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Archive for January, 2021

माननीय सुधीर चौधरीजी,

आप जब भी महात्मा गांधीकी कटु आलोचना करें तो उसके पहेले उनकी पुस्तकोंका पूर्व वाचन किया करो. ऐसा आप करोगे तो अच्छा रहेगा. आप आपके कथन सुचारु रुपसे कर पाओगे. आप के कथन विश्वसनीय बनेंगे.

महात्मा गांधीका जीवन एक खुली पुस्तक है. उन्होंने कभी कुछ भी गोपित रखा नहीं है. आप उनके अभिप्राय, आलेख, विवरण … सबकुछ “ऑन-लाईन” भी पढ सकते है. “कलेक्टेड वर्कस ऑफ  महात्मा गांधी” मे उनकी जीवनीसे ले कर मृत्यु तक उन्होंने जो कहा, लिखा, समज़ाया, किया … वे सब “कलेक्टेड वर्कस ऑफ  महात्मा गांधी” की साईट पर उपलब्ध है. गांधीजी एक विश्ववंदनीय महापुरुष थे. महात्मा गांधीकी जीवनीसे विश्वके अनेक महापुरुषोंने, जैसे कि मार्टीन कींग जुनीयर, बराक ओबामा, औंग सान सू की, नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, झोन लीनोन, आल्बर्ट आइन्स्टान, … प्रेरणा ली. संभव है आप महात्मा गांधीको आपके लिये प्रेरणादायी न मानते हो. यह आपका हक्क है. किन्तु कमसे कम गांधीके बारेमें कष्ट दायक और असत्य बातें न करते तो वह शोभनीय रहेता.

सुभाष चंद्र बोज़ की प्रशंसा करते करते, आपने  जवाहरलाल नहेरुकी गलतीयोंका प्रसारण तो किया तब तक तो आपकी बात ठीक है. किन्तु तत्‌ पश्चात्‌ “नहेरुको प्रधान मंत्री पद पर लानेवाले महात्मा गांधी थे” इस लिये गांधी पर भी आपने “असफलताओंका” ठीकरा फोडा, यह निस्तारण सही नहीं है.

गठ बंधन

आपने “गठ-बंधन” शब्दका प्रयोग “नहेरु-गांधी” के बारेमें किया है. आजका “गठ-बंधन” और “नहेरु-गांधी”का गठ-बंधन एक समानार्थी शब्दोंके रुपमें किया है. तात्पर्य कि उदाहरणके तौर पर “शिवसेना, कोंगी और एन.सी.पी.”का और ऐसे कइ गठबंधन है जो सत्ताके लिये है, उसकी तुलना करने के लिये “नहेरु-गांधी”का गठ-बंधन भी सत्ता प्राप्तिके लिये था.

गुट और गठ-बंधनका भेद

प्रिय चौधरीजी, आप सर्व प्रथम गुट और गठ-बंधनका भेद समज़ लें.

गुट एक ही पक्षमें होते है. और वह अपने नेताकी ताकतके लिये होता है. जैसे कि गुजरात  बीजेपीमें, आनंदी बहेनका गुट था, अमित शाहका गुट था, केशुभाई पटेलका गुट था, शंकर सिंह वाघेलाका गुट था … प्रवर्तमान कोंगीमें (कोंग्रेसमे) भी ऐसे गुट होते है. गुट वैचारिक होते है और नहीं भी होते है. जैसे कि कोंग्रेसमें गोपालकृष्ण गोखलेका और लोकमान्य तीळकका गुट था वह वैचारिक गुट था. गांधीजीके आनेके बाद ये दोनों गुट मिल गये थे.

१९३३के बाद गांधीजी

१९३३के बाद गांधीजी, कोंग्रेसके सभ्य पदसे भी निकल गये थे. ताकि वे, अपने जो भी अभिप्राय प्रकट करें, उसका अन्योंके उपर  गुटीय प्रभाव न पडें. कोंग्रेसका हर सदस्य, बिना अवांच्छनीय प्रभाव, अपना मंतव्य व्यक्त करें. क्यों कि गांधीजी कोंग्रेसके सदस्य तक नहीं थे, हर सदस्य निर्भिकतासे अपना मत प्रदर्शित करनेको स्वतंत्र था.

कोंग्रेसने प्रस्तावद्वारा अपना मार्ग चूना था कि कोंग्रेस अपना आंदोलन अहिंसक रखेगा. सुभाष चंद्र बोझके उपर उनकी गतिविधियोंके कारण  विवादोंमें रहेते थे. उनका अहिंसाके प्रति कितना आत्मविश्वास है उसके प्रति प्रश्न चिन्ह था.

कोंग्रेसका प्रमुखपद

१९३९के लिये सुभाष चंद्र बोझने कोंग्रेसके प्रमुखपदके चूनावमें अपना आवेदन रक्खा. उपरोक्त कारणोंकी वजहसे गांधीका सूचन था कि सुभाष के बदले पट्टाभी सितारामय्या, कोंग्रेसके प्रमुख  बनें. पट्टाभी सितारामय्याके पहेले गांधीजीने नहेरुके नामका सूचन किया था. लेकिन नहेरु अपनी हार सूनिश्चित लगनेसे तयार नहीं हुए थे. स्पर्धा सुभाष और पट्टाभी सितारामैय्याके बीचमें हुई. पट्टाभी सितारमय्याके १३७७ मतके सामने सुभाषचंद्र बोझ को १५८० मत मिले और सुभाष चंद्र बोझ कोंग्रेसके प्रमुख बने. गांधीजीने सुभाष चंद्र बोझको जितकी बधाई दी. और कहा कि वे अपनी केन्द्रीय कारोबारी के सदस्य नियुक्त करें. कोंग्रेसकी केन्द्रीय कारोबारीके सभी सदस्योंने त्यागपत्र दे दिया ताकि सुभाष चंद्र बोझ अपनी मनपसंद सदस्योंकी केन्द्रीय कारोबारी बना सकें. सुभाष चंद्र बोझको लगा कि यदि वे ऐसा करेंगे तो सत्तालालची माने जाएंगे. इस लिये उन्होंने स्वयं, त्यागपत्र दे दिया. सुभाषने कोंग्रेससे निकलके फोरवर्ड ब्लोक नामके पक्षका गठन किया. सुभाष चंद्र बोझने, जो इन्दिरा गांधीने  १९६९में किया वैसा नहीं किया.

(उपरोक्त घटनासे कुछ कुछ मिलती घटना १९६९में कोंग्रेसमें हुई थी. जिसमें इन्दिरा गांधीको, कोंग्रेसकी केन्द्रीय कारोबारीने,  कोंग्रेससे निकाल देनेके बाद इन्दिराने असली एवं फर्जी सदस्योंसे बनी, कोंग्रेसकी महासभा बुलायी.  अपने गुटके जगजीवन रामको प्रमुख बनाके, संसदमें साम्यवादीयोंका सहारा लेके प्रधानमंत्री बनी रहीं. १९७१में फिरसे संसदका  चूनाव करवाके बहुमत से जीत गईं.)

इन्दिरा गांधी तो  साम दाम भेद और दंड द्वारा अपने नंबर इकठ्ठा करके काम चला लेती थीं. लेकिन उन्नीसो के तीसरे और चौथे दशकोंमें ऐसा नहीं होता था. उस समय वैचारिक विभाजनसे पक्ष बनते थे. वे पक्ष थे. न तो वे गुट थे न तो वे गठजोड थे.

“करेंगे या मरेंगे”का सूत्र

माननीय चौधरीजी, आप कहेते है कि “करेंगे या मरेंगे”का सूत्र गांधीजीने सुभाष चंद्रसे चूरा लिया. यह एक हास्यास्पद बात है. “स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध हक्क है” यह भी तो हिन्दुस्तानके सभी लोग मानते थे. लेकिन यह देनेवाले कौन थे? लोकमान्य मान्य टीळक थे. स्वराज्य कैसे प्राप्त करना उसके तरिके भीन्न भीन्न हो सकते है. इसमें चूराने कि बात कैसे आ गयी?

“भारत छोडो” आंदोलनको सुभाष चंद्र बोझके फोरवर्ड ब्लोक पक्षने भी सपोर्ट किया था. सुभाष चंद्र बोझका जो फोरवर्ड ब्लोक पक्ष था उसने तय किया था कि वह उग्रवादसे अपनी लडाई लडेगा. सूत्र “करेंगे या मरेंगे” उसका अर्थ था स्वतंत्रता का आंदोलन करते करते मर भी जायेंगे, लेकिन उग्रवादमें हिंसा अवैध नहीं है. गांधीजीका “भारत छोडो” आंदोलनका भी   सूत्र था करेंगे या मरेंगे. इस सूत्रमें “मरेंगे”के अंतर्गत “मारेंगे” अभिप्रेत नहीं है. इसमें चोरीकी कोई बात ही नहीं. एक सूत्रका आविष्कार कोई भी कर सकता है और उपयोग करनेके उपर कोई “रजीस्ट्रेशन” नहीं होता है. सुभाष चंद्र बोझने भी कभी रोयल्टी मांगी नहीं थी. और उनके फोरवर्ड ब्लोक पक्षने भी “भारत छोडो”में सहयोग दिया था. साम्यवादीयोंने सहयोग नहीं दिया था.

उग्रवादी  और अहिंसावादी, आंदोलनकारी

आपको ज्ञात होना चाहिये कि उग्रवादी आंदोलनकारी और अहिंसावादी आंदोलनकारीयोंके बीच एक समज़ौता था कि, एक दुसरेके बीचमें कोई विवाद न हो. अवरोध न हो. दोनों जुथ एक दुसरेके प्रति आदरपूर्ण व्यवहार करते थे. उन दोनोंके बीचमें न तो कोई अवरोध था और न तो कोई कटूता  थी.

भगतसिंह का केस किसने लडा था? वह केस असफ अलीने लडा था जो एक कोंग्रेसी थे. भगत सिंहको जब फांसीकी सज़ा हुई तो गांधीजीने एक पत्र वाईसरोयको लिखा था कि, अंग्रेज सरकार यदि भगत सिंहको फांसी नहीं देगी तो उसका अच्छा असर ही पडेगा और जनतामें सरकारके प्रति मान बढेगा.

आपको शायद ज्ञात नहीं होगा. सुभाष चंद्र बोझने जब फोरवर्ड ब्लोक पक्षकी स्थापना की, और जब उग्रवादी प्रवृत्तियां शुरु की, तब कई कोंग्रेसी नेता भी उनमे मदद करते थे. हमारे अहमदाबादके एक समयके नगरपति कृष्णवदन जोषी भी बंब बनानेकी प्रवृत्तिमें सक्रीय थे. नहेरुकी बात छोडो. नहेरुका तो अपना एजन्डा था. जनताको उग्रवादी और अहिंसावादी दोनों आंदोलनकारीयोंके प्रति समान आदर था.

आमजनता भी आंदोलनका एक हिस्सा

आज आप जैसे कई सारे विश्लेषक अपने मनगढंत धारणाओंके आधार पर केवल अहिंसावादी आंदोलनकारीयोंका ही नहीं लेकिन उग्रवादी आंदोलनकारी नेताओंका भी परोक्ष रीतसे अपमान कर रहे है. गांधीजीके आनेसे पहेले कोंग्रेस एक भद्रलोगोंका (व्हाईट कोलर) समूह था. गांधीजीने आम जनताके लिये कोंग्रेसके द्वार खोलदिये थी. गांधीजीने कोंग्रेसको गांव गांवमें भीतरी हिस्सों तक व्यापक बना दिया था. एक छोटे गांवमें भी आपको कमसे कम एक कोंग्रेसी कार्यकर मिलेगा. ग्राम, कस्बोंमें और नगरमें उनकी सेवाकी और जनजागृतिकी प्रवृत्तियां चलती रहेती थी. एक नोटीस बोर्ड रहेता था उसपर जनजागृतिके समाचार लिखे जाते थे. गांवमें  प्रभात यात्राएं होती थीं. जनमान्य नेताओंका समय समय पर व्याख्यान रक्खा जाता था. मतलब कि आमजनताको भी लगता था कि, वे भी आंदोलनका एक हिस्सा है. जन आंदोलन की व्यापकतासे ही ब्रीटीशको देश छोडना पडा था. जब आमजनता स्वतंत्रताके लिये सज्ज हो जाती है तब किसीभी शासकको जाना ही पडता है. चाहे वह राजाका शासन हो या सरमुखत्यारका शासन हो, उसको जाना ही पडता है.

जनजागृति कैसे लाना यह बात नेतागण पर निर्भर है. सुधीरजी, आप खामोंखां नेताओंमे भेद कर रहे हो. आज़ादीके संग्राममें हर नेता विचारधारामें इमानदार था. चाहे नहेरु जैसे नेताओंका अंतिम ध्येय कुछ भी हो. 

यह स्वतंत्रता नहीं

भारतको जब स्वतंत्रता मिली वह दिन था १५वीं अगस्त १९४७. गांधीजीने कहा था यह स्वतंत्रता नहीं है. गांधीजीने किसको क्या करना है (जैसे कि “गवर्नरोंकी कार्यशैली कैसी होगी”), और स्वतंत्र भारतका समाज, शिक्षा, उद्योग और सियासत कैसी होगी उस विषय पर कई पुस्तकें लिखी है. आप कमसे कम  “मेरे स्वप्नका भारत” पुस्तक का वाचन करें. पढा है तो भी एक बार फिर पढिये.

आप कहेते है कि गांधीजीने नहेरुको आगे करके १९४६में कोंग्रेसका प्रमुख बनाके बडी गलती की.

गांधीजीसे अधिक नहेरुको कोई जानता नहीं था

नहेरुने कोंग्रेसके अंदर ही एक समाजवादी ग्रुप बनाया था. १९४६में नहेरु जनतामें प्रिय थे.  कोंग्रेसके संगठनमें नहेरु इतने सशक्त नहीं थे. इसीलिये तो किसी भी प्रान्तीय कारोबारीने नहेरुके नामका अनुरोध नहीं दिया था. सुभाषके न होनेसे नहेरु जनतामें प्रिय थे.  खास करके देशके युवावर्ग के आयकोन थे. उस जमानेमें कुछ युवाओमें समाजवादी होनेका फैशन था.

गांधीके पास जब नहेरु आये तो गांधीने उनको बताया कि कोंग्रेस प्रमुखपदके लिये किसीभी प्रांतीय समितिने उनके नामका अनुरोध किया नहीं है. गांधीजीके इस कथनमें एक संदेश था कि आप अपना आवेदन वापस लेलो. लेकिन नहेरु अन्यमनस्क हो के वहांसे चल दिये. गांधीजीने समज़ लिया कि अब नहेरु कोई पराक्रम करने वाले है. नहेरुका पराक्रम केवल एक ही हो सकता था कि वह कोंग्रेसका विभाजन करें.

गांधीजीने सरदार पटेलसे चर्चा की और सरदार पटेलसे वचन ले लिया कि सरदार पटेल कोंग्रेसको तूटने नहीं देंगे. कोंग्रेसका न तूटना उस समय अत्यंत आवश्यक था. क्यों कि उस समय ब्रीटीश सरकार और जीन्ना कृतनिश्चयी थे कि भारतके टूकडे हो. कितने टूकडे हो, वह कोंग्रेसकी शक्ति पर निर्भर था. नहेरुको कोंग्रेसके नंबरवन पदके सिवा कुछ भी मंजूर नहीं था. और इतना ही नहीं, नहेरु, जीन्नाको अपनी सरकारमें एक प्युनका दरज्जा देनेके लिये भी तयार नहीं थे. कोंग्रेसको कई फ्रन्ट पर लडना था. मुस्लिम फ्रन्ट, दलित फ्रन्ट, खालिस्तानी फ्रन्ट (जी हाँ, शिखोंने १८५७के स्वातंत्र्य संग्राममें अंग्रेजोंका साथ दिया था, इसलिये ब्रीटीश सरकारने सेनामें उनके लिये खास प्रबंध किया था. और सिखोंमें वे हिन्दुओंसे भीन्न है ऐसी भावना पैदा की थी.), द्रविडीस्तान फ्रन्ट, मध्यम कदके और बडे कदके  देशी राज्योंका फ्रन्ट, इशान भारत फ्रन्ट … आदि कई फ्रन्ट थे. यदि कोंग्रेस तूट जाती तो, एक बडा फ्रंट नहेरु-फ्रन्ट (हिन्दी-भाषी) बढ जाता.

नहेरु, इन्दिराके बाप थे

आप श्रीमान कहेते हैं कि “स्वतंत्रताके दिवसके पश्चात्‌ गांधीजी ने नहेरुको समज़ाया क्यूँ नहीं? और वे मौन क्यूँ रहे? जब देशको उसके मौनकी आवश्यकता नहीं थी, तो वे मौन क्यूँ रहे?” शायद आप भूल जाते है कि नहेरु, इन्दिराके बाप थे.

आपके हिसाबसे महात्मा गांधी, जानबुज़ कर मौन रहे … गांधीको जब बोलना था तब गांधी बोले नहीं. चौधरीजी, आपको ज्ञात नहीं है. गांधीजी की जीवनी एक खुली पुस्तक है. गांधीजी स्वतंत्रता मिलनेके समय नोआखलीमें थे. वहां के दंगे समाप्त करके वे दिल्लीके दंगे समाप्त करने आये थे. दिल्लीमें गांधी तीन मास रहे और उसी अंतर्गत उनका खून हुआ. उनकी हर दिनकी क्रिया और कथन “दिल्लीमें गांधी” पुस्तकमें  वर्णित है. यह पुस्तक उनकी अंतेवासी मनुबेन गांधीने लिखी है. नवजीवन प्रकाशन अहमदाबाद-३८०००९.

कृपया उसे आप पढें. जो भी लोग यह मानते है कि गांधीजीने मुस्लिमोंका ही पक्ष लिया, उनका भंडा फूट जायेगा. नहेरुको निरस्त्र करनेके लिये उन्होंने कोंग्रेसका विलय करना कहा था. कोंग्रेसका विलय ही नहेरुको दूर करनेका एकमात्र विकल्प था. कोंग्रेसके विलयसे और नये पक्षोंके गठनसे और १९५२के चूनावके परिणामोंसे पता चल जाता कि किस पक्ष कितना सशक्त है.. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. और गांधीकी मृत्यु हो गयी. सरदार पटेल भी चल बसे. कोंग्रेसका संगठन जो भारतमें दूरदूर तक गाँव गाँव तक फैला हुआ था, उस  अतिविशाळ संगठनका लाभ नहेरुको मिल गया.

लोक सेवा संघ कैसा होगा उसके उपर भी गांधीजीने पुस्तक भी लिखी थी. गांधीजी दिल्ली जब शांत हो जाय तब, उसके पश्चात्‌ पाकिस्तान भी जानेवाले थे. ता कि वे पाकिस्तान स्थित हिन्दु और मुस्लिमोंको समज़ा सके कि भारतका विभाजन सही कदम नहीं है. जो भी निराश्रित पाकिस्तानसे भारत आये वे उस समय ऐसा ही समज़ते थे कि यह विभाजन एक अस्थायी परिस्थिति है, और कुछ समयके बाद सबकुछ पूर्ववत हो जायेगा. गांधीजीकी मृत्युके बाद यह आशा धूंधली हो गयी और सरदार पटेलकी मृत्युके बाद नहेरु सर्वेसर्वा बन गये. कृपलानी, राजगोपालाचारी, जयप्रकाश, लोहिया, भाईलालभाई पटेल, एच एम पटेल  … आदि को कोंग्रेससे निकल जाना पडा. गांधी यदि जीवित रहेते तो, और यदि नहेरुकी सरकार बनती तो, नहेरुके नेतृत्व वाली कोंग्रेस गांधीजीको भी गोली मार देती. इन्दिरा गांधीने जयप्रकाश नारायण जो गांधीजीके अंतेवासी थे उनका क्या हाल किया था वह खचीत आपको ज्ञात होगा.

आपका हितैषी,

शिरीष दवे

गांधीजीने कोंग्रेसको आदेश दिया थी केबीनेट मीशनका बहिष्कार करो. क्यूँ कि  केबीनेट मीशनकी पूर्व-शर्त थी कि उसको अल्पमत जनताका खयाल रखना है, देशी राज्योंकी ईच्छाओंका खयाल रखना है और उसके आधार  पर हिन्दका विभाजन करना है. लेकिन कोंग्रेसके नेताओंने  गांधीजीका आदेश  नहीं माना. तब गांधीजीका उच्चारण था कि यदि इस समय  “मेरा सुभाष”  होता तो मुज़े यह कहेना भी न पडता कि केबीनेट मीशनका बहिष्कार करो. उसने अपने आप  केबीनेट मीशनका बहिष्कार किया होता.

गांधीजीने कहा “जो समिति, हिंदका विभाजन करनेके लिये प्रतिबद्ध है, मैं  उसमें हिस्सेदार बन नहीं सकता. महात्मा गांधी अपने प्रतिनिधित्त्वसे  अलग हो गये थे.

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वे जगतके तात है तो हम जगतके तातके तात है

वे जगतके तात है तो हम जगतके तातके तात है

जगतके पितामहका एवं मातामहका प्रार्थना पत्र

माननीय, प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी तथा माननीय गृहमंत्री अमित शाह,

विषयः ग्राहक सुरक्षा नियम रद कारवाने के लिये आंदोलन करने के लिये प्रार्थना पत्र एवं पूर्व-सूचना.

अनुसंधानः उपभोक्ता संरक्षण नियम, अधिनियम

हम ग्राहक लोग, सरकार द्वारा   पारित ग्राहक सुरक्षा नियम और अधिनियम जो भी हो वो, उसके विरुद्ध आंदोलन करने जा रहे है.

(१) प्रदर्शन स्थलः

आप, हमे प्रदर्शनके लिये दिल्लीमें योग्य स्थल सूचित करें. यह स्थालका क्षेत्रफल १०००० चोरस किलोमीटर का होना अनिवार्य है.

यदि आपके पास इतना विशाल स्थल नहीं है तो यह आपकी समस्या है, हमारी समस्या नहीं. यदि आप हमें कमसे कम १०००० चोरस किलोमीटर का विस्तारवाला स्थल नहीं दोगे तो हम दिल्लीमें बलपूर्वक प्रवेश करेंगे और संसद भवनकी कार्यवाहीको चलने नहीं देंगे.

आप हमे १०००० चोरस किलोमीटर की औचित्य क्या है, ऐसे प्रश्न न करें, तो आपके लिये यह शोभनीय रहेगा.

आपको अवश्य ज्ञात होगा कि जब देशमें १९ कोटी कृषक (किसान) है तो किसानोंके अतिरिक्त जो बचे वे सर्व उपभोक्ता है. तात्पर्य यह है कि यदि हम दिल्लीमें एक लाख चोरस किलोमीटर जगह मांगे तो भी कम है.

आप कहोगे कि पूरे दिल्लीका विस्तार ही १५०० चोरस कीलोमीटर है और इसमें मकान, संकुल, कार्यालय भी संमिलित है.  तो हमें १०००० चोरस किलोमीटरका विस्तार कैसे दे पाओगे?

हमने आपको पहेसे ही कह दिया है कि यह आपकी समस्या है. वैसे तो हमें नहीं कहेना चाहिये कि रा.गा.जी (राहुल गांधीजी)का कथन था कि,आपने अंबाणीको को कच्छमें ५००० करोड एकड भूमि दान कर दी है. वैसे तो समग्र पृथ्वि पर ही ३८०० करोड एकड से कम भूमि है. यदि आप ५००० करोड एकड भूमिदान अंबाणीको कर सकते है तो हमें १०००० चोरस किलोमीटर भूमि अस्थायी उपयोगके लिये क्यूँ नहीं दे सकते?

हम आपसे अपेक्षा रखते है कि आप हमें तर्कशुद्धतासे चर्चा करना नहीं कहोगे. हम तर्कमें मानते नहीं है. आपने जब हमारी संतान यानी कि किसान-प्रतिनिधियोंसे ऐसी ही सहानुभुति रक्खी है तो हमसे भी वैसा ही व्यवहार करोगे. 

(२) प्रदर्शन और विरोध करना हमारा अधिकारः

यदि आपकी सरकार, हमें आंदोलनके लिये उपरोक्त विस्तारवाला स्थल देनेमें विफल रही तो, हम, दिल्लीमें आनेवाले भूमिगत यातायात मार्ग ही नहीं, रेल और हवाई मार्ग सहित सभी मार्ग बंद कर देंगे. और इन मार्गों पर, हम अपना अस्थायी निवास बनाके, सरकारका  विरोध करेंगे. हम बडी सज्जताके साथ आंदोलन करने वाले है. हमें ज्ञात है कि हमारा आंदोलन सुदीर्घकाल चलनेवाला है.

(३) हमारी मांग है कि सरकार उपभोक्ता कानून रद करें. हम चर्चाके लिये सज्ज है किन्तु जब तक उपभोक्ता कानून रद नहीं होगा तब तक हमारा आंदोलन प्रवर्तमान रहेगा.

(४) जनतंत्रमें विरोध आवश्यक है इसमें वैश्विक संमति है. आपने और आपकी सरकारके आधिकारिक पदस्थ वाले विद्वानोंने भी इस बिन्दुका स्विकार किया है. हम अपना विरोध अहिसक रुपमें करेंगे. हम संविधानकी पुस्तक हाथमें रख कर विरोध करेंगे. हम राष्ट्रध्वज हाथमें लेके विरोध करेंगे. हम “भारतवर्ष अमर रहो” लिखित विशाल पताका दिखाके प्रदर्शन करेंगे. हम किसीके उपर भी, प्रहार नहीं करेंगे. शस्त्र प्रहार या मुष्टी प्रहार या दंड-प्रहार भी नहीं करेंगे. हम देश-विरोधी सूत्रोच्चार भी नहीं करेंगे.

(५) हो सकता है कि हम लोगोंके अंदर, कुछ देश विरोधी व्यक्ति और हिंसक व्यक्ति घुस जाय. हम इस शक्यताको नकार नहीं सकते. कृषि-कानूनके विरोध करनेवालोंके कुछ दलोंमें “मोदी तू मर जा…. इन्दिराको हमने ठोक दिया तो मोदीको भी ठोक देंगे … खालिस्तान जिंदाबाद … “ ऐसे सूत्रोच्चार हो सकते है तो हमारी तो दिल्ली जानेवाले हर मार्गों पर हजारों लाखोंमें विरोधी लोग होगे. उनमें ऐसा होना सहज है.

(६) जैसे आपने कृषि-कानून के (५) में दर्शित देशविरोधीयोंके आचरणकी उपेक्षा (नजर अंदाज किया है) की है, वैसी ही उपेक्षा आप, हममें स्थित उपद्रवी तत्त्वोंकी करें.

(७) “अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रता” और “कानूनका विरोध करना”   जनतंत्रका एक आवश्यक अंग है. और हम जनतंत्रवादी होनेके कारण ये सब कर रहे है. और उसके संबंधित प्रबंधन व्यवस्था, यानी कि, बकरा, बैल, भैंस, सुवर, चिकन, मटन, गोस्त, अन्न, फल, कन्द, बिर्यानी, पीत्झा, बर्गर, व्हिस्की, रम, शेम्पेईन, वोडका, श्वेत-व्हाईन, रेड-व्हाईन, चालु-व्हाईन, जीन, टोम कोल्लिन्स, ब्रान्डी, टेलीक्वीला, मार्गारीटा, (ड्रग्ज़की बात नहीं करेंगे किन्तु व्यवस्था अवश्य करेंगे), भीन्न भीन्न प्रकारके व्हीस्कीयोंको उग्र करनेके लिये अश्वका मूत्र  … आदिका संचय करना, यातायातके मार्गों पर इंधन गेस आधारित, लकडी आधारित चूल्हा जलाना, विशाल पात्रोंमें भोजन पकाना, आंदोलनकारीयों के लिये भोजन-पात्रों की व्यवस्था करना, उनकी सफाई करना, पानीकी व्यवस्था करना, मालवाहकोंमें माल लाना, आंदोलनकारीयोंके लिये सोने की व्यवस्था करना, जब सूत्रोच्चार करनेसे उनके मूखारविंद श्रमित हो जाय तो आराम करनेके लिये आराम-कुर्सीयां और सोफा की व्यवस्था करना, ज्ञान ईच्छुक आंदोलनकारीयोंके लिये और ज्ञानी आंदोलनकारीयोंके लिये अधिक ज्ञान प्राप्त करनेके लिये पुस्तकालयोंकी व्यवस्था करना,  शित ऋतुके कारण, आंदोलनकारी लोग सुविधापूर्वक  आंदोलन कर सके उनके लिये उष्मावर्धक यंत्रोकी व्यवस्था करना, और उष्मऋतुमें शित-हवा उत्सर्जित करनेवाले यंत्रोंकी व्यवस्था करना, सभी यंत्रोंको स्वस्थ रखनेके लिये तजज्ञोंको नियुक्ति करना … ये सब तो हमने आपको संक्षिप्तमें बताया. हमारी सूची तो अति अधिक सुदीर्घ (बहुत लंबी) है. वह तो हम हमारी गोदीमें बैठनेवाले समाचार मध्यमोंको, हमारी गोदीमें बैठनेवाले मूर्धन्योंको, हमारी गोदीमें बैठनेवाले विश्लेषकोंको, हमारी गोदीमें बैठनेवाले कोलमीस्टोंको, हमारी गोदीमें बैठनेवाले संवादकोंको, बतायेंगे …         

(८) हम आपके साथ किसीभी चर्चाके विषयमें किसीभी प्रकारकी सूची नहीं देंगे. आप यदि हमें आपकी सूची दोगे तो हम उसका उत्तर नहीं देंगे. हाँ हम चर्चा अवश्य करेंगे. हम चर्चा करनेसे दूर भागते नहीं हैं. हम चर्चा तो करेंगे ही किन्तु आंदोलन चलता रहेगा.

(९) हम तो जगतके तातके तात है.

यानी कि हम किसानके बाप है. यदि किसान जगतका तात है तो हम इस तातका भी बाप है. मान लो कि किसानने हमसे अन्न नहीं लिया तो क्या हुआ?

क्या अन्न ही सर्वस्व है?

जब कृषिका आविष्कार नहीं हुआ था तो क्या मनुष्य जीवित नहीं रहेता था?

क्या किसानको वस्त्र नहीं चाहिये?

क्या किसान नंगा रहेता है?

वैसे तो जैनोंके कुछ साधुलोग नंगा रहेते है, किन्तु वे किसान कहां है?

क्या किसानको निवास नहीं चाहिये?

क्या किसानको चिकित्सक नहीं चाहिये?

क्या किसानको संसाधन नहीं चाहिये?

क्या किसानको यातायातके साधन नहीं चाहिये,

क्या किसानको शिक्षा नहीं चाहिये?

क्या किसानको सहयोगी नहीं चाहिये?

क्या किसानको सुरक्षा नहीं चाहिये?

किसानको ये सब चाहिये.

किसानको ये सब देनेवाले कौन है?

हम ही तो है.

यही तो भीन्नता है मनुष्य और पशुके बीचमें.

और ये सब देनेवाले हम, किसानके भी बाप है.

यदि किसान जगतका तात है,

तो हम जगतेके तातके बाप यानी कि पितामह है.

(९) आप हमें ऐसा मत कहेना कि “आपको यदि अन्याय हुआ है तो आप न्यायालयमें जाओ… कानून आपने बनाया है तो कानून तो आपको ही रद करना पडेगा.

(१०) याद करो न्यायालयने कृषि-कानूनका विरोध कर रहे आंदोलनकारीयोंके प्रति क्या अवलोकन किया था?

(१०.१) क्या उन्होंने तर्ककी चर्चा की थी?

न्यायालयने किसानको तो कुछ भी नहीं कहा है.

(१०.२) न्यायालयने तो सरकारको डांटा कि “यदि आपका संवाद चल रहा है तो क्या उस समयके लिये कानून स्थगित कर दिया जाय?”

जब सरकारने कहा कि “हम सबके साथ संवाद कर रहे है इसलिये कानून स्थगित करना ठीक नहीं होगा.”

(१०.४) तो न्यायालयने तो कहा कि “हम तो सरकारसे निराश है”. न्यायालयने तो सरकारको ही डांटा कि “आप, कैसी कार्यवाही कर रहे है कि आप निस्फल रहेते हो.” न्यायालयने कभी आपसे आपकी और किसान नेताओंके बिचकी चर्चाका विवरण नहीं मांगा. यानी कि किसानोंके क्या बिन्दु थे और आपने उनका क्या उत्तर दिया. और आपने क्या मुद्दे उनके समक्ष रक्खे और उन्होंने क्या उत्तर दिया … इन सबका विवरण न तो आपसे मांगा न तो किसान नेताओंसे मांगा.

(१०.५) जब सरकारने कहा कि “कई सारे किसान संगठन कानूनके समर्थनमें है.”

इस बात पर न्यायालयने क्या कहा मालुम है?

न्यायालयने कहा हमारे सामने तो ऐसा कोई आया नहीं.

(१०.६) क्या आप ये समज़ते है कि न्यायालय अखबार पढे … टीवी चेनल देखें … कृषि-कानूनके समर्थकोंको नोटीस भेजें …?

यह मत पूछना कि न्यायालयने यह कैसे कहा कि आंदोलनकारीयोंमे वृद्ध है, शिशु है, महिलाएं है … बाहर ठंड है … जो आत्म-हत्याएं हूई वे सब नये कानूनके कारण हूई … जो लोग आंदोलनकारीयोंमें थे, या तो उनको आंदोलनकारी मान लिया गया था, वे कौन थे, कहाँसे आये थे,  उनमेंसे जो मरे वे अन्य कारणसे नहीं किन्तु नये किसान-कानूनके कारण ही मरे. न्यायालयने अपना तारतम्य किस/किन आधार पर निकाले? क्यों कि सरकारने या तो न्यायालयने ऐसी कोई जाँच समिति तो बनायी नहीं थी.

(१०.७) जब सरकारने कहा कि “हम कानून स्थगित करनेको तयार है, यदि न्यायालय आंदोलनकारी किसानोंको आदेश दें कि, वे अपना आंदोलन स्थगित कर दे.”

तो इसके उपर न्यायालयने क्या कहा मालुम है? न्यायालयने कहा कि “हम ऐसा आदेश कभी भी नहीं देंगे कि, आंदोलनकारी किसान अपना आंदोलन स्थगित करें. हम वह कह सकते हैं कि वे मार्ग यातायातके लिये साफ करें.”

न्यायालयके इस कथनका संदेश आप समज़े या नहीं समज़े?

नहीं समज़े तो अब समज़ो;

किसान आंदोलन का प्रारंभ ९ अगस्त २०२०से हुआ था. न्यायालय, सुओ मोटो अंतर्गत ही, “रास्ते यातायातके लिये साफ करो और सरकार जो निर्देश दे उस स्थल पर आंदोलन/प्रदर्शन करो” ऐसा आदेश देनेके लिये सक्षम था. किन्तु न्यायालयने ऐसा नहीं किया.

इतना ही नहीं, जब जनहितमें की गयी याचिकाएं न्यायालयके पास है तो भी, न्यायालयने “यातायातके लिये साफ मार्ग” के बारेमें आदेश दिया नहीं. जब ४ जनवरी को न्यायालयने, याचिका सूननेका प्रारंभ किया तब भी, अंतरिम आदेश दिया नहीं. और ११ जनवरीको ऐसा माना भी, कि स्वयं ऐसा आदेश देनेके लिये सक्षम है, तो भी अंतरिम आदेश दिया नहीं, न तो किसीको न्यायिक सूचना (notice) दी.

(१०.८) आपने देखा ही होगा कि दुसरे दिन न्यायालयने, सरकारको ही लताड दी कि, आप एक समिति नहीं बना पाये. न्यायलयने चार सदस्योंकी समिति बनायी.  वास्तवमें तथा-कथित किसान-आंदोलनके नेताओंने तो, आपका, समिति बनानेका प्रस्ताव ही ठूकरा दिया था. किन्तु ये तथ्य, जानते हुए भी न्यायालयने आपको ही लताडा. और मजेकी बात तो यह है, कि, न्यायालयकी बनायी हुई समितिको भी इन्ही नेताओंने अमान्य कर दिया. उन्होंने तो साफ बोल दिया कि, हमे तो कृषि-कानून रद करनेके सिवा, कुछ भी स्विकार्य नहीं. न्यायालयने फिर भी, उनके उपर, न्यायालयकी अवमाननाकी तो बात ही छोडो, न्यायालयने उनको कठोर या नरम शब्दोंमें डांटा तक नहीं. मजेकी बात है न … !, कि न्यायालयका रवैया, उग्र और मालेतुजार आंदोलनकारीयोंके प्रति कैसा “सोफ्ट है”! 

(१०.९) आप समज़ो और अपनी स्मृतिको टटोलो. सर्वोच्च न्यायालयके   एक निवृत्त न्यायाधीशने, एक टीवी चेनलके साक्षात्कारमें क्या कहा था? यह निवृत्त न्यायाधीशने एक प्रश्नके उत्तरमें कहा था कि, जब तक लुट्येन गेंगोंका प्रभाव, न्यायाधीशों परसे दूर नहीं होगा, तब तक न्यायालाय स्वतंत्रता पूर्वक न्याय, नहीं दे पायेका.

(१०.१०) न्यायालयके इस प्रकारके व्यवहारसे आपको एक संदेश लेना है, कि आप हमारे आंदोलनके कार्यकर्ताओंके साथ भी ऐसा ही व्यवहार करेंगे, कि जैसा आपने शाहीन बाग, कृषि-नियम विरोधीयोंके आंदोलनकारीयोंके साथ किया.   

(११) हमारी मांग है कि आप उपभोक्ता सुरक्षा नियम और अधिनियम रद करें.

हमारी इस मांग के प्रयोजनः

(१२) यह नियम और अधिनियम हमारे लिये नुकशानकारक और त्रासदायक है.

(१२.१) हमें न्याय मिलनेमें तीनसे अधिक स्तर बढ गये है.

(१२.२) हमें कागज दिखाने पडता है, कागज कैसा है वह कौन सुनिश्चित करेगा?

(१२.३) विक्रेताने जो कागज दिया वह सही है या नहीं वह बात अनपढ कैसे सुनिश्चित करेगा?

(१२.४) ग्राहकको वकिल रखना पडेगा, आपने तो कह दिया वकील अनिवार्य नहीं. किन्तु यह शक्य नहीं.

(१२.५) यदि विक्रेताने हमारी या फोरमकी कानूनी सूचना (लीगल नोटीस) लाने वाले को युक्तिसे भगा दिया, तो केस नहीं बनेगा,

(१२.६) यदि विक्रेताने या उत्पादकने अपना नाम नहीं बताया, गलत नाम बताया, नोटीस लिया नही, …  तो केस नहीं बनेगा …

 (१२.७) … यदि सबकुछ सीधा चला और फोरमने दंड भी लगाया, पर उसने दंड नहीं भरा, तो?

(१२.८) … ऐसा हुआ तो हमे “फोरमका अनादर हुआ” उसका केस करना पडेगा …

ऐसे तो हजार प्रश्न और कष्ट है.

संक्षिप्तमें कहें तो, हमे आंदोलन करना है. हमें हर हालतमें आंदोलन करना है.

(१३) न्यायालयकी संवेदनशीलता आपने भीन्न भीन्न समय पर भीन्न भीन्न देखा ही है.

रावणका आक्रमण

(१३.१) बाबा राम देव ने २०१२में सरकारसे कालेधन के उपर जाँच के विषय पर आंदोलन किया ही था. उनका आंदोलन भी शांत और अहिंसक था. किसान आंदोलनसे विपरित, उनका आंदोलन आम जनहितमें था. कानून बनानेके लिये था. सरकारने उनको रामलीला मैदानमें   आंदोलन करने की अनुमति भी दी थी. वे आंदोलनकारीयोंने देश विरोधी, सरकार विरोधी, प्रधान मंत्री विरोधी (नरेन्द्र मोदी तू मर जा … इन्दिराको हमने जैसे ठोक दिया,वैसे मोदी को भी ठोक देंगे, लाशोंका ढेर कर देंगे …) सूत्रोच्चार कभी भी किया नहीं था.

(१३.२) किन्तु २०१२की वह सरकार भीन्न थी. वह सरकार हलाहल, कोमवादी, वंशीय एकाधिकारवादी, भ्रष्टाचारसे लिप्त … ऐसी सेक्युलर, नरम, अनिर्वाचित प्रधानमंत्रीवाली जनतांत्रिक सरकार थी. जिसका नाम कोंगी यानी कि नेशनल इन्दिरा नहेरुगांधी कोंग्रेस (आइ.एन.सी) गठबंधनवाली युपीए सरकार थी.

(१३.३) ऐसी यु.पी.ए. की सरकारके सामने बाबा रामदेवकी नेतागीरीमें जनता रामलीला मैदानमें आंदोलन कर रही थी. उन आंदोलन कारीयोंने तो अपने मुद्दोंकी सूची भी दिया था. इन आंदोलनकारीयोंमें भी महिलाएं थी. वृद्ध भी थे. फिर भी उस सरकारने राम लीलाके मैदानके उपर आधी रातमें आक्रमण करके बलप्रयोगसे (ताडन पूर्वक) आंदोलन कारीयोंको भगा दिया था. तबसे बाबा रामदेव आंदोलन करना भूल गये है.

(१३.४) उस २०१२ वाले आंदोलनमें, न्यायालयकी संवेदनशीलता क्या थी वह जनता को अधिगत नहीं हो पायी थी.

(१३.५) जिन पक्षोंको चूनावमें जनताने पराजित किया ये पक्ष, कृषि-कानूनके विरोधमें प्रवर्तमान किसान आंदोलनके समर्थक है सामिल है. इन्होंने अपने शासन कालमें ही, कृषि-कानूनके समर्थनमें अपार वाणीविलास किया था. न्यायालयने इन सियासती तथ्योंकी अवहेलना करके, आंदोलनकारीयोंके प्रति उनकी उम्र, जाति, लिंग … को लक्ष्यमें लेके अपनी संवेदनशीलता प्रकट की है.

(१३.६) अवश्य एक बिन्दु और भी है. “सरकारी “एफ.आर. एवं एस आर (F.R. & S.R.)” के अनुसार, जो प्राधिकारी, कर्मचारी की नियुक्ति के लिये सक्षम है, वह सक्षम प्राधिकारी ही उसको निलंबित या पदच्युत कर सकता है. (Appointing authority only can suspend or dismiss an employee). यदि यह प्राधिकार उसको संविधानके अनुसार मिले है तो वह प्रात्यायोजित (delegate) कर सकता है, किन्तु यदि वह स्वयं प्रात्यायोजित होनेके कारण सक्षम बना है तो वह अन्यको प्रत्यायोजित नहीं कर सकता.

इससे क्या निष्कर्ष है?

नियम बनानेका काम संविधानने संसदको दिया है. संसद ही उस नियममें संशोधन या निलंबन या रद कर सकती है. संविधानने नियमको लागु करनेका अधिकार सरकारको दिया है.   संविधानने या तो संसदने, न्यायालयको नियम बनानेका, उसको स्थगित करनेका या तो उसको रद करनेका अधिकार नहीं दिया. सरकार न्यायालयसे परामर्श कर सकती है, किन्तु न्यायालयके उपदेशको माननेके लिये बाध्य नहीं है.

ये सर्व प्रावधान न्यायालयको अवगत होने पर भी न्यायालयने कृषि-नियमको अपनी संवेदनशीलताके कारण, निलंबित किया है.

हम भी हमारे पूर्वानुमानसे, न्यायालयकी उसी प्रकारकी मानसिकता की, अपेक्षा रखते है, और आंदोलन करना चाहते है.

(१४) आप समज़ते होगे कि, हमको संसदमें हारे हुए पक्षोंका साम और दामका समर्थन है. इसलिये हम आपको भय और दंड (हप्ता वसुली वाले लोग जो “भय” दिखाते है वह “भय”, और सूपारी लेनेवाले का “कार्य”, यानी कि आपके किसी भी चहितेका अपहरण कर उसकी “हत्या” … ) दिखाते है. अधिक जानकारीके लिये आप बोलीवुडके महानुभावोंका संपर्क करे और लुट्येन गेंग जो न्यायालयके उपर, साम, दाम, भेद और दंड का क्रियान्वयन करता है, उनका संपर्क करें.

 (१५) हम अपना सामर्थ्य दिखाना चाहते है. हम किसीकी निंदा करते नहीं है. हमे जो साफ दिखाई देता है वही हमें सिखाता है, कि, हमें कैसे, आंदोलन करना है, और कैसे आपके विरुद्ध वातावरण तयार करना है.

(१६) इस विषयमें हम भौतिक-शास्त्रके शास्त्री आलबर्ट आईन्स्टाईन वादी है और समाज-शास्त्रके शास्त्री महात्मा गांधीके वादी है.  जैसे पदार्थकी गतिमें परिवर्तन क्षेत्र-बलसे होता है, वैसे ही मनुष्यकी मानसिकता मे परिवर्तन, सामाजिक वातावरणके क्षेत्र-बलसे होता है.

सामाजिक क्षेत्र आपके प्रति ऋणात्मक बने ऐसी कार्यवाही हम करेंगें. ये सब साम, दाम, भेद और दंड से होता है.  आपको भी अनुभूति हो जाय, लुट्येन गेंग संसदको ही स्थगित कर सकती है उतना ही नहीं, संसदके बाहर भी उसके पास विशाल क्षेत्र है. 

हम है किसानके अतिरिक्त आम जनतामें रही लुट्येन गेंग

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शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

आपको इससे अधिक ज्ञानकी यदि आवश्यक है तो श्री संदिप देवका निम्न लिखित लींक पर  वीडीयो देखें.

https://youtu.be/2wXI7TkcLjM

(India Speaks Daily)

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संशोधनका ही नहीं, अन्वेषणका भी विषय है.

चार तारिखको मंत्रीने इन, तथा-कथित किसान नेताओंके साथ, संवाद किया. और उसमें दो बिन्दुओं पर मंत्रीजीने आश्वासन दिया कि (१) पराळी जलाने पर किसानोंके पक्षमें निर्णय लेंगे. (२) किसानोंकी विजली की चोरीमे दंडका जो  कारावासका प्रावधान है उसके विषयमें भी किसानके पक्षमें निर्णय करेंगे.

अहो ! कौतुकम्‌ !!!

(१) अरे भाई मंत्रीजी, इन मुद्दोंका कृषि-नियमोंसे क्या संबंध?

पराळी जलानेसे पर्यावरण दुषित होता है. दिल्ली इससे अधिकतम पीडित है. दिल्लीके मूख्य मंत्री जिसका नाम अरविंद केजरीवाल है, उन्होंने स्पष्ट कहा था कि दिल्लीमें प्रदुषण की मात्रा पंजाबके किसानो द्वारा पराळी जलानेके कारण है. सर्वोच्च न्यायपालिकाने तो आदेश भी दे दिया था कि, केन्द्र सरकार नियम बनावें और उसके पालनकी कार्यवाही करें.

तो क्या ये किसान लोग विशेष अधिकार वाले है कि उनके उपर दंड संहिता लागु न की जाय? वास्तवमें यह एक भीन्न ही विषय है.

(२) किसानो द्वारा बिजलीकी चोरीके मुद्देका भी किसान-नियमोंसे क्या संबंध है?

किसानों द्वारा बीजलीकी चोरी करना उत्तर भारत और खास करके पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओरीस्सा, बिहार … सामान्य छे. गुजरातमें भी बिजलीकी चोरी बडे जोर पर होती थी. विद्युत शक्तिका घाटा ४० से ६० प्रतिशत था. यह घाटा २० प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिये. विद्यूत शक्तिका यह घाटा बीजलीके उपभोक्ताओंसे वसुला जाता था और है. यह एक विस्तृत विवरणका विषय है. उसका विवरण हम यहां नहीं करेंगे.

आंदोलनकारीयोंने इस मुद्देको कृषि-नियमोंके संवादकी सूचीमें डाल दिया. और माननीय केन्द्रीय मंत्रीने  इसके उपर चर्चा करनेका स्विकार भी किया.

ऐसा लगता है मंत्रीजी आवश्यकतासे कहीं अधिक किसान (तथा कथित किसान) आंदोलन कर्ताओंके प्रति कोमलता प्रदर्शित करना चाहते है. उनको डर है कि कहीं मीडीया उनको असहिष्णु, किसानोंके प्रति असंवेदनशील, किसानोंके  विरोधी, संवादके विरोधी, कठोर, एकाधिकारवादी न कह दे.

चार तारिख से पूर्व किसान-प्रतिनिधि मंडलको कहा गया था कि वे मुद्दोंकी सूची लेकर आवें.

चार तारिख को चर्चाके पश्चात्‌ केन्द्रीय मंत्री महाशयने घोषित किया कि चार मुद्देमें से दो मुद्दों पर समाधान हो गया है. ५० प्रतिशत सफलता प्राप्त हुई है. अतिरिक्त मुद्दोंपर सफलता प्राप्तिके लिये वातावरण हकारात्मक बना है.  किसान प्रतिनिधि मंडलने इसका अनुमोदन किया. किन्तु यह भी कहा कि हमारा आंदोलन चालु रहेगा. उसको हम और प्रभावशाली और उग्र करेंगे.

यह तो होना ही था.

८ तारिखकी चर्चा असफल रही. किसान प्रतिनिधि मंडलने कहा कि आप कृषि-नियम ही रद्‌ करो. कृषि-मंत्रीने इस पूर्व-शर्तको नकार दिया. और कहा कि हम इस पूर्व-शर्तको माननेके पक्षमें नहीं है. आपके पास यदि कृषि-कानून के विरोधमें कोई मुद्दे है तो उसकी सूची लेके १५ तारिख तक ले आओ.

यह चर्चा है या मजाक?

वास्तवमें किसान-प्रतिनिधि मंडलके पास कोई स्पष्ट मुद्दे है ही नहीं. उनके पास केवल तर्कहीन धारणाओं पर आधारित कपोल कल्पित नुकसान है. ये लोग तर्कमें मानते ही नहीं है. जिनके पास मुद्दे ही नहीं है, केवल तर्कहीन तारतम्य ही है, उनके साथ चर्चाकरना सरकारकी  मूर्खता है.

वास्तवमें सरकारको  चर्चाकी पूर्वशर्त रखना चाहिये कि,  मार्गोंको  परिवहनके लिये खुला करो, और चर्चाके लिये मुद्दोंकी सूची ले कर आओ. अन्योंके संविधानीय अधिकारोंका हनन यानी कि यातायातको रोकना दंडनीय अपराध है.

नरेन्द्र मोदीने पाकिस्तानको कहा था कि सर्व प्रथम आप भारतमें आतंकवादकी निकास  और सीमा पर गोलीबारी बंद करो, फिर हम आपके साथ चर्चाके लिये तयार है. क्यूँ कि हिंसा और चर्चा साथ साथ नहीं चल सकते.

बीजेपी सरकारको, कृषि-नियमके विरोधमें आंदोलन करने वालोंको  दो टूक कह देना चाहिये कि, दंडनीय अपराध और चर्चा साथ साथ नहीं चल सकते. पहेले अपराध करना बंद करो, नहीं तो सज़ाके लिये तयार रहो.

बीजेपी सरकार यह बात क्यूं नहीं समज़ सकती है, यह संशोधनका विषय है. समय आने पर इसका रहस्य प्रकट होगा.

किन्तु अभितक तो ऐसा लगता है कि लुट्येन गेंगका जो हेतु था कि भारतमें अशांति फैलाओ ताकि नरेन्द्र मोदीने जो विकासके लिये और कोरोना महामारीको नियंत्रित करनेके लिये जो असाधारण कदम उठाये है और पूरे  विश्वने उसके शासनकी प्रशंसा की है, ये सब बातें दब जाय. लुट्येन गेंग ईश्वरसे प्रार्थना कर रही है कि हे प्रभू एकबार फिरसे शाहिन बाग दोहरा दे.

शिरीष मोहनलाल दवे

चमत्कृतिः

लुट्येन सेना उवाचः मेरा खप्पर खाली है. मुज़े इन्सानका भोग चाहिये.

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