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Archive for December, 2020

अनपढोंका और गूंगोंका वाणीस्वातंत्र्य – २

मजेकी बात यह है कि इस कृषिकानूनके विरुद्धसविनय कानून भंगका आंदोलन करें तो भी कैसे करें?

यह बात न तो लुट्येनगेंगोंमेंसे किसीको मालुम है, तो किसी आंदोलनकारी तथा कथित किसान को और उनके नेताओंको मालुम है.

गोदीमीडीयाके विश्लेषक, मूर्धन्य और तजज्ञोंका भी दिमाग शून्य हो गया है.

हाँ जी, यदि आप इस कृषिकानूनके विरुद्ध है तो आप इस कानूनका सविनय भंग क्यूं नहीं करते ?

लेकिन कृषि-कानूनके  किस मुद्देका विरोध करें, उसमें सभी विरोधी,  मूर्धन्य, विश्लेषक, तजज्ञ, सुज्ञ, कोलमीस्ट्स, तंत्री, और सब बंदरके व्यापारी एलीआस (उर्फ)  सीयासती माहानुभाव लोग मौन ही रहेते है.

आपने कभी सूना है?

एक निबंध लिखना है. विषय है “सरिता”. किन्तु यदि उस निबंधमें सरिताका नामोनिशान न हो और फिर भी उस निबंध को सरिताका निबंध कैसे माना जाय?

एक खूनकी घटनाका विवरण करना है. किन्तु उस विवरणमें एक आदमीका ही वर्णन होता है. खूनका वर्णन नहीं. तो भी क्या उस विवरणको खूनका विवरण माना जा सकता है?

किसीने एक प्राचीन स्थलका प्रवास किया है. उसको उसका वर्णन करना है. लेकिन उसको उसके बारेमें कुछ लिखता ही नहीं है किन्तु उस स्थलके नामके सिवा कोई भी वर्णन उस प्राचीन स्थलका न हो तो उसको क्या वह प्राचीन स्थलके उपरका वर्णन माना जायेगा?

समाचार पत्रोंमे किसान कानून के विरोधमें अनगिनत लेख आते है. तंत्री मंडलके लिखे हुए लेख भी आते है. मूर्धन्योंके लेख और संस्थाओ द्वारा प्रमाण-पत्रित लेखकोंके  भी लेख आते है. किन्तु इसमें आपको पढनेको क्या मिलता है यह भी देखें;

“मोदीके बारेमें व्यापक रुपसे कहा जाता है कि वह बिना लंबा सोचे कानून पास करवा देता है. बादमें उसके निश्चित परिणाम नहीं मिलते. मोदी जीद पर क्यूं अडा रह्ता है. सरकार क्या यह सोचती है कि आखिरकार किसान थक जायेंगे? सरकार जनताके उपर पडनेवाले कष्टोंकी चिंता करती ही नहीं है …. विमुद्रीकरणमें सरकारने क्या किया था वह तो आपने देखा ही था…. मोदीका मंत्र है विकास … लेकिन इस कानूनसे क्या विकास होनेवाला है उसके बारेमें सरकार मौन है… “

लेखकने मान लिया “साध्यम्‌ इति सिद्धम””

इस प्रकारके विवरण आपको लेखके परिच्छेद, अनुच्छेद ही नहीं समग्र लेख ही मिलेगा. कहेनेका तात्पर्य है कि आपको पूरा लेख पढने के बाद भी, न तो कानूनके बारेमें पता चलेगा, न तो कानूनकी क्षतियोंके बारेमें पता चलेगा, न तो कानूनके विरोधीयोंके मुद्दोंके बारेमें पता चलेगा …

इस प्रकारके विरोधी लेखोंमें केवल देशके तथा कथित तजज्ञोंका योगदान ही होता है इतना ही नहीं, लेकिन वर्नाक्युलर भाषाके वर्तमानपत्रोंके कोलमीस्टोंका भी  उतना ही योगदान रहेता है.

उदाहरणके लिये एक तथा कथित विद्वान और नामी लेखकके लेखका एक पेराग्राफ लेते है.

लेखक है विराग गुप्ता. सर्वोच्च न्यायालयके वकील है.

प्रथम अनुच्छेदमें सर्व प्रथम लेखकी शोभा बढाने के लिये (ब्युटीफीकेशनके लिये) महात्मा गांधीके उच्चारणोंको उद्धृत  किया है. फिर प्रश्न उठाया है कि “वास्तवमें यह एक संविधानीय कानून है… और स्वामीनाथन कमीटीने ‘संविधानीय सूचि’ के अंतर्गत  इस कानूनको लानेको कहा था. यह उस तरहसे लानेकी आवश्यकता थी. … “

कानून कैसे लाया जाय, यह एक विवादास्पद मुद्दा है. यदि गुणदोष पर चर्चा करना है तो यह मुद्दा अप्रस्तुत है. क्यों कि यदि यह कानून संविधानीय सूचिके   अंतर्गत पारित किया होता तो क्या तथा कथित किसान, उनका  विरोध न करते? या उनके विरोधकी क्षमतामें या प्रमाणमें कोई भेद हो सकता है?

शलाका परीक्षा

भारतीय संस्कृतिकी प्रणाली के अनुसार उक्त लेखकी तार्किक विवेचना करेंगे जिसको   “शलाका परीक्षा”  कहा जाता है.

आपको जब किसी भी पुस्तकका विवेचन करना होता है तो एक शलाका लो, और उसको पुस्तकमें डालो. जिस पृष्ठ पर वह घुसे, उस पृष्ठ को खोलो और फिर उस पृष्ठमें जो कुछ भी लिखा है उसके आधार पर विवेचन करो.

किन्तु हमारे पास जो विवेचन के लिये एक लेख उपलब्ध है. तो अब हम उसका प्रथम अनुच्छेद का ही विवेचन करेंगे.

हमने देखा कि प्रथम पेरा (अनुच्छेद) तो ब्युटीफीकेशन के लिये है. गुणदोषके लिये असंबद्ध है. तो अब क्या करें? चलो तो दुसरा अनुच्छेद जिसको क्रम (१) लिखा है उसकी विवेचना करते हैं.

लेखकने, किसानोंकी आत्महत्याको कम करना, भूमि सुधार, खेतके लिये पानीकी व्यवस्था… को स्वामीनाथने रीपोर्ट के साथ जोडके रीपोर्टका हेतु प्रदर्शित किया है. एक देश और एक बाज़ार की बात रीपोर्टमें है. कृषि मंत्रीने कहा है कि  स्वामीनाथन समितिने जो २०१ मेंसे २०० अनुरोधोंका समावेश इस किसान कायदेमें किया है” ऐसा उल्लेख लेखकजीने  किया है. लेखकने प्रश्न उठाया है कि वास्तविकता क्यूँ दृश्यमान नही है?

लेखक, या तो यह प्रदर्शित करना चाहते है कि “बील पास हुआ” तो दुसरे दिन ही उसका परिणाम मिलना चाहिये, या तो वे बीजेपी सरकारकी उपलब्धीयोंको नकारते है या तो कौनसी आश्वासित  उपल्ब्धीयां पर काम चालु ही नहीं हुआ है या सरकारकी ईच्छा जो है ही नहीं.”

लेखकजीने रीपोर्टमें क्या है उसका जिक्र करनेके स्थान पर, किसान कायदेमें क्या कमी है उसका एक या दो मुद्दे का विवरण किया होता तो यह बात तर्क संगत बनती. किसान आंदोलनकारीयोंकी तरह उन्होंने भी हवाई और धारणा पर आधारित भविष्यवाणी की है. यदि कोई देशका या तो हमारे कोई राज्यका उदाहरण दिया होता (उदाहरण के लिये कोन्ट्राक्ट फार्मींग) तो अच्छा रहेता.

एक ही जहाजके प्रवासी

अब एक और बात भी देख लो, कि, कृषिमंत्रीने तो कृषि कायदे के विरोधीयोंको आश्वस्त भी किया है कि वे जब चाहे तब आंदोलन कारीयोंकोसे बातचितके लिये तयार है. उन्होंने आंदोलन कारीयोंको एक पत्र लिख कर उसमें मुद्दोंका लिस्ट भी दिया है कि आप इन मुद्दों पर यदि सहमत नहीं है तो इसके उपर आपको क्या कहेना है उस पर हमारे साथ संवाद करें.

आश्चर्यकी बात यह है कि आंदोलन कारीयोंने तो कह ही दिया कि “हम इन मुद्दोंके उपर चर्चा करनेके लिये तयार ही नहीं है. यानी कि आंदोलनकारी  लोग चर्चाके लिये तयार ही नहीं है और कहेते है कि हमारा आंदोलन जारी ही रहेगा उतना ही नहीं, हम, हमारे आंदोलनको सरकारके लिये और जनताके लिये अधिक कष्टदायी करेंगे. हम अपनी ताकत दिखायेंगे. सरकार किसान कानून रद करें, इसके अतिरिक्त हम किसी भी बात पर सहमत नहीं. हम लाशोंके ढेर खडा कर देंगे.

चलो मान लिया, कि कृषि मंत्रीने जिन मुद्दोंकी सूचि दी, उन मुद्दों पर किसान लोग चर्चाके लिये तयार नहीं है. लेकिन लेखकजी, और अन्य सुज्ञ विद्वान और तजज्ञ तो इन मुद्दोंके उपर अपनी प्रतिक्रिया तो दे सकते है न? उनको किसने रोका है?

वास्तवमें देखा जाय तो ये सब स्वयं प्रमाणित तजज्ञ लोग, और तथा कथित किसान आंदोलनकारी लोग एक ही जहाज के प्रवासी है. वे चाहते है कि हमारी दुकान चालु रहे. सरकार इन कृषि-नियमोंमेंसे पीछे हठ करें.

सच क्या है?  डी. के. दुबेका निम्न निर्देशित वीडीयो देखें.

https://youtu.be/s7plW4aVqiE   और

https://youtu.be/Jl7URHBj0BI

जनतंत्रमें विरोध करना एक हक्क है. लेकिन इसके नियम भी है.

विरोध किस बातके लिये होता है.

(१) जो नियम अस्तित्त्वमें है  वह नियम यदि एक वर्गके लिये नुकशान कारक है और उस वर्गका इस नियमसे संविधानिक हक्क का हनन होता है, इस लिये विरोध करना है,

(२) एक नियम जो आनेवाला है वह नियम, यदि  एक वर्गके लिये नुकशान कारक है और उस वर्गका इस नियमसे संविधानिक हक्क का हनन होता है. इस लिये विरोध करना है,

क्रम (१)के विषयमें हम एक उदाहरण देखें.

नीलकी खेती का आंदोलनः

इसका तर्क और इसकी बुद्धिगम्य बातमें, नीलकी खेती करने वाले किसानका आंदोलन है. उस समय भारतमें कानून अवश्य थे लेकिन जनतंत्र नहीं था इसलिये चंपारण के किसान नीलकी खेती करनेके लिये बाध्य थे.

महात्मा गांधीने क्या किया?

गांधीजी चंपारण गये. सरकारने महात्मा गांधीको चंपारण छोडनेका आदेश दिया. लेकिन महात्मा गांधीने कहा कि वे जिस कार्यके  लिये आये है, वह कार्य, सरकारी आदेशके भंग करनेसे बडा है और अधिक महत्त्व रखता है ऐसा उनकी अंतरात्मा को लगता है. उनका ध्येय सरकारी आदेशकी अवहेलना करना नहीं है. और वे सरकारी आदेशके अवहेलनाकी सज़ा, स्विकार करने के लिये तयार है. सज़ा कम करनेकी ईच्छासे वे ऐसा नहीं कह रहे है.

वैसे तो गांधीजी सरकारी अदेशकी योग्यता को चूनौति दे सकते थे. पर वे सरकारके सक्षम अधिकारीको यह दिखाना चाहते थे कि उनकी लडाई सरकारसे नहीं है किन्तु  उनका हेतु, किसानों पर हो रहे अन्यायोंको समज़ना है. गांधीजीने सरकारको तर्कसे संतुष्ट किया की नीलकी खेती करनेवाले किसानों पर अन्याय हो रहा है. सरकारने वह नीलकी खेतीकी अनिवार्यताका कोन्ट्राक्ट फार्मींग (?)  का कानून रद किया.

महात्मा गांधीने किसानोंकी समस्याका अभ्यास किया. समस्याका सर्वे किया. इसके अंतर्गत उनको सरकार द्वारा रोकने का प्रयत्न भी किया गया.

ब्रीटीश सरकार कानूनसे चलनेवाली सरकार थी और उस समयके प्रवर्तमान कानून गांधीकी गतिविधियों पर रोक लगानेके लिये सक्षम नहीं थे. गांधीजीने अपना रीपोर्ट बनाया और सरकार के और भूमिके मालिकोंके सामने रक्खा और यह दिखाया कि किसानों पर अन्याय होता है.

गांधीजीने न तो रास्ता बंद किया, न तो रेल रोको आंदोलन किया, न तो आगजनी की, न तो किसीकी मिल्कतको नुकशान किया, न तो ऐसी कोई धमकी दी. वे हमेशा संवादके लिये तयार रहे. वैसे तो यह कथा बहूत लम्बी है.

जो गांधीजीने १०० साल पहेले किया वह आज भी कृषि-कानून विरोधी लोग करना चाहे तो कर सकते है. लेकिन वे तो केवल इस माँग पर अडे है कि कानून ही रद हो.

सत्याग्रह एक अवांच्छित दबाव

कोंगीके शशि थरुरसे या तो गोदी-मीडीयाके पत्रकारोंसे  तो तर्क-शुद्धता की अपेक्षा नहीं रख सकते. यदि  हमारे विराग गुप्ता, शेखर  गुप्ता … लेख लिखनेसे पूर्व महात्मा गांधीकी तरह, समस्याका   अन्वेषणीय अभ्यास करते तो विश्वसनीय भी होते..

हमारे सुधिर चौधरीजी सत्याग्रह का अर्थ समज़नेमें संत रजनीशमल या तो ओशो आसाराम की तरह ही अज्ञ है.

सत्याग्रह केवल आम जनहिताय हो सकता है. इसमें स्वार्थ की गुँजाईश नहीं होती है. संत रजनीश मल, सत्याग्रहकी प्राथमिक आवश्यकतासे ही अज्ञ थे. क्यों कि उन्होंने गांधीजीके सत्याग्रहके विषयमे पढा ही नहीं था. अभ्यासकी तो बात ही दूरकी बात थी.

संत रजनीश मलने एक उदाहरण दिया है. एक वेश्या एक युवकके घरके सामने  उपवास पर बैठी. उसने कहा कि जब तक तू मुज़से शादी नहीं करेगा मैं उपवास करुंगी. फिर संत रजनीशमलने तारतम्य निकाला कि यह एक दबाव है. उसी प्रकार गांधीका सत्याग्रह भी एक दबाव था. गांधीके उपवासमें भी सुक्ष्म हिंसा तो थी ही थी. लेकिन रजनीश या तो गांधीविचारोंसे अज्ञ थे या तो वे समज़नेके लिये सक्षम नहीं थे.

फिर संत रजनीश मलने आगे चलकर कहा कि निरपेक्ष अहिंसा तो फलां फलां पादरीने अपनी ध्यान योगकी शक्तिसे एक दुरस्थ व्यक्तिका हृदय परिवर्तन कर दिया.

लोग, आज तक ढूंढते रहे है कि कहाँ है वह पादरी जिसने अपनी गुढ शक्तिसे व्यक्तिका हृदय परिवर्तन किया  और कहाँ है वह बडभागी  व्यक्ति जिसने बिना पढाई का कष्ट लिये  विचार परिवर्तन कर लिया?

संत रजनीश मल का विज्ञानका ज्ञान भी ऐसा ही था.

यदि एक व्यक्ति, अपने गधेको  गठरीका भार न लगे, इसलिये वह, गठरी अपने सर पर रखकर, गधे पर बैठता है. क्या आप इस व्यक्तिको विज्ञानका ज्ञाता कहोगे?

हाँ जी, रजनीशजी कहा था कि श्रेष्ठ आसन दुग्धदोहनासन  है, जिसमें धरतीको कमसे कम वजन महेसुस होता है क्यों कि दुग्धदोहनासन (गायका दूध निकालने वाला व्यक्ति) के वख्त व्यक्ति अपने पैरके अंगुठेपर बैठा होता है इसलिये धरतीके उपर कम वजन होता है.

ऐसी तो कई बातें है जो संत रजनीशका ज्ञानका और तर्कका प्रदर्शन करती है. और उनकी दुकान चलती थी. क्यों कि उनके श्रोता भी तो उसी वर्गमें आने वाले होते थे.

बाबा लोग

जैसे संत रजनीश मल अपना  तर्कहीन वाणीविलास करते रहते है वैसे ही अखबारी तथा कथित सुज्ञ लोग अपनी दुकान चलाते है.

यह आवश्यक नहीं कि, केवल आध्यात्मिक क्षेत्रमें ही “बाबा”लोग होते है. बाबा लोग हर क्षेत्रमें होते है. इनको पोलीटीकल विश्लेषक, अर्थशास्त्रके विश्लेषक, उत्पादनके विश्लेषक कहा जाता है और ये “बाबा लोग” समाचार माध्यमोंमें  लिखते है संभाषण देते देते वाणीविलास करते है.

बाबाओंका जय हो

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

ॐ नम शिवाय, जय श्री राम, जय श्री कृष्ण, हरि ॐ, राधे राधे, ॐ शांति, जय जिनेन्द्र, गॉड ब्लेस यु, वाहे गुरु, अल्ला  हो अकबर, जय स्वामीनारायण

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अनपढोंका और गूंगोंका वाणीस्वातंत्र्य – १

अनपढकी परिभाषा क्या है?

मुज़े कुछ भी

हम केवल आंदोलन

(१.१) जो पढ सकता नहीं है या जो पढता नहीं है या तो जो पढना चाहता ही नहीं है.  ये तीनोंको वैसे तो हम अनपढ कह सकते है.

लेकिन सत्यसे सबसे समीप, जो पढना नहीं चाहता वह अनपढ है.

क्यों?

जो पढ सकता नहीं है वह सून तो सकता है. और वह सत्यको समज़नेकी कोशिस कर सकता है.

जो पढता नहीं है,  हो सकता है पढनेका साहित्य उसके पास उपलब्ध नहीं है, इसलिये वह पढता नहीं है. आप यदि उसके लिये साहित्य उपलब्ध कर दो तो वह पढेगा.

जो पढना ही नहीं चाहता वह सचमुच अनपढ है. क्यों कि इसका कारण वह प्रतिपक्षकी बात सूनना ही नहीं चाहता. वह अपनी बात पर कायम रहेना चाहता है. और लोकतंत्रके लिये यह बात घातक है.

(१.२) गूंगेकी परिभाषा क्या है.

जो बोलना चाहता है किन्तु जीभ की अक्षमता के कारण बोल नहीं सकता है, या जो आवश्यकता पडने पर भी बोलता नहीं है, वह गूंगा है.

जीभकी यदि अक्षमता है तो गूंगोकी भी सांकेतिक भाषा है और वे अपनी बात संकेतो द्वारा प्रकट कर सकते है.

लेकिन यदि कोई आवश्यकता पडने पर भी बोलता नहीं है उसका अर्थ क्या है?

यदि व्यक्ति दबावमें है तो वह दबावके कारण बोलता नहीं है. इसका कारण साम, दाम, भेद और दंड हो सकता है. इनके एक या अधिक कारणसे व्यक्ति, जो बोलना  आवश्यक है, वह नहीं बोलता, किन्तु उसके अतिरिक्त सबकुछ बोलता है. याद करो  शोलेका संवाद … “सरदार !! हमने आपका नमक खाया है !!”

(२) सांप्रत कालमें हमारी मूलभूत समस्या क्या है?

भारतकी समस्या है आंदोलनकारीयोंकी तथा कथित वाणी स्वातंत्र्यके नाम पर आमजनताको कष्ट देते रहेनेकी और वह भी अनियतकालके लिये.

(३) इस समस्याके मूलमें क्या है?

समस्या तो यही है कि जब आनंदोलनकारीयोंको स्वयं ज्ञात नहीं है कि वास्तवमें उनकी समस्या क्या है !!

(४) यदि आंदोलनकारीयोंको आंदोलनका हेतु ज्ञात नही है, तो उनके नेताओंको पूछो कि आंदोलनका हेतु क्या है?

आंदोलनकारीयोंके नेता, आंदोलनकर्ताओंके समूहमें होते नहीं है. जो होते है वे आंदोअलनके व्यवस्थापक होते है. जो समाचार माध्यमोंके संवाद दाताओंके सामने आते है, परंतु, वे अपने गोदी-मीडीयाके अतिरिक्त किसी भी मीडीयासे संवाद करना नहीं चाहते है.

(५) चलो ये भी समज़ा कि ये तथा कथित नेता, अपने चहितोंसे ही संवाद करना चाहते है, तो वे अपने चहिते यानी कि अपने गोदी-मीडीयाको भी तो बताते होंगे न कि, उनके आंदोलनकी वजह क्या है?

अरे भाई, यह भी तो एक समस्या है…

ये आंदोलनकारी  लोग बोलते है … “हमारा आंदोलन और फैलेगा … सरकार हमे लूटना चाहती है … हम सुनिश्चित करके आये है कि सरकार अपना कानून वापस लें … इसके अतिरिक्त हमे कुछ भी मंजुर नहीं … हमारा आंदोलन जारी रहेगा चाहे हमे कुछ भी करना क्यों न पडे? हम सरकारको अपनी ताकत दिखाना चाहते है कि हम अब हटने वाले नहीं है. हम दिल्लीको चारों दिशाओंसे घेराबंदी करेंगे और दिल्लीवालोंका जीना हराम कर देंगे … सरकारको समज़ना चहिये कि यह मामला देशकी सुरक्षासे भी संबंधित है …

(६) लेकिन पत्रकार चाहे तो,  वे आंदोलनकारीयोंके चहिते ही क्यूँ न हो, … वे पूछते तो होंगे कि आंदोलनकी वजह क्या है?

नहीं भैया, ये पत्रकार ऐसे प्रश्न करते ही नहीं है  वे नये सरकारी कानूनोंके कारण क्या क्या हो सकता है या होनेवाला है वही पूछते है. ये पत्रकार लोग आंदोलनकी व्यापकता और व्यवस्थाके विषयमें ही प्रश्न करते है. आंदोलनकारीयोंको पडतें कष्टोंके बारेमें प्रश्न करते है. ये संवाददाताओंको तार्किक संवाद करना ही नहीं है, आंदोलनकारीयों और गोदी-मीडीयाके संवाददाताओंके बीच ऐसा  समज़ौता हो गया है ऐसा लगता है.

(७) चलो यह भी सही. लेकिन जो समाचार पत्र है उनके कोलमीस्ट, विश्लेषक, तंत्री या तजज्ञ होते है वे भी तो कुछ विवरण करते होंगे न?

वे लिखते तो है लेकिन वे वही लिखते है कि आंदोलनकारी कितने अधिकमात्रामें आ रहे है, आंदोलन कैसे फैलता जा रहा है… आंदोलनकारी कितने कृतनिश्चयी है, उन्होंने कैसा ठान लिया है कि अब तो आरपारकी लडाई ही लडनी है, ये लोगआपखुद सरकारसे डरने वाले नहीं है, सरकार व्यर्थ ही जीद पर अडी हुई है. सरकार समज़ती नहीं है कि ये किसान लोगोंको इतनी ठंडमें आंदोलन करनेका शौक तो होता नहीं है. एक दो आंदोलनकारी तो मर भी गये लेकिन सरकार आंखे नहीं खोलती. क्या आंदोलन कारीयोंको मरनेका शौक होता है? इन आंदोलनकारीयोंका आंदोलन कितना व्यवस्थित है, इन लोगोंने लंबे आंदोलनका आयोजन किया है, ढेर सारा अनाज, सब्ज़ी, मक्खन, घी की व्यवस्था की है,  गेस सीलीन्डर, चुल्हा, लकडियां, बडे बडे बरतन, पानीके टेन्कर, इत्यादिकी परिपूर्ण  व्यवस्था की है,  एम्ब्युलन्स, मोबाईल आई.सी.यु, ओक्सीजन, चिकीत्सालय, दवाईयाँ आदि की भी व्यवस्था की है.

(८) गोदी-मीडीया क्या कहेता है?

गोदी-मीडीया के हिसाब से इन आंदोलनकारीयोंका आंदोलन पूर्णरुपसे अहिंसक है.  आंदोलनकारी लोग सूत्रोच्चार ही करते है, ये लोग न तो पूलिससे झगडते है, न तो तो बसें जलाते हैं, न तो कारे जलाते हैं, न तो दुकाने जलाते हैं. इन आंदोलनकारीयोंका आंदोलन पूरा अहिंसक है.

मतलब यह है कि इन मूर्धन्योके हिसाबसे आंदोलनकारीयोंकी  व्यवस्थितता, (चाहे इन आंदोलनकारीयोंने अनियतकालके लिये रास्ते रोक रक्खा हो, रेलसेवाएं रोक रक्खी हो, दुकान वालोंका बीज़नेस ठप्प कर दिया हो तो भी) और ठंडमें आंदोलन करनेकी सहनशीलता के कारण, और खास करके चाकू छूरी या दंगा, न करनेके कारण,  आंदोलन पूरा अहिंसक है इस लिये उनकी मांगे सही है और सरकार इन समज़दारोंको समज़ानेमें विफल रही है.

मतलब यह है कि ये सब मूर्धन्य विश्लेषक लोग चाकू, छूरी, बंदूक, तल्वारके उपयोगको और संपत्ति तोडना, उनको जलाने … आदिको … ही हिंसा कहेते है.

जब देशके महा मूर्धन्योंकी मानसिकता यही हो तो आंदोलनकारीयोंका क्या दोष?

(९) ज्युडीसीयरी? काहेका सुओ मोटो?

आश्चर्य इस बातका है कि मुद्दा तो न्यायालयके आधिन भी है. लेकिन ज्युडीसीयरीके लिये अन्य नागरिकोंको लगातार आर्थिक नुकशान होता हो, समयकी बरबादी होती हो, मानसिक तनाव हो, ये कोई संविधानीय और मानवीय हक्कोंका हनन नहीं है.

जी हाँ, ज्युडीसीयरीको यह बात अचूक और  पुनः पुनः उच्चारित करनेमें मज़ा आता है कि “हम आंदोलनकारीयोंके वाणी-स्वातंत्र्यके हक्क का स्विकार करते है.

अरे भाई न्यायाधीश, तुम जरा केस को पढा तो करो. कोई ऐसा “प्रेयर” तो है नहीं कि, प्रेयरमें ऐसा लिखा हो कि हमारा वाणी-स्वातंत्र्यका हनन हो रहा है. प्रेयर तो यह है कि वाहन व्यवहार ठप्प पडा है और उसको खुला करो. वास्तवमें न्यायालयकी यह रीमार्क अनकोल्ड (uncalled, अनावश्यक, आवेदनकार्ताने मांगी ही न हो और मीथ्या ) है. लेकिन न्यायालयको ऐसी कोमेंट करनेमें मानो मजा आता है. वे शायद सोचते है कि हम “आंदोलनकारीयोंके विरोध प्रदर्शन और उनके वाणीस्वातंत्र्यके लिये कैसे सजग (कोन्सीयस है और सोये हुए नहीं) है.

न्यायालयको “प्रेयर”से अधिक आंदोलनकारीयोंके विरोध प्रदर्शनके अधिकारके बारेमें अपनी सजगता प्रदर्शित करनेमें अधिक दिलचस्पी है.

न्यायालय अपना मध्यावर्ती आदेश दे सकता है कि;

“आंदोलनकारी लोगोंको गिरफ्तार करो और अन्य नागरिकोंको कष्ट देनेके कारणसे और अन्योंका समय  बरबाद करनेके लिये उनके उपर न्यायिक कार्यवाही करो”

ऐसा आदेश देनेसे न्यायालयको किसने रोका है?

(१०) आम तौर पर, आम जनता और महानुभाव लोग भी दो कोम्युनिटीके विरुद्ध बोलनेसे बचते है.

एक है जवान. क्यों कि जवान देशके लिये आवश्यकता पडने पर अपने प्राणकी आहुति दे देता है. लेकिन लुट्येन गेंग्स जवानके विरुद्ध बोलनेसे कतराती नहीं.

दुसरा है किसान जो जगतका तात माना जता है. लालबहादुर शास्त्रीने एक नारा दिया, कि जय जवान और जय किसान.

अरे भैया किसान, तुम्हे यदि कृषिकानून पसंद नहीं है तो उस कानूनका तुम “सविनय कानून भंग”का आंदोलन चलाओ न. तुम्हे किसने रोका है?

(११) मजेकी बात यह है कि इस कृषिकानूनके विरुद्ध “सविनय कानून भंग”का आंदोलन करें भी तो कैसे करें,  वह न तो लुट्येनगेंगोंमेंसे किसीको मालुम है, न तो किसी किसान को मालुम है.

गोदी-मीडीयाके विश्लेषक, मूर्धन्य और तजज्ञोंका भी दिमाग शून्य हो गया है.

हाँ जी, यदि आप इस कृषिकानूनके विरुद्ध है तो आप इस कानूनका सविनय भंग कीजिये न?

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

एक जमाना था. स्त्रीयोंके लिये विधवा विवाह पर निषेध था. ज्ञातिप्रथा सख्त थी.

सरकारने कहा कि हम विधवा विवाहका निषेध रद करते है. और ज्ञातिप्रथाको भी रद करते है.

मतलब की यदि चाहे तो विधवा स्त्री पुनर्लग्न कर सकती है. और जिनको ज्ञातिप्रथा में न मानना हो तो वह ज्ञातिप्रथाका इन्कार कर सकता है.

इसके विरुद्ध हे कोंगी और उनके सांस्कृतिक गेंगवाले लोग, आप रास्ता, रेल, रोको आंदोलन चालु करो, बसोंको, सरकारी इमारतोंको, सरकारी वाहनोंको जलाओ …

आपको तो केवल आंदोलनका बहाना ही चाहिये न?

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अबे तुम हो बच्चु, हम है चक्कू

अबे बीजेपी वालों तुम लोग अभी बच्चे हो बच्चेकुछ समज़ते नहीं.

हम तो है जैसे था बाबु चक्कू

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क्या बात है? कुछ समज़में नहीं आता है हमें तो …. कुछ ढंगसे तो बताओ … “ भारतीय जनता बोली.

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तो सूनो… “बाबु चक्कुपचाससाठके दशकमें, राजकोटका गुन्डा था. हाँ जीवही राजकोट जो सौराष्ट्र राज्यका केपीटल था.

जब शहर बना, तो शहरमें गुन्डा तो होना ही चाहिये. एक, अकेले, गुन्डेसे भी क्या होगा? उसके पास, अपनी टीम भी होना चाहिये. क्यों कि गुन्डा होना ही तो शहरकी पहेचान और शान है.

यदि कोई शहरमें  गुन्डा आदमी नहीं होता है तो पूलिसवाले गली गलीमें गुन्डेको पैदा कर देते थे. अरे भाई, हप्ता वसुली करना है तोऐसा तो कुछ करना तो पडेगा ही !!. 

इन गुन्डोंका काम था फिलमकी टीकटोंका काला बज़ारी करना, किसीकी जेब काटना और आवश्यकता पडने पर चक्कू चलाना. चक्कू से मतलब है चाकु, छूरी.

जेब कतर्रे भी कलाकार होते है, वैसे ही चक्कू चलाने वाले भी कलाकार होते है.

कलाकार से क्या मतलब है?

मान लो कि कोई एक व्यक्ति कलाकार है,

कलाकार व्यक्ति जब, अपने कामका  प्रारंभ करता है तो उस कामको पूरा होनेमें कुछ समय तो लगता ही है. तब तक आपको पता चलता नहीं है कि वह व्यक्ति क्या बना रहा है. फिर धीरे धीरे आपको पता चलता जाता है कि उसने नाव का चित्र बनाया है या चूहेका चित्र.

अरे भैया, मैं वह विश्वकर्माजीने बनाये कलाकारके बारेमें नहीं पूछता हूँ. मैं तो चक्कू चलानेवाले कलाकारके बारेमें पूछ रहा हूँ?

मैं उसी कलाकारके विषय पर आता हूँ. ये विश्वकर्माके कलाकारकी कृतिका तो आप, पूर्वानुमान (अहेसास) लगा सकते है. लेकिन जेबकतरे कलाकार ने तो कब अपनी कला दिखाई, वह आपको पता ही नहीं चलता है. जब आप अपनी जेबमें हाथ डालते है तब ही आपको पता चलता है किपैसेका पर्सआपकी जेबमें नहीं है. … चक्कू चलानेवाला ऐसे चक्कू मारके अदृष्य हो जाता है कि जब आपका पेन्ट लहूसे तर बर हो जाता है और आहिस्ता आहिस्ता दर्द बढने लगता है तब आपको पता चल जाता है कि कोई आपको चक्कू मारके चला गया. इस क्रिया कोस्टेबींगकहा जाता है.

आपको पता होगा कि २००२के दंगेका आरंभ कैसे हुआ था.

“ल्यानत है हम पर” कोंगीयोंने सोचा

बात ऐसी थी कि नरेन्द्र मोदी नये नये मुख्यमंत्री बने थे. उन्होंने बात बातमें कह दिया किबीजेपीके शासन कालसे गुजरातमें दंगा होना बंद हो गया है. … “

यह बात जब कोंगीयोंके कर्णोंमें  (कानमें) पडी तो उनके कर्णयुग्म श्वानके कर्णयुग्मकी तरह ऊचे हो गये. वे अपना दिमाग लगाने लगे. यह क्या बात हुई!! हमारे होते हुए भी कभी क्या ऐसा हो सकता है, कि दंगे हो? ल्यानत है हम पर.

गोधराके स्थानिक कोंगीनेताने बीडा उठाया. और साबरमती एक्सप्रेसके दो डीब्बोंको हिन्दु मुसाफिरों सहित जला दिया.

वजह क्या थी?

वजह यह थी कि वे अयोध्यासे रहे थे जहां दश वर्ष पहेले एक मस्जिदको तोड दिया था.   

लेकिन उसका बदला तो मुस्लिमोंने मुंबईमें अनेक बंब ब्लास्ट करके हजारोंको मारके ले लिया थाअब काहेका बदला …!! “ जनताने पूछा.

अरे भाई हम मुसलमान हैहमारा हर मुसलमान, हर जगह बदला लेगा. हमें क्या सोच रक्खा है तुम लोगोंने? हम पर, इन दशानन कोंगीयोंके बीस हाथोंका आशिर्वाद है…. अयोध्या तो एक बहाना था…  मोदी ऐसा बोल ही कैसे सकता है कि बीजेपीके शासन में दंगा नहीं हो सकता. … चापलुस कहींकाहमने दिखादिया …  !!!” कट्टरवादी कोंगी मुस्लिम  बोला.

अरे भाई कोंगी !! तुम्हे क्या कहेना है?”बीजेपीने पूछा.

अबे, बीजेपी बच्चु, हम तो मुस्लिमोंकी पार्टी है. हम उनके खाविंद है और वे हमारे आका है. हमारा और उनका गज़बका है रिश्ता !! तुम क्या जानो हमारे रिश्तोंको !!

हम सब एक है. हम दो ही नहीं है. हम अनेक है. हमारे पास गोदीमीडीया है, हमारे पास गोदीअर्थशास्त्री लोग है, हमारे पास गोदीलेखकगण है, हमारे पास गोदी आतंकवादी है, हमारे पास गोदी अर्बन नक्सल है, हमारे पास गोदी पक्षधर भी है. तुमने देखलिया हमने उद्धव को उसके पक्षके साथ कैसे हमारी गोदमें बैठा लिया !!

तुम भी तो किसीकी गोदमें बैठे होउसका क्या …?” बीजेपी बोला.

तो क्या हुआ? हम तो किसीकी भी गोदमें बैठ जाते हैदुश्मनको दोस्त बनाना हमे आता हैचाहे वह देशका दुश्मन ही क्यूँ हो … !!! समज़े समज़े !! … तुम बीजेपी वाले तो बच्चू ही रहोगे. कभी चक्कू नहीं बन पाओगे…” कोंगीने बोला.

इस लिये तो तुम संसदमें ४०० बैठक्मेंसे ४०में सीमट गयेदेश भी तुम्हारे करतूत जान गया है…” बीजेपीने कोंगीको बताया.

अबे बीजेपी … !!! तुम तो बच्चू का बच्चू ही रहोगे. तुम किताबी बातें करते रहो और बच्चू ही बने रहो…” कोंगी बोला.

फिर कोंगी ने अपना पर्दा फास किया ;अबे बीजेपी, तुम तो ढक्कन हो ढक्कन …  तुम हमें क्या समज़ते हो? अबे ढक्कन, यदि हम संसदमें शून्य भी हो गये तो क्या हार मान जायेंगे? अबे बीजेपी बुद्धु, हम संसदके बाहर तो हजारगुना ताकतवर है….

तुम्हारे मोदीने विमुद्रीकरण कर दियालेकिन तुमने देखलियाने हमने, उसको समज़नेमें, जनताको कैसा गुमराह कर दिया

हमने तुम्हारे सी... और सी.आर.सी ही नहीं तुम्हारे सी.आर. पी को भी आंतर्राष्ट्रीय  मुद्दा बनाके तुम्हे बदनाम कर दिया

किसी भी मीडीया कर्मीकी औकात नहीं थी कि वहनहेरुलियाकत अली समज़ौता को याद करके हमे  विरोधाभाषी कहें !!

हमने मुस्लिमोंको बहेकाके, तुम्हारे शिर पर मत्स्य प्रक्षालन कर ही लिया !!! ऐसा तो हम करते ही रहेंगे !

अबे बच्चूहमने मुस्लिमोंको तो, भ्रमित ही नहीं अंधा भी कर दिया है. वे तुमसे हजारो मील दूर हो गये है.

हमारी गोदीमीडीयाकी ताकतको समज़ने की तुम्हारी औकात नहीं है. हमारी गोदमें तो हार्वडमें से पैदा हुए निष्णात बैठे है. वे हमारे पोपट है पोपट …  और यहांके अधिकतम मीडीयामूर्धन्य तो पहेलेसे ही हमारी गोदीमें है !

तुम जरा याद रक्खो  … यदि हम संसदमें शून्य  जाय, तो भी हमारी ताकत तो बनी ही रहेगी. तुम हमें क्या समज़ते हो?

संसद तो हमारे लिये एक बहाना है. हमें संसदकी परवाह ही नहींहमें संविधानके प्रावधानोंकी परवाह नहीं. हमें मानव अधिकारोंकी परवाह ही नहीं.

हमने तो न्यायालयके समक्ष शपथपूर्वक बोला था कि आपात्कालमें हमारी सरकार किसीको भी गोलीसे उडा देनेका अधिकार रखती है. अबे बच्चू, तुमने कभी इस शपथ पूर्वक कहे कथन पर हमारी बुराई की?

तुम क्या हमारी बुराई करोगे!!  तुम तोब्युरीडानके गधे हो. [ब्युरीडान के पास एक गधा था. उसके पास जई के  दो समान ढेर रक्खे गये तो वहकिसको पहेले खाउं यह सोचते सोचते भूखा मर गया”]. तुम तो, हमारे कोंगीयोंकेराक्षसी कर्मोंमेंसे किसकी सबसे पहेले निंदा की जायइस पर सोचते सोचते, बुढे हो जाओगे.

सहगान

अबे बीजेपी बच्चू !! तुमने कभी सहगान किया है? अबे, तुम्हे तो यह भी मालुम नहीं होगा कि सहगान क्या होता है !

जब तुम २००४ का और २००९का चूनाव हार गये तोहमने और हमारे सांस्कृतिक साथीयोंने क्या कहा था?

हमारा हर वक्ता केवल और केवल यही बोलता था किजनताने बता दिया कि जनता कोमवादी तत्त्वोंके साथ नहीं हैजनताने कोमवादी तत्त्वोंको पराजित कर दियाजनताने दिखा दिया कि वह कोमवादी तत्त्वोंके साथ नहीं है …  जनताने धर्मनिरपेक्षता पर अपनी मोहर लगाईजनताने गोडसेकी भाषा बोलनेवालोंको नकार दियाजनताने नाज़ीवादीयों को उखाडके फैंक दिया

हमारा सहगान ऐसा होता है तुम लोगोंको तोनमस्ते नमस्ते सद वत्सले मातृभूमिके अलावा भी सहगान  होते हैं वह भी मालुम नहीं.

जूठ बोलना हमारी पहेचान

अरे बच्चू बीजेपी, हम तो जूठ बोलनेके आदि है. तुम, हमारे जूठको, मिलजुलकर सहगान से उजागर करो, ऐसे काम करनेकी क्षमता तुम लोगोंमें कहां है?

मुस्लीम लीग नामकी एक पार्टी है. इस पार्टीमें अन्यधर्मी को सदस्यता नहीं मिल सकती. ऐसी कोमवादी पार्टी के साथ गठबंधन करे हम, फिर भी हम कहे, कोमवादी तुमको …  बोलो, है मजेकी बात?

हमारा ही एक स्थानिक मुस्लिम नेता, रेल्वेकोचको हिन्दुओंके साथ जलाकर राख कर दे, और खूनका दलाली करनेवाले सिद्ध हो तुमहमारे ही मुस्लिम गुन्डे स्टेबींग का सीलसीला करके सेंकडो निर्दोष राहादारीयोंकी कत्ल करे, लेकिन मौतके सौदागरका लेबल लगे तुम पर. है हमारी कमाल?

तुम लोगोंने हमे २०१४ और २०१९के चूनावमें पराजित किया. और अब तुम सोच रहे हो कि हम कोंगी नेता लोग निर्माल्य हो जायेंगे क्यों कि हमारी सरकारी पैसा खाने की दुकानें बंद हो गई.

तुम्हारी यही सोच तो गलत है.

हमारा भू माफियाका धंधा चालु है,

हमारा हप्ता वसुलीका धंधा  चालु है,

हमारा अवैध कन्स्ट्रक्सनका धंधा चालु है,

हमारी बोलिवुडकी दुकानोंका धंधा चालु है,

हमारा ड्रग माफियाका धंधा चालु है,

हमारा अवैध शराब बनानेका और बेचनेका धंधा चालु है,

हमारा सूपारी लेनेका धंधा चालु है,

हमारे देशके बाहरके कई धंधे चालु है. तुम देखते हो , कि देशमें ही नहीं, लेकिन  तुम्हारे विदेशी दोस्त और दुश्मन देशोंमें भी हम, तुम्हारे पक्षके विरुद्ध प्रदर्शन करवाते है. हम तो निराधार मुद्दों पर भी  प्रदर्शन करवाते है.

पैसा बनाना हमारे लिये आसान धंधा है. और हमे हमारे सांस्कृतिक साथीयों पर पूरा भरोसा है. उद्धव सेनाने तुमलोगोंको कैसा ठेंगा दिखा दिया? सिखोंके संत भीन्दरानवालेको मारा था हमने, तो भी ये सिख लोग हमारे साथ है.

पैसे से क्या नहीं होता? हमारे पास विदेशोंमें बडे बडे टापु है और तुम लगे रहो स्वीस बेंक और पनामा के पीछे.

अरे हमने तो तुम्हारे पक्षमें और आर.एस.एस.में भी फर्जी आदमी लगाये है. वे सब मीथ्या विषयों पर बकवास करते रहेते है. और कुछ तुम्हारे ही बेवकुफ लोग उसी मीथ्या विषयोंको ट्रोल करके अपना समय बरबाद करते है. हमारा असली कोंग्रेससे कोई नाता नहीं, तो भी बडे बडे मूर्धन्य लोग हमे ही, असली १३५ वर्ष पूरानी कोंग्रेस मानते है. जब ऐसे मूर्धन्य लोगोंको भी, हम गुमराह कर सकते है तो तुम्हारे हितैषी लेकिन बेवकुफ लोगोंको मतिभ्रष्ट करना तो हमारे लिये बांये हाथका खेल है.

 अरे हम कोंगी लोग, यदि राज्यमें सत्ता पर जाते है तो हमारे विरोधीयों पर प्रतिशोधके बेसुमार फर्जी केस कर देते है और उनको गिरफ्तार भी करके कारावास में भेज देते हैं. तुम्हें तो अरण्य रुदन करना भी नहीं आता है. शासन कैसे किया जाता है वह तुम हमसे शिख सकते हो.

हम तो किसीको भी आधीरातको भी गिरफ्तकार कर लेते है, उतना ही उनको पीटते भी है. हमने रामदेवको पीटा था, अर्णव गोस्वामीको पीटा था, उनके स्टाफ को पीटा था. हम तो कंगना रणोतकी कमर तोड देते. शुक्र करो हमने तो केवल उसका घर ही तोडा.

ज्युडीसीयरीने हमारा क्या उखाड लिया?सुओ मोटोका शस्त्र तो ज्युडीसीयरीने तुम्हारे लिये रक्खा है बच्चू …!!! हमारे लिये नहींसमज़े समज़े …?

हम निर्भिकतासे ऐसा कैसे कर सकते है  बोलो?

अरे भैया बीजेपी, हमारे पास ऐसा नेटवर्क है कि हम साम, दाम, भेद और दंड सभीका प्रयोग कर सकते है, चाहे तुम्हारा ही शासन क्यूँ हो.

ज्युडीसीयरी क्या चीज है?

अरे भैया बीजेपी, दंडमें जान भी समाविष्ट है.

जान किसको प्यारी नहीं होती?

न्यायालय भी सोचता है किजान है तो जहाँन है’. आप मर गये फिर तो डूब गई दुनिया.

तुम लोग तो अभी शोर करते हो कि कोम्युनीस्टोंने हमारे इतने बीजेपी सदस्योंको मार डालेममता सरकारने हमारे बीजेपीके इतने सदस्योंको मार डाले ….

अबे बीजेपीतुम तो बच्चे हो बच्चे. हम तो पूलिस हिरासतमें भी हमारे विरोधीयोंको मार डालते है. श्यामाप्रसाद मुखर्जीका हमने क्या किया था?  जयप्रकास नारायण का हमने क्या किया था? जयप्रकाश नारायण तो महात्मागांधीके अनुयायी थे. लेकिन हमें क्या फर्क पडता है? हम तो महात्मा गांधीको मार देते यदि वह जिदा होता तो.

अरे बीजेपी भैया …  हम कितने चालाक है वह तो तुम क्या जान पाओगे!! हमारे सदस्य तो तुम्हारे पक्षमें भी है. हम चाहे महात्मा गांधीवादीयोंको प्रताडित करें और मार भी डाले, तो भी तुम लोग तो महात्मा गाँधीकी विरासत हमें ही देते रहोगे. क्यूँ कि हमने तुम्हारे कुछ मूर्धन्योंको भी ऐसा उलज़ा दिया है, कि वे अपने पूर्वग्रह पर अटल है कि, गांधीने नहेरुको प्रधान मंत्री बना दिया और वह भी यावत्चंद्र दिवाकरौ (जब तक सुरज चांद है तब तक के लिये) के लिये. और गांधीने ही देशका बटवारा करवाया . गांधी ही सब समस्याओंकी जड है …. तुम अपने पूर्वग्रह छोड ही नहीं सकते हो. तुम अपने पूर्वग्रहोंमें ही रममाण रहो यही तो हम चाहते है.

अरे हम तुम्हें तो क्या, सर्वोदय वादीयोंमेंसे भी कुछ लोगोंको, वैचारिक विवेकशीलतामेंसे पथभ्रष्ट कर सकते हो, तो तुम तो क्या चीज़ हो?  

 तुम्हें हमसे शिखना है. लेकिन हम तुम्हे शिखने नहीं देंगे. यदि तुम हमारी तरह प्रतिशोधका तो क्या, यदि नियम अनुसार भी हमारे लोगोंके विरुद्ध कार्यवाही करोगे, तो हमारा गोदीमीडीया और हमारे गोदी कोलमीस्ट्स, तुम बीजेपीवालोंके उपर तूट पडेंगे …  किबीजेपी लोकशाही खून कर रहा है और बेवजह ही प्रतिशोधकी कार्यवाही कर रहा है

शस्त्र होते हुए भी उलज़ा हुआ बीजेपी

शिरीष मोहनलाल दवे

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Can we say that Congress is 135+ year old party? Part – 3

What should have been the appropriate criteria for deciding the heritage of a party when it gets spitted up?

It is the President of the Party who is the head of party.

The president occupies the post till he/she has not been removed by the delegates who elected him in General Conference, or under a regular requisition meeting, the delegates can remove him/her with majority decision.

What is meant by regular requisition meeting?

(1) But before that let us look at to the position of the Prime Minister?

(1.1) First of all a candidate of the Prime Minister-ship has to get qualified as the leader of the party. That means he/she must have support of majority MPs of his/her. Once he/she has been elected as the leader of his/her party, he/she can contest for PM ship in the Lok Sabha. This means that he/she has majority support of Lok Sabha members.

(1.2) Now suppose a situation comes when an existing Prime Minister is dismissed by his/her party from the leadership of his/her party, but the said person enjoys the majority support of the MPs. Then what to do?

(1.3) The said person loses its leadership of the party, but he/she can continue as the Prime Minister.

(1.4) Now suppose the said person has been dismissed from L.S. membership, then what would happen?

(1.5) In this case the person has to be got elected within six months as member of Lok Sabha. This is because the party has power to dismiss a member from membership of the party as well as from the Lok Sabha membership under prevailing rules, provided the party has not been bifurcated under 20:80 ratio. i.e. if 20% or more MPs leave the party, they do not get disqualified for membership of Lok Sabha.

(2) Now suppose any party splits in two, then which part of that party can claim the heritage of the party?

(2.1) One of the bifurcated parties can call for requisition meeting or the president can call for emergency meeting i.e. they can decide on majority. Is it so?

(2.3) No. It cannot be like that. This would never happen. Both the parts will call separate meeting. The existing President will be dismissed by other part, and this other part would elect its own working committee and its president.

(2.4) Further this said other part from the period of date of split to the date of the emergency conference, enroll a lot of new members including bogus members to send maximum delegates to prove its majority.

(2.5) Indira Gandhi, when she was dismissed from the leadership, she enrolled  a lot of new members and then she dismissed Nijalingappa from the party president-ship, and she herself got elected as the president of her faction. She also claimed heritage of the party viz. Congress.

Was it lawful?

No. This criterion cannot be judicious and lawful.

Then what is lawful and judicious?

(3) Cut-off date of the membership should be fixed to count the admissibility of the delegates in the conference.

(3.1) Simply the cut-off date would be ok?

(3.2) No. this way of cut-off date is not proper. Because the Central working committee members have decided to dismiss the member from the party’s leadership. This committee is also termed as “High Command”. “The High Command” has full power to take disciplinary actions against any member of the party whosoever he/she may be. If the person in question feels that he/she had been removed unlawfully even under the constitution of the party, he/she can go to the court of law.

(4) Now suppose, both the factions had called for general conference and both have the claim of owing the heritage?

(4.1) In all the cases the date when  the prevailing High Command Committee members who dismiss the member from the membership and the leadership post of the party is final. Nobody is above the High Command.

(5) Then why did the SC give verdict on the basis of majority number of MPs favored a faction has the heritage of the party?

(5.1) Please recall that the case was filed in 1969, and SC gave verdict in 1981. By this time the other faction had been dissolved in 1977.

(5.2) Otherwise also, the number of MPs cannot be the criteria to decide the ownership of the heritage of the party. MPs come and go. The organization of the party remains.

(5.3) The party’s strength depends upon the number of members of the party. This criterion applies to all the organizations, irrespective of they are political organization or non-political organization. To link it with public opinion without asking the public as a point to decide, and then on the basis the number of MPs to decide the ownership of heritage is not only ridiculous but funny too.

(5.4) Why had been the SC gave its verdict based on number of MPS on 1981?

Answer is simple.

Many times the judiciary does not like to apply its mind. It picks up a flimsy ground!

Law is required to give verdict, I do not like to apply my mind.

(La Fin)

Shirish Mohanlal Dave

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