धर्म परिवर्तन के लिये प्रतिज्ञा लेनी पडती है क्या? – ३
आम आदमी पक्ष जो पक्ष नहीं है, किंतु एक गुट है.
पक्ष एक विचार होता है, और अपने विचारको कार्य द्वारा समाजको सुखमय और समृध्धिकी ओर ले जाता है. जो झुण्ड होता है वह एक समूह होता है. आजका भारतका विपक्ष विभीन्न गुटोंका ही बना हुआ.
ये बौध्ध बावाजी भी इस बातको सामज़ नहीं पा रहे कि जहाँ असत्य भाषण हो रहा हो वहां पर यदि शक्य हो तो उसी समय उसका विरोध करना चाहिये. यदी मामला आपकी सुरक्षासे जूडा हुआ है तो बादमें उस भाषणकी निंदा करना आवश्यक है. यदि आपने ऐसा नहीं किया तो आप इसमें सहमत है ऐसा ही माना जायेगा. और वास्तवमें ऐसा ही सत्य सिध्ध हुआ. वह गुट यानी झुंडके गोपालने वही किया, जिसकी संभावना और प्रतिक्षा थी. उसने भारतके प्रधानमंत्रीको ही नहीं उनकी माताजी की भी भर्त्सना की, और गुजरातकी जनताके विषयमें बिभत्स भाषाका उपयोग किया. लेकिन हम उसके विषयमें चर्चा नहीं करेंगे.
हम इस बौध्ध बावाजी की बात करेंगे.
क्या बौध्ध धर्म क्या एक संस्कृति है?
नहीं है और नहीं हो सकती है.
सनातन धर्ममें आत्म तत्त्वको जाननेके लिये कई पंथ (विचार शाला) है. ब्राह्मण, अद्वैत, द्वैत, त्रैत, शुध्धाद्वैत, चार्वाक, बार्हस्पत्य, सांख्य, योग, पाशुपत, वैष्णव, वाम मार्ग, … ये सब वैदिक संस्कृतिकी नीपज है.
जैन, बौध्ध, सिख पंथ भी वैदिक संस्कृतिकी ही नीपज है. इन सभी पंथोंमे भी ईंद्र है, यम है, गांधर्व है, किन्नर है, यक्ष है … ह्यु एन संग जब भारत आया था उस समय साम्राट अशोकका महल अस्तित्वमें था. अशोकके महलको देख कर उसने बोला था कि “ऐसा महल कोई मनुष्य नहीं बना सकता. यह तो यक्ष, गांधर्व और किन्नर ही बना सकते है”.
क्या बौध्ध धर्ममें ज्ञातिवाद था?
अवश्य था. यदि सनातन धर्ममें जन्मजात ज्ञातिवाद था तो बौध्धमें भी जन्मजात ज्ञातिवाद था. यदि सनातन धर्ममें जन्मजात ज्ञातिवाद नहीं था तो बौध्धोंमे भी जन्मजात ज्ञातिवाद नहीं था.
वर्तमान बौध्ध नेता मानते है कि सम्राट अशोकने कलिंगको युध्धमें पराजित करनेके बाद वह हिंसासे व्यथित हुआ और वह बौध्ध बना.
वास्तवमें यह जूठ है.
ऐतिहासिक प्रमाण तो ऐसे है कि वह कलिंगके युध्धसे पहेले ही बौध्ध बना था. और कलिंगके युद्धके बाद भी उसने कई हिंसक काम किये थे.
उसने चांडालिकको पीडा दे दे कर मार डाला.
उसने एककी गलतिके कारण १८००० विधर्मीयोंकी, सामुहिक हत्या की थी,
उसने जैनोंके विरुद्ध हिंसक अभियान चलाया था. एक शिर लाओ और निश्चित धन ले जाओ.
(ज्होन स्ट्रोंग की पुस्तक “अशोककी कथाएं” पृष्ठ – १४९).
कहेना तात्पर्य यह है कि बौध्ध धर्मका अंगिकार करनेसे मनुष्यकी संस्कृतिमें परिवर्तन नहीं आ जाता.
अशोकके कारण और उसके पश्चात् बौध्ध धर्मका प्रसरण अधिकाधिक हुआ. पूरे जंबुद्विपमें वह फैल गया था. और ऐसी स्थिति ८००/९०० वर्ष तक रही.
अब प्रवर्तमान आंबेडकरके बौध्ध अनुयायी मानते है कि;
“बौध्ध धर्म मानवमात्रका ही नहीं पशुमात्रका हित चाहने वाला है और उसमें ज्ञातिवाद नहीं हो सकता.”
“हम दलितों पर ५००० सालसे अत्याचार हो रहा है”
यह बात तो ‘वदतः व्याघात्’ इससे भी सिध्ध होता है कि बौध्ध धर्ममें भी जन्मजात ज्ञातिवाद था.
इ.सा. पूर्व ३०० से लेकर इ.सा ७०० तक यदि बौध्ध धर्म भारतमें प्रधान धर्म था तो उस अंतरालमें तो ज्ञाति प्रथा नष्ट हो गई ही होगी. तो इ.सा. ७००में कैसे उन दलितोंको ढूंढ निकाला जो इ.सा. पूर्व ३००में जन्मजात दलित ज्ञातिके थे.
८००/९०० सालका अंतराल तो क्या, इस वर्तमान सुलिखित कालमें भी अधिक से अधिक ८ पीढी तक पूर्वजके नाम बडी मुश्किलसे याद होता है. जैसे कि जे.एल. नहेरुके चौथे पांचवे पूर्वज कौन थे वह भी किसीको मालुम नहीं. इतिहासकार भी नहीं बता सकते है. तो इशा ७००के आसपास ऐसा कौनसा अभियान चलवाया गया कि बौध्धोमेंसे दलितोंको ढूंढ निकाला गया? और उन सबको कैसे उनकी ज्ञातिमें स्थापित किया गया? यह केवल असंभव है.
इससे यही सिध्ध होता है कि बौध्ध धर्ममें भी ज्ञाति प्रथा थी और दलितों पर अत्याचार चालु थे यदि पहेले भी अत्याचार होते थे तो.
लेकिन सनातन धर्मवाले इतिहासकार मानते है कि अस्पृष्यताका आरंभ इस्लामके आने से हुआ और उच-नीच वाली ज्ञाति-प्रथा ब्रीटीश शासनमें शुरु हुई. इशा १८वी शताब्दी में भी भारतमें कई पाठशालाएं पूर्वभारतमें भी विद्यमान थी जो पूरे युरोपकी पाठशालाएंसे भी संख्यामें अधिक थी. लेकिन जब भारतके अर्थतंत्रको नष्ट किया गया तो कारीगर लोग बेकार हो गये. उनका पढना छूट गया और विद्यासंगी, क्षत्रीय एवं वेपारी ही बच गये.
पाश्चात्य इतिहास कारोंने फरेबी इतिहास पढाके हिंदुओंको विभाजित किया. नहेरुवीयन कोंगीयोंने ब्रीटीशों द्वारा लिखा गया इतिहास मान्य रक्खा, इतना ही नहीं उसी फरेबी विचार धारा “विभाजित करो और शासन करो” को आगे बढाया. भारतके कई विद्वानोंने इस पूरा प्रपंचका,पर्दाफास किया है और वह ऑन – लाईन पर उपलब्ध है.
महापुरुष भी गलती करते है. और उन्होंने ऐसी गलती. लेकिन ऐसी एकमात्र गलतीसे उनके पूरे योगदानको धराशायी नहीं कर सकते और उनके नामको लांछित नहीं कर सकते. उनके समग्र जीवनके योगदान को देखकर उनका मूल्यांकन करना चाहिये.
यदि बाबा साहेब आंबेडकरने “गीता जलाने” को कहा था तो वह उनकी एक गलती थी.
गीता (भगवत् गीता), मे एक जगह पर लिखा है,
चातुर्वणम् मया सॄष्टम् गुणकर्म विभागसः
चातुर्वर्ण मैंने (मनुष्यकी) गुण कर्म के आधार पर बनाया है.
यदि व्यासजी (कृष्णके मुखसे) चाहते तो इन शब्दोंका प्रयोग कर सकते थे कि
चातुर्वर्णम् मया सृष्टम् जन्म – लग्न संबंधनात्
किंतु व्यासजीने ऐसा लिखा नहीं. क्यूँकी ऐसी प्रणाली नहीं थी. सचमें ही ज्ञाति परिवर्तन शील थी. इस बातके अनेक उदाहरण थे.
लेकिन बाबा साहेबने “चातुर्वर्णम् मया सृष्टम्”में मया का अर्थ “ईश्वर” ले लिया. क्योंकि कृष्ण तो ईश्वर थे.
किंतु ईश्वर कौन है?
आदित्यानां अहं विष्णु, प्रकृति भी तो ईश्वर है. सब कुछ भी तो ईश्वर है.
वायुः यमः अग्निः वरुणाः, शशांक, प्रजापतिः त्वं, प्रपितामहः च, (गीता-अध्याय – ११, ऋचा-३१).
बाबा साहेबने ईश्वरकी परिभाषा, उनको जो पाश्चात्य प्रणाली के अनुसार जो अर्थघटन पढाया गया था उसको ही लिया.
गलत अर्थघटन करो, और फिर वह गलत अर्थघटनको सही मानो (और वह जो सही है उसको गलत मानो और मनवाओ या उसके उपर बिलकुल मौन रहो), और सामनेवाले को अपराधी मानो.
ऐसा क्य़ूँ भला?
अरे भाई यही तो हमारा मकसद है. यही तो हमने मध्ययुगी पाश्चात्य संस्कृतिसे सिखा है. दंभ ऐसा करो कि दुश्मन देखता ही रह जाय.
हम आपसे भीन्न है,
हमें भारतकी संस्कृति उपर कोई गर्व नहीं,
क्योंकि आप हम पर ५०००+ वर्षोंसे अत्याचार करते आये है,
आपने हमें दास बनाके रक्खा था, अभी भी आप हम पर अत्याचार कर रहे है,
आपने हमारे बौध्ध धर्मको और उसके ८०००० मंदिरोंको ध्वस्त कर दिया और उसके उपर आपने अपने मंदिर बना दिये.
चाहे हम पर मुसलमानोंने अत्याचार किये हो और चाहे आपके नरेंद्र मोदीने हमें ३७० एवं ३५ए को रद करके संविधानक मानव अधिकार दिलाये हो, हम तो कृतघ्न ही रहेंगे.
हमारे लिये तुम्हारा विपक्ष हमारा मित्र है. चाहे परिणाम कुछ भी हो. चाहे भारतका भावी अंधकारमय बन जाय. हमें क्या फर्क पडता है. हम तो आपके पूर्वजोंने ५०००+ अत्याचार किये है वही याद रक्खेंगे. आप नष्ट हो जाय वही हम चाह्ते है, चाहे हमारा कुछ भी हो जाय. हमें मंजुर है.
जय बुध्ध, जय संविधान, जय कर्ण, जय शंबुक, जय रावण, जय एकलव्य, जय भीम, जय नकुल, जय सहदेव, जय अशोक,
शिरीष मोहनलाल दवे