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Archive for October, 2022

धर्म परिवर्तन के लिये प्रतिज्ञा लेनी पडती है क्या? – ३

आम आदमी पक्ष जो पक्ष नहीं है, किंतु एक गुट है.

पक्ष एक विचार होता है, और अपने विचारको कार्य द्वारा समाजको सुखमय और समृध्धिकी ओर ले जाता है. जो झुण्ड होता है वह एक समूह  होता है. आजका भारतका विपक्ष विभीन्न गुटोंका ही बना हुआ.

ये बौध्ध बावाजी भी इस बातको सामज़ नहीं पा रहे कि जहाँ असत्य भाषण हो रहा हो वहां पर यदि शक्य हो तो उसी समय उसका विरोध करना चाहिये. यदी मामला आपकी सुरक्षासे जूडा हुआ है तो बादमें उस भाषणकी निंदा करना आवश्यक है. यदि आपने ऐसा नहीं किया तो आप इसमें सहमत है ऐसा ही माना जायेगा. और वास्तवमें ऐसा ही सत्य सिध्ध हुआ. वह गुट यानी झुंडके गोपालने वही किया, जिसकी संभावना और प्रतिक्षा थी. उसने भारतके प्रधानमंत्रीको ही नहीं उनकी माताजी की भी भर्त्सना की, और गुजरातकी जनताके विषयमें बिभत्स भाषाका उपयोग किया. लेकिन हम उसके विषयमें चर्चा नहीं करेंगे.

हम  इस बौध्ध बावाजी की बात करेंगे.

क्या बौध्ध धर्म क्या एक संस्कृति है?

नहीं है और नहीं हो सकती है.

सनातन धर्ममें आत्म तत्त्वको जाननेके लिये  कई पंथ (विचार शाला) है. ब्राह्मण, अद्वैत, द्वैत, त्रैत, शुध्धाद्वैत, चार्वाक, बार्हस्पत्य, सांख्य, योग, पाशुपत, वैष्णव, वाम मार्ग, …  ये सब वैदिक संस्कृतिकी नीपज है.

जैन, बौध्ध, सिख पंथ भी वैदिक संस्कृतिकी ही नीपज है. इन सभी पंथोंमे भी ईंद्र है, यम है, गांधर्व है, किन्नर है, यक्ष है … ह्यु एन संग जब भारत आया था उस समय साम्राट अशोकका महल अस्तित्वमें था. अशोकके महलको देख कर उसने बोला था कि “ऐसा महल कोई मनुष्य नहीं बना सकता. यह तो यक्ष, गांधर्व और किन्नर ही बना सकते है”.

क्या बौध्ध धर्ममें ज्ञातिवाद था?

अवश्य था. यदि सनातन धर्ममें जन्मजात ज्ञातिवाद था तो बौध्धमें भी जन्मजात ज्ञातिवाद था. यदि सनातन धर्ममें जन्मजात ज्ञातिवाद नहीं था तो बौध्धोंमे भी जन्मजात ज्ञातिवाद नहीं था.

वर्तमान बौध्ध नेता मानते है कि सम्राट अशोकने कलिंगको युध्धमें पराजित करनेके बाद वह हिंसासे व्यथित हुआ और वह बौध्ध बना.

वास्तवमें यह जूठ है.

ऐतिहासिक प्रमाण तो ऐसे है कि वह कलिंगके युध्धसे पहेले ही बौध्ध बना था. और कलिंगके युद्धके बाद भी उसने कई हिंसक काम किये थे.

उसने चांडालिकको पीडा दे दे कर मार डाला.

उसने एककी गलतिके कारण १८००० विधर्मीयोंकी, सामुहिक हत्या की थी,

उसने जैनोंके विरुद्ध हिंसक अभियान चलाया था. एक शिर लाओ और निश्चित धन ले जाओ.

(ज्होन स्ट्रोंग की पुस्तक “अशोककी कथाएं” पृष्ठ – १४९).

कहेना तात्पर्य यह है कि बौध्ध धर्मका अंगिकार करनेसे मनुष्यकी संस्कृतिमें परिवर्तन नहीं आ जाता.

अशोकके कारण और उसके पश्चात् बौध्ध धर्मका प्रसरण अधिकाधिक हुआ. पूरे जंबुद्विपमें वह फैल गया था. और ऐसी स्थिति ८००/९०० वर्ष तक रही.

अब प्रवर्तमान आंबेडकरके बौध्ध अनुयायी मानते है कि;

“बौध्ध धर्म मानवमात्रका ही नहीं पशुमात्रका हित चाहने वाला है और उसमें ज्ञातिवाद नहीं हो सकता.”

“हम दलितों पर ५००० सालसे अत्याचार हो रहा है”

यह बात तो ‘वदतः व्याघात्’ इससे भी सिध्ध होता है कि बौध्ध धर्ममें भी जन्मजात ज्ञातिवाद था.

इ.सा. पूर्व ३०० से लेकर इ.सा ७०० तक यदि बौध्ध धर्म भारतमें प्रधान धर्म था तो उस अंतरालमें तो ज्ञाति प्रथा नष्ट हो गई ही होगी. तो इ.सा. ७००में कैसे उन दलितोंको ढूंढ निकाला जो इ.सा. पूर्व ३००में जन्मजात दलित ज्ञातिके थे.

८००/९०० सालका अंतराल तो क्या, इस वर्तमान सुलिखित कालमें भी अधिक से अधिक ८ पीढी तक पूर्वजके नाम बडी मुश्किलसे  याद होता है. जैसे कि जे.एल. नहेरुके चौथे पांचवे पूर्वज कौन थे वह भी किसीको मालुम नहीं. इतिहासकार भी नहीं बता सकते है. तो इशा ७००के आसपास ऐसा कौनसा अभियान चलवाया गया कि बौध्धोमेंसे दलितोंको ढूंढ निकाला गया? और उन सबको कैसे उनकी ज्ञातिमें स्थापित किया गया? यह केवल असंभव है.

इससे यही सिध्ध होता है कि बौध्ध धर्ममें भी ज्ञाति प्रथा थी और दलितों पर अत्याचार चालु थे यदि पहेले भी अत्याचार होते थे तो.

लेकिन सनातन धर्मवाले इतिहासकार मानते है कि अस्पृष्यताका आरंभ इस्लामके आने से हुआ और उच-नीच वाली ज्ञाति-प्रथा ब्रीटीश शासनमें शुरु हुई. इशा १८वी शताब्दी में भी भारतमें कई पाठशालाएं पूर्वभारतमें भी विद्यमान थी जो पूरे युरोपकी पाठशालाएंसे भी संख्यामें अधिक थी. लेकिन जब भारतके अर्थतंत्रको नष्ट किया गया तो कारीगर लोग बेकार हो गये. उनका पढना छूट गया और विद्यासंगी, क्षत्रीय एवं वेपारी ही बच गये.

पाश्चात्य इतिहास कारोंने फरेबी इतिहास पढाके हिंदुओंको विभाजित किया. नहेरुवीयन कोंगीयोंने ब्रीटीशों द्वारा लिखा गया इतिहास मान्य रक्खा, इतना ही नहीं उसी फरेबी विचार धारा “विभाजित करो और शासन करो” को आगे बढाया. भारतके कई विद्वानोंने इस पूरा प्रपंचका,पर्दाफास किया है और वह ऑन – लाईन पर उपलब्ध है.

महापुरुष भी गलती करते है. और उन्होंने ऐसी गलती. लेकिन ऐसी एकमात्र गलतीसे उनके पूरे योगदानको धराशायी नहीं कर सकते और उनके नामको लांछित नहीं कर सकते. उनके समग्र जीवनके योगदान को देखकर उनका मूल्यांकन करना चाहिये.

यदि बाबा साहेब आंबेडकरने “गीता जलाने” को कहा था तो वह उनकी एक गलती थी.

गीता (भगवत् गीता), मे एक जगह पर लिखा है,

चातुर्वणम् मया सॄष्टम् गुणकर्म विभागसः

चातुर्वर्ण मैंने (मनुष्यकी) गुण कर्म के आधार पर बनाया है.

यदि व्यासजी (कृष्णके मुखसे) चाहते तो इन शब्दोंका प्रयोग कर सकते थे कि

चातुर्वर्णम् मया सृष्टम् जन्म – लग्न संबंधनात्

किंतु व्यासजीने ऐसा लिखा नहीं. क्यूँकी ऐसी प्रणाली नहीं थी. सचमें ही ज्ञाति परिवर्तन शील थी. इस बातके अनेक उदाहरण थे.

लेकिन बाबा साहेबने “चातुर्वर्णम् मया सृष्टम्”में मया का अर्थ “ईश्वर” ले लिया. क्योंकि कृष्ण तो ईश्वर थे.

किंतु ईश्वर कौन है?

आदित्यानां अहं विष्णु, प्रकृति भी तो ईश्वर है. सब कुछ भी तो ईश्वर है.

वायुः यमः अग्निः वरुणाः, शशांक, प्रजापतिः त्वं, प्रपितामहः च, (गीता-अध्याय – ११, ऋचा-३१).

बाबा साहेबने ईश्वरकी परिभाषा, उनको जो पाश्चात्य प्रणाली के अनुसार जो अर्थघटन पढाया गया था उसको ही लिया.

गलत अर्थघटन करो, और फिर वह गलत अर्थघटनको सही मानो (और वह जो सही है उसको गलत मानो और मनवाओ या उसके उपर बिलकुल मौन रहो), और सामनेवाले को अपराधी मानो.

ऐसा क्य़ूँ भला?

अरे भाई यही तो हमारा मकसद है. यही तो हमने मध्ययुगी पाश्चात्य संस्कृतिसे सिखा है. दंभ ऐसा करो कि दुश्मन देखता ही रह जाय.

हम आपसे भीन्न है,

हमें भारतकी संस्कृति उपर  कोई गर्व नहीं,

क्योंकि आप हम पर ५०००+ वर्षोंसे अत्याचार करते आये है,

आपने हमें दास बनाके रक्खा था, अभी भी आप हम पर अत्याचार कर रहे है,

आपने हमारे बौध्ध धर्मको और उसके ८०००० मंदिरोंको ध्वस्त कर दिया और उसके उपर आपने अपने मंदिर बना दिये.

चाहे हम पर मुसलमानोंने अत्याचार किये हो और चाहे आपके नरेंद्र मोदीने हमें ३७० एवं ३५ए को रद करके संविधानक मानव अधिकार दिलाये हो, हम तो कृतघ्न ही रहेंगे.

हमारे लिये तुम्हारा विपक्ष हमारा मित्र है. चाहे परिणाम कुछ भी हो. चाहे भारतका भावी अंधकारमय बन जाय. हमें क्या फर्क पडता है. हम तो आपके पूर्वजोंने ५०००+ अत्याचार किये है वही याद रक्खेंगे. आप नष्ट हो जाय वही हम चाह्ते है, चाहे हमारा कुछ भी हो जाय. हमें मंजुर है.

जय बुध्ध, जय संविधान, जय कर्ण, जय शंबुक, जय रावण, जय एकलव्य, जय भीम, जय नकुल, जय सहदेव, जय अशोक,

शिरीष मोहनलाल दवे

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धर्म परिवर्तन के लिये प्रतिज्ञा लेनी पडती है क्या? – २

हमने प्रकरण – १ में देखा कि ये बौध्ध बावाजी कहेते है कि;

बौध्ध धर्म एक कल्चर है.

उपरोक्त कथनोंका खंडन हो सकता है.

(१) बौध्ध धर्म एक कल्चर है क्या?

बावाजी, पहेले आप कल्चर की परिभाषा तो करो? यदि आप कल्चरकी परिभाषा नहीं करोगे तो शब्दकोषका अर्थ ही माना जायेगा.

कल्चर एक वैचारिक प्रणाली है. बुध्ध भगवान मानवजात ही नहीं अन्य पशु-पक्षी आदिके उपर भी दया और करुणा रखनेका सिध्धांत रखते थे.

यदि बौध्ध धर्म एक संस्कृति है तो आप लोग मांसाहार क्यों करते है? जापानमें तो एक शिल्पमें बुध्ध को हाथीका शिकार करते दिखाय गया है. एक हाथीको मारनेसे एक जीवकी ही हिंसा होती है. मछली खानेके लिये अनेक मछलीयोंकी हिंसा करना पडता है. चीनके लोग तो पृथ्वि और आकाशके बीचके सभी सजीवोंको खाते है.   

आपने दलितोंको ही निशाना क्यों बनाया? अरे बावाजी यदि आप प्रज्ञायुक्त चर्चामें मानते है तो पहेले दलितोंको कमसे कम यह तो समज़ाओ कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश … आदि आपके हिसाबसे कौन है. हम हिंदुओंको पता है कि आप स्वयं इनका सही स्वरुप जानते नहीं है. आपमें इनके बारेमें ज्ञान नहीं है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश … कौन है.

हिंदु धर्ममें पुराण इतिहासकी पुस्तक है. इतिहासको सुगम्य और रोचक बनानेनेके लिये, इनमें समय समय पर भगवान की और देवीयोंकी काल्पनिक कथाएं एवं आकाशीय घटनाओंका प्रतिकात्मक विवरण भी प्रक्षिप्त है. पुराणोकी रचना कमसे कम ईशा.पू. १००० वर्षसे ईशा मसीह संवत्सरकी १२वीं शताब्दी तक होती रही. उनमें प्रक्षेप होते रहे है.

आपने जो पुस्तकें तत्त्वज्ञानके लिये मान्य नहीं है उनको ही उधृत किया. आपने ऐसा क्यूँ किया? ऐसा ही है न कि अन्यमें आपकी चॉंच डूबती ही नहीं? क्या हिंदु तत्त्वज्ञानका अध्ययन करनेकी आपके पास  क्षमता नहीं है?

आपने पुराणोंको क्यों पकडा? उपनिषदोंको क्युँ नहीं पकडा? आप वेद और उपनिषदोंके तत्त्वज्ञान पर कोई हिंदु ज्ञाता से चर्चा करते तो आपका अंतर्मन स्वच्छ है ऐसा प्रतीत होता.

हिंदु धर्म “प्रश्न करो और उत्तर पाओ.” मतलब की हिंदुधर्म संवाद द्वारा वर्णित होता है? हिंदुधर्ममें तत्त्वज्ञान भी प्रतिकोंसे समज़ाया जाता है.

बौध्ध धर्मको मानने वाले हमारे एक मित्र कहेते है कि “लव धाय एनीमी (शत्रुसे भी प्रेम करो)”, यह सिध्धांत भी बुध्ध भगवानका है, ऐसा उनके अनुयायी लोग मानते है. अच्छी बात है. यदि आप कुछ अच्छी बात मानते है तो किसीको कोई कष्ट नहीं.

यदि आप बौध्ध है, तो हिंदु आपका पडौशी है. “पडौशीसे प्रेम रक्खो” ऐसा कथन ईसा मसीहका था. बुध्ध भगवानने उससे भी उच्च सिध्धांत बनाके रक्खा कि दुश्मनसे भी प्यार करो.

लेकिन अय बावाजी, आप आगे चलकर कहेते है “हम पुनर्जन्म, आत्मा, ईश्वर और परमेश्वरमें मानते नहीं है”. चलो यह भी ठीक है. लेकिन जब आप यह आदेश देते हैं कि …

बावाजी! यदि ऐसा है तो जातक कथाओंमें बुध्धके कई जन्मोंका विवरण कैसे है? आप को शायद मालुम नहीं कि कि दलाई लामा को बुध्धका “विद्यमान अवतार” माना जाता है.

हिंदुओंका धर्म कैसा है आपने कभी समज़नेका प्रयत्न किया है? चलो एक उदाहरणसे आपको अवगत करें;

गणेशः

इसका अर्थ है “गणानां ईशः इति गणेशः”

समूह का नेता.

गणेशको सूंढ होती है. मतलब परिस्थितिको दूरसे सूंघ लेता है.

गणेशको बडे कर्ण होते है, मतलब नेताके कर्ण विशाल होते है ताकि वह सबकी बातें दूरसे जब चाहे तब सून लेता है,

नेताका उदर मोटा होता है ताकि वह सभीकी बातें अपने पेटमें समावेश कर सकता है,

नेताकी आंखे तीक्ष्ण होती है,

नेताके पास लड्डू होते है, ता कि उसको मिलनेके बाद व्यक्ति संतुष्ट हो के जाता है,

नेता बैठा हुआ होता है, मतलब कि वह हमेशा उपलब्ध होता है,

गणेश एलीफंट गोड नहीं है, लेकिन एलीफंट-हेड गोड है. यहां ईशका अर्थ संचालक मतलब नेता है जिनकी बात सब गणसदस्य मानते है.

बावाजी, क्या यह प्रतिकात्मक विवरण आपकी समज़में आया? नहीं आया? चलो आगे समज़ाते है.

इसको दो पत्नियां है; रिध्धि और सिध्धि

इसका मतलब है समृध्धि और सफलता

इनके दो पुत्र है,

शुभ और लाभ. मतलब सुष्ठु (अच्छा) और उत्कर्ष (अच्छा भविष्य)

अब तो बावाजी आपकी समज़में आगया होगा. यदि अब भी नहीं आया हो तो आप “गॉन केस” (हाथसे गया हुआ केस) है.

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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धर्म परिवर्तन के लिये प्रतिज्ञा लेनी पडती है क्या? – १

सनातन धर्म, प्रणालीके रुपसे “हिंदुधर्म” माना जाता है. यदि सुचारु रुपसे देखा जाय तो सनातन धर्म सर्वधर्म  समावेशी धर्म है.

सामान्यतः धर्मका अर्थ पूजा पध्धतिसे किया जाता है. किंतु यह भी सत्य नहीं है. धर्ममें केवल पूजा पध्धति ही नहीं होती है, उसमें समाजको अर्थपूर्ण रुपसे चलानेके लिये कुछ नियम भी होते है. ऐसे नियम कि जिससे मनुष्य एवं समाजमें सुख शांति एवं उन्नति हो.

सर्वोच्च न्यायालयने हिंदुधर्मके विषयमें ऐसा निष्कर्ष निकाला कि हिंदुधर्म कोई धर्म है ही नहीं. हिंदुधर्म एक जीवनप्रणाली है.

कुछ लोग इससे आनंदित हुए … कुछ लोग दुःखी हुए. जिनको आनंदित होना था उनमेंसे कुछ लोग दुःखी हुए. जिनको दुःखी होना था वे खुश हुए.

सर्वोच्च न्यायालयके कथनके दो खंड थे.

(१) हिंदुधर्म कोई धर्म है ही नहीं,

(२) हिंदु धर्म एक जीवन प्रणाली है.

हम इनको भीन्न करके अध्ययन करें

(१) हिंदु धर्म कोई धर्म नहीं है. इसका अर्थ है धर्म वह है जिसमें एक पुस्तक एक पुरस्कर्ता होता है. जैसे कि इस्लाम एक धर्म है. ख्रीस्ती एक धर्म है, यहुदी एक धर्म है …

जो इस्लाम धर्मको माननेवाले थे वे आनंदित हुए. ईसाई धर्मको मानने वाले थे वे भी अनंदित हुए. … ये लोग क्यूँ आनंदित हुए?

वे लोग इसलिये आनंदित हुए कि उनको सर्वोच्च न्यायालयका प्रमाण पत्र मिल गया कि उनका धर्म तो अब प्रमाणित धर्म है किंतु “हिंदु धर्म” तो धर्म ही नहीं है.

भारतमें इस्लाम और ख्रीस्ती धर्मवाले, हिंदु धर्मको अपना प्रथम भक्ष्य. खास करके उनका विधर्मीयोंका धर्मपरिवर्तन करनेका निशान, हिंदु-धर्मके अनुयायी ही होते है.

तात्पर्य यह है कि हिंदु-धर्म यदि धर्म ही नहीं है, और ऐसा जब सर्वोच्च न्यायालय जैसी विवेकशील एवं प्रज्ञाशील संस्थाने घोषित कर दिया है, अब तो कहेना ही क्या? उनको तो एक महान शस्त्र मिल गया. उनको लगा कि अब तो हिंदुओंका आसानीसे धर्मपरिवर्तन किया जा सकेगा क्यों कि हम तो “धर्म”- वाले है और ये “हिंदु”-धर्म वाले तो धर्मवाले है ही नहीं, क्योंकि “हिंदु-धर्म” तो धर्म है ही नहीं. और हम जो कहेते है उसके उपर तो सर्वोच्च न्यायालयका थप्पा भी लग गया है.

(२) हिंदुधर्म एक जीवनप्रणाली है.

इस कथन का तात्पर्य यह भी है कि अन्य धर्म, जीवनप्रणाली नहीं है. विस्तारसे कहे तो इस्लाम धर्ममें जीवन प्रणाली नहीं है, इसाई धर्ममें जीवनप्रणाली नहीं है, बौध्ध धर्ममें जीवन प्राणाली नहीं है, सिखधर्ममें जीवनप्रणाली नहीं है, यहुदी धर्ममें जीवन प्रणाली नहीं है. …

हिंदु-धर्म तो धर्म ही नहीं है, इस कथनको सुनकर जो उपरोक्त धर्मवाले आनंदित हुए थे उनको यह दुसरा कथन भी तो लागु पडता है. क्या इन आनंदित लोगोंमें इस कथनके ह्रार्दको समज़नेकी प्रज्ञा नहीं है? नहीं है खचीत ही नहीं है.

हिंदु धर्मः

हिंदु-धर्म एक सामाजिक व्यवस्था है. इसके अतिरिक्त विश्वको समज़नेकी भी व्यवस्था है. ये दोनों परिवर्तन शील है. प्रत्येक समाजमें समयानुसार परिवर्तनकी संभावनाएं पडी हुई होती है. हिंदु धर्मने तो इस कथनकी स्विकृति कर ही ली है. किंतु  परिवर्तन का निर्णय करनेवालोंकी योग्यता सुनिश्चित होना आवश्यक है. यदि यह बात नहीं है तो आप फल भुगतनेके लिये तयार रहो.

न्याय करनेवाला, न्यायशास्त्रके नियमोंका अभ्यासी एवं ज्ञाता होना आवश्यक है. शिक्षा देनेवाला, अपने विषयमें एवं शिक्षा-तकनिक़ीमें प्रवीण होना आवश्यक है, … ऐसे मानव-विश्वमें अनेक क्षेत्र है. हरेक क्षेत्रका कोई न कोई अपनी प्रकृतिके अनुसार ज्ञाता बनता है और वह मानव समाजको उन्नतिकी दिशामें ले जाता है. यही तो सनातन नियम है. और यही सनातन–धर्म है. धर्मका अर्थ है नियम एवं उनका पालन एवं कर्तव्य.

नियम … पालन … कर्तव्य. 

भारतका सनातन धर्म ब्रह्माण्ड कौनसे नियमोंसे चलता है वह समज़नेका प्रयत्न करता है.

ब्रह्माण्डमें क्या है?

ब्रह्माण्डमें आकाश है, वायु है, प्रवाही है, घनत्व है, उर्जा है, सभी वस्तुएं इनमेंसे बनी है. मनुष्य और अन्य कैसे बने यह भौतिकशास्त्रका (विज्ञानका) विषय है. इन विषयोंपर संशोधन करनेका काम शास्त्रीयोंका है.

जैसे विज्ञानके विषयोंमें संशोधन होता रहेता है, उसी प्रकार मनुष्य समाज व्यवस्थामें भी संशोधन होता रहेता है. समाजको कैसे चलना चाहिये वह समाजशास्त्रीयोंका काम है. और समाजको गतिशील उन्नतिशील रखनेके लिये समाजशास्त्र है. ये सभी शास्त्र परिवर्तनशील है. इनको परिवर्तनशील रखनेके लिये जनतंत्र है.

भौतिकशास्त्र एवं जनतंत्रमें सत्यका आदर और सत्यका स्विकार होता है. शास्त्रमें अंतीम निर्णय कभी भी होता नहीं है. व्यक्ति प्रधान नहीं है, किंतु विचार, तर्क, अधितर्क, प्रयोग-सिध्धता प्रधान है. किसी भी निष्कर्ष व्यक्तिके आधिन नहीं होता है. नियम या निर्णय प्रयोगके परिणामके आधिन होता है. समाजशास्त्रमें यदि पार्श्व प्रभाव (बाय प्रोडक्ट – साईड ईफेक्ट) हानिकारक तो वह स्विकार्य नहीं बनता.

भौतिक शास्त्र और समाजशास्त्रमें भेद यह है कि भौतिकशास्त्रमें नियम, मूल्य एवं प्रयोगके उपकरणोपर निर्भर करता है और आवश्यकता पडने पर उनमें संशोधन करना पडता है. समाजशास्त्रमें मनुष्य स्वयं उपकरणोमें सामिल है. और मनुष्य अहंकारके आधिन है. इसलिये समाजशास्त्रको समज़नेके लिये “थर्ड पार्टी” बनके सोचना पडता है.

सामान्यतः प्रत्येक मनुष्यको कभी न कभी लगता है कि “स्वयंको अब ब्रह्म ज्ञान हो गया है यानी कि उसने अब सबकुछ समज़ लिया है”. ऐसे मनुष्योंमे महान लोग भी सामिल है. जैसे कि, कृष्ण, महावीर, बुध्ध, असोजरथुस्ट्र , जीसस, महम्मद साहेब पेगंबर ही नहीं, …  शंकराचार्य, माध्वाचार्य, ज्ञानेश्वर … ही नहीं … कबीर, चैतन्य महाप्रभु, गुरुनानक, सहजानंद स्वामी, … ही नहीं …. लेकिन रजनीश आसाराम, राधेमा, जैसे भी सामेल है.

इन सब बावालोग अपने अपने गुटके सदस्योंकी संख्या अधिकाधिक करनेमें लगे हुए होते है.

अभी अभी केज्रीवालके एक मंत्रीने ऐसे ही एक गुटके गोपाल, जो अपने तथा कथित धर्ममें आगंतुक सदस्योंसे प्रतिज्ञा करवा रहे थे कि मैं फलां व्यक्तिको भगवान नहीं मानुंगा, मैं फलां व्यक्तिको विष्णुका अवतार नहीं मानुंगा, मैं फलां फलां फलां की पूजा नहीं करुंगा, मैं फलां पुस्तकोंकी बातोंको नहीं मानुंगा …

अरे भैयाजी, बुध्ध भगवान अपने धर्ममें आनेवालोंसे ऐसी प्रतिज्ञा करवा रहे थे क्या?

बाबा साहेबने किस आधार पर, कैसे ऐसा कौनसा संशोधन किया कि उन्होने ऐसी प्रतिज्ञाका प्रावधान  करवाया?

भगवान बुध्धने तो ऐसी प्रणाली स्थापित नहीं की थी. बुध्ध भगवान तो ऐसा नहीं मानते थे कि ऐसी प्रतिज्ञा करवानेसे ही ये सब लोग बौध्ध धर्म में प्रवेश करनेकी योग्यता प्राप्त कर सकते है?

ये बावाजी कहेते है कि “ब्राह्मणोंने हजारो सालोंसे इनको दलित रक्खा और उनका शोषण किया इस लिये दलितोंसे ऐसी प्रतिज्ञा करवाना आवश्यक है. और देखो आज इन दश हजार दलित लोगोंके, बौध्ध धर्ममें प्रवेश करनेसे, मोहन भागवत जैसे नेता घूटनों पर आ गये और बोलने लगे कि ‘हमने दलितोंके उपर अत्याचार किये है और हमें उनकी क्षमा याचना करना चाहिये, एवं ज्ञातिप्रथाको नष्ट कर देना चाहिये.’ यह है १० हजार दलितोंके एक साथ बौध्ध धर्ममें प्रवेश का असर. हम अभी १० लाख दलितोंको बौध्ध धर्ममें प्रवेश करायेंगे. तत् पश्चात दश करोड दलितोंको बौध्ध धर्ममें प्रवेश करवायेंगे. …  ” हो सकता है कि वे यह संख्या १० अरब पहूँचानेकी घषणा करें. जब राहुल गांधी ऐसी घोषणा कर सकता है कि नरेंद्र मोदीने कच्छकी ५००० करोड एकड भूमि अंबाणीको दान कर दी. कुछभी बोल दो, हमारा क्या जाता है? वचनेषु किम् दरिद्रता?

ये महानुभाव बावा-भैया ऐसा कहेते है कि “हमे हिंदुओंके आराध्योंको भूलना ही पडेगा तभी तो ये बौध्ध धर्ममें प्रवेश कर सकते है. बौध्ध धर्म एक संस्कृति है.”

इनमेंसे निष्कर्ष ये निकालते है कि ये बावाजीके हिसाबसे ;

(१) बौध्धीज़म एक कल्चर है.

(२) २२ प्रतिज्ञा बौध्धधर्ममें प्रवेश करने किये अनिवार्य है, जिनमें हिंदुओंके फलां फलांको भगवान न मानो ऐसा कहेना ऐसा कहेलवाना अनिवार्य है. यह बात, हिंदुधर्मके आराध्योंकी निंदा नहीं है,

(३) प्रतिज्ञा स्थल पर उपस्थित होना अपराध नहीं है, बीजेपीके नेताओंने बाबा साहेब के सिध्धांतो की प्रशंसा की है. यदि क्षमा मांगनी है तो नरेंद्र मोदी, नीतिन गडकरी, देवेंद्र फडनवीस … आदि को भी क्षमा मांगनी चाहिये और उनका भी त्यागपत्र मांगना चाहिये.

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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 નવા ભદ્રંભદ્રો પણ એકબીજાથી વિરુદ્ધ તો જુના ભદ્રંભદ્રનું શું થશે

ગયા પ્રકરણમાં આપણે જોયું કે વાડાઓને ધર્મ સાથે કશી લેવા દેવા નથી. જો સત્તા હોય અને/અથવા હોય, તે માટે જો કોઈ વાડામાં ફાયદો મળતો હોય તો તે લેવા માટે તે વાડામાં જવું અને તેનો  ઉપયોગ કરવો અને કર્યા કરવો. સિવાય કશું નહીં.

પણ આમાં ભદ્રંભદ્ર ક્યાં આવ્યા?

ભદ્રંભદ્રઓ વિષે ચર્ચા કરીએ તે પહેલાં આદિભદ્રંભદ્ર કોણ અને કેવા હતા તે આપણે જાણી લેવું જોઇએ. કારણ કે હાલની શિશુ, યુવા, પ્રૌઢ્ તેમજ કેટલીક વયોવૃદ્ધ વિદ્યમાન વ્યક્તિઓને ખ્યાલ ન પણ હોય કે આદિ ભદ્રંભદ્ર કોણ હતા, કેવા હતા અને ક્યારે પ્રગટ થયા હતા.

પણ ભદ્રંભદ્ર એટલે શું તે આપણે જાણી લેવું જોઇએ.

ભદ્રમ્ એટલે કલ્યાણ. ભદ્રંભદ્ર એટલે ભદ્રાણામ્ અપિ ભદ્રઃ એટલે કે મહાભદ્રમ્. જેમ દેવાનામ્ દેવઃ એટલે દેવદેવ મહાદેવ હોય છે તેમ.

ભદ્રંભદ્ર આમ તો ડૉન કિહોટેનું કટ્ટર ભારતીયત સંસ્કરણ છે.

યુરોપીય મધ્યયુગ હિરોવર્શીપ નો જમાનો હતો. જાત જાતના હિરો (નાઈટ) જન્મ લેતા. દરેકને એક વિશેષ પ્રેમિકા રહેતી અને પોતાની એ વીરતા તેની પ્રેમિકાને અર્પણ કરતો. જે વ્યક્તિ દ્વંદ્વમાં પરાજિત  થતો તેણે હિરોની પ્રેમિકા આગળ ગોઠણભેર નમન કરી પોતાની હાર કબુલ કરવી પડતી.

આપણા આદિ-ભદ્રંભદ્ર થોડા જુદા પડતા. તેઓ ચુસ્ત અને તે અંગ્રેજોના સમયના સાપેક્ષે અંધકાર યુગની પ્રણાલીઓના પાલનમાં માનનારા હતા. આ સમય આમ તો ગાંધીયુગ હતો. “સુધારા”નો પવન વા’તો  હતો. ભારતમાં એક ગ્રુપ હતું જે “સુધારા” (સામાજિક સુધારા)ઓમાં થોડું ઘણું સક્રીય હતું. ભદ્રંભદ્ર ને લાગતું હતું કે “ભારતની સનાતન સંસ્કૃતિની” વિરુદ્ધનું  આ એક કાવત્રું છે અને તેની સામે લડવું એ તેમનું પરમ કર્તવ્ય છે.

આ ભદ્રંભદ્ર પ્રગટ કેવી રીતે થયા?

જો કે વાત બહુ લાંબી છે પણ કહ્યા વગર ચાલશે નહીં.

દોલતશંકર નામે એક ભાઈ હતા. તેમને એક દિવસ સ્વપ્ન આવ્યું. તેમના સ્વપ્નમાં  શંકર ભગવાન આવ્યા. તેમણે દોલતશંકરને એવા મતલબનો પ્રશ્ન કર્યો કે હે વત્સ, તેં મારા નામને બગાડ્યું કેમ છે?  તારા નામમાં દોલત અને શંકર એમ કેમ છે? દોલત એ તો મ્લેચ્છ શ્બ્દ છે. દોલત શબ્દ સાથે મારા નામને જોડીને તેં મારા નામને અપવિત્ર કર્યું છે. તેં મહા અપરાધ કર્યો છે.

દોલત શંકરે જવાબ આપ્યો કે હે મહાદેવ, આ કર્મ વિષે તો હું તદ્દન નિર્દોષ છું. મારું નામ પાડવાનું કર્મ તો મારા પિતૃસ્વસા (ફોઈ), મારો કોઈ અપરાધ નથી…

આ ઉત્તર શંકરભગવાને   સાંભાળ્યો કે નહી, આ ઉત્તર થકી તેઓ સંતુષ્ટ થયા કે નહીં … કે જે કંઈ હોય તે, પણ દોલતશંકરે જોયું કે શંકર ભાગવાન દોલતશંકર સામે ત્રીશૂળ ઉગામવાની તૈયારી કરી રહ્યા હતા …

તે જ ક્ષણે દોલતશંકર સ્વપ્નલોક સૃષ્ટિમાં થી મૃત્યુલોકની સૃષ્ટિમાં આવી ગયા. દોલતશંકરે આ સ્વપ્નની તેમના  સાથી, અંબારામ (જેમ ડોન કીહૉટે પાસે સાન્કોપાંઝા હતો તેમ) સ્વપ્નની વાત કરી. અને પછી તેમણે ધામધુમ સાથે નામકરણ કર્યું અને સનાતન ધર્મના વિજય માટે પ્રયાણ કર્યું.

ભદ્રંભદ્ર વાંચીએ ત્યારે શું શું દૃષ્ટિગોચર થાય છે?

(૧) ભદ્રંભદ્રની શુદ્ધ અને મ્લેચ્છ/આંગ્લ ના શબ્દો રહિત સંસ્કૃતમય ગુજરાતી ભાષા.

(૨) ભદ્રંભદ્રની આત્મવંચના,

(૩) ભદ્રંભદ્રનો દંભ,

(૪) સનાતન શાસ્ત્રના કથનમાં જે કહ્યું હોય તેમાં ફેરફાર કરી ખોટું બ્લોલવું. એટલે કે જો સનાતન ધર્મમાં બાળવિવાહ પ્રચલિત હોય તો શાસ્ત્ર માં કહ્યું હોય કે અષ્ટાવર્ષે ભવેત્ ગૌરી. તો તેમાં ફેરફાર કરીને કહેવું કે અષ્ટવર્ષાંગે ભવેત્ ગૌરી. અને વર્ષાંગે એટલે માસ. એટલે કે આઠમાસે જ કન્યાના લગ્ન કરવા. તે વખતે થતા ઘોડીયા લગ્નની આ રીતે શાસ્ત્રપ્રમાણ આપવું.

(૫) અસંબદ્ધ ભાષણ કરવું

(૬) દરેક વાતમા “સુધારાવાળાઓ”નો પ્રપંચ જોવો.

આદિ-ભદ્રંભદ્ર કમસેકમ સ્વાર્થી ન હતા અને પ્રપંચો કરતા ન હતા. આદિભદ્રંભદ્ર પાસે સત્તા ન હતી.

હાલના ભદ્રંભદ્રો ક્યાં છે અને શું કરે છે?

હાલના ભદ્રંભદ્રો, કોંગીઓમાં અને તેના સાંસ્કૃતિક સાથીપક્ષોમાં ખદબદે છે. તેમને તેમના જ નહીં પણ વિદ્યમાન અંગ્રેજી (પાશ્ચાત્ય) ઇતિહાસકારોના માનસિક સંતાનોનું  પીઠબળ છે. તેમજ કેટલાક દેશી/પડોશી/વિદેશી મીડીયા કર્મીઓનો પણ સહારો છે.

આ નવ્ય ભદ્રંભદ્રોને બીજેપી/મોદી-ટીમ/આર.એસ.એસ. ના વિરોધ કરવા સિવાય બીજું બોલવાનું સુઝતું નથી.

વિદ્યમાન ભદ્રંભદ્રોની કેટલીક પ્રચલિત પરિભાષાઓઃ

લેફ્ટીસ્ટ (વામપંથી) એટલે ધર્મનિરપેક્ષ (એટલે કે બીનહિંદુઓ પ્રત્યે કોમળ અને દયાળુ, પણ હિંદુઓ પ્રત્યે વાંકદેખુ અને અસહિષ્ણુ), લોકશાહીવાદી, સમાજવાદી, ગરીબોના ઉદ્ધારમાટે સમર્પિત, નીતિમાન.

રાઈટીસ્ટ (દક્ષિણ પંથી) એટલે કોમવાદી, બીનલોકશાહીવાદી, રંગભેદમાં માનનારા, જ્ઞાતિવાદમાં માનનારા, મુડીવાદી, હિંસાને સમર્પિત, ઓળઘોળ કરીને આર.એસ.એસ. ઉપર ઠીકરુ ફોડે છે.

શિરીષ મોહનલાલ દવે

ચમત્કૃતિઃ

નવ્ય-ભદ્રંભદ્રાઃ કિં ઉચુઃ

તેષાં એકઃ ઉવાચ

“પણ આ નરેંદ્ર મોદી આટલી બધી કામકર્યાની જાહેરાતો કેમ કરે છે?

તેષાં અન્યઃ એકઃ ઉવાચ

“શિયાળામાં બાળકોને માટલાના પાણીથી નવરાવવા શું યોગ્ય છે?

તેષાં અન્યઃ એકઃ ઉવાચ

“હું જાણું છું કે હું સાચો છું અને તેઓ ખોટા છે. પણ અંદરથી હું જાણું છું કે હું ખોટો છું અને તેઓ સાચા છે પણ વાસ્તવમાં મનથી મને ખબર છે કે હું સાચો છું અને તેઓ ખોટા છે.”

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