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कोंगी और भूमि-पुत्र और धिक्कार

कोंगी और भूमि-पुत्र और धिक्कार

भूमि-पुत्र कौन है?

जिसने जहां जन्म लिया वह वहाँका भूमि-पुत्र है.

क्या यह पर्याप्त है?

नहीं  जी. जिसने जहाँ जन्म लिया, भूमि पुत्र बननेके लिये व्यक्ति को उस प्रदेशकी भाषा भी आनी  चाहिये, और यदि वह उस राज्यमें १५ साल से रहेता है, तो वह उस राज्यका भूमि-पुत्र माना जाना चाहिये. यदि वह अवैध (घुस पैठीया अर्थात्‌ विदेशी घुसपैठीया है) रुपसे रहता है तो यह बात राज्य और केन्द्र सरकार मिलके सुनिश्चित कर सकती है. यदि इसमें केन्द्र सरकार और राज्य सरकारमें भीन्नता है तो न्यायालयका अभिप्राय माना जायेगा.

भूमि-पुत्रकी समस्या किन स्थानों पर है?

सबसे अधिक भूमि-पुत्रकी समस्या जम्मु- कश्मिरमें और  ईशानके राज्योमें है.

जम्मु-काश्मिरकी समस्या कोंगीयोंने वहाँ के स्थानिक मुस्लिमोंके साथ मिलकर उत्पन्न की है. वहाँ तो हिन्दुओंको भी  भगा दिया है. ४४००० दलित कुटूंब, जो जम्मु-कश्मिरमें १९४४से रह रहे है  जब तक नरेन्द्र मोदी सरकारने अनुच्छेद ३७० और ३५ए दूर नहीं किया था तब तक उनको भूमि-पुत्र नहीं माना जाता था. जनतंत्रका अनादर इससे अधिक क्या हो सकता है?

अब वहाँ की स्थिति  परिवर्तन की कैसी दीशा पकडती है उस पर नयी स्थिति निर्भर है.

ईशानीय राज्योंमें भूमि-पुत्रकी क्या समस्या है?

विदेशी घुसपैठी मुस्लिम

विदेशी घुसपैठी हिन्दु

भारतके अन्य राज्योंके बंगाली, बिहारी, मारवाडी …

विदेशी घुसपैठीकी समस्या का समाधान तो केन्द्र सरकार करेगी.

लेकिन विदेशी घुसपैठी इनमें जो हिन्दु है उनका क्या किया जाय?

विदेशी घुसपैथीयोंमें बंग्लादेशी हिन्दु है.

दुसरे नंबर पर पश्चिम बेंगालके हिन्दु है. इन दोनोंमे कोई फर्क नहीं होता है.

पश्चिम बंगालसे जो हिन्दु आये है उन्होंने सरकारी नौकरीयों पर कब्जा कर रक्खा है. असमकी सरकारी नौकरीयोंमें  बेंगालीयोंका प्रभूत्व है.

असममें और ईशानमें भी,  पश्चिम बेंगालके लोग अपनी दुकानमें स्थानिक जनताको न रखके अपने बेंगालीयोंको रखते हैं. इस प्रकार राज्य की छोटी नौकरीयां भी स्थानिकोंको कम मिलतीं है.

भूमिगत निर्माण कार्योंमें भी, पर प्रांतके कोन्ट्राक्टर लोग, अपने राज्यमेंसें मज़दुरोंको लाते है. अपनी दुकानोंमें भी वे अपने राज्यके लोगोंको रखते है.

इसके कारण स्थानिकोंके लिये व्यवसाय कम हो जाते है. इस प्रकार स्थानिक जनतामें परप्रांतियोंके प्रति द्वेषभावना उत्पन्न होती है.

इस कारणसे क्षेत्रवाद जन्म लेता है,  दंगे भी होते है, आतंकवाद उत्पन्न होता, और सबसे अधिक भयावह बात है  यह वह है कि इन परिस्थितियोंका लाभ ख्रीस्ती मिशनरीलोग, स्थानिकोंमें अलगतावाद उत्पन्न करके उनका धर्म परिवर्तन करते है और फिर उनके प्रांतीय अलगतावाद और धार्मिक अलगता वादका सहारा लेके स्थानिकोंमें “हमें अलग देश चाहिये” इस भावनाको जन्म देते है.

मेघालयः

उदाहरणके लिये आप मेघालयको ले लिजीये. यह पूर्णरुपसे हिन्दु राज्य था. (नोर्थ-ईस्ट फ्रन्टीयर्स = ईशानके सीमागत)). ब्रीटीशका तो एजन्डा धर्म प्रचारका था ही.  किन्तु कोंगीने ब्रीटीशका एजन्डा चालु रक्खा. नहेरुमें आर्ष दृष्टि थी ही नहीं कि ब्रीटीशका एजन्डा आगे चलके गंभीर  समस्या बन सकता है. इन्दिराका काम तो केवल और केवल सत्ता लक्षी ही था. उसने  क्रीस्चीयन मीशनरीयोंको धर्मप्रचारसे रोका नहीं.

लिपि परिवर्तन

मेघालयकी स्थानिक भाषा “खासी” है. यह भाषा पूर्वकालमें बंगाली लिपिमें लिखी जाती थी. कोंगीके शासनमें ही वह रोमन लिपिमें लिखी जाने लगी. रोमन लिपिसे ज्ञात ही नहीं होता है कि वसुदेव लिखा है या वासुदेव लिखा है. ऐसी अपूर्ण रोमन लिपिको क्रीस्चीयन मीशनरीयोंने लागु करवा दी. ऐसा करनेसे खासी (मेघालयके स्थानिक)  लोगोंमें वे “भारतसे भीन्न है” भावना बलवत्तर बनी. ऐसी ही स्थिति अन्य राज्योंकी है. असमके लोगोंने अपनी लिपि नहीं बदली किन्तु अलगताकी भावना उनमें भी विकसित हुई. मूल कारण तो विकासका अभाव ही था.

एक काल था, जब यह ईशानका क्षेत्र संपत्तिवान था. कुबेर यहाँ का राजा था. आज भी इशानके राज्योंमें प्राकृतिक संपदा अधिक है, किन्तु  शीघ्रतासे कम हो रही है.. इन्दिरा नहेरुघान्डी कोंग्रेसने इन राज्योंका विकास ही नहीं किया. इसके अतिरिक्त कोंगीने अन्य समस्याओंको जन्म दिया और उन समस्याओंको विकसित होने दिया.

ईशानके राज्य आतंकवाद से लिप्त बने. ईशानके राज्योंमें परप्रांतीय भारतीयों पर हुए अत्याचारोंकी और नरसंहारकी अनेक कथाएं है. इनके उपर बडा पुस्तक लिखा जा सकता है.

सियासतका प्रभाव

भूमि-पुत्रकी समस्यामें जब सियासत घुसती है तो वह अधिक शीघ्रतासे बलवत्तर बनती है. जहाँ स्थानिक लोग शिक्षित होते है वे भी सियासतमें संमिलित हो जाते है.

मुंबई (महाराष्ट्र) ; १९५४-५५में नहेरुने कहा “यदि महाराष्ट्रीयन लोगोंको मुंबई मिलेगा तो मुझे खुशी होगी.” इस प्रकार नहेरुने मराठी लोगोंको संदेश दिया कि,” गुजराती लोग नहीं चाहते है कि  महाराष्ट्रको मुंबई मिले.” ऐसा बोलके नहेरुने मराठी और गुजरातीयोंके बीचमें वैमनस्य उत्पान्न किया.

वास्तवमें तो कोंग्रेसकी केन्द्रीय कारोबारीका पहेलेसे ही निर्णय था कि “गुजरात, महाराष्ट्र और मुंबई” ऐसे तीन राज्य बनाया जाय. किन्तु बिना ही यह निर्णयको बदले, नहेरुने ऐसा बता दिया कि गुजराती लोग चाहते नहीं है कि मुंबई, महाराष्ट्रको मिले.

मुंबईको बसाने वाले गुजराती ही थे. गुजरातीयोंमे कच्छी, काठीयावाडी (सौराष्ट्र), गुजराती बोलनेवाले मारवाडी, और गुजराती (पारसी सहित) लोग आते है. ९० प्रतिशत उद्योग इनके हाथमें था. स्थानिक संपत्तिमें ७० प्रतिशत उनका हिस्सा था. गुजरातीयोंने स्थानिक लोगोंको ही अवसर दिया था. गुजराती कवि लोगोंने शिवाजीका और अन्य मराठाओंका गुणगान गाया है. सेंकडों सालसे गुजराती और मराठी लोग एक साथ शांतिसे रह रहे थे. उनमें नहेरुने आग लगायी. मुंबई एक  व्यवसायोंका केन्द्र है. गुजराती लोग व्यवसाय देनेवाले है. गुजराती लोग व्यवसाय छीनने वाले नहीं है. यदी गुजराती लोग चाह्ते तो वडोदरा जो पेश्वाका राज था वहांसे मराठी लोगोंको भगा सकते थे. किन्तु गुजराती लोग शांति प्रिय है. उन्होंने ऐसा कुछ किया नहीं.

शिव सेना न तो शिवजीकी सेना है, न तो वह शिवाजीकी सेना है.

महाराष्ट्रकी  सियासती कोंग्रेसी नेताओंने मराठीयोंका एक पक्ष तैयार किया. उसका नाम रक्खा शिव सेना. जिनका उद्देश साठके दशकमें कर्मचारी मंडलोंमेंसे साम्यवादीयोंका प्रभूत्त्व खतम करनेका था, और साथ साथ महाराष्ट्र स्थित  केन्द्र सरकारके कार्यालयोंमेंसे दक्षिण भारतीयोंको हटानेका था. यह वही शिवसेना है जिसके स्थापकने इन्दिराको आपत्कालमें समर्थन दिया था. और आज भी यह शिवसेना सोनिया सेना बनके इन्दिरा नहेरुघांडीकी भाषा बोल रही है.

दक्षिण भारत

दक्षिणके राज्योंमे भाषाकी समस्या होनेसे उत्तरभारतीय वहाँ कम जाते है. लेकिन ये उत्तर भारतीय जिनमें राजस्थान, मध्यप्रदेश, ओरीस्सा, उत्तर प्रदेश, बिहार … वे गुजरात, मुंबई (महाराष्ट्र) में नौकरीके लिये अवश्य आते है. ये लोग अपने राज्यमें भूखे मरते है इसीलिये वे गुजरात में (और मुंबईमें भी) आके  कोई भी नौकरी व्यवसाय कर लेते है. इनकी वजह से गुजरात और मुंबईमें झोंपड पट्टी भी बढती  है. कोंगीने  और समाचार माध्यमोंने गुजरातमें भाषावाद पर लोगोंको बांटनेका २००१से  प्रयत्न किया था. एक “पाटीदार (पटेल)”को नेता बनाया था. उसने प्रथम तो आरक्षणके लिये आंदोलन किया था. वह लाईम लाईटमें आया था. कोंगीने परोक्षरुपसे उसका समर्थन भी किया था. शिवसेनाके उद्धव ठाकरेने उसको गुजरातका मुख्य  मंत्री बनानेका आश्वासन भी दिया था. कोंगीयोंने परोक्ष रुपसे गुजरातसे कुछ उत्तर भारतीयोंको भगानेका प्रयत्न भी किया था. कोंगीलोग गुजरातमें सफल नहीं हो पाये.

राहुल गांधीने दक्षिण भारतमें जाके ऐसी घोषणा की थी कि बीजेपी सरकार, दक्षिणभारतीय संस्कृतिकी रक्षा नहीं कर रही है. हम यदि सत्तामें आयेंगे तो दक्षिण भारतीय संस्कृतिकी पूर्णताके साथ रक्षा करेंगे. कोंगीयोंका क्षेत्रवाद और भाषावादके नाम पर भारतीय जनताको विभाजित करनेका यह भी एक प्रकार रहा है.

ईशान, बंगाल और कश्मिरके अतिरिक्त, क्वचित्‌ ही कोई राज्य होगा जहां पर यदि आप उस राज्यकी स्थानिक भाषा सिखलें तो आपको कोई पर प्रांतीय समज़ लें.

 भाषासे कोई महान है?

“गर्म हवा” फिल्ममें एक  घटना  और संवाद है.

परिस्थित ऐसी है कि एक मुस्लिम ने सरकारी टेन्डर भरा. बाकीके सब हिन्दु थे.

मुस्लिम के लिये यह टेन्डर लेना अत्यधिक आवश्यक था. लेकिन धर्मको देखते हुए असंभव था. उसके घरवालोंको लगा कि यह टेन्डर उसको मिलेगा ही नहीं. जब वह मुस्लिम घर पर आया तो घरवालोंने पूछा कि टेन्डर का क्या हुआ? उस मुस्लिमने बताया कि “धर्म से भी एक चीज महान है … वह है रिश्वत … मुझे वह टेन्डर मिल गया.”

 उसी प्रकार, भाषासे भी एक चीज़ महान है वह एक सियासत. सियासती परिबल किसी भी समस्याका हल है और वह है नेताओंकी जेब भर देना.

किन्तु यह रास्ता श्रेयकर नहीं है.

कौनसा रास्ता श्रेयकर है?

प्रत्येक राज्यके लोगोंकी अपनी संस्कृति होती है.

शासन में स्थानिकोंका योगदान आवश्यक है

स्थानिकोंका आदर करना आवश्यक है

स्थानिककोंकी भाषा हर कार्यालयमें होना आवश्यक है,

स्थानिकोंके रहन सहनका आदर और उसको अपनाना आवश्यक है,

स्थानिकोंके पर्व में योगदान देना आवश्यक है,

स्थानिकोकी कलाओंको आदर करना और अपनाना आवश्यक है,

ऐसा तब हो सकता है कि जब राज्यके शासनकी भाषा स्थानिक भाषा बनें.

ऐसी स्थिति की स्थापना करनेके लिये महात्मा गांधीने कोंग्रेसकी कारोबारी द्वारा भाषाके अनुसार राज्य नव रचना करना सूचित किया था. प्रत्येक राज्यका शासन उसकी स्थानिक भाषामें होने से प्रत्येक राज्यकी अस्मिता सुरक्षित रहेती है.

राज्य स्थित केन्द्रीय कार्यालयोंमें भी स्थानिक भाषा ही वहीवटी भाषा होना चाहिये.

पर प्रांतीय लोग, यदि स्थानिक लोगोंका आदर करनेके बदले उनको कोसेंगे तो वे लोग स्विकार्य नहीं होंगे. इसका अर्थ यह है कि वे स्थानीय जनताका एवं उनकी संस्कृतिका आदर करें और उनके उपर प्रभूत्त्व जमानेकी कोशिस न करें.

परप्रांतीय लोग यदि स्थानिक जनता की भाषा अपना लें तो, ६० प्रतिशत समस्याएं उत्पन्न ही नहीं होती हैं..  

क्या आप सोच सकतें है कि आप बिना फ्रेंचभाषा सिखें फ्रान्समें आरामसे रह सकते है?

क्या आप सोच सकते है कि आप बिना जापानी भाषा पढे जापानमें रह सकते है?

क्या आप सोच सकते है कि आप स्पेनीश भाषा पढें स्पेन और दक्षिण अमेरिकामें आरामसे रह सकते है?

भारत देश भी, वैविध्यतासे भरपूर है. वही भारतका सौंदर्य है.

७० प्रतिशत स्थानिक संस्कार स्विकृत करें. ३० प्रतिशत अपना मूल रक्खें.

कोंगीने कैसे अराजकता फैलायी?

कोंगीयोंका ध्येय ही, हर कदम पर, सियासती लाभ प्राप्त करना है. इसीलिये लोक नायक जय प्रकाश नारायणने १९७४में कहा था कि कोंगी अच्छा काम भी बुरी तरहसे करता है.

क्या कश्मिरमें शासनकी भाषा कश्मिरी भाषा है?

क्या हरियाणामें शासनकी भाषा हरियाणवी है?

क्या पंजाबमें शासनकी भाषा पंजाबी है?

क्या हिमाचलमें शासनकी भाषा गढवाली है,

क्या मेघालयमें शासनकी भाषा खासी है?

ऐसे कई राज्य है जिनमें राज्यकी स्थानिक भाषा,  शासनकी भाषा  नहीं है. यह है कोंगीयोंका कृतसंकल्प. कोंगीयोंने अपने शासनके  ७० वर्ष तक जनताके परम हितकी अवमानना करके अनिर्णायकता रक्खी.

शिरीष मो. दवे

चमत्कृतिः

भारतको  १९४७में स्वतंत्रता मिलने पर बडौदामें क्या हुआ?

बडौदा राज्यमें शासनकी भाषा बदली. गुजरातीके बदलेमें अंग्रेजी आयी.

वाह कोंगी स्वतंत्रता, तेरा कमाल ?

हाँजी बरोडाके गायकवाडके राज्यमें शासनकी भाषा (वहीवटी भाषा गुजराती थी)

लेकिन स्वतंत्रता आनेसे उसका मुंबई प्रान्तमें विलय हुआ. मुंबई प्रांतकी वहीवटी भाषा अंग्रेजी थी.

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नहेरुवीयन कोंग्रेसके लिये सुनहरा मौका

“जातिवाद आधारित राज्य रचना” की मांग रक्खो

जी हाँ, नहेरुवीयन कोंग्रेसके लिये, प्रवर्तमान समय एक अतिसुनहरा मौका है. सिर्फ नहेरुवीय कोंग्रेस ही नहीं लेकिन उसके सांस्कृतिक साथीयोंके लिये भी यह एक सुनहरा मौका है. इस मुद्देका लाभ उठा के नहेरुवीयन कोंग्रेस सत्ता भी प्राप्त कर सकती है.

आप पूछोगे कि ऐसा कौनसा मुद्दा है जिस मुद्देको उछाल के नहेरुवीयन कोंग्रेस सत्ता प्राप्त कर सकती है?

अब आप एक बात याद रख लो कि जब भी हम “नहेरुवीयन कोंग्रेस” शब्दका प्रयोग करते है आपको इसका निहित अर्थ “नहेरुवीयन कोंग्रेस पक्ष और उसके सांस्कृतिक साथी” ऐसा समज़ना है. क्यों कि समान ध्येय, विचार और आचार ही तो पक्षकी पहेचान है.

तो अब हम बात आगे चलावें

नहेरुवीयन कोंग्रेसका ध्येय

नहेरुवीयन कोंग्रेसका ध्येय नहेरु वंशको आगे बढाना है, नहेरुवीयन वंशज के लिये सत्ता प्राप्त करना है ताकि वे सत्ताकी मौज लेते रहे और अन्य लोग स्वंयंके परिवार और पीढीयोंकी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा और सुख के लिये पैसा कमा सके.

तो अब क्या किया जाय?

देखो, अविभक्त भारतमें हिन्दु-मुस्लिम संबंधोंकी समस्या थी. तो नहेरुने हिन्दु राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्रके फेडर युनीयनको नकार दिया और पाकिस्तान और भारत बनाया. लेकिन कुछ समय बाद मतोंकी भाषा राष्ट्रभाषा और राज्य भाषाकी समस्याओंका महत्व सामने आया. तो हमने (नहेरुवीयन कोंग्रेसने)  भाषाके आधार पर राज्योंकी रचना की.

अब इसमें क्या हूआ कि हिन्दु-मुस्लिम झगडोंकी समस्या तो वहींकी वहीं रही लेकिन इस समस्या पर आधारित अन्य समस्याएं भी पैदा हूई. उसके साथ साथ भाषा के आधार पर और समस्याएं पैदा होने लगी. भूमि-पुत्र और जातिवाद आधारित समस्याएं भी पैदा होने लगी.

आप कहेंगे कि क्या इन समस्याओंका समाधान करने की नहेरुवीयन कोंग्रेसने कोशिस नहीं की?

अरे वाह !! आप क्या बात कर रहे हो? नहेरुवीयन कोंग्रेसने तो अपने तरीकेसे समस्याका हल करनेका पूरी मात्रामें प्रयत्न किया.

नहेरुवीयन तरीका क्या होता है?

कोई भी समस्या सामने आये तो उसको अनदेखा करो. समस्या कालचक्रमें अपने आप समाप्त हो जायेगी…

अरे वाह !! यह कैसे?

देखो हिन्दु-मुस्लिम समस्याको हल ही नहीं क्या. इसके बदले नहेरुने जीन्नाके साथ झगडा कर दिया. फिर हिन्दुस्तान पाकिस्तान हो गया. और हिन्दु-मुस्लिम झगडा तो कायम रहा.

समस्याका समाधान

तिबट अपनी आझादी बचाने के लिये संघर्ष कर रहा था. हमारी समस्या थी कि तिबटकी सुरक्षा कैसे करें !! तो नहेरुने चीनके साथे दोस्ती करके तिबट पर चीनका प्रभूत्व मान लिया. लेकिन एक और समस्या पैदा हुई कि चीन हमारे देशकी सीमाके पास आ गया और उसने घुसखोरी चालु की. तो नहेरुने पंचशील का करार किया. तो कालक्रममें चीनने भारत पर आक्रमण कर दिया. जरुरतसे ज्या भूमि पर कब्जा कर दिया. तो हमारा पूराना सीमा विवाद तो रहा नहीं. वह तो हल हो गया. नया सीमा विवादका तो देखा जायेगा. तिबटकी समस्या हमारी समस्या रही ही नहीं.

पाकिस्तान हमारा सहोदर है. पाकिस्तानमें आंतरविग्रह हुआ तो पूर्वपाकिस्तानसे घुस खोर लाखोंकी संख्यामें आने लगे. तो हमारे लिये एक समस्या बन गई. इन्दिरा गांधीने यह समस्या प्रलंबित की. तो पाकिस्तानने भारतकी हवाई पट्टीयों पर आक्रमण कर दिया. हमारी सेनाने पाकिस्तानको परास्त किया तो भारतको घुसखोरोंके साथ साथ ९००००+ युद्ध कैदीयोंको खाने पीनेका इंतजाम करना पडा. सिमला करार किया और युद्ध कैदी पश्चिम पाकिस्तानको ही परत कर दिया. तो कालचक्रमें आतंकवाद पैदा हो गया. तो हिन्दु लोग विस्थापित हो गये. उनका पूनर्वसनकी समस्या पैदा गई. होने दो. ऐसी समस्याएं तो आती ही रहती है. विस्थापित हिन्दुओंकी समस्याको नजर अंदाज कर दो. हिन्दु लोग अपने आप निर्वासित कैंपसे कहीं और जगह अपना मार्ग ढूंढ लेगे. नहेरुवीयनोने कुछ किया नहीं. आतंकी मुस्लिम लोग भारतमें घुसखोरी करने लगे और बोंब ब्लास्ट करने लगे. आतंकी मुस्लिम अपना अपना गुट बनाने लगे. स्थानिक मुस्लिमोंका सहारा लेने लगे. उनको गुट बनाने दो हमारा क्या जाता है. एक समस्या को हल नहीं करनेसे कालांतरमें अनेक और समस्याएं पैदा होती है. और मूल समस्याका स्वरुप बदल जाता है. तो उसको नहेरुवीयन लोग समाधान मान लेते है और मनवा लेते है.

जातिवादी समस्या भी ऐसी ही थी. अछूतोंके लिये आरक्षण रक्खा. अछूतोंका उद्धार नहीं किया लेकिन उनके कुछ नेताओंका उद्धार किया. और आरक्षण कायम कर दिया. तो और जातियां कहेने लगी हमें भी आरक्षण दो. नहेरुवीयनोंने एक पंच बैठा दिया और जिनको भी आरक्षण चाहीये वे अपनी जातिका नाम वहां दर्ज करावें. अब आरक्षणका व्याप बढने लगा. जिसने भारत पर दो शतक राज्य किया वे मुस्लिम लोग कहेने लगे हम भी गरीब है हमें भी आरक्षण दो. तो नहेरुवीयनोंने कहा कि तुम्हे अकेलेको आरक्षण देंगे तो हम तुम्हारा तुष्टी करण करते है ऐसा लोग कहेंगे. इस लिये उन्होने “लघुमति”के लिये विशेष प्रावधान किये. रामके वंशज रघुवंशी कहेने लगे हमे भी आरक्षण दो. क्रुष्णके वंशज यादव कहेने लगे हमें भी आरक्षण दो. अब जब भगवानके वंशज आरक्षण मांगने लगे तो और कौन पीछे रह सकता है?

जटने बोला हमें भी आरक्षण दो. महाराष्ट्रके ठाकुरोंने बोला कि हमें भी आरक्षण दो. अब हुआ ऐसा कि कमबख्त सर्वोच्च अदालतने कहा कि ४९ प्रतिशतसे अधिक आरक्षण नहीं दे सकते. तो अब क्या करें?

आरक्षण, हिन्दु-मुस्लिम और हिन्दु-ख्रिस्ती समस्याओंका कोई पिता है तो वह नहेरुवीयन कोंग्रेस है. उसको सहाय करने वाले भी अनेक बुद्धिजीवी है उनका एजंडा भी नहेरुवीयनोंकी तरह “जैसे थे”-वादी है. ये लोग वास्तवमें दुःखी जीवनका कारण पूर्वजन्मके पाप मानते है इसलिये समस्याके समाधान पर ज्यादा चिंता करना आवश्यक नहीं है. सब लोग अपनी अपनी किस्मत लेके पैदा होते है. इसलिये समस्याओंका समाधान ईश्वर पर ही छोड दो. ईश्वरके काममें हस्तक्षेप मत करो.

लेकिन हमसे रहा नहीं जाता है. हम नहेरुवीयन कोंग्रेसका आदर करते है. कटूतासे हम कोसों दूर रहते है. त्याग मूर्ति नहेरुवीयन कोंग्रेसको सत्ता प्राप्त करनेका और वह भी यावतचंद्र दिवाकरौ तक उसीके पास सत्ता रहे ऐसा रास्ता हम दिखाना चाहते है.

यह रास्ता है कि नहेरुवीयन कोंग्रेस ऐसी छूटपूट जातिवादी आधारित आरक्षण और धर्म आधारित आरक्षणके बदले धर्म और जाति आधारित “राज्य रचना”की मांग पर आंदोलन करें. ऐसा आंदोलन करनेसे उसको सत्ताकी प्राप्ति तो होगी ही, उतना ही नहीं, धर्म आधारित और जाति अधारित राज्य रचनासे हिन्दु-मुस्लिम समस्याएं, हिन्दु-ख्रिस्ती समस्याएं, मुस्लिम-ख्रिस्ती समस्याएं, भाषा संबंधित समस्याएं जातिवादी समस्याएं, आरक्षण संबंधी समस्याएं, आर्टीकल “३५-ए” संबंधित समस्या, आर्टीकल ३७० संबंधित समस्या, पाकिस्तान हस्तक काश्मिर समस्या, आतंकी समस्या, पत्थरबाज़ोकी समस्या आदि कई सारी समस्याएं नष्ट हो जायेगी.

आप कहोगे ऐसा कैसे हो सकता है?

आप कहोगे भीन्न भीन्न जातिके, भीन्न भीन्न धर्मके लोग तो बिखरे पडे है और राज्य तो भौगोलिक होगा है. धर्म और जाति आधारित राज्य रचना करनेमें ही अनेक समस्याएं पैदा होगी. और यदि ऐसी राज्य रचना हो भी गई तो इसके बाद भी कई प्रश्न उठेंगे जिनका समाधान असंभव है. यदि आप समास्याओंके समाधानके लिये नहेरुवीयन तरीका अपनावें तो ठीक है लेकिन आपको पता होना चाहिये कि समस्याको हल ही नहीं करना, समस्याका समाधान नहीं है. मान लो कि नहेरुवीयन कोंग्रेसने जाति आधारित और धर्म आधारित राज्य रचनाके मुद्दे पर आंदोलन चलाया और सत्ता प्राप्त भी कर ली, तो वह कैसे जाति और धर्म पर आधारित राज्य रचना करेगी. यदि आप नहेरुवीयन कोंग्रेसकी अकर्मण्यता पर विश्वास करते है तो आप दे सकते है कि नहेरुवीयन कोंग्रेसका क्या हाल हुआ. समस्याका समाधान किये बिना नहेरुवीयन कोंग्रेस अब सत्ता पर नहीं रह सकती.

अरे भाई, हम अब नहेरुवीयन कोंग्रेसका उद्धार करनेके लिये प्रतिबद्ध है और हम उसको एक क्षति-रहित फोर्म्युला वाली सूचना देना चाहते है.

(क्रमशः)

शिरीष मोहनलाल दवे

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