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पी.के. ने पीके किया नशा? कथांक – २

विश्वमें एक हिन्दु धर्म ऐसा है कि जिसमें विज्ञान जैसा खुलापन है. यह खुलापन हजारों सालसे है.

हिन्दु धर्ममें वेद प्रमाण है. किन्तु वेदोंको समझना कठिन है. इसलिये उपनिषद है. उपनिषद विशेषज्ञोंके लिये है. इस लिये कृष्ण भगवानने वेदोंके आधारपर उपनिषदोंका दोहन किया और उस दूधका दहीं बनाके तक्रका मंथन करके गीताके स्वरुपमें मक्खन बनाके आम जनताको प्रस्तूत किया. अगर गीतामें वेदोंके साथ कोई विरोधाभाष है तो वेद प्रमाण है. किन्तु वेदप्रमाण और प्रत्यक्ष प्रमाणमें यदि कोई विरोधाभाष है तो जो प्रत्यक्ष है वह प्रमाण है. ऐसा आदि शंकराचार्यने कहा है.

यह हिन्दुओंका खुलापन है. जब ज्ञातिप्रथा अत्यंत जड थी तब भी उसके विरुद्धमें विद्रोह उठाने वाले लोग थे. हिन्दु लोग अपनी प्रणालीयोंमें यदा कदा क्षति पाते है तो वे उन क्षतियोंको सुधारने के लिये सक्षम भी है. उसमें अन्य धर्मीयोंको चंचूपात करनेकी जरुरत नहीं है. अन्य धर्मी स्वयंकी क्षतियों पर आत्मखोज करें वह हि उनके लिये योग्य है.

पी. के. का उद्देश क्या था?
वास्तवमें पी. के. का उद्देश अंधश्रद्धा निर्मूलन है ही नहीं.
हिन्दु धर्ममें एक खुलापन होनेसे वह चर्चाके लिये एक आसान लक्ष्य बनता है. उसके विरोधियोंके लिये यह एक आनंदका विषय बनता है.
हिन्दु धर्म एक भीन्न प्रकारका धर्म है.

अन्य धर्मोंने अपने धर्मोंके आधार पर, धर्मकी जो परिभाषा की है, उस व्याख्या के अनुरुप हिन्दु धर्म नहीं है.

इस लिये अन्य धर्मी लोग हतःप्रभः है.
ये विधर्मी जहां कहीं भी गये उन्होने सौ वर्ष के अंतर्गत उन देशोंके ९५ से १०० प्रतिशतको अपने धर्ममें परिवर्तित कर दिये. किन्तु भारतवर्ष जहां विधर्मी जातियोंनें २०० से ८०० साल तक शासन किया तो भी ८० प्रतिशत भारतवासी हिन्दु धर्मी ही रहे. हिन्दुंओंकी तथा कथित क्षतियों को भरपूर हवा देने पर भी वे हिन्दु ही रहे. यह बात इन लोगोंके लिये आघातजनक है. ये लोग आत्म खोज करने के स्थान पर, बिना सोचे समझे, और बिना हिन्दु धर्मकी गहनताका अभ्यास किये, हिन्दुओंके आचार पर आक्रमण करना पसंद करते है.
सामान्य जनतामें धर्म, ज्ञान के उपर चलता नहीं है किन्तु श्रद्धाके आधार पर चलता है. इन अन्य धर्मीयोंकी व्युह रचना यह है कि अगर सामान्य जनताको हिन्दु धर्मके ज्ञानीयोंसे अलग की जाय तो फिर संख्या के आधार पर इन ज्ञानी लोगोंसे तो निपटा जा सकता है.

मुस्लिमोंने ६०० वर्षतक हिन्दु राजाओंसे संघर्ष किया. ऐसा करते करते वे खुद आधे हिन्दु बन गये. जो मुस्लिम राजा आधे हिन्दु नहीं बने और धर्मांध भी थे उन्होने गरीबोंको और आशितोंको मुस्लिम बनानेके प्रयास किये. कुछ लोगों पर जबरदस्ती भी की, हत्याएं भी की, थोडे सफल भी रहे. किन्तु जितना वे अन्य देशोमें सफल हुए उतना यहां नहीं हो पाये.
इस बातका मुस्लिमोंको अफसोस भी नहीं था. क्यों कि ६०० वर्षके अंतरालमें खुदका राज बचाने की नौबत उनको आगयीं थीं. जब औरंगझेब मृत्युशैया पर था तब मुगल साम्राज्य तहस नहस हो गया था.
अंग्रेजोंने कूट नीति चलायी. भारतीयोंको गलत और विभाजनवादी इतिहास पढाया. अंग्रेजी भाषाको भारतीयों पर ठोक दी. अंग्रेजी भाषाके जाननेवालोंको नौकरीयोंकी सुविधाएं दी. उनका मान बढाया. पाश्चात्य शिक्षाको ही स्विकृति दी. हिन्दुधर्म के पुरस्कर्ताओंको धर्मांध ठहेराया. हिन्दुओंके लिखे पुस्तकोंको सर्वांश नकार दिया.
इतना करने के बावजुद भी, हिन्दुओंके सामने इन लोगोंकी पराजय हर मोड पर निश्चित थी. उन्होने ऐसे हाथोंमें स्वतंत्र भारतका सुकान दिया कि जो संस्कारमें उनकी योजना आगे चलायें.

वह था नहेरु.

उसने विभाजन वादी प्रक्रियाएं चालु रक्खी. और पाश्चात्य पंडितोंने लिखा हुआ इतिहास भी चालु रक्खा. हिन्दुओंको अपमानित करना चालु रक्खा. मुसलमानोमें यह भावना रक्खी की वे हिन्दुओंसे भीन्न है.

मुसलमान समझने लगे कि उनका इतिहास अधुरा है. ख्रिस्ती भी ऐसा समझने लगे कि उनका इतिहास भी भारतमें अधुरा है. क्यों कि दोनों भारत को ९५-१०० प्रतिशत अ-हिन्दु कर नहीं पाये.

मुसलमानोंका इतिहास क्या है?
जहां भी उनका शासन हुआ वहां उन्होने १०० प्रतिशत जनताका धर्म परिवर्तन किया और सबको मुस्लिम बना दिया. यहां तक कि ईजिप्त, सुमेरु बेबीलोनकी सुसंस्कृत संस्कृतियोंका पतन किया. उनके धर्मस्थानोंको तोड दिया. उन धर्मस्थानोंके उपर अपने धर्मस्थान बनाये. वहांकी जनताका जबरदस्तीसे धर्म परिवर्तन किया. मुस्लिम शासकोंने हर जगह ऐसा ही किया था. भारतमें भी उन्होने हजारों देवस्थानोंको नष्ट किया. नालंदा, तक्षशीला, वलभीपुर जैसे विश्वविद्यालयोंको भी पूरी तरह नष्ट किया था. किन्तु भारतमें कई राजाओंने उनको पराजित किया इस लिये वे अपने ध्येयमें १०० प्रतिशत सफल नहीं रहे.

ख्रिस्ती शासकोंने क्या किया?
उन्होनें वही किया जो मुस्लिमोंने आतंकवादी बनके अन्यत्र किया था. उसके उपरांत ख्रिस्ती शासकोंने वहांके आदिवासीयोंका करोडोंकी संख्यामें कत्ल किया. उनकी भाषा भी नष्ट की. आज अमेरिकाके बचे हुए आदिवासी सब ख्रिस्ती है. उनकी मूल भाषा भी विलुप्त हो गयी है. माया-संस्कृतिका और उस धर्मको माननेवालोंका एक आदमी आपको कहीं भी मिलेगा नहीं. केवल इतिहासके पन्नों पर माया संस्कृति और उसकी भाषा आपको मिलेगी.

THEY ARE ENDED UP

किसी भी संस्कृतिको अगर नष्ट करना है तो उसकी भाषा, प्रणालीयां और धर्मस्थानोंको नष्ट करदो तो वह अपने आप नष्ट हो जायेगी.

भारतमें अब तक नहेरुवीयन कोंग्रेसका शासन था. इन्होने हिन्दु धर्मको धर्म निरपेक्षताके नाम पर कई सारे आघात किये. जो विधर्मी शासकोंने भारत पर शतकों वर्ष तक शासन किया था उनके धर्मको माननेवालोंको रीयायतें दी. वे लोग हिन्दुओंका धर्म परिवर्तन कर सके, उसके लिये भी सुविधायें दी. उनके लिये अलग नागरिक नियम बनायें. बहारसे पैसे लाके ये विधर्मी लोग भारतीय जंगलवासीयोंको, पर्वतवासीयोंको और समूद्रके किनारेके वासीयोंको हिन्दुमेंसे परधर्मी कर सके उसके लिये सुविधायें दी.
अगर कोई विधर्मी, हिन्दु धर्मके विरुद्ध बोलें, तो सरकारका रवैया रहा कि, भारत तो, एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है इसलिये सरकार उसमें दखल नहीं करेगी. वाणीस्वातंत्र्य और अपने धर्मका प्रचार करना विधर्मीयोंका अधिकार माना गया. लेकिन कोइ हिन्दु अगर ऐसा कुछ करें तो उसको धर्मांध कहेना, उसकी हर बातको भगवाकरण मानना, और उसकी निंदा करना एक फेशन मनवायी गयी. भगवाकरण शब्दको गाली के रुपमें प्रस्तूत किया ग्या. आदि आदि
हिन्दुओंको नष्ट करनेका अब यही एक उपाय बचा है कि, सामान्य कक्षाके हिन्दुओंको असंजसमें डालो, अपमानित करो, उनकी यातनाओंकोके प्रति दूर्लक्ष्य दो, विभाजित करो.

जो मूर्धन्य है उनमेंसे अधिकतरोंको तो भ्रष्ट करना आसान है. बाकि जो हिन्दु बचें, उनके विरुद्धमें विवाद खडा करके बदनाम किया जायेगा तो वे तो वैसे ही आम जनताकी नजरोंमेंसे गीर जायेंगे. नरेन्द्र मोदीको क्या किया गया? उसके इतिहास के संदर्भमें दिये गये उदाहरणोंको तोडमोड के प्रदर्शित किया गया, और उनको खुब उछाला. उसकी अंग्रेजी भाषाके उपर बेवजह ही मजाक उडाया. वह अगर किसी बात पर प्राथमिकता दें तो उसके उपर विवाद खडा किया जाता है.

एक बार अगर हिन्दु जनसंख्या ६० प्रतिशत हो जाय तो फिर उनको नष्ट करना आसान है.

सत्तालोलुप विधर्मीयों जिनमें कुछ प्रच्छन्न विधर्मी भी है, उनके लिये यह तो बायें हाथ का खेल है. क्यों कि विधर्मी ख्रिस्ती और मुस्लिम संस्कारमें तो एक समान ही है. दोनों समझते है कि उनका ही धर्म ईश्वरको मंजुर है. और विधर्मीयोंको किसीभी साधनसे नष्ट करना ईश्वरको मंजुर है.

फिलहाल विधर्मीयोंने भारतके कई राज्योंमें अपने बहुमत वाले टापु बना दिये है. ये लोग उनमें बसे हिन्दुओंके उपर आतंक करके उनका धर्म परिवर्तन कर देते हैं. अगर उन्होने धर्म परिवर्तन नहीं किया तो उनको घर छोडके भाग जाने पर मजबुर कर देते हैं. केराला, तामिलनाडु, पश्चिम बंगालके कई कस्बोंका यही हाल है. उत्तरपूर्वी राज्यों पर तो इन्होंनें कबजा जमा ही लिया है.

भारतका सामान्य जन विधर्मीयोंके इस प्रकारके आचारोंसे अज्ञात है. क्यों?

क्यों कि,

समाचार माध्यमों पर इन विधर्मीयोंका कब्जा है.

विधर्मी संचालित समाचार माध्यम अपने धर्मकी आतंकवादकी घटनाओंको प्रसारित करते नहीं है.
कश्मिरके हिन्दुओंके उपर किये गये आतंकको किस चेनलने प्रमाणके आधार पर प्रसारित किया था या किया है? एक भी नही.
विधर्मीयोंका आतंकवाद आज भी चालु है.
लेकिन कौनसी चेनल हिन्दुओंके मानव अधिकारकी रक्षाके लिये जागृत है? प्रमाण भान रखना और विधर्मीयोंके मानव अधिकारको मान्यता देना, इन बातोंमें ये मुस्लिम और ख्रिस्ती लोग मानते ही नहीं है.
एक बात सही है कि सामान्य ख्रिस्ती लोग, हिन्दुओंके विरुद्ध वाचाल नहीं है. वे अलग वसाहत नहीं बनाते है और हमारी ही कोलोनीमें हमारी पडोसमें ही रहेते है और हमसे तदृप होके रहेते है. लेकिन उनके जो मूर्धन्य और धर्मगुरु होते है वे सक्रीय होते है. वे लोग अपनी सामान्य जनताको यही कहेते है कि आप लोग, सिर्फ हम कहें उनको ही, चूनावमें वॉट दो. बाकीका काम हम कर देंगे.

मुस्लिमोंको सही रस्ते पर लाना शायद शक्य हो सकता है. किन्तु ख्रिस्तीयोंको सही मार्ग पर लाना कठिन है. क्यों कि उनको तो समझाया गया है कि आपका उद्धार तो हमने ही किया है. इन भारतवासीयोंने तो आपको हाजारों सालों तक यातनाएं ही दी है. क्यों कि वे हिन्दु है.

आप जरुर कहेंगे कि, पी. के. जिन हिन्दुओंने देखी है उनमेंसे कई हिन्दुओंने उसकी प्रशंसा की है. उसका क्या?

यदि आप प्रशंसा करनेवालोंका वर्गीकाण करेंगे तो उसमें दो प्रकारके लोग है. एक सामान्य कक्षाके लोग, जिनमें कुछ लोगोंका एक स्वभाव होता है कि किसी भी बात को “एक साक्षीभाव”के रुपमें देखें.
जब ऐसा होता है और जब उनको हिन्दु धर्मका शास्त्रीय ज्ञान नहीं होता है तो ये सामान्य लोग, दुसरोंकी व्युह रचनाएं नहीं समझ सकते और व्युहरचना करने वालोंका हेतु भी समझ नहीं सकते. अगर उनमें प्रमाणिक प्रज्ञा और प्राथमिकताती प्रज्ञा होती तो वे व्युह रचना बनानेवालों की व्युह रचना समझ सकते.

आप कहेंगे कि, कुछ मूर्धन्योंने भी तो, पी. के. की प्रशंसा की है, जैसे कि एल के अडवाणी. उसका क्या?
आपकी बात सही है. लेकिन आपको ज्ञात होना चाहिये कि दंभी धर्मनिरेक्षता करनेवालोंने एक ऐसी हवा प्रसारित की है कि, अडवाणी एक सोफ्ट और धर्मनिरपेक्ष नेता है. भारतको एक सोफ्ट नेता पसंद है. जैसे कि अटलजी भी एक सोफ्ट नेता था इसलिये वे भारतीय जनतामें स्विकार्य बने…. आदि… आदि..
वास्तवमें यह “सोफ्ट” वाला मामला एक सियासती व्युहरचना है. भारतीय जनताको एक विकल्प चाहिये था. भारतीय जनता नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके साथीयोंके उनके सीमाहीन भ्रष्टाचार, ठग विद्या, दंभ और कोमवादसे त्रस्त हो गई थी. जब जब भारतीय जनताको विकल्प मिला है, उसने नहेरुवीयन कोंग्रेसको पराजित किया है.

यह बात भी समझ लो कि, नाम बडा हो जानेसे व्यक्ति बडा नहीं हो जाता.

कई बडे व्यक्तिओंमें एक निम्न कक्षाका व्यक्ति होता है.

small people Big name

लालु, माया, मुलायम, जया, करुणा, ममता, नितीश, अडवाणी, केशु, संकरसिंह वाघेला, फारुख, ओमर, मुफ्ती मोहमद, रसिकलाल, जिवराज, हितेन्द्र, ईन्दिरा, राजीव, सोनीया, राहुल …. अगर आप लिखोगे तो एक किताब बन जायेगी.

उपरोक्त लोग दुसरोंके कन्धे पर बैठके बडे नामवाले बने है.

वास्तवमें ये सब निम्न कक्षाके है, और इनलोगोंको नेता मानने वाले तो अति निम्न कक्षाके है.
उसी तरह कई छोटे लोगोंके शरीरमें, एक महान व्यक्ति बैठा हुआ होता है. जैसे नरेन्द्र मोदी, बाबा रामदेव, जोर्ज फर्नाडीस, बाबुभाई जसभाई पटेल, सरदार पटेल, महात्मा गांधी, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती … इन नेताओंकी भी एक सूची बन सकती है जो सामान्य होते हुए भी महान बने.
ऐसे भी कई लोग होते है जो महान होते हुए भी, शक्यताके सिद्धांतके अनुसार महान बन नहीं पाये.

आप कहोगे कि पी. के. में कोई व्युह रचना अगर है भी, तो वह कौन कौन सी व्युह रचना हो सकती है? और ऐसी मान्यताका आधार क्या है?

फिल्म उद्योग काले धनको सफेद करनेका एक सडयंत्र है यह बात सबको ज्ञात है.
पी. के. ने सीनेमा टीकीट का मूल्य बढा दिया था. जो सीनेमाघर खाली थे या “हाउसफुल” नहीं थे उनको भी “फाउसफुल” घोषित किये गये थे.
मान लिजिये अगर एक सीनेमा घरकी बैठकें १००० है. और टीकीटका मूल्य १४० रुपया है. और अगर वास्तवमें २०० टीकीट की ही बीक्री हुई किन्तु हाउसफुल घोषित किया गया तो कितना काला धन सफेद हुआ?
१४० में ४० रुपया सरकारी कर है.
(१) सीनेमा घरके मालिकके पास २०००० रुपये आये.
(२) किन्तु सरकारके हिसाबसे उसके पास १००००० आया.
(३) सरकार सीनेमाघरके मालिक की आवक ८००० मानेगी. उसके उपर ३० प्रतिशत आयकर लगायेगी. यह २४०० रुपये हुए. वास्तविक नफा १६०० था. और वास्तवमें उसको ४८० रुपया आयकर ही भरना था. तो भी उसने २४०० रुपया आयकर भरा. १९२० रुपया अधिक आयकर भरा.
(४) निर्माताने क्या किया? उसने ९२००० का ८ प्रतिशत यानी ७३६० नफा दिखाया, जो वास्तवमें १४७२ था. उसने ५८८८ रुपया ज्यादा दिखाया. मान लो की उसने सीनेमाघरके मालिकने जो १९२० ज्याद कर भरा था उसकी पूर्ती की या न की तो भी उसकी आयका नफा करीब ४००० रुपया हुआ. जो वास्तवमें ८०० रुपया था. ३२०० रुपया नफा ज्यादा दिखाया.
(५) यह तो एक शॉ की बात हुई और नफेकी ही बात हुई. खर्च तो इससे १२ गुना ज्यादा है. वह भी तो काले धनमेंसे खर्च किया था.
युपी और बिहार की जनताने टेक्ष फ्री किया. तो उनको भी हिस्सा मिला होगा जो दानके स्वरुपमें या उनके काले धनमें जायेगा.

यह काला धन सिर्फ काला ही नहीं है. वह लाल भी है. लाल धनसे मतलब है, असामाजीक तत्वोंकी कमाई, जो सुपारी, आउटओफ कॉर्ट प्रोपर्टी सेटलमेन्ट, ड्रग्झ, हवाला आदि सब है. नहेरुवीयन कोंग्रेसने पैदा की हुई दाउद गेंगका बडा नेटवर्क है.

ईन गद्दरोंसे दूर रहो.

शिरीष मोहनलाल दवे
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क्या आप भारतके होतैषी है? और फिर भी क्या आप इनमेंसे कोई एक  वर्गमें भी आते हैं?

अगर हां, तो सावधान !

हम वार्ता करेंगे इन वर्गोंकी जो भारतकी संस्कृति और भारतका भविष्य उज्वल बनाने के लिये भयावह है, विघ्नरुप है और बाधक भी है.

ये लोग कौन कौन है?

(१) ये लोग, अपनेको स्वयं प्रमाणित मूर्धन्य मानते है और अति-वाचाल है,

(२) ये लोग भारतके इतिहाससे या तो अर्धदग्ध है, या तो इन लोगोंने क्षतियुक्त इतिहास, ज्यों का त्यों पढ लिया है, और उसका स्विकार करके अपनी मान्यता बना ली है. वे लोग अपनी इस मान्यताके उपर अटल है,

(३) ये लोग अपनी मान्यताओंको नकारने वाले साहित्यका वाचन करना उचित मानते नहीं है, इस लिये आप उनको शिक्षित नहीं कर सकते.

(४) ये लोग बीजेपी या/और नरेन्द्रके विरोधी हो सकते है,

(५) ये लोग देश द्रोही हो सकते है,

(६) ये लोग “जैसे थे” वादी हो सकते है,

(७) ये लोग नकात्मक मानसिकता वाले हो सकते है,

(८) ये लोग मूर्ख और मूढ हो सकते है,

(९) ये लोग नहेरुवंशके चाहक या/और उनकी विचार/आचार धाराके चाहक हो सकते है,

(१०) ये लोग महात्मा गांधीके विरोधी, या/और उनकी विचारधारा के विरोधी हो सकते है,

(११) ये लोग गोडसेके चाहक या/और उसकी आचार धाराके चाहक हो सकते है,

(१२) ये लोग अहिंसा और हिंसा कहां योग्य है और कहां योग्य नहीं है इस बातको अवगत करनेकी वैचारिक शक्ति नहीं रखते है,

(१३) ये लोग भारतके हितमें क्या है और कैसी व्युह रचना बनानी आवश्यक है, इन बातोंको अवगत करनेमें असमर्थ है  या/और,  जिन लोंगोंने नरेन्द्र मोदीका और भारतीय हितोंका पतन करनेकी ठान ली है उनकी व्युहरचनाको अवगत करनेकी उनमें क्षमता नहीं है,

(१४) ये लोग जिन्होनें अपना उल्लु सीधा करनेके लिये भारतकी जनताको और/या भारतको और विभाजित करनेका अटल निश्चय किया है,

(१५) ये लोग जो अपना उल्लु सीधा करनेके लिये, नरेन्द्र मोदी और बीजेपीके विषयमें आधार हीन, या/और विवादास्पद वार्ताएं बनाते हैं, उछालते हैं और हवा देते हैं,

(१६) ये लोग जो, या तो अपने धर्मके विषयमें अंध है, या परधर्मके बारेमें या/और परधर्मीयोंके विषयमें सतत धिक्कारकी मानसिकता या/और आचार रखते है,  

(१७) ये लोग स्वयंको धर्मनिरपेक्षके रुपमें प्रस्तूत करते हैं, किंतु उनके रोम रोममें, नरेन्द्र मोदी या/और, बीजेपी या/और सनातन धर्म या/और भारतीय प्राचीन धरोहर के प्रति अस्विकृतिकी मानसिकता या/और घृणा है,

(१८) ये लोग एक विवादास्पद तारतम्य की सत्यताको सिद्ध करनेके लिये दुसरे विवादास्पद तारतम्यका आधार लेते है और अपने निर्णय को तर्कयुक्त मानते है और मनवाते है,

(१९) ये लोग पाश्चात्य साहित्य, इतिहास लेखन, दृष्टिकोण, प्रणालियां या/और व्यक्तियोंसे अभिभूत है.

इन सबकी वजह यह है कि, इन लोगोंमें प्रमाणभानकी और प्राथमिकताकी प्रज्ञा नहीं है, इस लिये ये लोग आपसे एक निश्चित विचार बिन्दु पर चर्चा नहीं करपायेंगे और करेंगे भी नहीं. वे दुसरा विचार बिंदु पकड लेंगे,

अगर आप इनमेंसे कोई भी एक वर्गमें आते है और तत्‌ पश्चात्‌  भी स्वयंको भारतके हितमें आचार रखने वाले मानते हैं, तो आप अवश्य आत्ममंथन करें. यदि आप आत्ममंथन नहीं करेंगे तो भारतके हितैषीयोंको आपसे सावध रहेना पडेगा.

(१) ये लोग, अपनेको स्वयं प्रमाणित मूर्धन्य मानते है और अति-वाचाल है;

भारत ही नहीं किन्तुं दुनियाका मध्यमवर्ग सोसीयल मीडीयासे संबंधित है. समाचार माध्यममें भी कई लोग ऐसे है, जो अपनेको मूर्धन्य मानते है और इस प्रकारसे अपने अभिप्राय प्रकट करते रहेते हैं.

समाचारपत्र और विजाणुमाध्यम का प्राथमिककर्तव्य है कि वे जनताकी अपेक्षाएं और मान्यताओंको प्रतिबिंबित करें और उनके उपर सुज्ञ व्यक्तियोंकी तात्विक चर्चा करवायें.

जो व्यक्ति चर्चा चलाता है उसका कार्यक्षेत्र संसदमें जो कार्यक्षेत्र संसदके अध्यक्षका होता है, उसको निभाना है, किन्तु वह ऐसा करनेके स्थानपर अपनेविचारसे विरोधी विचार रखने वाले पक्षके वक्ताके प्रति भेदभावपूर्ण वर्तन करता है. कई बार वह चर्चाको, उस चर्चा बिन्दुसे दूर ले जाता है. चर्चाको निरर्थक कर देता है. बोलीवुडके हिरोकी तरह वह खुदको ग्लोरीफाय करता है. अर्णव गोस्वामी, पंकज पचौरी, करण थापर, राजदिप सरदेसाई, राहुल कनवाल, विनोद दुआ, पून्यप्रसून बाजपाई, आशुतोष, निधि कुलपति, बरखा दत्त, नलिनी सिंग, आदि कई सारे हैं. जिनकी एक सुनिश्चित एवं पूर्वनिश्चित दिशा होती है.  चर्चाद्वारा वे उसई दिशामें हवा बनानेका प्रयास करते हैं. अधिकतर विजाणु संचार प्रणालीयां ख्रिस्ती और मुस्लिम संस्थाओंने हस्तगत की है, इस लिये उनकी दिशा और सूचन पूर्वनिश्चित होता है.

प्रभु चावला, डॉ. मनीषकुमार, संतोष भारतीय, सुरेश चव्हाण जैसे सुचारु रुपसे चर्चा चलाने वाले चर्चा संचालक अति अल्प संख्यामें हैं.

कुछ कटारलेखक (कॉलमीस्ट) होते हैं जो मनमानीसे समाचारपत्रमें वे अपनी अपनी कॉलम चलाते है. वे सब बंदरके व्यापारी होते है.

सोसीयल मीडीयामें कई मध्यम वर्गके, मेरे जैसे लोग भी होते है. जो अपने वेबसाईट ब्लॉग चलाते है और अपनी प्रतिक्रिया देते रहते हैं.

इनमें हर प्रकारके लोग होते हैं. कुछ लोग अ-हिन्दु होते हुए  भी हिन्दु नाम रखकर, हिन्दुओंको असंमंजसमें डालनेका काम करते है. अल्पसंख्यक होने पर भी नरेन्द्र मोदी और बीजेपीको समर्थन करनेवाले बहुत ही कम लोग आपको सोसीयल मीडीयामें मिलेंगे.

(२) ये लोग भारतके इतिहाससे या तो अर्धदग्ध है, या तो इन लोगोंने क्षतियुक्त इतिहास ज्यों का त्यों पढ लिया है और उसका स्विकार करके अपनी मान्यता बना ली है और अपनी इस मान्यताके उपर अटल है;

aryan invasion

अंग्रेज सरकार के हेतु और कार्यशैलीसे ज्ञात होते हुए भी,  अज्ञानी की तरह मनोभाव रखना इन लोगोंका लक्षण है.

यह बात दस्तावेंजों द्वारा सिद्ध हो गई है कि अंग्रेज सरकारका ध्येय भारतीय जनताको विभाजित करके उनको निर्बल बनाना और निर्‍विर्य बनाना था. भारतके प्राचीन ग्रंथोंको आधारहीन घोषित करना. उनको सिर्फ मनगढंत मनवाना, और अ-भारतीयोंने जो लिखा हो या तो खुदने जो तीकडमबाजी चलाके कहा हो उसको आधारभूत मनवाना और उनको ही शिक्षामें संमिलित करना, अंग्रेजोंकी कार्यशैली रही है.

उन्होने पौराणिक इतिहासको नकार दिया. उन्होने “आर्य” को एक प्रजाति घोषित कर दिया. उन्होंने आर्योंकों आक्रमणकारी और ज्यादा सुग्रथित व्यवस्थावाले बताया. भारतमें इन आर्योंका आगमन हुआ, आर्योंको, उनके घोडेके कारण विजय मीली. उन्होने भारतवासी प्रजाको हराया. उन्होने उनके नगर नष्ट किये. उन्होने पर्वतवासी, जंगलवासी आदिवासीयों पर भी आक्रमण किया. सबको दास बनाया.

इस प्रकार भारतको आदिवासी, द्रविड और आर्य जातिमें विभाजित कर दिया. आज करुणानिधि, जयललिता, मायावती, उत्तरपूर्वके वनवासी नेतागण आदि सभी लोगोंकी मानसिकता जो हमें दिखाई देती है, यह बात इस विभाजनवादी मान्यताका दुष्‌परीणाम है.

अंग्रेज सरकारने दुषित, कलुषित और अनर्थकारी इतिहास पढाके, भारतवासीयोंमें अपने ही देशमें अपने ही देशकी उत्तमोत्तम धरोहरसे वंचित रहेनेकी मानसिकता  पैदा की है. इन दुषित मान्यतांके मूल इतने गहन है कि अब अधिकतर विद्वान उसके उपर पुनः विचार करना भी नहीं चाह्ते, चाहे इस इतिहासमें कितना ही विरोधाभास क्यूं न हो.

इन विषयों पर चर्चा करना आवश्यक नहीं है. क्यों कि कई सुज्ञ लोगोंने जिन्होनें भारतीय वेद, उपनिषद और पुराण और आचारोंद्वारा लिखित ग्रंथोंका अध्ययन किया है उन्होनें इस विभाजनवादी मान्यतामें रहे विरोधाभासोंको प्रदर्शित करके अनेक प्रश्न उठाये है. इन प्रश्नोंका तार्किक उत्तर देना उनके लिये अशक्य है. इस विभाजनवादी मान्यताको दयानंद सरस्वती, सायणाचार्य, सातवळेकर और अनेक आधुनिक पंडितोंने ध्वस्त किया है. इसके बारेमें ईन्टरनेट पर प्रचूरमात्रामें साहित्य उपलब्ध है.  

विभाजनवादी अंग्रेज सरकारने भारतीयोंको कैसे ठगा?

जो लोग अपनेको आदिवासी मानते हैं वे समझते है कि भारतमें स्थायी होनेवाले आर्योंने हमपर सतत अन्याय किया है. हमारा शोषण किया है. ये जो नये आर्य (अंग्रेज ख्रिस्ती) आये है वे अच्छे हैं. ख्रिस्ती बनाके उन्होने हमारा उद्धार किया है.

उदाहरण के आधार पर, आप, मेघालयकी आदिवासी “खासी” प्रजा को ही लेलो. पहेले उनकी भाषा सुग्रथित लिपि देवनागरी लिपि की पुत्री, बंगाली लिपिमें लिखी जाती थी. लेकिन जब वहां ख्रिस्तीधर्मका प्रभाव बढा और उनको एक अलग राज्यकी कक्षा मिली, तो उन्होने रोमन लिपि अक्षर लिपि है, जो उच्चारोंके बारेमें अति अक्षम है उस “रोमन” लिपिको अपनी लिपि बना ली.

आदिवासी जनताके मनमें ऐसी ग्रंथी उत्पन्न कर दी है कि उनको भारतीय साहित्य, कला, स्थापत्य और संस्कृति पर जरा भी गौरव और मान  ही न रहे. वे इनको पराया  मानते है.   

मुस्लिम लोग तो अपनेको भारतीय संस्कृतिको अपना अंग मानते ही नहीं है. उनकी तो मान्यता है कि, भारतके आर्य तो एक विचरित जातिके थे. उन्होने भारतकी मूल सुसंस्कृत जनताकी संस्कृतिको ध्वस्त किया. इन भारतीयोंको हमने ही सुसंस्कृत किया है.

भारतीय गुलामी

भारतीय जनता हमेशा युद्धमें हारती ही रही है, कुछ लोग इस गुलामीका अंतराल २३०० से १२०० सालका मानते है.

अलक्षेन्द्रने भारत के एक सीमान्त राजा पर्वतराजको हराया, तो बस समझ लो पूरे भारतकी गुलामी प्रारंभ हो गई. या तो कोई मुस्लिम राजाने १२०० साल पहेले सिंधके राजाको हराया तो १२००से पूरा भारत गुलाम हो गया. बस साध्यं इति सिद्धं. 

वास्तवमें क्या था?  वास्तवमें मुस्लिम राजाओंको ६०० साल तक भारतके अधिकतर राजाओंको हराने के लिये परिश्रम करना पडा था.

विजयनगरका साम्राज्य एक मान्यताके अनुसार मोगल साम्राज्यसे भी बडा था. मुगलसाम्राज्यका जो स्वर्णयुग और मध्यान्हकाल था उस अकबर के समयमें भी, अकबरको राणा प्रतापको हराना पडा था. और बादमें राणाप्रतापने अपना युद्ध जारी रखके चित्तोर को छोडकर अपनी धरती वापस ले ली थी. औरंगझेबके समयमें भी शिवाजी जैसे विद्रोही थे जिन्होने औरंगझेबकी सत्ता को नष्टभ्रष्ट कर दिया था.

एक बात और है. क्या मुगलका समय भारतीयोंके लिये गुलामीका समय था?

शेरशाह के समयसे ज्यादातर मुस्लिम राजाओंने भारतको अपना ही देश समझा है. भारतीय संस्कृतिका आदर किया है. उन्होने ज्यादातर एक भारतीय राजाके संस्कारका ही आचारण किया है. दुराचारी तो कोई न कोई राजा होता है चाहे वह हिन्दु हो या मुस्लिम हो.

किन्तु अंग्रेज सरकारने यह पढाया कि मुस्लिम धर्मवाले राजा मुस्लिम होनेके कारण हिन्दुओंकी कत्लेआम किया करते थे. अगर ऐसा ही होता तो अकबर और औरंगझेबके सैन्यमें हिन्दु सैनिक नहीं होते और शिवाजीके सैन्यमें मुस्लिम सैनिक नहीं होते. इतना ही नहीं, बहादुर शाह जफर जिसका राज्य सिर्फ लालकिलेकी दिवालों तक सीमित था, तो भी  उसके नेतृत्वमें विप्लव करना और उसको भारतका साम्राट बनाना ऐसा १८५७में निश्चित हुआ था. यदि मुस्लिम राजा हिन्दुस्तानी बन गये नहीं होते तो ऐसा नहीं होता. इस बातसे समझ लो कि मुगल साम्राज्य विदेशी नहीं था. जैसे शक, पहलव, गुज्जर, हुन जैसी जातियां भारतके साथा हिलमिल गई, वैसे ही मुस्लिम जनता भी भारतसे हिलमील गई थीं. अंग्रेजोने अत्याचारी मुस्लिम राजओंका इतिहास बढाचढाके पढाया है.

कोई देश गुलाम कब माना जायेगा?

कोई देश तभी गुलाम माना जायेगा जब उसकी धरोहर नष्ट कर दी जाती है. राजा बदलनेसे देश गुलाम नहीं हो जाता. मुस्लिम राजाओंने और मुस्लिम जनताने भी भारतकी कई प्राणालीयोंका स्विकार किया है. अगर आप पंजाबी मुस्लिम (पाकिस्तान सहितके),  और पंजाबी हिन्दु के लग्नमें जाओगे तो पाओगे कि दोंनोमें एकसी पगडी पहेनते है. स्त्रीयां एक ही प्रकारके लग्नगीतें गातीं हैं. ऐसा ही गुजरातमें हिन्दु और मुस्लिमोंका है. हां जी, लग्नविधि भीन्न होती है. वह तो भीन्न भीन्न प्रदेशके हिन्दुओंमे भी लग्न विधिमें भीन्नता होती है.

भारतके मुस्लिम कौन है? अधिकतर तो हिन्दु पूर्वजोंकी संतान ही है. भारत पर मुस्लिम युगका शासन रहा है तो कुछ राजाओंने जबरदस्ती की ही होगी. उन्होने लालच भी दिया  होगा. कुछ लोगोंने राजाका प्रियपात्र बननेके लिये भी धर्म परिवर्तन किया होगा. सम्राट अशोकने ज्यादातर भारतीयोंको बौद्ध बना दिये थे. किन्तु भारतीय तत्वज्ञान और प्रणालीयां इतनी सुग्रथित और लयबद्ध है कि, सनातन धर्मने अपना वर्चस्व पुनः प्राप्त कर लिया. आदि शंकराचार्यने बौद्धधर्मको नष्टप्राय कर दिया.

क्या मुस्लिमोंने हिन्दुओं पर बेसुमार जुल्म किये थे?

अपना उल्लु सीधा करने के लिये कई लोग अफवाहें फैलाते हैं और शासक सम्राट को मालुम तक नहीं होता है. ऐसी संभावना संचार प्रणाली कमजोर होती है वहां तो होता ही है. कभी शासक, इसका लाभ भी लेता है.

१९७५में जब नहेरुवीयन महाराणीने आपातकाल लगाया तो कई सारे नहेरुवीयन नेताओंने और कार्यकरोंने अपना उल्लु सीधा किया था. वैसे तो संचारप्रणाली इतनी कमजोर नहीं थी किन्तु इस नहेरुवीयन फरजंदने सेन्सरशीप लगाके जनतामें वैचारिक आदानप्रदानको निर्बल कर दिया था. जब इन्दीरा हारी तो उसने घोषित किया कि उसने तो कोई अत्याचारके आदेश नहीं दिये थे.

औरंगझेब एक सच्चा मुसलमान था. वह अपनी रोटी अपने पसीने के पैसे से खाता था. राजकोषके धनको वह खुदका धन मानता नहीं था. वह सादगीसे रहता था. शाहजहांके समयसे चालु मनोवृत्तिवाले  अधिकारीओंको औरंगझेबकी नीति पसंद न पडे यह स्वाभाविक है. वे अपना उल्लु सीधा करनेके लिये और औरंगझेबका स्नेह पानेके लिये या तो अपनी शासन शक्ति बढानेके लिये औरंगबके नामका उपयोग करते भी हो. औरंगझेबको कई बातें पसंद भी हो. उसने उच्च ज्ञातिके हिन्दुको मुस्लिम धर्म स्विकृत करने के  लिये (वन टाईम लम्पसम मूल्य) १००० रुपये, और गरीब के लिये हर दिनके ४ रुपये निश्चित किये थे. अगर सिर्फ अत्याचार ही करने के होते तो ऐसा लालच देना जरुरी नहीं था. अवगत करो, कि उस समयमें रु. १०००/- और प्रतिदिन रु.४/- कोई कम मूल्य नहीं था. उन हिन्दुओंको प्रणाम करो कि वे विभाजित होते हुए भी हिन्दुधर्मके पक्षमें रहे.

हां जी, मुस्लिमोने भारतके कई मंदिर तोडे. मंदिर तोडनेका और जहां मंदिर तूटा है, वहां ही अपना धर्मस्थान बनाना यह बात ईसाई और मुस्लिम शासक और धर्मगुरुओंकी नीति और संस्कार रहा है. ऐसा व्यवहार इन दोंनोंने ईजिप्त, पश्चिम एसिया, ओस्ट्रेलीया, अफ्रिका और अमेरिकामें किया ही है. यहां तक कि ईसाईयोंने और कुछ हद तक मुस्लिमोंने भी, पराजितोंकी स्थानिक भाषाको भी नष्ट कर दिया है.

किन्तु भारतमें ये लोग ऐसा नहीं कर पाये. क्यों कि भारतीय तत्वज्ञान, भारतीय भाषाएं और भारतीय प्रणालियां,  भारतीय जिवनके साथ ईतनी सुग्रथित है कि उनको नष्ट करने के लिये ये लोग भारतमें अक्षम सिद्ध हुए.

ऐसा क्यों हुआ? कौटिल्यने कहा था कि एक सरमुखत्यार राजासे एक गणतंत्रका नेता १०० गुना शक्तिशाली है. कारण यह है कि सरमुखत्यार की शक्ति उसका सैन्य है. गणतंत्रके नेताकी शक्ति उसका सैन्य ही नहीं किन्तु साथ साथ जनता भी है. गणतंत्रमें चर्चा और विचारोंका आदानप्रदान क्षेत्र व्यापक रुपसे होता है. और जो निर्णय होता है वह सुग्रथित और उत्कृष्ट होता है. भारतीय सनातन तत्वज्ञान कर्मधर्म, प्रणालियां आदि सहस्रोंसालोंके आचारोंके अनुभवओंसे सुग्रथित है और अपनी एकात्मताकी रक्षा करते हुए परिवर्तन शील भी रहा है. धर्मके बारेमें चर्चा करना और वैश्विक भावना रखकर तर्कबद्ध निर्णय करना, अन्य धर्माचार्योंके मस्तिष्ककी सीमाका क्षेत्र है ही नहीं.

ऐसे कई कारण है कि जिनकी वजहसे सनातन धर्म सनातन बना. हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे.

किन्तु हमें किससे क्यूं सावधान रहेना है?

(३) ये लोग अपनी मान्यताओंको नकारने वाले साहित्यका वाचन करना उचित मानते नहीं है, इस लिये आप उनको शिक्षित नहीं कर सकते.

हमें नहेरुवीयन कोंग्रेस और उनके सांस्कृतिक साथी पक्षोंसे सावधान रहेना है, क्योंकि वे कुत्सित इतिहासके आधारपर भारतको विभाजित करने वाले ठग है.

इन नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंने महात्मा गांधीवादी जयप्रकाश नारायण तक को, छोडा नहीं था, उनको हम कैसे क्षमा दे सकते है?

इन नहेरुवीयन कोंग्रेसीयोंने गांधीजीके सिद्धांतोंका और तथा कथित समाजवाद का नाम मात्र लेकर, अशुद्ध आचारद्वारा सत्ता प्राप्तिका ध्येय  रक्खा है. देशके उपर ६० सालके निरंकुश शासन करने के पश्चात भी, प्राकृतिक संशाधन प्रचूर मात्रामें होने के पश्चात भी, उत्कृष्ट संस्कृति होनेके पश्चात भी, गरीबोंका और समाजका उद्धार किया नहीं है. केवल और केवल खुदकी संपत्तिमें वृद्धि की है. देशको रसाताल किया है. इन लोगोंका तो कभी भी विश्वास करना नहीं चाहिये. ये लोग सदाचारी बन जायेंगे ऐसा मानना देशद्रोह के समकक्ष ही मानना अति आवश्यक है.

यदि आप, अंग्रेजी शासकोंने जो कुत्सित और विभाजनवादी इतिहास पढाया उसको अगर विश्वसनीय मानते है, और उनसे अतिरिक्त इतिहासक सत्यको मानना नकारते है तो, निश्चित ही समझलो, कि भारतका विकास एक कल्पना ही रह जायेगा.

चौथा कौनसा वर्ग है जिनसे हमें सावध रहेना है?

(४) ये लोग बीजेपी या/और नरेन्द्रके विरोधी हो सकते है,

(क्रमशः)

चमत्कृतिः

एक ऐसी बात है कि, औरंगझेबने काशीमें इतने ब्राह्मणोंकी हत्या की, कि, उनके उपवित (जनेउ) का वजन ही, ४० मण था.

चलो देखें उसका कलनः

एक उपवितका वजन = ग्राम

४० मण उपवित (जनेउ).

एक मण = ४० किलोग्राम = ४०००० ग्राम,

४० मण = ४० x ४०००० = १६००००० ग्राम.

एक जनेउ = ग्राम = ब्राह्मण

१६०००००/ = ३२०००० ब्राह्मणोंकी हत्या. क्या बनारसमें तीन लाख ब्राह्मण की हत्या हुई थी?

अगर आधे ब्राह्मणोंको मार दिया, तो बचे लितने. ३२००००. दुसरे किसीकोभी नहीं मारे तो मान लो कि ५० % ब्राह्मण थे और बाकी अन्य थे तो काशीकी जनसंख्या हुई १२६००००/-

इनता बडा नगर उस जमानेमें दुनियामें कहीं नहीं था. आग्रा सबसे बडा नगर था और उसकी जनसंख्या ५००००० पांच लाख थी.

अगर ३० हजार मनुष्योंकी हत्या होती है तो भी निरंकुश महामारी फैल सकती है.

  

शिरीष मोहनलाल दवे

टेग्झः इतिहास, अंग्रेज, संस्कृति, संस्कार, सुग्रथित, लयबद्ध, तर्कबद्ध, धरोहर, विभाजनवादी, भाषा, धर्म, सनातन, मुस्लिम, ईसाई, राजा शासक, गणतंत्र, कौटिल्य, गुलामी

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