किसानोंकी आत्महत्या एक सियासती समस्या है या सामाजिक?
किसानोंकी आत्महत्या एक बडी समस्या बना दी गई है और इनसे संबंधित घटनाओका विवरण और प्रसारण भी इस सीमा तक होता है कि शासन जो कोई भी कदम उठावे वह कम है ऐसा अनुभूत करवाया जाता है. ऐसा लगता है कि यह कोई सोची समज़ी व्युह रचना है.
किसान के नाम पर ये सियासती और व्यर्थ कोलाहल है.
किसानोंमें तीन प्रकारके किसान होते है.
एक है फर्ज़ी किसान, दुसरे है मध्यम कक्षाके किसान और तीसरे है सीमान्त किसान.
फर्जी किसानमें वे किसान आते जो फार्मर होते ही नहीं है. वे केवल अपने काले धनको सफेद धनमें परिवर्तित करने के लिये किसान होते है. इनमें ख्यातनाम लोग जैसे कि, सियासती पक्षोंके नेता, जनप्रतिनिधि, चलचित्रकी हस्तियां, उद्योगपति, वेपारी, गुन्डे, माफिया, बडे भूमिपति जो या तो कृषि करते ही नहीं या तो किसीको खेतीके लिये दे देतें है और अपना हिस्सा लेके पूरा हिस्सा अपनी आयमें प्रदर्शित करके अपना काला धन सफेद कर देते है. इसमें भ्रष्टाचारी राजस्व (रेवन्यु) कर्मचारी भी समाविष्ट होते है.
“मालदार भी किसान और गरीब भी किसान” इसका कारण क्या है?
कारण यह है कि कृषि-उत्पादन पर आयकर लगता नहीं है. कृषि-उत्पादन पर आयकर लगाने की क्षमता कोई भी पक्षके पास नहीं है, क्यों कि, किसान एक वोट-बेंक है. इतना ही नहीं इस वोटबेंकमें अमुक जाति के लोग जैसे कि, पटेल, यादव, जट, गुज्जर होते है. इनमें सभी सीमांत किसान नहीं होते है किन्तु ये लोग सीमांत किसानके नाम पर और जातिके नाम पर सियासती करते ही रहेते है.
दुसरे प्रकारके किसानमें मध्यमवर्गी किसान होते है जो स्वयं भी, श्रम करते हैं और उसके अतिरिक्त ठीक ठीक संख्यामें रोजमदार भी रखते हैं
तीसरे प्रकारके किसानोंमें सीमांत किसान आते है. ये किसान आवश्यकता पडने पर रोजमदार रखते है किन्तु अधिकतर वे स्वयं ही काम करते है.
समस्या है केवल दुसरे और तीसरे प्रकारके किसानोंकी. किन्तु इसका लाभ तीनों प्रकारके किसान लेते हैं. भारत अभी भी कृषिप्रधान देश है. इसलिये किसानोंकी संख्या अधिक है. आत्महत्या तो हरेक व्यवसायके लोग करते है किन्तु किसानकी संख्या अधिक होनेसे ज्यादा आत्महत्या दृष्टिगोचर होती है.
सुक्ष्म स्वरुपी माल्या
यदि न्यायालय धनिकोंके वकीलोंकी अवगणना करें और माल्या पर दबाव आवे तो माल्या भी आत्महत्या कर सकता है. किन्तु माल्याओंकी संख्या कम है इसलिये नहेरुवीयन कोंग्रेस उसका उल्टा मुद्दा बनाके प्रवर्तमान सरकारकी निंदा करती है. चोर कोटवालको डांटे. लोन नहेरुवीयन कोंग्रेसके शासनमें दिलवायी गई, माल्याने गोलमाल नहेरुवीयन शासनमें की, माल्याने नहेरुवीयन कोंग्रेसके बनाये नियमोंका लाभ लिया और भाग गया और नहेरुवीयन कोंग्रेस प्रवर्तमान बीजेपी सरकारको दोष दे रही है. पैसे की गोलमाल किसान भी करते है और माल्याएं भी करते है. एक किसानका ऋण माल्याके ऋणके सामने एक बिन्दुके समान है किन्तु दुसरे और तीसरे प्रकारके किसानोंकी संख्या अति अधिक है इसलिये एक एक बिन्दु मिलकर समूद्र बन जाता है.
हम केवल दुसरे और तीसरे प्रकारके किसानोंकी ही समस्याका विवरण करेंगे.
किसान कहां होते है?
किसान देहातमें होते हैं.
उनकी जातियां अधिकतर निश्चित है.
रुढिग्रस्त किसान समाज
गुजरात की बात करें तो किसान समाजमें पटेल और ठाकोर (ठाकुर राजपूत) होते है. सामाजिक रीतिरीवाजोंके बंधनसे ये लोग संपूर्ण मात्रामें मुक्त नहीं है. कहीं अधिक है कहीं सापेक्षप्रमाणसे अल्प है. दहेज, लग्न उत्सव, बच्चेका जन्म, लडकीकी विदाय, प्रसंगोत्पात लेन देन, मरणोत्तर क्रियाकर्म आदि सामाजिक रूढियां निभाना अवश्यक माना जाता है. इनमें पैसे तो खर्च होते ही है. पैसे तो पैसे ही है. चाहे वे स्वयंकी बचतके पैसे हो, या पैसे किसीसे उधार लिये हो या बैंकसे उधार लिये है. जब चेक, बेंकमें जमा हो गया और कैश निकाली गई, तो उस नकद अन्य नकदसे कोई भीन्न नहीं रहता.
यदि आप अपना कृषिके लिये मिले ऋणको, रुढियां निभानेमें खर्च कर दोगे तो कृषिके लिये कम पैसे रहेंगे और आप कम खेती कर पाओगे या असुरक्षित खेती कर पाओगे. यदि आपके पास चार एकड भूमि है तो या तो आप कम खाद डालोगे या तो कम भूमिको जोतेंगे. यदि वर्षा भी कम हुई तो कृषि उत्पादन भी कम होगा. ऋणका प्रतिसंदाय (री-पेमेंट) नहीं हो सकेगा. वैसे तो देशमें कई कृषि-बेंकें है, किन्तु यह संशोधनका विषय है किसान लोग कमव्याजदर वाली कृषि बेंकोंको छोडकर उंचे व्याजदरवाले शराफ़ोंसे ऋण क्यों लेते है. यह एक संशोधनका और जांचका विषय है. जब भी कभी आत्महत्याकी घटना घटती है तो इस बातकी जांच होनी चाहिये कि किसानके परिवारमें सामाजिक रुढिगत घटना घटी थी या नहीं. और उसमें कितना खर्च हुआ था?
समस्याका निवारण सहकारी कृषि
समस्याका निवारण सहकारी कृषि है और यह सहकारी कृषि पर सरकारका अनुश्रवण (मोनीटरींग) होना अनिवार्य है.
सहकारी कृषिमें एक सरकारी अधिकारी रहेगा जो घनीष्ठतासे अनुश्रवण करेगा. इस अधिकारीको आप कुछ भी नाम दो.
मान लो हमने “प्रमुख” नाम दिया.
प्रमुखः
सहकारी मंडलीके नियम है और अधिकारी भी है किन्तु किसान लोग आंदोलनके अतिरिक्त सहकार करनेको इच्छुक होते नहीं है. यदि सहकारी मंडलीका प्रमुख सरकार तरफसे अधिकारयुक्त हो तो यह समस्या हल हो सकती है. जैसे मतदान मथकका एक बुथ अधिकारी होता है, वैसे एक भौगोलिक विस्तारका एक सरकारी अधिकारी होना चाहिये. यह अधिकारी कृषि विद्यालयका स्नातक होना चाहिये. हालमें ऐसे अधिकारी होते है किन्तु उसके पास सत्ता होती नहीं है और जो कार्य क्षेत्र है वह स्पष्ट होता नहीं है. इसमें आमुल परिवर्तन करना पडेगा. उसका उत्तरदायित्व निश्चित करना पडेगा.
मंडली प्रमुख को प्रत्येक खेतकी नोंध, सबके खेतमें ट्रेक्टर या और बैलसे जोताई हुई या नहीं, प्रत्येक खेतके लिये खादकी व्यवस्था, प्रत्येक खेतको पानी, प्रत्येक खेतके पाककी कटाई, खेतकी सुरक्षा, खेत उत्पादनकी सफाई, भीन्न भीन्न नापके पेकेजींग, संचय, स्थानांतरण, विक्रय और वितरण इन सबके उपर निगरानी और नोंध रखेगा. प्रमुख सदस्योंकी सभा बुलायेगा और खेतीका सामान्य समयपत्रक बानायेगा. यह सहकारी मंडली देहातमें ही नहीं, कस्बे, नगर और महानगरोंमें अपने उत्पादनकी बिक्री अपनी दुकानो द्वारा करेगी.
खेतीके साथ कृषि आधारित उद्योगका कामका आयोजन भी प्रमुख करेगा.
सदस्यताः
सिमांत और मध्यम प्रकारके किसानोंको खेतीका व्यवसाय सहकारी मंडली बनाके करना होगा. भारतमें जनतंत्र है इसलिये इसको अनिवार्य नहीं बना सकते. किन्तु जो किसान सहाकारी मंडलीके सदस्य नहीं बनें उनको अपना हित क्या है उसका पता बादमें तो चल ही जायेगा.
किसान मंडलीके सदस्य चार प्रकार के होगे.
श्रम दान करने वाले भूमिवाले किसान,
श्रमदान नहीं करने वाले भूमिवाले किसान,
श्रमदान करनेवाले भूमिहीन किसान
श्रमदान नहीं करनेवाले भूमिहीन व्यक्ति जो भूमिके तत्कालिन मूल्यके हिसाबसे पैसेका विनिधान (इन्वेस्टमेन्ट) करनेवाले होगे,
भूगतान
हरेक प्रकारके श्रमका मूल्य निश्चित किया जायेगा, उसका ५० प्रतिशत भूगतान, निधिमेंसे हर सप्ताह भूमिवाले किसानको होता रहेगा. ५० प्रतिशत भूगतान पाककी बिक्री हो जाने पर होगा. १०० प्रतिशत भूगतान भूमिहीन सदस्य श्रमजीवी किसानोंको होगा. भूमिवाले किसानका हिस्सा (शेयर संख्या) अपनी भूमिके क्षेत्रफलके हिसाबसे रहेगा.
कृषिके खादके लिये गोबर, गौशालासे मिलेगा और उसका मूल्यांक, प्रमुख निश्चित करेगा,
कृषिको पूर्ण व्यवसाय समज़ना नहीं चाहिये.
किसान लोग सर्वाधिक श्रम करते है यह बात ठीक है, लेकिन वर्षा और पियत ऋतुको छोड कर और सामान्यतः वर्षा ऋतुमें ही वे अधिक श्रम करते है. वास्तवमें मध्यम और सीमांत किसानको खेतीको पूर्ण व्यवसाय के स्थान पर आंशिक व्यवसाय समज़ना चाहिये.
खेतीके साथ कृषि आधारित उद्योगका कामका आयोजन भी प्रमुख करेगा.
कृषिआधारित उद्योगोंमें अन्नके दानेके कदके हिसाबसे छांटना, सफाई करना, भीन्न भीन्न वजनके पेकेज बनाना, मध उत्पादन, जल संचय, खाद, गोबरगेस उत्पादन और सीलिन्डरमें भरना, सूर्य उर्जा, तेलघाणी, भूमि नवसाध्यकरण, वृक्षारोपण, आदि कई काम है.
कताईका काम भी किसानको आरामके समयमें करना पडेगा. सूतके पैसे उसको सप्ताहमें एक बार मिलेगा. किसानको अपना सूत निश्चित संचय केन्द्र पर जमा करवाना पडेगा.
गौपालन और गौशाला
गौशाला भी इसी अधिकारीके हस्तक रहेगी. उसी प्रकारसे पशुकी संख्याकी मालिकीके हिसाबसे उसका हिस्सा (शेयर) रहेगा. गोपाल वर्गीकरण भी उसी प्रकारसे होगा. गौशालामें ही पशु रखें जायेंगे. एक व्यक्तिके पास निश्चित संख्यामें निश्चित प्रकारके पशु रहेंगे. दो बैल, एक बैलगाडी, दो गाय, चार बकरी-बकरा/भेड, इनकी साफसफाई करना, नहलाना, खाना खिलाना, दुध निकालना, दूध जमा करवाना, गोबर संचय करना, स्वास्थ्यका ध्यान रखना आदि काम सुनिश्चित करना, उत्पादनका स्थानिक स्थानांतर भी इसी श्रमजीवीका रहेगा. उसके श्रमका मूल्य निश्चित किया जायेगा. एक गाय, एक बैल, एक भेड, एक बकरी और एक बकरा इनका एक भीन्न भीन्न शॅरस्क्रीप्ट रहेगी. जिस प्रकार वाहनका रजीस्ट्री नंबर होता है उसी प्रकार हरेक पशुका एक नोंधक्रमांक रहेगा.
गौशालामें भी सदस्यता वर्गीकरणकी जैसे किसानकी व्यवस्था है.
जो लोग श्रमदान नही करके सिर्फ वित्तीय निवेश करना चाहते वैसे पशुविहीन सदस्योंको हर तीनमास में एक बार मुनाफेका हिस्सा मिलेगा. पशुकी वृद्धिमें शेर केपीटलमें वृद्धि होगी.
गौशालामें गौमूत्रका संचय किया जायेगा जिसका उपयोग गौमूत्रकी औषधीय टीकीया और अन्नके बीजकी सुरक्षा और कीटनाशकके रुपमें किया जायेगा.
गोबर, किसानको उचितमूल्यांक पर दिया जायेगा.
किसानके लिये कई सारे क्षेत्र है जिनके उपर किसान दुर्लक्ष्य देता है. किसानोंको स्वावलंबी बनना चाहिये.
नहेरुवीयन कोंग्रेसने अपने साठ वर्षके शासनके बाद भी किसानको सरकार पर अवलम्बी रक्खा है. यह नहेरुवीयन कोंग्रेसके लिये लज्जास्पद है.
किन्तु नहेरुवीयन कोंग्रेसका संस्कार ही ऐसा है कि वह सर्वदा येनकेन प्रकारेण बीजेपीकी निंदा करनेमें लगी रहती है. गरीबोंका उद्धार करनेका सर्वाधिक चूनावका मुद्दा नहेरुवीयन कोंग्रेसने ही बनाया है और अपने पालतु समाचार माध्यम और तथा कथित विद्वानों द्वारा उसने साठ साल तक चूनाव जितती आ रही है. किसानके नाम पर उसने गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरीयाणा आदि कई राज्योंमें उनकी जातियोंके लिये अनामतका मुद्दा लेकर अहिंसक आंदोलनके नाम पर हिंसक आंदोलन चलाये है. सरकारी बसें, सरकारी मकानोमें आग लगायी है. रेल्वेकी पटरीयां तक उखाड दी है. खरबों रुपयेका देशकी संपत्तिना नाश किया है. अराजकता फैलानेकी भरपुर कोशिस की है और वे सरकार पलटनेमें सफल भी रही है. वास्तवमें नहेरुवीयन कोंग्रेसको कभी गरीबाई हटानेकी, विकास करनेकी और बेरोजगार देनेकी दानत ही रही नहीं है. उनको तो चाहिये कि वर्ग विग्रह द्वारा जनताका हर प्रकारसे विभाजन होता रहे, उनकी वॉटबेंक बनी रहे, वे चूनाव जितते रहे और उनके पक्षका शासन बना रहे ताकि नहेरुवीयन वंश चालु रहे और बाकीके लोग कोई भी रीतिसे पैसे बनाते रहे.
शिरीष मोहनलाल दवे
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