Posted in Social Issues, tagged अंग्रेजी, अत्याचार और नरसंहार, अपूर्ण रोमन लिपि, अवमानना, असम, आतंकवादसे लिप्त, इन्दिरा नहेरुघांडी कोंग्रेस = आई.एन.सी., इन्दिराका सत्ता लक्षी एजन्डा, ईशान क्षेत्र संपत्तिवान, ईशानीय राज्य, कच्छ, कश्मिरी, काठीयावाड सौराष्ट्र, केन्द्र सरकार, कोंगी, कोंगीयोंका एजन्डा, क्रीश्चीयन मीशनरी, खासी, गुजरात, गुजराती, गुजराती और मराठी ल्गोंके बीच वैमनस्य, घुस पैठीया, घुसपैठी मुस्लिम, जम्मु-कश्मिर, जहाँ जन्म लिया, द्वेषभाव, धर्म प्रचार, धार्मिक अलगतावाद, नहेरुमें आर्ष दृष्टिका अभाव, पर प्रांतीय, पश्चिम बंगाल, प्रभूत्व, प्राकृतिक संपदा, बंगाली, बंग्लादेश, बिहारी, बेंगाली लिपि, ब्रीटीश एजन्डा, भारतसे भीन्न है, भूमि-पुत्र, मारवाडी, मेघालय, यदि महाष्ट्रीयन लोगोंको मुंबई मिलेगा तो मुझे आनंद होगा, रोमन लिपि, लिपि परिवर्तन, वसुदेव और वासुदेव, वहीवटी भाषा, विदेशी घुस पैठी हिन्दु, शासनकी भाषा, शिव सेना, शिवाजी सेना, सुएज सेना, सोनिया सेना, स्थानिक कला, स्थानिक जनता, स्थानिक जनताकी संस्कृति, स्थानिक पर्व, स्थानिक भाषा, हमें अलग देश चाहिये, ७० प्रतिशत संपत्ति, ९० प्रतिशत्र उद्योग on June 8, 2020|
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कोंगी और भूमि-पुत्र और धिक्कार
भूमि-पुत्र कौन है?
जिसने जहां जन्म लिया वह वहाँका भूमि-पुत्र है.
क्या यह पर्याप्त है?
नहीं जी. जिसने जहाँ जन्म लिया, भूमि पुत्र बननेके लिये व्यक्ति को उस प्रदेशकी भाषा भी आनी चाहिये, और यदि वह उस राज्यमें १५ साल से रहेता है, तो वह उस राज्यका भूमि-पुत्र माना जाना चाहिये. यदि वह अवैध (घुस पैठीया अर्थात् विदेशी घुसपैठीया है) रुपसे रहता है तो यह बात राज्य और केन्द्र सरकार मिलके सुनिश्चित कर सकती है. यदि इसमें केन्द्र सरकार और राज्य सरकारमें भीन्नता है तो न्यायालयका अभिप्राय माना जायेगा.
भूमि-पुत्रकी समस्या किन स्थानों पर है?
सबसे अधिक भूमि-पुत्रकी समस्या जम्मु- कश्मिरमें और ईशानके राज्योमें है.
जम्मु-काश्मिरकी समस्या कोंगीयोंने वहाँ के स्थानिक मुस्लिमोंके साथ मिलकर उत्पन्न की है. वहाँ तो हिन्दुओंको भी भगा दिया है. ४४००० दलित कुटूंब, जो जम्मु-कश्मिरमें १९४४से रह रहे है जब तक नरेन्द्र मोदी सरकारने अनुच्छेद ३७० और ३५ए दूर नहीं किया था तब तक उनको भूमि-पुत्र नहीं माना जाता था. जनतंत्रका अनादर इससे अधिक क्या हो सकता है?
अब वहाँ की स्थिति परिवर्तन की कैसी दीशा पकडती है उस पर नयी स्थिति निर्भर है.
ईशानीय राज्योंमें भूमि-पुत्रकी क्या समस्या है?
विदेशी घुसपैठी मुस्लिम
विदेशी घुसपैठी हिन्दु
भारतके अन्य राज्योंके बंगाली, बिहारी, मारवाडी …
विदेशी घुसपैठीकी समस्या का समाधान तो केन्द्र सरकार करेगी.
लेकिन विदेशी घुसपैठी इनमें जो हिन्दु है उनका क्या किया जाय?
विदेशी घुसपैथीयोंमें बंग्लादेशी हिन्दु है.
दुसरे नंबर पर पश्चिम बेंगालके हिन्दु है. इन दोनोंमे कोई फर्क नहीं होता है.
पश्चिम बंगालसे जो हिन्दु आये है उन्होंने सरकारी नौकरीयों पर कब्जा कर रक्खा है. असमकी सरकारी नौकरीयोंमें बेंगालीयोंका प्रभूत्व है.
असममें और ईशानमें भी, पश्चिम बेंगालके लोग अपनी दुकानमें स्थानिक जनताको न रखके अपने बेंगालीयोंको रखते हैं. इस प्रकार राज्य की छोटी नौकरीयां भी स्थानिकोंको कम मिलतीं है.
भूमिगत निर्माण कार्योंमें भी, पर प्रांतके कोन्ट्राक्टर लोग, अपने राज्यमेंसें मज़दुरोंको लाते है. अपनी दुकानोंमें भी वे अपने राज्यके लोगोंको रखते है.
इसके कारण स्थानिकोंके लिये व्यवसाय कम हो जाते है. इस प्रकार स्थानिक जनतामें परप्रांतियोंके प्रति द्वेषभावना उत्पन्न होती है.
इस कारणसे क्षेत्रवाद जन्म लेता है, दंगे भी होते है, आतंकवाद उत्पन्न होता, और सबसे अधिक भयावह बात है यह वह है कि इन परिस्थितियोंका लाभ ख्रीस्ती मिशनरीलोग, स्थानिकोंमें अलगतावाद उत्पन्न करके उनका धर्म परिवर्तन करते है और फिर उनके प्रांतीय अलगतावाद और धार्मिक अलगता वादका सहारा लेके स्थानिकोंमें “हमें अलग देश चाहिये” इस भावनाको जन्म देते है.
मेघालयः
उदाहरणके लिये आप मेघालयको ले लिजीये. यह पूर्णरुपसे हिन्दु राज्य था. (नोर्थ-ईस्ट फ्रन्टीयर्स = ईशानके सीमागत)). ब्रीटीशका तो एजन्डा धर्म प्रचारका था ही. किन्तु कोंगीने ब्रीटीशका एजन्डा चालु रक्खा. नहेरुमें आर्ष दृष्टि थी ही नहीं कि ब्रीटीशका एजन्डा आगे चलके गंभीर समस्या बन सकता है. इन्दिराका काम तो केवल और केवल सत्ता लक्षी ही था. उसने क्रीस्चीयन मीशनरीयोंको धर्मप्रचारसे रोका नहीं.
लिपि परिवर्तन
मेघालयकी स्थानिक भाषा “खासी” है. यह भाषा पूर्वकालमें बंगाली लिपिमें लिखी जाती थी. कोंगीके शासनमें ही वह रोमन लिपिमें लिखी जाने लगी. रोमन लिपिसे ज्ञात ही नहीं होता है कि वसुदेव लिखा है या वासुदेव लिखा है. ऐसी अपूर्ण रोमन लिपिको क्रीस्चीयन मीशनरीयोंने लागु करवा दी. ऐसा करनेसे खासी (मेघालयके स्थानिक) लोगोंमें वे “भारतसे भीन्न है” भावना बलवत्तर बनी. ऐसी ही स्थिति अन्य राज्योंकी है. असमके लोगोंने अपनी लिपि नहीं बदली किन्तु अलगताकी भावना उनमें भी विकसित हुई. मूल कारण तो विकासका अभाव ही था.
एक काल था, जब यह ईशानका क्षेत्र संपत्तिवान था. कुबेर यहाँ का राजा था. आज भी इशानके राज्योंमें प्राकृतिक संपदा अधिक है, किन्तु शीघ्रतासे कम हो रही है.. इन्दिरा नहेरुघान्डी कोंग्रेसने इन राज्योंका विकास ही नहीं किया. इसके अतिरिक्त कोंगीने अन्य समस्याओंको जन्म दिया और उन समस्याओंको विकसित होने दिया.
ईशानके राज्य आतंकवाद से लिप्त बने. ईशानके राज्योंमें परप्रांतीय भारतीयों पर हुए अत्याचारोंकी और नरसंहारकी अनेक कथाएं है. इनके उपर बडा पुस्तक लिखा जा सकता है.
सियासतका प्रभाव
भूमि-पुत्रकी समस्यामें जब सियासत घुसती है तो वह अधिक शीघ्रतासे बलवत्तर बनती है. जहाँ स्थानिक लोग शिक्षित होते है वे भी सियासतमें संमिलित हो जाते है.
मुंबई (महाराष्ट्र) ; १९५४-५५में नहेरुने कहा “यदि महाराष्ट्रीयन लोगोंको मुंबई मिलेगा तो मुझे खुशी होगी.” इस प्रकार नहेरुने मराठी लोगोंको संदेश दिया कि,” गुजराती लोग नहीं चाहते है कि महाराष्ट्रको मुंबई मिले.” ऐसा बोलके नहेरुने मराठी और गुजरातीयोंके बीचमें वैमनस्य उत्पान्न किया.
वास्तवमें तो कोंग्रेसकी केन्द्रीय कारोबारीका पहेलेसे ही निर्णय था कि “गुजरात, महाराष्ट्र और मुंबई” ऐसे तीन राज्य बनाया जाय. किन्तु बिना ही यह निर्णयको बदले, नहेरुने ऐसा बता दिया कि गुजराती लोग चाहते नहीं है कि मुंबई, महाराष्ट्रको मिले.
मुंबईको बसाने वाले गुजराती ही थे. गुजरातीयोंमे कच्छी, काठीयावाडी (सौराष्ट्र), गुजराती बोलनेवाले मारवाडी, और गुजराती (पारसी सहित) लोग आते है. ९० प्रतिशत उद्योग इनके हाथमें था. स्थानिक संपत्तिमें ७० प्रतिशत उनका हिस्सा था. गुजरातीयोंने स्थानिक लोगोंको ही अवसर दिया था. गुजराती कवि लोगोंने शिवाजीका और अन्य मराठाओंका गुणगान गाया है. सेंकडों सालसे गुजराती और मराठी लोग एक साथ शांतिसे रह रहे थे. उनमें नहेरुने आग लगायी. मुंबई एक व्यवसायोंका केन्द्र है. गुजराती लोग व्यवसाय देनेवाले है. गुजराती लोग व्यवसाय छीनने वाले नहीं है. यदी गुजराती लोग चाह्ते तो वडोदरा जो पेश्वाका राज था वहांसे मराठी लोगोंको भगा सकते थे. किन्तु गुजराती लोग शांति प्रिय है. उन्होंने ऐसा कुछ किया नहीं.
शिव सेना न तो शिवजीकी सेना है, न तो वह शिवाजीकी सेना है.
महाराष्ट्रकी सियासती कोंग्रेसी नेताओंने मराठीयोंका एक पक्ष तैयार किया. उसका नाम रक्खा शिव सेना. जिनका उद्देश साठके दशकमें कर्मचारी मंडलोंमेंसे साम्यवादीयोंका प्रभूत्त्व खतम करनेका था, और साथ साथ महाराष्ट्र स्थित केन्द्र सरकारके कार्यालयोंमेंसे दक्षिण भारतीयोंको हटानेका था. यह वही शिवसेना है जिसके स्थापकने इन्दिराको आपत्कालमें समर्थन दिया था. और आज भी यह शिवसेना सोनिया सेना बनके इन्दिरा नहेरुघांडीकी भाषा बोल रही है.
दक्षिण भारत
दक्षिणके राज्योंमे भाषाकी समस्या होनेसे उत्तरभारतीय वहाँ कम जाते है. लेकिन ये उत्तर भारतीय जिनमें राजस्थान, मध्यप्रदेश, ओरीस्सा, उत्तर प्रदेश, बिहार … वे गुजरात, मुंबई (महाराष्ट्र) में नौकरीके लिये अवश्य आते है. ये लोग अपने राज्यमें भूखे मरते है इसीलिये वे गुजरात में (और मुंबईमें भी) आके कोई भी नौकरी व्यवसाय कर लेते है. इनकी वजह से गुजरात और मुंबईमें झोंपड पट्टी भी बढती है. कोंगीने और समाचार माध्यमोंने गुजरातमें भाषावाद पर लोगोंको बांटनेका २००१से प्रयत्न किया था. एक “पाटीदार (पटेल)”को नेता बनाया था. उसने प्रथम तो आरक्षणके लिये आंदोलन किया था. वह लाईम लाईटमें आया था. कोंगीने परोक्षरुपसे उसका समर्थन भी किया था. शिवसेनाके उद्धव ठाकरेने उसको गुजरातका मुख्य मंत्री बनानेका आश्वासन भी दिया था. कोंगीयोंने परोक्ष रुपसे गुजरातसे कुछ उत्तर भारतीयोंको भगानेका प्रयत्न भी किया था. कोंगीलोग गुजरातमें सफल नहीं हो पाये.
राहुल गांधीने दक्षिण भारतमें जाके ऐसी घोषणा की थी कि बीजेपी सरकार, दक्षिणभारतीय संस्कृतिकी रक्षा नहीं कर रही है. हम यदि सत्तामें आयेंगे तो दक्षिण भारतीय संस्कृतिकी पूर्णताके साथ रक्षा करेंगे. कोंगीयोंका क्षेत्रवाद और भाषावादके नाम पर भारतीय जनताको विभाजित करनेका यह भी एक प्रकार रहा है.
ईशान, बंगाल और कश्मिरके अतिरिक्त, क्वचित् ही कोई राज्य होगा जहां पर यदि आप उस राज्यकी स्थानिक भाषा सिखलें तो आपको कोई पर प्रांतीय समज़ लें.
भाषासे कोई महान है?
“गर्म हवा” फिल्ममें एक घटना और संवाद है.
परिस्थित ऐसी है कि एक मुस्लिम ने सरकारी टेन्डर भरा. बाकीके सब हिन्दु थे.
मुस्लिम के लिये यह टेन्डर लेना अत्यधिक आवश्यक था. लेकिन धर्मको देखते हुए असंभव था. उसके घरवालोंको लगा कि यह टेन्डर उसको मिलेगा ही नहीं. जब वह मुस्लिम घर पर आया तो घरवालोंने पूछा कि टेन्डर का क्या हुआ? उस मुस्लिमने बताया कि “धर्म से भी एक चीज महान है … वह है रिश्वत … मुझे वह टेन्डर मिल गया.”
उसी प्रकार, भाषासे भी एक चीज़ महान है वह एक सियासत. सियासती परिबल किसी भी समस्याका हल है और वह है नेताओंकी जेब भर देना.
किन्तु यह रास्ता श्रेयकर नहीं है.
कौनसा रास्ता श्रेयकर है?
प्रत्येक राज्यके लोगोंकी अपनी संस्कृति होती है.
शासन में स्थानिकोंका योगदान आवश्यक है
स्थानिकोंका आदर करना आवश्यक है
स्थानिककोंकी भाषा हर कार्यालयमें होना आवश्यक है,
स्थानिकोंके रहन सहनका आदर और उसको अपनाना आवश्यक है,
स्थानिकोंके पर्व में योगदान देना आवश्यक है,
स्थानिकोकी कलाओंको आदर करना और अपनाना आवश्यक है,
ऐसा तब हो सकता है कि जब राज्यके शासनकी भाषा स्थानिक भाषा बनें.
ऐसी स्थिति की स्थापना करनेके लिये महात्मा गांधीने कोंग्रेसकी कारोबारी द्वारा भाषाके अनुसार राज्य नव रचना करना सूचित किया था. प्रत्येक राज्यका शासन उसकी स्थानिक भाषामें होने से प्रत्येक राज्यकी अस्मिता सुरक्षित रहेती है.
राज्य स्थित केन्द्रीय कार्यालयोंमें भी स्थानिक भाषा ही वहीवटी भाषा होना चाहिये.
पर प्रांतीय लोग, यदि स्थानिक लोगोंका आदर करनेके बदले उनको कोसेंगे तो वे लोग स्विकार्य नहीं होंगे. इसका अर्थ यह है कि वे स्थानीय जनताका एवं उनकी संस्कृतिका आदर करें और उनके उपर प्रभूत्त्व जमानेकी कोशिस न करें.
परप्रांतीय लोग यदि स्थानिक जनता की भाषा अपना लें तो, ६० प्रतिशत समस्याएं उत्पन्न ही नहीं होती हैं..
क्या आप सोच सकतें है कि आप बिना फ्रेंचभाषा सिखें फ्रान्समें आरामसे रह सकते है?
क्या आप सोच सकते है कि आप बिना जापानी भाषा पढे जापानमें रह सकते है?
क्या आप सोच सकते है कि आप स्पेनीश भाषा पढें स्पेन और दक्षिण अमेरिकामें आरामसे रह सकते है?
भारत देश भी, वैविध्यतासे भरपूर है. वही भारतका सौंदर्य है.
७० प्रतिशत स्थानिक संस्कार स्विकृत करें. ३० प्रतिशत अपना मूल रक्खें.
कोंगीने कैसे अराजकता फैलायी?
कोंगीयोंका ध्येय ही, हर कदम पर, सियासती लाभ प्राप्त करना है. इसीलिये लोक नायक जय प्रकाश नारायणने १९७४में कहा था कि कोंगी अच्छा काम भी बुरी तरहसे करता है.
क्या कश्मिरमें शासनकी भाषा कश्मिरी भाषा है?
क्या हरियाणामें शासनकी भाषा हरियाणवी है?
क्या पंजाबमें शासनकी भाषा पंजाबी है?
क्या हिमाचलमें शासनकी भाषा गढवाली है,
क्या मेघालयमें शासनकी भाषा खासी है?
ऐसे कई राज्य है जिनमें राज्यकी स्थानिक भाषा, शासनकी भाषा नहीं है. यह है कोंगीयोंका कृतसंकल्प. कोंगीयोंने अपने शासनके ७० वर्ष तक जनताके परम हितकी अवमानना करके अनिर्णायकता रक्खी.
शिरीष मो. दवे
चमत्कृतिः
भारतको १९४७में स्वतंत्रता मिलने पर बडौदामें क्या हुआ?
बडौदा राज्यमें शासनकी भाषा बदली. गुजरातीके बदलेमें अंग्रेजी आयी.
वाह कोंगी स्वतंत्रता, तेरा कमाल ?
हाँजी बरोडाके गायकवाडके राज्यमें शासनकी भाषा (वहीवटी भाषा गुजराती थी)
लेकिन स्वतंत्रता आनेसे उसका मुंबई प्रान्तमें विलय हुआ. मुंबई प्रांतकी वहीवटी भाषा अंग्रेजी थी.
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