યો. પણ મરાઠીઓમાંથી પણ ન મળ્યો? કારણ, ફક્ત એ જ કે જનરલ મેનેજર મલયાલી હતા. શિવસેના એ વાંધો લીધો હતો. પછી શું થયું તે ખબર નથી.

હવે ક્લાસ વન ધિકારીઓની વાત કરીશું?

૧૯૯૯ના અરસામાં પંજાબના પબ્લિક સર્વીસ કમીશનના ચેરમેન ને ત્યાં દરોડો પડ્યો. તો તેમના ઘરની દિવાલોમાંથી ૧૦૦૦૦૦૦૦ + (એકકરોડ રુપીયાથી વધુની કિંમતની) ચલણી નોટો મળી. થોડામાં ઘણું સમજી જાઓ. જો સરકારમાં આવું હોય તો પ્રાઈવેટમાં તો કેવુંય હોય. તેમાટે “ભગવાનનો માણસ” વર્તા, મારી બ્લોગ સાઈટ https://www.treenetram.wordpress.com ઉપર વાંચો.

ગુજરાતમાં તમને સેંટ્રલ ગવર્નમેંટની કોઈ ઓફીસમાં કે કોર્પોરેટ ઓફિસમાં ૭૦ ટકા તો શું પણ ૯૯ ટકા બીનગુજરાતી સ્ટાફ મળી શકવાની શક્યાતાઓ છે. પણ વેસ્ટ બંગાલમાં તો તમને ક્રોપોરેટ ઓફીસ તો શું પણ કેંદ્ર સરકારની ઓફીસોમાં પણ ક્લાસ-વન અધિકારીથી શરુ કરી ક્લાસ-થ્રી સુધીનામાં, ૯૯ ટકા બંગાળીઓ જ મળશે.

યુપી, બિહાર, ઓરિસ્સા અને પૂર્વોત્તર રાજ્યોમાં પણ તમને ૬૦ થી ૩૦ ટકા તમને બંગાળી કમચારીઓ અધિકારીઓ મળશે. બંગાળી કર્મચારીઓ કેવા છે? ૧૧-૧૨ વાગે ઓફિસમાં આવવું અને ચારવાગે ઘરે જવાની તૈયારી કરવી. કેરલમાં પણ આવું. છતાં પણ કેરલમાં તમને સરકારી ઓફિસમાં બિન મલયાલી ૯૦ટકા તો શું ૧૦ ટકા થી વધુ ન મળી શકે.

જ્યારે સ્થાનિક લોકોને વગોવવામાં આવે ત્યારે સમાજમાં વિભાજન અને વેર ઉભા થાય છે. ઉત્તર પશ્ચિમના રાજ્યો અને શ્રીલંકામાં સ્થાનિક આતંકવાદ ઉત્પન્ન થવા માટે આવા જ કારણો હતા અને છે. વાસ્તવમાં જો તમે સ્થાનિકોને કોસો તો તમે તમારી અણાઅવડતનું પ્રદર્શન કરો છો. તમે અણઘડ લીડર છો કે તમે તમારી નીચેના કર્મચારીને સ્ટેપ-અપ કરી શકતા નથી. અને તેનામાં “આ સંસ્થા મારી છે” તેવો ભાવ ઉત્પન્ન કરી શકતા નથી.

બિન સ્થાનિકો જે જે રાજ્યોંમાં રોટલા માટે જાય છે તેમણે માપમાં રહેવું જોઇએ.. નહીં તો તેમના હાલ નોર્થ – ઈસ્ટ રાજ્યોમાં બંગાળીઓના અને મારવાડીઓના થયા તેવા થશે.

વાસ્તવમાં જો જોઈએ તો ગુજરાતીઓએ દેશ વિદેશોમાં ડંકા વગાડ્યા છે. ગુજારાતીઓએ દેશમાં રહેલી તેમની વસ્તીના પ્રમાણમાં વિદેશોમાં તેઓ ક્યાંય વધુ છે અને આગળ પણ છે.

આથી જ ચંદ્રકાંત બક્ષીએ તેમને “મહા જાતિ ગુજરાતી” તરીકે ઓળખાવ્યા છે.

શિરીષ મોહનલાલ દવે

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Hindu Muslim Relations and India Part-2

Yes. Lutyen gangs have open up several other fronts simultaneously, since these gangs’ political political wing has been defeated in parliament.

The most dangerous front which has been opened up by the Lutyen Gangs is to generate civil war in India. We know this very well.

Since Modi/BJP has won the parliamentary elections in 2014, the Lutyen gangs have open up several fronts, and these fronts are more effective than the criticizing the developments carried out by the BJP Governments at state and center. The Congi and its cultural parties cannot have a logical fight on such topics through social media. Off course they are active on this, and you find even on even MMS’s tweeter they remain active where you expect some positive suggestions from this so-called learned expert. Even MMS has become RaGa-II.

How to deal with different gangs.

(1) Inherent Pro-Lutyen Gang of social media

This Gang keeps pro-BJP lot busy on certain fault line of Political Lutyen which are less relevant.

This pro-Lutyen Gang of social media keeps aside the topics of Political Lutyen Gang.

This gangs is different from the political Lutyen Gang. Political Lutyen gang means; Congi Gangs and their cultural allies. Cultural allies means, the allied parties which once upon a time fought against Congi deadly, but some of them and their successors united with Congi for the sake of power and money because their moralists forefathers died. When the leaders of Political Lutyen Gangs’ leaders speak lies and twist the information, to make it against BJP leaders (e.g. Modi, Yogi, Shah and some time Rajnath Singh …), such topics should have on top priority, but they keep mum. i.e. The lies and twisting of political gang actually should become an additional fault lines. Political Lutyen gang leaders should be attacked easily on social media and through emails. But they keep mum.

Many persons who are active on social media, presenting themselves as nationalists and pro-BJP, neglect such topics. Instead of that they create and troll other topics which are not relevant currently or such topic cannot be given for priority though they fault lines of the Lutyen Gangs.

You can see such practice on questions on Quora, negative subject lines for BJP, and some other dead leaders who had asked to dissolved Congress when they foresee the possibility of Congress become Congi.

It is possible that some of the members are not ready to understand as to what should be priority of subject line and or what should be the strategy for defeating Lutyen gangs. Thereby they also remain busy by over active on condemning Hindu religion (referring Castes, Dalits, …), Muslim religion and Christian religion.

(2) Political Lutyen Gangs.

As we seen this Congi Gang and their culturally allied political parties have become deadly to fail the BJP and Narendra Modi, after 2019 they are fully left with the final option of Civil war between Hindus and Muslims.

How will these gangs generate a civil war ?

(continued … )

Shirish Mohanlal Dave

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